ब्रह्मचारी कृष्णदत्त जी के प्रवचन से दीपोत्सव पर्व का महत्त्व और ऐतिहासिकता
दीपावली पर्व
सृष्टि के आदि काल से
आयोजित होता हुआ पर्व
मेरे
प्यारे महानन्द जी आज मुझे प्रेरणा देते चले जा रहे हैं कि आज वह पुनीत दिवस है,आज वह सूर्य दिवस माना गया है,प्रकृति
पर्व माना गया है,चन्द्र पर्व,माना गया है। जिसको
हमारे यहाँ परम्परा से ही मनाया जाता रहा है। मेरे प्यारे महानन्द जी
दीपमालिका के सम्बन्ध में कुछ अपना प्रकाश चाहते हैं और इनकी इच्छा यह भी है कि
मैं भी दो शब्दों में दीपावली के सम्बन्ध में अपना वाक्य प्रकट कर सकूं।
तो
आज का यह वह परम पुनीत पर्व है जिस दिवस पर
हमारे महापुरुषों के द्वारा राष्ट्र में दीपावली के दिवस का आयोजन होता था। मुझे वह भगवान् राम का काल
स्मरण आता रहता है,उससे पूर्व रधु परम्परा
थी। भगवान् कृष्ण का आदर्श जीवन था। वह मुझे स्मरण आ रहे हैं, क्योंकि उस समय जो मानवीय पद्धति थी,उसी पद्धति के आधार पर दीपमालिका का निर्माण होता है। क्योंकि आज का वह पुनीत दिवस है,जिस दिवस कृषक के गृह में अन्न आता भी है और पृथ्वी के गर्भ में बीज की स्थाना करता भी है।
आज के दिवस पृथ्वी के गर्भ में बीज की स्थापना करने के पश्चात् कृषक अपने कुटुम्ब
को लेकर सुन्दर यज्ञ करता है। क्योंकि वेद के अनुसार उस प्रकृति की उपासना, सुगन्धिदायक पदार्थों के द्वारा ,दीपमालिका के पर्व के द्वारा उपासना करता है दीप कहते हैं प्रकाश को और मालिका कहते हैं,जो प्रकाश से बिंधी हुई हो। यह जो प्रकृति है,इसको दीपमालिका कहते है। प्रकृति ब्रह्म की चेतना से गतिशील दृष्टिपात हो रही है,इसीलिए इसको हमारे यहाँ दीपमालिका कहा जाता है। तो हमारे यहाँ
कृषकों ने कहा है,राजाओं ने कहा है,सब प्रजाओं ने कहा कि भई! अब
यज्ञ करो। क्योंकि इससे हम दीपमालिका की उपासना करें। हम देवी सम्प्रदायवादी बनें,देवी की उपासना करें,देवी नाम प्रकृति को कहा
गया है,जो प्रकाश से पिरोई हुई है। एक एक कण,जितना परमाणुवाद है,अणुवाद है जितना भी इसमें
सूर्य,चन्द्रमा,नाना प्रकार के नक्षत्र अपनी-अपनी गति पर रमण कर रहे हैं,भ्रमण करने के नाते,उसको दीपमालिका कहा जाता
है। जैसा प्रकाश देने वाले तारा मण्डल होते हैं,परन्तु
एक ऋतु में पिरोएं हुए होते हैं,उनकी एक मालिका होती है,जैसे मनके और धागा होता है और वह माला कहलाई जाती है,तो वह दीपमालिका कहलाई जाती है।
तो
दीपमालिका का महत्व हमारे इस मानव शरीर से भी सुगठित रहता है। इसमें भी प्रकृति अपना कार्य
करती रहती है। दीपमालिका अपना कर्त्तव्य करती रहती है। और वह एक-एक कण में ,उस पुनीत आत्मा से,चेतना से पिरोया हुआ होता है। इसीलिए इसको दीपमालिका कहा जाता
है।
हमारे
यहाँ परम्परा में भगवान् राम के काल में,तथा इससे भी पूर्व काल
में ,मनु परम्परा में एवं राष्ट्रीय परम्परा
में भी इस प्रकार का उद्योग किया गया,कि प्रत्येक मेरी
पुत्रियों को,मानव को और माताओं को अपने गृहों में
प्रकाश करना चाहिए। जिससे यह प्रकृति प्रकाश से आच्छादित हो जाएं। । सुगन्धि में
ओत-प्रोत होती हुई,प्रकृति का कण-कण सुगन्धिदायक बन जाएं।
जिससे कृषक की जो कृषि है,वह पवित्र और महान होगी।
पृथ्वी के गर्भ में दुर्गन्धि के स्थान में सुगन्धि ओत-प्रोत होकर के मानव का हृदय वास्तव में परिवर्तनशील बनता चला जाएं।,क्योंकि संसार में जितना भी आयोजन है,दीपमालिका हो,होलिका हो,कोई भी किसी प्रकार का पर्व हो,परन्तु उसमें मानव के हृदय को परिवर्तन करने का प्रयास किया जाता
है।
दीपावली
पर्व पर शारीरिक प्रभाव
हमारे
यहाँ परम्परा में एक वाक्य ओर माना गया है,कि भगवान् राम का
लंका विजय के पश्चात् दीपमालिका के दिन ही राजतिलक किया गया था। उससे पूर्व काल से
भी ,यह दीपमालिका का पर्व, तो सृष्टि के आदि से चला आ रहा है। देवताओं ने इसे अपना पर्व
चुना है। क्यों चुना है? प्रकृति की उपासना करने
के लिए,जिससे प्रकृति हमारे शरीर में कार्य करती
रहे। वैज्ञानिक रूपों से कुछ ऐसा भी माना गया है कि यह जो शरद ऋतु आती
है,इसमें मानव के शरीर में पित्त प्रधान
होता है। उसकी शान्ति के लिए प्रकृति में सुगन्धि होना चाहिए। जिससे प्रकाश हो। पित्त
की प्रधानता में,तेज की प्रधानता में,सुगन्धि जब मानव के हृदयों में प्रविष्ट होती चली जाएगी,तो उस समय मानव का हृदय मानवता से पुनीत और पवित्रता में परिणत
होता चला जाएगा और भी कई वैज्ञानिक सिद्धांत हैं,कि यह जो पृथ्वी है,कृषक की जो भूमि है,इसमें में जो अन्न की उपज होती है,अन्न
आता है, इससे अन्न में नाना प्रकार की वनस्पतियों का शोधन
किया जाता है। अपने तेज के द्वारा,यज्ञ की क्रियाओं द्वारा
अन्न भी पवित्र होता है। चन्द्रमा की जब कान्ति आती हैं,चन्द्रमा की कान्ति आज नहीं है,आगे
भी आती रहेगी। आचार्य कहते हैं कि चन्द्रमा की कान्ति की उपासना की जाती है,क्योंकि चन्द्रमा की कान्तियों से विशेषकर पृथ्वी का सम्बन्ध
होता है। मानव के जीवन में अमृत और शीतलता को प्रविष्ट किया जाता है। इसलिए
आचार्यो ने कहा कि इसमें सुगन्धि होनी चाहिए। वेद के पण्डितों के द्वारा यज्ञ होने चाहिए। नाना प्रकार के
वेद मन्त्रों के पाठ द्वारा,वेद की प्रतिभा,वेद का ज्ञान मानव के
समीप होना चाहिए।
इस ऋतु में ऐसा भी माना गया है कि यह तेज की ऋतु है। इसमें सब महापुरुषों को एकत्रित हो करके विचार विनिमय प्रारम्भ करना
कर्त्तव्य है। क्योंकि हे मानव!अब शरद् ऋतु का काल आ रहा
है,हेमन्त ऋतु आने वाली है,इन ऋतुओं में अपने जीवन
का आहार और व्यवहार पवित्र बनाना चाहिए। इस प्रकार हमारे यहाँ महापुरूषों की
विचारधारा वास्तव में परम्परा से ही मानी गई है।
भगवान्
मनु का जन्म
हमारे
यहाँ भगवान कृष्ण के राष्ट्र में भी प्रायः ऐसा होता रहा है। आज दीपावली के दिवस उस पुनीत
आत्मा,भगवान मनु जी का जन्म हुआ था। जिसने सबसे
प्रथम राष्ट्र का निर्माण किया था। सब ऋषि मुनियों ने उत्सव मनाया था । प्रत्येक
गृह में प्रसन्नता हुई। भगवान मनु से पूर्व संस्कार में कोई राजा नहीं था। आज का दिवस यह भी है,जिस दिवस में आचार्यों ने सबसे प्रथम यज्ञ किया था। सबसे प्रथम
आदित्य,अंगिरा,वायु इत्यादि ऋषियों ने अपने अपने वेद की पोथी को लेकर के, वेदों के कुछ चुने हुए मन्त्रों को लेकर के,यज्ञ किया था। दीपावली का पूजन किया। प्रकृति का पूजना करना इस शरद् ऋतु में बहुत ही
अनिवार्य होता है। क्योंकि ऋतु नाम भी प्रकृति को कहा जाता है। इसीलिए
हमारे यहाँ परम्परा से,वैज्ञानिक रूपों से ऐसा
माना गया है। आचार्यों ने कहा,महर्षि वायु जी ने,अंगिरा जी से कहा कि महाराज! ऐसा क्यों है,उन्होंने कहा कि आज का
दिवस,वह दिवस है जब सबसे प्रथम हमारे यहाँ यज्ञ का आयोजन होता है।,
आदि
काल से दीपावली पर्व
क्योंकि
श्रावणी के पर्व पर वेदों का निर्माण हुआ,उसके
पश्चात् यज्ञों का प्रार्दुभाव हुआ, क्योंकि आदि ब्रह्मा से
सृष्टि के प्रारम्भ में यज्ञ का प्रार्दुभाव होता है। ऐसा कहा है कि यज्ञ करने से
ही मेघों की उत्पत्ति होती है। जलों का उत्थान होता है। उसी से सुन्दर सृष्टि हुआ
करती है। कृषक की भूमि पवित्र होती है।नाना प्रकार की वनस्पतियों का जन्म होता है।
क्योंकि मानव के जीवन का जो निर्माण है,मानव के जीवन की जो
ख्याति है वह इस प्रकृतिवाद से,प्रकृति में नाना प्रकार
की वनस्पतियों से हुआ करती है। अन्न से ही मानव के जीवन का निर्माण होता है।
इसीलिए आज का यह पुनीत दिवस
है,जो सृष्टि के आदि से चला आ रहा है। सहस्रों
वर्ष हो गएं,जब अंगिरा आदि ऋषियों ने वेदों के द्वारा
इस संसार में सबसे प्रथम यज्ञ किया था। आज हमें अपनी उस मानवता पर सदैव विचार करना चाहिए।
उसके
पश्चात् परम्परा से राजाओं के गृह में यज्ञ होता,राष्ट्र
में,प्रजा को सुन्दर उपदेश देना,हमारे यहाँ चला आ रहा है। जहाँ वेद का निर्माण है,वेद की प्रतिभा का वर्णन आता है वहाँ चरित्र का भी वर्णन आता है।
क्योंकि मानव के जीवन का सम्बन्ध मानव के चरित्र से विशेषकर रहता है। मेरी प्यारी
माताओं के विज्ञान से विशेष कर रहता है। मेरी प्यारी माता के शरीर में जितना
विज्ञान है,प्रभु ने दिया है,उस विज्ञान के साथ वेद की प्रतिभा,वेद का अध्ययन करना शिरोमणी माना गया है।
दीपावली
पर वेद विमर्श
हमारे
यहाँ माता अनुसूया ने आज के दिवस महर्षि अत्रि मुनि महाराज से मध्यम रात्रि में
कहा कि प्रभु!आज के दिवस हमें क्या
करना चाहिए?महर्षि अत्रि मुनि ने कहा था,हे प्रिय देवी! आज के दिवस तुम्हें वेद
की प्रतिभा को जान लेना चाहिए। क्योंकि माताओं के द्वारा विशेषकर कई विद्याएं होती
है। एक तो आयुर्वेद का जितना ज्ञान मेरी पवित्र माता को होना चाहिए,उतना पुरुषों को नहीं होना चाहिए। माता का जो जीवन है वह दर्शनों
से सुगठित रहता है। दर्शनों से विशेष सम्बन्ध रहता है। क्यों रहता है? क्योंकि जितना भी माता के द्वारा दर्शन होगा,उतना ही माता के गर्भ स्थल में होने वाला बालक हैं,उसका निर्माण भी दार्शनिक होता चला जाएगा। माता का जी गर्भाशय है,वह संसार में सबसे प्रथम विश्वविद्यालय कहलाया गया है,जहाँ विश्व का जो ज्ञान राष्ट्र में नहीं होता है,वह माता के गर्भस्थल में हो जाता है। यदि माता सम्पन्न विद्या से
सुशोभित हो,तो ऐसा हमारे यहाँ परम्परा से माना गया
है।
तो
आज हम परम्परा को अपनाने का प्रयत्न करें। उसको शुद्ध रूपों में लाने का जो ऋषि मुनियों
ने अपनी शुद्ध भावनाओं से,शुद्ध विचारों से,राजा महाराजाओं ने सब ने इसको पवित्र हृदय से माना है, उसी शुद्ध हृदय से यदि हम स्वीकार करते रहेंगे,तो हमारा जीवन सुन्दर बनेगा,महान बनेगा,पवित्र बनेगा,राष्ट्र के जीवन और
चरित्र दोनों का सुन्दर निर्माण होता रहेगा। हम अपनी मानव जाति को, मानवता को बनाने का प्रयत्न करें और महान बनने के लिए हम सदैव
कटिबद्ध रहें। इसी में हमारा जीवन है,इसी में हमारी मानवता है,इसी में हमारा राष्ट्र,समाज और धर्म और यज्ञ इसी
में परिणत होता रहता है।
स्वार्थवाद
से पतन
पूज्य
महानन्द जीः- आज परम्परा से दीपमालिका
के सम्बन्ध में मेरे पूज्यपाद गुरुदेव अपना प्रकाश दे रहे थे। आज के संसार में
महाभारत के समय से इस संसार में,इस भारतभूमि पर,तब से इस संसार में अज्ञानता की इस प्रकार प्रतिभा आती रही है।
जहाँ जिन गृहों में यज्ञ होते थे,जिन गृहों में यज्ञ की
सुगन्धि होती थी,आज मैं उन गृहों में
दुर्गन्धि को दृष्टिपात करता रहता हूँ। आज वहाँ सुगन्धि नहीं है। उसे दुगन्धि कहना
चाहिए। जहाँ विचारों की दुर्गन्धि क्या, प्रकृति कुछ अंशों को
लेकर के उनसे भी दुर्गन्धि करता रहता है। जिन गृहों में मेरी पुत्रियां,मेरी बालिकाएं,ब्रह्मचारी विद्यार्थी गण
सब यज्ञ करने के लिए तत्पर होते थे,अग्नि की पूजा करने के
लिए,सुगन्धि देने के लिए,आज वहीं बालिका दुर्गन्धि उत्पन्न करने के लिए,सदैव तत्पर रहती है। क्या मानव समाज का यही चरित्र है? इसकी मैं क्या उच्चारण कर सकता हूँ? इसको चरित्र नहीं कहा जा सकता। इसको दुर्गन्धि ही कहा जा सकता
है। क्योंकि जहाँ दर्शनों को शिक्षा,उपनिषदों इत्यादियों का
वितरण और चित्रण चला आ रहा है। वह हमसे दूर होता चला जा रहा है। इसका मूल कारण
क्या है? इसका मूल कारण है मानव का स्वार्थवाद।
क्योंकि जब मानव में स्वार्थवाद आ जाता है तो जो भी यहाँ महापुरुष आ जाएं,उस महापुरुष के वाक्यों को भ्रष्ट कर दिया जाता है।
आज
के इस दिवस पर जिन महापुरुषों ने अपने-अपने जीवन की आहुतियां
प्रदान कर दी हैं,अपने जीवन में त्याग किए हैं। त्याग
भावनाओं का परिणाम यह होता है कि उनकी त्याग भावनाओं को भी मानव अपने स्वार्थवाद से
ऐसे नष्ट करता चला जा रहा है। जैसे अग्नि ईधन को भस्म करती चली जा रही है।
मैं
दीपमालिका के सम्बन्ध में प्रकाश देना चाहता हूं जहाँ कृषक अपने गृहों में सुगन्धि
करते हैं परन्तु वह दूसरे रूपों से की जाती है। मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने अभी अभी
दीपमालिका के सम्बन्ध में जो अपना विचार दिया है। उसके सम्बन्ध में मुझे शेष चर्चा
करनी नहीं हैं। वाक्य उच्चारण करने का अभिप्राय यह है कि यहाँ इन पद्धतियों को
नष्ट करने के लिए नाना व्यक्ति आए। परन्तु यह बीज रूपी वेद ज्योति नष्ट नहीं हो
सकी। इसका मूल कारण क्या? कोई न कोई महापुरुष प्रभु
के आँगन में आता रहा है। अपने जीवन का त्याग करके यहाँ से चला गया है और जाने के
पश्चात वह जो परम्परा है,मर्यादा है,वेद का जो प्रकाश है वह ज्यों का त्यों रहा है। उसमें किसी
प्रकार का परिवर्तन प्रायः आ सकता है। परन्तु इतना नहीं जितना यह संसार लाना चाहता
था।
तो
संसार को दीपावली के दिवस अपना संकल्प
धारण करना चाहिए। हम महात्मा दयानन्द की,महात्मा शंकर की
वार्त्ताओं को स्वीकार कर अपने जीवन को उन्नत बना सकते हैं। क्योंकि महात्मा
शंकराचार्या ने वैदिकता के लिए अपने जीवन की आहुति दे दी। महात्मा दयानन्द ने अपने
जीवन की आहुति प्रदान कर दी। किसलिए? केवल वेद की प्रतिभा के
लिए। वेद जीवन के लिए मानव को सदैव कटिबद्ध रहना चाहिए। आज कोई मानव यह कहता है आज
मानव संसार के मानवता के प्रवर्त्तक कहलाए गये। ईश्वर की प्रेरणा के आधार पर जिनका
हृदय और मस्तिष्क दोनों वेदना से परिणत हो जाता है,भरण
हो जाता है, वे मानव संसार के प्रलोभनों में नहीं आते हैं। सदैव संसार के द्रव्यवाद से उनका
जीवन बहुत ऊँचा होता है,विशाल होता है,महत्ता वाला होता है।
अरे,केवल वाणी से उच्चारण करने से संसार ऊँचा नहीं बनता या धर्म और
वेद ऊँचा नहीं बनता। वेद उस काल में ऊँचा बनता है जब मानव अपने जीवन को क्रियात्मक
बनाता है और महान बनाता है।
मुझे
स्मरण आता रहता है। भगवान राम का जीवन कितना क्रियात्मक था। भगवान कृष्ण का जीवन
संसार में कितना क्रियात्मक रहा था। आज जिनका जीवन क्रियात्मक रहा है उन्हीं के
जीवन में एक महत्ता आई है। संसार के लोकप्रिय बनकर के,राष्ट्र के क्या,विश्व के लोक प्रिय बनकर के वे संसार सागर से पार हो जाते हैं। आज मानव में रूढ़िवाद है।
महर्षि
दयानन्द ने एक वाक्य कहा बुद्धि के अनुसार संसार के प्रत्येक विद्या को अपनाने का
प्रयास करो। उसी को अपनाना हमारा धर्म और मानवता कहलाती है। वह वेद की प्रतिभा जो
अन्तःकरण की प्रेरणा है उसी के आधार पर अपने कार्य को करते चले जाओ।
भगवान
राम ने एक समय अयोध्यावासियों से कहा था हे अयोध्यावासियों ! मैं रावण को विजय करके अयोध्या में आ पहुंचा हूँ। मुझे अयोध्या
का नरेश बनाना चाहते हो,तो तुम्हें अपने सदाचार,मानवता और वेद की प्रतिभा को अपनाना होगा। संसार के वेदों की संस्कृति से ओत-प्रोत करना होगा। अन्यथा मेरा राजा रावण और मेघनाद जैसे त्यागी
राजाओं को नष्ट करने का कोई अभिप्राय शुद्ध रूप से नहीं हो सकेगा। क्योंकि
संस्कृति के बिना मेरे जीवन में सार्थकता नहीं आ सकेगी। जब तक भील,द्रविड़ इत्यादियों को अपनाया नहीं जाएगा,तब तक मेरा अयोध्या राष्ट्र ऊँचा नहीं बनेगा।
हम
सदैव महापुरुषों की छत्रछाया में पनपते रहें। उनके विचारों को अपने जीवन में धारण
करते हुए इस संसार सागर से पार होते रहें। ऐसी सदैव हमारी कामना रहती है। परन्तु
ऐसे महापुरुषों के निर्माण सदैव होने चाहिए। ऐसी मेरी सदैव कामना और इच्छा रहती
है।
यदि
मानव के द्वार से संस्कृति का स्तम्भ चला गया,मानवता चली गई, तो उस मानव के द्वारा
कुछ नहीं रह जाता। जैसे मानव के शरीर में प्राण के चले जाने के पश्चात् मानव के
जीवन का स्तम्भ चला जाता है इसी प्रकार मानव वेद के विचारने वाले जो मानव होते हैं
यदि उनके द्वारा अपनी संस्कृति चली गई,अपनी मानवता चली गई,अपना चरित्र चला गया, तो उस वेद की विचार धारा
का स्तम्भ चला जाता है। स्तम्भ के चले जाने के पश्चात् मानवता नष्ट हो जाती है।
इसीलिए मानव का जो स्तम्भ है वह प्रकाश है,प्रकाश को लाना चाहिए,अन्धकार को नहीं लाना चाहिए। ऐसे ज्ञान को अपनाना चाहिए जिसमें
ज्ञान और विज्ञान,परमाणुवाद,प्रकृतिवाद,सूर्यवाद,तारामण्डलवाद,ध्रुववाद जेष्ठाय नक्षत्रवाद संसार के लोक-लोकान्तरों का ज्ञान व विज्ञान,जिस संस्कृति में हो उसको अपनाने में मानव को संकुचित नहीं होना
चाहिए।
पूज्यपाद
गुरुदेवः-
महानन्द
जी ने दीपावली के सम्बन्ध में यह कहा कि जहाँ यज्ञ होता है वहाँ दुर्गन्धि हो रही
है तो आज हमें इन वाक्यों में अधिक प्रयोजन नहीं रहना चाहिए। जहाँ दुर्गन्ध होती
है वहाँ सुगन्धि भी होती रहती है। क्योंकि
प्रकृति स्वयं उसे सुगन्धि और शुद्ध पवित्र करती रहती हैं। रहा यह वाक्य कि मानव
अपनी वेद की,धर्म की प्रथा को त्याग देना ही संसार में
मृत्यु कहलाई गई है। उस मृत्यु से पार होने का मानव को सदैव प्रयास करना चाहिए।
महापुरुषों के वाक्यों को स्वीकार करना चाहिए। वेद की प्रतिभा को अपनाना चाहिए।
क्योंकि वेद से ही संसार का ज्ञान उत्पन्न होता है। संसार में दो प्रकार का ज्ञान
होता है,एक तो मानव का आध्यात्मिक ज्ञान होता है और
एक जिसे हम सामाजिक ज्ञान कहते हैं। सामाजिक जो प्रथा होती हैं,सामाजिक जो ज्ञान होता है,समाज का जो विचार होता है,वह भी वेद से ही उत्पन्न होता है। मानव को कैसा रहना चाहिए, विचार कैसे होने चाहिए, पति पत्नी को किस प्रकार
गृह को शुद्ध बनाना चाहिए। सन्तोनोत्पति कैसी होनी चाहिए,उसमें कितना ज्ञान होना चाहिए? माता
का कैसा पठन-पठन होना चाहिए? यह सब एक लोक प्रिय ज्ञान होता है।
आध्यात्मिकवाद
से जितना भी दीपमालिका का सम्बन्ध है, दीपमालिका के विचार है।
जैसे आत्मा है परन्तु आत्मा के साथ साथ पांच ज्ञानेन्द्रियां है,पांच कर्मेन्द्रियां हैं,मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार है,जीव द्वारा प्रकाशमान
रहते हैं। परन्तु मालिका आत्मा को कहा जाता है। इस आत्मा से ही इन्द्रियों का
सम्बन्ध रहता है। ऐसे उच्चारण कर लें,कि इन्द्रियों का सम्बन्ध,आत्मा का प्रकाश यदि नहीं होगा तो इन्द्रियां अपना कार्य नहीं कर
सकेंगी। इसी प्रकार ब्रह्म की जो चेतना है,ब्रह्म एक दीप कहलाया गया
है। मालिका संसार की चेतना को कहा जाता है,
जो चेतना है, वह ब्रह्म की ही चेतना से प्रकाशमान हो
रही है।इसलिए हम प्रकृति की उपासना करने के लिए सदैव तत्पर रहे।
देव
पूजा हमें सदैव करनी चाहिए। देव पूजा का अभिप्राय क्या है? देवताओं को देना। देवताओं को हम क्या देते हैं? देवताओं को हमें सुगन्धि देना है। अपने विचार देने हैं। और दर्शन
में ऐसा भी कहीं कहीं आता है कि हमें अपने दुर्गुणों को भी त्यागना है। और देवत्व
को हमें लाना है। वह भी देवताओं की पूजा कहलाती है। इसीलिए आज हम इन वाक्यों को
जानने का सदैव प्रयास करते रहें। क्योंकि इसको जानने से हमारे जीवन में शुद्धता
आती है। पवित्रता आती है। मानवता आती है। जीवन में एक महत्ता का दिग्दर्शन होता
है। इसको अपनाना हमारा कर्त्तव्य है। जैसे संसार में अच्छाइयों को अपनाओगे तो
अच्छाईयां आएंगी। दुर्गन्धियों को अपनाने का प्रयास करोगे,तो दुर्गन्धि जीवन में आती रहेगी।
संसार में जैसा तुम अपने जीवन को बना लोगे,जैसा
तुम्हारा कर्म होगा,तुम्हारी
प्रतिभा होगी वैसा ही प्रभु ने जो यह जगत रचा है। यह
एक प्रकार का कल्पवृक्ष है। इसमें जैसी भी तुम्हारी कल्पना होगी,जैसा विचार
होगा,जैसा कर्म
होंगे उसी प्रकार का तुम्हारा जीवन चक्र चलता रहेगा। प्रवचन सन्दर्भ २९-१०-१९७०-
श्रृंगी ऋषि कृष्णदत्त वेद यज्ञ विज्ञान
न्यास
9999075748, 9818207765
12/4 मॉल
श्री, शिप्रा
सन सिटी इन्दिरापुरम, गाजियाबाद, उत्तर
प्रदेश