मानव का पवित्र आहार
अन्न की मीमांसा यह है कि जिससे दूसरा प्राणी पवित्र होकर महत्ता
में लाया जा सके उसे अन्न कहते हैं। बल्कि वह भी अन्न है कि मानव अपने विचारों को
दूसरों को दे।
सात प्रकार का आहार
आजीविका के प्रकार
अन्न की पवित्रता आपकी आजीविका पर भी निर्धारित होती है।
योगी के द्वारा वायुमण्डल से खेचरी मुद्रा के द्वारा पौष्टिक
परमाणुओं को पान करना।
तपस्वी व आयुर्वेदाचार्य के द्वारा भयंकर वन से उपलब्ध
वनस्पतियों को ला करके उनका आयुर्वेद की दृष्टि से उचित मिश्रण बना करके अग्नि में
तपा करके पान करना।
शिलस्थ अन्न को कृषक की भूमि से ला करके अग्नि में तपा करके पान
करना।
स्वयं कला कौशल कृषि करना और उसी अन्न को पान करना।
निर्धारित वेतन पर कार्य करना।
निर्धारित द्रव्य प्राप्त करने की स्वयं परिभाषा कर लेना।
नाना प्रकार के व्यापार करना।
सबका साझा अन्न
यह वह अन्न है, जिसको मानव प्रतिदिन
गार्हपत्य अग्नि में पकाकर भोजन करते हैं तथा कृषक की खेती में उत्पन्न होता है।
यह अनाज के रूप में होता है। इसको साझा अन्न इसलिये कहते हैं क्योंकि इसे नाना
प्रकार के प्राणी ग्रहण करते हैं। मानव को हित भुक, ऋत भुक और मित भुक के
अुनसार पान करना चाहिए। कणक को रात्रि में रज के पात्र में भिगोकर प्रातः काल खरल
करके अग्नि में तपा करके गौ घृत के साथ पान करने से मानव के हृदय में नम्रता
उत्पन्न होती है। महर्षि कणाद और महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी इसी का पान किया है। और
महर्षि वशिष्ठ मुनि के आश्रम में भी ब्रह्मचारियों का पान कराया जाता था।
दूसरा आहार
इस अन्न के नीचे के पौधा का भाग दूसरा आहार हैं। जिसको पशुओं का
आहार कहा जाता है, इसको पान करके पशु अपनी पशुता में परिणत रहते हैं। पशुओं का
प्राण इतना वलिष्ठ होता है कि वे इसे प्राप्त करके शीघ्र शरीर निर्माण में लगा
लेते हैं यहाँ प्रभु का विज्ञान दर्शनीय है।
तीसरा अन्न हूत
हूत कहते हैं आहुति देने को। जिस आहार को हम देवताओं को पान
कराते हैं, वह हूत कहलाता है।
आहुति से लिपटा जो मानव का संकल्प होता है वह मानव की इच्छा को
पूर्ण करता चला जाता है। जो भी आहुतियाँ दी जायें, वे सुन्दर विचारों के साथ
परमात्मा में श्रद्धा के साथ होनी चाहिये अन्यथा कितनी भी सुन्दर सामग्री हो, वह सब परन्तु सुन्दर
विचारों तथा परमात्मा में श्रद्धा के अभाव में द्यौ को प्राप्त नही होता। किन्तु
मानव के संकल्पों तथा महान् विचारों को अग्नि अन्य देवताओं को अर्पित कर देती है।
वहाँ वे विचार तपते हैं, तथा वृष्टि के साथ आ जाते हैं।
चौथा अन्न प्रहूत
प्रहूत वह आहार है, जो पुरोहित के द्वारा
प्रदान किया जाता है। प्रथम पुरोहित तो परमपिता परमात्मा है। जो महर्षि विश्वमित्र
ने महाराजा राम को प्रदान किया ।
आत्मा के अन्न चक्षु आहार
नेत्रों का साथी जो प्रकाश है, वह भी अन्न कहलाया जाता
है, आत्म ज्ञान कहलाया जाता है। इसीलिये हमें नेत्रों का शोधन करना
चाहिये क्योंकि यह भी अन्न है।
आत्मा के अन्न श्रोत्र आहार
श्रोत्र उसे कहते हैं, जिसका दिशाओं से सम्बन्ध
है। हमारे मुख से जो शब्द निकलता है, वह एक क्षण समय में
पृथ्वी की परिक्रमा कर लेता है। श्रोत्रों में यह विशेषता होती है कि वह दिशाओं से
इन शब्दों को लाकर आत्मा से उनका मिलान करा देते हैं। शब्द के साथ उसके उच्चारण
करने वाले का चित्र भी जाता है। मानव की अन्तरात्मा के जो संस्कार होते हैं उनका
समन्वय दिशाओं से हो जाता है। दिशाओं में जो शब्द हैं, उनका सम्बन्ध अन्तरिक्ष
से होता है।
आत्मा के अन्न घ्राण आहार
घ्राण में नाना प्रकार सुगन्धियों को ग्रहण करने वाली शक्तियाँ
होती हैं। सुगन्ध को प्राप्त करना उसका अन्न कहलाया गया है। वे घ्राणेन्द्रिय को
जानने वाले होते हैं। वे वायु मण्डल से मन्द सुगन्ध को ग्रहण करते हैं। वे उस अन्न
को ग्रहण करते हैं जिससे घ्राण का सम्बन्ध होता है।
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