Saturday, March 30, 2019

सृष्टि उत्पत्ति और राष्ट्र निर्माण


1   २१ ०८ १९६२ सृष्टि उत्पत्ति और राष्ट्र निर्माण

जीते रहो!
  देखो, मुनिवरों! अभी-अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ। हम तुम्हारे समक्ष वेद मन्त्रों का पाठ कर रहे थे। आज के मनोहर वेद पाठ में, हमारे हृदय की ज्योति प्रकाशित होने के लिए प्रस्तुत हो रही थी।
  कल मेरे प्यारे! लोमश मुनि ने बहुत ऊँचे भाव प्रकाशित किए । इनके व्याख्यानों की हमसे प्रशंसा नहीं की जाती। इनका वाक्य, कितना उच्च, हृदय को छूने वाला, अन्तःकरण को पवित्र बनाने वाला, वायु मण्डल, अन्तरिक्ष मण्डल में जहाँ यह वार्त्ता जाती है ,वहाँ के वातावरण को शुद्ध बनाने वाला था। आज हम उन महान आचार्यो की प्रशंसा, उनकी महानता का वर्णन अपने मुखारविन्दों से नहीं कर सकते और न किया जाता है।
ओ३म्
   मुनिवरों! हमें यह तो उच्चारण नहीं करना, जो उच्चारण करने लगे। हमें ओ३म् के बहुत ऊँचे शिखर पर जाना है। वेद का प्रत्येक मन्त्र उस ओ३म् से बन्धा हुआ है। जिस प्रकार यह परमात्मा की अनन्त सृष्टि है और प्रकृति के कण-कण में उस चेतन प्रभु का प्रकाश, महत प्रकाशित हो रहा है जिससे यह प्रकृति अपना कर्त्तव्य कर रही है, इसी प्रकार प्रत्येक वेदमन्त्र का शब्दार्थ उस ओ३म् से बन्धा हुआ है ,जिस ओ३म् को हम प्रभु का मुख्य नाम कहा करते हैं।
  आज कोई प्रश्न करता है कि ओ३म् नाम ही मुख्य क्यों माना है और नामों को मुख्य क्यों नहीं माना? वास्तव में परमात्मा के जितने नाम हैं, उन सबसे परमात्मा प्रकाशित हो रहा है, उसके महान गुणों का वर्णन, कर्त्तव्य का वर्णन है, प्रत्येक पर्यायवाची शब्दों में वह महत्व भरे वाक्य आ जाते हैं। परन्तु ओ३म् को इसलिए हमारे यहाँ मुख्य माना जाता है, क्योंकि जैसे एक मानव है, उसको मानव भी कहते हैं, उसको पुरुषोत्तम भी कहते हैं, मनुष्य भी कहते हैं और नाना रूपों से पुकारा जाता है। जैसे मेरे प्यारे महानन्द जी हैं। परन्तु जब नाम उच्चारण किया जाएगा, तो महानन्द जी ही कहना पड़ेगा। इसीलिए मुनिवरों! प्रभु का एक मुख्य नाम ओ३म् है। ऐसा महान नाम है, जिसमें महान विचित्रता भरी हुई है और वह प्रत्येक वेदमन्त्र में प्रकाशित हो रहा है।
मुनिवरों! आज हम क्या उच्चारण करने लगे ,यह तो हमें व्याख्या नही देनी |आज हम पूर्व के मन्त्रों में, उस विश्वकर्मा की याचना कर रहे थे, कि हे विधाता! आप विश्वकर्मा हैं, आपने भगवन्! संसार को उत्पन्न किया है। मुनिवरों! प्रभु ने इस महान सृष्टि का निर्माण किया है। उसकी रचना का गुणगान कहाँ तक गाते चले जाएं, गाया नहीं जाता। आज हम उस प्रभु का गान गा रहे थे, जो हमारे जीवन का साथी है, संसार को चलाने वाला है, प्रत्येक मानव, प्रत्येक देव कन्या के हृदय में समाने वाला है।
मुनिवरों! लोमश मुनि ने कल इतने ऊँचे शब्दों का प्रसार किया, कि उन महान ऊँचे शब्दों का वर्णन तो हमसे नहीं किया जाता। परन्तु, आज हमारा विषय बड़ा महान और दार्शनिक बनने लगा है। देखो! प्रभु ने सबसे पूर्व इस संसार को महत दिया। नाना तन्मात्राओं के द्वारा इस संसार को उत्पन्न किया। जिस प्रकार बालक के माता के गर्भ में जाने से पूर्व ही उस महान प्रभु ने उसके खान पान का प्रबन्ध किया, इसी प्रकार सृष्टि के प्रारम्भ में जब यह सृष्टि की रचना हुई, महाराजा शिव ने महान इस माता पार्वती को सत्ता दी जिसके गर्भ से यह संसार उत्पन्न हो गया।
पूज्य महानन्द जीः गुरुजी कल आपने सृष्टि की उत्पत्ति की गणना कराते हुए कहा, कि आज संसार को १, ९७, ८३, ५७, २६२ वर्ष हो चुके हैं। परन्तु आज जब हम लाक्षागृह पर विचरण कर रहे थे, तो जो इस सृष्टि की उत्पत्ति की गणना सुनी, तो वह १, ९७, ८९, ४९,०६२ वर्ष है। हमारे निर्णय में नहीं आ रहा कि आपकी वार्त्ता को सत्य मानें या इसे।
पूज्यपाद गुरुदेवः “महानन्द जी! इसके ऊपर विचार करेंगे।“
पूज्य महानन्द जीः “विचार किस स्थान पर करेंगे, भगवन! अभी कर लीजिए, इसका उत्तर शीर्घ दे दीजिए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा महानन्द जी! आगे को वाक्य होने दो, देखेंगे क्या विचार आता है।“
पूज्य महानन्द जीः “विचारना क्या भगवन! वह तो हमारी वार्त्ता सत्य होती दीखती है।
पूज्यपाद गुरुदेवः (हास्य के साथ) “देखा जाएगा, आगे प्रकरण को चलने दो।“
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा।“
सृष्टि सृजन
पूज्यपाद गुरुदेवः मुनिवरों! अभी-अभी महानन्द जी ने प्रश्न किया, परन्तु हमारी यह हठ नहीं, कि महानन्द जी के इस वाक्य को न मानें। हो सकता है हमारी गणना में कोई सूक्ष्मता रह गई हो। महानन्द जी का वाक्य यथार्थ हो, इसमें कोई वार्त्ता नहीं। सत्य वार्त्ताओं को स्वीकार करने में किसी की कोई हानि नहीं। इसलिए, हम अवश्य इनके वाक्यों को स्वीकार कर लेंगे। अन्तिम में विचार करेंगे। अब हम प्रारम्भ कर रहे थे, कि उस विश्वकर्मा ने सबसे पूर्व, जब यह पृथ्वी शीतल बनने लगी, समता आने लगी, तन्मात्राओं और महान पंच-भूत इन सबका संगठन बना करके,महान  सृष्टि का कार्य चलने लगा।
स्थावर सृष्टि
  मुनिवरों! सबसे पूर्व उस विश्वकर्मा ने यह नाना प्रकार की वनस्पतियों को उत्पन्न किया, जिससे स्थावर सृष्टि कहते हैं। जैसे अभी हमने माता का प्रमाण दिया, इसी प्रकार प्रभु ने हमारे खान पान का प्रबन्ध पूर्व किया। वृक्ष योनि में नाना प्रकार की जातियाँ हैं, जिनमें नाना औषधियाँ भी हैं, नाना ऐसे-ऐसे पौष्टिक पदार्थ हैं, जिन पर मानव का जीवन निर्वाह होता है।
उद्भिज्ज सृष्टि
वृक्ष योनि के पश्चात् इस अण्डज सृष्टि को उत्पन्न किया, जिसे हम अण्डज और उद्भिज्ज सृष्टि कहते हैं। कोई मानव प्रश्न करें, कि विधाता ने इस अण्डज सृष्टि को इस प्रकार क्यों उत्पन्न किया? सबसे पूर्व तो मानव को उत्पन्न करना था। परन्तु, नहीं। अण्डज सृष्टि में नाना जल में और वृक्षों पर रहने वाले जीवधारी हैं। जितने जलचर जलों में रहते हैं। वह मानव के लिए बड़े उपयोगी हैं, जैसे, जल में रहने वाले मच्छ इत्यादि हैं। जल में जो नाना प्रकार की दुर्गुणता उत्पन्न हो जाती है, जो मानव के लिए बहुत हानिकारक होती है, उन सबको आहार करने वाले, वह जीव जलचरों में हैं। वे जल को शुद्ध करते हैं, कि जिससे मानव को किसी प्रकार की हानि न पहुंचे।
जंगम सृष्टि
मुनिवरों! इसके पश्चात् जरायुज सृष्टि का निर्माण किया, जिसे जंगम सृष्टि भी कहते हैं, जिसमें नाना जातियाँ हैं, जैसे गरुएं हैं, मनुष्य जाति हैं। माता पिता तो थे नहीं, बिना माता पिता के संयोग से यह मानव जाति कैसे उत्पन्न हो गई, कैसे यह वृक्ष योनि उत्पन्न हो गई? जब तक इसमें बीच का अंकुर न था और न कोई इसे उपजाऊ करने वाला था,तो यह संसार इस प्रकार क्यों उत्पन्न हो गया? आज यह समस्या हमारे समक्ष बड़ी महान है।
मुनिवरों! यह जो प्रकृति है, इसमें स्वतः ही पूर्व की भांति, सब बीज रूप अंकुर में रहता है। जैसे, वट वृक्ष का एक सूक्ष्म सा बीज होता है। जब पृथ्वी में उपजता है, तो महान वृक्ष बन जाता है, इसी प्रकार महान  सूक्ष्म रूपों से परमाणु रूपों से यह बीज,महान इस प्रकृति माता में रहता है जो महान सबको अपने गर्भ में धारण करने वाली है। इसी प्रकार का यह संसार प्रभु ने अपनी महत्वता से, अपनी चेतन सत्ता से इस संसार को  रचाया।
संसार रचना का उद्देश्य
अब विचार आता है, कि प्रभु ने यह संसार इस प्रकार का क्यों रच दिया, उसे क्या आवश्यकता थी? क्या प्रभु ने अपनी प्रशंसा के लिए इस संसार को रचाया? नहीं। प्रशंसा के लिए नहीं, परन्तु अपना कर्तव्य मानते हुए। जैसे माता की लोरियों में लगकर बालक अपने जीवन को पा लेता है। माता का क्या मन्तव्य है? माता के शरीर में जैसे आत्मा है, ऐसे ही बालक के शरीर में है। परन्तु माता को क्या आवश्यकता है? कोई मन्तव्य नहीं। उसने तो केवल अपने कर्तव्य को पूर्ण करने के लिए, अपनी महानता का एक प्रदर्शन किया, जो मुनिवारों !एक बालक की पालना की। इसी प्रकार उस विधाता शिव ने प्रकृति माता पार्वती को साथ ले करके इस संसार को उत्पन्न किया, जो आज नियमबद्ध हो रहा है।
मुनिवरों! नाना प्रकार के प्रश्न हमारे समक्ष उत्पन्न होते हैं। इस मानव जाति को विधाता ने कैसे उत्पन्न किया? मुनिवरों! जैसे माता गर्भवती है, वह जो भी आहार करती है उसका कच्चा रस कुछ स्वांग नाम की नाड़ी द्वारा लोरियों में जाता है और वहाँ परिपक्व होता है। उस नाड़ी का सम्बन्ध नाभि के द्वारा होता है और वह परिपक्व रस नाभि के द्वारा जाता है। जैसे बेल के ऊपर फल लगता है, परन्तु वह कितना विचित्र होता है कि जिस समय वह परिपक्व हो जाता है, तो वह फल बेल से स्वयं पृथक हो जाता है। इसी प्रकार इस महान पृथ्वी से मानव जाति का अंकुर उत्पन्न होता है। अंकुर उत्पन्न होने के पश्चात् इसका सम्बन्ध नाभि के द्वारा होता है, माता पृथ्वी से रस लेता रहा जैसे वृक्ष और नाना योनियाँ उत्पन्न हुई, इनमें माताएं भी पुरुष भी, देव कन्याएं भी, सब उत्पन्न हुए।
आज मानव प्रश्न करता है, कि क्या यह मानव जाति युवा या बाल्य अवस्था में हुई? इसका उत्तर यह है कि यह सब युवा अवस्था में हुई| क्योंकि यदि वह बाल्य अवस्था में होती, तो उसका पालन पोषण कौन करता, युवा उत्पन्न होने के पश्चात् यह सृष्टि क्रम चलने लगा।
जब यह क्रम चलने लगा तो प्रश्न आता है कि यह ज्ञान कहाँ से आया, जब सृष्टि को चलाने की जानकारी कराने वाला कोई समक्ष न था?
मुनिवरों! इस प्रकरण में यह माना गया है, कि महान आत्माएं, जिन्हें मोक्ष तो प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु जिन्होंने उच्च कर्म किए और मोक्ष के निकट पहुंचे उन्होंने अपने पूर्व जन्मों के पुण्यों से, उस प्रभु की सृष्टि में जन्म धारण किया और जन्म धारण करके इस विधान को किया, जो आज चल रहा है। माता पिता का, आहार व्यवहार का सब ही कुछ विधान हमारे ऋषि महर्षियों ने निर्णय किया, जो हमारे यहाँ ब्रह्मा, अंगिरा, आदित्य आदि ऋषि कहे जाते हैं, इन्होंने पुरुषों को, देव कन्याओं को सबको विशेष ज्ञान कराया। इस ज्ञान को पाते हुए, यह संसार अभी तक इस प्रकार चला आ रहा है।
पूज्य महानन्द जीः गुरु जी! हम इन वार्त्ताओं को स्वीकार नहीं कर रहे, यदि देव कन्याओं का और पुरुषों का सम्बन्ध पृथ्वी से रहता है, तो आज भी रहना चाहिए। आपने जैसे एक बेल का प्रमाण दिया है, कि उसका फल परिपक्व होकर स्वयं पृथक् हो जाता है तो यह मनुष्य भी बेल पर लगना चाहिए?
पूज्यपाद गुरुदेवः (हास्य के साथ) अरे, मूर्खानन्द! यह वार्त्ता उच्चारण करे बिना तुम्हें शान्ति नहीं होती। तुम ऐसे वाक्य उच्चारण करोगे कि न होने योग्य हैं, और न इनका कोई उत्तर ही दिया जाएगा।
पूज्य महानन्द जीः हास्य.......गुरुजी! यह तो वही वार्त्ता है, कि उत्तर नहीं बनता तो शांत हो जाओ।
पूज्यपाद गुरुदेवः अरे, सुना करो! असंगत प्रश्न नहीं किया करते। जिसकी कुछ रूपरेखा नहीं, उसका उत्तर क्या?
पूज्य महानन्द जीः तो गुरुजी! आपके वाक्य की भी तो कोई संगत नहीं।
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा सुनो! इसका उत्तर यह माना जाता है, कि जब माता पृथ्वी और पिता प्रभु दोनों की समता होती है, तो यह सृष्टि क्रम नियमबद्ध चला करता है। मानव जाति को इसी प्रकार उत्पन्न किया। ऋषियों की अनुपम कृपा हुई। प्रभु की महान इस सृष्टि में आ करके, अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने के लिए, इस संसार को पूर्व की भांति, ज्ञान कराया। जैसा पूर्व व्याख्यान में कह चुके हैं, कि आदि सृष्टि में आत्माएं अनेक होती हैं, जिन्हें पूर्व सृष्टि का ज्ञान होता है, उसी पूर्व सृष्टि के नियम से परमात्मा की नवीन सृष्टि को नियमबद्ध कर देते हैं। तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर यह है, जो हमसे बन रहा है। इन्होंने बेल का प्रमाण मिथ्या कहा है, परन्तु मिथ्या नहीं हो सकता, क्योंकि जब बेल का, वृक्ष योनि का, उसका अंकुर इस प्रकृति में विराजमान है, तो इसी प्रकार पुरुष के और महान अपनी महत् का पूर्व की भांति, जो अंकुर रहता है, वह उत्पन्न हो जाता है। माता पृथ्वी और पिता प्रभु दोनों की समता हो करके सृष्टि का निर्माण हो जाता है। अपनी महान कारीगरी से उस प्रभु विश्वकर्मा ने इस संसार को रचा है।
ऋषियों का कितना बड़ा परोपकार है। आज उन ऋषियों के गौरव को शान्त करते चले जा रहे हैं। इस संसार में ही नहीं, लोक लोकान्तरों में ऋषियों का गौरव है|क्योंकि जिन आत्माओं ने अपने ज्ञान का विकास किया। आत्मा में ज्ञान और प्रयत्न स्वाभाविक होता है। पूर्व की भांति, ज्ञान होने के कारण उन्होंने इस सृष्टि को क्रमबद्ध कर दिया। वास्तव में तो प्रभु ने इसको रचा और उसी ने क्रमबद्ध किया।
वेदों का आविर्भाव
मुनिवरों! आगे हमारे समक्ष आता है, कि आज जो यह चारों वेद हैं, जिसे प्रभु की वाणी कहते हैं, यह कहाँ से आई? कैसे आई? क्योंकि जिस समय प्रलय होती है, उस समय यह ज्ञान भी परमात्मा के आँगन में चला जाता है, यह प्रकाश यहाँ नहीं रहता। इसका उत्तर यह बनता चला जा रहा है, कि उन चार ऋषियों को पूर्व की भांति, वेदों का ज्ञान था, ज्ञान होने के कारण प्रभु की महत्त्वता पा करके, उस प्रभु की सृष्टि में जा करके पूर्व की भांति, वेदों का प्रसार किया।
मेरे प्यारे! महानन्द ने एक काल में ऐसा कहा, कि वेद एक ही है जो ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ और महर्षि व्यास ने इसके चार काण्ड किए । परन्तु इसका उत्तर यह है, कि महर्षि व्यास मुनि इस द्वापर काल में हुए, परन्तु यहाँ तो राम को, वशिष्ठ मुनि महाराज को चारों वेदों की चुनौती दी जा रही है। इसका स्पष्ट उत्तर तो यह है कि चारों काण्ड सृष्टि  के प्रारम्भ में चारों ऋषियों द्वारा प्रभु की सहायता से प्रगट हुए।
मुनिवरों! आज यह हमारा दार्शनिक और गम्भीर विषय है, जिसे बहुत विचारने की आवश्यकता है| मेरे प्यारे महानन्द जी प्रश्न कर रहे हैं, कि जब बिना माता पिता के सृष्टि प्रारम्भ हुई, तो आज क्यों नहीं होती? इनका यह प्रश्न निरर्थक है, युक्ति से भिन्न है। युक्ति देना सामान्य व्यक्तियों का कार्य नहीं। महानन्द जी यह युक्ति देंगे कि प्रभु ने इस सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ में किया और आज तक चला आता है| तो यह मानव इतना पाप न करता। इसका सहज उत्तर यह है, कि मेरी माताओंके शरीर की  और मेरे विधाताओं के शरीर की रचना विचित्र है, इसमें बुद्धि का मण्डल है, मन का  मण्डल है, प्रकृति का मण्डल है, अन्तरिक्ष का मण्डल है, आत्मा का मण्डल है, अन्तःकरण का मण्डल है, इन सबका मण्डल इसमें विराजमान है। यह सब मण्डल होने के कारण इसमें ज्ञान और प्रयत्न है, जिसके कारण वह कार्य जो प्रभु ने इसे दिया है वह कार्य करना अनिवार्य है। प्रभु ने तो एक समय नियम बनाया, कि इस मार्ग पर चलो, उस मार्ग पर मानव का कार्य प्रारम्भ हो जाता है। इसमें मानव का कर्म करना धर्म है। आज मानव इसमें नाना प्रश्न करे, तो इसका कोई उत्तर नहीं, यह प्रश्न असंगत बन जाएंगे।
तो मुनिवरों! यह आज हमारा एक आदेश प्रारम्भ हो रहा था। जो मेरे प्यारे महानन्द ऋषि ने अभी-अभी प्रश्न किए , उनके उत्तर हम देते चले जा रहे हैं। इन्होंने जो अब प्रश्न किया है, वह असंगत है| उसकी कोई संगति नहीं बन रही है, जैसे विधाता ने महान मेघों  को उत्पन्न किया और प्रारम्भ से चल रहे हैं, प्रभु ने विद्युत को बनाया। विद्युत कहाँ रहती है? विद्युत जल में रहती है। जिसे हम नाना यन्त्रों से उत्पन्न करते हैं।
पूज्यमहानन्द जी गुरु जी! इस विद्युत के विशेषण में तो हमने ऐसा सुना है, कि राजा कंस ने माता यशोदा की कन्या पर जो भगवान कृष्ण के स्थान पर लाई गई थी, उसको नष्ट किया, तो उसकी विद्युत बन करके मेघों में चली गई थी, और मेघों में चले जाने से, राजा कंस भयभीत हुआ, क्योंकि उसने आकाशवाणी से कहा था, कि मैं तेरे विनाश के लिए उत्पन्न हो गई हूँ, और यह वह विद्युत है| जिसमें कंस के परिवार का कुछ अंकुर होता है, उसी पर उसका प्रहार हो जाता है, ऐसा कहते हैं। परन्तु आपने विद्युत को जल से कहा है, इसका भी आपके द्वारा कोई उत्तर न होगा?
पूज्यपाद गुरुदेवः अरे, तुम सुना तो करो, पूर्व ही उच्चारण कर देते हो। यह विद्युत तो प्रारम्भ से है। यह तो तन्मात्राओं का रूप है। यह विद्युत तो वह है जो प्राणों के महान संघर्ष से उत्पन्न होती है। जब यह मेघ अन्तरिक्ष में रहते हैं तो इन्द्र वायु अपने प्राण रूपी वज्रों का आक्रमण करता है, जल और इन्द्र दोनों का संघर्ष होता है। दोनों के आक्रमण से विद्युत उत्पन्न हो जाती है। रही यह वार्त्ता कि कंस ने कन्याओं पर प्रहार किया, तो बेटा! इसको हम भगवान कृष्ण के जन्म दिवस पर वर्णन करेंगे,जो निकट आ रहा है। आज इन प्रश्नों का उत्तर देने का कोई समय नहीं मिल रहा है।
पूज्य महानन्द जीः हास्य .....हम तो पूर्व ही कहा करते हैं, इसमे कोई ऐसी वार्त्ता नहीं है भगवन!
पूज्यपाद गुरुदेवः अरे तुम इतने मग्न क्यों हो रहे हो, कल तो तुमने कोई प्रश्न किया नहीं, आज ऐसे प्रश्न करते चले जा रहे हो, कि तुम्हारे वाक्यों से हम अपने मार्ग से विचलित हो जाते हैं।
पूज्य महानन्द जीः अच्छा भगवन्! आप कहें, तो हम प्रश्न करना शान्त कर दें, आपकी आज्ञा की देरी है।
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य....अच्छा! अब तुम शान्त रहो।
पूज्य महानन्द जीः मुनिवरों! अभी-अभी हम विद्युत का प्रकाश दे रहे थे, जैसा महान आचार्यों ने वर्णन किया है, उसी आदेश से हम प्रारम्भ कर रहे थे।
अभी अभी हम सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ कर रहे थे। यहाँ ऐसा माना जाता है जैसा आचार्यो से आदेश मिला, कि ३६ लाख वर्ष तक सृष्टि में यह ऋषियों का काल चलता रहा। इसमें न कोई राजा था, न प्रजा थी| प्रभु के आँगन में, प्रभु की आज्ञा में, वेद के आधार से, इसी प्रकार चलता रहा। किसी किसी ऋषि का तो ऐसा अनुमान है, कि करोड़ों वर्ष सृष्टि इसी प्रकार चलती रही। आज हम अपने वाक्यों को शान्त कर लें कि ३६ लाख वर्ष नहीं। इसको करोड़ों वर्ष मान लेवें तो इसमें भी हमारी कोई हानि नहीं। क्योंकि ऋषियों का अनुमान है, उनकी अनुमति में हमारी अनुमति है। हमारा ३६ लाख वर्ष का अनुमान मिथ्या भी बन सकता है। परन्तु ऋषियों ने जैसा कहा वह यथार्थ होता है। इसलिए, आज हम ३६ लाख वर्षों की वार्त्ताओं को उच्चारण करते हुए करोड़ों वर्षों की वार्त्ताओं को यथार्थ मानते चले जा रहे हैं। करोड़ों वर्षों तक संसार में यह ऋषि मण्डल चलता रहा। ऋषि पति और ऋषि पत्नियाँ सब ही की संज्ञाएं इस प्रकार की चलती रहीं। सन्तान उत्पत्ति महान से महान वेद के अनुकूल। उसी के आधार से वह सृष्टि का निर्माण होता चला गया। आज हमारा केवल यह आदेश चल रहा था कि विश्वकर्मा ने यह कैसा विशाल संसार रचाया है।
करोड़ों वर्षों के पश्चात् स्वायम्भु मनु महाराज ने आकर इस सृष्टि को देखा, कि इसमें कुछ सूक्ष्मता आ गई है। विचारों में कुछ नवीनता आ गई है। उन्होंने वेद के आधार से राष्ट्र का निर्माण किया। उस समय ऋषियों ने कहा कि आपने राष्ट्र का निर्माण तो किया, परन्तु हम यह जानना चाहते हैं, कि यहाँ का राजा कौन बनेगा? उन्होंने कहा कि भगवन! कोई भी राजा बन सकता है। ऋषियों ने कहा कि हम तो राजा बनने के लिए प्रस्तुत नहीं। तब उन्होंने कहा कि हम अवश्य राजा बनेंगे। तो मुनिवरों! स्वायम्भु मनु महाराजा ने सबसे पूर्व राज्य के कर्म करने के लिए इस अयोध्या नगरी का निर्माण किया।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! एक वार्त्ता और जानना चाहते हैं, कि जिस काल में प्रभु ने यह सृष्टि रची, तो उस समय क्या यह दैत्य नहीं रचे थे, जो आज पाप कर रहे हैं? क्या उस समय पाप नहीं होता था? यदि पाप नहीं था तो कहाँ से आया?”
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! यह तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर कल दिया जाएगा।“
पूज्य महानन्द जीः गुरु जी! सूक्ष्म सा प्रमाण दे दीजिए”।
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा! सुनो! वास्तव में प्रश्न बड़ा महत्वपूर्ण है, हृदय को छूने वाला है। यदि परमात्मा ने दैत्य उत्पन्न नहीं किए थे, तो कर्म की महान क्रीड़ाएं समाप्त हो जाती हैं। उस काल में दैत्य भी थे, जो महान ऋषियों के विपरीत कार्य किया करते थे। ऋषि सत्य उच्चारण करते, तो वह मिथ्या उच्चारण करते थे। इसी प्रकार आज भी वह कार्य चल रहा है। जब कोई महान आत्मा समाज में गुणग्राही वाक्य प्रारम्भ करता है, तो वामपक्षी, जिनमें दैत्यों का अंकुर होता है, वह उस महान आत्मा के विपरीत कार्य किया करते हैं। इसी प्रकार ऋषि समाज में भी दैत्य थे, न होने के तुल्य माने जाते हैं, पर थे अवश्य। देखो! यदि इस महान परमात्मा की सृष्टि में यह मिथ्या वाक्य न होता, तो सत्य की कोई महत्त्वता नहीं थी। सत्य न होता तो इस मिथ्या का निर्णय नही हो सकता था। इसलिए, सत्यवादी और मिथ्यावादी सृष्टि के प्रारम्भ से हैं।
आगे आगे यह संसार चलता रहा। जिस समय स्वायम्भु मनु महाराज ने राष्ट्र का निर्माण किया, उस समय मिथ्यावादियों की संख्या पूर्व से अधिक हो गई थी। आज हमारे समक्ष प्रश्न आता है, कि अयोध्या नगरी में आगे दशरथ ने भी राज्य किया, स्वायम्भु मनु महाराज ने भी किया, तो स्वायम्भु मनु महाराज किसको कहते हैं? यह तो बहुत गहन विषय हो जाता है। जब सृष्टि का प्रारम्भ हुआ, देव और दैत्यों का संग्राम हुआ और महाराजा विष्णु ने इस महान संसार समुद्र से चौदह रत्न निकाले। जिस प्रकार गौ के दुग्ध का मन्थन करके घृत निकाला जाता है, इसी प्रकार संसार रूपी समुद्र का मन्थन किया गया। देव और दैत्यों ने शेषनाग की नेती बनाई। एक महान गिरि की मथनी बनाई और समुद्र का मन्थन किया,जिसमें से चौदह रत्न निकले।
महानन्द जी ने तो ऐसा कहा है, कि आधुनिक काल के अनुकूल उन चौदह रत्नों में चन्द्रमा है, विष का घड़ा है, कामधेनु और नाना सूर्य आदि हैं। परन्तु यहाँ केवल यह ही अभिप्राय नहीं होता। यहाँ भी एक महान विलक्षण वाक्य आता है। देखो! शेष कहते हैं, परमात्मा को। परमात्मा की नेती बना करके, इस मन की एक मथनी बनाई। जब मन का इस शेष से सम्बन्ध हो जाता है, तो इस महान इस शरीर रूपी समुद्र का मन्थन होता है। एक स्थान में दैत्य और एक स्थान में देवता कौन हैं? देवता अच्छे संस्कार, अच्छी मान्यता और दैत्य काम, क्रोध, मद, लोभ आदि हैं। इस शरीर रूपी समुद्र को मथा जाता है, तो इसमें प्रकृति का मण्डल, बुद्धि का मण्डल, चन्द्रमा का मण्डल, बृहस्पति का मण्डल आदि यह सब निकाले जाते हैं, जिन्हें चौदह रत्न द्वारा पुकारा गया है। ऐसा हमारे आचार्यो ने इसका प्रतिपादन किया है।
मुनिवरों! आज इन चौदह रत्नों को चौदह मन्वन्तर ही क्यों न मान लिया जाएं? यह संसार प्रभु ने एक हजार चतुर्युगियों का रचा है। यह इसकी अवधि है। इसको चौदह भागों में क्यों न नियुक्त किया जाएं। उन महान आचार्यो ने, महान ऋषि मण्डल ने, उस तार्किक और दार्शनिक मण्डल ने यह कहा, कि भाई संसार को चौदह विभागों में बांट दो, जो चौदह मन्वन्तर माने गए हैं। प्रत्येक मन्वन्तर में एक मनु होता है, जो राष्ट्र का निर्माण किया करता है।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! कैसे? अपने आँगन में नहीं आया।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “यह इस प्रकार है बेटा! किचौदह मनु होते है यह संसार प्रभु ने रचा है एक हजार चतुर्युगियों का है। यह इसकी अवधि है। इसके चार विभाग बनाएं गए हैं। चारों विभागों में चार मनु होते हैं जो राष्ट्रों का निर्माण और विधान बनाते हैं। एक एक मन्वन्तर में एक एक मनु के नियम चलते रहते हैं।“
पूज्य महानन्द जीः “तो भगवन! इसमें कुछ सूक्ष्मता हो जाएं, तो राष्ट्र का निर्माण कौन करे?”
पूज्यपाद गुरुदेवः इसका अभिप्राय यह है, कि स्वायम्भु मनु महाराज ने जो भी इसका निर्माण किया है, उसे जान करके, जो भी राजा, महाराजा राष्ट्र का स्वामी बने,यह दैत्यों पर शासन करने वाले, उन नियमों के अनुकूल कार्य करें।
पूज्य महानन्द जीः “तो गुरुजी! क्या राज्य दैत्यों पर ही होता है?”
पूज्यपाद गुरुदेवः “हां! ऐसा माना गया है। राजाओं के महान जो कर्मचारी हैं, राजदूत हैं, वह बेटा! किसके लिए? वह न हमारे लिए, न तुम्हारे लिए, न सत्पुरुषों के लिए, वह तो उनके लिए हैं, जो पाप करते हैं।“
पूज्य महानन्द जीः “हास्य ......तो भगवन्! हमारे लिए भी राजदूत नहीं है”।
पूज्यपाद गुरुदेवः “हास्य ......महानन्द जी! इसलिए नहीं, क्योंकि आप भी सत कर्म करते हैं, सत्य वक्ता हैं और हम भी परमात्मा की परम कृपा से कुछ कुछ सत्य उच्चारण कर देते हैं”।
पूज्य महानन्द जीः “हास्य.....तो गुरु जी! कुछ ही कुछ उच्चारण करते हो? इसका अभिप्राय यह है, कि जो अब तक उच्चारण किया, इसमें मिथ्या भी है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! तुमने इस रहस्य को जाना नहीं। हमने जो कहा है, कि हम भी कुछ कुछ सत्य उच्चारण किया करते हैं तो इसका अभिप्राय यह नहीं, हम मिथ्या भी उच्चारण करते हैं| परन्तु हो सकता है, कि कोई बात मिथ्या उच्चारण हो जाएं। हमारे मिथ्या का फल तो प्रभु देगा। राज्य के कर्मचारी तो हमें इन मिथ्या शब्दों का दंड न देंगे और न इसका कोई पुण्य मिलेगा। इसलिए बेटा! विचारना यह ही है कि मानव जो पाप किया करते हैं, दुराचारी व्यक्ति हैं, उनके लिए राज्य के दूत हैं, सत पुरुषों के लिए, महान ऊँची देवकन्याओं के लिए, ऊँचे कर्म करने वालों के लिए, राज्य का कोई प्रबन्ध नहीं। वह तो राष्ट्र नियम को जानते हैं, नियम के आधार से चलते हैं, उनको राजा भी यह नहीं कहता, कि तुम नियम के विरुद्ध चल रहे हो। देखो! स्वायम्भु मनु महाराज ने राष्ट्र का निर्माण किया। किसके लिए किया? जो तुच्छ बुद्धि वाले व्यक्ति हैं, जो इन महान आत्माओं को, महान सच्चे व्यक्तियों को कष्ट न दे पाएं । तो महानन्द जी! तुम्हारे आगन में आ गई यह वार्त्ता?
पूज्य महानन्द जीः “हां! आ गई भगवन!”
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! देखो! परमात्मा की सृष्टि को चार भागों में उल्लेख माना गया है, परन्तु यह चौदह भाग कैसे बनते हैं। ७१ चतुर्युगियों का एक मन्वन्तर माना जाता है, और प्रत्येक मन्वन्तर में एक मनु माना जाता है, जो राष्ट्र का निर्माण कर देता है। जैसे ७१ चतुर्युगियों में कोई त्रुटियाँ हो जाएं, राष्ट्र निर्माण की नवीन समस्याएं, पापियों को नष्ट करने को आ जाएं, तो उसके पश्चात् द्वितीय स्वायम्भु मनु महाराज उसका निर्माण कर देते हैं।
पूज्य महानन्द जीः तो गुरुजी! इसका निर्माण मनु महाराज या स्वायम्भु मनु महाराज ही क्यों करते हैं? और भी कोई ऋषि कर सकता है? हम और आप भी कर सकते हैं?
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! यह हमारे यहाँ उपाधि मानी गई है, जैसे नारद है, इन्द्र है और नाना ऋषि उपाधि है। स्वायम्भु मनु उसी को कहते हैं, जो राष्ट्र का ऊँचा निर्माण कर दें। अब तुम यह कहोगे, कि इसकी चुनौती कौन देता है? इसकी चुनौती देता कौन, परमात्मा की एक महान देन के आधार पर, स्वयं एक मन्वन्तर के पश्चात् मनु आ करके, राष्ट्र का निर्माण कर देता है। मुनिवरों! इसका अभिप्राय यह नहीं कि वह ही आत्मा आए  जिसने स्वायम्भु मनु की उपाधि को पा लिया हो। जैसे बेटा! हमने सुना है, कि जो राजा एक सौ एक अश्वमेध यज्ञ करा लेता है, उसको इन्द्र कहते हैं। जो मन की गति जान जाता है, और उस गति से स्वयं चलने वाला बन जाता है, उसे नारद की उपाधि मिल जाती है। इसी प्रकार यह भी उपाधि मानी गई है।
तो मुनिवरों! अभी अभी हमारा एक महत्वदायक आदेश चल रहा था, कि विश्वकर्मा ने इस संसार को रचा और प्रभु के नियम के अनुकूल उन महान आत्माओं ने पूर्व सृष्टि नियम के आधार से इसको क्रमबद्ध नियुक्त कर दिया। यह सृष्टि क्रम है। आज मानव को विचारना चाहिए। कि महान प्रभु ने यह संसार, महान आत्माओं के लिए बनाया। उच्च कर्म करने के लिए प्रभु ने, इस संसार को रचा। उसकी अपनी अवधि है। यहाँ कहा जा रहा था, कि राज्य के कर्मचारी, महान आत्माओं के लिए, सत पुरुषों के लिए, यथार्थ पुरुषों के लिए नहीं। यह तो केवल दुष्ट कर्म करने वालों के लिए हैं। इसलिए मानव को यथार्थ कर्म करना चाहिए, जिससे हम उच्च बनें। हमें राजा के कारागार से बचना चाहिए। यदि हम इस राजा के कारागार से बचने का कर्म करेंगे तो इसके पश्चात् हमें विचारधारा होगी, कि जब हम इस राजा के राष्ट्र में, हम मुनिवरों! इतने दुखित हो रहे हैं, तो जब हम इस शरीर को त्याग करके, प्रभु के राष्ट्र में जाएंगे, तो प्रभु हमें कौन से कारागार में भेजेगा। इसलिए हमें उन कर्मो को विचारना चाहिए। जिससे हम परमात्मा के कारागार में भी न जा सकें। हमें अपना जीवन हर प्रकार से उच्च बनाना है। मानव को इस आदेश पर अवश्य चलना चाहिए, जिसे वैदिक सम्पत्ति कह रही है।
मुनिवरों! अब यह हमारा आदेश समाप्त हो गया है। हमने विचार कर लिया है, कि सृष्टि की गणना, जो कल कराई थी, वह अशुद्ध उच्चारण कर दी थी। महानन्द जी का वाक्य शिरोमणि हो गया है। मन्वन्तरों के आधार से इनका वाक्य यथार्थ बन रहा है।
पूज्य महानन्द जीः “भगवन! यह तो बनता, जैसा हमने कहा है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा। तो मुनिवरों! अब हमारा यह आदेश समाप्त हो गया है। महानन्द जी तो यह प्रश्न करते ही रहते हैं, और ऐसे प्रश्न करते हैं, जिनका उत्तर नहीं बनता।
पूज्य महानन्द जीः “हास्य ....गुरु जी! आगे आगे तो वह प्रश्न आएंगे, जिनका आप से उत्तर बनेगा ही नहीं।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “हास्य ....अच्छा बेटा! देखा जाएगा। आगे समय आएगा, तो उन प्रश्नों का यथा शक्ति उत्तर भी दिया जाएगा और न दिया जाएगा तो क्षमा मांग लेंगे, बेटा! और क्या होगा?”
तो मुनिवरों! महानन्द जी तो मग्न होते रहते हैं। ऐसी वार्त्ता प्रारम्भ करने लगते हैं, कि हृदय भी मग्न होता रहता है, वास्तव में तो इनके शब्द बड़े कटु हैं। परन्तु कटु होने के नाते भी, हम यह माना करते हैं, कि चलो,गुरु शिष्य का विनोद इस प्रकार का होता ही रहता है। कोई ऐसी वार्त्ता नहीं। प्रश्न ही तो करते हैं, जो इनके प्रश्नों का हमसे उत्तर बनता है, वह दे देते हैं, नहीं बनता, तो शान्त हो जाते हैं।
पूज्य महानन्द जीः “हास्य ...वह तो भगवन! आप शान्त हो ही जाते हैं। यह बात स्वाभाविक ही है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा बेटा! अब इन विनोद की वार्त्ताओं का समय नहीं है। अब हमारा वाक्य समाप्त होने वाला है। कल समय मिलेगा, तो इससे आगे की वार्त्ता प्रारम्भ करेंगे। अब वेदों का पाठ करेंगे इसके पश्चात् वार्त्ता समाप्त हो जाएगी। धन्यवाद! विजय नगर, रात्रि ९ बजे

Wednesday, March 20, 2019

होली पर्व का महत्व

1   २२-०३-१९७०-आस्तिकता का दिग्दर्शन

जीते रहो! देखो, मुनिवरों! आज हम तुम्हारे समक्ष, पूर्व की भांति, कुछ मनोहर वेद मन्त्रों का गुणगान गाते चले जा रहे थे, अब जब मानव जिज्ञासु बनकर अपने प्यारे प्रभु के द्वार पर जाता है तो उसे ऐसा प्रतीत होता है जैसे ममतामयी माता की छाया में विराजमान है। जैसे क्षुधा से पीड़ित बालक माता की लोरियों में अपने जीवन को पनपाने लगता है और अपने में सौभाग्य को स्वीकार करने लगता है उसी प्रकार हम उस ममतामयी माता के द्वार पर जाना चाहते हैं जहाँ अमृत को पान करते हुए अमरावती को प्राप्त हो जाते हैं। हे ममतामयी मां! तू वास्तव में हमें अपने हृदय अगम् में धारण करती चल। हमारा पुत्र युवा होने पर कुटुम्ब को प्राप्त हो जाता है परन्तु वह जो ममतामयी माता है वह अपनी महानता और अपने आनन्द के स्रोत को किसी भी काल में नष्ट नहीं करती। वह माता हमें हृदय में धारण करने वाली है उसके द्वार से यह चेतना का स्रोत उत्पन्न होता है जिसको पान करने के पश्चात मानव अमरावती को प्राप्त हो जाता है। आज हम उस अपने प्यारे प्रभु का गुणगान गाते चले जाएं।
आज हम उस महामना देवी की शरण में जाना चाहते हैं जो हमें आनन्द देती है, चेतना देती है, पवित्रता देती है हम उसी की लोरियों का पान करना चाहते हैं क्योंकि हम क्षुधा से पीड़ित है। हमारी पिपासा कौन शान्त कर सकता है? इस संसार के जो नाना प्रकार के ऐश्वर्य हैं वह हमारी आत्मिक पिपासा को शान्त नहीं कर पाते। वह जो पिपास हमारी है वह एक चेतना से प्राप्त होती है, उसका जो सोम है मानो वही हमें प्राप्त होना चाहिए। सोम नाम ज्ञान को कहा गया है, विवेक को कहा गया है क्योंकि जब सौम्य हो जाते हैं, हममें दृढ़ता आ जाती है, पवित्रता आ जाती है। उसी का हमें पान करना है। जिस मानव के द्वारा यह निष्ठा आ जाती है कि वह जो सोम को पान कराने वाला है वह आनन्द देव मेरा प्यारा प्रभु है और वह कैसा अनुपम देव है कि वह मानव को किसी काल में भी अपना दयाव्रत से शान्त नहीं कर पाता, नम्रता उसे सदा प्रदान करता रहता है। माना नाना प्रकार के कठोर मार्ग उसके समीप आते हैं परन्तु उन्हें भी सहन करता हुआ, अपने व्रत को प्राप्त होता चला जाता हैं और आनन्द को प्राप्त करना है, जिस आनन्द के लिए ऋषि मुनि अन्तरर्मुखी हो जाते हैं, हृदय अगम हो जाते हैं।
मेरे प्यारे ऋषिवर! जिस मानव के द्वारा निष्ठा दृढ़ता नहीं होती, वह मानव इस संसार में न होने के तुल्य माना जाता है। यहाँ मुझे महात्मा प्रहलाद का भी जीवन स्मरण आने लगता है। उनका जीवन कितना अनुपम था। मानव में नाना प्रकार के संस्कार होते हैं। उन्हीं संस्कारों के आधार पर मानव में निष्ठा हो जाती है। आज हमें उन संस्कारों पर विचार विनियम कर लेना चाहिए। प्रहलाद का जो पिता था जिसको हिरण्यकशिपु कहा जाता था वह अपने मन में निष्ठावादी बन गया था कि इस संसार में प्रभु कोई वस्तु नहीं है। उसने विज्ञान के आधार पर अपने जीवन को, अपने राष्ट्र को उन्नत बनाने का प्रयास किया था।
 मुझे स्मरण आता रहता है कि उनके राष्ट्र में विज्ञान इतना प्रबल हो गया था कि हिरण्यकशिपु को यह विश्वास हो गया कि परमात्मा कोई वस्तु नहीं है, केवल वह मानव की एक कल्पना है और परमात्मा तो केवल राजा को कहते हैं। मैं राजा हूं इसलिए मैं प्रजा का ऐश्वर्यशाली कहलाया जाता हूं। जब हिरण्यकशिपु को विश्वास हो गया तो एक समय उनके गुरू शौंग महाराजा उनके समीप आए और कहा हे हिरण्यकशिपु तुम परमात्मा को अपने से दूर न करो। उन्होंने कहा कि हे ऋषिवर यह मुझे निर्णय कराइये कि मैं इसे कैसे स्वीकार करूं। मेरा तो हृदय यह पुकार कर कहता है कि परमात्मा कोई वस्तु नहीं है। यह तो मानव की कल्पना है। मेरे राष्ट्र का निरीक्षण करके दृष्टिपात कीजिए इसमें कितनी सुन्दर मार्गशालाएं हैं, कितना विज्ञान है। मैंने नाना प्रकार के लोक लोकान्तरों में जाने का प्रयास किया है। परमात्मा कहाँ विराजमान रहता है। यह तो केवल प्राकृतिक एक ऋत चेतना है। एक दूसरे तत्त्व के मिलन से, एक दूसरे परमाणु के मिलन से ही चेतना का निकास हो जाता है, उसी चेतना के पृथक-पृथक हो जाने पर उस चेतना का अपना अस्तित्व दृष्टिपात नहीं होता है। जब गुरू को ऐसा कहा तो वह शांत हो गए और कहा राजन! आज तुम विज्ञान के मध्य में आ गए हो इसलिए मैं तुमसे कोई वाक्य प्रकट नहीं करूंगा परन्तु अन्त में तुम्हें प्रभु की शरण में जाना ही होगा। यहाँ से इस शरीर को त्याग करके तुम्हें मृत्यु को प्राप्त होकर के ही प्रभु की गोद में जाना होगा। गुरू के उस वाक्य को भी उन्होंने शान्त कर दिया।
बेटा! हिरण्यकशिपु के एक ही बालक था जिस का नाम प्रहलाद था। प्रहलाद बाल्यकाल में ही शिक्षालय में गुरूजन नाना प्रकार की विद्या का पठन-पाठन कराते। पठन-पाठन की परम्परा थी, उसी परम्परा के आधार पर वह शिक्षा में पारांगत होने लगा। एक समय वह बालक अपने शिक्षालय शिक्षा ग्रहण कर रहा था तो उसने देखा कि कुम्भा में से जिसमें एक राजपात्र में बिल्ला के बच्चे अग्नि में प्रविष्ट हो गए थे उस पात्र में तपने के पश्चात् ज्यों के त्यों सुरक्षित हैं। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। कुम्हार ने बालक प्रहलाद से कहा कि तुम्हारा पिता यह कहता है कि मैं परमात्मा हूं जाओ अपने पिता से दृष्टिपात करके आओ कि ये बालक अग्नि के मुख में से कैसे जीवित रहे हैं। मैं आज राजा को ईश्वर क्यों स्वीकार करूं क्योंकि यह तो कोई और चेतना सत्ता है जिसके आधार पर इनके प्राणों की रक्षा हुई है। बेटा! उसी के आधार पर न प्रतीत प्रहलाद का कौन से जन्मों का संस्कार उदय हो गया। उसे निष्ठा हो गई, आस्था हो गई कि प्रभु कोई और ही है तो सर्वज्ञ है, वह अनुपम है क्योंकि वह सर्वानन्द स्वामी है, वह सब में रमण करने वाला है, सबको आनन्दवत प्रदान करने वाला है।
उस बालक ने अपने मन में यह विचार कर लिया कि वास्तव में प्रभु तो कोई और वस्तु है। मेरे पिता नहीं हो सकता क्योंकि यह तो प्रजा का स्वामी है। जो इस जगत का, लोक लोकान्तरों का स्वामी है वही तो एक ईश्वर कहलाया जाता है। जो हमारे अन्तःकरण की वार्त्ता को जानता हो, जो अग्नि के मुख में से मानव को जीवित बना देता है वही तो मानो देखो, हमारे यहाँ चेतनावत प्रभु माना गया है। मुनिवरों! जब बालक प्रहलाद को यह निष्ठा हो गई कि प्रभु तो कोई और वस्तु है यह तो मेरा सांसारिक पिता है, वह तो संसार का पिता है जो मेरे हृदय की बातों को जानता है, वह आयु को निश्चित करने वाला है, वही तो संसार में एक प्रभु कहलाया जाता है। जब उसके मन में यह निष्ठा हो गई, आस्था हो गई तो राजा को यह प्रतीत हुआ कि तेरा पुत्र तो ईश्वरवादी बन गया है, उसी का अध्ययन करता है। नाना पठन-पाठन करने वालों ने भी उसे नाना प्रकार का ज्ञान कराया और यह कहा कि अब तुम्हारे पिता तुम्हें नाना प्रकार के कष्ट में ले जाएंगे। परन्तु बालक न कहा कि मुझे इसका विचार विनिमय नहीं होता क्योंकि जो प्रभु ने मेरे लिए प्रारलब्ध के आधार पर निश्चित कर दिया है उतनी यातनाएं व कष्ट प्राप्त होंगे। जब यह उस बालक के हृदय में विश्वास हो गया कि मेरे हृदय को चेतना बना रहा है, संसार को चेतनावान बना रहा है। मानो सूर्य का प्रकाश आ रहा है परन्तु प्रभु तो प्रकाशों का भी प्रकाश है, सूर्य को भी प्रकाशित करने वाला है।
जब राजा को यह प्रतीत हुआ कि तेरा पुत्र तो ऐसा निष्ठावान बन गया है, मूर्ख बन गया है और तेरा नाम स्मरण भी नहीं करने देता। तो राजा ने अपनी पत्नी से कहा हे देवी! अब हम क्या करें, एक ही पुत्र है, वही इतना मूर्ख बन गया है कि हम उसका प्रमाण भी नहीं दे सकते। ईश्वर-ईश्वर पुकारता है, राम ही राम पुकारता रहता है। वह जो कण-कण में रमण करने वाला है ऐसा वह अपने प्रभु को कह रहा है, इसका कोई मार्ग है। उसने कहा प्रभु! इसमें मेरा क्या दोष है, जैसी उस बालक के हृदय में निष्ठा हो गई है उस निष्ठा को आप नष्ट नहीं कर सकोगे क्योंकि मुझे भी किसी काल में ऐसा ही प्रतीत होता है कि चेतनावादी और वस्तु है। वास्तव में आप ऐसा उच्चारण करते हैं कि मैं ईश्वर हूं। आप नास्तिकवाद के मार्ग पर जा रहे हैं।
मेरे प्यारे ऋषिवर! जब ऐसा माता ने कहा तो राजा ने कहा कि मैं तुम्हारे प्राणों को हनन कर सकता हूं। उस समय देवी ने कहा प्रभु! मेरे प्राणों को हनन कर सकते हो परन्तु मेरे अन्तःकरण में जो चेतना है उसे तुम नष्ट नहीं कर सकते। राजा उस समय लज्जित हो गया। तो देवी! हमें करना क्या है। परन्तु मेरे विचार में यह आ रहा है कि चेतनावान कोई और वस्तु है, उस चेतना को आप जानने की चेष्टा करो। उस समय राजा ने कहा हे देवी! तुम शान्त हो जाओ, मैं तुम्हारी चेतना को अवश्य जानूंगा जिस चेतना के तुम स्वामी बन गएं हो मुझे तुम्हारे स्वामी को जानना है, दृष्टिपात करना है। यह वार्त्ता जब राजा ने प्रकट की जो वह अर्द्धागिनी थी शान्त हो गई। राजा के मन में एक अभिमान था और वास्तव में उसका विज्ञान इतना पराकाष्ठा पर था कि उसे अभिमान अपने विज्ञान पर था।
लोकाम् प्रभाकृति अश्वन्ति लोकाः ऐसा हमारे यहाँ कहा जाता है कि जिस का आत्मा बलवान होता है, आत्मवेत्ता जो महापुरूष होते हैं वह एक विज्ञान में परिणत रहते हैं। प्रहलाद ने अपने जीवन में ऐसे एक योग को अध्ययन किया था, उस योग में उसे निष्ठा हो गई थी, आध्यात्मिक विज्ञान को जानने में अपने जीवन को ओत-प्रोत कर दिया था और यह विचार उसके मस्तिष्क में आया कि वास्तव में मुझे जानना है कि वह अध्यात्मिक विज्ञान कहाँ तक मानव को उन्नत बना देता है उसके द्वारा नम्रता और निष्ठा आ गई थी संकल्प इतना उज्ज्वल बना लिया था कि उस संकल्प के आधार पर बालक प्रहलाद को यह विश्वास हो गया था कि तुम्हें अग्नि नष्ट नहीं कर सकती, आत्मा चैतन्य है, आत्मा को अग्नि नष्ट नहीं कर सकती, वायु और जल अपने मार्ग में नहीं ले जा सकते हैं। इसी प्रकार तेरा जो यह मानवीय शरीर है जिसमें तेरी अवस्था उस चैतन्य प्रभु ने ओत-प्रोत करायी है उतनी ही निश्चित रहेगी उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता। बालक के हृदय में निष्ठा हो गई। एक समय महाराजा हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र को कारागार में ओत-प्रोत करा दिया। उस कारागार में नाना प्रकार के सर्पों को अग्रस्ति माला उसके कंठ में ओत-प्रोत करा दी। जब सर्प उसके निकट आ गएं तो सर्पों का उसके द्वारा इतना संकल्प और अहिंसा परमोधर्म में इतना परिणत हो गया था कि वह सर्प भी उस बालक को निगल नहीं सकते थे। यही तो मानव का हृदय होता है, यही तो मानव की निष्ठा होती है। बालक के हृदय में इतनी निष्ठा थी कि हे सर्पराज! क्या तुम प्रभु के बनाएं हुए नहीं हो? क्या यह योनि प्रभु ने प्रदान नहीं की है? हे विषधरो! तुम विष को धारण करने वाले हो और मानव को अमृत देने वाले हो तो क्या तुम आज मुझ को विषधर बना सकते हो? नहीं बना सकते। हे सर्पराजों! तुम तो मुझे अमृत देते चले जाओ, मेरे द्वारा जो विष हो उसको अपने में पान करते चले जाओ, यही तो तुम्हारा संसार में कर्त्तव्य रहता है वह प्रभु का भक्त कैसी याचना कर रहा है और सर्पराज को अपने कंठ में धारण कर लिया है और यह कहा कि हे सर्पराज तू भी तो आत्मा है और मैं भी तो आत्मा हूं, तू भी एक चेतना है और मैं भी एक चेतना हूं आओ चेतना से चेतना का मिलान होता चला जाएगा।
मेरे प्यारे ऋषिवर! जहाँ मानव के हृदय में इस प्रकार की निष्ठा हो जाती है क्या उसको संसार में कोई नष्ट कर सकता है? कोई नहीं कर पाता। प्रहलाद को जब यह निष्ठा हो गई तो रात्रि समय वह अपने प्यारे प्रभु का गुणगान गाता हुआ, चेतना को स्मरण करता रहा। जब प्रातःकाल होने लगा उस समय प्रहलाद ने कहा था कि हे सर्पराजों! वास्तव में जो मानव क्रोध के द्वारा विष उगलता रहता है, जो मानव काम के द्वारा विष उगलता रहता है, जो प्रकृति के परमाणुओं को दूषित करता रहता है, उसी विष को तुम पान करते हो, मैं इनमें से कोई सा कार्य नहीं करता। न तो मेरे द्वारा हिंसा है न मुझे किसी काल में क्रोध आता है न काम की वासना उत्पन्न होती है, मैं तो एक चेतना का भक्त हूं, जिस चेतना से तुम चैतन्य हो रहे हो तुम मुझे किस आधार से निगल सकते हो। जब यह वाक्य उस महान आत्मा ने प्रकट कराया तो वह सर्पराज शान्त हो गये। प्रातःकाल हो गया। हिरण्यकशिपु को यह धारणा थी कि तेरा बालक नष्ट हो गया होगा। सर्पराजों ने उसे निगल लिया होगा। परन्तु जब वह कारागार में पहुंचा तो देखा वह परमात्मा का चिन्तन कर रहा है। उसी समय राजा ने विचारा कि अब क्या करना चाहिए। विषधर भी शान्त हैं यह तो कोई आश्चर्यजनक है। उन्होंने अपने बालक से यही वाक्य पुनः कहा कि अरे, तुम मेरा नाम स्मरण करने लगो अन्यथा मैं तुम्हें नष्ट कर सकता हूं। उस समय बालक ने कहा कि हे पितर! तुम मेरे संसार के पिता हो परन्तु जिसने मेरे शरीर का निर्माण किया है, जो संसार को रचाने वाला है वह चेतनावादी मेरा पिता है। हे पितर! तुम मेरी आत्मिक चेतना को नष्ट नहीं कर सकते, यह जो शरीर है यह मेरा नष्ट हो जाएगा, अग्नि के मुख में जा सकता है, परन्तु मेरे हृदय में जो प्रभु चेतना है उसे तुम नष्ट नहीं कर सकोगे। यदि उसे नष्ट कर दोगे तो मैं यह स्वीकार कर सकता हूं कि वास्तव में प्रभु कोई चेतना नहीं है।
मुनिवरों! जब यह वाक्य प्रकट किया तो राजा की अन्तरात्मा तो कृत्रियों में रमण कर रहा था, उसे अपने विज्ञान पर अभिमान था और कहता था कि वह प्रभु कोई वस्तु नहीं है, यह मिथ्या कल्पना है। इस मिथ्या कल्पना को मुझे अपने राष्ट्र को दूर कर देना है। उसी समय राजा ने कुछ अपने सेवकों को दृष्टिपात कराते हुए कहा कि यह जो प्रहलाद है इसे पर्वतों से नीचे ओत-प्रोत करा दो जिससे इसकी मृत्यु हो जाएं, मेरा अन्तरात्मा दूषित हो रहा है। यह उससे उपरामता को प्राप्त हो जाएं। मैं निर्मोही बन जाऊं। वास्तव में मैं प्रभु को स्वीकार नहीं करता हूं।
मुनिवरों! वह समय आया। सेवकों ने प्रहलाद को लेकर पर्वतों से नीचे गिरा दिया था परन्तु उस बालक की मृत्यु न हो सकी। क्योंकि वह इतना निष्ठावान हो गया था कि ब्रह्मचर्य से और प्रभु के विवेक में उसका शरीर वज्र के तुल्य बन गया था। यह वाक्य मैं इसलिए वर्णन कर रहा हूं कि विज्ञान और आध्यात्मिक विज्ञान मानव को कितना धृष्ट बना देता है और कितना महान बना देता है।
माता ब्रह्मे लोकः प्रभे हिरण्यकशिपु की भगिनी उसके समीप आ पहुंची और कहा कि प्रभु! आप इस प्रकार निर्मोही क्यों बनते जा रहे हो। उन्होंने कहा कि हे देवी! मेरा जो पुत्र प्रहलाद है वह परमात्मा पर निष्ठा कर रहा है, मैं उसे नहीं चाहता। मेरे हृदय की कल्पना है कि यह मृत्यु को प्राप्त हो जाएं, संसार से चला जाएं, मेरे राष्ट्र से दूर हो जाएं, परन्तु वह इतना निष्ठावान है नद प्रतीत मैं क्या करूं। मुनिवरों! वह जो होलिका थी जिसको हमारे यहाँ उनकी भोजाई कहा जाता था वह कृतिका में रमण करने वाली थी, सदैव विज्ञानशाला में रमण करने वाली थी, विज्ञान के नाना यन्त्रों में परिणत हो गई थी। ऐसा हमने श्रवण किया है वह होलिका मंगल की यात्रा करती रहती थी। वह लोक-लोकान्तरों की यात्रा में सफलता को प्राप्त हो गई थी। उसी का बालक फिरणी नाम का वैज्ञानिक था जिसके द्वारा नाना यन्त्रों में वह परिणत रहती थी। उसे भी यह अभिमान था कि प्रभु कोई वस्तु है ही नहीं क्योंकि परमाणुवाद में जाने के बाद मानव अपनी वास्तविक चेतना को नष्ट कर देता है उसमें अभिमान होता है। अपने कर्त्तव्य के ऊपर उसे बड़ा गौरव होता है। प्रकृति का यह स्वभाव होता है कि जो प्रकृति से निष्ठा करता रहता है यह प्रकृति उसे अभिमान लाती है, क्रोध लाती है, काम की वासना में परिणत कर देती है और उसे नीचे गिरा देती है। जो प्रकृति से उपराम होकर चलता है, इस चेतना को अपना स्वामी स्वीकार करता है वह आध्यात्मिक विज्ञान में पारंगत को प्राप्त हो जाता है। प्रकृति के गर्भ से दूर होता हुआ इस चेतना के गर्भ में चला जाता है जिसको हमारे यहाँ वसुन्धरा कहा जाता है। वसुन्धरा के गर्भ में जाने के पश्चात् उसे वहाँ केवल ब्रह्म ही ब्रह्म, प्रतीत होता है। जैसा मैंने कल के वाक्यों में कहा था उसे यह दृष्टिपात होने लगता है कि प्रकृति का जो कण-कण है वह ओ३म्् रूपी धागे में पिरोया हुआ है, इसलिए मैं दूसरी चेतना को कैसे स्वीकार कर पाऊंगा, न कोई और चेतना है।
मुनिवरों! उस समय हिरण्यकशिपु की जो भाजाई थी उसके मन में एक ही विचार रहता था कि मैं मंगल मण्डल की यात्रा करती रहती हूं। उन्होंने शिवास्त्र, रेधनी अस्त्र सब मंगल मण्डल से प्राप्त किए थे, और भी नाना विज्ञान में वह पारंगत रहती थी। एक समय प्रभा गच्छन ब्रह्मे आस्वान्ति लोकाः। मामनिक ऋषि महाराज ने होलिका से कहा था कि हे देवी! तू मंगल की यात्रा करती है कभी तुझे चन्द्र मण्डल में भी जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है अथवा नहीं। उन्होंने कहा कि मैं चन्द्र मण्डल की यात्रा तो सदैव करती रहती हूं। नाना प्रकार के यन्त्रों के द्वारा चन्द्रमा की यात्रा में सफलता को प्राप्त होती रहती हूं। जब ऋषियों ने कहा कि जिसको हम चन्द्र मण्डल कहते हैं इसमें क्या है? उन्होंने निर्णय कराया कि यह जो चन्द्र मण्डल है मानो वहाँ प्राणवत् रहते हैं, प्राणी रहते हैं जिन्हें परमात्मा से जीवन प्राप्त होता है, उन्हें प्रकृति से जीवन प्राप्त होता है। जीवन की प्रतिभा उनके मस्तिष्कों में ओत-प्रोत रहती है। वहाँ प्राणी वायु की प्रधानता में परिणत रहता है। मेरे प्यारे महानन्द जी ने एक समय वर्णन कराते हुए ऐसा कहा है कि यह जो आधुनिक काल का वैज्ञानिक है यह कह रहा है कि वहाँ वायु प्रधान नहीं है किन्तु मैं यह कहा करता हूं कि वायु का वास्तविक स्वरूप क्या माना जाता है? वास्तव में पृथ्वी मण्डल पर जहाँ हम वायु का स्वरूप स्वीकार करते हैं कि इस वायु का स्वरूप स्थूल है, वृत्त है, उष्ण या शीतल है तो यह विचार नहीं आ पाता है परन्तु हमें यह सिद्ध होता है कि न तो वायु ऊष्ण है न शीतल है क्योंकि इसका जो स्वरूप है वही प्राणी और वायु की प्रधान मानी जाती है।
मेरे प्यारे ऋषिवर! विचार आता है कि यहाँ भी जहाँ पार्थिव तत्त्व प्राणी रहते हैं, वहाँ भी गति होती है, जहाँ गति होती है वहीं वायु की प्रधानता होती है। जहाँ वायु में तीव्रता नहीं होती, जहाँ केवल मध्यम वाद होता है, ऊष्णवाद होता है वहाँ पृथ्वी के परमाणुओं को अपने में आकर्षण शक्ति के द्वारा ग्रहण कर लेती है। ग्रहण करने के कारण उसी की प्रतिभा वायु ग्रहण करती रहती है। ऊष्ण और शीतल बनाती रहती है। उसी के द्वारा अन्न की प्रतिभा का जन्म होता है, अन्न उत्पन्न होता है, वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं क्योंकि परमाणुवाद को ग्रहण करने वाली वायु न हो तो हम प्रभु को स्वीकार ही क्यों करें। यही तो प्रभु! का विज्ञान है।
तो मुनिवरों! उस समय होलिका ने ऋषि से कहा था कि हे प्रभु! वहाँ वायु की प्रधानता मानी जाती है। वहाँ जलाशय प्रबलवत में प्राप्त हो जाते हैं। अन्तरिक्ष जो हम दृष्टिपात करते हैं वह एक जलाशय से भरा हुआ है क्योंकि जब यहाँ पृथ्वी मण्डल पर ग्रीष्म ऋतु आती है तो सूर्य की किरणें जल के परमाणुओं का सूक्ष्म रूप बना करके अन्तरिक्ष में ओत-प्रोत करा देती है। जैसे एक योगी होता है उसका हृदय और ब्रह्म अन्तरिक्ष का हृदय दोनों का मिलान हो करके वह अगम्य हो जाता है इसी प्रकार जब सूर्य की किरणें टेढ़ी हो जाती हैं, एक रश्मी हो जाती हैं उसी समय समुद्रों से जलों का उत्थान आरम्भ होने लगता है। समुद्र के जल के परमाणु बन करके अन्तरिक्ष में ओत-प्रोत हो जाते हैं। इन परमाणुओं का मिलान हो करके अग्नि के परमाणुओं द्वारा, इन्हीं के द्वारा वृष्टि हुआ करती है और वृष्टि हो करके नाना प्रकार का अन्न इसी से उत्पन्न होता रहता है।
वाक्य उच्चारण करने का अभिप्राय कि उस समय राजा की भगिनी ने कहा कि हे ऋषिवर! आपको मैं स्मरण कराए देती हूं कि जब हम चन्द्रमा की यात्रा करते हैं तो उस समय में नाना प्रकार के प्राणियों से वार्त्ता प्रकट करने का सौभाग्य भी प्राप्त होता है परन्तु वहाँ का जो वायुमण्डल है, वहाँ की जो वाणी है उसको यह प्राणी स्वीकार नहीं कर पाता क्योंकि वहाँ कृतिमा माधुक नाम की वाणी प्रचलित रहती है, वहाँ सुहागनी अत्युत्तम जिसको हम प्राकृतिक कहते है जो हमारे वेदों की प्रतिभा रमण करने वाली है उसी के आधार पर वह अपनी वाणी का प्रसार करते रहते हैं क्योंकि ऋग और साम दोनों का मिलान सर्वथा रहता है। ऋग और साम उसी को कहा जाता है जहाँ एक दूसरे का मिलान होता हो। हमारे यहाँ जैसे पृथ्वी को ऋग कहा जाता है और वायु को साम कहा है दोनों के मिलान से ही सामगान होता है। इसी प्रकार जैसे मानव का तालु होता है और जीभ होती है दोनों के मिलान से ही मानव के मुखारविन्द से शब्द की रचना होती है इसी प्रकार वहाँ भी ऋग और साम दोनों का मिलान हो करके वहाँ वायु और जल दोनों का ऋग और साम माना है। जैसे हमारे इस पृथ्वी मण्डल पर पृथ्वी और वायु को ऋग और साम माना है वहाँ पूरे चन्द्र मण्डल में वायु को और जल को दोनों ऋग और साम को उपाधि प्रदान की जाती है। उस काल में वहाँ गान गाया जाता है। गान उसे कहते हैं जहाँ दोनों का मिलान होता है, वहाँ शब्द की रचना होती है, वहीं मिलान होता है, वहीं नाना प्रकार की उत्पत्ति का कारण बना करता है।
तो उस समय राजा की भगिनी ने कहा कि हे ऋषिवर! मैं यह स्मरण कराए देती हूं कि जब तक मानव वहाँ के परमाणुवाद के विज्ञान के द्वारा नहीं जाएगा तब तक इस पृथ्वी मण्डल के प्राणी को वहाँ जीवित रहना असम्भव हो जाता है।
वाक्य उच्चारण करने का हमारा अभिप्राय क्या है कि होलिका वैज्ञानिकता में रमण करने वाली थी। एक समय शान्त मुद्रा में विराजमान थी। होलिका ने अपनी विज्ञानशाला में यह विचारा कि जो प्रहलाद कहता है कि प्रभु ही एक चेतना है तो वास्तव में कोई चेतना तो होनी चाहिए। उसके मस्तिष्क में यह वाक्य आने वाला था कि इतने में उनके विधाता आ पहुंचे। उन्होंने कहा कि तुम क्या चिन्तन कर रही हो। उन्होंने कहा कि कुछ परमाणुओं के ऊपर विचार-विनिमय चल रहा है। मैं एक दूसरे परमाणु से मिलान करने जा रही थी। उसी के विचार में मैं कुछ चैतन्य की वार्त्ता प्रकट कर रही थी और मेरे अन्तःकरण में यह प्रेरणा आ रही थी कि वह जो परमाणुओं की चेतना है उनमें जो एक गति आती है वह एक दूसरे के मिलान से आती है अथवा कोई पृथक चेतना है, इस आधार पर मेरा एक विनिमय हो रहा था। उस समय हिरण्यकशिपु ने कहा कि तुम इन विचारों में क्यों जा रही हो। यह विचार वास्तव में योग्य नहीं है। मेरा तो राष्ट्र का कार्य भी शान्त हो गया है। यह मेरा पुत्र ही मेरा शत्रु बन गया है। मैं यह चाहता हूं कि मेरा पुत्र मृत्यु को प्राप्त हो जाएं।
तो मुनिवरों! उस समय राष्ट्र में दो विभाग हो गये। एक प्रहलाद का विचारवादी बन गया और एक हिरण्यकशिपु का विचारवादी बन गया। जो प्रहलाद के विचारों वाला प्राणी मात्र था उन्होंने नरसिंहगम् ब्रह्म कृत्रिमा ग्रति विश्वानम् अप्रेति कामाः उन्होंने नरसिंह नाम का एक समाज बनाया और एक विचार बनाया कि हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रहलाद ही हमारा राजा है और इसी को हम अपने राष्ट्र में नहीं रहने देंगे। यह विचार प्रजा में बन गया। प्रजा मे आस्तिकता की एक तंरगें भीं वह शांत होने लगी। मुनिवरों! मैं उस वाक्य को शांत न करूं कि होलिका ने अपने विधाता के पुत्र का अपने आँगन मे वरण करा लिया और उन औषधियों का, परमाणुओं का मर्दन करने लगी जिसके मर्दन से अग्नि से अग्नि उसके शरीर में प्रविष्ट नहीं होती थी। परन्तु यहाँ अग्नि का अभिप्राय यह नहीं था संभव गच्छानम् ऐसा कहा जाता था कि उस औषध के प्राणी परमाणुओं में एक विशेषता थी कि यदि वह किसी द्वितीय प्राणी को लेकर अग्नि में प्रविष्ट होती थी तो उस औषध की, उन परमाणुओं की प्रतिभा वह दूसरे मानव के शरीर में रमण कर जाती थी और रमण करने के पश्चात् वह मानव नष्ट हो जाता था जो मर्दन करने वाला होता था।
मेरे प्यारे ऋषिवर! उस समय ऐसा कहा जाता है जब होलिका प्रहलाद को ले करे अग्नि में प्रविष्ट हो गई तो वह होलिका स्वयं नष्ट होने लगी और प्रहलाद अपने जीवन के संकल्प को प्राप्त हो गया क्योंकि जब आस्तिकवाद का प्रसार होता है और कोई न कोई सांस्कारिक प्राणी आ करके इस संसार को आस्तिकवादी बनाता चला जाता है। तो ऐसा श्रवण किया गया कि उसी समय जो प्रजा का जो नरसिंह समाज था उसमें ऐसी महान क्रान्ति आई कि उन्होंने हिरण्यकशिपु को भी नष्ट कर दिया। नष्ट करने के पश्चात् वहाँ का राजा प्रहलाद बन गया और उसके बन जाने के पश्चात् प्रजा आनन्दवत् को प्राप्त होने लगी। यह वाक्य आज मैं इसलिए उच्चारण कर रहा हूँ कि आज हम आस्तिवादी बनते चलें जाएं। विज्ञान यह नहीं कहता कि मैं नास्तिवाद को प्राप्त हों जाऊँ। प्रहलाद बड़ा महान वैज्ञानिक था, सुशील और आस्तिवादी था जहाँ उसका परमाणुवाद में विश्वास था वहाँ परमाणु का निर्माणवेत्ता जो प्रभु है उसमें उसकी आस्था अधिक थी। इसलिए वह अपने कार्यों में सदैव सफल रहा।
मेरे प्यारे ऋषिवर! वाक्य उच्चारण करने का अभिप्राय यह है कि परमात्मा के पुजारी को संसार में कोई नष्ट नहीं कर सकता। उसका अंतरात्मा इतना शक्तिशाली होता है कि उसका प्रमाण नहीं दिया जा सकता। आज का हमारा वाक्य अब यह समाप्त होने जा रहा है। आज के इन वाक्यों का अभिप्राय यह है कि आज मुझे मेरे प्यारे महानन्द जी स्मरण करा रहे है कि आज वहीं चुतर्थदशी है जिस चतुर्थदशी के दिवस महान एक राष्ट्रीय दिवस मानाया जाता है

Sunday, March 3, 2019

शिवरात्रि की महिमा


1   ०६-०३-१९७० शिवरात्रि की महिमा

जीते रहो! देखो, मुनिवरों! आज हम तुम्हारे समक्ष, पूर्व की भांति, कुछ मनोहर वेद मन्त्रों का गुणगान गाते चले जा रहे थे, ये भी तुम्हें प्रतीत हो गया होगा, आज हमने, पूर्व से, जिन वेद मन्त्रों का पठन-पाठन किया। आज हम उस महामना देव की महिमा का गुणगान गाते चले जा रहे थे, जिसकी चेतना से यह सर्वस्व जगत चेतनित हो रहा है। जितना भी चैतन्यवाद हमें प्रतीत होता है वह किसी चेतना के आधार पर स्थित है। क्योंकि ब्रह्म की चेतना ही मानव को चेतनित करती रहती है, अन्यथा शून्यवत रहता है।
तो मेरे प्यारे ऋषिवर! आज हम अपने प्यारे प्रभु का गुणगान गाते चले जाएं, जो हमारे जीवन का सदैव साथी बना रहता है। उसका आनन्दमयी जीवन है उसे अपनाते हुए हम इस संसार सागर से पार होना चाहते हैं।
आज के हमारे वेद पाठ में, सुन्दर-सुन्दर याचनाएं, उस महान प्रभु की महिमा का विगुल कृतिका में, हम रमण करते चले जाएं। आज का हमारा वेदमन्त्र हमें उस ब्रह्म के लिए, ब्रह्म का याचक बनाने के लिए, प्रेरित कर रहा था। एक नहीं नाना प्रकार के विवरण आते रहते हैं। हमारे यहां जहां ओर चर्चा आती चली आ रही थी वहां ब्रह्म के अनुसार भी, कुछ विवेचनाएं अथवा कुछ जीवन की कृतिभा का विवरण भी आता चला आ रहा था, मेरे प्यारे महानन्द जी सदैव यह चाहते रहते हैं, कि मेरे अनुकूल ही कोई चर्चा होनी चाहिए। इनका एक विषय रहता है, इनके विचारों की एक धारा है, जो मानव को भी मुग्ध बना देती है। परन्तु आज का हमारा वेदमन्त्र उस महान् शिव अग्रतम् संकलन में रमण करने वाला है उसका उच्चारण कर रहा है। आज हम उस महान शिव की शरण में ले जाना चाहते हैं जो संकल्पों में विराजमान रहता है, जिसका वह मुनिवरों! शिव ही संकल्प है, क्योंकि वह जो शिवम् सुन्दरम् वह जो शिव है, वह सुन्दर है, क्योंकि वह जटामांसी बन करके रहता है।
मेरे प्यारे महानन्द जी ने कई काल में मुझे प्रकट कराते हुए कहा है कि यह जो गंगा वृत्तं गम्ये प्रभे कृतानम् यह जो गंगा है, यह महाराजा शिव की जटाओं में गमन करने वाली है। परन्तु जब मुझे यह वाक्य स्मरण आता है, इन्होंने कई काल में प्रगट कराते हुए कहा, कि हमारे यहाँ जो शिव है, ऐसा कहा जाता है कि वह महाराजा सुखमञ्जस जो राजा सगर के पुत्र थे, जब महात्मा कपिल जी ने, राजा सगर के साठ हजार पुत्रों! को मृत्यु के मुखारविन्द में अर्पित कर दिया, तो महाराजा सुखमञ्जस, महर्षि कपिल मुनि के आश्रम में प्रविष्ट हुए और महर्षि कपिल जी से कहा कि महाराज! मेरे इस परिवार का कैसे उत्थान होगा? क्योंकि यह मेरे लिए एक बड़ा कलंक है और मैं कलंकित हो गया हूँ कि मेरे विधाता साठ हजार मृत्यु के मुखारविन्द में चले गये। महाराज कपिल जी ने कहा हे राजा! हे राजपुत्र! तुम बड़े नम्र और उदार हो। एक कार्य करो, ब्रह्मे कृतकं प्रभाः इन्होंने गंगा को लाने का प्रयास किया। यहाँ तक कुछ समयाः ब्रह्मे अच्चुतम् तुम्हारी ही परम्परा कुछ काल के पश्चात् महाराजा भागीरथ के द्वारा गंगा का अवतरण होगा। जब महात्मा कपिल जी ने ऐसा कहा तो महाराजा सुखमञ्जन अपने राज्यस्थल को आ गये। महाराजा सगर ने कहा कि कहो सुखमन्जस जी! क्या रहा? उन्होंने कहा कि प्रभु! वह तो मृत्यु के मुखारविन्द में प्रविष्ट हो गएं हैं। उन्होंने कहा-अच्छा, कपिल जी ने ऐसा ही किया है, हां, महाराज!
तो मुनिवरों! कुछ ऐसा कहा जाता है, कि महात्माओं की अनुपमता विचारणीय होती है। कुछ समय बेटा! उसी प्रणाली में महाराजा भागीरथ हुए। जो बेटा! देखो, आकाश से, ब्रह्मपुरी से, गंगा को ले आये। परन्तु जब गंगा को लाने का प्रयास किया गया, तो उस गंगा के प्रवाह को कौन शान्त कर सकता था। तो कहा जाता है कि महाराजा! शिव के द्वारा, महाराजा सगर प्रविष्ट हो गएं और ब्रह्मे कृत्रं ब्रह्मे सगरथ च प्रमाणे अस्तेः महाराजा सगर ने भी यही याचना की। इसके पश्चात् महात्मा भागीरथ जब इनके समीप पहुंचे इन्होंने कहा कि प्रभु! गंगा के प्रवाह को कौन शान्त कर सकता है। कहते हैं महाराजा शिव ने अपने संकल्प के द्वारा, अपनी जटाओं में अर्पित कर लिया। जटाओं में अर्पित करने के पश्चात् मानो गौमुख के द्वारा इसी गंगा का अवतरण हुआ। मुनिवरों! ऐसा हमारे यहां मेरे प्यारे महानन्द जी ने मुझे यह लोककथा वर्णन कराई। परन्तु इस सम्बन्ध में तो मेरा हृदय बड़ा ही गद्-गद् होता रहा है।
आज भी मुझे वह समय प्रायः प्राप्त होता रहता है कि वास्तव में ऐसा ही स्वीकार किया जाएं। परन्तु हमारे यहाँ ऐसा माना गया है कि शिव के नाना पर्यायवाची शब्द होते हैं। शिव नाम परमात्मा का भी है और शिव नाम आत्मा को भी कहा जाता है। शिव नाम की कुछ औषधियाँ भी होती हैं, परन्तु यहाँ शिव नाम पर्वतों का उच्चारण करने में कोई किसी प्रकार का दोषारोपण नहीं होगा। क्योंकि शिव नाम पर्वतों का भी कहा गया है। यह जो गंगा का अवतरण है, यह केवल देखो, पर्वतों से हुई, मानवीय कल्याण के लिए, पृथ्वी के आसन को आकृत करती हुई और सुखद देती हुई, समाज को अपनी प्रतिभा से बेटा! यह अपने मार्ग से चली आ रही है। इसी प्रकार ऐसा कहा जाता है कि महाराजा! शिव हम पर्वतों को कहते हैं, क्योंकि गौमुखम् ब्रह्मे क्योंकि शिव वह पर्वत का जो ऊपरी भाग होता है उसको जटावासी कहते हैं। जटाओं में रहने वाला मुनिवरों! देखो,! ऊपरी भाग से जो आ रहा है उसी को हमारे यहाँ जटावासी शिव कहा जाता है। परन्तु जहाँ हम यह स्वीकार करें कि शिवं ब्रह्म रात्राणि गच्छन्त रूद्रोः मेरे प्यारे महानन्द जी का यह कथन है कि आज वह शिव सुन्दर रात्रि है जिसमें माता पार्वती और शिव दोनों जागरूक रहते थे। उन्होंने अपनी साधना को परिपक्व किया था, उन्होंने योगाभ्यास में अपनी पारायणता को प्राप्त किया। हमारे यहाँ यह कहा जाता है इस सम्बन्ध में जो परम्परागतों से ही, माना गया है कि शिवं ब्रह्मे शिव सुन्दरम् अच्त्तम ब्रह्मे आक्राति लोकाः ऐसा कहा जाता है कि यह शिव मानो संकल्प को कहा जाता है। आज का जो दिवस है वह केवल गंगा अवतरण का ही नहीं है परन्तु जहाँ गंगा अवतरण का है क्योंकि आज के दिवस परमापिता परमात्मा की प्रतिभा के आधार पर सूर्य का निर्माण हुआ। सूर्य को भी हमारे यहाँ शिव कहा जाता है। उसकी नाना प्रकार की किरणें हैं वह मानो जटावासी कहलाई गई है। वह जो शिव सुन्दर है, शिव है, शिव उसे इसलिए कहते हैं परमात्मा को क्योंकि वे परमपिता परमात्मा का संकल्प है और परमात्मा का जितना भी संकल्प होता वह सर्व ब्रह्माण्ड को क्रियाशील बना रहा है। जैसे एक मानव का संकल्प होता है मानवीय संकल्प है एक माता का प्रिय पुत्र है परन्तु ऐसा ही पिता का होता है माता के प्रति एक संकल्प है एक महान शिव संकल्प है उसके मस्तिष्क में क्या यह मेरा पुत्र है परन्तु पुत्र का संकल्प ही तो उसके मस्तिष्क में रहता है और पुत्र के हृदय में यह संकल्प रहता है यह मेरी मातेश्वरी है, इसके उदर से मैंने जन्म को ग्रहण किया है। आदरणीय मातेश्वरी के गर्भ में, मैंने अपनी प्रतिभा को प्राप्त किया है। आज मुझे इसका निरादर नहीं करना है। परन्तु इस प्रकार का संकल्प दोनों के हृदय में होता है। इसी प्रकार पति-पत्नी का संकल्प होता है। उसमें भी शिव का एक संकल्प होता है। वाक्य उच्चारण करना यह है कि जितना भी यह जगत है यह सब उस प्रभु का संकल्प है, उस शिव का संकल्प है। मानो देखो, उसी संकल्प के आधार पर बेटा! यह संसार की चेतना चल रही है। संसार अपनी क्रिया में क्रियाशील हो रहा है उसकी जो क्रिया है, मानो उसकी जो चेतनावत है उसी में महान शिव का एक संकल्प है। वह जो शिव का उज्ज्वल संकल्प होता है, वही मानो मानवीयता को पवित्र बनाने वाला है इससे मानवता का एक प्राप्त हो जाता है परन्तु मानवता में हृासपन नही आता इसीलिए हमारे आचार्यों ने कहा है कि मानव को संकल्प कर लेना चाहिए। परमात्मा की, माता की प्रतिभा माता का संकल्प है कि मेरा पुत्र मानो परमाणुओं का समूह विराजमान है, आत्मा का ही तो संकल्प है बेटा! यह शरीर परमाणुओं का बना हुआ मानो यह ज्यों का त्यों पिण्ड के रूप में रहता है। जितना भी पिण्डवाद है उसमें प्रभु उस शिव का एक उज्ज्वल संकल्प होता है बेटा!
मेरे प्यारे ऋषिवर! वह जो संकल्प होता है उसी संकल्प के आधार पर हमें अपने जीवन, अपनी मानवीयता को विचार-विनिमय कर लेना चाहिए। एक मेरी प्यारी माता है, परन्तु उस माता के प्रति एक अपने प्रारब्ध के ऊपर उसे विश्वास होता है, उसमें संकल्प आ जाता है कि वो प्रभु ही रचता है। वह जो संकल्पवाद है, वही मानव को स्थिर करने वाला है, वही जीवन का एक कृत घोष कहलाया गया है। हमारे यहाँ शिव के समय मानो यह जो एकादशी एकदश ब्रह्मे शिवं रात्राणि गच्छन्तम् ऐसी मेरे प्यारे महानन्द जी प्रेरणा दे रहे हैं। आज मेरे प्यारे महानन्द जी भी शिव के ऊपर कुछ सूक्ष्म सा अपना प्रकाश देंगे। मैं तो केवल इतना वाक्य उच्चारण करने के लिए तत्पर रहता हूँ कि यह जो प्रभु का महान संकल्प शक्ति के आधार पर यह जो मानो जगत स्थिर हो रहा है। एक पिता के हृदय में यह कल्पना है यह संकल्प है कि यह मेरी पुत्री है परन्तु पुत्री के प्रति उसे कितना संकल्प है। इसी प्रकार मुनिवरों! शिव नाम उस महान प्रभु का है, और प्रभु का ही जो संकल्प है कि यह जगत अपना कार्य कर रहा है। एकादशो जो एकादशम् ब्रह्मे-मानो एकादशो हमारी इन्द्रियाँ हैं यह आत्मा का विशेषण संकल्प कहलाया गया है क्या मेरी इस यज्ञशाला में मानो यह दस पात्र हैं और ग्यारहवां मन होता है मानो पात्रों में आहुति प्रदान करने वाला जैसा हमारी योग की परम्परा में महाराजा शिव और पार्वती दोनों के शब्दार्थों में ऐसा विवरण प्रायः आता रहा है। मुनिवरों! देखो, जैसे हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि ब्रह्मे आत्म ब्रह्मे एकादशो का अभिप्राय यह है प्रायः हमारे यहाँ एकादशी व्रत को प्रायः बहुत उज्ज्वल माना जाता है। आज से नहीं परम्परा से ही पवित्र माना गया है। हम भी एकादशो व्रत को सदैव से धारण करते चले आए हैं और भी ऋषि मुनियों का ऐसा सिद्धान्त रहा है। परन्तु एकादशो का अभिप्राय क्या है? अन्नवता ब्रह्मे त्याग्य ब्रह्मे नैत्यं सर्व ब्रहे अस्ताम् ऐसा कहते हैं आचार्य जन कि अन्न को त्यागना ही हमारे लिए एकादशो नहीं। अन्न को त्यागना भी वैज्ञानिक रूपों से परिणत और सम्बन्धित किया गया है। हमारे जीवन का जो सम्बध है वह मानो उस महान प्रकृतिवाद से रहता है, अन्न से रहता है। अन्नवाद ब्रहे अन्न में कई प्रकार के दोष अवृत दोष होते हैं। क्योंकि एकादशी मानो यह जो सूर्य की गति के आधार पर हमारी एकादशी बनती है, जैसे मानो द्वादश बनती है, त्रयोदश बनती है, चतुर्दश बनती है, पञ्चम् बनती है, षटं बनती है, सप्तमी बनती है, अष्टमी बनती है, नवमे बनती है और दशमी बनती है। इसी प्रकार एकादशी का सबसे प्रथम ऐसा महत्व क्यों माना है? वास्तव में जितनी भी तिथियाँ होती हैं उन सबकी जो गति होती है वह सूर्य की गति के आधार पर होती है। जिस समय द्वादश होती है द्वादश का जो प्रभाव है। वह एक महत्वपूर्ण माना गया है। द्वादशी में मानों कृतिका और भानु दोनों नक्षत्रों का दोनो नक्षत्रों की प्रतिभा रहती है। मुनिवरों! देखो, वह जो प्रतिभा है, वह मानव के पिण्ड में भी उसी प्रकार गति करती है। अहा माता के वह जो दिवस होता है वह बड़ा सुन्दर और महान होता है। उसमें गर्भा प्रभेव अचतम् लोकां ब्रह्मे अस्ति इस विज्ञान में मैं अधिक नहीं जाना चाहता हूं केवल तुम्हें यह विज्ञान का वाक्य प्रकट करा रहा हूं। अष्टमी में भी दोषारोपणों की वास्तव में प्रकृति में कोई दोषण हो जाता हैं वह चन्द्रमा की गति के आधार पर, क्योंकि पुष्य और जेष्ठाय नक्षत्र दोनों की प्रतिभा इसमें प्रतिष्ठित हो जाती है इसलिए उनका अच्छी प्रकार स्पष्टीकरण नहीं हो पाता। परन्तु आज का वह जो एकादशो आज मैं सभी तिथियों के सम्बन्ध में अपना प्रकाश नहीं देना चाहता। वेद के ऊपर विचार-विनिमय करना हमारे लिए मानो देखो, उतना समय आज्ञा नही दे रहा है वाक् केवल यह है कि एकादशी जो शिवं व्रतं ब्रह्मे वास्तव में देखो, इस एकादशी के दिवस मानव शिव का संकल्प करता है और संकल्प क्या करता है कि मैं संसार में त्रुटियों को त्यागने का प्रयास कर रहा हूं। अपने जीवन को मानो एक महान सूक्ष्म वेला में लेना चाहता हूँ। बाह्य जीवन सूक्ष्मतम् बन जाएं और आन्तरिक जो जीवन विस्तारवादी बन जाएं। क्योंकि विचार मेरा विस्तार का हो और मेरे जितने दोषण हैं उनमें बहुत संकुचितवत होना चाहिए। वह मेरे द्वारा सिमट जाएं इसी प्रकार मुनिवरों! देखो, मेरे मन में एक संकल्प रहा है इस प्रकार का जब मानव का संकल्प रहता है। तो यहाँ मानव तुच्छवत को प्राप्त नहीं होता।
मेरे प्यारे ऋषिवर! एकादशो का अभिप्रायः क्या है? एकादशी के व्रत का अभिप्राय यह है कि व्रत नाम है संकल्प का व्रत कहते हैं संकल्प को और एकादशो कहते हैं कि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और पांच कमेन्द्रियाँ हैं और ग्यारहवां मन कहलाया गया है। क्योंकि यह मन ही संकल्प की प्रतिभा का एक प्रतीक माना गया है, इसमें प्रायः ऐसा कहा जाता है कि इसमें अन्न को ग्रहण नहीं करना चाहिए। और मुनिवरों! देखो, अन्न को क्यों नहीं ग्रहण करना चाहिए? हमारे यहाँ ऐसा कहा गया है देखो, कृत्तिका और भानु नक्षत्र दोनों का प्रभाव सूर्य की किरणों में होता है। सूर्य की किरणों की जो प्रतिभा है वह अन्न में जाती है क्योंकि अन्न का जो स्थूलवत है मानो वह मानो सूर्य की किरण के आधार पर ही स्थित रहता है। उसी से उसमें एक क्रीड़त गति होती है, उसी गति के आधार पर कुछ वैज्ञानिकों ने कहा है जो वैदिक वैज्ञानिक हुए हैं, परम्परागतों वाले जो वैज्ञानिक हुए हैं उन्होंने कुछ ऐसा माना है क्या वह मानो उसकी तो प्रति ब्रहा सूर्य की किरणों के आधार पर कुछ ऐसा माना है कि अन्न में किसी प्रकार का एक विषधर हो जाता है। व्रत नाम संकल्प का है और एकादशो का अभिप्रायः यह है कि हम मन, वचन और कर्म से ही हम अपनी इन्द्रियों को संयम में बनाएं।
पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, और उनके साथ में लगा हुआ जो मन है जिसे एकादशो कहते हैं, एकायतुक यही इन्द्रियों का प्रतीक माना गया है। बिना मन के इन्द्रियों का अपना कोई भी अस्तित्व नहीं होता अस्तित्व नही होता, क्यों नही होता? क्योंकि मानव के नेत्रों की ज्योति चलती है उसमें मनीराम ही विराजमान रहते हैं। मन के आधार पर ही यदि मन नेत्रों के साथ लगा हुआ है तो नाना प्रकार की चंचलता, नाना प्रकार का उदारपन नेत्रों के समीप आता रहता है। इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय के साथ मन होता है। परन्तु वह जो मन की प्रतिभा है मन की जो स्थिति है वह जो मन का एक प्रतेक प्रवाह माना गया है। तो मुनिवरों! मन की वह जो चेतना है, मन का जो विभाजनवाद है वह इन्द्रियों को ही अपना अस्तित्व दे करके बेटा! इन्द्रियों को विरेक करता रहता है। तो विचार-विनिमय केवल यह हमारा है आज के इन वाक्यों का अभिप्रायः यह है आज का दिवस इसलिए हमारे यहाँ परम शोभनीय माना गया है कि आज के दिवस शिव के संकल्प के आधार पर, सूर्य का निर्माण हुआ। क्योंकि सूर्य अपनी सम्पन्न कलाओं से युक्त हो गया था। आज के दिवस, चन्द्रमा की भानकेतु, चन्द्रमा की कृति कान्त अन्वेषणों में उसमें भी एक प्रतीक माना गया है।
तो मेरे प्यारे ऋषिवर! वाक्य के उच्चारण करने का अभिप्राय यह है कि आज के दिवस जो एकादशी व्रतम् ब्रह्मे जिसको शिवरात्रि कहा जाता है इसको शिवः शिवरात्रि को कहते हैं क्योंकि यह सबसे प्रथम रात्रि संसार में आई। जब संसार की रचना हुई तो सबसे प्रथम रात्रि शिवरात्रि, जिसको एकादशी अकृत कहा जाता है। मेरे प्यारे ऋषिवर! कुछ ऐसा भी माना गया है, हम जब यह स्वीकार करते हैं कि एकादशो व्रत धारण करने से जीवन की प्रतिभा को ले करके ही बेटा! जीवन में एक महानता की ज्योति प्रकट हो जाती है, उससे ही जीवन का एक उज्ज्वल लक्ष्य हमारे समीप आने लगता है।
तो मेरे प्यारे ऋषिवर! आज मैं कोई विशेष चर्चा प्रगट करने नही आया हूँ वाक् यह उच्चारण करने का अभिप्रायः है आज का वह शुभ शोभनीय एक दिवस है, रात्रि है, जिसमें मुनिवरों! देखो, मानव पिंड का निर्माण हुआ। सबसे प्रथम मानव पिंड रूप में जागरूक हो गया था जागरूक हो जाने के कारण क्योंकि वह शिव का संकल्प था, परमात्मा के संकल्प के आधार पर ही मानव अपनी सम्पन्न कलाओं से परिपक्व हो गया था। उसी को हमारे यहाँ जीवन की एक स्वात धारा कहा जाता है जिसको अपनाने के पश्चात् हमारे जीवन में एक आनन्दवत उत्पन्न हो जाता है, जिसको धारण करने के पश्चात्, हमारी इन्द्रियों में एक महान संकल्प की पवित्र धारा ओत-प्रोत हो जाती है।
तो मेरे प्यारे ऋषिवर! बेटा! आज का यह वाक्य क्या कहा रहा है? हमें विचार लेना चाहिए। आज हम अपने शिव संकल्प को अपनायें क्योंकि वह संकल्प ही हमारे जीवन के साथी है। मानव एक मिथ्यावाद को अपना लेता है, अनायास ही मिथ्या उच्चारण करता है, परन्तु वह उसका शिव संकल्प नही होता, मानव का संकल्प वह होता है जिसमें मानव अपनी प्रतिभा बना लेता है, अपना संकल्प बना लेता है कि जो मैंने कहा है वह मुझे करना है मानो वह क्रियात्मक में लाना है। जब मानव का इस प्रकार का संकल्प हो जाता है तो उस मानव के जीवन में, इन्द्रियों को संयम में करने की शक्ति प्रबल हो जाती है। इन्द्रियों को संयम में करना ही उसका लक्ष्य एक हो जाता है। आज उस लक्ष्यवाद को हमें जानना है। उसी लक्ष्यवाद के आधार पर अपने मानवीय समाज को ऊँचा बनाना है।
जैसा हमारा परम्परागतों से वाक् होता रहा है। मेरे प्यारे ऋषिवर! आओ, आज हम तुम्हें उस मार्ग पर ले जाना चाहते हैं, दो वाक्य तुम्हारे समीप प्रगट किए हैं। मानव एकादशी के व्रतों को क्या महत्व देता है-एकादशी मानो शिवरात्रि जिसमें शिव का संकल्प भी होता है। शिव का संकल्प मानो देखो, उस रात्रि इस दिवस को मानो आज की रात्रि के दिवस तो मानव का निर्माण हुआ, सूर्य का निर्माण परिपक्व हो गया था इसीलिए मानवीय जाति में शोभनीय माना जाता है। आओ मेरे प्यारे ऋषिवर! एक वाक् तुम्हें ओर प्रगट कराते चले जाएं क्योंकि यही दिवस हमारे लिए शोभा ब्रह्मे व्यापनोति सर्वां हमारे संसार के लिए उज्ज्वल कहता रहा है संसार में प्रायः एक महान ज्योति उसमें जब ही प्रविष्ट हो जाती है जब मानव में व्यापकवाद में संकल्पवाद की प्रतिभा होती है यह है बेटा! आज का हमारा वाक्, मैं कोई अधिक चर्चा करने नही आया हूँ। हमारे यहां शिव पर्वतों को भी कहा जाता है। शिव नाम परमात्मा का भी है। शिव नाम आत्मा को भी कहा गया है। शिव सूर्य को भी कहा गया है परन्तु यहाँ शिव की जो महिमा है वह केवल जैसा हमने अभी अभी कपिल मुनि के वाक्यों को अभी-अभी हमने प्रकट कराया था सुखमञ्जस इत्यादि के आधार पर परन्तु देखो, उसमें जाना हमारे लिए शोभा नहीं देता। वाक्य केवल यह है कि यह कहा जा सकता है कि महाराज! भागीरथ इस गंगा को पर्वतों से मुनिवरों! देखो, इस महान पृथ्वी मण्डल पर ले आये। लाने का अभिप्राय क्या था, कि यह संसार सुखद बनें, मेरा राष्ट्र सुखद बने क्योंकि वह जहाँ-जहाँ शंख की ध्वनि को करते चले जाएं, जहाँ-जहाँ अपनी प्रतिभा को लेते चले आये, वहीं गंगा का प्रवाह, पृथ्वी मण्डल पर आता रहा है। मुझे कुछ ऐसा स्मरण है बेटा! जब हमारे यहां राजा सगर की परम्पराओं में ही राजा सगर के साठ हजार पुत्र कहलाए गएं हैं। पुत्र क्या उनके यहाँ साठ हजार सेना का समूह रहता था, वह सब उनके पुत्र के तुल्य था। उनको अभिमान की प्रतिभा आ गई थी। उन्होंने पृथ्वी में गढ़ढे बनाएं, प्रधांगगिरि किया, निर्माण किया, नाना निर्माण करने के पश्चात् वह महाराजा सुखमञ्जस ने भी वही कार्य किया। मानो इसी प्रकार और भी राजा हुए जैसे सुखमञ्जस के पुत्र रेणुकान्त राजा हुए उन्होंने भी यही किया। रेणुकांत राजा के पुत्र शोभिन नाम के राजा हुए वह भी यही कार्य करता था। सुगनात नाम के राजा थे परन्तु वह भी यही करते थे। इसी प्रकार यह प्रायः गंगा को पर्वतों से, पृथ्वी पर लाने का नाना प्रयास करते रहे। प्रयास करने का परिणाम यह हुआ कि वह कुछ काल के पश्चात मानो सातवीं प्रणाली में महाराजा सगर जो सौनात नाम के राजा के पुत्र कहलाए जाते थे परन्तु देखो, वह उन राजाओं की परम्पराओं में ऐसा प्रायः प्रयास होता रहा अन्त में राजा सगर को उसका श्रेय प्राप्त हुआ श्रेय प्राप्त होते हुए, उन्हें गंगा को पृथ्वी पर लाने का श्रेय प्राप्त हो गया क्योंकि वह संसार को जलमय, आनन्दवत में बनाना यह राजाओं का कर्त्तव्य होता है।
तो मेरे प्यारे ऋषिवर! मैं अब इन वाक्यों को भी विराम देने जा रहा हूं। अब मेरे प्यारे महानन्द जी अपने कुछ सूक्ष्म से विचार व्यक्त कर सकेंगे। समय तो इतना नहीं है, जो मेरे प्यारे महानन्द जी अपनी कुछ विवेचना कर सकें परन्तु चलो कुछ सूक्ष्म समय प्रदान किया जा रहा है।
पूज्य महानन्द जीः-यम रथाः यम गताः यौ शिवं मना चरयच्चतं ग्राम वजेवो स्वरी गतामानं ब्रह्मा
मेरे पूज्यनीय गुरुदेव! ऋषि मण्डल! भद्र समाज! मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने यह अमूल्य समय प्रदान किया। जिस समय में मेरे पूज्यपाद गुरूदेव का प्रवाह चल रहा था विचारों का, और शिव संकल्प के सम्बन्ध में भी, इनका विचार विनिमय हो रहा था। मुझे इस सम्बन्ध में कोई विशेष चर्चा नहीं करनी है। केवल विवेचना यही करनी है एकादशो शिव संकल्प प्रह्वे आज का वह पुनीत और उज्ज्वल दिवस है जिसको हमारे यहाँ शिवरात्रि कहा जाता है। शिव रात्रि की प्रायः पूज्यनीय गुरुदेव ने सभी वार्त्ता प्रकट कर दी है। वैज्ञानिक रूप भी हमारे समक्ष नियुक्त किया है और व्यावहारिक रूप भी हमारे समक्ष नियुक्त किया है परन्तु जहाँ मैं यह उच्चारण करने जा रहा हूं कि हमारे यहाँ शिवरात्रि कहते किसे हैं? इसको शिव रात्रि क्यों कहा जाता है? ऐसा भी हमारे यहां पर्व माना गया है, इसको शिवरात्रि क्यों कहा गया है महाराज जो शिव थे, उन्होंने राष्ट्र को अपनाया राष्ट्र को अपनाते समय उसी दिवस एकादशी का दिवस था। इसीलिए राजा ने अपने राष्ट्र में मानो देखो, एकादशी व्रत का पालन कराया था। वास्तव में यह वाक्य परम्परा से ही चला आ रहा था, परन्तु यह वाक् कोई नवीन नहीं था। राजा के लिए एक शुभ अवसर और भी प्राप्त हो गया। इसलिए मानो देखो, मानवीय समाज में हम यह वाक्य भी उच्चारण करने के लिए तत्पर रहते हैं, कि वास्तव में जो शिव संकल्प है, वही मानव का जीवन है, वही राष्ट्र का जीवन है। महाराजा शिव ने अपने राष्ट्र में संकल्प बनाया कि मेरे राष्ट्र में इतने ऊँचे विचारों वाली प्रजा होनी चाहिए, जैसे कैलाश पर्वत होता है। कैलाश पर्वत जितना विशाल है ऐसे ही मानव के विचारों में भी विशालवाद होना चाहिए। उसी विशालवाद से राष्ट्र और समाज दोनों ही उन्नत बना करते हैं। जहाँ मैं यह वाक्य उच्चारण करने जा रहा हूं क्या मानो देखो, आज की जो शिवरात्रि है वह बड़ी ही महान शोभनीय होती है, परन्तु आज का जो मानव है-वह जहाँ शिव रात्रि का व्रत धारण करता है इन्द्रियों पर संयम नहीं रह पाता है। जहाँ इन्द्रियों पर संयम नहीं रह पाता वहाँ शिवरात्रि उसके लिए और भी हानिकारक हो जाती हैं। हानिवत हो जाती है। हमें विचारना है कि वास्तव में हम शिवरात्रि को अपनाना चाहते हैं, परन्तु हम अन्न को भी त्यागना चाहते हैं, अन्न को त्यागने से पूर्व हमें यह विचारना है कि हमें अपने उदर को भी सुन्दर बनाना है। उदर में किसी प्रकार का रुग्ण नहीं होना चाहिए, विषधर नहीं होना चाहिए जिससे मानव रुग्ण हो करके ऐसे नष्ट हो जाएं जैसे सायंकाल का सूर्य समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार जब मुझे प्राप्त होता है, मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने मुझे यह समय प्रदान किया है। आज का समाज तो एकादशो का व्रत धारण करता है वह केवल रूढ़िवाद से करता है। रूढ़िवाद क्या है? आधुनिक काल में हमारे मस्तिष्कों में सबसे प्रथम वह विचारधारा रहती है कि मैं सनातनी न कहलाऊं, परन्तु देखो, बहुत से इस व्रत को करते हुए इसलिए लज्जित होते हैं क्या, मैं यह कार्य करूंगा, तो सनातनी बन जाऊँगा। सनातनियों के मस्तिष्क में यह विचारधारा रहती है कि यदि मैं व्रत नहीं करूंगा तो कोई मुझे आर्य व्रत कहेगा काई आर्य समाजी कहेगा। इस प्रकार की विचारधारा उनके मस्तिष्कों में प्रायः आ जता है। परन्तु देखो, जहाँ संकल्प है, अच्छाइयाँ हैं, वह संसार में मानव के लिए एक ही तुल्य मानी गई है। उसमें किसी प्रकार विवाद किसी भी काल में नहीं होता।
परन्तु जहां एकादशो, शिवरात्रि में जागरूक रहना बहुत अनिवार्य है। ऐसा भी माना गया है परन्तु क्यों माना गया है? क्या एक मानो देखो, इस दिवस में इस कृतिका नक्षत्र में क्योंकि जहां मानो देखो, एकदाशी आती है वहाँ सूर्य की किरणों का सम्बन्ध अधिक होने के नाते ही कृत्तिका और बृद्ध भानु दोनों नक्षत्रों की प्रतिभा रहती है, जो मध्यरात्रि में, उस नक्षत्र की प्रतिभा समाप्त हो जाती है। इस रात्रि में मेरी गर्भवती पुत्रियाँ हैं उनको तो प्रायः जागरूक रहना ही चाहिए, क्योंकि कृत्तिका और वृद्धभानु जो दोनों नक्षत्र हैं इनमें बहुत-सी मेरी पुत्रियों के गर्भ में जरायु में किसी प्रकार का दोषारोपण होने की आशंका रहती है क्योंकि जो पिण्ड है वही ब्रह्माण्ड है। इसी प्रकार यह कल्पना शोधनवत की हुई है। जब हम यह विचारने लगते हैं कि वास्तव में प्रायः ऐसा होना चाहिए तो जीवन की प्रतिभाओं में एक महानता की ज्योति जागरूक हो जाती है। तो आज का जो दिवस है वह बड़ा ही महान शोभनीय और विचारणीय सुन्दरवत् कहलाया गया है।
तो इसीलिए आज मैं कोई विशेष चर्चा प्रगट करने आया हूँ, आज का समाज तो अन्न को त्यागने को व्रत स्वीकार करता है परन्तु वास्तव में सनातन और समाज में किसी प्रकार का अन्तर्द्वन्द्व नहीं होना चाहिए। यह तो सभी के लिए एक ही तुल्य होता है, जो इन्द्रियों को संयम में बनाना है, संकल्प है, विचारधारा को शोधन करना है, मानो शरीरिक विज्ञान को और इस भौतिक विज्ञान को पान करना है यह सभी के लिए उत्पन्न होता है जो आज हमारे जीवन में एक महान् और सुन्दर वाक्य कहा गया है जिससे हम यह विचारने लगते हैं कि वास्तव में हमारा जीवन, उन्हीं वाक्यों से सुगठित रहता है, जिन वाक्यों में जीवन की प्रतिभा का, एक नवीन प्रतीक होता है इससे हमें उसे अपनाने में किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए। यह आज का हमारा वाक्य समाप्त होने जा रहा है। मैंने अपने पूज्यनीय गुरुदेव से याचना की और यह कहा कि भगवन्! शिवरात्रि के सम्बन्ध में अपना कुछ प्रकाश दीजिए। मेरे पूज्यपाद गुरूदेव ने शिवरात्रि के पर्व को बहुत ही सुन्दरवत माना है। मैं भी यह स्वीकार करता रहा हूँ कि जो शिवरात्रि है इसमें मानव को जागरूक रहना तो कोई विशेषकर तो नहीं होता परन्तु कुछ होता भी है जो वैज्ञानिक रूपों से इसका सुगठित सम्बन्ध होता है। परन्तु उसमें मानव क्रिया, कर्म और वचन सभी में एक तुल्य रहना चाहिए। जैसे रात्रि में अंधकार होता है, तो अन्धकार सामान्य होता है, प्रकाश होता है तो प्रकाश भी सामान्य होता है। इसी प्रकार जो शिव का संकल्प है अहा मानव इसी दिवस अहा जागरूक रहने का उन्होंने प्रयास किया, क्योंकि यदि वह जागरूक नहीं रहते, तो जीवन की प्रतिभा में प्रकाश नहीं हो सकता था। अब मैं अपने पूज्य गुरूदेव से आज्ञा पाऊंगा। मुझे केवल इतना ही वाक्य उच्चारण करना था। मेरे वाक्यों का प्रायः यह अभिप्राय रहा है कि मानव को रूढ़िवाद में नहीं जाना चाहिए, केवल एकवाद में रमण करते हुए व्रत को धारण करते चले जाओ। व्रत नाम संकल्प का है। व्रत नाम अच्छाइयों को लाना है, दुरितानि जो है देखो, जो जितने भी दुर्गण, जितने भी दुर्व्यवहार हैं उनको त्यागना है। यह आज का वाक् मैं अपने पूज्यपाद गुरुदेव से आज्ञा पाऊंगा अन्न को त्यागना ही कोई व्रत नही कहलाता। केवल क्षुधा को पीड़ित बनाना ही व्रत नहीं कहलाया जाता। व्रत नाम तो संकल्प में रहता है, व्रत तो देखो, मुनष्यों के मस्तिष्कों में, मन में, इन्द्रियों में सब में विराजमान रहता है। उसी संकल्प के आधार पर जीवन एक महानवत को प्राप्त हो जाता है। तो आज का अपना यह वाक्य अब समाप्त। मैं अपने पूज्यपाद गुरूदेव से आज्ञा पाऊंगा। मैंने कुछ सूक्ष्म चर्चायें की हैं। मैं कोई विशेष चर्चा करने नहीं आया हूं।
पूज्यपाद गरुदेवः- मेरे प्यारे ऋषिवर! आज मेरे प्यारे महानन्द जी ने, शिव के ऊपर अपनी एक विचारधारा प्रकट की कुछ सूक्ष्म से शब्दों में इन्होंने विचार व्यक्त किया कि मानव को रूढ़िवाद में नही जाना क्योंकि रूढ़िवाद मानव को ऐसे गढ़ेले में ले जाता है, ऐसे मार्ग पर ले जाता है, जहाँ उसे प्रकाश नहीं प्राप्त होता। अन्धकार छा जाता है तो इसलिए मेरे प्यारे महानन्द जी ने बहुत सुन्दर शब्दों में अपने विचार व्यक्त किये। क्षुधा से क्षुधित होना व्रत नहीं है। व्रत नाम अपनी इन्द्रियों को विचारशील बनाना है, इन्द्रियों के ऊपर अनुसन्धान करना है यह आज के शिव के व्रत का अभिप्राय है। आज का हमारा वाक्य समाप्त। अब वेदों का पाठ होगा।