1 २२-०३-१९७०-आस्तिकता का दिग्दर्शन
जीते रहो! देखो, मुनिवरों!
आज हम तुम्हारे समक्ष, पूर्व की भांति, कुछ मनोहर वेद मन्त्रों का गुणगान गाते चले जा रहे थे, अब जब मानव जिज्ञासु बनकर अपने प्यारे प्रभु के द्वार पर जाता है तो उसे
ऐसा प्रतीत होता है जैसे ममतामयी माता की छाया में विराजमान है। जैसे क्षुधा से
पीड़ित बालक माता की लोरियों में अपने जीवन को पनपाने लगता है और अपने में सौभाग्य
को स्वीकार करने लगता है उसी प्रकार हम उस ममतामयी माता के द्वार पर जाना चाहते
हैं जहाँ अमृत को पान करते हुए अमरावती को प्राप्त हो जाते हैं। हे ममतामयी मां!
तू वास्तव में हमें अपने हृदय अगम् में धारण करती चल। हमारा पुत्र युवा होने पर
कुटुम्ब को प्राप्त हो जाता है परन्तु वह जो ममतामयी माता है वह अपनी महानता और
अपने आनन्द के स्रोत को किसी भी काल में नष्ट नहीं करती। वह माता हमें हृदय में धारण
करने वाली है उसके द्वार से यह चेतना का स्रोत उत्पन्न होता है जिसको पान करने के
पश्चात मानव अमरावती को प्राप्त हो जाता है। आज हम उस अपने प्यारे प्रभु का गुणगान
गाते चले जाएं।
आज हम उस महामना देवी की शरण में जाना चाहते
हैं जो हमें आनन्द देती है, चेतना देती है, पवित्रता देती है हम उसी की लोरियों का पान करना चाहते हैं क्योंकि हम
क्षुधा से पीड़ित है। हमारी पिपासा कौन शान्त कर सकता है? इस
संसार के जो नाना प्रकार के ऐश्वर्य हैं वह हमारी आत्मिक पिपासा को शान्त नहीं कर
पाते। वह जो पिपास हमारी है वह एक चेतना से प्राप्त होती है, उसका जो सोम है मानो वही हमें प्राप्त होना चाहिए। सोम नाम ज्ञान को कहा
गया है, विवेक को कहा गया है क्योंकि जब सौम्य हो जाते हैं,
हममें दृढ़ता आ जाती है, पवित्रता आ जाती है।
उसी का हमें पान करना है। जिस मानव के द्वारा यह निष्ठा आ जाती है कि वह जो सोम को
पान कराने वाला है वह आनन्द देव मेरा प्यारा प्रभु है और वह कैसा अनुपम देव है कि
वह मानव को किसी काल में भी अपना दयाव्रत से शान्त नहीं कर पाता, नम्रता उसे सदा प्रदान करता रहता है। माना नाना प्रकार के कठोर मार्ग उसके
समीप आते हैं परन्तु उन्हें भी सहन करता हुआ, अपने व्रत को
प्राप्त होता चला जाता हैं और आनन्द को प्राप्त करना है, जिस
आनन्द के लिए ऋषि मुनि अन्तरर्मुखी हो जाते हैं, हृदय अगम हो
जाते हैं।
मेरे प्यारे ऋषिवर! जिस मानव के द्वारा
निष्ठा दृढ़ता नहीं होती, वह मानव इस संसार में न होने के
तुल्य माना जाता है। यहाँ मुझे महात्मा प्रहलाद का भी जीवन स्मरण आने लगता है।
उनका जीवन कितना अनुपम था। मानव में नाना प्रकार के संस्कार होते हैं। उन्हीं
संस्कारों के आधार पर मानव में निष्ठा हो जाती है। आज हमें उन संस्कारों पर विचार
विनियम कर लेना चाहिए। प्रहलाद का जो पिता था जिसको हिरण्यकशिपु कहा जाता था वह
अपने मन में निष्ठावादी बन गया था कि इस संसार में प्रभु कोई वस्तु नहीं है। उसने
विज्ञान के आधार पर अपने जीवन को, अपने राष्ट्र को उन्नत
बनाने का प्रयास किया था।
मुझे
स्मरण आता रहता है कि उनके राष्ट्र में विज्ञान इतना प्रबल हो गया था कि
हिरण्यकशिपु को यह विश्वास हो गया कि परमात्मा कोई वस्तु नहीं है, केवल वह मानव की एक कल्पना है और परमात्मा तो केवल राजा को कहते हैं। मैं
राजा हूं इसलिए मैं प्रजा का ऐश्वर्यशाली कहलाया जाता हूं। जब हिरण्यकशिपु को
विश्वास हो गया तो एक समय उनके गुरू शौंग महाराजा उनके समीप आए और कहा हे
हिरण्यकशिपु तुम परमात्मा को अपने से दूर न करो। उन्होंने कहा कि हे ऋषिवर यह मुझे
निर्णय कराइये कि मैं इसे कैसे स्वीकार करूं। मेरा तो हृदय यह पुकार कर कहता है कि
परमात्मा कोई वस्तु नहीं है। यह तो मानव की कल्पना है। मेरे राष्ट्र का निरीक्षण
करके दृष्टिपात कीजिए इसमें कितनी सुन्दर मार्गशालाएं हैं, कितना
विज्ञान है। मैंने नाना प्रकार के लोक लोकान्तरों में जाने का प्रयास किया है।
परमात्मा कहाँ विराजमान रहता है। यह तो केवल प्राकृतिक एक ऋत चेतना है। एक दूसरे
तत्त्व के मिलन से, एक दूसरे परमाणु के मिलन से ही चेतना का
निकास हो जाता है, उसी चेतना के पृथक-पृथक हो जाने पर उस
चेतना का अपना अस्तित्व दृष्टिपात नहीं होता है। जब गुरू को ऐसा कहा तो वह शांत हो
गए और कहा राजन! आज तुम विज्ञान के मध्य में आ गए हो इसलिए मैं तुमसे कोई वाक्य प्रकट
नहीं करूंगा परन्तु अन्त में तुम्हें प्रभु की शरण में जाना ही होगा। यहाँ से इस
शरीर को त्याग करके तुम्हें मृत्यु को प्राप्त होकर के ही प्रभु की गोद में जाना
होगा। गुरू के उस वाक्य को भी उन्होंने शान्त कर दिया।
बेटा! हिरण्यकशिपु के एक ही बालक था जिस का
नाम प्रहलाद था। प्रहलाद बाल्यकाल में ही शिक्षालय में गुरूजन नाना प्रकार की
विद्या का पठन-पाठन कराते। पठन-पाठन की परम्परा थी, उसी
परम्परा के आधार पर वह शिक्षा में पारांगत होने लगा। एक समय वह बालक अपने शिक्षालय
शिक्षा ग्रहण कर रहा था तो उसने देखा कि कुम्भा में से जिसमें एक राजपात्र में
बिल्ला के बच्चे अग्नि में प्रविष्ट हो गए थे उस पात्र में तपने के पश्चात् ज्यों
के त्यों सुरक्षित हैं। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। कुम्हार ने बालक प्रहलाद से कहा कि
तुम्हारा पिता यह कहता है कि मैं परमात्मा हूं जाओ अपने पिता से दृष्टिपात करके आओ
कि ये बालक अग्नि के मुख में से कैसे जीवित रहे हैं। मैं आज राजा को ईश्वर क्यों
स्वीकार करूं क्योंकि यह तो कोई और चेतना सत्ता है जिसके आधार पर इनके प्राणों की
रक्षा हुई है। बेटा! उसी के आधार पर न प्रतीत प्रहलाद का कौन से जन्मों का संस्कार
उदय हो गया। उसे निष्ठा हो गई, आस्था हो गई कि प्रभु कोई और
ही है तो सर्वज्ञ है, वह अनुपम है क्योंकि वह सर्वानन्द
स्वामी है, वह सब में रमण करने वाला है, सबको आनन्दवत प्रदान करने वाला है।
उस बालक ने अपने मन में यह विचार कर लिया कि
वास्तव में प्रभु तो कोई और वस्तु है। मेरे पिता नहीं हो सकता क्योंकि यह तो प्रजा
का स्वामी है। जो इस जगत का, लोक लोकान्तरों का स्वामी है
वही तो एक ईश्वर कहलाया जाता है। जो हमारे अन्तःकरण की वार्त्ता को जानता हो,
जो अग्नि के मुख में से मानव को जीवित बना देता है वही तो मानो देखो,
हमारे यहाँ चेतनावत प्रभु माना गया है। मुनिवरों! जब बालक प्रहलाद
को यह निष्ठा हो गई कि प्रभु तो कोई और वस्तु है यह तो मेरा सांसारिक पिता है,
वह तो संसार का पिता है जो मेरे हृदय की बातों को जानता है, वह आयु को निश्चित करने वाला है, वही तो संसार में
एक प्रभु कहलाया जाता है। जब उसके मन में यह निष्ठा हो गई, आस्था
हो गई तो राजा को यह प्रतीत हुआ कि तेरा पुत्र तो ईश्वरवादी बन गया है, उसी का अध्ययन करता है। नाना पठन-पाठन करने वालों ने भी उसे नाना प्रकार
का ज्ञान कराया और यह कहा कि अब तुम्हारे पिता तुम्हें नाना प्रकार के कष्ट में ले
जाएंगे। परन्तु बालक न कहा कि मुझे इसका विचार विनिमय नहीं होता क्योंकि जो प्रभु
ने मेरे लिए प्रारलब्ध के आधार पर निश्चित कर दिया है उतनी यातनाएं व कष्ट प्राप्त
होंगे। जब यह उस बालक के हृदय में विश्वास हो गया कि मेरे हृदय को चेतना बना रहा
है, संसार को चेतनावान बना रहा है। मानो सूर्य का प्रकाश आ
रहा है परन्तु प्रभु तो प्रकाशों का भी प्रकाश है, सूर्य को
भी प्रकाशित करने वाला है।
जब राजा को यह प्रतीत हुआ कि तेरा पुत्र तो
ऐसा निष्ठावान बन गया है, मूर्ख बन गया है और तेरा नाम स्मरण
भी नहीं करने देता। तो राजा ने अपनी पत्नी से कहा हे देवी! अब हम क्या करें,
एक ही पुत्र है, वही इतना मूर्ख बन गया है कि
हम उसका प्रमाण भी नहीं दे सकते। ईश्वर-ईश्वर पुकारता है, राम
ही राम पुकारता रहता है। वह जो कण-कण में रमण करने वाला है ऐसा वह अपने प्रभु को
कह रहा है, इसका कोई मार्ग है। उसने कहा प्रभु! इसमें मेरा
क्या दोष है, जैसी उस बालक के हृदय में निष्ठा हो गई है उस
निष्ठा को आप नष्ट नहीं कर सकोगे क्योंकि मुझे भी किसी काल में ऐसा ही प्रतीत होता
है कि चेतनावादी और वस्तु है। वास्तव में आप ऐसा उच्चारण करते हैं कि मैं ईश्वर
हूं। आप नास्तिकवाद के मार्ग पर जा रहे हैं।
मेरे प्यारे ऋषिवर! जब ऐसा माता ने कहा तो
राजा ने कहा कि मैं तुम्हारे प्राणों को हनन कर सकता हूं। उस समय देवी ने कहा
प्रभु! मेरे प्राणों को हनन कर सकते हो परन्तु मेरे अन्तःकरण में जो चेतना है उसे
तुम नष्ट नहीं कर सकते। राजा उस समय लज्जित हो गया। तो देवी! हमें करना क्या है।
परन्तु मेरे विचार में यह आ रहा है कि चेतनावान कोई और वस्तु है, उस चेतना को आप जानने की चेष्टा करो। उस समय राजा ने कहा हे देवी! तुम
शान्त हो जाओ, मैं तुम्हारी चेतना को अवश्य जानूंगा जिस
चेतना के तुम स्वामी बन गएं हो मुझे तुम्हारे स्वामी को जानना है, दृष्टिपात करना है। यह वार्त्ता जब राजा ने प्रकट की जो वह अर्द्धागिनी थी
शान्त हो गई। राजा के मन में एक अभिमान था और वास्तव में उसका विज्ञान इतना
पराकाष्ठा पर था कि उसे अभिमान अपने विज्ञान पर था।
लोकाम् प्रभाकृति अश्वन्ति लोकाः ऐसा हमारे
यहाँ कहा जाता है कि जिस का आत्मा बलवान होता है, आत्मवेत्ता
जो महापुरूष होते हैं वह एक विज्ञान में परिणत रहते हैं। प्रहलाद ने अपने जीवन में
ऐसे एक योग को अध्ययन किया था, उस योग में उसे निष्ठा हो गई
थी, आध्यात्मिक विज्ञान को जानने में अपने जीवन को ओत-प्रोत
कर दिया था और यह विचार उसके मस्तिष्क में आया कि वास्तव में मुझे जानना है कि वह
अध्यात्मिक विज्ञान कहाँ तक मानव को उन्नत बना देता है उसके द्वारा नम्रता और
निष्ठा आ गई थी संकल्प इतना उज्ज्वल बना लिया था कि उस संकल्प के आधार पर बालक
प्रहलाद को यह विश्वास हो गया था कि तुम्हें अग्नि नष्ट नहीं कर सकती, आत्मा चैतन्य है, आत्मा को अग्नि नष्ट नहीं कर सकती,
वायु और जल अपने मार्ग में नहीं ले जा सकते हैं। इसी प्रकार तेरा जो
यह मानवीय शरीर है जिसमें तेरी अवस्था उस चैतन्य प्रभु ने ओत-प्रोत करायी है उतनी ही
निश्चित रहेगी उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता। बालक के हृदय में निष्ठा हो गई। एक समय
महाराजा हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र को कारागार में ओत-प्रोत करा दिया। उस कारागार
में नाना प्रकार के सर्पों को अग्रस्ति माला उसके कंठ में ओत-प्रोत करा दी। जब
सर्प उसके निकट आ गएं तो सर्पों का उसके द्वारा इतना संकल्प और अहिंसा परमोधर्म
में इतना परिणत हो गया था कि वह सर्प भी उस बालक को निगल नहीं सकते थे। यही तो
मानव का हृदय होता है, यही तो मानव की निष्ठा होती है। बालक
के हृदय में इतनी निष्ठा थी कि हे सर्पराज! क्या तुम प्रभु के बनाएं हुए नहीं हो?
क्या यह योनि प्रभु ने प्रदान नहीं की है? हे
विषधरो! तुम विष को धारण करने वाले हो और मानव को अमृत देने वाले हो तो क्या तुम
आज मुझ को विषधर बना सकते हो? नहीं बना सकते। हे सर्पराजों!
तुम तो मुझे अमृत देते चले जाओ, मेरे द्वारा जो विष हो उसको
अपने में पान करते चले जाओ, यही तो तुम्हारा संसार में
कर्त्तव्य रहता है वह प्रभु का भक्त कैसी याचना कर रहा है और सर्पराज को अपने कंठ
में धारण कर लिया है और यह कहा कि हे सर्पराज तू भी तो आत्मा है और मैं भी तो
आत्मा हूं, तू भी एक चेतना है और मैं भी एक चेतना हूं आओ
चेतना से चेतना का मिलान होता चला जाएगा।
मेरे प्यारे ऋषिवर! जहाँ मानव के हृदय में इस
प्रकार की निष्ठा हो जाती है क्या उसको संसार में कोई नष्ट कर सकता है? कोई नहीं कर पाता। प्रहलाद को जब यह निष्ठा हो गई तो रात्रि समय वह अपने
प्यारे प्रभु का गुणगान गाता हुआ, चेतना को स्मरण करता रहा।
जब प्रातःकाल होने लगा उस समय प्रहलाद ने कहा था कि हे सर्पराजों! वास्तव में जो
मानव क्रोध के द्वारा विष उगलता रहता है, जो मानव काम के
द्वारा विष उगलता रहता है, जो प्रकृति के परमाणुओं को दूषित
करता रहता है, उसी विष को तुम पान करते हो, मैं इनमें से कोई सा कार्य नहीं करता। न तो मेरे द्वारा हिंसा है न मुझे
किसी काल में क्रोध आता है न काम की वासना उत्पन्न होती है, मैं
तो एक चेतना का भक्त हूं, जिस चेतना से तुम चैतन्य हो रहे हो
तुम मुझे किस आधार से निगल सकते हो। जब यह वाक्य उस महान आत्मा ने प्रकट कराया तो
वह सर्पराज शान्त हो गये। प्रातःकाल हो गया। हिरण्यकशिपु को यह धारणा थी कि तेरा
बालक नष्ट हो गया होगा। सर्पराजों ने उसे निगल लिया होगा। परन्तु जब वह कारागार
में पहुंचा तो देखा वह परमात्मा का चिन्तन कर रहा है। उसी समय राजा ने विचारा कि
अब क्या करना चाहिए। विषधर भी शान्त हैं यह तो कोई आश्चर्यजनक है। उन्होंने अपने
बालक से यही वाक्य पुनः कहा कि अरे, तुम मेरा नाम स्मरण करने
लगो अन्यथा मैं तुम्हें नष्ट कर सकता हूं। उस समय बालक ने कहा कि हे पितर! तुम
मेरे संसार के पिता हो परन्तु जिसने मेरे शरीर का निर्माण किया है, जो संसार को रचाने वाला है वह चेतनावादी मेरा पिता है। हे पितर! तुम मेरी
आत्मिक चेतना को नष्ट नहीं कर सकते, यह जो शरीर है यह मेरा
नष्ट हो जाएगा, अग्नि के मुख में जा सकता है, परन्तु मेरे हृदय में जो प्रभु चेतना है उसे तुम नष्ट नहीं कर सकोगे। यदि
उसे नष्ट कर दोगे तो मैं यह स्वीकार कर सकता हूं कि वास्तव में प्रभु कोई चेतना
नहीं है।
मुनिवरों! जब यह वाक्य प्रकट किया तो राजा की
अन्तरात्मा तो कृत्रियों में रमण कर रहा था, उसे अपने
विज्ञान पर अभिमान था और कहता था कि वह प्रभु कोई वस्तु नहीं है, यह मिथ्या कल्पना है। इस मिथ्या कल्पना को मुझे अपने राष्ट्र को दूर कर
देना है। उसी समय राजा ने कुछ अपने सेवकों को दृष्टिपात कराते हुए कहा कि यह जो
प्रहलाद है इसे पर्वतों से नीचे ओत-प्रोत करा दो जिससे इसकी मृत्यु हो जाएं,
मेरा अन्तरात्मा दूषित हो रहा है। यह उससे उपरामता को प्राप्त हो
जाएं। मैं निर्मोही बन जाऊं। वास्तव में मैं प्रभु को स्वीकार नहीं करता हूं।
मुनिवरों! वह समय आया। सेवकों ने प्रहलाद को
लेकर पर्वतों से नीचे गिरा दिया था परन्तु उस बालक की मृत्यु न हो सकी। क्योंकि वह
इतना निष्ठावान हो गया था कि ब्रह्मचर्य से और प्रभु के विवेक में उसका शरीर वज्र
के तुल्य बन गया था। यह वाक्य मैं इसलिए वर्णन कर रहा हूं कि विज्ञान और
आध्यात्मिक विज्ञान मानव को कितना धृष्ट बना देता है और कितना महान बना देता है।
माता ब्रह्मे लोकः प्रभे हिरण्यकशिपु की
भगिनी उसके समीप आ पहुंची और कहा कि प्रभु! आप इस प्रकार निर्मोही क्यों बनते जा
रहे हो। उन्होंने कहा कि हे देवी! मेरा जो पुत्र प्रहलाद है वह परमात्मा पर निष्ठा
कर रहा है, मैं उसे नहीं चाहता। मेरे हृदय की कल्पना है कि
यह मृत्यु को प्राप्त हो जाएं, संसार से चला जाएं, मेरे राष्ट्र से दूर हो जाएं, परन्तु वह इतना
निष्ठावान है नद प्रतीत मैं क्या करूं। मुनिवरों! वह जो होलिका थी जिसको हमारे
यहाँ उनकी भोजाई कहा जाता था वह कृतिका में रमण करने वाली थी, सदैव विज्ञानशाला में रमण करने वाली थी, विज्ञान के
नाना यन्त्रों में परिणत हो गई थी। ऐसा हमने श्रवण किया है वह होलिका मंगल की
यात्रा करती रहती थी। वह लोक-लोकान्तरों की यात्रा में सफलता को प्राप्त हो गई थी।
उसी का बालक फिरणी नाम का वैज्ञानिक था जिसके द्वारा नाना यन्त्रों में वह परिणत
रहती थी। उसे भी यह अभिमान था कि प्रभु कोई वस्तु है ही नहीं क्योंकि परमाणुवाद
में जाने के बाद मानव अपनी वास्तविक चेतना को नष्ट कर देता है उसमें अभिमान होता
है। अपने कर्त्तव्य के ऊपर उसे बड़ा गौरव होता है। प्रकृति का यह स्वभाव होता है कि
जो प्रकृति से निष्ठा करता रहता है यह प्रकृति उसे अभिमान लाती है, क्रोध लाती है, काम की वासना में परिणत कर देती है
और उसे नीचे गिरा देती है। जो प्रकृति से उपराम होकर चलता है, इस चेतना को अपना स्वामी स्वीकार करता है वह आध्यात्मिक विज्ञान में
पारंगत को प्राप्त हो जाता है। प्रकृति के गर्भ से दूर होता हुआ इस चेतना के गर्भ
में चला जाता है जिसको हमारे यहाँ वसुन्धरा कहा जाता है। वसुन्धरा के गर्भ में
जाने के पश्चात् उसे वहाँ केवल ब्रह्म ही ब्रह्म, प्रतीत
होता है। जैसा मैंने कल के वाक्यों में कहा था उसे यह दृष्टिपात होने लगता है कि
प्रकृति का जो कण-कण है वह ओ३म्् रूपी धागे में पिरोया हुआ है, इसलिए मैं दूसरी चेतना को कैसे स्वीकार कर पाऊंगा, न
कोई और चेतना है।
मुनिवरों! उस समय हिरण्यकशिपु की जो भाजाई थी
उसके मन में एक ही विचार रहता था कि मैं मंगल मण्डल की यात्रा करती रहती हूं।
उन्होंने शिवास्त्र, रेधनी अस्त्र सब मंगल मण्डल से प्राप्त
किए थे, और भी नाना विज्ञान में वह पारंगत रहती थी। एक समय
प्रभा गच्छन ब्रह्मे आस्वान्ति लोकाः। मामनिक ऋषि महाराज ने होलिका से कहा था कि
हे देवी! तू मंगल की यात्रा करती है कभी तुझे चन्द्र मण्डल में भी जाने का सौभाग्य
प्राप्त हुआ है अथवा नहीं। उन्होंने कहा कि मैं चन्द्र मण्डल की यात्रा तो सदैव
करती रहती हूं। नाना प्रकार के यन्त्रों के द्वारा चन्द्रमा की यात्रा में सफलता
को प्राप्त होती रहती हूं। जब ऋषियों ने कहा कि जिसको हम चन्द्र मण्डल कहते हैं
इसमें क्या है? उन्होंने निर्णय कराया कि यह जो चन्द्र मण्डल
है मानो वहाँ प्राणवत् रहते हैं, प्राणी रहते हैं जिन्हें
परमात्मा से जीवन प्राप्त होता है, उन्हें प्रकृति से जीवन
प्राप्त होता है। जीवन की प्रतिभा उनके मस्तिष्कों में ओत-प्रोत रहती है। वहाँ
प्राणी वायु की प्रधानता में परिणत रहता है। मेरे प्यारे महानन्द जी ने एक समय
वर्णन कराते हुए ऐसा कहा है कि यह जो आधुनिक काल का वैज्ञानिक है यह कह रहा है कि
वहाँ वायु प्रधान नहीं है किन्तु मैं यह कहा करता हूं कि वायु का वास्तविक स्वरूप
क्या माना जाता है? वास्तव में पृथ्वी मण्डल पर जहाँ हम वायु
का स्वरूप स्वीकार करते हैं कि इस वायु का स्वरूप स्थूल है, वृत्त
है, उष्ण या शीतल है तो यह विचार नहीं आ पाता है परन्तु हमें
यह सिद्ध होता है कि न तो वायु ऊष्ण है न शीतल है क्योंकि इसका जो स्वरूप है वही
प्राणी और वायु की प्रधान मानी जाती है।
मेरे प्यारे ऋषिवर! विचार आता है कि यहाँ भी
जहाँ पार्थिव तत्त्व प्राणी रहते हैं, वहाँ भी गति होती है,
जहाँ गति होती है वहीं वायु की प्रधानता होती है। जहाँ वायु में
तीव्रता नहीं होती, जहाँ केवल मध्यम वाद होता है, ऊष्णवाद होता है वहाँ पृथ्वी के परमाणुओं को अपने में आकर्षण शक्ति के
द्वारा ग्रहण कर लेती है। ग्रहण करने के कारण उसी की प्रतिभा वायु ग्रहण करती रहती
है। ऊष्ण और शीतल बनाती रहती है। उसी के द्वारा अन्न की प्रतिभा का जन्म होता है,
अन्न उत्पन्न होता है, वनस्पतियां उत्पन्न
होती हैं क्योंकि परमाणुवाद को ग्रहण करने वाली वायु न हो तो हम प्रभु को स्वीकार
ही क्यों करें। यही तो प्रभु! का विज्ञान है।
तो मुनिवरों! उस समय होलिका ने ऋषि से कहा था
कि हे प्रभु! वहाँ वायु की प्रधानता मानी जाती है। वहाँ जलाशय प्रबलवत में प्राप्त
हो जाते हैं। अन्तरिक्ष जो हम दृष्टिपात करते हैं वह एक जलाशय से भरा हुआ है
क्योंकि जब यहाँ पृथ्वी मण्डल पर ग्रीष्म ऋतु आती है तो सूर्य की किरणें जल के
परमाणुओं का सूक्ष्म रूप बना करके अन्तरिक्ष में ओत-प्रोत करा देती है। जैसे एक
योगी होता है उसका हृदय और ब्रह्म अन्तरिक्ष का हृदय दोनों का मिलान हो करके वह
अगम्य हो जाता है इसी प्रकार जब सूर्य की किरणें टेढ़ी हो जाती हैं, एक रश्मी हो जाती हैं उसी समय समुद्रों से जलों का उत्थान आरम्भ होने लगता
है। समुद्र के जल के परमाणु बन करके अन्तरिक्ष में ओत-प्रोत हो जाते हैं। इन
परमाणुओं का मिलान हो करके अग्नि के परमाणुओं द्वारा, इन्हीं
के द्वारा वृष्टि हुआ करती है और वृष्टि हो करके नाना प्रकार का अन्न इसी से
उत्पन्न होता रहता है।
वाक्य उच्चारण करने का अभिप्राय कि उस समय
राजा की भगिनी ने कहा कि हे ऋषिवर! आपको मैं स्मरण कराए देती हूं कि जब हम
चन्द्रमा की यात्रा करते हैं तो उस समय में नाना प्रकार के प्राणियों से वार्त्ता
प्रकट करने का सौभाग्य भी प्राप्त होता है परन्तु वहाँ का जो वायुमण्डल है,
वहाँ की जो वाणी है उसको यह प्राणी स्वीकार नहीं कर पाता क्योंकि
वहाँ कृतिमा माधुक नाम की वाणी प्रचलित रहती है, वहाँ
सुहागनी अत्युत्तम जिसको हम प्राकृतिक कहते है जो हमारे वेदों की प्रतिभा रमण करने
वाली है उसी के आधार पर वह अपनी वाणी का प्रसार करते रहते हैं क्योंकि ऋग और साम
दोनों का मिलान सर्वथा रहता है। ऋग और साम उसी को कहा जाता है जहाँ एक दूसरे का
मिलान होता हो। हमारे यहाँ जैसे पृथ्वी को ऋग कहा जाता है और वायु को साम कहा है
दोनों के मिलान से ही सामगान होता है। इसी प्रकार जैसे मानव का तालु होता है और
जीभ होती है दोनों के मिलान से ही मानव के मुखारविन्द से शब्द की रचना होती है इसी
प्रकार वहाँ भी ऋग और साम दोनों का मिलान हो करके वहाँ वायु और जल दोनों का ऋग और
साम माना है। जैसे हमारे इस पृथ्वी मण्डल पर पृथ्वी और वायु को ऋग और साम माना है
वहाँ पूरे चन्द्र मण्डल में वायु को और जल को दोनों ऋग और साम को उपाधि प्रदान की
जाती है। उस काल में वहाँ गान गाया जाता है। गान उसे कहते हैं जहाँ दोनों का मिलान
होता है, वहाँ शब्द की रचना होती है, वहीं
मिलान होता है, वहीं नाना प्रकार की उत्पत्ति का कारण बना
करता है।
तो उस समय राजा की भगिनी ने कहा कि हे ऋषिवर!
मैं यह स्मरण कराए देती हूं कि जब तक मानव वहाँ के परमाणुवाद के विज्ञान के द्वारा
नहीं जाएगा तब तक इस पृथ्वी मण्डल के प्राणी को वहाँ जीवित रहना असम्भव हो जाता
है।
वाक्य उच्चारण करने का हमारा अभिप्राय क्या
है कि होलिका वैज्ञानिकता में रमण करने वाली थी। एक समय शान्त मुद्रा में विराजमान
थी। होलिका ने अपनी विज्ञानशाला में यह विचारा कि जो प्रहलाद कहता है कि प्रभु ही
एक चेतना है तो वास्तव में कोई चेतना तो होनी चाहिए। उसके मस्तिष्क में यह वाक्य
आने वाला था कि इतने में उनके विधाता आ पहुंचे। उन्होंने कहा कि तुम क्या चिन्तन
कर रही हो। उन्होंने कहा कि कुछ परमाणुओं के ऊपर विचार-विनिमय चल रहा है। मैं एक
दूसरे परमाणु से मिलान करने जा रही थी। उसी के विचार में मैं कुछ चैतन्य की
वार्त्ता प्रकट कर रही थी और मेरे अन्तःकरण में यह प्रेरणा आ रही थी कि वह जो
परमाणुओं की चेतना है उनमें जो एक गति आती है वह एक दूसरे के मिलान से आती है अथवा
कोई पृथक चेतना है, इस आधार पर मेरा एक विनिमय हो रहा था। उस
समय हिरण्यकशिपु ने कहा कि तुम इन विचारों में क्यों जा रही हो। यह विचार वास्तव
में योग्य नहीं है। मेरा तो राष्ट्र का कार्य भी शान्त हो गया है। यह मेरा पुत्र
ही मेरा शत्रु बन गया है। मैं यह चाहता हूं कि मेरा पुत्र मृत्यु को प्राप्त हो
जाएं।
तो मुनिवरों! उस समय राष्ट्र में दो विभाग हो
गये। एक प्रहलाद का विचारवादी बन गया और एक हिरण्यकशिपु का विचारवादी बन गया। जो
प्रहलाद के विचारों वाला प्राणी मात्र था उन्होंने नरसिंहगम् ब्रह्म कृत्रिमा
ग्रति विश्वानम् अप्रेति कामाः उन्होंने नरसिंह नाम का एक समाज बनाया और एक विचार
बनाया कि हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रहलाद ही हमारा राजा है और इसी को हम अपने
राष्ट्र में नहीं रहने देंगे। यह विचार प्रजा में बन गया। प्रजा मे आस्तिकता की एक
तंरगें भीं वह शांत होने लगी। मुनिवरों! मैं उस वाक्य को शांत न करूं कि होलिका ने
अपने विधाता के पुत्र का अपने आँगन मे वरण करा लिया और उन औषधियों का, परमाणुओं का मर्दन करने लगी जिसके मर्दन से अग्नि से अग्नि उसके शरीर में
प्रविष्ट नहीं होती थी। परन्तु यहाँ अग्नि का अभिप्राय यह नहीं था संभव गच्छानम्
ऐसा कहा जाता था कि उस औषध के प्राणी परमाणुओं में एक विशेषता थी कि यदि वह किसी
द्वितीय प्राणी को लेकर अग्नि में प्रविष्ट होती थी तो उस औषध की, उन परमाणुओं की प्रतिभा वह दूसरे मानव के शरीर में रमण कर जाती थी और रमण
करने के पश्चात् वह मानव नष्ट हो जाता था जो मर्दन करने वाला होता था।
मेरे प्यारे ऋषिवर! उस समय ऐसा कहा जाता है
जब होलिका प्रहलाद को ले करे अग्नि में प्रविष्ट हो गई तो वह होलिका स्वयं नष्ट
होने लगी और प्रहलाद अपने जीवन के संकल्प को प्राप्त हो गया क्योंकि जब आस्तिकवाद
का प्रसार होता है और कोई न कोई सांस्कारिक प्राणी आ करके इस संसार को आस्तिकवादी
बनाता चला जाता है। तो ऐसा श्रवण किया गया कि उसी समय जो प्रजा का जो नरसिंह समाज
था उसमें ऐसी महान क्रान्ति आई कि उन्होंने हिरण्यकशिपु को भी नष्ट कर दिया। नष्ट
करने के पश्चात् वहाँ का राजा प्रहलाद बन गया और उसके बन जाने के पश्चात् प्रजा
आनन्दवत् को प्राप्त होने लगी। यह वाक्य आज मैं इसलिए उच्चारण कर रहा हूँ कि आज हम
आस्तिवादी बनते चलें जाएं। विज्ञान यह नहीं कहता कि मैं नास्तिवाद को प्राप्त हों
जाऊँ। प्रहलाद बड़ा महान वैज्ञानिक था, सुशील और आस्तिवादी था
जहाँ उसका परमाणुवाद में विश्वास था वहाँ परमाणु का निर्माणवेत्ता जो प्रभु है
उसमें उसकी आस्था अधिक थी। इसलिए वह अपने कार्यों में सदैव सफल रहा।
मेरे प्यारे ऋषिवर!
वाक्य उच्चारण करने का अभिप्राय यह है कि परमात्मा के पुजारी को संसार में कोई
नष्ट नहीं कर सकता। उसका अंतरात्मा इतना शक्तिशाली होता है कि उसका प्रमाण नहीं
दिया जा सकता। आज का हमारा वाक्य अब यह समाप्त होने जा रहा है। आज के इन वाक्यों
का अभिप्राय यह है कि आज मुझे मेरे प्यारे महानन्द जी स्मरण करा रहे है कि आज वहीं
चुतर्थदशी है जिस चतुर्थदशी के दिवस महान एक राष्ट्रीय दिवस मानाया जाता है
🙏🙏🙏🙏🙏
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