Saturday, December 27, 2025

 

सतयुग की यज्ञ-वार्ता

 

सतयुग के काल में अटुल मुनि महाराज महीयस राजा के महान  पुरोहित थे। एक समय राजा अपने राज- स्थान में विराजमान थे। न्यायालय में प्रजा का न्याय कर रहे थे।बेटा! उस समय उनके हृदय में विचार आया, कि हमें अजय मेघ यज्ञ करना चाहिए।

अजामेघ यज्ञ किसके लिए करना चाहिए?प्रजा के लिए करना चाहिए। जिससे हमारी प्रजा महान बनें,जिसमें हमारी प्रजा में, सदाचार हो। प्रजा के ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि हो। हमारे राष्ट्र में वेदों का प्रसार हो, प्रत्येक गृह में यज्ञ हों,यज्ञ से हमारे राष्ट्र का वातावरण सुगन्धिदायक हो, यज्ञ से राष्ट्र सुगन्धिदायक बनेगा।

राजा के मन में इस विचार के आने के पश्चात,राजा ने अपने मन में संकल्प-विकल्पों द्वारा बड़ा अनुसन्धान किया इस विचार को लेकर राजा अपने गुरु पुरोहित के समक्ष आ पंहुचे।अटुल मुनि महाराज ने राजा का बड़ा स्वागत करके कहा “प्रिय, आनन्द हो

      राजा ने उत्तर में कहा- “विशेष आनंद हैं,“कैसे आगमन हुआ हैं ?

उन्होंने कहा-“भगवन! हम इसीलिए आए हैं,कि इस काल में हमारी एक अजयमेघ यज्ञ करने की इच्छा हैं,जिससे हमारी प्रजा श्रेष्ठ बने,हमारी प्रजा में महत्ता आए

राजा की इन वार्त्ताओं को सुनकर अटुल मुनि महाराज ने प्रसन्न होकर कहा,कितुम्हारी इस वार्त्ता को सुनकर तथा आपकी निष्ठा एवं योग्यता को देखकर हमें निश्चय हो गया कि तुम अजामेघ यज्ञ करने में अवश्य सफल हो जाओगे। परन्तु वेद विद्या कहती है और परम्परा भी यही बतलाती हैं कि अजय मेघ यज्ञ करने का उसी राजा को अधिकार है, जिसकी प्रजा में एक दूसरे को कोई ऋणी न हो,हमको पता नही है, कि तुम्हारी प्रजा में क्या सभी ऋण मुक्त हैं।पहले आप इसका अनुसन्धान कीजिए इन वाक्यों को पा करके राजा अपने कर्तव्य पर विचारने  लगे ।

राजा ने अटुल मुनि महाराज से  आज्ञा पा करके कहा कि मैं राज्य मे भ्रमण करके देखूंगा,कि मेरी प्रजा में एक दूसरे का कोई ऋणी तो नही हैं ।राजा वहाँ से चलकर अपने राष्ट्र में पंहुचे। विचार करते–करते प्रजा में भ्रमण करके देखा,कि प्रत्येक गृह में नित्य प्रातःकाल यज्ञ हो रहे थे ।राष्ट्र में एक दूसरे का कोई ऋणी नही था।प्रजा सब प्रकार कुशल से है।प्रजा में बड़ा आनन्द छा रहा हैं,पिता की सेवा करने वाले पुत्र है। उनको योग्य बनाने के लिए माता पिता भी कुशल है ।राजा ने देखो,कि उसके द्वारा बनाएं गएं नियम राष्ट्र में बड़े आनन्द से चल रहे हैं,क्षत्रिय लोग आक्रामराष्ट्रों पर उत्तर में प्रहार करके राष्ट्र की रक्षा कर रहे हैं।

राजा अपने राष्ट्र की ऐसी स्थिति और कुशलता को देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ चलकर राजपुरोहित,गुरु अटुल मुनि महाराज के समक्ष जा पंहुचे ।गुरु से कहा कि भगवन! मेरे राज्य में तो बहुत कुशल हैं। मेरे राष्ट्र में कोई किसी का ऋणी नही हैं। मेरा राष्ट्र सब प्रकार से महान हैं।

यज्ञ में पत्नी की अनुमति

राजा की इन वार्त्ताओं का पाकर ऋषिवर,बड़े प्रसन्न होकर बोले कि भाई! अजयमेघ यज्ञ करो।परन्तु यज्ञ करने से पूर्व तुम अपनी धर्मपत्नी से अनुमति ले कर आओ,वह तुम्हें अनुमति दे,तो अवश्य यज्ञ करो, अन्यथा तुम्हें कोई अधिकार नही हैं

उस समय राजा वहाँ से चलकर राजगृह में जा पंहुचे। राजा के पंहुचते ही पत्नी ने चरणों को स्पर्श किया। नमस्कार करके,राजा का बड़ा स्वागत किया।आसन पर विराजमान हो करके, धर्म-पत्नी ने कहा-कहिए भगवन! आपका मन कैसे भ्रमित हो रहा है,इसका क्या कारण है? आज हमको प्रतीत हो रहा है कि आपको किसी प्रकार का शोक हैं या किसी प्रकार की विशेष अशान्ति हैं।

उस समय राजा ने कहा कि हे धर्म-पत्नी! मेरे मन में कोई शोक नही हैं। मेरा मन इसीलिए भ्रमित है कि मैं अजयमेघ यज्ञ करने जा रहा हूँ। राजगुरु पुरोहित ने कहा है कि तुम अपनी धर्मपत्नी से अनुमति ले कर यज्ञ करो,तो तुम्हारी क्या इच्छा हैं?

उस समय,धर्मपत्नी बड़ी मग्न हो गई। उसके हृदय के कपाट खुल गएं। हृदय में ज्योति जगने लगी। धर्मपत्नी ने कहाभगवन! अच्छा,मेरे ऐसे भाग्य कहाँ है”?उन्होंने कहा-“भगवन! आप यजमान बनकर अजय-मेघ यज्ञ रचावें, देवताओं को हम कुछ देवें। जिससे हमारे राष्ट्र का उत्थान होवें। यह तो भगवन! बहुत सुन्दर विचार हैं

धर्मपत्नी से अनुमति लेकर राजा ने वहाँ से चलकर ऋषिवर के समक्ष जाकर कहा भगवन! मेरी धर्मपत्नी बड़ी प्रसन्न है। उसका वाक्य है कि हमारे ऐसे सौभाग्य कहाँ? उसका हृदय मुग्ध होने लगा। ऐसा प्रतीत होने लगा, कि उसके हृदय में धर्म की अग्नि प्रज्जवलित हो रही हैं

सुंदर यज्ञ-वेदी

 उस समय ऋषिवर ने इन वाक्यों को पाकर के  नाना ब्राह्मणों  को निमन्त्रण देकर,वहाँ एक विशाल बड़ी सुन्दर यज्ञशाला रचाई गई । यज्ञशाला के रचने से वहाँ अक्षय आनन्द छा गया। नाना प्रकार की चित्रकारियों से वह यज्ञशाला रचाई गई।सब देवताओं के स्थान बनाए गए।वेदी वही होती हैं, जिसे ब्राह्मण बुद्धिमता के साथ वेद के अनुकूल रचाता हैं।उस समय महर्षि जी से राजा ने प्रश्न किया-कि भगवन! यह यज्ञशाला क्यों रचाई जाती हैं,इसका क्या कारण है कि इतनी चित्रकारी क्यों की जाती हैं? तब ऋषि ने उत्तर दिया कि जैसे परमात्मा ने इस संसार रूपी यज्ञ को उत्पन्न किया है।उसको इतनी चित्रकारियों से सजाया है,ऐसे ही हम छोटे से वैज्ञानिक है। परमात्मा के बालक हैं| परमात्मा जैसे यज्ञ तो नही रचा सकते। परन्तु उसके बालक जैसा यज्ञ रचा सकते हैं। हम तो उनका सूक्ष्-सा रूप ले रहे हैं, जो चित्रकारियों से इस यज्ञशाला को रचाया है।

ऋषिवर ने जब यह उत्तर दिया,तो राजा बड़ा मग्न हो गए ।मग्न होकर धन्यवाद किया ।उसके बाद वहाँ नाना प्रकार की सामग्री एकत्रित हो गई। सब साकल्य एकत्रित हो गया ।प्रजा को निमन्त्रण दिया गया।यजमान,यजमान की धर्म-पत्नी यज्ञशाला में विराजमान हो गएं।,वहाँ शुनि मुनि महाराज,पापड़ी मुनि महाराज दोनों उस यज्ञ के उद्गाता बनें । अटुल मुनि महाराज,उस यज्ञ के अध्वर्यु बने,तत्त्वमुनि महाराज उस यज्ञ के ब्रह्मा बनें।इसके अनन्तर यज्ञ आरम्भ हो गया। ब्रह्मा के ऊपर यज्ञ का भार होता है,ब्रह्मा ने विधिपूर्वक यज्ञोपवीत धारण करा कर,समुद्र की क्रिया आरम्भ की।जब वहाँ समुद्र की क्रिया हो रही थी, उस समय पापड़ी ऋषि महाराज आ पंहुचे।

अधिकारी से यज्ञ

उस काल में वहां  शोलक ऋषि आदि ऋषियों का एक दार्शनिक समाज विराजमान था।दार्शनिक समाज में पापड़ी ऋषि को नियुक्त किया गया,कि जाओ,परीक्षा करो,कि वह कैसे बुद्धिमान है?राजा अजयमेघ यज्ञ के अधिकारी है या नही,यदि नही है,तो यज्ञ में कहना, कि तुम अजयमेघ यज्ञ के अधिकारी नही हो। तो मुनिवरों समय महर्षि पापड़ी मुनि महाराज उस दार्शनिक समाज से वहाँ जा पंहुचे।

यज्ञ में कर्मकांड का महत्त्व

जिस समय तत्त्व मुनि जी,उस यज्ञ के ब्रह्मा,जल सिंचन करा रहे थे,उस समय पापड़ी ऋषि ने प्रश्न किया कि महाराज! यह जल सिंचन क्यों हो रहा हैं,यह क्या क्रिया हैं?,और क्या पदार्थ हैं जो इस प्रकार किया जा रहा है?

उस समय ऋषिवर ने उत्तर देते हुए कहा कि यह महान समुद्र हैं।जैसे परमात्मा ने इस महान संसार को उत्पन्न किया है,उसके मध्य में पृथ्वी बनी हुई हैं,ऐसे ही यह वेदी नाम की पृथ्वी है।वेदी नाम पृथ्वी का है इसके आस पास ही यह समुद्र बना हुआ है,उस परमात्मा द्वारा उत्पन्न आकर्षण शक्ति उसकी महान विद्युत के आधार पर यह पृथ्वी स्थित हैं।

इसलिए यजमान देवताओं का साकल्य बनाने के लिए,उन समुद्रों के विश्लेषणात्मक दृष्टि से उनके स्वरूप को समझकर,उसके गुणों से लाभ उठाते हुए, वेद के अनुकूल इस वेदी का कर्मकाण्ड कर रहे हैं। तब ऋषि जी बड़े आनन्द के साथ विराजमान हो गएं। यज्ञ आरम्भ होने लगा।महर्षि पापड़ी ने सोचा कि ब्रह्मा तो वास्तव में योग्य हैं। तब उन्होंने ब्रह्मा से प्रश्न किया,कि भगवन! यज्ञ क्यों रचाया गया हैं? आपका क्या कर्तव्य हैं ?

यज्ञ में ब्रह्मा का कर्तव्य

उस समय ब्रह्मा ने कहा कि मेरा कर्तव्य है,कि मैं यह देखूँ कि यज्ञ में कोई उद्गाता वेदमन्त्र तो अशुद्ध उच्चारण नहीं  कर दे,यदि यज्ञशाला में वेदमन्त्र अशुद्ध उच्चारण हो गया, तो बड़ा पाप होगा। वह पाप क्या हो जाएगा? क्योंकि जिस वेदवाणी के द्वारा,हम जिन देवताओं का आह्वान करके उनका स्वागत कर रहे हैं,यदि वही वेदवाणी अशुद्ध होगी,तो वे देवता हमारे समक्ष क्यों आयेंगें? जैसे लोक में,जब बुद्धिमान व्यक्ति हमारे समक्ष आते हैं,और हम बुद्धिपूर्वक उनका स्वागत नही करते हैं,हम मूढ़ बुद्धि से स्वागत करते हैं,तो वे बुद्धिमान हमारे समक्ष आना त्याग देते हैं । ऐसे ही यज्ञवेदी पर वेद मन्त्रों के अशुद्ध उच्चारण से देवता हमारी उपेक्षा कर देंगें।और तब यह सब कर्म काण्ड निष्फल हो जाएगा। इसी प्रकार यज्ञ वेदी पर वेद मन्त्रों के अशुद्ध उच्चारण का अभिप्रायः है ।

जिन देवताओं को साकल्य देना हैं,हम उन्ही देवताओं का शुद्ध मन्त्र पाठ के द्वारा आह्वान कर रहे हैं,उन्हीं की याचना कर रहे हैं,यदि मन्त्रोंच्चारण अशुद्ध हुआ तो देवता,हव्य पदार्थों को कभी भी स्वीकार नही करेंगें।परिणाम यह होगा,कि वे हमारे संसार का कदापि कल्याण नही करेंगें।

महर्षि पापड़ी जी इन वार्त्ताओं को पाकर बड़े मग्न हो गएं, उन्होंने आनन्द में मग्न होकर कहा कि अहो भाग्य है, कि जहाँ ऐसे ब्रह्मा हों, तथा जहाँ इतनी विद्वता के साथ वेदों के मन्त्रों का पाठ या उच्चारण शुद्ध होता हो  

यज्ञ में उद्गताओं का कर्तव्य

     इसके पश्चात पापड़ी ऋषि उद्गाताओं के समीप पंहुच कर बोले-“हे उद्गाताओं! तुम जो वेदों का पाठ कर रहे हो,इसका क्या अभिप्राय है? यह क्यों कर रहे हों?

उद्गाताओं ने उत्तर दिया कि भगवन! यह हमारा कर्तव्य है,कि वेदों के मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण पूर्वक पाठ करके वेदों की विद्याओं का प्रसार करें,हमारी आत्मा का उत्थान हो और हम देवताओं में रमण करें। वेद मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण के साथ यज्ञ करते हुए,साकल्य तथा हव्य पदार्थों को देवताओं के समक्ष प्रस्तुत करके देवताओं से प्रार्थना कर रहे हैं,कि हे देवताओं!आईए,हमारे साकल्य को,इन हव्य पदार्थों को ग्रहण करो,और  हमारे लिए प्रत्येक प्रकार से कल्याणकारी बनो

तब ऋषिवर ने सोचा कि भाई, यह भी बड़ी बुद्धिमत्ता का कार्य है

यज्ञ में अध्वर्यु का कर्तव्य

इसके पश्चात पापड़ी ऋषि महाराज अध्वर्यु के समक्ष पंहुचकर बोले कि हे भगवन! नाना प्रकार की सामग्री एकत्रित करके यज्ञ करते हुए देवताओं का साकल्य दे रहे हैं,वह क्यों दे रहे हो? इसका क्या अभिप्रायः है?

यज्ञ में सामग्री की शुद्धता का महत्व

उन्होंने उत्तर दिया कि यह मेरा कर्तव्य है,कि मैं शुद्ध रूप से देवताओं को शुद्ध सामग्री दूँ,जिससे कि देवताओं का आहार शुद्ध हो, यदि देवताओं का आहार शुद्ध होगा,तो हमें देवताओं से श्रेष्ठ प्राण सत्ता मिलेगी।

तो  हमें वह महत्ता प्राप्त करनी चाहिए,जिससे हमारा जीवन,राष्ट्र का जीवन,संसार के मानव का जीवन,उच्च बने और विद्या का प्रसार हो।वेदों के अनुकूल बनी सामग्री की आहुतियां देने से देवता उसको स्वीकार करते हैं।

यज्ञ में भावना युक्त आहुतियों का प्रभाव

इन वार्त्ताओं को पाकर ऋषिवर यजमान के समक्ष जा पंहुचे,और बोले कि हे यजमान! तुम तो आहुतियां दे रहे हो,इनका क्या अभिप्रायः हैं?

राजा ने कहा- हे ऋषिवर! हम आहुति देने के साथ-साथ प्रार्थना कर रहे हैं,कि हे प्रभु! आपने हमारे राष्ट्र को तथा इस हमारे संसार को उत्पन्न किया हैं,हे विधाता! हे देवताओं! हमारे राष्ट्र में शुद्ध ज्ञान प्रकाश हो,सदभावनाओं वाले व्यक्ति हो,जिससे हमारे राष्ट्र में घृत्त-दाता पशुओं की हानि न हो। हे भगवन! यदि हमारे राष्ट्र में गोओं की हानि हो जाएगी,तो मेरा राष्ट्र आज नही तो कल,अवश्य नष्ट हो जाएगा। हे विधाता! हे देवताओं! मैं यह सदभावना पूर्वक आहुति दे रहा हूँ,कि हमारे राष्ट्र में पशुओं की वृद्धि हो,तथा मेरा राष्ट्र प्रत्येक प्रकार से विशाल हो।

यजमान-पत्नी का कर्तव्य

यजमान से इस प्रकार की वार्त्ता सुनकर ऋषिवर यजमान धर्मपत्नी के समक्ष पंहुचे और कहा कि हे धर्मदेवी! तुम्हारी आहुति देने का क्या मन्तव्य हैं? उस समय धर्मदेवी ने कहा कि ऋषिवर! आप तो बड़े बुद्धिमान हैं,आप ऐसे वाक्य क्यों उच्चारण कर रहे हैं? यह तो आपके योग्य नही है तब ऋषिवर ने कहा कि आप भी अपना कुछ विचार तो उच्चारण कीजिए। उस समय धर्म देवी ने कहा कि हे विधाता! मैं मन के इस संकल्प के साथ आहुति देती हुई,याचना कर रही हूँ,कि हे देव! हे परमात्मन! हम शुभ कार्य करते रहें,और मेरे स्वामी के राष्ट्र में शुभ कार्य होते रहें,अशुभ कार्य न हों। मेरे स्वामी के राष्ट्र में,कोई मानव,कोई देवकन्या दुराचारी न हो। हे भगवन! हे ऋषिवर! जिसके राष्ट्र में देवकन्याएं व पुरूष दुराचारी हो जाते हैं,उस राजा का राज्य आज नही तो कल, अवश्य समाप्त हो जाएगा। हे भगवन! मेरी यह प्रार्थना है,कि प्रत्येक देव कन्या,प्रत्येक मानव उच्च विचार वाला,महान सदाचारी हो, जिससे मेरे स्वामी का राष्ट्र,एक विशाल राष्ट्र बनें और ऐसे धर्म के कार्य, प्रत्येक स्थानों में होते रहे,जिससे राष्ट्र में बुद्धिमानों का प्रसार हो,बिना वेद के प्रचार के, राष्ट्र के मानवों में कभी सात्विक बुद्धि नही आती हैं।

जब ऋषिवर ने इन वाक्यों को पाया,तो ऋषि चकित हो गए, ऋषि जी ने कहा कि यह तो वास्तव में अजयमेघ यज्ञ करने के अधिकारी हैं।

ऋत्विजों का कर्तव्य

इसके पश्चात ऋषि आहुतियां देने वाले ,ऋत्विजों के समक्ष पंहुचे। ऋषि ने ऋत्विजों से प्रार्थना की कि भगवन! आप लोग जो ये आहुतियां दे रहे हैं,इसका क्या अभिप्रायः है? उस समय ऋषि के वाक्यों को पा करके ऋत्विजों ने कहा कि भगवन! हम याचना कर रहे हैं,कि हे विधाता!हमारे जो दुर्गुण एवं दुर्गन्धियां हैं,उनको समाप्त करके, हमारे में सुगन्धि प्रविष्ट करें,क्योंकि जब हमारा जीवन सुगन्धिदायक बनेगा,तब ही हमारा जीवन महान बनेगा। हम राष्ट्र के तथा संसार के हितैषी बनेंगें,हे विधाता! हम हर प्रकार से हितैषी बनकर संसार को सुख पंहुचा कर,देवताओं के समक्ष पंहुचे। तो ऋत्विजों के इन वाक्यों को पाकर ऋषिवर शान्त हो गए।

यज्ञ में  समिधा और सामग्री

       ऋषि जी महती समिधाओं के समक्ष पहुंचे,(आलंकारिक संवाद)  और समिधाओं से कहा कि  हे समिधाओं! यह क्या हो रहा है? तुम अग्नि में प्रविष्ट हो रही हो,और अग्नि तुम्हें नष्ट कर रही हैं। तुम अग्नि का आहार बन रही हो,इससे तुम्हारा क्या मन्तव्य हैं?

उस समय समिधाओं ने कहा कि हे विधाता! संसार में वही मानव सुख पाता है,जो किसी का बन जाता हैं।ऋषि जब भी बनता है,तो वह  गुरु की शरण में चला जाता हैं। गुरु उसके दुर्गणों को नष्ट कर देते हैं, अग्नि विद्या को धारण करा देते हैं। तभी वह ऋषि बनता हैं। इसी प्रकार विधाता!हम अग्नि रूप गुरु के समक्ष जाकर,अपने पार्थिव परमाणुओं को समाप्त करके,अपने सूक्ष्म रूप को धारण करके,सूर्य मण्डल तक पंहुच कर देवताओं की शरण में चली जाती हैं।और महान आदित्य हमको धारण करके,आहार करके,धीमी धीमी किरणों के द्वारा,समुद्रों में पंहुचा देते हैं। समुद्रों से मेघ के रूप को धारण करके वृष्टि द्वारा पृथ्वी पर आ जाती हैं,पृथ्वी पर स्थावर सृष्टि के रूप में उत्पन्न होकर हम संसार का कल्याण करती हैं।

ऋषि ने उनके युक्ति युक्त उत्तर से सन्तुष्ट होकर सामग्री के समक्ष पंहुचे,और उन्होंने सामग्री से प्रश्न किया,कि तुम यह क्या कर रही हो? तुम अग्नि के समक्ष जाकर,उसमें क्यों भस्म हो रही हो? इससे तुम्हारा क्या अभिप्रायः है,तुम्हें इसमें क्या लाभ प्रतीत होता हैं?

उस समय उस महती सामग्री ने कहा था कि हे विधाता! नाना प्रकार की वस्तुओं को एकत्रित करके हमको बनाया गया हैं,इसके अनन्तर हमको अग्नि के अर्पण कर दिया जाता हैं,अग्नि हमको भस्म कर देती है। हमारा सूक्ष्म रूप बनकर अन्तरिक्ष में,आदित्य में पंहुच जाता है।जब हम आदित्य में रमण करती है,तब आदित्य हमें बल देता हैं।तो  उस बल से किरणें उत्पन्न होती हैं,जो समुद्रों में जाती हैं। समुद्रों से जल का उत्थान होता है,जल से मेध बन जाते है। मेघों से वृष्टि होती हैं। वृष्टि से पृथ्वी पर नाना प्रकार की समिधाएं तथा नाना प्रकार की सामग्रियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

संसार में उसी का जीवन ऊंच्च है ,जो किसी का हो जाता हैं,जो किसी का नही होता,वह संसार में अधूरा बना बैठा रहता है। जब तक ज्ञान रूपी अग्नि में आत्मा ने स्नान नही किया,अपने दोषों को भस्म नही किया,तब तक आत्मा परमात्मा के विमुख ही रहता हैं।भगवन! इसी प्रकार जब तक हम अपने रूप को अग्नि में भस्म न कर देंगें,तब तक हमारा यथार्थ रूप देवताओं के समक्ष नही आएगा। तथा जब तक हम संसार का कोई उपकार न कर सकेंगे। यदि हम उपकार न कर सके,तो हमारा जीवन निष्फल है।  3-4-1962

 

No comments:

Post a Comment