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२१ ०८ १९६२ सृष्टि
उत्पत्ति और राष्ट्र निर्माण
जीते रहो!
देखो,
मुनिवरों! अभी-अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ। हम तुम्हारे समक्ष
वेद मन्त्रों का पाठ कर रहे थे। आज के मनोहर वेद पाठ में,
हमारे हृदय की ज्योति प्रकाशित होने के लिए प्रस्तुत हो रही थी।
कल
मेरे प्यारे! लोमश मुनि ने बहुत ऊँचे भाव प्रकाशित किए । इनके व्याख्यानों की हमसे
प्रशंसा नहीं की जाती। इनका वाक्य, कितना उच्च, हृदय को छूने वाला, अन्तःकरण को पवित्र बनाने वाला,
वायु मण्डल, अन्तरिक्ष मण्डल में जहाँ यह
वार्त्ता जाती है ,वहाँ के वातावरण को शुद्ध बनाने वाला था।
आज हम उन महान आचार्यो की प्रशंसा, उनकी महानता का वर्णन
अपने मुखारविन्दों से नहीं कर सकते और न किया जाता है।
ओ३म्
मुनिवरों!
हमें यह तो उच्चारण नहीं करना, जो उच्चारण करने लगे। हमें ‘ओ३म्’ के बहुत ऊँचे शिखर पर जाना है। वेद का
प्रत्येक मन्त्र उस ‘ओ३म्’ से बन्धा
हुआ है। जिस प्रकार यह परमात्मा की अनन्त सृष्टि है और प्रकृति के कण-कण में उस
चेतन प्रभु का प्रकाश, महत प्रकाशित हो रहा है जिससे यह
प्रकृति अपना कर्त्तव्य कर रही है, इसी प्रकार प्रत्येक
वेदमन्त्र का शब्दार्थ उस ‘ओ३म्’ से
बन्धा हुआ है ,जिस ‘ओ३म्’ को हम प्रभु का मुख्य नाम कहा करते हैं।
आज
कोई प्रश्न करता है कि ‘ओ३म्’ नाम ही
मुख्य क्यों माना है और नामों को मुख्य क्यों नहीं माना? वास्तव
में परमात्मा के जितने नाम हैं, उन सबसे परमात्मा प्रकाशित
हो रहा है, उसके महान गुणों का वर्णन, कर्त्तव्य
का वर्णन है, प्रत्येक पर्यायवाची शब्दों में वह महत्व भरे
वाक्य आ जाते हैं। परन्तु ‘ओ३म्’ को
इसलिए हमारे यहाँ मुख्य माना जाता है, क्योंकि जैसे एक मानव
है, उसको मानव भी कहते हैं, उसको
पुरुषोत्तम भी कहते हैं, मनुष्य भी कहते हैं और नाना रूपों
से पुकारा जाता है। जैसे मेरे प्यारे महानन्द जी हैं। परन्तु जब नाम उच्चारण किया
जाएगा, तो महानन्द जी ही कहना पड़ेगा। इसीलिए मुनिवरों! प्रभु
का एक मुख्य नाम ओ३म् है। ऐसा महान नाम है, जिसमें महान
विचित्रता भरी हुई है और वह प्रत्येक वेदमन्त्र में प्रकाशित हो रहा है।
मुनिवरों! आज हम क्या उच्चारण करने लगे ,यह तो हमें व्याख्या नही देनी |आज हम पूर्व के
मन्त्रों में, उस विश्वकर्मा की याचना कर रहे थे, कि हे विधाता! आप विश्वकर्मा हैं, आपने भगवन्!
संसार को उत्पन्न किया है। मुनिवरों! प्रभु ने इस महान सृष्टि का निर्माण किया है।
उसकी रचना का गुणगान कहाँ तक गाते चले जाएं, गाया नहीं जाता।
आज हम उस प्रभु का गान गा रहे थे, जो हमारे जीवन का साथी है,
संसार को चलाने वाला है, प्रत्येक मानव,
प्रत्येक देव कन्या के हृदय में समाने वाला है।
मुनिवरों! लोमश मुनि ने कल इतने ऊँचे शब्दों
का प्रसार किया, कि उन महान ऊँचे शब्दों का वर्णन तो हमसे
नहीं किया जाता। परन्तु, आज हमारा विषय बड़ा महान और दार्शनिक
बनने लगा है। देखो! प्रभु ने सबसे पूर्व इस संसार को महत दिया। नाना तन्मात्राओं के
द्वारा इस संसार को उत्पन्न किया। जिस प्रकार बालक के माता के गर्भ में जाने से
पूर्व ही उस महान प्रभु ने उसके खान पान का प्रबन्ध किया, इसी
प्रकार सृष्टि के प्रारम्भ में जब यह सृष्टि की रचना हुई, महाराजा
शिव ने महान इस माता पार्वती को सत्ता दी जिसके गर्भ से यह संसार उत्पन्न हो गया।
पूज्य महानन्द जीः गुरुजी कल आपने सृष्टि की
उत्पत्ति की गणना कराते हुए कहा, कि आज संसार को १, ९७, ८३, ५७, २६२ वर्ष हो चुके हैं। परन्तु आज जब हम लाक्षागृह पर विचरण कर रहे थे, तो जो इस
सृष्टि की उत्पत्ति की गणना सुनी, तो वह १, ९७, ८९, ४९,०६२ वर्ष है। हमारे निर्णय में नहीं आ रहा कि आपकी वार्त्ता को सत्य मानें
या इसे।
पूज्यपाद गुरुदेवः “महानन्द जी! इसके ऊपर
विचार करेंगे।“
पूज्य महानन्द जीः “विचार किस स्थान पर
करेंगे, भगवन! अभी कर लीजिए, इसका
उत्तर शीर्घ दे दीजिए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः ‘अच्छा
महानन्द जी! आगे को वाक्य होने दो, देखेंगे क्या विचार आता
है।“
पूज्य महानन्द जीः “विचारना क्या भगवन! वह तो
हमारी वार्त्ता सत्य होती दीखती है।
पूज्यपाद गुरुदेवः (हास्य के साथ) “देखा
जाएगा, आगे प्रकरण को चलने दो।“
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा।“
सृष्टि सृजन
पूज्यपाद गुरुदेवः मुनिवरों! अभी-अभी महानन्द
जी ने प्रश्न किया, परन्तु हमारी यह हठ नहीं, कि महानन्द जी के इस वाक्य को न मानें। हो सकता है हमारी गणना में कोई
सूक्ष्मता रह गई हो। महानन्द जी का वाक्य यथार्थ हो, इसमें
कोई वार्त्ता नहीं। सत्य वार्त्ताओं को स्वीकार करने में किसी की कोई हानि नहीं।
इसलिए, हम अवश्य इनके वाक्यों को स्वीकार कर लेंगे। अन्तिम
में विचार करेंगे। अब हम प्रारम्भ कर रहे थे, कि उस
विश्वकर्मा ने सबसे पूर्व, जब यह पृथ्वी शीतल बनने लगी,
समता आने लगी, तन्मात्राओं और महान पंच-भूत इन
सबका संगठन बना करके,महान सृष्टि का कार्य चलने लगा।
स्थावर सृष्टि
मुनिवरों!
सबसे पूर्व उस विश्वकर्मा ने यह नाना प्रकार की वनस्पतियों को उत्पन्न किया, जिससे स्थावर सृष्टि कहते हैं। जैसे अभी हमने माता का प्रमाण दिया,
इसी प्रकार प्रभु ने हमारे खान पान का प्रबन्ध पूर्व किया। वृक्ष
योनि में नाना प्रकार की जातियाँ हैं, जिनमें नाना औषधियाँ
भी हैं, नाना ऐसे-ऐसे पौष्टिक पदार्थ हैं, जिन पर मानव का जीवन निर्वाह होता है।
उद्भिज्ज सृष्टि
वृक्ष योनि के पश्चात् इस अण्डज सृष्टि को
उत्पन्न किया, जिसे हम अण्डज और उद्भिज्ज सृष्टि कहते हैं।
कोई मानव प्रश्न करें, कि विधाता ने इस अण्डज सृष्टि को इस
प्रकार क्यों उत्पन्न किया? सबसे पूर्व तो मानव को उत्पन्न
करना था। परन्तु, नहीं। अण्डज सृष्टि में नाना जल में और
वृक्षों पर रहने वाले जीवधारी हैं। जितने जलचर जलों में रहते हैं। वह मानव के लिए
बड़े उपयोगी हैं, जैसे, जल में रहने
वाले मच्छ इत्यादि हैं। जल में जो नाना प्रकार की दुर्गुणता उत्पन्न हो जाती है,
जो मानव के लिए बहुत हानिकारक होती है, उन
सबको आहार करने वाले, वह जीव जलचरों में हैं। वे जल को शुद्ध
करते हैं, कि जिससे मानव को किसी प्रकार की हानि न पहुंचे।
जंगम सृष्टि
मुनिवरों! इसके पश्चात् जरायुज सृष्टि का
निर्माण किया, जिसे जंगम सृष्टि भी कहते हैं, जिसमें नाना जातियाँ हैं, जैसे गरुएं हैं, मनुष्य जाति हैं। माता पिता तो थे नहीं, बिना माता
पिता के संयोग से यह मानव जाति कैसे उत्पन्न हो गई, कैसे यह
वृक्ष योनि उत्पन्न हो गई? जब तक इसमें बीच का अंकुर न था और
न कोई इसे उपजाऊ करने वाला था,तो यह संसार इस प्रकार क्यों
उत्पन्न हो गया? आज यह समस्या हमारे समक्ष बड़ी महान है।
मुनिवरों! यह जो प्रकृति है, इसमें स्वतः ही पूर्व की भांति, सब बीज रूप अंकुर
में रहता है। जैसे, वट वृक्ष का एक सूक्ष्म सा बीज होता है।
जब पृथ्वी में उपजता है, तो महान वृक्ष बन जाता है, इसी प्रकार महान सूक्ष्म रूपों से
परमाणु रूपों से यह बीज,महान इस प्रकृति माता में रहता है जो
महान सबको अपने गर्भ में धारण करने वाली है। इसी प्रकार का यह संसार प्रभु ने अपनी
महत्वता से, अपनी चेतन सत्ता से इस संसार को रचाया।
संसार रचना का उद्देश्य
अब विचार आता है, कि
प्रभु ने यह संसार इस प्रकार का क्यों रच दिया, उसे क्या
आवश्यकता थी? क्या प्रभु ने अपनी प्रशंसा के लिए इस संसार को
रचाया? नहीं। प्रशंसा के लिए नहीं,
परन्तु अपना कर्तव्य मानते हुए। जैसे माता की लोरियों में लगकर बालक अपने जीवन को
पा लेता है। माता का क्या मन्तव्य है? माता के शरीर में जैसे
आत्मा है, ऐसे ही बालक के शरीर में है। परन्तु माता को क्या
आवश्यकता है? कोई मन्तव्य नहीं। उसने तो केवल अपने कर्तव्य
को पूर्ण करने के लिए, अपनी महानता का एक प्रदर्शन किया,
जो मुनिवारों !एक बालक की पालना की। इसी प्रकार उस विधाता शिव ने
प्रकृति माता पार्वती को साथ ले करके इस संसार को उत्पन्न किया, जो आज नियमबद्ध हो रहा है।
मुनिवरों! नाना प्रकार के प्रश्न हमारे समक्ष
उत्पन्न होते हैं। इस मानव जाति को विधाता ने कैसे उत्पन्न किया? मुनिवरों! जैसे माता गर्भवती है, वह जो भी आहार करती
है उसका कच्चा रस कुछ स्वांग नाम की नाड़ी द्वारा लोरियों में जाता है और वहाँ
परिपक्व होता है। उस नाड़ी का सम्बन्ध नाभि के द्वारा होता है और वह परिपक्व रस
नाभि के द्वारा जाता है। जैसे बेल के ऊपर फल लगता है, परन्तु
वह कितना विचित्र होता है कि जिस समय वह परिपक्व हो जाता है,
तो वह फल बेल से स्वयं पृथक हो जाता है। इसी प्रकार इस महान पृथ्वी से मानव जाति
का अंकुर उत्पन्न होता है। अंकुर उत्पन्न होने के पश्चात् इसका सम्बन्ध नाभि के
द्वारा होता है, माता पृथ्वी से रस लेता रहा जैसे वृक्ष और
नाना योनियाँ उत्पन्न हुई, इनमें माताएं भी पुरुष भी,
देव कन्याएं भी, सब उत्पन्न हुए।
आज मानव प्रश्न करता है, कि क्या यह मानव जाति युवा या बाल्य अवस्था में हुई? इसका उत्तर यह है कि यह सब युवा अवस्था में हुई|
क्योंकि यदि वह बाल्य अवस्था में होती, तो उसका पालन पोषण
कौन करता, युवा उत्पन्न होने के पश्चात् यह सृष्टि क्रम चलने
लगा।
जब यह क्रम चलने लगा तो प्रश्न आता है कि यह
ज्ञान कहाँ से आया, जब सृष्टि को चलाने की जानकारी कराने
वाला कोई समक्ष न था?
मुनिवरों! इस प्रकरण में यह माना गया है, कि महान आत्माएं, जिन्हें मोक्ष तो प्राप्त नहीं
हुआ, परन्तु जिन्होंने उच्च कर्म किए और मोक्ष के निकट
पहुंचे उन्होंने अपने पूर्व जन्मों के पुण्यों से, उस प्रभु
की सृष्टि में जन्म धारण किया और जन्म धारण करके इस विधान को किया, जो आज चल रहा है। माता पिता का, आहार व्यवहार का सब
ही कुछ विधान हमारे ऋषि महर्षियों ने निर्णय किया, जो हमारे
यहाँ ब्रह्मा, अंगिरा, आदित्य आदि ऋषि
कहे जाते हैं, इन्होंने पुरुषों को, देव
कन्याओं को सबको विशेष ज्ञान कराया। इस ज्ञान को पाते हुए,
यह संसार अभी तक इस प्रकार चला आ रहा है।
पूज्य महानन्द जीः गुरु जी! हम इन वार्त्ताओं
को स्वीकार नहीं कर रहे, यदि देव कन्याओं का और पुरुषों का
सम्बन्ध पृथ्वी से रहता है, तो आज भी रहना चाहिए। आपने जैसे
एक बेल का प्रमाण दिया है, कि उसका फल परिपक्व होकर स्वयं
पृथक् हो जाता है तो यह मनुष्य भी बेल पर लगना चाहिए?
पूज्यपाद गुरुदेवः (हास्य के साथ) अरे,
मूर्खानन्द! यह वार्त्ता उच्चारण करे बिना तुम्हें शान्ति नहीं
होती। तुम ऐसे वाक्य उच्चारण करोगे कि न होने योग्य हैं, और
न इनका कोई उत्तर ही दिया जाएगा।
पूज्य महानन्द जीः हास्य.......गुरुजी! यह तो
वही वार्त्ता है, कि उत्तर नहीं बनता तो शांत हो जाओ।
पूज्यपाद गुरुदेवः अरे, सुना करो! असंगत प्रश्न नहीं किया करते। जिसकी कुछ रूपरेखा नहीं, उसका उत्तर क्या?
पूज्य महानन्द जीः तो गुरुजी! आपके वाक्य की
भी तो कोई संगत नहीं।
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा सुनो! इसका उत्तर यह
माना जाता है, कि जब माता पृथ्वी और पिता प्रभु दोनों की
समता होती है, तो यह सृष्टि क्रम नियमबद्ध चला करता है। मानव
जाति को इसी प्रकार उत्पन्न किया। ऋषियों की अनुपम कृपा हुई। प्रभु की महान इस
सृष्टि में आ करके, अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने के लिए, इस संसार को पूर्व की भांति, ज्ञान कराया। जैसा
पूर्व व्याख्यान में कह चुके हैं, कि आदि सृष्टि में आत्माएं
अनेक होती हैं, जिन्हें पूर्व सृष्टि का ज्ञान होता है,
उसी पूर्व सृष्टि के नियम से परमात्मा की नवीन सृष्टि को नियमबद्ध
कर देते हैं। तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर यह है, जो हमसे बन
रहा है। इन्होंने बेल का प्रमाण मिथ्या कहा है, परन्तु
मिथ्या नहीं हो सकता, क्योंकि जब बेल का, वृक्ष योनि का, उसका अंकुर इस प्रकृति में विराजमान
है, तो इसी प्रकार पुरुष के और महान अपनी महत् का पूर्व की
भांति, जो अंकुर रहता है, वह उत्पन्न
हो जाता है। माता पृथ्वी और पिता प्रभु दोनों की समता हो करके सृष्टि का निर्माण
हो जाता है। अपनी महान कारीगरी से उस प्रभु विश्वकर्मा ने इस संसार को रचा है।
ऋषियों का कितना बड़ा परोपकार है। आज उन
ऋषियों के गौरव को शान्त करते चले जा रहे हैं। इस संसार में ही नहीं, लोक लोकान्तरों में ऋषियों का गौरव है|क्योंकि जिन
आत्माओं ने अपने ज्ञान का विकास किया। आत्मा में ज्ञान और प्रयत्न स्वाभाविक होता
है। पूर्व की भांति, ज्ञान होने के कारण उन्होंने इस सृष्टि
को क्रमबद्ध कर दिया। वास्तव में तो प्रभु ने इसको रचा और उसी ने क्रमबद्ध किया।
वेदों का आविर्भाव
मुनिवरों! आगे हमारे समक्ष आता है, कि आज जो यह चारों वेद हैं, जिसे प्रभु की वाणी
कहते हैं, यह कहाँ से आई? कैसे आई?
क्योंकि जिस समय प्रलय होती है, उस समय यह
ज्ञान भी परमात्मा के आँगन में चला जाता है, यह प्रकाश यहाँ
नहीं रहता। इसका उत्तर यह बनता चला जा रहा है, कि उन चार
ऋषियों को पूर्व की भांति, वेदों का ज्ञान था, ज्ञान होने के कारण प्रभु की महत्त्वता पा करके, उस
प्रभु की सृष्टि में जा करके पूर्व की भांति, वेदों का
प्रसार किया।
मेरे प्यारे! महानन्द ने एक काल में ऐसा कहा, कि वेद एक ही है जो ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ और महर्षि व्यास ने इसके चार
काण्ड किए । परन्तु इसका उत्तर यह है, कि महर्षि व्यास मुनि
इस द्वापर काल में हुए, परन्तु यहाँ तो राम को, वशिष्ठ मुनि महाराज को चारों वेदों की चुनौती दी जा रही है। इसका स्पष्ट
उत्तर तो यह है कि चारों काण्ड सृष्टि के
प्रारम्भ में चारों ऋषियों द्वारा प्रभु की सहायता से प्रगट हुए।
मुनिवरों! आज यह हमारा दार्शनिक और गम्भीर
विषय है, जिसे बहुत विचारने की आवश्यकता है| मेरे प्यारे महानन्द जी प्रश्न कर रहे हैं, कि जब
बिना माता पिता के सृष्टि प्रारम्भ हुई, तो आज क्यों नहीं
होती? इनका यह प्रश्न निरर्थक है,
युक्ति से भिन्न है। युक्ति देना सामान्य व्यक्तियों का कार्य नहीं। महानन्द जी यह
युक्ति देंगे कि प्रभु ने इस सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ में किया और आज तक चला
आता है| तो यह मानव इतना पाप न करता। इसका सहज उत्तर यह है, कि मेरी माताओंके शरीर की और
मेरे विधाताओं के शरीर की रचना विचित्र है, इसमें बुद्धि का
मण्डल है, मन का मण्डल है, प्रकृति का
मण्डल है, अन्तरिक्ष का मण्डल है, आत्मा
का मण्डल है, अन्तःकरण का मण्डल है, इन
सबका मण्डल इसमें विराजमान है। यह सब मण्डल होने के कारण इसमें ज्ञान और प्रयत्न
है, जिसके कारण वह कार्य जो प्रभु ने इसे दिया है वह कार्य
करना अनिवार्य है। प्रभु ने तो एक समय नियम बनाया, कि इस
मार्ग पर चलो, उस मार्ग पर मानव का कार्य प्रारम्भ हो जाता
है। इसमें मानव का कर्म करना धर्म है। आज मानव इसमें नाना प्रश्न करे, तो इसका कोई उत्तर नहीं, यह प्रश्न असंगत बन
जाएंगे।
तो मुनिवरों! यह आज हमारा एक आदेश प्रारम्भ
हो रहा था। जो मेरे प्यारे महानन्द ऋषि ने अभी-अभी प्रश्न किए , उनके उत्तर हम देते चले जा रहे हैं। इन्होंने जो अब प्रश्न किया है, वह असंगत है| उसकी कोई संगति नहीं बन रही है, जैसे विधाता ने महान मेघों को
उत्पन्न किया और प्रारम्भ से चल रहे हैं, प्रभु ने विद्युत
को बनाया। विद्युत कहाँ रहती है? विद्युत जल में रहती है।
जिसे हम नाना यन्त्रों से उत्पन्न करते हैं।
पूज्यमहानन्द जी गुरु जी! इस विद्युत के
विशेषण में तो हमने ऐसा सुना है, कि राजा कंस ने माता यशोदा
की कन्या पर जो भगवान कृष्ण के स्थान पर लाई गई थी, उसको
नष्ट किया, तो उसकी विद्युत बन करके मेघों में चली गई थी, और मेघों में चले जाने से, राजा कंस भयभीत हुआ, क्योंकि उसने आकाशवाणी से कहा था, कि मैं तेरे
विनाश के लिए उत्पन्न हो गई हूँ, और यह वह विद्युत है| जिसमें कंस के परिवार का कुछ अंकुर होता है, उसी पर
उसका प्रहार हो जाता है, ऐसा कहते हैं। परन्तु आपने विद्युत
को जल से कहा है, इसका भी आपके द्वारा कोई उत्तर न होगा?
पूज्यपाद गुरुदेवः अरे, तुम सुना तो करो, पूर्व ही उच्चारण कर देते हो। यह
विद्युत तो प्रारम्भ से है। यह तो तन्मात्राओं का रूप है। यह विद्युत तो वह है जो
प्राणों के महान संघर्ष से उत्पन्न होती है। जब यह मेघ अन्तरिक्ष में रहते हैं तो
इन्द्र वायु अपने प्राण रूपी वज्रों का आक्रमण करता है, जल
और इन्द्र दोनों का संघर्ष होता है। दोनों के आक्रमण से विद्युत उत्पन्न हो जाती
है। रही यह वार्त्ता कि कंस ने कन्याओं पर प्रहार किया, तो
बेटा! इसको हम भगवान कृष्ण के जन्म दिवस पर वर्णन करेंगे,जो
निकट आ रहा है। आज इन प्रश्नों का उत्तर देने का कोई समय नहीं मिल रहा है।
पूज्य महानन्द जीः हास्य .....हम तो पूर्व ही
कहा करते हैं, इसमे कोई ऐसी वार्त्ता नहीं है भगवन!
पूज्यपाद गुरुदेवः अरे तुम इतने मग्न क्यों
हो रहे हो, कल तो तुमने कोई प्रश्न किया नहीं, आज ऐसे प्रश्न करते चले जा रहे हो, कि तुम्हारे
वाक्यों से हम अपने मार्ग से विचलित हो जाते हैं।
पूज्य महानन्द जीः अच्छा भगवन्! आप कहें, तो हम प्रश्न करना शान्त कर दें, आपकी आज्ञा की
देरी है।
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य....अच्छा! अब तुम
शान्त रहो।
पूज्य महानन्द जीः मुनिवरों! अभी-अभी हम
विद्युत का प्रकाश दे रहे थे, जैसा महान आचार्यों ने वर्णन
किया है, उसी आदेश से हम प्रारम्भ कर रहे थे।
अभी अभी हम सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ कर
रहे थे। यहाँ ऐसा माना जाता है जैसा आचार्यो से आदेश मिला, कि
३६ लाख वर्ष तक
सृष्टि में यह ऋषियों का काल चलता रहा। इसमें न कोई राजा था,
न प्रजा थी| प्रभु के आँगन में, प्रभु
की आज्ञा में, वेद के आधार से, इसी
प्रकार चलता रहा। किसी किसी ऋषि का तो ऐसा अनुमान है, कि करोड़ों वर्ष सृष्टि इसी प्रकार
चलती रही। आज हम अपने वाक्यों को शान्त कर लें कि ३६ लाख वर्ष नहीं। इसको
करोड़ों वर्ष मान लेवें तो इसमें भी हमारी कोई हानि नहीं। क्योंकि ऋषियों का अनुमान
है, उनकी अनुमति में हमारी अनुमति है। हमारा ३६ लाख वर्ष का
अनुमान मिथ्या भी बन सकता है। परन्तु ऋषियों ने जैसा कहा वह यथार्थ होता है। इसलिए,
आज हम ३६ लाख वर्षों की वार्त्ताओं को उच्चारण करते हुए करोड़ों
वर्षों की वार्त्ताओं को यथार्थ मानते चले जा रहे हैं। करोड़ों वर्षों तक संसार में यह ऋषि मण्डल चलता रहा।
ऋषि पति और ऋषि पत्नियाँ सब ही की संज्ञाएं इस प्रकार की चलती रहीं। सन्तान
उत्पत्ति महान से महान वेद के अनुकूल। उसी के आधार से वह सृष्टि का निर्माण होता
चला गया। आज हमारा केवल यह आदेश चल रहा था कि विश्वकर्मा ने यह कैसा विशाल संसार
रचाया है।
करोड़ों वर्षों के पश्चात् स्वायम्भु मनु
महाराज ने आकर इस सृष्टि को देखा, कि इसमें कुछ सूक्ष्मता आ
गई है। विचारों में कुछ नवीनता आ गई है। उन्होंने वेद के आधार से राष्ट्र का
निर्माण किया। उस समय ऋषियों ने कहा कि आपने राष्ट्र का निर्माण तो किया, परन्तु हम यह जानना चाहते हैं, कि यहाँ का राजा कौन
बनेगा? उन्होंने कहा कि भगवन! कोई भी राजा बन सकता है।
ऋषियों ने कहा कि हम तो राजा बनने के लिए प्रस्तुत नहीं। तब उन्होंने कहा कि हम
अवश्य राजा बनेंगे। तो मुनिवरों! स्वायम्भु मनु महाराजा ने सबसे पूर्व राज्य के
कर्म करने के लिए इस अयोध्या नगरी का निर्माण किया।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! एक वार्त्ता और
जानना चाहते हैं, कि जिस काल में प्रभु ने यह सृष्टि रची, तो उस समय क्या यह दैत्य नहीं रचे थे, जो आज पाप कर
रहे हैं? क्या उस समय पाप नहीं होता था? यदि पाप नहीं था तो कहाँ से आया?”
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! यह तुम्हारे
प्रश्नों का उत्तर कल दिया जाएगा।“
पूज्य महानन्द जीः “गुरु
जी! सूक्ष्म सा प्रमाण दे दीजिए”।
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा! सुनो! वास्तव में
प्रश्न बड़ा महत्वपूर्ण है, हृदय को छूने वाला है। यदि
परमात्मा ने दैत्य उत्पन्न नहीं किए थे, तो कर्म की महान
क्रीड़ाएं समाप्त हो जाती हैं। उस काल में दैत्य भी थे, जो
महान ऋषियों के विपरीत कार्य किया करते थे। ऋषि सत्य उच्चारण करते, तो वह मिथ्या उच्चारण करते थे। इसी प्रकार आज भी वह कार्य चल रहा है। जब
कोई महान आत्मा समाज में गुणग्राही वाक्य प्रारम्भ करता है, तो
वामपक्षी, जिनमें दैत्यों का अंकुर होता है, वह उस महान आत्मा के विपरीत कार्य किया करते हैं। इसी प्रकार ऋषि समाज में
भी दैत्य थे, न होने के तुल्य माने जाते हैं, पर थे अवश्य। देखो! यदि इस महान परमात्मा की सृष्टि में यह मिथ्या वाक्य न
होता, तो सत्य की कोई महत्त्वता नहीं थी। सत्य न होता तो इस
मिथ्या का निर्णय नही हो सकता था। इसलिए, सत्यवादी और
मिथ्यावादी सृष्टि के प्रारम्भ से हैं।
आगे आगे यह संसार चलता रहा। जिस समय स्वायम्भु
मनु महाराज ने राष्ट्र का निर्माण किया, उस समय
मिथ्यावादियों की संख्या पूर्व से अधिक हो गई थी। आज हमारे समक्ष प्रश्न आता है, कि अयोध्या नगरी में आगे दशरथ ने भी राज्य किया, स्वायम्भु
मनु महाराज ने भी किया, तो स्वायम्भु मनु महाराज किसको कहते
हैं? यह तो बहुत गहन विषय हो जाता है। जब सृष्टि का प्रारम्भ
हुआ, देव और दैत्यों का संग्राम हुआ और महाराजा विष्णु ने इस
महान संसार समुद्र से चौदह रत्न निकाले। जिस प्रकार गौ के दुग्ध का मन्थन करके घृत
निकाला जाता है, इसी प्रकार संसार रूपी समुद्र का मन्थन किया
गया। देव और दैत्यों ने शेषनाग की नेती बनाई। एक महान गिरि की मथनी बनाई और समुद्र
का मन्थन किया,जिसमें से चौदह रत्न निकले।
महानन्द जी ने तो ऐसा कहा है, कि आधुनिक काल के अनुकूल उन चौदह रत्नों में चन्द्रमा है, विष का घड़ा है, कामधेनु और नाना सूर्य आदि हैं।
परन्तु यहाँ केवल यह ही अभिप्राय नहीं होता। यहाँ भी एक महान विलक्षण वाक्य आता
है। देखो! शेष कहते हैं, परमात्मा को। परमात्मा की नेती बना
करके, इस मन की एक मथनी बनाई। जब मन का इस शेष से सम्बन्ध हो
जाता है, तो इस महान इस शरीर रूपी समुद्र का मन्थन होता है।
एक स्थान में दैत्य और एक स्थान में देवता कौन हैं? देवता
अच्छे संस्कार, अच्छी मान्यता और दैत्य काम, क्रोध, मद, लोभ आदि हैं। इस
शरीर रूपी समुद्र को मथा जाता है, तो इसमें प्रकृति का मण्डल,
बुद्धि का मण्डल, चन्द्रमा का मण्डल, बृहस्पति का मण्डल आदि यह सब निकाले जाते हैं, जिन्हें
चौदह रत्न द्वारा पुकारा गया है। ऐसा हमारे आचार्यो ने इसका प्रतिपादन किया है।
मुनिवरों! आज इन चौदह रत्नों को चौदह
मन्वन्तर ही क्यों न मान लिया जाएं? यह संसार प्रभु ने एक
हजार चतुर्युगियों का रचा है। यह इसकी अवधि है। इसको चौदह भागों में क्यों न
नियुक्त किया जाएं। उन महान आचार्यो ने, महान ऋषि मण्डल ने,
उस तार्किक और दार्शनिक मण्डल ने यह कहा, कि
भाई संसार को चौदह विभागों में बांट दो, जो चौदह मन्वन्तर
माने गए हैं। प्रत्येक मन्वन्तर में एक मनु होता है, जो
राष्ट्र का निर्माण किया करता है।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! कैसे? अपने आँगन में नहीं आया।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “यह इस प्रकार है बेटा! किचौदह
मनु होते है यह संसार प्रभु ने रचा है एक हजार चतुर्युगियों का है। यह इसकी अवधि
है। इसके चार विभाग बनाएं गए हैं। चारों विभागों में चार मनु होते हैं जो
राष्ट्रों का निर्माण और विधान बनाते हैं। एक एक मन्वन्तर में एक एक मनु के नियम
चलते रहते हैं।“
पूज्य महानन्द जीः “तो भगवन! इसमें कुछ
सूक्ष्मता हो जाएं, तो राष्ट्र का निर्माण कौन करे?”
पूज्यपाद गुरुदेवः इसका अभिप्राय यह है, कि स्वायम्भु मनु महाराज ने जो भी इसका निर्माण किया है, उसे जान करके, जो भी राजा,
महाराजा राष्ट्र का स्वामी बने,यह दैत्यों पर शासन करने वाले, उन नियमों के अनुकूल कार्य करें।
पूज्य महानन्द जीः “तो गुरुजी! क्या राज्य
दैत्यों पर ही होता है?”
पूज्यपाद गुरुदेवः “हां! ऐसा माना गया है।
राजाओं के महान जो कर्मचारी हैं, राजदूत हैं, वह बेटा! किसके लिए? वह न हमारे लिए, न तुम्हारे लिए, न सत्पुरुषों के लिए, वह तो उनके लिए हैं, जो पाप करते हैं।“
पूज्य महानन्द जीः “हास्य ......तो भगवन्!
हमारे लिए भी राजदूत नहीं है”।
पूज्यपाद गुरुदेवः “हास्य ......महानन्द जी!
इसलिए नहीं, क्योंकि आप भी सत कर्म करते हैं, सत्य वक्ता हैं और हम भी परमात्मा की परम कृपा से कुछ कुछ सत्य उच्चारण कर
देते हैं”।
पूज्य महानन्द जीः “हास्य.....तो गुरु जी!
कुछ ही कुछ उच्चारण करते हो? इसका अभिप्राय यह है, कि जो अब तक उच्चारण किया, इसमें मिथ्या भी है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! तुमने इस रहस्य को
जाना नहीं। हमने जो कहा है, कि हम भी कुछ कुछ सत्य उच्चारण
किया करते हैं तो इसका अभिप्राय यह नहीं, हम मिथ्या भी
उच्चारण करते हैं| परन्तु हो सकता है, कि कोई बात मिथ्या उच्चारण हो जाएं।
हमारे मिथ्या का फल तो प्रभु देगा। राज्य के कर्मचारी तो हमें इन मिथ्या शब्दों का
दंड न देंगे और न इसका कोई पुण्य मिलेगा। इसलिए बेटा!
विचारना यह ही है कि मानव जो पाप किया करते हैं, दुराचारी
व्यक्ति हैं, उनके लिए राज्य के दूत हैं, सत पुरुषों के लिए, महान ऊँची देवकन्याओं के लिए,
ऊँचे कर्म करने वालों के लिए, राज्य का कोई
प्रबन्ध नहीं। वह तो राष्ट्र नियम को जानते हैं, नियम के
आधार से चलते हैं, उनको राजा भी यह नहीं कहता, कि तुम नियम के विरुद्ध चल रहे हो। देखो! स्वायम्भु मनु महाराज ने
राष्ट्र का निर्माण किया। किसके लिए किया? जो तुच्छ बुद्धि
वाले व्यक्ति हैं, जो इन महान आत्माओं को, महान सच्चे व्यक्तियों को कष्ट न दे पाएं । तो महानन्द जी! तुम्हारे आगन
में आ गई यह वार्त्ता?
पूज्य महानन्द जीः “हां! आ गई भगवन!”
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! देखो!
परमात्मा की सृष्टि को चार भागों में उल्लेख माना गया है,
परन्तु यह चौदह भाग कैसे बनते हैं। ७१ चतुर्युगियों का एक मन्वन्तर माना जाता है, और प्रत्येक मन्वन्तर में एक मनु माना जाता है, जो
राष्ट्र का निर्माण कर देता है। जैसे ७१ चतुर्युगियों में कोई त्रुटियाँ हो जाएं,
राष्ट्र निर्माण की नवीन समस्याएं, पापियों को
नष्ट करने को आ जाएं, तो उसके पश्चात् द्वितीय स्वायम्भु मनु
महाराज उसका निर्माण कर देते हैं।
पूज्य महानन्द जीः तो गुरुजी! इसका निर्माण
मनु महाराज या स्वायम्भु मनु महाराज ही क्यों करते हैं? और
भी कोई ऋषि कर सकता है? हम और आप भी कर सकते हैं?
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! यह हमारे यहाँ उपाधि
मानी गई है, जैसे नारद है, इन्द्र है
और नाना ऋषि उपाधि है। स्वायम्भु मनु उसी को कहते हैं, जो
राष्ट्र का ऊँचा निर्माण कर दें। अब तुम यह कहोगे, कि इसकी
चुनौती कौन देता है? इसकी चुनौती देता कौन, परमात्मा की एक महान देन के आधार पर, स्वयं एक
मन्वन्तर के पश्चात् मनु आ करके, राष्ट्र का निर्माण कर देता
है। मुनिवरों! इसका अभिप्राय यह नहीं कि वह ही आत्मा आए जिसने स्वायम्भु मनु की उपाधि को पा लिया हो। जैसे बेटा!
हमने सुना है, कि जो राजा एक सौ एक अश्वमेध यज्ञ करा लेता है,
उसको इन्द्र कहते हैं। जो मन की गति जान जाता है, और उस गति से स्वयं चलने वाला बन जाता है, उसे नारद की उपाधि मिल जाती
है। इसी प्रकार यह भी उपाधि मानी गई है।
तो मुनिवरों! अभी अभी हमारा एक महत्वदायक आदेश
चल रहा था, कि विश्वकर्मा ने इस संसार को रचा और प्रभु के
नियम के अनुकूल उन महान आत्माओं ने पूर्व सृष्टि नियम के आधार से इसको क्रमबद्ध
नियुक्त कर दिया। यह सृष्टि क्रम है। आज मानव को विचारना चाहिए। कि महान प्रभु ने
यह संसार, महान आत्माओं के लिए बनाया। उच्च कर्म करने के लिए
प्रभु ने, इस संसार को रचा। उसकी अपनी अवधि है। यहाँ कहा जा
रहा था, कि राज्य के कर्मचारी, महान
आत्माओं के लिए, सत पुरुषों के लिए, यथार्थ
पुरुषों के लिए नहीं। यह तो केवल दुष्ट कर्म करने वालों के लिए हैं। इसलिए मानव को
यथार्थ कर्म करना चाहिए, जिससे हम उच्च बनें। हमें राजा के
कारागार से बचना चाहिए। यदि हम इस राजा के कारागार से बचने का कर्म करेंगे तो इसके
पश्चात् हमें विचारधारा होगी, कि जब हम इस राजा के राष्ट्र
में, हम मुनिवरों! इतने दुखित हो रहे हैं, तो जब हम इस शरीर को त्याग करके, प्रभु के राष्ट्र
में जाएंगे, तो प्रभु हमें कौन से कारागार में भेजेगा। इसलिए
हमें उन कर्मो को विचारना चाहिए। जिससे हम परमात्मा के कारागार में भी न जा सकें।
हमें अपना जीवन हर प्रकार से उच्च बनाना है। मानव को इस आदेश पर अवश्य चलना चाहिए, जिसे वैदिक सम्पत्ति कह रही है।
मुनिवरों! अब यह हमारा आदेश समाप्त हो गया
है। हमने विचार कर लिया है, कि सृष्टि की गणना, जो कल कराई थी, वह अशुद्ध उच्चारण कर दी थी।
महानन्द जी का वाक्य शिरोमणि हो गया है। मन्वन्तरों के आधार से इनका वाक्य यथार्थ
बन रहा है।
पूज्य महानन्द जीः “भगवन! यह तो बनता,
जैसा हमने कहा है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा। तो मुनिवरों! अब
हमारा यह आदेश समाप्त हो गया है। महानन्द जी तो यह प्रश्न करते ही रहते हैं, और ऐसे प्रश्न करते हैं, जिनका उत्तर नहीं बनता।
पूज्य महानन्द जीः “हास्य ....गुरु जी! आगे
आगे तो वह प्रश्न आएंगे, जिनका आप से उत्तर बनेगा ही नहीं।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “हास्य ....अच्छा बेटा!
देखा जाएगा। आगे समय आएगा, तो उन प्रश्नों का यथा शक्ति
उत्तर भी दिया जाएगा और न दिया जाएगा तो क्षमा मांग लेंगे,
बेटा! और क्या होगा?”
तो मुनिवरों! महानन्द जी तो मग्न होते रहते
हैं। ऐसी वार्त्ता प्रारम्भ करने लगते हैं, कि हृदय भी मग्न
होता रहता है, वास्तव में तो इनके शब्द बड़े कटु हैं। परन्तु
कटु होने के नाते भी, हम यह माना करते हैं, कि चलो,गुरु शिष्य का विनोद इस प्रकार का होता ही
रहता है। कोई ऐसी वार्त्ता नहीं। प्रश्न ही तो करते हैं, जो
इनके प्रश्नों का हमसे उत्तर बनता है, वह दे देते हैं,
नहीं बनता, तो शान्त हो जाते हैं।
पूज्य महानन्द जीः “हास्य ...वह तो भगवन! आप
शान्त हो ही जाते हैं। यह बात स्वाभाविक ही है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा बेटा! अब इन विनोद
की वार्त्ताओं का समय नहीं है। अब हमारा वाक्य समाप्त होने वाला है। कल समय मिलेगा, तो इससे आगे की वार्त्ता प्रारम्भ करेंगे। अब वेदों का पाठ करेंगे इसके
पश्चात् वार्त्ता समाप्त हो जाएगी। धन्यवाद! विजय नगर, रात्रि
९ बजे