Friday, February 22, 2019

प्रवचनों में गुरुदेव




ईश्वरीय सृष्टि का अद्भुत चमत्कार
एक पुरातन ऋषि का दिव्य जन्म
१४ सितम्बर सन् १९४२, में उत्तर-प्रदेश के गाजियाबाद जिले के, ग्राम खुर्रमपुर-सलेमाबाद में एक विशेष बालक का जन्म हुआ। बालक जन्म से ही एक विलक्षणता से युक्त था। और विलक्षणता यह कि जब भी यह बालक सीधा, श्वासन की मुद्रा में, कुछ अन्तराल लेट जाता या लिटा दिया जाता, तो उसकी गर्दन दायें-बायें हिलने लगती, कुछ मन्त्रोच्चारण होता और उसके उपरान्त विभिन्न ऋषि-मुनियों के चिन्तन और घटनाओं पर आधारित ४५ मिनट तक, एक दिव्य प्रवचन का प्रसारण होता। पर एक अपठित ग्रामीण बालक के मुख से ऐसे दिव्य प्रवचन सुनकर जन-मानस आश्चर्य करने लगा, बालक की ऐसी दिव्य अवस्था और प्रवचनों की गूढ़ता के विषय में कोई भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। इस स्थिति का स्पष्टीकरण भी दिव्यात्मा के प्रवचनों से ही हुआ। कि यह आत्मा सृष्टि के आदिकाल से ही विभिन्न कालों में, शृङ्गी ऋषि की उपाधि से विभूषित और सतयुग के काल में आदि ब्रह्मा के शाप के कारण इस युग में जन्म लेने का कारण बनी। इस जन्म में अपठित रहने की स्थिति में जैसे ही यह शरीर श्वासन की मुद्रा में आता तो कुछ अन्तराल बाद इस दिव्यात्मा का पूर्व जन्मों का ज्ञान उद्बुद्ध हो जाता और अन्तरिक्ष में उपस्थित सूक्ष्म शरीरधारी दिव्यात्माओं के समक्ष एक सत्संग सदृश्य स्थिति बन जाती जिसमें इस महान आत्मा का सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं के लिए प्रवचन होता। जिसमें इस आत्मा के पूर्व जन्मों के शिष्य महर्षि लोमश मुनि पूज्य महानन्द के प्रवचन भी होते। क्योंकि इस दिव्यात्मा का स्थूल शरीर यहां मृत्यु लोक में स्थित होने के कारण वहां सत्संग में दिये जाने वाला दिव्य प्रवचन इस शरीर के माध्यम से यहाँ उपस्थित जन-मानस को भी सुनाई देते हैं। इन प्रवचनों में ईश्वरीय सृष्टि का अद्भुत रहस्य समाया हुआ है, जो किसी भी मनुष्य को, समाज और राष्ट्र को उच्च कोटि का जीवन जीने का कारण पैदा करने का सामर्थ्य रखते हैं। -शृङगी ऋषि वेद विज्ञान प्रतिष्ठान



1   प्रवचनों में गुरुदेव-००१

वास्तव में तो कर्मो के अनुकूल वेदों का उच्चारण उस प्रकार नहीं किया जाता जिस प्रकार वेदों का स्वाध्याय किया और जो हमारी धुन थी। उस धुनि से हम वेदों का पाठ कदापि नहीं करते। परन्तु ऐसा कहा है कि वेदों में हमारे विद्वानों ने और हमारे आदि आचार्यो ने भी, न करने से कुछ उच्चारण करना भी विशेष माना गया है। जैसा भी काल आये उसके अनुकूल ही वाणी से उच्चारण होना अनिवार्य हो जाता है।
जैसा हमने पूर्व काल में देखा है उसके अनुकूल अवश्य उच्चारण करेंगे।
हम तो इस संसार को लाखों वर्षो से देखते चले आ रहे है। परन्तु यह उस काल की वार्ता है जिस काल में राम राज्य की स्थापना हो रही थी।
आपके व्याख्यान तो यथार्थ होते है, इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु भगवन्! आधुनिक काल में ऐसे व्यक्ति है जो नाना प्रकार की विद्याओं को न तो अच्छी प्रकार जानते है और न वेदों का स्वाध्याय ही करते है, उनके हृदय में नाना प्रकार की भ्रान्तियाँ, नाना प्रकार की अशुद्धियां रहती है इसीलिए उनका निर्णय करना आपका कर्तव्य है।
महानन्द जी! जिसके द्वारा यथार्थता न हो, जो यथार्थ कार्यो को भी यथार्थ न मान रहा हो, बेटा! वह मानव कदापि नहीं मानेगा। वह तो अन्धकार में पहुँचा हुआ है।
महाराजा कृष्ण के द्वापर काल तक को तो हमने देखा है। आपत्तिकाल होने के नाते हमें प्रतीत नहीं, इस कलियुग में क्या हुआ, क्या न हुआ।
आज कर्म गति इतनी महान मानी गई है कि जो कर्म हमने लाखों वर्ष पूर्व किया, आज हम उसको भोग रहे है, यह हमारे कर्मो का भोग है।
हमारे समक्ष बहुत सी वार्ता आ जाती है क्या करें बेटा! उस काल को देखा है, काल के अनुकूल व्याख्यान हमारे कण्ठ आ जाते है।
महर्षि शृंगी ऋषि महाराज ने ८४ वर्ष तक मिथ्या का कोई भी वाक्य उच्चारण नहीं किया, जो कहा करते थे वही यथार्थ हुआ करता था। यदि किसी मनुष्य को यह कह दिया कि मृत्यु को प्राप्त हो जा, तो मृत्यु को प्राप्त हो जाता था।
महानन्द जी दूर न जाओ, आज हमारे जीवन पर विचार कर लो। आज से हमने लाखों वर्षो पूर्व उन संहिताओं का पाठ किया और आज पुनः से अपने कर्मो के अनुकूल तुम्हारे समक्ष, उस वेद पाठ को कर रहे है। आज हमें पुनः से सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। यह जो वार्ता तुम्हारे समक्ष आती चली जा रही है यह लाखों वर्ष पूर्व हमने वेदों का मंथन किया है। यह सब क्या है? यह सब अमूल्यता स्मृति की है। जन्म जन्मान्तरों के संस्कार हमारे अन्तःकरण में विराजमान रहते है उनके जागृत होने का नाम स्मृति है।
आज हम सभी महानजनों से क्षमा चाहते है आज एक वेद मन्त्र अशुद्ध उच्चारण हो गया, हमें इसमें कोई विरोध नहीं। महानन्द जी ने जैसा कहा हमने वैसा स्वीकार कर लिया और उस मन्त्र को द्वितीय उच्चारण कर दिया।
गुरुजी के द्वारा ज्ञान का समुद्र है।
हमारी स्थिति को जान करके तुम्हें यह जानना ही होगा कि ये जन्म जन्मान्तरों के संस्कार मानव को कहा तक ले जाते है।१०
हम पूर्व की भांति वेदों का पाठ अच्छी प्रकार से नहीं कर सकते। परन्तु हमारे गुरु ब्रह्मा जी ने बहुत पूर्वकाल में कहा था, वेद पाठ न करने से कुछ करना भी सुन्दर होता है।११
हम जो कुछ व्याख्यान करते है उसकी रूपरेखा परमात्मा के दिये उपदेश वेद मन्त्रों से ही लेकर कुछ व्याख्यान कर पाते है।
बेटा! हमने उस त्रेता काल को देखा है, जिस काल में महाराजा शिव और माता पार्वती थे।१२
मुनिवरो देखो! यह त्रेताकाल का समय कंठ आ गया।१३
मुनिवरो! अभी-अभी महानन्द जी अपने प्रश्न के समय में कह रहे थे कि हम किसी-किसी काल में किसी वार्ता को द्वितीय बार उच्चारण कर देते है। इसका मुख्य कारण यह है कि हम आपत्ति काल में है। इसीलिए बिना इच्छा के भी यह हो ही जाता है। आपत्ति काल वश इस पर नियन्त्रण नहीं हो पाता अन्यथा हमारे द्वारा किसी वार्ता के बार-बार प्रकाश होने का कोई कारण नहीं।१४
देखो, हमने पूर्व काल में बहुत सी निधियों को पाया। वे आज सूक्ष्म होती जा रही है, उन निधियों से अब हमारा कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो पा रहा है। अब तो केवल वह महान शब्द रूप में अन्तरिक्ष में विराजमान है। अन्तरिक्ष को ही वह शुद्ध बना रहा है।१५
प्रवचन सन्दर्भ सूत्र --१९६२, . --१९६२, . --१९६२, . --१९६२, . --१९६२, . १२--१९६२, . १२--१९६२, . १२--१९६२, . १२--१९६२, १०. --१९६२, ११. --१९६२, १२. --१९६२, १३. --१९६२, १४. --१९६२, १५. --१९६२


2   प्रवचनों में गुरुदेव-००२

बेटा! हमसे भी जितना लाभ प्राप्त कर सकते हो, उतना लाभ प्राप्त कर लो। क्योंकि महाराजा राम और महाराजा कृष्ण आदि की तरह हम सबको भी इस संसार से एक न एक दिन चल ही देना है। हमारा भी समय निकट आ रहा हैं। प्रलयकाल में जैसे सूर्य समाप्त हो जाता है वैसे ही हमारा भी अन्त हो जाना है। इसीलिये बेटा! जितने तुम्हारे प्रश्न है, जितनी तुम्हारी जिज्ञासाएं हो, वे सब पूर्ण करो। जीवन का समय सूक्ष्म रह गया है, उसी सूक्ष्म समय में समाप्त हो जाएंगे। यह आत्मा अपने लोक को चला जाएगा। यह आत्मा उस स्थान पर पहुँच जाएगा। जहाँ से यह आया था।
बेटा! जो तुम उच्चारण कर रहे हो उस सबको हम मान लेते यदि हम स्वयं द्वापर काल को नहीं देखते।
एक आयुर्वेद नाम की विधा है जिससे योगी मस्तिष्क को देखकर जान लेता है कि इस काल में उसकी मृत्यु होगी। जो योगी सत्य का पालन करता है उसका वाक्य सत्य हुआ करता है। योगी उसको शाप देता है, जो कोई ज्ञानी होकर भी दूसरों को दुखित करता है, जानता हुआ भी दूसरों को कष्ट दिया करता है और जो अज्ञानता वश, अज्ञानी होने के कारण, किसी को कष्ट देता है उसको शाप देता है, तो शाप देने वाले की महानता नष्ट हो जाती है, उसकी यौगिकता समाप्त हो जाती है।
बेटा! हमने अभी द्वापर और त्रेता का समय और उस काल की महानता का वर्णन किया है
जिज्ञासु या शिष्य का पूर्व जन्मों का संस्कार होता है, जो ऐसे महान गुरु हमारे समक्ष अपने महान विचारों को नियुक्त किया करते है और हमारी आत्मा तृप्त किया करते है।
हम नित्य प्रति मृत मण्डल में भ्रमण किया करते है अन्तरिक्ष में रमण करते है गुरु जी के समक्ष जब आना चाहते है तो उस समय अन्तरिक्ष में, वायु के समक्ष, बहुत से विद्वत समाज को आकर्षित कर लेते है। आज यह एक आश्चर्यजनक वाक्य हो रहा है। यह कोई नवीन वाक्य नहीं, यह तो हमारे गुरु जी का, न प्रति पूर्व जन्म का कौन-सा अभागा समय बन गया है जो विद्वत समाज में ऐसा होना पड़ रहा है। यदि वह पूर्व की भाँति विद्वत समाज में होते या वह विद्वत समाज इनका होता तो आज इनकी यह स्थिति ही क्यों होती? यह बड़ा खेद का वाक्य है। वास्तव में हमारे वाक्य जहाँ मृत मण्डल में जा रहे है वहाँ के मानव के लिए यह महान बड़ा आश्चर्यजनक एक वाक्य बन रहा है। आधुनिक काल के व्यक्ति, विद्वत समाज कहता है कि यह कोई वाक्य नहीं परन्तु यह महान हमारे गुरु जी का जो मनोहर शरीर है जिसके द्वारा हमारी यह आकाशवाणी जा रही है यह बालक (गुरु जी) जो अपनी सुषुप्ति अवस्था में वेदों का व्याख्यान दे रहा है यह वेदों का वाक्य नहीं है।
हमारे गुरु जी विद्वत समाज में जो वाक्य उच्चारण किया करते है वह सब यथार्थ है। परन्तु यह जो शरीर है, उस वाणी में देखो, अभौतिक शक्ति के कारण, यह वाक्य जाते जाते अशुद्ध हो जाते है। वाक्यों का अद्भुत रूप बन जाता है।
न प्रतीत यह महानन्द जी का आत्मा कैसे बोलता है? एक शरीर में दो आत्माये कैसे आ जाती है?
अन्तरिक्ष में सूक्ष्म शरीर द्वारा महान आत्माओं से विनोद होता है। यह जो आत्मा हमारे गुरु जी के शरीर में विराजमान हो रहा है जो आज संसार में अज्ञानी बनी बैठी है, पुनरूक्ति होती है और उस सूक्ष्म शरीर वाले विद्वत मण्डल में जाकर यह ज्ञान प्रबल हो जाता है और इनके पार्थिव शरीर द्वारा गुरु जी के और हमारे व्याख्यानों का इस मृतमण्डल में प्रसार हो रहा है।
हमारे गुरुजी के पिता विभाण्डक ऋषि ने यह सोचा कि मैं अपने बालक को ब्रह्मचारी बनाऊंगा। उसी बालक की आत्मा का आज मृत मण्डल में प्रसार हो रहा है। जिसे मुनिवरो! १७८ वर्ष तक देव कन्या का ज्ञान भी नहीं था, आज यह बालक बना बैठा है।
हमारा भाग्य है, दुर्भाग्य है कि ऐसे काल में ऐसी वार्ता ये अपवाक्य प्रकट हो रहा है। हम कहा तक इस वाक्य को उच्चारण करें।१०
हम अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा देखा करते है कि गुरुजी का आत्मा आज ऐसा पात्र बना बैठा है। यह भी पूर्व जन्मों का एक महान विशेषण है आज इस अवस्था में गुरुजी का जो मृत लोकी शरीर है महान, मूर्ख बना बैठा है। देखो, आत्मा का, परमात्मा का, ऐसा ही विधान है। हमें बड़ा आश्चर्य आता है कि आधुनिक काल में, ऐसा जीवन कैसे व्यतीत हो रहा है ऐसा मधु वाक्य कैसे उच्चारण हो रहा है। बड़ा आश्चर्यजनक वाक्य है।११
आज हम अपने गुरु जी के जीवन पर दृष्टि पहुँचाते है उनका जीवन इतना महत्त्वपूर्ण था कि उन्होंने तार्किक बुद्धि में अपने जीवन को ऐसा बनाया कि तार्किक बुद्धि में सोलह प्रकार की बुद्धि का विचार किया। इसके पश्चात् विचार आया कि तार्किक बुद्धि में कोई महत्त्वता नहीं। उस समय गम्भीरता आई। गंभीरता आकर के हमारे गुरु जी का जिस काल में देखो, मृत मण्डलों में आकाशवाणी जा रही है बालक मात्र पुकारा जाता है, उस बालक ने पूर्व जन्मों में ७१, ७१ वर्ष तक निद्रा को जीतने वाले कहलाये गये हैं। परन्तु आज हम क्या उच्चारण करें? यह तो दुर्भाग्य है। हमारा भी कोई दुर्भाग्य है। गुरु जी का तो है ही कि ऐसे काल में आ पहुँचे और गुरुजी के आपत्ति काल में सहायता देनी पड़ रही है।१२
प्रवचन सन्दर्भ सूत्र //६२, . वही . //६२, . वही, . १५//६२ पूज्य महानन्द जी, . वही, . वही, . वही, . वही, १०. वही, ११. वही, १२. वही।


3   प्रवचनों में गुरुदेव-००३ 

परन्तु क्या करें, इतने महान दुर्भागी बने बैठे है। विधाता! यह आपका तो कोई दोष नहीं, हमारे कर्मो का ही दोष है जो आपके आंगन में नहीं आ रहे है। अभागे इसलिये है कि आपके नियन्त्रण में कार्य नहीं करते।
समय था, जब था, अब क्या है। वह काल ऐसा था, जिस काल में ऋषियों का समूह, ऋषियों का मंडल विराजमान होता था और जब जटा पाठ में, मधु पाठ किया जाता था। तो बेटा! मार्ग में पक्षिगण भी शान्त हो जाते थे, सिंह तक आकर विराजमान हो जाते थे और मधु पाठ को पाते थे।
यह तो केवल हमारे किये हुए कर्मो का भोग है। परमपिता परमात्मा या गुरुदेव ने जैसी भी कृपा की है आज हम उन भोगों को भोग रहे है।
हमारा जो शरीर है, जिसे महानन्द जी मृत लोकी का शरीर कहा करते है और जिसके द्वारा हमारी आकाशवाणी मृतमण्डल में जा रही है। वह शरीर तो शैय्या पर आश्वस्त हो जाता है, मानो उसकी अनुभूत अवस्था आ करके, आत्मा का महान् संकल्प, जो आत्मा का संस्कार, अन्तःकरण में विराजमान है वह समक्ष आ जाता है और अज्ञानता का जो कारण वशीभूत एक महान् दर्पण है, वह समाप्त हो जाता है। इन्द्रियाँ शांतचित हो जाती है। कुछ इन्द्रियाँ जैसे रसना है, वाक् है और अमृति इन्द्रियाँ है वे अपना कार्य प्रारम्भ कर देती है और वही आत्मा का संकल्प का, आह्नान जो पूर्व के जन्मों के संस्कार है, उसका सम्बन्ध अन्तरिक्ष में, सूक्ष्म शरीर वाली आत्माओं से लग करके, यह वाणी बेटा! देखो, मृत-लोकी शरीर द्वारा मृत-मण्डल में प्रविष्ट हो रही है।
आज सूक्ष्म शरीर वाली आत्माओं की वाणी, जिनके महान संकल्प है वे हमारे द्वारा प्रकट की जा रही है।
अरे! जो इतनी महान आत्मा है, जो आध्यात्मिकता का इतना प्रसार कर रही है और हम उसकी आत्मा को प्रेत-योनि कहें, यह हमारी कितनी मूढ़ता है।
हमारे शब्दार्थ अन्तरिक्ष में रमण कर रहे है। इन वेदों के व्याख्यानों से अन्तरिक्ष भी शुद्ध बन जाता है। वायुमण्डल भी शुद्ध हो जाएगा।
क्या वेदों के पाठ आदि करने से अन्तरिक्ष शुद्ध हो जायेगा? इस विषय में हमारे गुरु जी ने कहा था कि मानव को सत्य से शुद्ध कार्य करना चाहिए। जब मानव सत्य पर आश्रित होकर, शुद्ध कार्य करता है तब सत्य से पवित्र वाणी, न जाने किन-किन आत्माओं का उत्थान कर देती है। इसलिए मानव को किसी प्रकार से, किसी भी रूप में, मिथ्या व्यवहारी तथा असत्यवादी नहीं बनना चाहिए।
हे परमात्मा! हे विधाता! इच्छा तो ऐसी होती है कि आपके अंक में पहुँचकर, व्याकुल, होकर अपने शरीर को ऐसा बना दें कि आपके आश्वासनों में जाकर मनोहर बन जाए।
यदि किसी को शास्त्रार्थ करना है तो वह अपनी आत्मा को इतना बलिष्ठ बनाये कि हमारे सूक्ष्म-शरीर की आत्मा में आकर, शास्त्रार्थ करने के लिए नियुक्त हो जाये।
धन्य हो भगवान! गुरु जी, आज तो आपके वाक्य बड़े ही महत्त्वपूर्ण रहे। किसी काल में आपका हृदय भी विदीर्ण हो जाता है। आप हमारे प्रश्नों का उत्तर तो भलीभाँति दे रहे हो। भगवन! यदि हम प्रश्न न करें तो आप इन वाक्यों को उच्चारण नहीं करोंगे। यह भी हमारे प्रश्नों का प्रताप है।
(हास्य के साथ) चलो, बेटा! सब कुछ तुम्हारा ही प्रताप है। हमें इसमें बड़ी शान्ति है। कि सर्वज्ञ तुम्हारा ही प्रताप हो रहा है, जिससे ऐसे महान विषय चल देते है।
तब ही तो कहते है भगवन!
धन्यवाद।१०
यह महानन्द प्रश्न करता ही रहता है, शान्त नहीं रहता। किसी, किसी समय यह अशुद्ध वायु का आहार कर लेते है। जिससे इनके वाक्यों में रस नहीं रहता और यह प्रश्न करते ही चले जाते है।११
मुनिवरो देखो! द्वापर के काल की एक वार्ता हमारे कण्ठ आ गई है। महानन्द जी बेटा! तुमने द्वापर काल को देखा होगा।१२
प्रवचन सन्दर्भ सूत्र १२//७२, . वहीं . १६//६२ ४. वहीं . वहीं वहीं . १७//६२ ८. वहीं . २२//६२ १०. वहीं ११. वहीं १२. /११/६२


4   प्रवचनों में गुरुदेव-००४

यौगिक क्रिया में जब यह आत्मा प्राणों के सहित कुम्भक और रेचक।
मेरे प्यारे महानन्द जी ऐसे विचित्र आत्मा है कि देखो, यह यहाँ विराजमान है। अहा, हम आज्ञा दें तो लोक लोकान्तरों की क्या, प्रत्येक राष्ट्र की वार्ता हमारे समक्ष नियुक्त कर देगें, यह स्वतः जान लेते है।
महानन्द जी की आत्मा कैसे?
यह साधारण कोटि के विद्वानों के आंगन में आने वाला वाक्य नहीं है यह उच्च कोटि का योगी ही जान सकता है कि यह आत्मा कैसे बोल रहा है।
योगी अपने शरीर की प्रत्येक क्रियाओं को जानकर, महान विचित्र बन जाते है। शरीर के तीनों रूपों को अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण को जाने वाले होते है। योगी, धारणा, ध्यान व समाधि द्वारा मन को इतना शान्तिमय कर लेते है कि यह तन्मात्राएं सब मन में लय हो जाती है। मन, बुद्धि में लय हो जाता है। बुद्धि, अन्तःकरण में लय हो जाती है। ज्ञान व कर्म इन्द्रियों के जितने विषय है वह सब अन्तःकरण में लय हो जाते। इन सबका समूह बनाकर, यह आत्मा इन सबके ऊपर सवार हो जाता है। और जब इसकी इच्छा होती है तो स्थूल शरीर को त्यागा और सूक्ष्म शरीर द्वारा जहाँ इच्छा हुई भ्रमण कर आया। इसी प्रकार एक योगी की आत्मा, दूसरे योगी की आत्मा से सम्बन्थ करने आ पहुँचती है परन्तु कुछ काल के लिए।
इसी प्रकार हमारा या महानन्द जी का आत्मा है और भी ऋषियों की आत्मा है। जिन्होंने उस आध्यात्मिक विज्ञान को जाना है। वह जानते है कि आत्माओं का कैसा संगठन होता है। उनकी वाणी कहाँ की कहाँ चली जाती है। आपत्तिकाल होने के कारण, यह शरीर एक प्रकार का यन्त्र बनाया गया है। सूक्ष्म शरीर वाली आत्माओं का, एक महान संत्सग रूप हो करके, उसकी वाणी, हमारे शरीर द्वारा आने लगता है। एक शरीर में दो आत्माएँ नहीं, परन्तु आत्मा का उत्थान हो करके, सूक्ष्म शरीर वाली आत्माओं से सत्संग हो जाता है। उस सत्संग की वाणी, हमारे शरीर द्वारा मृत मण्डल में प्रकट होने लगती है, जैसा भोग वश हमें भोगना है।
यदि आज परमात्मा, परम गुरुदेव, ऐसा आपत्तिकाल न देते, स्वतः ही जन्म धारण करा देते और ज्ञान इसी प्रकार का प्रकट रहता, तो हम इन सभी क्रियाओं को तुम्हारे समझ नियुक्त कर देते। आज क्या बनता है? कुछ नही। अपने भोगों को भोग रहे है। बेटा! इन्हें भोगकर हम भी चले जाऐंगे। हम भी बेटा! उच्चारण ही उच्चारण करके चले जायेंगे। समय की प्रबलता है, आज कुछ नहीं कहा जा रहा है।
मुनिवरों! आज हमारे जीवन को देख रहे होंगे। न प्रति लाखों वर्षो का पाप, आज भोगना पड़ रहा है, यह सब मानव के कर्मो का भोग है।
महानन्द जी! तुमने सतोयुग के समय को देखा होगा। परमपिता परमात्मा की अनुपम कृपा से हमें भी सतोयुग के मनुष्यों को देखने का सौभाग्य मिला। जहाँ ऋषि मुनियों की ऊँची प्रणाली थी। वहाँ कुछ उच्चारण करने का कुछ सौभाग्य भी मिला। परन्तु, अब भी लाखों वर्षो का किया हुआ, पाप भोगा जा रहा है।
मैंने कई लाख वर्ष पूर्व, यह कर्म किया था, जो आज भोगा जा रहा है। यह सब कुछ क्या है? यह सब कुछ अपने-अपने कर्मो के संस्कार और भोग है।
मैंने परमपिता परमात्मा की कृपा से, उस समय को देखा है जिस समय मेरी प्यारी माताओं का अन्तःकरण पुकार कर कहता था, मानव का अन्तःकरण पुकार कर कहता था। कि हम संसार में अपने भोगों को भोगने के लिये आये है। हमें ऐसा कार्य नहीं करना कि भोग ही हमें भोग लें।१०
हे प्रभु! हम कैसे अभागे है, संसार में। मैं तो भगवन! वह कर्म करना चाहता हूँ जिस कर्म को करके, प्रभु! मैं तुम्हारी गोद में आ जाऊं। भगवन्! मैंने आज से पूर्व काल में जो पाप किया है, उसे क्षमा करो। आज मैं क्षमा चाहता हूँ। प्रभु! तू आज मुझे अपना और अपनाकर अपनी गोद में ले।११
जब हमारा आत्मा निर्मल और पवित्र हो जायेगा, तो उस समय परमात्मा स्वयं अपने इस प्यारे पुत्र आत्मा को अवश्य अपना लेगा।
जब यह आत्मा निर्मल, पवित्र और दुर्गुणों से रहित हो जायेगा तो वह परमात्मा इस आत्मा को अवश्य, अपनी गोद में धारण करेगा। अपनायेगा उसी काल में, जब हम उस प्रभु की आज्ञा में कर्म करेंगे।१२
आज से बहुत पूर्वकाल हुआ, जब हमें कुछ यज्ञ कराने का सौभाग्य मिला। मुनिवरों! उस काल में, जब कजली वन में रमण किया करते थे।१३
मुझे आज से बहुत पूर्व काल में, ऋषियों ने विशेष कर मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने यह प्रेरणा दी थी।१४
प्रवचन सन्दर्भ सूत्र /११/६२, . /१२/६२, . वहीं, . वहीं, . /१२/६२, . वहीं . २७//६३, . वहीं . वहीं, १०. २०/१०/६३, ११. /११/६३, १२. वहीं, १३. वहीं, १४. /११/६३


5   प्रवचनों में गुरुदेव-००५

मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने, जिस समय प्राणों को त्यागा था, तो वह यज्ञ-वेदी पर विराजमान थे। उनका हृदय मग्न हो रहा था। मुग्ध होते हुए, उन्होंने अपने प्राणों को त्यागा था। हृदय मुग्ध वाले मनुष्य, यहाँ से जाकर सूर्य लोकों तक पहुँच जाते है और वहाँ भी अपने उसी कर्त्तव्य का पालन करते है।
आज हम दूसरों को तब ही ऊंचा बना सकते है, जब हमारे द्वारा चरित्र होगा। हमारे द्वारा मानवता होगी, हमारे द्वारा ज्ञान रूपी अग्नि होगी। अन्यथा मेरे जैसे यहाँ नाना उच्चारण करके चले गये है। परन्तु यह संसार उसी स्थान पर रहा, जहाँ रहता चला आया है।
आज मेरा इतना दुर्भाग्य, कि मैं, उस यज्ञ वेदी पर जाने योग्य नहीं, जिस वेदी पर मुझे जाना है। मैं प्रभु से याचना किया करता हूँ कि हे प्रभु! आपने जो वेदी मुझे पूर्व अपनाने का अवसर दिया था, मैं उस वेदी को पुनः अपना सकूं।
विधाता! मुझे वह प्रेरणा दे, वह मानवता दे, वह ऋषिता दे जिससे भगवन्! ऋषि बनकर ऊंचे लोकों को चले जाते है। प्रभु! मैं अपने जीवन का कल्याण चाहता हूँ। मैं जिज्ञासु बनना चाहता हूँ। मैं अपनी यज्ञ वेदी पर जाना चाहता हूँ। मैं यज्ञों का प्रेरक हूँ। प्रभु! मैं आप से यज्ञों की प्रेरणा पाता हूँ। हे विधाता! मुझे वह जिज्ञासु बना। मुझे धर्म में विचरने वाला बना, जिससे विधाता! मैं धर्म की स्थापना कर सकूँ, मुझे वह सदाचारी बना, जिससे मैं संसार में ब्रह्मचारी बनने का आदेश देता चला जाऊँ। हे भगवन! मुझे वह ब्रह्मा बना, जिससे मैं इस वर्ण व्यवस्था को स्थिर कर सकूँ। हे विधाता! मैं वह तुच्छ नहीं बनना चाहता। आज मैं ब्रह्मा के योग्य बनना चाहता हूँ।
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव, जिस समय कजली वन में, वेदपाठ किया करते थे, तो मैं देखा करता था कि उस समय नाना सिंह आ करके, उस वेद वाणी को पान किया करते थे। उस समय वृक्षों पर, पक्षी भी शान्त हो जाते थे, मेरे गुरुदेव की वाणी को पान करने के लिये।
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने मुझे एक वाक्य कहा, वह मुझे अब तक कण्ठ है कि हे बेटा! यदि तुम्हें अपने जीवन को ऊँचा बनाना है और अपनी मानवता को जानना है तो तू मानव से दूर जा, तू उन सिंह में चल, जिनकी उदरपूर्ति भोग योनि है, वे तेरी वेदवाणी को पान करेंगे। तेरे चरणों में ओत-प्रोत होंगे। आज तू वैराग्य की स्थिति को उत्पन्न कर।
मैंने आज से पूर्व कहा था कि मेरे पूज्यपाद गुरुदेव के द्वारा हमारी आकाशवाणी मृतमण्डल में जा रही है। (पूज्य महानन्द जी)
मेरे गुरुदेव मुझे समय नहीं देते। इसका सबसे मुख्य कारण यह है कि मेरे पूज्यपाद गुरुदेव यह कहा करते थे कि भोग मेरा है मैं अपने भोग को किसी को नहीं देना चाहता। (पूज्य महानन्द जी)
मेरे गुरुदेव तो वह सूर्य है, जिनकी वेदवाणी को कजली वन में, सिंह भी आकर पान किया करते थे। आज मेरे गुरुदेव का वह अभागा समय है, कि आज के संसार का व्यक्ति इन वेद मन्त्रों को कहता है कि यह पाखण्ड है। (पूज्य महानन्द जी)
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव, मुझे कई स्थानों में मधु उच्चारण का आदेश दिया करते है परन्तु मैं क्या करूँ। जब संसार की स्थिति ऐसी ही है। (पूज्य महानन्द जी)१०
आज से पूर्व काल में हमने कहा था कि इस समय हमारा यजूंष मुनि संहिता का पाठ चल रहा है। अभी कुछ सूक्त रह रहे, इससे पूर्व हमने आंगिरस संहिता का पाठ किया था। यजूंष मुनि महाराज ने इस संहिता में, वेद मन्त्रों को कैसी सुन्दर चुनौती दी है।११
मुझे त्रेताकाल की एक वार्त्ता कंठ आ गई। जिस समय महाराजा शृंगी ऋषि को कजली वन में से, अयोध्या में पुत्रेष्टि यज्ञ के लिये लाया गया तो। उस समय वे १८८ वर्ष के ब्रह्मचारी थे, परन्तु उन्होंने सबके चरणों को स्पर्श किया। चाहे माता थी, चाहे राजा था, चाहे सेवक था और उच्चारण किया था कि यह तो बड़ा ही सुन्दर देव लोक है। जहाँ ऐसे ऐसे ऊँचे विचार वाले हो, वह परमात्मा को तीन काल में भी शान्त नहीं कर सकते।१२
तो मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने, योग मुद्रा में जाकर, बहुत सुन्दर उपदेश दिया और कहा कि वास्तव में हम या तो परमात्मा के गर्भ में रहे और यदि स्वर्ग में जाकर रहे तो उस लोक को चाहते है जहाँ मान और अपमान दोनों हों।१३
मैं सूक्ष्म शरीर के द्वारा कुछ भ्रमण किया करता हूँ। (पूज्य महानन्द जी)१४
आज मेरी आत्मा बड़ी प्रसन्न है, क्योंकि जिस इन्द्रप्रस्थ भूमि पर, हमारे गुरुदेव की यह आकाशवाणी, मेरे उस गुरुदेव के मृतलोंकी शरीर में से जा रही है उस इन्द्रप्रस्थ भूमि पर चतुर्वेद ब्रह्म पारायण महायज्ञ की आज पूर्णाहुति हुई। मैं उस यज्ञशाला को देखने पहुँचा और मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। अब मैं अपने गुरुदेव की प्रशंसा। (पूज्य महानन्द जी)१५
मेरे गुरुदेव को, जब परम गुरु ब्रह्मा ने यह स्थिति दी तो गुरु जी द्वारा एक संकल्प कराया कि हे भगवन! मुझे कही भेजों, कैसा ही शरीर मिल जाये। परन्तु किसी काल में भी मुझमें अभिमानी बनने की आशा न आये। आज मैं देखना चाहता हूँ कि मेरे पूज्य गुरुदेव के द्वारा अभी तक तो वह स्थिति आई नहीं है। आगे की प्रभु जाने और भगवन के कर्म जाने। (पूज्य महानन्द जी)१६
प्रवचन सन्दर्भ सूत्र -११-१९६३ २. वहीं . वहीं . वहीं . वहीं . -११-१९६३ ७. वहीं . वहीं . वहीं १०. वीं ११. १३-११-१९६३ १२. वहीं १३. वहीं १४. १४-११-१९६३ १५. वहीं


6   प्रवचनों में गुरुदेव-००६

यौगिक क्रिया में जब यह आत्मा प्राणों के सहित कुम्भक और रेचक।
मेरे प्यारे महान्नद जी ऐसे विचित्र आत्मा है कि देखो यह यहाँ विराजमान है अह, हम आज्ञा दें तो लोक लोकान्तरों की क्या प्रत्येक राष्ट्र की वार्ता हमारे समझ नियुक्त कर देंगे, यह स्वतः जान लेते है।
भगवन! आपने एक समय कहा है कि मैंने इस संसार को द्वापर से पूर्व देखा और उसके पश्चात् नहीं देखा।
मुनिवरों! मुझे ऋषि महानन्द जी ने एक समय ऐसा भी कहा---परन्तु मुझे इनके प्रश्नों का उत्तरदायी बनते हुए, ऋषियों के विचारां को प्रगट करने का सौभाग्य मिल रहा।
भगवान कृष्ण ने महर्षि शृंगी नाम के ऋषि के आदेशों का पालन किया।
मेरे प्यारे महानन्द जी कुछ प्रश्न करते चले जा रहे थे, इनका उत्तर किसी अन्य काल में दिया जायेगा।
मुझे मेरे प्यारे! महानन्द जी जब आधुनिक काल के राष्ट्र की प्रेरणा देते है।
मेरे प्यारे महानन्द जी ने आज प्रेरणा दी।
आज तुम्हें स्मरण होगा कि हमने आज से बहुत पूर्व काल में, इन संहिताओं का पाठ किया, परन्तु इतने काल के पश्चात् भी हमारे स्मरण होती चली जा रही है और तुम्हारे समक्ष इन वेद ऋचाओं और संहिताओं का प्रसार करते चले जा रहे है इसका नाम मेधावी बुद्धि है। मेधावी बुद्धि उस विवेक का नाम है जब मानव संसार से विवेकी होकर, परमात्मा के रचाये हुए तत्त्वों पर विवेकी होकर जाता है।
मुनिवरो! त्रेता के काल में, माता पार्वती, हिमालय के राजा की पुत्री का भी नाम था। मुझे उनको देखने का सौभाग्य मिला।
पूज्य गुरुदेव से जब मैंने प्रश्न किया तो उन्होंने कहा कि मेरी प्यारी माताओं को नक्षत्रों का ज्ञान होना चाहिए।
मेरे प्यारे महानन्द जी ने मुझे आधुनिक संसार का वर्णन कराया।१०
आज जिस विद्या को हमने करोड़ों वर्ष पूर्व पान किया, उस विद्या का गुरु बनकर, शिष्य मण्डल में प्रसार कर रहे है।११
ऋषि महानन्द जी से मुझे ऐसा संकेत मिला है।१२
मुझे ऋषि महानन्द जी ने निर्णय कराया।१३
आज जब हम अपने सूक्ष्म शरीर से अन्तरिक्ष में भ्रमण कर रहे थे तो सूक्ष्म रूप से हमने कुछ श्रवण किया।१४ (पूज्य महानन्द जी)
बेटा! मुझे त्रेता काल को देखने का सौभाग्य मिला है मुझे नारान्तक को देखने का सौभाग्य मिला।१५
बेटा! मुझे प्रभु की कृपा से नारान्तक और मकर ध्वज दोनों के दर्शन करने का अनुपम सौभाग्य मिला है।१६
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव! मेरे भद्र ऋषि मण्डल! आज हम उस परमपिता परमात्मा की अनुपम कृपा से, गुरुदेव के चरणों में ओतप्रोत हो रहे है। आज ही नहीं नित्य प्रति गुरुदेव के चरणों में उस विद्या का पान करते है, जिसे हम लाखों वर्षों पूर्व पान किया करते थे। सौभाग्य से वह आज भी प्राप्त होती चली जा रही है। हमारा जीवन कितना सौभाग्यशाली है जो हम गुरुओं के चरणों में ओत-प्रोत होकर के उस अनुपम विद्या को पान करते है जिसे पान करके देवता बन जाते है।१७
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव, मुझे बार-बार समय प्रदान किया करते है और कहा करते है कि तुम भी कुछ अपनी इस अमृतमय वाणी से, कुछ उच्चारण करते चले जाओ। परन्तु मैंने एक काल में अपने पूज्य गुरुदेव से कहा था कि मेरी वाणी से कुछ कटु अवश्य उच्चारण हो ही जाता है उसका कारण है कि आधुनिक काल का जो संसार है वह इस प्रकार का विचित्र है, कि जिसका कोई प्रमाण ही नहीं दिया जा सकता। जैसा मेरे गुरुदेव वर्णन करते चले जा रहे थे कि आज प्रत्येक मानव, प्रत्येक भद्र मण्डल अपने उस विज्ञान को जानना चाहता है जो हमें विनाश के मार्ग पर ले जाता है। आज किसी मनुष्य ने यह नहीं जाना, जब से यह कलियुग का अनुपम प्रभात आया कि किसी काल में मुझे वह कार्य भी करना है, उस विज्ञान को जानना है जिससे चरित्र ऊँचा बने।१८ (पूज्य महानन्द जी)
मैं पान करता रहता हूँ, वायु मण्डल में उन वाक्यों को श्रवण करता रहता हूँ कि सबसे प्रथम संसार में गुरुडम चलता है उसके पश्चात विचारों का आक्रमण होता है।१९ (पूज्य महानन्द जी)
आज इस पवित्र भूमि पर भी, जहाँ पूज्यपाद गुरुदेव की और हमारी आकाशवाणी जा रही है यहाँ भी वेद के मन्त्रों पर नाना प्रकार की चर्चायें हो रही है।२०
प्रवचन सन्दर्भ सूत्र . --१९६४, . --१९६४, . १७--१९६४, . वहीं, . --१९६४, . वहीं, . १९--१९६४, . २१--१६४, . वहीं, १०. वहीं, ११. २२--१९६४, १२. वहीं, १३. वहीं, १४. वहीं, १५. वहीं, १६. वहीं, १७. १५--१६४, १८. वहीं, १९. वहीं, २०. वहीं


7   प्रवचनों में गुरुदेव-००७

मैं अपने पूज्यपाद गुरुदेव से कहा करता हूं कि हे गुरुदेव! आप इस शरीर को क्यों नहीं त्याग रहे हो। आपके विचारों को इस प्रकार नष्ट किया जा रहा है। क्यों नहीं, इस शरीर को त्याग करके, उस महान पूर्ण शरीर में आ जाते। परन्तु क्या करें। मेरे पूज्य पूज्यपाद गुरुदेव एक ही वाक्य कहा करते है कि कर्मफलं भोगश्यतताः। जब कर्म फल की चर्चा आती है तो शान्त रह जाते है।
आज यह विद्वत मंडल है और सब ही कुछ जानता है कि आज के वेद मन्त्रों में संक्षेप रूप से क्या था।
कल, मैं योग मुद्रा की चर्चा कर रहा था। मेरे प्यारे महानन्द जी का कथन तो यह है कि आज योग मुद्रा का कोई वाक्य उच्चारण न किया जाये परन्तु मैं अपने वाक्य को मिथ्या नहीं करना चाहता, मैं अपने उस अमूल्य वचन से मिथ्या नहीं होना चाहता, जो मैंने कल कहा था। योग मुद्रा की सूक्ष्म-सी रूपरेखा अवश्य निर्णय करूंगा।
बेटा! मुझे प्रतीत नहीं, आज तुम इस प्रकार क्यों उच्चारण कर रहे हो। आज तक किसी काल में तुमने उच्चारण करने में हताश नहीं किया, परन्तु सहायता दी, परन्तु आज सहायता से दूर चले जा रहे हो।
निद्रा अवस्था में आत्मा परमात्मा से मिलान करता है और यह प्राण उसी प्रकार रक्षा करने वाले रहते है जैसे जब गृह का स्वामी, किसी अन्य स्थान में रमण करता है तो उसके सेवकों को आज्ञा मिली होती है कि इस गृह की सुरक्षा करना।
निद्रा अवस्था में जब आत्मा, परमात्मा, सविता देव से मिलान करती है तो उस समय यह प्राण रक्षा करते है।
जब यह आत्मा शरीर से पृथक् होता है और बेटा! तुम जैसी आत्माओं से पुनः की भांति, इस आत्मा का मिलाप होता है तो वह जो प्राण रक्षक है उनका संचार पूर्व जन्मों का जो अभ्यास, हमने किसी काल में किया, उस अभ्यास का आक्रमण जो अनुपम मुद्रा है मानो देखो, उन पांचों प्राणों का आधात, सूक्ष्म प्रादुर्भूत है उनका संबंध कण्ठ से ऊपर के भाग में ब्रह्मरन्घ्र से लेकर, घ्राण के निचले विभाग कण्ठ तक रहता है। इसीलिये बेटा! यह कण्ठ से ऊपर के भाग की कम्पन होती है।
जब योगी-जन इस स्थिति को प्राप्त हो जाता है जो मैंने अभी-अभी वर्णन की अर्थात् जिनका संबंध आत्माओं से मिलान करने का हो जाता है उनका कोई न कोई हृदय स्थल जो प्राण रक्षा कर रहे है, उनका भी कुछ सूक्ष्म भूत है, सूक्ष्म तत्त्व है जिनका संबंध तन्मात्राओं का संबंध, मस्तिष्क से, ब्रह्मरन्ध्र से रहता है और ब्रह्मरन्थ्र में महा पंचतत्त्व जिनको पंच तन्मात्रायें कहते है इनका संबंध ब्रह्मरन्ध्र से, अन्तरिक्ष से मिलान करता हुआ मानों देखो, उस यन्त्र का संबंध, मेधावी और प्रज्ञा बुद्धि दोनों का जब मिलान होता है तो इस आत्मा का सम्बन्ध, उन महान आत्माओं से हो जाता है और यह जो प्रणश्चति आत्मा है इसका मिलान वहाँ और वह जो शरीर का कम्पन है यह बेटा! पूर्व का जो उसका अनुभव है, उन ऋषियों की जो चर्चायें आती है उनके जैसे हमारे विचार है और इनका तारतम्य उस शरीर से होता है। वह तारतम्य प्राणों के सहित होता है और महान प्राणों के सहित होकर के वाक्य अपना कार्य करता है और प्राणों का जो आधात है, प्राणों से उनका तारतम्य होकर के बेटा! ब्रह्मरन्ध्र की एक अनुपम गति हो जाती है और गति होने के कारण, वह इस प्रकार की अनुपम क्रिया है।
आज यदि हमें इस स्थिति को पान करना है तो बेटा! बहुत प्रयत्न करने की आवश्यकता है। ब्रह्मरन्ध्र में इस आत्मा को रमण कराने को विरधति कहा है।
आत्मा की जो आन्तरिक वृत्ति है, उसका जो मनोहर तारतम्य है वह किसी भी आत्मा से मिलान हो सकता है मानो उसका तारतम्य यहां भी है और वहां भी है जहां उन विचारों वाला यन्त्र होता है वहां वह यन्त्र उनको धारण कर लेता है।
जैसे हमने वायुमण्डल में एक वाणी का प्रसार किया कि अरे, अमुक व्यक्ति; तो वह उस वाणी से बोल पड़ता है क्योंकि उसका तारतम्य है, वह उस वाणी का सूचक है क्योंकि उसी के द्वारा उसका प्रसारण हो जाता है। जैसे आज मैंने, प्यारे महानन्द जी को कहा कि अरे! महानन्द! तो देखो महानन्द जी वाणी से कुछ कहेंगे। क्यों कहेंगे? क्योंकि मेरी वाणी का, मेरे हृदय का जो तारतम्य है वह महानन्द जी से है। मेरा जो वाक्य है वह महानन्द जी का सूचक है। मैंने उस वाणी को वायुमण्डल में प्रसारित किया और जहां उस वाणी वाला विराजमान है उससे वाणी का तारतम्य मिलता है और उसी तारतम्य से वह मनुष्य कहता है, हाँ भगवन, जो आज्ञा हो।
हमारी आत्मा का जो तारतम्य है वह उन सूक्ष्म शरीर वाली आत्माओं से मिलान होता है और मिलान होकर शरीर की कम्पन्न वह अनिवार्य है क्योंकि उस श्रुत में कोई न कोई अग्रणी होता है और अग्रणी होने के नाते उन पर प्राणों का संचालन होने लगता है। संचालन होने के नाते, वह सब कम्पन्न स्वाभाविक हो जाती है।१० प्रवचन सन्दर्भ सूत्र १५--६४, . १९--६४, . वहीं, . वहीं, . वहीं, . वहीं, . वहीं, . वहीं, . वहीं, १०. वहीं।


8   प्रवचनों में गुरुदेव-००८

जब हम निद्रा अवस्था से निवृत्त होते है तो उस समय हमें एक महान जीवन प्राप्त हाता है जिसको महा-आनन्द कहते है।
चित्त की एकाग्रता करना ही एक अनुपम योग है। इन्द्रियों का सम्बन्ध मन से होता है, मन का चित्त से होता है तो चित्त एक विशाल स्वरूप धारण कर लेता है-चित्त के विस्तार से कई प्रकर की श्रेणियां होती है।
मेरे प्यारे महानन्द जी मुझसे कहा करते है कि आज का संसार, जब मैं मृत लोक के मनुष्यों की भिन्न-भिन्न प्रकार की चर्चाओं को पान करता हूं। तो देखता हूं कि उनके हृदयों में दुर्व्यसन है, वह आपको, कोई ढोंगी कहता है और कोई पाखण्डी कहता है। यह तो मैंने महानन्द जी से पूर्व काल में कहा था कि यह तो मेरे पूज्यपाद गुरुदेव का एक अनुपम आशीर्वाद है। और क्यों आशीर्वाद कहा करता हूं? क्योंकि जब सत्यवादी मनुष्यों पर किसी प्रकार का आक्रमण किया जाता है तो मानो सत्यवादी मनुष्य से किसी काल में कोई पाप हो जाये तो वह भी नष्ट होता रहता है।
मैंने उस जन्म में पाप किया था और यदि आज का संसार पाखंडी या ढ़ोंगी कहकर नहीं पुकारेगा तो बेटा! मेरे पूज्यपाद गुरुदेव का वाक्य मिथ्या हो जायेगा। इसीलिये वाक्य मिथ्या न होने के कारण, आशीर्वाद मानता हूं। परम्परा से मैं इन विचारों को मानता चला आया हूं।
जो मनुष्य आपत्तियों से अपने महान विचारों को त्याग देता है उससे अधिक कोई पापी नहीं होता संसार में। उसका कारण यह है कि देखो, यह प्रकृति का आक्रमण है, मनुष्यों के विचारों का आक्रमण है और यदि इन आक्रमणों से मनुष्य अपनी वृत्तियों से हिल गया या उसकी शान्त मुद्रा क्रोध में छा गई। तो उसका मानवत्व कोई महत्त्वदायक नहीं।
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने मुझे जो आज से लाखों वर्ष पूर्व आदेश दिया था उसको भोग रहा हूं और भोगता चला जाऊंगा। जब तक इसकी अवधि है। जो किया हुआ कर्म है वह भोगना प्रत्येक मानव को अनिवार्य है और भोगना चाहिये, आनन्दपूर्वक भोगना चाहिये, क्योंकि वह कर्म हमने किया है न करते तो न भोगते।
जिस प्रकार हम किये हुए कर्मो के फल भोगने में, अपने कर्तव्य का पालन कर रहे है इसी प्रकार प्रत्येक मानव, प्रत्येक देव कन्या और प्रत्येक ऋषि मण्डल को, राजा महाराजा को अपने अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये।
मुनिवरों! जहां मेरे पूज्यपाद का आश्रम था, वह उस महान वाणी से, विद्या से सुशोभित था जैसे वृक्ष के पुष्प आ जाते है। या फल वाले वृक्ष पर फल आ जाते है और वह वृक्ष फलों से सुशोभित रहता है। इसी प्रकार मेरे पूज्यपाद गुरुदेव के सदाचार और सतोगुण से आश्रम परिपूर्ण रहता था जिससे मृगराज भी बेटा! उस महानता के इच्छुक रहते थे, पक्षीगण भी शान्त रहते थे, जो कोई मानव चला जाता, तो उसका हृदय भी पवित्र हो जाता है।
अन्तःकरण वह स्थान है जिसमें मानव के जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार विराजमान रहते है।
जो सतोगुणी आत्मा होती है वह इस शरीर को त्याग करके बेटा! सौ-सौ वर्ष तक विमुक्त आत्माओं के निकट रमण करती रहती है। जैसे मुझे मेरे प्यारे महानन्द जी का प्रमाण मिलता है कि उनकी आत्मा अन्तरिक्ष में रमण करती रहती है। परन्तु सूक्ष्म शरीर का माध्यम बना करके कर्मफल भोगने के नाते यह सब कुछ हो रहा है।१०
मुनिवरो! अन्तकरण में जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार विराजमान रहते है बेटा! आज तुम्हें स्मरण होगा, जिन वेद संहिताओं का आज पाठ करते चले जा रहे थे। पिप्पलाद संहिता, आरुणि संहिता यजूंष। मुनि संहिता, वायु मुनि संहिता आदि नाना प्रकार की संहिताओं का आज से लाखों वर्ष पूर्व पाठ किया। परन्तु आज भी करता चला जा रहा था इसका क्या कारण है? इसका कारण यह है कि हमारे अन्तःकरण में जो निधि है, जन्म-जन्मान्तरों का जो लाखों वर्षो का अंकित किया हुआ ज्ञान है बेटा! वह कर्मो के वश आज भी उसका प्रसार होता चला जा रहा था।
मुनिवरो! यह हो सकता है कि उस रूप में न होकर के कर्मो के वश बेटा! किसी और रूपों में इसका परिवर्तन हो जाता हो।११
 मुनिवरो! कल हम एक ऊंचा गम्भीर विषय इस महान समाज में प्रस्तुत कर रहे थे। उसको जानने के लिये मानव को बहुत तीव्र बुद्धि की आवश्यकता है।१२
हमें ऐसा अवसर किसी किसी काल में प्राप्त होता है मेरी बहुत सूक्ष्म-सी तुच्छ बुद्धि है। उस बुद्धि में गुरुजी के आदेशों का पालन करना हमारा कर्तव्य है।१३
गुरुजी नित्य प्रति महान और गम्भीर विषयों पर पहुंच जाते है जो हमारे लिये बड़े उपयोगी है जिनको जानने के लिये मानव के जीवन के जीवन समाप्त हो जाते है तब भी वह पदार्थ उसके आंगन में नहीं आता।
गुरुजी तो कुछ देख नहीं रहे उनका तो आपत्तिकाल है जिसके कारण वह आधुनिक संसार के विशेषण में कोई आदेश नहीं दे सकते, केवल सुनी हुई वार्ताओं का विश्लेशण कर सकते है, उनमें कुछ प्रकाश दे सकते है। जैसे आधुनिक काल में, इस महान ऋषि भूमि पर जहां हमारी यह आकाशवाणी, गुरुजी के शरीर द्वारा मृत-मण्डल में जा रही है इस पवित्र भूमि पर यवनों का राज्य रहा।
गुरुजी के शरीर की व्याख्या हम नहीं दे सकते, परन्तु आज यह अवश्य है कि गुरुजी के यौगिक आदेश के अनुकूल आत्माओं का पुनः उत्थान हुआ, अन्तरिक्ष मण्डलों में सूक्ष्म शरीर वाली आत्माओं से सम्बन्ध हुआ और व्याख्यान प्रारम्भ हो गये।
इन व्याख्यानों के स्वरूप को हम तभी जान सकेंगे जब हम चन्द्र लोक में, सूर्य लोक में, बृहस्पति लोक, में और नाना लोकों में बिना यन्त्रों के भ्रमण करेंगे।१३ (पूज्य महर्षि लोमश मुनि)
प्रवचन सन्दर्भ सूत्र १९-१९६४, . वहीं, . वहीं, . वहीं, . वहीं, . वहीं, . वहीं, . २७--१९६४, . वहीं, १०. वहीं, ११. ३०--१९६४, १२. १९--१९६२, १३. वहीं।


9   प्रवचनों में गुरुदेव-००९

कर्म
गुरु जी के कुछ वाक्य, गुरु जी का पुनरात्मा इन सूक्ष्म शरीर वाली आत्माओं में आ पहुंचा, और पूर्व की भांति, वही शिक्षा हमें प्रदान करके चले जाते। (पूज्य महानन्द जी)
आज के इस स्वार्थी संसार को जानकर, बड़ा आश्चर्य आ रहा है कि विधाता ने, गुरु के उन तुच्छ कर्मों ने ऐसे काल में उन्हें जन्म प्रस्तुत किया, परन्तु खेद होने से क्या होता है? मानव, जो कर्म करता है वह तो भोगना अनिवार्य ही है।
आज का मानव तो कह रहा है कि राम-राम किया और पाप समाप्त हो गये। राधा-कृष्ण, राधा-कृष्ण कहा और पाप समाप्त हो गये। परन्तु आज मानव को विचारना चाहिए कि जिस महान आत्मा ने अपने जीवन के सौ-सौ वर्ष, वेद के स्वाध्याय में लगाये और उसका सूक्ष्म-सा तुच्छ कर्म आया, तो आज यह गति बन गई।
अन्तःकरण में उस महान वेद मन्त्र को अंकित कर लेते है तो वह अन्तःकरण में उपजता है और हमारा हृदय विशाल बन जाता है।
बेटा! हमारे कंठ से निचले भाग में, हृदय चक्र होता है। हृदय चक्र में एक सुरित नाम की नाड़ी होती है और सुरित नाम की नाड़ी के द्वारा बेटा! एक चक्र होता हैं; तुरिण और मिथिरण नाम की नाड़ियों का एक चक्र होता है। उस चक्र में मेधावी बुद्धि का संक्षेप रमण करता है, उसमें वह वेदों की पोथी की पोथी का ज्ञान रमण करने लगता है। उसमें रिघिन्न होता रहता है। जैसा देखो, अन्तरिक्ष में वाक्य रमण करते है जिस विद्या को हमने पान किया है उसी विद्या से, जो वाक्य हम उच्चारण करना चाहते है वहीं वाक्य अन्तरिक्ष से आता है। वाक् से सम्बन्ध हो करके, वही वाक्य प्रारम्भ होने लगता है।
भाषा
जितनी भी संसार में वाणी होती है इन सब वाणियों का सम्बन्ध इस संस्कृत से होता है, वाणी कह लो, भाषा कह लो, जितने भी भाष्य होते है वे सब इस संस्कृत से सम्बन्धित होते है।
पुरातन काल से संसार में ज्ञानी और अज्ञानी दोनों प्रकार के मनुष्य चले आ रहे है, पुरातन काल में बेटा! ऐसा था कि जो मनुष्य संस्कृत उच्चारण नहीं कर सकता था, विद्या में इतना पारंगत नहीं था, तो वह देव नागरी का प्रयोग करता था।
हमारे यहां परम्परा से यह माना जाता है कि प्रत्येक भाषायें अंकूर रूप से रहती है, रही यह वार्ता कि किसी काल में बेटा! बुद्धिमान अधिक होते है, ऋषि मुनियों का प्रसार होता है, संस्कृत का प्रभाव हो जाता है। परन्तु वह जो देवनागरी भाषा है वह भी अंकूर रूपों से रहती है। यदि अंकूर रूप से कोई वाणी न रहे, संसार में कोई व्यक्ति ऐसा उत्पन्न नहीं हुआ जिसने नवीन भाषा को संसार में उत्पन्न कर दिया हो।
जिस वाणी का भी विकास होता है, उस वाणी का भी अंकूर रूप से, उस संस्कृत से मिलान रहता है।
मनुष्य वाणी से वाक्य उच्चारण करता है। जब इस शरीर को त्याग देता है तो इसका सूक्ष्म रूप हो जाता है। तो कर्म इन्द्रियां इस प्रकार न रहकर, इन इन्द्रियों का जो सूक्ष्म स्वरूप है वह उस सूक्ष्म शरीर के साथ अवश्य होता है। इसी प्रकार बेटा! इस देव नागरी का भी सम्बन्ध इस संस्कृत के साथ रहता है।
वेदवाणी से जैसी बुद्धि वाला होता है वैसी ही उसकी बुद्धि विकास दायक होती है। जहां राष्ट्र की जैसी वाणी होती है, उन्हीं वेद मन्त्रों से वह उन्हीं का विकास कर लेता है, उसी वाणी का विकास कर लेता है। वह वाणी उसके द्वारा आ करके ओत-प्रोत हो जाती है क्योंकि उसके कंठ से उसका मिलान होता है। बेटा! तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर यह है कि देवनागरी अंकूर रूप से रहती है संसार में।१०
मैंने परम्परा से परमात्मा की अनुपम कृपा से गुरुओं में ओत-प्रोत हो करके संस्कृत को जाना था, जाना तो नहीं था, परन्तु कुछ सूक्ष्म-सा अभ्यास था। परन्तु मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने एक वाक्य कहा था कि जैसा चरण होगा, जैसा समाज होगा, जैसा प्रबन्ध होगा, अन्तरिक्ष में वाक्य रमण करते है वहीं वाक्य वाणी द्वारा अंकित हो करके प्रारम्भ होने लगते है।११
जितनी भाषायें होती है यह सब अंकूर रूपों से रहती है और इनका मिलान उच्च संस्कृत से होता है।१२
गुरु जी! आज का आपका आदेश वास्तव में विचित्र और गम्भीर रहा, इतनी गम्भीरता में आप न पहुंचा करो (पूज्य महानन्द जी)
अरे क्यों?
भगवन! वाणी प्रसारणं मृत मण्डले वृचति अशति
कोई बात नहीं बेटा! यह तो होता ही रहता है जैसा विषय और जैसा तुम्हारा प्रश्न, उसके अनुकूल वाक्य उच्चारण करना अनिवार्य हो जाता है।१३
बेटा! आज तो कुछ वाक्य उच्चारण करने का समय नहीं, आज तो अपने कर्मो में, उन फलों को, जो किसी समय में किया गया था। भोगा जा रहा है। कोई समय था, जब मैं अपने पूज्यपाद गुरुदेव के चरणों में ओतप्रोत होता था और जिस समय यह वेद ध्वनि अन्तरिक्ष में रमण करती थी, तो मार्ग में विचरण करने वाले मृगराज भी, इन वेद मन्त्रों को पान किया करते थे।१४
बेटा! मुझे परमपिता परमात्मा की कृपा से, भगवान शिव के दर्शन करने का सौभाग्य मिला, जो रावण के गुरु कहलाते। राजा हिमाचल की कन्या पार्वती के साथ जिसका संस्कार हुआ था।१५
आज मुझे वह दृश्य स्मरण है, जब यहां भगवान राम, गुरु के चरणों में ओत-प्रोत हो करके उनके चरणों को छुआ करते थे।१६
मुझे महर्षि अगस्त के दर्शन करने का सौभाग्य मिला।१७
परमपिता परमात्मा की कृपा से भगवान राम के दर्शन करने का सौभाग्य भी मिला।१८
प्रवचन सन्दर्भ सूत्र १९--६२, . वहीं, . वहीं, . -१०-६४, . वहीं, . वहीं, . वहीं, . वहीं, . वहीं, १०. वहीं, ११. वहीं, १२. वहीं, १३. वहीं, १४. -१०-१९६४, १५. १८-१०-१९६४, १६. वहीं, १७. वहीं, १८. वहीं


10 प्रवचनों में गुरुदेव-०१०

हम नित्य प्रति वेद के अमूल्य ज्ञान का प्रसार किया करते थे। इनको पान कने का सौभाग्य भी मिला। यह वह पिप्पलाद मुनि संहिता है जिस ऋषि का जीवन संसार में अग्रणी माना जाता है उनके जीवन में अग्ने था।
वेद ज्ञान अरबों वर्षों से अधिक हो चुका है, जब से वेदों का ज्ञान ऋषियों की परम्परा से, यहां प्रकाशित हुआ और आज हमें भी पुनः से प्रभु की कृपा से इसे उच्चारण करने का सौभाग्य प्राप्त होता है।
आज के वेद पाठ ने, मेरे प्यारे महानन्द जी के जो प्रश्न उत्तर थे वह तो समाप्त कर दिये। अब इस मूर्खानन्द की वार्ता देखो, उच्चारण कर रहे है कि अब कुछ अहिल्या की विवेचना दे दीजिये।
बेटा! मुझे त्रेता काल को, राम के समय को दृष्टिपात् करने का सौभाग्य मिला।
आधुनिक संसार को मैं सूक्ष्म रूप से दृष्टिपात किया करता हूं (पूज्य महानन्द जी)
तो बेटा! आधुनिक काल का प्रतीत नहीं, क्या कहते हैं, तुम्हें ज्ञान होगा।
बेटा! हमें त्रेता काल को देखने का सौभाग्य मिला है।
आज शृंगकेतु संहिता का पाठ चल रहा था, यह संहिता बड़ी सुन्दर है, इसमें बड़ी उदारता आती है, पवित्रता आती है। इसमें जब वेदों का पाठ आयेगा, नाड़ी विज्ञान सम्बन्धित आयेगा तो किसी काल में प्रकट करेंगे।
मुनिवरो! लोमश मुनि उच्चारण कर रहे है, कि गुरुजी मुझे आज्ञा दें तो कल मैं चन्द्रमा के विषय में व्याख्यान दूंगा।
आधुनिक काल का मुझे विशेष ज्ञान नहीं परन्तु मेरे प्यारे महानन्द जी ने मुझे वर्णन कराया हैं।१०
मुझे आज भी महानन्द जी की प्रेरणा है।११
मुझे ऋषि महानन्द जी का संकेत मिलता रहता है। इनका प्रत्येक वाक्य बड़ा महत्त्वपूर्ण होता हैं इन्होंने मुझे आधुनिक काल की चर्चायें कई काल में प्रकट की है।१२
वह समय था जब महाराजा विश्वामित्र थे, वशिष्ठ थे, अरे! शान्ति का पाठ दिया करते थे। मुझे प्रभु की कृपा से वह समय देखने का सौभाग्य मिला। अरे! वह समय कितना उज्ज्वल होता है जहां गुरु होते है।१३
मेरे प्यारे महानन्द जी का मुझे एक संकेत मिला।१४
मेरे प्यारे, आचार्यजनों! मुझे तो प्रभु की अनुपम कृपा से राजा रावण के पुत्र अक्षय कुमार के दर्शन करने का सौभाग्य मिला जो भौतिक विज्ञान से लोकों की गणना किया करते थे।१५
महानन्द जी! रही यह वार्ता जैसी तुम्हारी प्रेरणा प्राप्त हो रही है।१६
आज मेरे प्यारे महानन्द जी को कुछ आदेश देना हैं वास्तव में वेद पाठ तो कुछ यह निर्णय दे रहा था कि कल ही इन्हें समय प्रदान किया जाये, परन्तु क्या करें महानन्द जी का भी भय है कि यह किसी काल में रूष्ठ न हो जाये।१७
योगी जिस भी काल की भाषा को लेना चाहता है उस काल की भाषा को अपने में धारण कर सकता हैं। जैसे बेटा! महानन्द जी। आज हम देखो, वर्तमान में एक वाणी का प्रसारण कर रहे है जहां वेद मन्त्रों का पाठ आता है वह पूर्व की भांति इतना स्पष्ट और इतनी महानता से उच्चारण नहीं होता, परन्तु उसके साथ-साथ, हम केवल देवनागरी का काव्य लेते है वास्तव में यह काव्य भी शुद्ध रूप में नहीं माना जाता है क्योंकि हमारे कुछ कर्मों के वशीभूत जब ऐसी वार्त्ता आती है तो ऐसा ही सम्बन्ध इसके समीप आना प्रारम्भ होने लगता है।१८
इस संसार में जितने महापुरुष हुए है, मैं उन सभी को चर्चा प्रगट किया करता हूं।१९
मुझे स्मरण आता है। जब राजा दशरथ के यहां पवित्र यज्ञ कर्म हुआ उस समय तीनों पत्नियों और राजा दशरथ लगभग एक वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचारी रहे। जब यज्ञ का समय हुआ तो ब्रह्मा की आवश्यकता हुई। महर्षि वशिष्ठ से कहा कि प्रभु! यज्ञ का समय हो गया है, यज्ञ आरम्भ कराइये, तो ऋषि बोले मैं तो यज्ञ कर्म कराने का अधिकारी नहीं हूं, जिस विषय को जानता नहीं, उस विषय को लेकर के मैं यज्ञ कर्म करूंगा तो यह मेरे में सामर्थ्य नहीं। हे राजन्! उस यज्ञ को कराने का अधिकारी तो महर्षि शृंगी कहलाते है उन्हें किन्ही गुणों से, कजली बन से लाइये, जहां उनके पिता की उन्हें संयमी बनाने की धारणा है। उस समय मुनिवरो! राजा दशरथ उर्वशी आदियों के द्वारा भयंकर वनों से उस ऋषि आत्मा को लाये कहा जाता है उस समय वह १८८ वर्ष के अखण्ड ब्रह्मचारी थे।२०
आज पुनः से मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने यह पवित्र समय दिया, जिसमें मैं अपने हृदय की वेदना अपने गुरु के समझ नियुक्त कर सकूं। आज हमारे यहां वायुमण्डल में जो परमाणु रमण कर रहे है वह दूषित हो चुके है वह चिन्ता के परमाणु है।२१ (पूज्य महानन्द जी)
गुरुदेव मुझे किसी-किसी काल में समय दिया करते है, इस सूक्ष्म समय में अपने जो मौलिक विचार है जो मैं दृष्टिपात् करता रहता हूं उन्हीं को सारांश रूप में प्रगट कर देता हूं। मैं तो यह कहा करता हूं कि मेरे पूज्यपाद गुरुदेव का जो यह मृत-लोकी प्रभात शरीर है इसमें पता नहीं कितनी आपत्तियां आयेगी।२२ (पूज्य महानन्द जी)
आत्मा की जब यह सुन्दर गति हो जाती है कि यह ब्रह्मरन्ध्र में उन वाहक नाड़ियों को जानने वाला बनता है तो उस समय आत्मा की अव्याहृत गति हो जाती है। ब्रह्मरन्ध्र से भी निचले विभाग में रीढ़ के जो मनके होते है, मनकों की ग्रन्थियां खुलती चली जाती है। जिसको हम अभाक चक्र कहते है। जब इसके आंगन में जाते है और रीढ़ की जो अन्तिम ग्रन्थि होती है, वह स्पष्ट हो जाती है। तो उस समय मुनिवरो! इस यौगिक आत्मा में यह शक्ति हो जाती है कि वह अपने शरीर को त्याग करके, लोक लोकान्तरों में भ्रमण करके पुनः उस शरीर में आ सकता है। वह भ्रमण भी करता है और उसी के शरीर में मुनिवरो! देखो। आत्माओं का केन्द्र भी हो जाता है। वह अपना ज्ञान और प्रयत्न के साथ संकल्प करता है और उसी से उस सूक्ष्म शरीर वाली आत्मा के समीप पहुंच जाता है क्योंकि संकल्प शक्ति उसके सहित है। वह अब एक धारण बनाता है, वह जो सूक्ष्म शरीर वाली आत्मा है उनसे मेरा सम्बन्ध होना चाहिये। प्राण के आश्रित होकर ज्ञान और प्रयत्न के सहित वह उनसे सम्बन्ध करता है। मुनिवरों! प्राणों की क्रिया और मन के द्वारा मानव का शरीर जीवित रहता है। परन्तु आत्मा इसमें विराजमान हैं।२३
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने भी कहा है कि वह जो पवित्र आत्मा है जिसका अन्तरिक्ष में यौगिक आत्माओं से सम्बन्ध होता है वह प्राण संकल्प द्वारा इतना अव्याहत गति वाला होता है, संकल्प मन का होता है जिसको विश्वभान मन कहते है अब इस मन की एक गति नहीं विश्वमान मन होता है जो सबसे रमण करने वाला है। मन की विश्वभान गति हो जाने के पश्चात् मन और प्राण जिसको ज्ञान और प्रयत्न कहते है। यह दोनों इतने व्यापक है कि यह शरीर से भी कार्य करते है। आत्मा की इतनी प्रबल गति होती है कि आत्मा इन प्राणों पर सवार होकर, आवागमन करता है और आवागमन करके बेटा! उसी के द्वारा एक यौगिक आत्माओं के सत्संग का अपना माध्यम बना लेती हैं।२४
जो ज्ञान और प्रयत्न दोनों की शक्ति है वह संसार में सबसे प्रबल मानी जाती है क्योंकि संकल्प परमात्मा का होता है।२५
आज मेरे प्यारे महानन्द जी भी विराजमान है वह भी कुछ उदार वाक्य प्रगट करेंगे।२६
मैं अपने पूज्यपाद गुरुदेव से कई समय से प्रार्थना करता आ रहा था कि हमें कुछ संक्षिप्त समय प्रदान कीजिये। परन्तु पूज्यपाद गुरुदेव तो ज्ञान के इतने अथाह सागर में चले जाते है कि यह भान ही नहीं रहता कि किसी ओर को भी कुछ वाक्य उच्चारण करना है।२७
प्रवचन सन्दर्भ सूत्र २०-१०-६४, . वहीं, . वहीं, . वहीं, . २१-१०-६४ ६. २२-१०-६४, . वहीं, . २०-१०-६४ ९. १८--६२ १०. २४--६५ ११. वहीं, १२. वहीं, १३. वहीं, १४. वहीं, १५. --६५, १६. --६५ १७. १९-१०-६५ १८. २४--६६, १९. वहीं, २०. १९--६६, २१. --६६, २२. वहीं, २३. २९--६६, २४. वहीं, २५. वहीं, २६. १२-११-६६, २७. वहीं।


11 प्रवचनों में गुरुदेव-०११

न प्रतीत आधुनिक काल में ऐसा ही होता है या नहीं यह तो महानन्द जी जाने या प्रभु जाने। यदि ऐसा होता है तो यह समाज की और धर्म की एक बड़ी हानि है।
आज मेरे प्यारे महानन्द जी कुछ प्रेरणा देते चले जा रहे है
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव तो आधुनिक काल को दृष्टिपात् नहीं करते।
आज मुझे परमपिता परमात्मा की अनुपम कृपा से सूक्ष्म शरीर के द्वारा इस पुण्यकर्म, यज्ञवेदियों पर विराजमान होकर दृष्टिपात् करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
महानन्द जी ने आज भी समय ले ही लिया। जहां यह उदार वाक्य कहकरके फिर कठोरता में चले जाते है। चलो, कोई वाक्य नहीं। हम तो यह कहा ही करते हैकि नम्र बनो और महानन्द जी अब तक नम्र नहीं बने। क्योंकि विचार धारा और संसार का प्रभाव इनके ऊपर आ गया है। जैसा यह आधुनिक काल के समाज का उच्चारण करते है इन पर प्रभाव आ गया। तो अब मैं यह वाक्य समाप्त कर रहा हूं, विनोद का वाक्य।
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव अपने कुछ वाक्य प्रकट किया करते है तो बड़ा मग्न होता हूं और कहा करता हूं कि गुरुदेव बड़े ही भोले है यह जो वाक्य प्रकट किया करते है वह वेद से लेते है परन्तु यदि वह संसार के उस वातावरण में पहुंच जाये तो इन्हें यह प्रतीत हो जाये कि यह राष्ट्र और समाज कैसे ऊंचा बनेगा और स्वर्गमय होगा।
वास्तव में मेरे उच्चारण करने से कोई लाभ नहीं, परन्तु मैं यह स्वीकार करता हूं कि यह वाक्य वायुमण्डल में तो अवश्य जायेंगे और वायुमण्डल में जायेंगे तो वातावरण भी पवित्र बनेगा। मानव के हृदय में तो इन वाक्यों से परिवर्तित होने से रहे, क्योंकि वह इतने परिपक्व हो गये है कि उच्चारण करते है कि यह सब पाखण्ड है। उनके मस्तिष्क में, मानव समाज में इस प्रकार की वार्ता आ पहुंची है कि वह पाखण्ड शब्द उनके हृदय से जाता ही नहीं, क्योंकि स्वार्थ है।
भगवन! आज मैंने अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा एक राष्ट्र का भ्रमण किया। वहां इस प्रकार के यन्त्र का निर्माण हुआ है जो चन्द्रमा के ऊपरले विभाग में भ्रमण करेंगा।
वास्तव में मेरे वाक्यों को जो मृत मण्डल में जा रहे है, वहां कहते होंगे कि यह तो मूर्ख वाले शब्द है।
मेरे प्यारे महानन्द जी का वाक्य तो सुन्दर हुआ परन्तु कटुता अधिक थी। जब यह अपने बाल्यकाल के आंगन में आ जाते है तो यह अपनी वाणी पर संयम नहीं कर सकते।१०
मेरे प्यारे महानन्द जी! तुम किसी काल में बहुत अशुद्ध वाक्य उच्चारण कर देते हो। यह जो तुम्हारी अशुद्धता है यह तुम्हें भोगनी तो होगी ही।११
आत्मा में, जिसमें जितनी शक्ति होती है उसमें उतना ज्ञान होता है और जितनी महानता होती है वह प्रभु के गर्भ में होती है यह बहुत विचारने वाला वाक्य है बेटा! इसको बहुत गम्भीरता से विचारना है। हम तो बेटा! इतने विचारक नहीं है, और न इतना हमें बोध ही है कि इसको हम अच्छी प्रकार विचार सके। क्या करें, कुछ तो आपत्तिकाल है। गुरु के चरणों में कुछ ज्ञान प्राप्त किया था वह प्रकट कर देते है। परन्तु अब तो बेटा! न तो ज्ञान कहीं से आता है न कहीं जाता है। अब जैसा है जैसे मानों देखो पंच तन्मात्रों में, कर्मों के कारागार में है। इन कर्मों के कारागार की जो गति होती है वह बड़ी विचित्र होती है। यह प्राणियों को भोगनी ही पड़ती है। प्राणियों के द्वारा नाना प्रकार के आक्रमण होते है, कहीं सांसारिक प्राणियों के आक्रमण होते है। कहीं किसी के आक्रमण होते है परन्तु कर्मो का भोग प्रारम्भ ही रहता है।१२
आज मेरे प्यारे महानन्द जी मुझे ओर ही प्रेरणा देते चले जा रहे है। जैसा मुझे वायुमण्डल से प्रतीत हो रहा है और जिस अग्राण में महानन्द जी उच्चारण कर रहे है मैं भी अपनी शुभकामनाएं देता चला जाऊं।१३
प्रवचन सन्दर्भ सूत्र १२-११-६६, . १३-११-६६, . वहीं, . वहीं, . वहीं, . २८--६७, . वहीं, . वहीं, . वहीं, १०. वहीं, ११. २९--६७, १२. वहीं, १३. १७-१०-६७

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