Tuesday, February 12, 2019


1   २२-०२-१९७७-पुष्प-३४-पंच कोषो का वर्णन

जीते रहो! देखो, मुनिवरों! आज हम तुम्हारे समक्ष, पूर्व की भांति, कुछ मनोहर वेद मन्त्रों का गुण-गान गाते चले जा रहे थे। ये भी तुम्हें प्रतीत हो गया होगा, आज हमने पूर्व से, जिन वेद मन्त्रों का पठन-पाठन किया। हमारे यहाँ परम्परा से ही उस मनोहर वेदवाणी का प्रसारण होता रहता है, जिस पवित्र वेदवाणी में उस मेरे देव परम-पिता परमात्मा की प्रतिभा का वर्णन किया जाता है। क्योंकि वे परमपिता परमात्मा प्रतिभाशाली है। उसका जो ज्ञान और विज्ञानमय-जगत् है, वह इतना अनन्त माना गया है कि वह सीमा से रहित है। वह सीमा में नहीं आता। वह परमात्मा चैतन है। उसी की चेतना से बेटा! यह शून्य जगत्, चैतन्य जगत् यह सर्वत्र क्रियाशील दृष्टिपात आ रहा हैं यह सर्वत्र क्रियाशील है। क्रिया कर रहा है। प्रत्येक परमाणु क्रिया कर रहा है। प्रत्येक अणु क्रिया कर रहा है। प्रत्येक परमाणु क्रिया कर रहा है। प्रत्येक अणु क्रिया कर रहा है। प्रत्येक शब्द अपनी क्रिया कर रहा है। प्रत्येक प्राण अपनी क्रिया कर रहा है। मन अपनी क्रिया कर रहा है। विचार यह कि सर्वत्र ब्रह्माण्ड मेरे प्यारे! देखो, क्रियाशील है। अपने-अपने आसन पर क्रीड़ा कर रहा है।
मुनिवरों! देखो, एक-एक सूत्र क्रिया में लगा है। एक मानव वस्त्रों का निर्माण कर रहा है, एक मानव उन वस्त्रों को धारण कर रहा है। परन्तु जब उस वस्त्र का रूपान्तर हो जाता है अथवा उस वस्त्र का स्थूल रूप समाप्त हो जाता है, तो उसका जो कण है, जो एक-एक कण में अपने रमण कर गया है, वह अपने स्वरूप में गति कर रहा है। वह परमाणु रूपों में गति कर रहा है। और वह जो परमाणु है पुनः उनका रूपांतर होता रहता है। परमाणुओं से पुनः स्थूल बनता है और स्थूल बन करके बेटा! पुनः वस्त्रें का निर्माण हो जाता है। तो परिणाम क्या? मुनिवरों! देखो, सर्वत्र यह जो ब्रह्माण्ड है परमात्मा के राष्ट्र में जो पदार्थ हैं अथवा जितना भी यह जड़ जगत् अथवा शून्य जगत् है इसका रूपान्तर होता रहता है। और एक-दूसरे में गतिमान है।
हमने बहुत पुरातन काल में कहा था मानव अपने मुखराबिन्द से शब्दों का उच्चारण कर रहा है। परन्तु उस शब्द में गति है और वह शब्द जितना भी सात्विक होता है, जितना भी मार्मिक होता है जितना वह दर्शनों से गुथा हुआ होता है उतना ही उस मानव का चित्र शब्द के साथ में जाकर के बेटा! द्यु-मण्डलों का निर्माण करता है। मेरे प्यारे! वह द्यु-मण्डलों का निर्माण कर रहाह ै। तो विचार क्या? मुनिवरो। देखो, जितना भी यह शब्द है वह पवित्र होता है, बेटा! वह काल मुझे स्मरण आ रहा है जब महाराजा अश्वपति के यहाँ विद्यालय में बेटा! अध्यापन का कार्य करते रहते थे। अध्यापन में एक पंक्ति में ब्रह्मचारी विद्यमान हैं और उसी पंक्ति में राजा का पुत्र है। उसी पंक्ति में प्रजा का पुत्र है उसी में मानो चारों वर्णों के पुत्र विद्यमान हैं। परन्तु शिक्षा एक ही प्रकार की ै।
सबसे प्रथम मानव के लिए यह कहा गया है कि हे ब्रह्मचारी!। तू अनुशासन में रह। तेरा अनुशासन विचित्र होना चाहिए। जब बालक अनुशासन में रहता है तो आचार्य उससे पूर्व से ही अनुशासन में रहता है। जब दोनों अनुशासन में रहते हैं तो जैसे मानव का शब्द अनुशासन में गति करके परमाणु अपनी गति में गतिमान हो करके दार्शनिक शब्द, सतोगुणी शब्द द्यु-लोक को प्राप्त होता है। इसी प्रकार मानो विद्यालय ऊँचा बनता है। क्योंकि देखो, वह जो शब्द है वही तो ऊँचा बना रहा है वही तो इस संसार का निर्माण कर रहा है। पुत्रो! शब्द ही राष्ट्र का निर्माण कर रहा है। शब्द ही मानो देखो, योगी को योगी बना रहा है। शब्द ही मुनिवरों! प्राणेश्वर कहलाता है। मानो शब्द अपने-अपने आँगन में ध्वनि के साथ में शब्दों के रूप में परिणत करते रहते हैं।
हमने बहुत पुरातन काल में कहा था कि इन्हीं शब्दों को मानव जब साधना में प्रवेश करता है तो उस समय वह सबसे प्रथम वह अन्न के क्षेत्र में प्रवेश करता हैं अन्न के जब क्षेत्र में जाता है कि हमारा जो अन्न है वह कैसा होना चाहिए? बेटा! उस अन्न में सर्व योग प्रयत्न विद्यमान रहते हैं। जितना भी योग साध्य है, जितना भी परमाणुवाद है, जितने भी मुनिवरों! मानव के अंग हैं वे सर्व मानव के अन्न में विद्यमान रहते हैं। आज कोई मानव यह कहता रहे कि अन्न किसी भी प्रकार का हो उसका विचारों पर अन्तर्द्वन्द्व नहीं होता परन्तु जब मानव सूक्ष्म क्षेत्र में पहुंचेगा, योग के क्षेत्र रहस्यों में प्रवेश करेगा वहाँ उसे अन्न की धाराओं का ज्ञान प्रतीत होता है। अन्न की तरंगों की वहाँ प्रतीति होती है।
मेरे प्यारे! मुझे वह काल स्मरण आता रहता है। राजाओं के राजकोष का ऋषि-मुनि अन्न ग्रहण नहीं करते। जो महान् तपस्वी होते हैं, जो ब्रह्मवेत्ता बनना चाहते हैं, राष्ट्र और समाज को ऊँचा बनाना चाहते हैं, प्राण और मन की क्रिया को जानना चाहते हैं। मुनिवरों! राष्ट्र उन ऋषियों होता है, राष्ट्र से ऋषि नहीं होता। बेटा! यह वाक्य तुम्हारे विचार में आना चाहिए। क्योंकि राष्ट्र को जन्म देने वाला ऋषि है। राष्ट्र को जन्म ऋषि देता है। राष्ट्र ऋषि को जन्म नहीं देता। तो मेरे पुत्रो! आज जब हम यह विचारते रहते हैं कि ऋषियों का जीवन महान् और पवित्र होता है। योगी जब प्राण के क्षेत्र में जाता है मुझे वह वाक्य स्मरण आता रहता है महर्षि याज्यवल्क्य मुनि महाराज अपने आसन पर विद्यमान रहते। प्रातःकालीन भ्रमण करते तो मुनिवरों! देखो, कुछ अन्न लाते भयंकर वनों से, मानो उस अन्न को लाते थे जिस अन्न पर किसी भी प्राणी का अधिकार नहीं रहता था। केवल प्रकृति और परमात्मा का उस पर अधिपथ्य रहता था। तो मेरे प्यारे! देखो, उसको पान करते थे और पान करके मानो ऊँची उड़ान उड़ते रहते थे। और उनकी कैसी उड़ान रहती थी? जो ब्रह्म में, प्राणों में मनों में बेटा! विचरण करते रहते थे।
मेरे प्यारे! देखो, सबसे प्रथम मानव को, साधक को यह विचारना है कि हमारा अन्न कैसा होना चाहिए? जिसे अन्नमय कोष कहा जाता है। अन्न के कोष के विचारों में जाना चाहिए। मेरे प्यारे! अन्न के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि अन्न का निर्माण करने वाली मेरी प्यारी माता भी पवित्र होनी चाहिए। अन्न का पान करने वाला भी विचारों में पवित्र होना चाहिए। मेरे प्यारे! जिस प्रकार का, जिस भूमि का, जिस स्थली का अन्न होता है वह भी उतना ही पवित्र होना चाहिए। तो तीन धाराएं अन्न की होती हैं, उस अन्न में तीन प्रकार की तरंगें होती हैं, वे तरंगें ही मुनिवरों! साधक को ऊँचा बनाती हैं मुझे मेरे प्यारे महानन्द जी ने एक समय वर्णन करते हुए कहा था, कि अन्न का प्रभाव आज का समाज स्वीकार नहीं करता। मैं यह कहा करता हूँ, जीवन का हमारा कुछ सूक्ष्म सा अनुभव यह है वह अनुभव यह है कि अगर अन्न पवित्र नहीं होगा तो कोई मानव ऋषि बन ही नहीं सकता। क्योंकि मुझे वे काल स्मरण आते रहते है जिन कालों में ऋषि और मुनि थे, दो प्रकार की धाराएं होती हैं। एक मानव ऋषि कहलाता है, एक मुनि कहलाता है। एक मानव देखो, वृत्तियों में रमण करने वाला साधक कहलाया जाता है। प्रत्येक मानव को साधक बनाना है। साधक बनने वाला प्राणी मेरे प्यारे! मानवता में ऊँचा रहता है। इसलिए विचार विनिमय क्या? वेद का आचार्य यह कहता है, वेद का ऋषि यह कहता है, आचार्य यह कह रहा है कि हे मानव! तू अपनी मानवता में इतना ऊँचा बन साधक बनना है तो इतना महान् बन कि तेरे व्याकरण की ज्योति भी मानो जो अन्न तेरे मस्तिष्क में जो मानो तेरे त्रिवेणी के स्थान में दो कृतिका होती हैं वह जो कृतिका स्वरों में अपना स्वर ध्वनियां करती रहती हैं। हे योगी! तू उस अन्न को अपने में ग्रहण कर। तू अपने श्रोत्रों को बाह्य जगत् से आन्तरिक जगत् में लगा। उस अन्न को तू स्वीकार कर मानो जिससे तेरा जो व्याकरण है, तेरी जो स्वर तरंगें हैं वह मानो देखो, ब्रह्माण्ड की तरंगें तेरे समीप आती रहें। परन्तु देखो, आज में तुम्हें इतने गम्भीर क्षेत्र में नहीं ले जाऊँगा।
केवल विचार विनिमय यह कि अन्न की तीन धाराएं हैं। अन्न पवित्र होना चाहिए। जब मानव का अन्न पवित्र हो जाता है तो मुनिवरों! उसकी स्वतः ही तीन धाराएं बनना प्रारम्भ हो जाती हैं। तीन धाराएं क्या हैं? तीन धाराओं को बनाने वाला कौन है? वह अन्न है। क्योंकि उसी से तरंगें उत्पन्न होती हैं और अन्न के शरीर में जाने के पश्चात् तीन प्रकार के भाग स्वतः बन जाते हैं। एक भाग तो स्थूल बन जाता है। स्थूल का स्थूल में रमण कर जाता है। द्वितीय भाग रक्त में परिवर्तित हो जाता है और तृतीय भाग तरंगों में ओत-प्रोत हो जाता है। यह मुनिवरों! देखो, अन्न के तीन प्रकार से, तीन प्रकार की धाराएं स्वतः निर्मित हो जाती हैं और वह जो स्थूल है मुनिवरों! वह तो पृथकता को प्राप्त हो गया और जो रक्त का संचार है मानो वह गति को प्राप्त हो गया है। मेरे प्यारे! वह गतिवान बन गया और वह जो तरंगें हैं, अन्तरिक्ष का वे निर्माण करती रहती हैं। तो विचार विनिमय क्या? कि वे जो तरंगें हैं उन्हीं तरंगों से मानव को जिसको त्रिवेणी का स्थान कहते हैं वहाँ कृतिका होती है, दो होती हैं परन्तु मध्य में एक धारा कृतिका होती है। मानो जब वह रमण करने लगती हैं वह साधक को इतना प्रकाश में ले जाती हैं, इतने महान् ऊँचे जगत् में ले जाती हैं मेरे पुत्रो! देखो, अन्नमय कोष की तीनों जो श्रेणियां हैं इन कोषों की तीन जो धाराएं हैं वह अपने अपने कोष को एकत्रित करना प्रारम्भ करती हैं और प्रारम्भ करके बेटा! देखो, जो मानव का ब्रह्माण्ड और पिण्ड की जो ऋषि-मुनि कल्पना करते हैं वह ब्रह्माण्ड और पिण्ड की जो ऋषि-मुनि कल्पना करते हैं वह ब्रह्माण्ड की कल्पना मुनिवरों! देखो, मानव अपनी तरंगों में ओत-प्रोत हो करके उन कृतिकाओं में रमण करके बेटा! देखो, अपने में वह अनुभवी बन जाता है। वह स्वतः उसमें रमण करने लगता है। जब उससे रमण करता है तो सर्व ब्रह्माण्ड का जो चक्र है उसको वैज्ञानिक नाना प्रकार की तरंगों से नहीं नाना प्रकार के परमाणुओं के मिलान से नहीं जान सकता।
वह जो योगी है वो जो सारे चक्र और यन्त्र उनका जो निर्माण है। उसमें प्राण और मन दोनों की टुक्टुकियां (संयुक्त क्रिया) दोनों का प्रहार होता है मुनिवर! यह जो ब्रह्माण्ड है जो ब्रह्माण्ड हमें दृष्टिपात आ रहा है, लोक-लोकान्तरों वाला जगत् है उसको वैज्ञानिक यह कहते हैं कि एक दूसरा ब्रह्माण्ड, एक दूसरे में गति कर रहा है। एक-दूसरी आभा, आभा में रमण कर रही है। मुनिवरों! देखो, यह जो प्राण है और मनसत है इन दोनों का सन्निधान दोनों का सम्मेलन होने से मानो एक दूसरा गति करके मुनिवरों! मानव बाह्य जगत् में आन्तरिक जगत् के ब्रह्माण्ड की कल्पना करने लगता है। और वह सर्वत्र ब्रह्माण्ड की जो कल्पना है मेरे प्यारे! वह कल्पना बनकर के ही नहीं रहती। वह अपने स्वरूप में गति करने लगता है। अपने स्वरूप में ही अनुभव करने लगता है। अपने ही स्वरूप में पृथ्वी के गर्भ में जब वह जाता है अपने ही स्वरूप में अग्नि की धाराओं में, अग्नि की ज्वालाओं में निहित हो जाता है। अग्नि की तरंगों में रमण करने लगता है। मानो अपने ही स्वरूप में वह जो योगेश्वर है वह वायु और अन्तरिक्ष दोनों के परमाणुओं को जानता हुआ इस ब्रह्माण्ड की सर्वत्र कल्पना उसके समीप आनी प्रारम्भ हो जाती है।
मेरे पुत्रो! आज मैं तुम्हें साधना की चर्चा करने आया था। साधना की चर्चा तो प्रारम्भिक यह है जो बेटा! मैंने तुम्हें उच्चारण किया कि अन्न पवित्र होना चाहिए। अन्न से ही मुनिवरों! रथ बनता है। वह साधना का एक रथ बनता है और उस रथ में विद्यमान होने वाला कौन है? मेरे प्यारे! जीवात्मा है। जीवात्मा बेटा! रथ पर विद्यमान हो करके ब्रह्मा के द्वार को चलता है। ब्रह्म के आँगन को चलता है और जब ब्रह्म के आँगन को चलता है तो मुनिवरों! ब्रह्म के आँगन में उस रथ में विद्यमान होने वाले जीवात्मा के समीप पृथ्वी के जो आठों अंग हैं, योग के जो आठों अंग है। पंखड़ियों से रथ का निर्माण होता है बेटा! आठों जो अंग हैं योग के धारणा में, समाधि में, धारणा, ध्यान, समाधियों में परिणत होता हुआ वह ऐसे रथ मैं जीवात्मा विद्यमान हो जाता है कि उस रथ का जो गमन है वह ऊर्ध्व गति को जा रहा है। वह जो विमान है साधक का मुनिवरों! देखो, वह ऊर्ध्व गति को जा रहा है। अष्ट चक्राः नव द्वारा। देखो, आठों जो चक्र हैं वह आठां जो ब्रह्मात्मा है ब्रह्मात्मा क्यों कहलाता है? क्योंकि उसका जो विचार है उसके जो उत्थान हैं वह ब्रह्म के लिए होता जा रहा है। तो मुनिवरो? वह जो आठों प्रहरी हैं यह आठों जो चक्र हैं इनको पार होता हुआ, ओ३म् भूर्भ्ज्ञव स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्, मानो इनमें रमण करता हुआ एकांकी सत्य में रमण करता हुआ मुनिवरों! वह आठों अंगों को पार करता हुआ, आठों चक्रों को पार करता हुआ, वह सत्य में रमण करता है। उसे संसार में मिथ्या प्रतीत नहीं होता र्स्वस्व। क्योंकि वह स्वयं शब्द है, शब्द की कल्पना है, शब्द का साथी बना हुआ है और मुनिवरों! यह ब्रह्माण्ड उसे सत ही सत प्रतीत होने लगता है। हे प्रभु! यह सत ही सत् है मानो क्रिया है, क्रिया में सत्यता है और वह जो सत्य है, उसमें मिथ्यावाद नहीं होता। अन्तर्द्वन्द्व नहीं होता, वहाँ अन्धकार नहीं होता। क्योंकि प्रभु के राष्ट्र में बेटा! प्रकाश ही प्रकाश रहता है। वहाँ अन्धकार नहीं होता।
आओ मेरे प्यारे! मैं विशेष चर्चा तुम्हें प्रकट करने नहीं आया हूँ। विचार देना केवल यह चाहता रहता हूँ कि आज हम मुनिवरों! आठ चक्रः नव द्वारः जिनके ऊपर मानो सयंम करना चाहते हैं। इनके ऊपर सयंम की करते हुए नाना प्रकार की धाराओं को पंखड़ियों में रमण करना चाहते हैं। मेरे पुत्रो! आज का हमारा विचार यह क्या कह रहा है? मैंने अभी-अभी कुछ तुम्हें सूक्ष्म परिचय दिया है और वह परिचय क्या है? कि अन्नादम् भूतं प्रवेः। अन्नपवित्र होना चाहिए। अन्नों में जो कोष है इसी कोष को हमें सबसे प्रथम जानना है।
उसके पश्चात् अन्न कोष के पश्चात् मुनिवरों! वह विप्रः लोकः। प्राणों में रमण करता है। प्राणों को जानता है! एक दूसरे में प्राणों को जानता हुआ वे जो तरंगें हैं उन्हीं तरंगों में प्राण ओत-प्रोत रहता है वह प्राण कोष में रमण करता है। मानो साधक उनका मिलान मिलाता है साधक मिलाता नहीं है मानो वह तो स्वतः अन्नमय कोषों के साथ-साथ प्राणमय कोष में रमण करता रहता है। स्वतः ही उसे मानो अप्रः प्राप्त होती रहती है।
उसके पश्चात् वह मनोमय कोष में चला जाता है। यह जो मानव के द्वारा जो मन है हयह मन प्रकृति का सूक्ष्म तन्तु माना जाता है। सबसे सूक्ष्म तन्तु है। उस तन्तु को जानने वाला क्योंकि इसी मनो में मेरे प्यारे! सर्व ब्रह्माण्ड क्या, मानो जितना भी यह परमाणुवाद, सृष्टिवाद है ययह मन की ही रचना है और मन ही मुनिवरों! इसमें निहित रहता है। यह मन ही इनको एकत्रित करता है। वह कोष कहलाता है। मनोमय कोष कहलाया जाता है। वह जो मनोमय कोष है, मेरे प्यारे! जितना भी प्रकृति का यह प्रपंच है, जितनी भी प्रकृति की यह रचना है चाहे वह अणुवाद में है, परमाणुवाद में है, मेरे प्यारे! यह सब मन की रचना, सबका निर्माण करने वाला है। मानो विभक्त करने की क्रिया इसमें विशेष है विभक्त क्रिया को कोष मेरे प्यारे! इसमें विद्यमान रहता है। चाहे वह पृथ्वी में विभाजन होना हो चाहे विचारों में विभाजन हो रहा हो, चाहे परमाणुवाद में विभाजन हो रहा हो चाहे मेरे प्यारे! लोक-लोकान्तरों के रूप में विभाजन हो रहा हो, चाहे अग्नि के रूप में विभक्त क्रिया दृष्टिपात हो रही हो। यह विभाजन करने वाला कौन? प्रकृति का एक सूक्ष्म तन्तु, एक तरंग है, जिस तरंग को मेरे प्यारे! मनुष्यतत्व कहा जाता है। वह मन है उसे मनोमय कोष कहते हैं जो विभाजन कर रहा है, वो विभक्तता जिसमें भी है वह सब मनों के कारण है।
मेरे प्यारे! यह विभाजनवाद उस काल में त्यागता है। जिस काल में बेटा! प्राणों से इसका मिलान हो जाता है। प्राणों में जब इसकी विचारधारा उसके गर्भ में परिणत हो जाती है। तो मेरे प्यारे! मन का वाहक् समाप्त हो जाता है। मन की धाराएं, मन का विभक्त होना, मन में विभाजनवाद की क्रियाएं समाप्त हो जाती हैं। मन की आभा समाप्त होने के पश्चात् मेरे पुत्रो! मानव शून्य गति को प्राप्त होता है। परन्तु वह जो आत्मा इन तीनों चक्रों की आभाओं में विद्यमान है। जो आत्मा ऊर्ध्व गति को जा रहा है, अन्न को त्याग रहा है मानो प्राणों मय कोषों को त्याग रहा हैं मुनिवरों! मनोमय कोषों को त्याग रहा है। वह कहाँ जा रहा है?
जो मन के पश्चात् विज्ञानमय कोष की प्रतिभा आती है। यह जो विज्ञान है, मुनिवरों! यह दो प्रकार का माना गया है। एक विज्ञान वह कहलाता है जिसे भौतिकवाद कहते हैं, जिसमें परमाणु विद्या है। मानो वह मन के अन्तर्गत ही आती है। परन्तु एक विचारधारा, एक विज्ञान की तरंगें हैं जो यौगिक कहलाती हैं। एक रूढ़ि होती है। रूढ़ि वह कहलाती है जो प्रकृति के सन्निधान से आती है, जो मनस्ता के सन्निधान से आती है।
परन्तु देखो, यौगिक वह होती है जो मेरे प्यारे! अनुभव में आती है वहाँ मनस्तत काम नहीं आता। वहाँ केवल आत्मा में परमात्मा के गुण आने प्रारम्भ हो जाते हैं। मुनिवरों! जैसे अग्नि में लौ देने के पश्चात् उसमें अग्नि के परमाणु आने प्रारम्भ हो जाते हैं। अग्नि के परमाणुओं से मानो वह अग्नि का स्वरूप धारण कर लेती है। जब अग्नि के स्वरूप को धारण कर लेती है तो मुनिवरों! अग्निमय बन जाती है। इसी प्रकार मुनिवरों! देखो, आत्मा जो चेतना है यह प्रकृति के गुणों को त्याग करके यह परमात्मा के गुणों में गुण-वान् होने लगता है और जब परमात्मा के गुण इसमें प्रवेश कर जाते हैं तो मुनिवरों! यह विज्ञानमय कोषों को भी त्याग करके आनन्द के क्षेत्र में रमण कर जाता है। यह आनन्द ही आनन्द में प्रवेश करता है। क्योंकि उसके गुण इसमें विशेष आ जाते हैं। उस आनन्द को सोचता रहता है। उस को हमारे यहाँ आनन्द कहते हैं। क्योंकि परमात्मा आनन्द है, परमात्मा में विडम्बना नहीं है। परमात्मा स्वतः आनन्द है। उस आनन्द को प्राप्त करके जीवात्मा आनन्द के क्षेत्र में बेटा! विभोर हो जाता है। मानो ब्रह्माण्ड उसके लिए खिलवाड़ बन जाता है। परमात्मा जैसे रचयिता है और इसमें रमण कर रहा है परन्तु इससे पृथक् भी है। इसी प्रकार मुनिवरों! देखो, आत्मा में उन गुणों का गुणा-धान हो जाता है और गुणा-धान होने के पश्चात् मानव उस आनन्द में विभोर हो जाता है। अपते में प्रतिष्ठित हो जाता है। अपने में रमण करता रहता हैं तो मुनिवरों! विचार विनिमय क्या? कि यह योगी बाह्य जगत् में नहीं आता, वो योगी बाह्य जगत् में न आ करके मुनि बन जाता है, मानो वह तो मधुर विद्या में रमण करता है। उस मधु विद्या में रमण करने वाला बेटा! अन्न को जानता है।
विचार विनिमय क्या? आज मैं तुम्हें विशेष चर्चा तो प्रकट करने नहीं आया हूँ। यह तो तुम्हें प्रतीत ही हौ। मैं तो मानो अंकुरों की चर्चा कर रहा हूँ। मैं वृक्ष की चर्चा नहीं कर रहा। जिन अंकुरों से वृक्ष बनता है, केवल साधना की चर्चा कर रहा था। हे साधक! यदि तू साधना की चर्चा कर रहा था। हे साधक! यदि तू साधना में जाना चाहता है, साधना को जानना चाहता है, साधना में प्रवेश करना चाहता है तो सबसे प्रथम मौन होकर के तेरा अन्न पवित्र होना चाहिए। अन्न का अभिप्राय यह है कि जो भी कुछ तुम भक्षण करते हो, जिससे तुम्हारी तृप्ति होती है, जो सर्वत्र अन्न माना गया है। मैंने बहुत पुरातन काल में पुत्रें! तुम्हें निर्णय देते हुए कहा था कि संसार में दो प्रकार के अन्न होते हैं। एक अन्न वह होता है जो मुनिवरों! योगेश्वर पान करता है। एक अन्न वह होता है जिसको पान करने से मानव स्थूल को प्राप्त होता है। तो मुनिवरों! दो प्रकार का अन्न नाना रूपां में रमण कर रहा है। एक अन्न आत्मा का है और एक अन्न शरीर का है। अहाः स्थूल अन्न को पान करने से मानव का शरीर स्थूल बनता है।
सूक्ष्म ब्रह्मेः आत्मा का ज्ञान-विज्ञान है। जो आध्यात्मिकवाद है, आध्यात्मिक चर्चाएं हैं वह आत्मा का भोजन है। इन दोनों प्रकार के भोजों को हमें ऊँचा बनाना है। दोनों प्रकार के भोजन को महान् बनाना है। जिससे दोनों प्रकार के भोजन को हम पान करते हुए, यह जो संसार है यह दोनों प्रकार का भोज लेकर के मानो अपने में प्रतिष्ठित हो जाता है। आओ मेरे प्यारे! ममुझे वह काल स्मरण आता रहता है। एक समय बेटा! मुझे कुछ चर्चाएं महर्षि विभाण्डक मुनि, महर्षि दधीचि से कुछ चर्चाएं करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। महर्षि दधीचि मुनि महाराज जब भयंकर बन में विद्यमान रहते थे तो एक समय कहा गया महाराज! तुम भयंकर वन में रहते हो, क्या पान करते हो? उन्होंने कहा मैं अन्न को पान करता हूँ। वह ऐसा विचित्र था। महात्मा दधीचि ने प्राणायाम किया और प्राणों का एक सूत्र मिलाया, मुनिवरों! वायु मण्डल में जो परमाणु गति करते हैं उन परमाणुओं से अपने भोजनालय की तृप्ति कर लेते थे। मानो उसी से वह तृप्त हो जाते थे और तृप्त हो करके मुनिवरों! देखो, जैसे कोई मानव अन्नमय कोष को जानता है, प्राणमय कोष को जानता है। दोनों कोषों का मिलान करना जानता है। जैसे फल विद्यमान है तो मुनिवरों! देखो, अपने नेत्रों की ज्योति और घ्राण से जो प्राण आता है, वह प्राण का और ज्योति का दोनों का मानो एक तारतम्य मिल जाता है, और तारतम्य मिल करके उस समय वह सूर्य प्राणायाम करता है, और सूर्य प्राणायाम करता हुआ उसमें खेचरी मुद्रा लगाता है। तो मुनिवरों! वह साधक फलों के सूक्ष्म अणु को अपने में धारण कर लेता है। तो मुनिवरों! देखो, वह अपने में तृप्त हो जाता है।
साधना की जहाँ चर्चाएं हैं मैं इस गम्भीर और विचारणीय क्षेत्र में जाना नहीं चाहता हूँ। मुझे वह काल स्मरण आता रहता है कि मानव साधना में क्या-क्या कर सकता है? जब साधना प्रारम्भ करता है तो सबसे प्रथम अन्न को सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के अन्नों को जानता है। सूक्ष्म अन्न कैसा होता है? और स्थूल अन्न कैसा होता है? मानो, देखो, स्थूल अन्न जो है वह मानव के शरीर को वरिष्ठ बनाता है। सूक्ष्म जो अन्न हैं वह प्राण को ऊँचा बनाता है। जब प्राण ऊँचा बनता है तो उससे मनोबल आता है। जब मन ऊँचा होता है तो मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार एक सूत्र में आ जाते हैं। मानो चित्त में जो मन का कोष है, मनोमय कोष है वह कैसा कोष है? मेरे प्यारे! वह इतना विचित्र है कि करोड़ों-करोड़ों जन्मों के संस्कार मुनिवरों! चित्त विद्यमान होते हैं। वह मनों का ही तो कोष कहलाता है। क्योंकि मन बुद्धि, चित्त, अहंकार ये मन की ही धाराएं हैं। ये मन की ही तरंगें हैं। मेरे पुत्रो! देखो, उसी से अन्तरिक्ष का निर्माण होता हैं उसी से वह नदियों का निर्माण कर लेता है, उसी से वायु का निर्माण कर लेता है, उसी से अग्नि का निर्माण कर लेता है। वही मुनिवरों! नाना निर्माण करता हुआ, इस चित्त में जो संस्कार है उन संस्कारों को वह सूक्ष्म बना देता है और स्वतः सूक्ष्म बन करके मानव विज्ञान के आध्यात्मिक क्षेत्र में रमण करता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में रमण करता हुआ वे परमपिता परमात्मा के आनन्द को प्राप्त करता रहता है।
आओ मेरे प्यारे! सूक्ष्म अन्न से मानव का प्राण ऊँचा बनता है, प्राणों से मन ऊँचा बनता है और जब मन पवित्र और ऊँचा बन जाता है, तो इसमें चंचलता नहीं रहती, विडम्बना नहीं रहती। यह विज्ञानमयी तरंगों में ओत-प्रोत होता हुआ यह आत्मा आनन्द को प्राप्त होता है। तो विचार विनिमय क्या? आज मैं तुम्हें बहुत सूक्ष्म रहस्य में ले गया हूँ। तरंगों में ले गया हूँ। परन्तु इसका एक-दूसरे से सन्निधान, एक-दूसरे से मिलान करने को आवश्यकता नहीं रहती। मानव का प्रारम्भिक जीवन ऊँचा बन जाता है, प्रारम्भिक साधना ऊँची बन जाती है। प्रारम्भिक साधना में मेरे प्यारे! मुझे वह काल स्मरण आता रहता है जब हम अपने पूज्यपाद गुरुओं के द्वारा उनके चरणों में ओत-प्रोत हो करके उनके चरणों की वन्दना करते रहते थे। अध्ययन करते रहते थे। जब प्रश्न करते थे तो मेरे प्यारे! वह पुनः सुन्दर उत्तर देते थे। जब वह उत्तर दिया करते थे उससे मुनिवरों! हमारा आत्मा पवित्र हो जाता और पूज्यपाद गुरुदेव से यह कहा करते थे, प्रभु! हमें साधना में परिणत करा दो, हम साधना में प्रवेश करना चाहते हैं।
तो पूज्यपाद गुरुदेव हमें प्राणों की दुकदुकी दिया करते थे। मानो अन्न की दुकदुकी दिया करते थे। अन्न और प्राण दोनों का सम्बन्ध है। क्योंकि प्राण ही तो अन्न को निगल जाता है, प्राण ही संसार को निगल जाता है। यह प्राण ही है मेरे प्यारे! जो प्रकृति को अकिंचन बना देता है। यह प्राण ही हैं जो विस्तार रूप बना देता है। यह प्राण ही है जो अन्तरिक्ष में उड़ान उड़ने लगता है। तो यह प्राण ही प्राण अपना कार्य करता है। प्राण का जो भोज है। वह अन्न है अन्न को पान करता है। क्योंकि अन्न उसी में समाहित हो जाता है। तो इसलिए मेरे प्यारे! जब अन्न प्राण में समाहित हो जाता है, प्राण मन में समाहित हो जाता है और क्योंकि जब प्राण के स्वरूप में जब यह मन प्रवेश कर जाता है इसीलिए हमारे ऋषि मुनि प्राणायाम किया करते हैं। प्राणायाम करने वाला जो महापुरुष होता है उस प्राणायाम करने वाले को कोई रोग नहीं होता। प्राणायाम करने वाले को बेटा! विडम्बना नहीं होती। प्राणायाम करने वाले का संसार में कोई शत्रु नहीं होता। प्राणायाम करने वाले का संसार में कोई शत्रु नहीं होता। प्राणायाम करने वाले का संसार भी मित्र बन जाता है। क्योंकि यह प्राण ही संसार में ओत-प्रोत रहा है। जब यह प्राण ही प्राण है तो कौन इसका शत्रु बन पाएगा।
यह प्राणायाम कहाँ किया जाता है? यह मन ही तो प्राण में समाहित हो जाता है। और जब यह मन प्राण में समाहित हो जाता है। और जब यह मन प्राण में समाहित हो जाता है तो विभक्त क्रिया समाप्त हो जाती है। जब विभक्त क्रिया नहीं रहती तो राग-द्वेष नहीं रहता। जब राग-द्वेष नहीं रहता और प्राण मन में प्रवेश कर गया है तो उसका कोई शत्रु नहीं और जब शत्रु नहीं तो बेटा! वह संसार का मित्र बन जाता है। आओ मेरे पुत्रो! हमें विश्वामित्र बनना है, विश्व का मित्र।

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