Saturday, February 9, 2019


1   ०६ ०४ १९६२ जीवन में  शुक्ल पक्ष का महत्व

जीते रहो,
देखो, मुनिवरों! अभी-अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ। हम तुम्हारे समक्ष वेदों का मनोहर गा रहे थे। यह तो आज तुम्हें प्रतीत हो गया होगा, कि जिन वेदमन्त्रों का हम आपके समक्ष पाठ कर रहे थे, उन मन्त्रों का वेदों ने किस महानता से गायन किया है। उसमें कैसा माधुर्य्य था, कैसी सुन्दररता है, उस वेदपाठ में कैसी मधुर शिक्षाएं दी हैं कि आज हम उस विद्या को प्राप्त कर अपने जीवन को कैसा सुन्दर बना सकते हैं। आज के वेद-पाठ में हमें यह प्रतीत हो रहा है कि उसमें कोई विद्या ऐसी नहीं कही जो अव्यवहारिक हो।
परमात्मा ने वेदों में सर्व विद्याओं का प्रसार किया है जिससे मानव व संसार का तथा लोक लोकान्तर वासियों के जीवन का हर प्रकार से विकास हो सके। आज के वेदमन्त्र यही मधुर शिक्षाएं प्रदान कर रहे थे। वह परमात्मा कैसा महान और कैसा देवों का देव है, जो हमें इन सर्व विद्याओं को प्रदान करता है और उनका ज्ञान कराता है। इन मन्त्रों में हम प्रभु की याचना कर रहे थे, और उच्च स्वरों से गान गा रहे थे कि परमात्मन् हमें ऊँचा बनाने वाले हैं, आपकी इन सुन्दर योजनाओं से महान दुःख-सागर से तर कर आपकी शरण चले आते हैं।
 इन मनोहर मन्त्रों में हम गान कर रहे थे, हे विधाता! हमारे लिए यह कैसा अद्भुत तथा सुन्दर संसार रचा है। यही आज के वदेपाठ में वर्णित किया है।
एक समय देखिए, महाराज विष्णु अपने आसन पर विराजमान थे। आदि प्रजा, महाराज विष्णु के समक्ष पहुंची और निवेदन किया कि भगवन्! हम क्या करें? हमें काई उपाय बताइए। उस समय विष्णु भगवान् बोले कि संसार में जाओ और उच्चकर्म करो और उस महानता को प्राप्त करो।

पूर्णिमा व्रत

एक समय देवर्षि नारद मुनि ने यही प्रश्न किया था। देवर्षि नारद  मृत्यु मण्डल से प्रमाण करते हुए, भगवान नारायण के समक्ष जा पहुंचे और बोले कि मृत्युलोक के मानव बहुत ही दुःखित होते जा रहे है, और दुःख सागर में डूबे जा रहे है, उनके कल्याण के लिए भी कोई योजना बनाई है? तब भगवान नारायण ने कहा कि जाओ, प्रजा को आदेश दो कि पूर्णिमा का व्रत धारण करें, उससे वास्तव में मानव समाज का कल्याण होगा।
 देवर्षि नारद ने जब यह सन्देश मृत्युलोक पहुंचाया, तो प्रणियों ने पूछा कि भगवन्! यह पूर्णिमा का व्रत कैसा होता है? तो नारद जी पुनः नारायण महाराज के पास पहुंचे और पूर्णिमा व्रत का विवरण पूछा तो नारायण महाराज बोले कि जिस व्रत को धारण करो, उसे पूर्णता से करो, जैसे भी नियम बनाओ, वह ऐसे पूर्ण हों, जैसे पूर्णिमा का चन्द्रमा पूर्ण कलाओं से युक्त होता है। यही पूर्णिमा का व्रत है।
   और जो मानव व्रत धारण कर उसकी सम्पूर्ण रूप से नहीं करता, तो उसका जीवन ऐसा होता है, जैसे एक मानव की नौका भंवर में पड़ी हुई हो, और उसका जीवन ऐसे डगमगाया करता है, भंवर में डगमगाती नौका सदृश। इसको पूर्णमदः कहते हैं।
अच्छा, मुनिवरों! आज हम को ऐसा व्रत धारण करना और अपने नियम इस प्रकार पूर्ण बनाएं  कि जिससे हमारा जीवन उच्च तथा महान हो। हम विधाता से यही याचना किया करते हैं, कि जब तक हम इस संसार में जीवित रहेंगे हम कदापि मिथ्या उच्चारण नहीं करेंगे। यही पूर्णिमा का कृत्य है, इन्ही का नाम व्रत है। और जैसे हमने पूर्व स्थान में कहा था, कि अन्न का त्याग, क्षुधा से पीड़ित होना, उपवास करना आदि से कोई महान लाभ नहीं होता। जब हम पूर्ण,पूर्णमदः करेंगे जैसे कि पूर्णिमा के चांद में पूर्णता होती है, तभी हम अपने जीवन को पूर्ण बनाने में समर्थ हो सकते है। किसी भी कार्य को अधूरा न छोड़कर जब उस महान व्रत को धारण करेंगे, तभी हमारा व्रत सफल, वास्तविक कल्याण दायक हो सकता है।
  जब नारद जी नारायण महाराज के समक्ष थे तो, उन्होंने कहा कि देवर्षि! मत्त मण्डल तो महान् दुःख का सागर है। इससे निस्तार के लिए यह महान योजना बनाई है कि जो आगे कर्म करने हैं वह शुभ करने हैं, तो इस प्रयत्न में ही मानव का कल्याण निहित है। देखो, जैसे अजयमेध यज्ञ करें, गोमेध यज्ञ करें, तो यह तो भौतिक यज्ञ हो गए| परन्तु हमें आध्यात्मिक यज्ञ भी करना चाहिए।
आध्यात्मिक यज्ञ का अर्थ जिसमें हमारी आत्मा का विकास हो, जैसे अग्नि ऊपर को उठती चली जाती है ऐसे आत्मा को ऊपर उठाने का यत्न करना चाहिए। जिसका जैसा आचरण होगा, वैसा ही वह उससे सम्बन्धित रमण करता है, जब यह आत्मा ऊपर के लोकों में भ्रमण करता है और अच्छे  कर्म में रत्त तो वह उन चन्द्रादि, महान उच्च लोकों में पहुंच जाता है।

शुद्ध आत्माओं का आवास

ऐसे ही महाराजा विष्णु का राज्य है ,वह विष्णु लोक कहलाता है| यह सूर्य मण्डल भी कहा जाता है| जहाँ देवर्षि नारद पहुंचे, हमने पीछे कई स्थानों में कहा है
 मुनिवरों! विष्णु का अर्थ जो हमारा पालन पोषण करने वाला है, जो सबको नियन्त्रण में रखने वाला है परमात्मा। विष्णु नाम सूर्य का है, परन्तु हम तो लोकों का वर्णन कर रहे हैं, तो विष्णु लोक से अभ्रिप्राय जहाँ विष्णु राज्य कर रहे है, जहाँ नाना प्रकार की महान योजनाएं बनती हैं, जो, पवित्र तथा तपस्वी आत्माओं का आवास है।
वहाँ अग्नि के परमाणुओं से निर्मित शरीरों में आग्नेय आत्माएं रहती है। वहाँ की आत्माओं का दार्शनिक समाज विद्यमान है जो दार्शनिकता से विचार करती हैं, वहाँ विलष्ट आत्माएं नहीं होती।
  इससे भी आगे बृहस्पति लोक माने गए हैं। इन लोकों में पहुंचकर, इनसे भी ऊपर मधु लोकों का स्थान है जहाँ नाना भगवन्ती योनि हैं। भगवन्ती योनि उसे कहते हैं जिसको गन्धर्व अनुमति लोक कहा जाता है। यहाँ बृहस्पति को गन्धर्व लोक कहा जाता है। जहाँ रहने वाले गन्धर्व हो  वह गन्धर्वलोक कहलाता है।और श्रेष्ठ कर्म करते हुए शुद्ध आत्माएं, लोक ,लोकान्तरों में भ्रमण करती हुई, प्रभु को, परमात्मा को प्राप्त होती हैं।
     जैसे मानव-योगी समाधिस्थ होकर मूलाधार में जाता है, नाभि चक्र, हृदय चक्र, कण्ड चक्र में जाता है और फिर त्रिवेणी चक्र में होता हुआ,आगे ब्रह्मरन्ध्र में पहुंचता है, और आगे शून्य चक्र में रमण करता हुआ, यह आत्मा भ्रमण करता हुआ, पृथ्वी मण्डल से अग्नेय सूर्यादि लोकों में पहुंचता है, जहाँ विष्णु समान तेजस्वी आत्माएं ही निवास करती हैं, यदि हम चाहें तो इस प्रकार हम आत्मा के आधार से विष्णु लोक में पहुंच, विष्णु समान, विष्णु बन सकते है। विष्णु ज्ञानी को कहते है। जो परमात्मा के गुणों को धारण करने वाला है, जिससे सबका पोषण होता है, विश्वन्ति शब्द से, जिस विष्णु शब्द की रचना हुई हैं, उच्च कर्म करने वाला इस प्रकार विष्णु कहा जाता है।
     वेदपाठ के मन्त्रों में स्थल-स्थल पर इन्हीं सौन्दर्यमयता का पाठ किया है। तो हमने जैसे कहा है कि देवर्षि नारद जब नारायण महाराज के समक्ष पहुंच गए तो उन्होंने कहा-जो मानव मेरे व्रत को पूर्ण नहीं करेगा तो उसका जन्म अधूरा रह जाएगा। इसलिए मानव को मेरा यह सन्देश है, कि मेरी वेदवाणी के अनुसार उस पूर्णता को प्राप्त करने के अर्थ, व्रत धारण करें और पूर्णिमा के चांद के सदृश अपने जीवन को पूर्ण बनाएं।
    कैसा अलौकिक ज्ञान है, परमात्मा का। प्रत्येक पदार्थ और उसके सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणु हमें यही पूर्णता का ज्ञान दे रहे हैं।
 मानव जीवन में  शुक्ल व कृष्ण पक्ष
परन्तु देखिए चंद्रमा का प्रकाश घटता बढ़ता रहता है,यह क्यों होता है ?इसके उत्तर में हमारे दार्शनिक समाज में जो आदि ऋषियों का नियुक्त हुआ,कहा है कि लोमश मुनि महाराज ने तत्त्व मुनि महाराज से एक प्रश्न किया| उस दार्शनिक समाजने कहा कि यह परमात्मा का लौकिक नियम है कि चन्द्रमा की शक्ति घटती बढ़ती रहती है, इसी नियम से चन्द्रमा महान शीतलता तथा वनस्पतियों तथा पृथ्वी के अन्न का पोषण करता है और यदि इसकी कलाएं न घटें तो सदैव शीतलता ही होने से, किसी वनस्पति आदि का उत्पन्न होना असम्भव हो जाएगा। तो दूसरे दार्शनिक ने कहा नहीं, केवल यही कारण नहीं, कुछ और भी है। इस चन्द्रमा की कलाएं जिस परमात्मा में रमण करती है, जहाँ से आती है, उनकी महान  शीतलता उसी में समा जाती है यह उस प्रभु की अलौकिकता है।
तब इसमें शमीक मुनि तथा मार्कण्डेयादि महर्षियों ने कहा और महान प्रमाण उपस्थित किए, कि हमने तो भौतिक विज्ञान के अनुकूल कुछ ऐसा पाया है कि रावण के पुत्र नारायन्तक जब सूर्य की ज्योति जाती है तो वह उसके आधीन है और उस ज्योति से प्रकाशित होकर पूर्णता को प्राप्त होता है और पुनः जब कलाएं घटती है तो उसी में समा जाती है। तब किसी अन्य मुनि ने कहा कि यह वाक्य भी माननीय नहीं। हमने तो यह सुना है कि सर्व सृष्टि परमात्मा के आधीन है। जब परमात्मा के आधीन है तो सूर्य के आधीन कैसे बन गया?
   इस पर आदि दार्शनिकों ने कहा कि यह प्रमाण सिद्ध है, कि सर्व संसार परमात्मा के, परमपिता के आधीन है, परन्तु भौतिक जगत में देखा जाता है, कि माता जननी  होती है और पिता भी, जो महान हमारा लालन पोषण करता है। ऐसे ही भौतिक सृष्टि में सूर्य चन्द्रमा के पिता के समान है जो अपनी महान किरणों से उसका पोषण कर उसको उच्च बना देता है। तो इन सबमें परमपिता परमात्मा ही है और प्रकृति तो सबकी माता के समान  है।
   परमात्मा से यह सब प्राण आ रहा है, सविता सत्ता आ रही है और यह सविता बन हर प्रकार से लाभ पहुंचा रही है। तो दार्शनिकों ने कहा जब सूर्य, चन्द्र का पिता है, तो परस्पर समीप क्यों नहीं हो जाते? इसका उत्तर दार्शनिकों ने दिया कि चन्द्र सूर्य मण्डल के निचले भाग में है, यह सूर्य का अधिकारी क्रम है कि सूर्य की ज्योति से क्रमशः बढ़ता हुआ, उसकी किरणों से पूर्णता को प्राप्त होता है, तो पूर्णिमा का चन्द्र कहलाता है।
अब देखिए वेद ने कहा है कि मानव तेरी अवस्था भी ऐसी ही है जो परमात्मा ने बनाई है , दो पक्षों के समान है| हमारे लिए विचारणीय है, एक शुक्ल पक्ष समान, जिसमें मानव का उत्कर्ष होता है, और एक कृष्णपक्ष सदृश जिसमें अनवति हो जाती है।
  बेटा! आज मानव का जीवन, चन्द्र के शुक्लपक्ष के समान पूर्ण हुआ बैठा है, परन्तु कल प्रतीत नहीं, इसका कारण कैसे बन जाए, कौन-सा काल इसके समक्ष आए। जो मानव राजा बना बैठा है, कल को पता नहीं भिक्षु बन जाए। यह उन्नति व अवनति के दो भेद है, जो साधन रूप है, जिस पर दृढ़तापूर्वक आचरण से, उच्च कर्त्तव्य के पालन से, वह पूर्णता को धारण रख सकता है और सूर्य की तरह सर्वजगत को अपने प्रकाश से अलौकिक कर सकता है।
 जैसे मुनिवरों! किसी ने देखा, युधिष्ठिर को, वह उस लाक्षागृह में थे, वहाँ से बच गए, और अपने कर्त्तव्यों पर दृढ़ रहे। उनका भाग्य कर्म उच्च था, कि फिर महाभारत के संग्राम में विजयी हुए। आज महाराजा युधिष्ठिर, धर्म पुत्र के नाम से कहे जाते है यह उनके महान उच्च कर्म की महानता थी।
    तो हम कह रहे थे, कि मानव  दो पक्षों के समान, कृष्णपक्ष कठिनाइयों का काल है, जिसका अन्त उज्ज्वल शुक्लपक्ष में होता है ,और  जो बहुत ही सुखदायक होता है, सुविधाएं प्राप्त होती हैं। इस प्रकार मानव को आपत्तिकाल में दृढ़ रहना, अपने कर्त्तव्य का  पालन करते हुए, शुभ कार्य के ऊपर दृढ़, निश्चय रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए तो उसमें पूर्ण चन्द्र के तुल्य पूर्ण प्रकाश होता है।
    अच्छा, देखिए, हमारा आज का यह दार्शनिक विषय था,कि चन्द्र में जो भी कान्ति है, वह सब आदित्य, सूर्य जनित है। परन्तु परमात्मा की सृष्टि तो अनन्त के सदृश है, वेदों में ऐसा ही कहा है कि उस अनन्त परमात्मा की सृष्टि में तो अनेक सूर्य हैं। वह सूर्य कहाँ कहाँ प्रकाश कर रहे है, यह तो एक दार्शनिक विषय है हम जितना भी आगे बढ़ जाए, परंतु हमारी बुद्धि विचलित हो जाती है की कैसे  महान परमात्मा ने सबकी सब विद्याएं ,कैसे वेदों में प्रविष्ट कर दी हैं। यह भी तो साथ-साथ परमात्मा ने एक आत्मा के लिए कितनी सुविधाएं दे दी है।
  मुनिवरों! आज महानन्द जी प्रश्न कर रहे थे, कि हमने जो असंख्य सूर्य होने को कहा है, यह कौन से वेद का प्रमाण है? कौन ऋषि का इसमें प्रमाण है? इसका उत्तर यह है कि वेदों का स्वाध्यय करो और अपने ज्ञान को बढ़ाकर अपने को श्रेष्ठ मानव बनाओ| तो महानन्द जी कहेंगे कि आपने कौन से वेदों का स्वाध्याय किया है, जो आप उच्चारण कर रहे है? इसका उत्तर यह है कि वेदों में अनेक मन्त्रों में आया है, कौन-कौन से मन्त्रों की सूची निर्देश की जाए, अन्य मन्त्रों में भी आया है। यदि आगे फिर कभी समय मिला, तो उनकी पूर्णतया व्याख्या कर देंगे।
   अभी अभी हमारा आदेश चल रहा था कि इस मानव का उत्थान करने के लिए , परमात्मा का बनाया प्रत्येक पदार्थ मानव के जीवन का सूचक है।आज  मानव जीवन को एक ऊँची योजना बनाने का महान  साधन है। मानव को दृढ़ रहना चाहिए और इसी से वह चन्द्र की पूर्णता सदृश घटता बढ़ता हुआ, पूर्णता की पूर्ण कला के चंद्र से  समान पूर्ण हो जाता है। मानव को उच्च बनना ही उसका कर्त्तव्य है, जो अति सुन्दर योजना है।
  हम कह रहे थे कि विष्णु भगवान् सूर्य मण्डल के राजा हैं, और प्रजा का शासन करने वाले हैं। दार्शनिकों ने कहा है कि देखो, वह कितना महान शासक है, कितनी भली प्रकार अपनी पूजा तथा इस संसार का पालन कर रहा है। उसको महान भू माना गया है, वह देखिए अन्तरिक्ष को तपायमान करता हुआ, इस संसार को भी अपने अद्भुत आलोक से तपायमान कर रहा है, और इसके आगे अपने मधु लोकों को भी तापित कर रहा है, वह तीनों लोकों को तापित कर रहा है, उसका तेज कितना मधुर और सौन्दर्य है। इसमें कल का विषय ओर भी आगे बढ़ गया है, कि कहाँ कहाँ कितनी दूरी पर स्थित,यह सूर्य मण्डल है, और कौन कौन, कैसे पथिक?
  देखिए, यह पृथ्वी मण्डल कैसा महान और अच्छा है। किस किस लोक में ऐसी पृथ्वी समा जाती है, यह तो कल का विषय होगा, जो अत्यन्त गूढ़ है।और समय मिलने पर तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर देंगे |तो  हमारा आज का आदेश था कि देवर्षि नारद जब महाराज नारायण के समक्ष पहुंच गए, तो उन्होंने कहा यदि तुम्हें मृत्तमण्डल को सुखी करना है तो प्रत्येक मानव पूर्णिमा का उपवास किया करे, यह शिक्षा दो और हर प्रकार से जीवन को उच्च बनाने की धारणा करें।
मुनिवरों! नारद नाम मन का है, नारद नाम के ऋषि भी हुए है। तो  यह मन, जब नाना प्रकार के विषयों को त्यागकर, आत्मा के समीप हो जाता है, तो यह मन उस नारायण स्वामी से अपना सम्बन्ध बना लेता है। तो उस समय नारायण महाराज कहते है कि हे मन! तू बड़ा उचंग है, तेरी मनोहरता का कोई प्रमाण नहीं। संसार को सुखी बनाने का एकमात्र यह आदेश है कि पूर्णिमा का व्रत धारण करें। यह उपदेश उस नारायण स्वामी ने नारद को दिया। तो नारद इस संसार में आकर उपदेश देता है, जो मानव का हृदय  पवित्र बनाता चला जाता है, वह प्रत्येक मन को पूर्ण बनने का आदेश है, अन्यथा किसी प्रकार मानव का जीवन ऊँचा नहीं बन सकता। यह मन रूपी नारद, यह मन ही है| यह नारद  किसी समय मानव को ऊँचा बना देगा, और यदि मन रूपी नारद को स्थिर नहीं करोगे, तो एक समय वानरों वाली आकृति बन जाएगी। और किस प्रकार बनेगी, जैसे एक समय नारद जी चंचल हो गया और वानर वाली आकृति बन गई थी। ऐसे ही यदि मन बस में नहीं किया जाएगा  तो वह तुमको वानर तक बना देगा।
   आज हमें यह विचार करना चाहिए कि यदि मानव को बहुत उच्च बनना है, तो नारद नाम के मन को नारायण की सभा में प्रविष्ट होकर और यह उपदेश लेकर, स्वतः उच्च बनेगा  और  शेष संसार को भी उच्च बनाएँगा 
तो यह विषय जब समय होगा, किसी दूसरे समय इसकी व्याख्या करेंगे और हम कह रहे थे कि हमें विचार करना है कि हमें कहाँ पहुंचाना है और कहाँ पहुँच चुके हैं और हमारा गंतव्य क्या था , आज वह नारद शब्द नहीं रहा, आज जो कहा,वह नारद रूपी मन है।
  परन्तु यह निर्णय कर लेवें कि परमात्मा को नारद क्यों कहा है, परमात्मा के सदृश यह नारद ,मन लोक लोकान्तरों में व्याप्त  हो जाता है, और कोई भी स्थान ऐसा नहीं, जहाँ परमात्मा न हो, तो इस प्रकार देखे कि इस मन को जो प्रत्येक स्थान में पहुंच जाता है, नारद ने कहा है, जो एक क्षण भर में करोड़ों योजन की बातों को अन्तःकरण में विराजमान कर देता है।तो इस अन्तःकरण में अनेक चित्र खिंच जाते है, ब्रह्म लोक कि बस्ती हमारे समक्ष आ जाती है। देखिए द्वापर काल की वार्त्ताएं आज हमारे मन रूपी नारद में विराजमान हो रही हैं, तो जैसे सर्वत्र व्यापक परमात्मा सब जगह विराजमान है, तो उसी प्रकार शरीर में यह मन एक प्रकार से नारद है, जिसको यदि वश में न किया गया, तो इस मानव शरीर का कोई महत्त्व नहीं रहता।
   देखो,बेटा!हम आदेश दे रहे थे और उस प्रभु की याचना कर रहे थे, कि परमात्मा ने जो पदार्थ बनाए हैं वह हमारे जीवन को उच्च बनाने के लिए हैं।जैसे  सूर्य ,चन्द्र हमारे जीवन के सूचक हैं, जैसे सूर्य प्रातः समय से लोक लोकान्तरों को तपित कर रहा है, इस प्रकार हमारा यह शरीर रूपी जीवन हमको प्राप्त हुआ। वह मानो परमात्मा ने हमको अपना तथा सबका उपकार करने के लिए दिया है, जीवन को उच्च बनाने का महान कर्त्तव्य हमें सौंपा है। इस महान कर्म में सब वस्तुओं के सदुपयोग का आदेश है और जो इसका दुरूपयोग करते हैं तो हमारे जीवन का कोई महत्व नहीं रहता।
महाराज पाण्डु और उनका परिवार
  अब द्वापर काल की कुछ बातें कह रहे हैं। द्वापर काल में महाराज पाण्डु से महारानी कुन्ती के तीन सन्तान हुईं, तो माता कुन्ती ने उनको कैसे महान बालकों को जन्म दिया और कैसे उन्हें उच्च बनाया? अपने ज्ञान से, ऐसी शिक्षा दी कि वे महान हुए।
एक काल था, जब मदीन राजा के यहाँ मधु कन्या थी। उसका स्वयंवर हुआ, राजाओं को निमन्त्रण भेजे गए कि मेरी कन्या का स्वयंवर है।
उस महान राजा के यहाँ कैसे वैज्ञानिक थे। उन्होंने एक मछली को बनाया और उसको ऐसे यन्त्र में रखा जिससे कुछ ऐसी महानता का प्रमाण मिलता है कि एक क्षण भर के समय में, इतने समय में बारह पलक मार सकता हो, उतने काल में वह मछली चक्र में घूमती कि ७०८ चक्र उसकी परिक्रमा होती थी, ऐसा कहा जाता है। सब राजाओं को निमन्त्रण मिला और वहाँ एकत्र हुए| महाराज पान्ड़ु को भी निमन्त्रण पत्र पाया। उसको लेकर महाराज पाण्डु भी महाराज गंगशील के समक्ष उपस्थित हुए, निवेदन किया कि मैं महाराजा के अनुकूल निमन्त्रण पर जा रहा हूँ, यदि आपकी आज्ञा हो, तो जाऊं अन्यथा नहीं। महाराज गंगेशील ने कहा वहाँ जाकर क्या करोगे, वह तो कन्या  स्वयंवर है और तुम पत्निबान हो। यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो तुम जाओ, वह कन्या तुमको स्वयंवर में वरण कर संस्कार कराएगी । सो मेरी तो इच्छा नहीं, कि तुम वहाँ जाओ। महाराज पाण्डु ने कहा कि मैं प्रयत्न करूंगा कि वह संस्कार न करवाऊं, परन्तु जो निमन्त्रण आया है, उस पर पहुंचना हमारा कर्त्तव्य है।
तो ऐसा सुना जाता है कि महाराज! पाण्डु वहाँ पहुंचे, जहाँ नाना राजा, महाराजा विराजमान थे। उनका बड़ा सत्कार हुआ। तब समय पर सबने मछली को भेदन का प्रयत्न किया, परन्तु कोई सफल नहीं हुआ| तो महाराज पाण्डु को कहा गया कि आप भेदन करें,तो महाराज पाण्डु ने कहा कि महाराज! मेरा तो संस्कार हो चुका है, यदि मैंने मछली का भेदन कर दिया, तो इस कन्या से संस्कार करना पड़ेगा, तो मेरा यह कर्त्तव्य नहीं, वेद शास्त्रों के यह  विरुद्ध है और मेरे पिता की आज्ञा है कि मैं कोई कार्य वेद शास्त्रों के विरुद्ध नहीं करूंगा। परंतु महाराजा पाण्डु नम्र थे।तब ऐसा सुना जाता है, कि सब राजाओं ने पाण्डु महाराज से निवेदन किया| तो महाराजा पाण्डु ने अपने अस्त्रों शस्त्रों को लेकर मछली को भेदन कर दिया। भेदन होने पर मदीन राजा ने बड़ी नम्रता से कहा कि महाराज! मेरी कन्या को स्वीकार करें। महाराज पाण्डु ने कहा मेरा कर्त्तव्य मछली का भेदन करना था, सो मैंने किया। इस पर सब राजाओं ने पाण्डु महाराज से कहा कि आपने कर्त्तव्य पालन कर, स्वयंवर की प्रतिज्ञा को पूर्ण किया है| तो आपको कन्या को स्वीकार करना ही पड़ेगा। तब पाण्डु महाराज को स्वीकार करना ही पड़ा। माता, पिता ने कहा कि हमारा कितना सौभाग्य है कि जिसकी कन्या ब्रह्मचारियों के कुल में जाए, और वेदपाठियों के कुल से हमारी कन्या का संयोग ही हमारा अहोभाग्य है।
तब पाण्डु महाराज ने महान सत्कारपूर्वक उस कन्या को ग्रहण किया। परन्तु मन में सोच रहे थे, कि मैं अपनी पत्नी को, पिता को क्या कहूँगा। पत्नी जब पूछेगी कि आपने द्वितीय संस्कार कर लिया है, तो क्या उत्तर दूंगा |इस प्रकार सोचते हुए कौडिल ब्रह्मचारी गंगेशील के समक्ष जा पहुंचे और पूछने पर स्वयंवर का विवरण कहा, और कहा कि अब मैं क्या करूं? तो उन गंगेशील महाराज ने कहा कि यह शास्त्रों के विरुद्ध है, पर तुम ऐसा करो, कि अपनी पत्नी की तथा सबकी अनुमति लो। यदि तुम्हारी धर्मपत्नी आज्ञा दे तो अवश्य अपने गृह मे इस कन्या को प्रविष्ट करो,और उसका गृह पृथक होना चाहिए यह राष्ट्र का नियम है पर यदि तुम्हारी धर्मपत्नी चाहे तो गृह में प्रवेश करो और आनन्द लो। उस समय महाराज, महारानी के समक्ष पहुंचे जो बहुत बुद्धिमती थी। उसने उनको स्थान दिया और पूछा कि भगवन्! आपका हृदय क्यों दुःखित है, तो उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारी अनुमति लेने के लिए उपस्थित हुआ हूँ और संस्कार का सब विवरण कहाँ महारानी कुन्ती ने कहा कि आप इतना संकोच क्यों कर रहे हैं, निःसंकोच होईए ।यह कहा  निर्द्वद्व होकर उस कन्या को ले आइये। यह तो हमारा अहोभाग्य है, कि हम दोनों एक माता की पुत्री समान रहेंगी।  मानो उस माता ने आदेश दिया कि मेरे तीन पुत्र हैं, और व्यास महर्षि की आज्ञानुसार ब्रह्मचर्य का व्रत धारण किया और उस गृह में आनन्दपूर्वक प्रवेश कराकर उस कन्या को आदेश दिया, कि वेद शास्त्रों के अनुकूल पुत्र उत्पन्न करना, जो सबको सुख पहुंचाने वाले हों। कुछ काल पश्चात् उसके गर्भ स्थापना हुआ और नकुल की उत्पत्ति हुई।
कुछ समय पश्चात् महाराज पाण्डव मन्त्रियों सहित भ्रमण करते हुए व्यास मुनि के तथा महर्षि उद्केतु मुनि के समक्ष जा पहुंचे, उस समय वह स्वाध्याय कर रहे थे। जब विनाश काल आता है तो बुद्धि का भ्रंश हो जाता है| “विनाश काले विपरीत बुद्धि।“ ऐसा कहा जाता है कि उस समय उन्होंने अपने शस्त्रों, अस्त्रों का प्रयोग किया, तो वह शस्त्र उस ऋषि केआश्रम मे हिरणीके  अंदर प्रविष्ट हुआ और हृदय स्थल में जा पहुंचा। तो उस समय ऋषियों ने अपने वाक्यों में कहा “अरे, पापी राजा! तेरा विनाश हो।“ उस समय ऋषियों ने अपने वाक्य में कहा, कि अपनी दृष्टि से देख किसी समय ऐसा आएगा, कि तुमने जिस  हिरणी को इस प्रकार नष्ट किया है, तुम्हारी अपनी पत्नी तुम्हारी मृत्यु का कारण बन जाएगी।
पूज्य महानन्द जीः महाराज! आप तो कहते थे, कि किसी को श्राप नहीं लगता अैर श्राप का उच्चारण कर रहे हैं।
पूज्यपाद गुरुदेवः महानन्द जी, आप भी कैसे मूर्खों सदृश प्रश्न करते है, तुम भी  जानते होगे कि योगी.किस को श्राप देता है। एक आयुर्वेद नाम की विद्या है, जिससे मस्तिष्क को देख योगी जान लेता है कि इस काल में उसकी मृत्यु होगी। जो योगी सत्य का पालन करता है उसका वाक्य सत्य हुआ करता है। योगी उसको श्राप देता है जो कोई ज्ञानी होकर भी दूसरों को दुःखित करता है, जानता हुआ भी दूसरों को कष्ट दिया करता है। जो अज्ञानवश, अज्ञानी होने के कारण किसी को कष्ट देता है, उसको श्राप देता है, तो उस श्राप देने वाले की महानता नष्ट हो जाती है, उसकी यौगिकता समाप्त हो जाती है। जैसे तुम जानते हो कि तुम योगी होकर भी यदि हमको नाना प्रकार से कष्ट देने लगो, तो हम जो वाक्य कहेंगे, वह सत्य होगा| उससे किसी प्रकार बाधा न होगी, इसका कारण तुम ज्ञानी हो और यदि तुम अज्ञानी होकर अज्ञानतावश हमें दुःखित करो, तब हमारा वाक्य वास्तव में हमारी अज्ञानता का प्रमाण होता,हमारी सब तपस्या का फल समाप्त हो जाता ऐसा इसका समाधान है। महाराज पाण्डु जानते हुए भी, योगी होकर, विनोद क्रिया से किसी को अस्त्रों से समाप्त करते हैं, तो वह वास्तव में पापी हैं, और उनको उसी प्रकार परमात्मा के नियमानुसार दण्ड मिला।
अब आगे देखिए, जब महाराज पाण्डु को यह वाक्य पता लगा तो वह सोचने लगे, कि मैं पत्नी के द्वार जाऊंगा ही नहीं, क्योंकि मेरी मृत्यु हो जाएगी, मैंने सर्व संसार का ऐश्वर्य सुख प्राप्त कर लिया है, पत्नी के समक्ष न जाने का नियम बना लिया। कुछ काल पश्चात् महारानी कुन्ती जो बुद्धिमती थी, यह सब जान गई। किन्तु महाराज पाण्डु काल की गति से उसके समक्ष जा पहुंचे, और उसको गर्भ स्थापन हुआ और महाराज पांडु मृत्यु को प्राप्त हुए। कुछ काल पश्चात् उनका पांचवां पुत्र रानी माद्री के गर्भ से उत्पन्न हुआ, जिसे सहदेव कहते है।
पूज्य महानन्द जीः “परन्तु गुरुजी! हमने तो ऐसा सुना है कि ऋषियों ने जो श्राप  दिया था वह तो पहले ही दिया था और गुरु जी जो आप कहें, केवल वही सत्य और जो हमने कहा, वह नहीं।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “तो महानन्द जी! यह तो कोई विरोध का विषय नहीं, इसका निर्णय करो।“
पूज्य महानन्द जीः “गुरुजी! हमने तो ऐसा सुना है, कि पाण्डु को पहले ही श्राप था और पाण्डु रोग था, दुर्वासा मुनि के मन्त्रों के बल से उनके पुत्र उत्पन्न हुए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “हाँ यह भी कोई विरोध की बात नहीं। पुनः हास्य..... यदि तुम मूर्ख समाज में होते, तो बड़ा आनन्द आता। तुम्हारे वाक्य तो महा बच्चों के सदृश हैं।“
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य..... कैसे कैसे वाक्य उच्चारण कर रहे हो। वेद के अनुकूल भी नहीं चलते, अपने विषय को भी वेद से विपरीत ले जाते हो, और यथार्थ तो यह है कि हमने जो सत्य था, कह दिया है। अब तुम्हारी इच्छा हो, तो उसको मान लो, हमें कोई आपि़त नहीं| जैसा हमने सुना और देखा, वह तुम्हारे सामने है, जैसा चाहो वैसा मानो, इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं। परन्तु यह अवश्य है कि यदि तुम ऐसे अज्ञानता के वाक्य मानते रहोगे, तो समाज ओर अज्ञानता में डूब जाएगा।
अच्छा, मुनिवरों !अभी हमारा आदेश चल रहा था, कि महानन्द जी की बातों से विनोद पा गए। देखिए,हमने अभी द्वापर और त्रेता का समय और उस काल की महानता का वर्णन किया है और हमें उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन महान माताओं के समान आज भी उसी प्रकार की उच्च देवियां उत्पन्न होती रहें, तो राष्ट्र का शीघ्र ही कल्याण हो जाएं और यह संसार महानता पर पहुंच जाएं।
आज का हमारा आदेश समाप्त हुआ, कल समय मिलेगा तो समाज के सम्मुख कुछ दार्शनिक विषय की व्याख्या करेंगे, और समय मिला तो महानन्द जी की भी वार्त्ता होगी। अच्छा, हास्य..... अब वेदों का पाठ होगा, इसके पश्चात् यह वार्त्ता समाप्त हो जाएगी। वेद पाठ विनय नगर, नई दिल्ली


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