शिवरात्रि
की ऐतिहासिकता और वास्तविक स्वरूप
शिव के नाना पर्याय
आज भी
मुझे वह समय प्रायः प्राप्त होता रहता है कि वास्तव में ऐसा ही स्वीकार किया जाएं।
परन्तु हमारे यहाँ ऐसा माना गया
है कि शिव के नाना पर्यायवाची शब्द होते हैं। शिव नाम परमात्मा का भी है और शिव
नाम आत्मा को भी कहा जाता है। शिव नाम की कुछ औषधियाँ भी होती हैं परन्तु यहाँ शिव
नाम पर्वतों का उच्चारण करने में कोई किसी प्रकार का दोषारोपण नहीं होगा। क्योंकि
शिव नाम पर्वतों का भी कहा गया है। यह जो गंगा का अवतरण है, यह केवल पर्वतों से हुई मानवीय कल्याण के
लिए पृथ्वी के आसन को आकृत करती हुई और सुखद देती हुई, समाज को अपनी प्रतिभा से ,यह अपने
मार्ग से चली आ रही है। इसी प्रकार ऐसा कहा जाता है कि महाराजा! शिव हम
पर्वतों को कहते हैं, क्योंकि
शिव वह पर्वत का जो ऊपरी भाग होता है,उसको जटावासी कहते हैं। जटाओं में रहने वाला
ऊपरी भाग से जो आ रहा है उसी को हमारे यहाँ जटावासी शिव कहा जाता है। परन्तु जहाँ
हम यह स्वीकार करें,
सूर्य का शिव रूप
मेरे
प्यारे महानन्द जी का यह कथन है कि आज वह शिव सुन्दर रात्रि है जिसमें माता
पार्वती और शिव दोनों जागरूक रहते थे। उन्होंने अपनी साधना को परिपक्व किया था,उन्होंने योगाभ्यास में अपनी
पारायणता को प्राप्त किया। हमारे यहाँ यह कहा जाता है,इस सम्बन्ध में जो परम्परागतों से
ही, माना गया है कि यह
शिव संकल्प को कहा जाता है। आज का जो दिवस है वह केवल गंगा अवतरण का ही नहीं है
परन्तु जहाँ गंगा अवतरण का है क्योंकि आज के दिवस परमपिता परमात्मा की प्रतिभा के
आधार पर सूर्य का निर्माण हुआ। सूर्य को भी हमारे यहाँ शिव कहा जाता है। उसकी नाना
प्रकार की किरणें हैं वह जटावासी कहलाई गई है। वह जो शिव सुन्दर है, शिव है, शिव परमात्मा को,इसलिए कहते हैं, क्योंकि वे
परमपिता परमात्मा का संकल्प है और परमात्मा का जितना भी संकल्प होता हैं,वह सर्व
ब्रह्माण्ड को क्रियाशील बना रहा है। जैसे एक मानव का संकल्प होता है,मानवीय
संकल्प है एक माता का प्रिय पुत्र है,परन्तु ऐसा ही पिता का होता है,माता के
प्रति एक संकल्प है,एक महान शिव संकल्प है उसके मस्तिष्क में कि यह मेरा पुत्र है,परन्तु पुत्र
का संकल्प ही तो उसके मस्तिष्क में रहता है और पुत्र के हृदय में यह संकल्प रहता
है,यह
मेरी मातेश्वरी है, इसके
उदर से मैंने जन्म को ग्रहण किया है। आदरणीय मातेश्वरी के गर्भ में, मैंने अपनी प्रतिभा को प्राप्त किया
है। आज मुझे इसका निरादर नहीं करना है।
परन्तु इस प्रकार का संकल्प दोनों के हृदय में
होता है। इसी प्रकार पति-पत्नी का संकल्प होता है। उसमें भी शिव का
एक संकल्प होता है। वाक्य उच्चारण करना यह है कि जितना भी यह जगत है यह सब उस
प्रभु का संकल्प है,उस
शिव का संकल्प है। उसी संकल्प के आधार पर यह संसार की चेतना चल रही है। संसार अपनी
क्रिया में क्रियाशील हो रहा है,उसकी जो क्रिया है,उसकी जो चेतनावत है,उसी में महान शिव का एक संकल्प है।
वह जो शिव का उज्ज्वल संकल्प होता है, वही मानवीयता को पवित्र बनाने वाला है इससे मानवता को प्राप्त हो जाता है परन्तु मानवता में हृासपन
नही आता,इसीलिए
हमारे आचार्यों ने कहा है कि मानव को संकल्प कर लेना चाहिए। परमात्मा की, माता की प्रतिभा,माता का
संकल्प है कि मेरा पुत्र परमाणुओं का समूह विराजमान है, आत्मा का ही तो संकल्प है, यह शरीर
परमाणुओं का बना हुआ यह ज्यों का त्यों पिण्ड के रूप में रहता है। जितना भी
पिण्डवाद है उसमें प्रभु उस शिव का एक उज्ज्वल संकल्प होता है
मेरे
प्यारे ऋषिवर! वह जो संकल्प होता है उसी संकल्प के आधार पर हमें अपने जीवन,अपनी मानवीयता को विचार-विनिमय कर
लेना चाहिए। एक मेरी प्यारी माता है,परन्तु उस माता के प्रति एक अपने प्रारब्ध के ऊपर उसे विश्वास
होता है,उसमें संकल्प
आ जाता है कि वो प्रभु ही रचता है। वह जो संकल्पवाद है,वही मानव को स्थिर करने वाला है,वही जीवन का एक कृत घोष कहलाया गया
है। हमारे यहाँ शिव के समय यह जो एकादशी,ऐसी मेरे प्यारे महानन्द जी प्रेरणा
दे रहे हैं। आज मेरे प्यारे महानन्द जी भी शिव के ऊपर कुछ सूक्ष्म सा अपना प्रकाश
देंगे। मैं तो केवल इतना वाक्य उच्चारण करने के लिए तत्पर रहता हूँ कि यह जो प्रभु
का महान संकल्प,शक्ति के आधार पर यह जो जगत स्थिर हो रहा है। एक पिता के हृदय
में यह कल्पना है,यह संकल्प है कि यह मेरी पुत्री है परन्तु पुत्री के प्रति उसे
कितना संकल्प है।
एकादशी व्रत
इसी
प्रकार शिव नाम उस महान प्रभु का है, और प्रभु का ही जो संकल्प है कि यह जगत अपना कार्य कर रहा है।
एकादश हमारी इन्द्रियाँ हैं,यह आत्मा का विशेषण संकल्प कहलाया गया है कि
मेरी इस यज्ञशाला में यह दस पात्र हैं और ग्यारहवां मन होता है पात्रों में आहुति प्रदान करने वाला जैसा हमारी
योग की परम्परा में महाराजा शिव और पार्वती दोनों के शब्दार्थों में ऐसा विवरण
प्रायः आता रहा है। जैसे हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि एकादश का अभिप्राय यह है,प्रायः हमारे
यहाँ एकादशी व्रत को प्रायः बहुत उज्ज्वल माना जाता है। आज से नहीं परम्परा से ही
पवित्र माना गया है। हम भी
एकादशी व्रत को सदैव से धारण करते चले आए हैं और भी ऋषि मुनियों का ऐसा
सिद्धान्त रहा है। आचार्य जन कि अन्न को त्यागना ही हमारे लिए एकादशी नहीं। अन्न
को त्यागना भी वैज्ञानिक रूपों से परिणत और सम्बन्धित किया गया है। हमारे जीवन का
जो सम्बध है,वह
उस महान प्रकृतिवाद से रहता है, अन्न
से रहता है। अन्न में कई प्रकार के दोष अवृत दोष होते हैं।
सूर्य गति से तिथियाँ
क्योंकि
एकादशी यह जो सूर्य की गति के आधार पर हमारी एकादशी बनती है, जैसे पञ्चमी बनती है,षष्ठी बनती है, सप्तमी बनती है, अष्टमी बनती है, नवमी बनती है और दशमी बनती है।
द्वादशी बनती है, त्रयोदशी
बनती है, चतुर्ददशी
बनती है, इसी प्रकार
एकादशी का सबसे प्रथम ऐसा महत्व क्यों माना है? वास्तव में जितनी भी तिथियाँ होती हैंउन
सबकी जो गति होती है वह सूर्य की गति के आधार पर होती है। जिस समय द्वादशी होती है
द्वादशी का जो प्रभाव है। वह एक महत्वपूर्ण माना गया है। द्वादशी में कृतिका और
भानु दोनों नक्षत्रों की प्रतिभा रहती है। वह जो प्रतिभा है, वह मानव के पिण्ड में भी उसी प्रकार
गति करती है। अहा माता के वह जो दिवस होता है वह बड़ा सुन्दर और महान होता है।
उसमें इस विज्ञान में,मैं अधिक नहीं जाना चाहता हूं केवल तुम्हें
यह विज्ञान का वाक्य प्रकट करा रहा हूं। अष्टमी में भी दोषारोपणों की वास्तव में
प्रकृति में कोई दोषण हो जाता हैं,वह चन्द्रमा की गति के आधार पर,क्योंकि पुष्य और जेष्ठाय नक्षत्र
दोनों की प्रतिभा इसमें प्रतिष्ठित हो जाती है,इसलिए उनका अच्छी प्रकार स्पष्टीकरण
नहीं हो पाता। परन्तु आज का वह जो एकादशी आज मैं सभी तिथियों के सम्बन्ध में अपना
प्रकाश नहीं देना चाहता।
वेद के
ऊपर विचार-विनिमय
करना हमारे लिए ,उतना समय आज्ञा नही दे रहा है वाक् केवल यह है कि इस एकादशी के
दिवस मानव शिव का संकल्प करता है और संकल्प क्या करता है कि मैं संसार में
त्रुटियों को त्यागने का प्रयास कर रहा हूं। अपने जीवन को एक महान सूक्ष्म वेला
में लेना चाहता हूँ। बाह्य जीवन सूक्ष्मतम् बन जाएं और आन्तरिक जो जीवन
विस्तारवादी बन जाएं। क्योंकि विचार मेरा विस्तार का हो और मेरे जितने दोषण हैं
उनमें बहुत संकुचितवत होना चाहिए। वह मेरे द्वारा सिमट जाएं इसी प्रकार मेरे मन
में एक संकल्प रहा है,इस प्रकार का जब मानव का संकल्प रहता है। तो
यहाँ मानव तुच्छवत को प्राप्त नहीं होता।
एकादशी
मेरे
प्यारे ऋषिवर! एकादशी का अभिप्रायः क्या है? एकादशी के व्रत का अभिप्राय यह है कि व्रत
नाम है संकल्प का, व्रत कहते हैं संकल्प को और एकादशी कहते हैं कि पांच
ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और पांच कमेन्द्रियाँ हैं और ग्यारहवां मन कहलाया गया है।
क्योंकि यह मन ही संकल्प की प्रतिभा का एक प्रतीक माना गया है, इसमें प्रायः ऐसा कहा जाता है कि
इसमें अन्न को ग्रहण नहीं करना चाहिए। और अन्न को क्यों नहीं ग्रहण करना चाहिए?
हमारे यहाँ ऐसा कहा गया है
कृत्तिका और भानु नक्षत्र दोनों का प्रभाव सूर्य की किरणों में होता है। सूर्य की
किरणों की जो प्रतिभा है,वह अन्न में जाती है,क्योंकि अन्न का जो स्थूलवत है,वह सूर्य की
किरण के आधार पर ही स्थित रहता है। उसी से उसमें एक क्रीड़त गति होती है,उसी गति के आधार पर कुछ वैज्ञानिकों
ने कहा है,जो
वैदिक वैज्ञानिक हुए हैं,परम्परागतों
वाले जो वैज्ञानिक हुए हैं,उन्होंने कुछ ऐसा माना है कि वह सूर्य की किरणों
के आधार पर कुछ ऐसा माना है कि अन्न में किसी प्रकार का एक विषधर हो जाता है। व्रत
नाम संकल्प का है और एकादशी का अभिप्रायः यह है कि हम मन, वचन और कर्म से ही अपनी इन्द्रियों को संयम
में बनाएं।
मन का महत्त्व
पांच
ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच
कर्मेन्द्रियाँ, और
उनके साथ में लगा हुआ जो मन है,जिसे एकादश कहते हैं, एकायतुक यही इन्द्रियों का प्रतीक माना गया
है। बिना मन के इन्द्रियों का अपना कोई भी अस्तित्व नहीं होता,अस्तित्व
क्यों नही होता? क्योंकि
मानव के नेत्रों की ज्योति चलती है,उसमें मनीराम ही विराजमान रहते हैं। मन के
आधार पर ही यदि मन नेत्रों के साथ लगा हुआ है, तो नाना प्रकार की चंचलता, नाना प्रकार का उदारपन नेत्रों के
समीप आता रहता है। इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय के साथ मन होता है। परन्तु वह जो
मन की प्रतिभा है,मन की जो स्थिति है,वह जो मन का एक प्रत्येक प्रवाह माना गया
है। तो मन की वह जो चेतना है,मन
का जो विभाजनवाद है,वह इन्द्रियों को ही अपना अस्तित्व दे करके, इन्द्रियों
को विरेक करता रहता है।
तो आज
का दिवस इसलिए हमारे यहाँ परम शोभनीय माना गया है कि आज के दिवस शिव के संकल्प के आधार पर, सूर्य
का निर्माण हुआ। क्योंकि
सूर्य अपनी सम्पन्न कलाओं से युक्त हो गया था। आज के दिवस, चन्द्रमा की भानकेतु, चन्द्रमा की कृति कान्त अन्वेषणों में उसमें
भी एक प्रतीक माना गया है।
तो आज के दिवस जो एकादशी,जिसको
शिवरात्रि कहा जाता है इसको शिवरात्रि क्यों कहते हैं क्योंकि यह सबसे प्रथम रात्रि
संसार में आई। जब संसार की रचना हुई,तो
सबसे प्रथम रात्रि शिवरात्रि, जिसको एकादशी कहा जाता है। कुछ ऐसा भी माना गया है,हम जब यह स्वीकार करते हैं कि एकादशी
व्रत धारण करने से जीवन की प्रतिभा को ले करके ही, जीवन में एक महानता की ज्योति प्रकट
हो जाती है,उससे ही
जीवन का एक उज्ज्वल लक्ष्य हमारे समीप आने लगता है।
तो आज
का वह शुभ,शोभनीय
एक दिवस है,रात्रि है,जिसमें मानव पिंड का निर्माण हुआ।
सबसे प्रथम मानव पिंड रूप में जागरूक हो गया था,जागरूक हो जाने के कारण क्योंकि वह
शिव का संकल्प था,परमात्मा
के संकल्प के आधार पर ही मानव अपनी सम्पन्न कलाओं से परिपक्व हो गया था। उसी को
हमारे यहाँ जीवन की एक स्वात धारा कहा जाता है, जिसको अपनाने के पश्चात् हमारे जीवन
में एक आनन्दवत उत्पन्न हो जाता है,जिसको
धारण करने के पश्चात्,हमारी
इन्द्रियों में एक महान संकल्प की पवित्र धारा ओत-प्रोत हो जाती है।
तो आज
हम अपने शिव संकल्प को अपनायें क्योंकि वह संकल्प ही हमारे जीवन के साथी है। मानव
एक मिथ्यावाद को अपना लेता है,अनायास
ही मिथ्या उच्चारण करता है,परन्तु
वह उसका शिव संकल्प नही होता,मानव
का संकल्प वह होता है जिसमें मानव अपनी प्रतिभा बना लेता है,अपना संकल्प बना लेता है,कि जो मैंने
कहा है वह मुझे करना है, वह क्रियात्मक में लाना है। जब मानव का इस
प्रकार का संकल्प हो जाता है,तो उस मानव के जीवन में,इन्द्रियों को संयम में करने की
शक्ति प्रबल हो जाती है। इन्द्रियों को संयम में करना ही उसका लक्ष्य एक हो जाता
है। आज उस लक्ष्यवाद को हमें जानना है। उसी लक्ष्यवाद के आधार पर अपने मानवीय समाज
को ऊँचा बनाना है।
तो
मानव एकादशी के व्रतों को क्या महत्व देता है-एकादशी ,शिवरात्रि,जिसमें शिव का संकल्प भी होता है। शिव का संकल्प उस
रात्रि इस दिवस को आज की रात्रि के दिवस तो मानव का निर्माण हुआ, सूर्य
का निर्माण परिपक्व हो गया था इसीलिए मानवीय जाति में शोभनीय माना जाता है।
यही दिवस हमारे लिए शोभा,हमारे
संसार के लिए उज्ज्वल कहता रहा है संसार में प्रायः एक महान ज्योति उसमें जब ही
प्रविष्ट हो जाती है,जब मानव में व्यापकवाद में संकल्पवाद की प्रतिभा
होती है
तो हमारे यहां शिव पर्वतों को भी कहा
जाता है। शिव नाम परमात्मा का भी है। शिव नाम आत्मा को भी कहा गया है। शिव सूर्य
को भी कहा गया है,परन्तु यहाँ शिव की जो महिमा है वह केवल जैसा हमने
अभी अभी कपिल मुनि के वाक्यों को अभी-अभी हमने प्रकट कराया था,सुखमञ्जस
इत्यादि के आधार पर परन्तु उसमें जाना हमारे लिए शोभा नहीं देता। वाक्य केवल यह है
कि यह कहा जा सकता है कि महाराज भागीरथ इस गंगा को पर्वतों से,इस
महान पृथ्वी मण्डल पर ले आये। लाने का अभिप्राय क्या था, कि
यह संसार सुखद बनें,मेरा राष्ट्र सुखद बने,क्योंकि वह जहाँ-जहाँ
शंख की ध्वनि को करते चले जाएं, जहाँ-जहाँ अपनी प्रतिभा को लेते चले आये, वहीं
गंगा का प्रवाह, पृथ्वी मण्डल पर आता रहा है।
जब हमारे यहां राजा सगर की परम्पराओं में
ही राजा सगर के साठ हजार पुत्र कहलाए गएं हैं। पुत्र क्या उनके यहाँ साठ हजार सेना
का समूह रहता था,वह सब उनके पुत्र के तुल्य था। उनको अभिमान की प्रतिभा आ गई थी। उन्होंने
पृथ्वी में गढ़ढे बनाएं,
प्रधांगगिरि किया, निर्माण किया,नाना
निर्माण करने के पश्चात् वह महाराजा सुखमञ्जस ने भी वही कार्य किया। इसी प्रकार और
भी राजा हुए जैसे सुखमञ्जस के पुत्र रेणुकान्त राजा हुए उन्होंने भी यही किया।
रेणुकांत राजा के पुत्र शोभिन नाम के राजा हुए वह भी यही कार्य करता था। सुगनात
नाम के राजा थे परन्तु वह भी यही करते थे। इसी प्रकार यह प्रायः गंगा को पर्वतों
से,पृथ्वी पर लाने का नाना प्रयास करते रहे। प्रयास करने का परिणाम यह हुआ कि
वह कुछ काल के पश्चात सातवीं प्रणाली में महाराजा सगर जो सौनात नाम के राजा के
पुत्र कहलाए जाते थे,परन्तु देखो, वह उन राजाओं की परम्पराओं में ऐसा
प्रायः प्रयास होता रहा अन्त में राजा सगर को उसका श्रेय प्राप्त हुआ श्रेय
प्राप्त होते हुए,उन्हें गंगा को पृथ्वी पर लाने का श्रेय प्राप्त हो गया क्योंकि वह संसार
को जलमय, आनन्दवत में बनाना यह राजाओं का कर्त्तव्य होता है।
अब
मेरे प्यारे महानन्द जी अपने कुछ सूक्ष्म से विचार व्यक्त कर सकेंगे। समय तो इतना
नहीं है, जो मेरे
प्यारे महानन्द जी अपनी कुछ विवेचना कर सकें परन्तु चलो कुछ सूक्ष्म समय प्रदान
किया जा रहा है।
पूज्य
महानन्द जीः-यम
रथाः यम गताः यौ शिवं मना चरयच्चतं ग्राम वजेवो स्वरी गतामानं ब्रह्मा
मेरे
पूज्यनीय गुरुदेव! ऋषि मण्डल! भद्र समाज! मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने यह अमूल्य
समय प्रदान किया। जिस समय में मेरे पूज्यपाद गुरूदेव के विचारों का प्रवाह चल रहा
था,और शिव संकल्प के
सम्बन्ध में भी, इनका
विचार विनिमय हो रहा था। मुझे इस सम्बन्ध में कोई विशेष चर्चा नहीं करनी है। केवल
विवेचना यही करनी है एकादशी शिव संकल्प प्रह्वे आज का वह पुनीत और उज्ज्वल दिवस है जिसको हमारे यहाँ
शिवरात्रि कहा जाता है। शिव रात्रि की प्रायः पूज्यनीय गुरुदेव ने सभी वार्त्ता
प्रकट कर दी है। वैज्ञानिक रूप भी हमारे समक्ष नियुक्त किया है और व्यावहारिक रूप
भी हमारे समक्ष नियुक्त किया है परन्तु जहाँ मैं यह उच्चारण करने जा रहा हूं कि
हमारे यहाँ शिवरात्रि कहते किसे हैं? इसको शिव रात्रि क्यों कहा जाता है? ऐसा
भी हमारे यहां पर्व माना गया है, इसको शिवरात्रि क्यों कहा गया है महाराज जो शिव थे, उन्होंने
राष्ट्र को अपनाया राष्ट्र को अपनाते समय उसी दिवस एकादशी का दिवस था। इसीलिए राजा
ने अपने राष्ट्र में एकादशी व्रत का पालन
कराया था। वास्तव में यह वाक्य परम्परा से ही चला आ रहा था, परन्तु
यह वाक् कोई नवीन नहीं था। राजा के लिए एक शुभ अवसर और भी प्राप्त हो गया। इसलिए
मानवीय समाज में हम यह वाक्य भी उच्चारण करने के लिए तत्पर रहते हैं, कि
वास्तव में जो शिव संकल्प है, वही मानव का जीवन है, वही राष्ट्र का जीवन है। महाराजा शिव ने
अपने राष्ट्र में संकल्प बनाया कि मेरे राष्ट्र में इतने ऊँचे विचारों वाली प्रजा
होनी चाहिए,जैसे कैलाश पर्वत होता है। कैलाश पर्वत जितना विशाल है ऐसे ही मानव के विचारों
में भी विशालवाद होना चाहिए। उसी विशालवाद से राष्ट्र और समाज दोनों ही उन्नत बना
करते हैं। जहाँ मैं यह
वाक्य उच्चारण करने जा रहा हूं,आज की जो शिवरात्रि है,वह बड़ी ही महान शोभनीय होती है,
परन्तु आज का जो मानव है-वह
जहाँ शिव रात्रि का व्रत धारण करता है,इन्द्रियों पर संयम नहीं रह पाता है।
जहाँ इन्द्रियों पर संयम नहीं रह पाता,वहाँ शिवरात्रि उसके लिए और भी हानिकारक
हो जाती हैं। हानिवत हो जाती है। हमें विचारना है कि वास्तव में हम शिवरात्रि को
अपनाना चाहते हैं, परन्तु हम अन्न को भी त्यागना चाहते हैं,अन्न को त्यागने से पूर्व हमें यह
विचारना है,कि हमें अपने उदर को भी सुन्दर बनाना है। उदर में किसी प्रकार का रुग्ण
नहीं होना चाहिए, विषधर नहीं होना चाहिए,जिससे मानव रुग्ण हो करके ऐसे नष्ट हो
जाएं जैसे सायंकाल का सूर्य समाप्त हो जाता है।
इसी
प्रकार जब मुझे प्राप्त होता है,मेरे
पूज्यपाद गुरुदेव ने मुझे यह समय प्रदान किया है। आज का समाज तो एकादशी का व्रत धारण करता है वह केवल रूढ़िवाद
से करता है। रूढ़िवाद क्या है? आधुनिक काल में हमारे मस्तिष्कों में
सबसे प्रथम वह विचारधारा रहती है कि मैं सनातनी न कहलाऊं, परन्तु
बहुत से इस व्रत को करते हुए इसलिए लज्जित होते हैं,कि
मैं यह कार्य करूंगा,तो सनातनी बन जाऊँगा। सनातनियों के मस्तिष्क में यह विचारधारा रहती है कि
यदि मैं व्रत नहीं करूंगा तो कोई मुझे आर्य व्रत कहेगा,कोई
आर्य समाजी कहेगा। इस प्रकार की विचारधारा उनके मस्तिष्कों में प्रायः आ जता है।
परन्तु जहाँ संकल्प है,अच्छाइयाँ हैं,
वह संसार में मानव के लिए एक ही तुल्य मानी गई है। उसमें
किसी प्रकार विवाद किसी भी काल में नहीं होता।
परन्तु
जहां एकादशी, शिवरात्रि में जागरूक रहना बहुत अनिवार्य
है। ऐसा भी माना गया है परन्तु क्यों माना गया है? क्योंकि
इस दिवस में इस कृतिका नक्षत्र में,क्योंकि जहां एकदाशी आती है वहाँ सूर्य
की किरणों का सम्बन्ध अधिक होने के नाते ही कृत्तिका और वृद्धभानु दोनों नक्षत्रों
की प्रतिभा रहती है,
जो मध्यरात्रि में, उस नक्षत्र की प्रतिभा समाप्त हो जाती
है। इस रात्रि में मेरी गर्भवती पुत्रियाँ हैं,उनको
तो प्रायः जागरूक रहना ही चाहिए,क्योंकि कृत्तिका और वृद्धभानु जो दोनों नक्षत्र हैं
इनमें बहुत-सी मेरी पुत्रियों के गर्भ में जरायुज में किसी प्रकार का दोषारोपण होने
की आशंका रहती है,क्योंकि जो पिण्ड है,वही
ब्रह्माण्ड है। इसी प्रकार यह कल्पना शोधनवत की हुई है। जब हम यह विचारने लगते हैं
कि वास्तव में प्रायः ऐसा होना चाहिए,तो जीवन की प्रतिभाओं में एक महानता की
ज्योति जागरूक हो जाती है। तो आज का जो दिवस है वह बड़ा ही महान शोभनीय और विचारणीय
सुन्दरवत् कहलाया गया है।
तो,आज का समाज तो अन्न को त्यागने को व्रत
स्वीकार करता है,परन्तु वास्तव में सनातन और समाज में किसी प्रकार का
अन्तर्द्वन्द्व नहीं होना चाहिए। यह तो सभी के लिए एक ही तुल्य होता है, जो
इन्द्रियों को संयम में बनाना है, संकल्प है, विचारधारा को शोधन करना है, शारीरिक विज्ञान को और
इस भौतिक विज्ञान को पान करना है,यह सभी के लिए उत्पन्न होता है|जो
आज हमारे जीवन में एक महान् और सुन्दर वाक्य कहा गया है जिससे हम यह विचारने लगते
हैं कि वास्तव में हमारा जीवन, उन्हीं वाक्यों से सुगठित रहता है,जिन
वाक्यों में जीवन की प्रतिभा का, एक नवीन प्रतीक होता है इससे हमें उसे अपनाने में
किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए।
आज मैंने अपने पूज्यनीय गुरुदेव से याचना की और
यह कहा कि भगवन्! शिवरात्रि के सम्बन्ध में अपना कुछ प्रकाश दीजिए।
मेरे पूज्यपाद गुरूदेव ने शिवरात्रि के पर्व को बहुत ही सुन्दरवत माना है। मैं भी
यह स्वीकार करता रहा हूँ कि जो शिवरात्रि है इसमें मानव को जागरूक रहना,तो
कोई विशेषकर तो नहीं होता,परन्तु कुछ होता भी है,जो
वैज्ञानिक रूपों से इसका सुगठित सम्बन्ध होता है। परन्तु उसमें मानव क्रिया,कर्म
और वचन सभी में एक तुल्य रहना चाहिए। जैसे रात्रि में अंधकार होता है, तो
अन्धकार सामान्य होता है,प्रकाश होता है| तो
प्रकाश भी सामान्य होता है। इसी प्रकार जो शिव का संकल्प है,अहा
मानव इसी दिवस अहा जागरूक रहने का उन्होंने प्रयास किया,क्योंकि
यदि वह जागरूक नहीं रहते,तो जीवन की प्रतिभा में प्रकाश नहीं हो सकता था।
मानव को रूढ़िवाद में नहीं जाना चाहिए, केवल एकवाद में रमण करते हुए व्रत को
धारण करते चले जाओ। व्रत नाम संकल्प का है। व्रत नाम अच्छाइयों को लाना है, दुरितानि
जो है, जो जितने भी दुर्गण, जितने भी दुर्व्यवहार हैं उनको त्यागना है। अन्न को
त्यागना ही कोई व्रत नही कहलाता। केवल क्षुधा को पीड़ित बनाना ही व्रत नहीं कहलाया
जाता। व्रत नाम तो संकल्प में रहता है, व्रत तो
मुनष्यों के मस्तिष्कों में, मन में, इन्द्रियों में सब में विराजमान रहता है।
उसी संकल्प के आधार पर जीवन एक महानवत को प्राप्त हो जाता है।
पूज्यपाद गरुदेवः- मेरे
प्यारे ऋषिवर!
आज मेरे प्यारे महानन्द जी ने, शिव
के ऊपर अपनी एक विचारधारा प्रकट की कुछ सूक्ष्म से शब्दों में इन्होंने विचार
व्यक्त किया कि मानव को रूढ़िवाद में नही जाना,क्योंकि
रूढ़िवाद मानव को ऐसे गढ़ेले में ले जाता है, ऐसे मार्ग पर ले जाता है, जहाँ
उसे प्रकाश नहीं प्राप्त होता। अन्धकार छा जाता है तो इसलिए मेरे प्यारे महानन्द
जी ने बहुत सुन्दर शब्दों में अपने विचार व्यक्त किये। क्षुधा से क्षुधित होना
व्रत नहीं है। व्रत नाम अपनी इन्द्रियों को विचारशील बनाना है, इन्द्रियों
के ऊपर अनुसन्धान करना है यह आज के शिव के व्रत का अभिप्राय है। आज का हमारा वाक्य समाप्त। अब
वेदों का पाठ होगा। ( जे-१० जोरबाग रोड पर दिया हुआ प्रवचन)
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