वैज्ञानिक कुम्भकरण
कुम्भकरण का बाल्यकाल का नाम
अश्विनीकेतु था। किन्तु महर्षि भारद्वाज ने उसका नामकरण कुम्भकरण इसलिये कर दिया,
क्योंकि वह बलवान था,बलिष्ठ था,विशाल हृदय का था। क्योंकि जैसे कुम्भ का जल शीतल होता है वैसा ही शीतल
सौम्य स्वभाव का कुम्भकरण था। उसका मस्तिष्क इतना विशाल था जैसे कुम्भ आकार होता
है। उनमें विशेषता थी कि वह निद्रा को बहुत सूक्ष्म पान करते थे, क्योंकि वह सदैव अनुसंधान मे लगे रहते थे।
याज्ञिक कुम्भकरण प्रातःकाल
यज्ञ करते, यज्ञ में जब स्वाहा करते थे,तो वह २८४ प्रकार की
औषधियों को एकत्रित करके सामग्री बनाते थे। और, वह जो साकल्य
था,वनस्पतियाँ थी,किसी में अग्नि
प्रधान किसी में वायु प्रधान व किसी में जल प्रधान होता था,उनका
साकल्य बना करके आहुतियां देते थें। उनके यहाँ नौ कोण वाली यज्ञशाला थी,उस नौ कोणो
वाली यज्ञशाला में जब सुगन्धित सामग्री प्रदान की जाती थी,तो उसमे सुगन्धि उत्पन्न
होती थी। उन सुगन्धियों को अपने यन्त्रों में एकत्र कर लेते थे और फिर उन परमाणुओं
के द्वारा मंगल की यात्रा करते थे। एक समय जब उन्होने उड़ान उड़नी प्रारम्भ की, तो
ऐसा कहा जाता है कि दो दिवस और दो रात्रियों में वह मंगल मे पंहुच गये थे। ( ११
मार्च, १९७२,
ग्राम माछरा )
क्रोध पर अनुसन्धान
राजा रावण के काल में विज्ञान
बहुत प्रियतम में मे था। कुम्भकरण, अश्विनी कुमार और सुधन्वा
एक समय नगरी में कहीं भ्रमण कर रहे थे,तो रात्रि समय मे एक पत्नी,अपने पति से क्रोध कर रही थी, वह अत्यन्त क्रोध कर
रही थी। जब क्रोध करते करते वह पृथ्वी पर ओत-प्रोत हो गयी तो मुनिवरो! उस माता में
जितना विष बलवती हुआ,उसे उन्होने यन्त्रो मे उसके क्रोध को
परिणित कर लिया। ऐसा कहा जाता है कि उस माता के गर्भ स्थल में षष्ट मास का गर्भ
विद्यमान था। जब अश्विनी कुमारों ने यन्त्र से दृष्टिपात किया और वहाँ के परमाणु
को यन्त्रो में ले करके उन परमाणुओ को विभक्त किया, विभक्त
करने से ऐसा उन्होने निर्णय दिया कि यह जो षष्ट माह का माता के गर्भ मे बाल्य है,
इस बालक की छटे माह मे बाह्य जगत मे आ करके मृत्यु हो जायेगी। राजा
के विघाता कुम्भकरण जो महर्षि भारद्वाज मुनि के यहाँ अनुसन्धान करते थे,वे अज्ञातवास मे रह करके अनुसन्धान करते रहते थे। उन्होने और अश्विनी
कुमारो ने वैद्यराज की दृष्टि से यह निर्णय दिया था। ( २० फरवरी, १९८०, बरनावा )
निंद्रा पर अनुसन्धान
महर्षि भारद्वाज मुनि के आश्रम
मे देखो पुलत्स्य ऋषि महाराज के जो पौत्र थे। वे मंगल की यात्रा करने को तत्पर
रहते थे। उनका विचार अनुसन्धान प्रायः चलता रहता था। एक समय महाराजा कुम्भकरण ने
यह कहा कि भगवन! मै यह जानना चाहता हूँ कि संसार मे निद्रा क्या वस्तु है उस समय
भारद्वाज मुनि ने कहा यह जो निद्रा है जिसको हम सुषुप्ति कहते है। यह सुषुप्ति
क्या है? मन, बुद्धि,चित और अहंकार एक स्थान मे आ जाने का नाम ही निद्रा कहलाई जाती है उसको
हमारे यहाँ सुषुप्ति कहते है। मन को जो व्यापार है मन की जो रचना है जो संसार मे
दृष्टा बना हुआ है उसके शान्त होने की अवस्था का नाम निद्रा है। परन्तु प्रकृति का
जो जागरूक अवस्था का व्यापार है वह जब समाप्त हो जाता है उसको निद्रा कहते है
सुषुप्ति कहा जाता है। ( ११ मार्च,
१९६२, माछरा मेरठ )
राजा रावण के विधाता कुम्भकरण
बड़े वैज्ञानिक थे। वह निद्रजीत कहलाते थे। मेरे पुत्र महानन्द जी ने मुझे कहा है
कि आधुनिक जगत ऐसा स्वीकार करता हे कि वह छः माह तक निद्रा मे रहते थे। परन्तु
बेटा! ऐसा नही वह छः माह तक निद्रा का पान नहीं करते थे। वह वर्षो तक निद्रा का
पान नहीं करते थे। निद्रा का अभिप्रायः आलस्य कहलाता है, निद्रा का अभिप्रायः अज्ञान
कहलाता है। परन्तु वह सूक्ष्म सा मन को विश्राम देते थे। मन, बुद्धि,चित्त,अहंकार को जब वह
विश्राम देते थे, तो मुनिवरो! वे अर्न्तध्यान हो करके
बाह्यजगत मे से अपने को समेट करके आन्तरिक जगत मे ले जाते थे, जिससे उन्हे आत्मिक शक्ति प्राप्त हो जाती थी। योग मे निद्रा नही होती।
योग तो परमात्मा का मिलान होता है। इसी प्रकार प्रकृति से जो मिलान करता है, परमाणुओ को जो संगठन करता है, परमाणुओ को एक-दूसरे मे पिरो
देता है, वह निद्रा
को प्राप्त नही होता। ( २४ अप्रैल,
१९७७, अमृतसर )
छः मास सोना व छः मास जागने का रहस्य
हमारे यहाँ ऐसा कहा जाता हे जो
मेरे प्यारे महानन्द जी ने कई काल मे वर्णन कराया कि आधुनिक काल मे उनके प्रति एक
प्रचलित वार्ता है कि कुम्भकरण छः माह तक निद्रा मे तल्लीन हो जाते थे और छः माह
वह जागरूक रहते थे। ऐसा कहा जाता है,
परन्तु मुझे ऐसा दृष्टिपात कराया गया था कि महाराजा कुम्भकरण
पर्वतो पर अनुसन्धान शाला मे छः मास के लिये चले जाते थे। छः मास मे वह अपनी
रात्रि के रूपो मे अपने को स्वीकार करते थे। मैं राष्ट्र मे नहीं हूँ। संसार मे
नहीं हूँ मेरा कर्तव्य है कि अपनी अनुसन्धानशाला मे विराजामन रहूँ! ठतना विज्ञान
उनके द्वारा था, मेघनाथ को भी उन्होने शिक्षा प्रदान की थी।
कुम्भकरण जैसा वैज्ञानिक, जिसका छः मास तक अभ्यास था,वह संसार की वस्तुओ मे
लोलुप नहीं होते थे। अहा! ऐसा उनका जीवन रहता था। राष्ट्र मे आते तो रावण की
विज्ञानशालाओं मे उदनके वैज्ञानिको को शिक्षा देते। इस प्रकार उनका जीन छः मास के
लिये लुप्त रहता था। छः मास के लिये उनका जीवन संसार मे, राष्ट्र मे होता था।
राष्ट्रीयकरण पर विचार-विनिमय होता रहता था।
इस प्रकार का विज्ञान हमारे
यहाँ प्रायः रहा है और आज यह वैज्ञानिको को और आत्मवेताओ दोनो को एक स्वरूप बनाना
चाहिये। जैसे कोई ब्रह्मवेता है, आज किसी ऋचा को जानना है, दर्शनो मे ऋचा का वर्णन आता है,
ऋचा का विचारक जो पुरूष होता है, एकान्त स्थान मे चला जाता है, भयंकर बनो मे चला जाता है अपने
मे ऋचा को अर्पित कर देता है। समर्पित कर देता है। वह ऋचा को जानने मे एक-एक ऋषि
को, बेटा! लगभग एक सौ और सहस्त्रो वर्ष व्यतीत हो गये है।
अहा! वह अपने को यही नहीं जान पाये कि-मै जगत मे हूँ,संसार
मे हूँ कहाँ हूँ? वह अपने को यह अनुभव कर लेते है कि-मै तो
चेतना मे हूँ। मेरी चेतना ही भिन्न है। इसी प्रकार जो वैज्ञानिक होते है वे एक-एक
वस्तु पर, एक एक परमाणु पर उन परमाणुओ मे जो धाराए होती है।
उन पर अनुसन्धान किया करते है। अहा! बेटा मुझे व समय और काल जब स्मरण आता है,
मै कहा करता हूँ कि वास्तव मे वह समाज, वह काल, किस प्रकार का था? मुनिवरो! देखो वह काल मुझे स्मरण है, वहाँ एक एक वैज्ञानिक कैसे छः
मास तक लुप्त हो जाता था और उस पर अनुसन्धान करता हुआ नाना प्रकार के परमाणु,
अस्त्रो का निर्माण करने वाला बनता था। इस प्रकार की धारा अनकी
प्रायः रही है। (०२ अगस्त, १९७०, जोर
बाग, नयी दिल्ली)
सात्विक खानपान
भारद्वाज मुनि महाराज के द्वारा
कुम्भकरण बारह वर्षो तक यौगिक क्रियाओ का अध्ययन करते रहे थे। मुझे स्मरण है वह
इतने अहिंसा परमोधर्मी थे कि वह पुष्पो का व पत्रो का पान करते थे। एक समय महर्षि
भारद्वाज मुनि महाराज ने उन्हे जाल,पीपल,वट, वृक्ष आदि के पांचांग का पान कराया था। उसके
पश्चात बारह वर्ष। तक उन्हे योग की विद्याओ, दर्शनो का अध्ययन और चन्द्रमा के
यातायात का वर्णन कराया था। (२० फरवरी १९८०,बरनावा)
भारद्वाज के विशेष शिष्य
राजा रावण के विधाता विशेष
वैज्ञानिक थे। भरद्वाज मुनि उनके गुरू कहलाते थे। वह एक समय अपने गुरु के चरणो को
छू करके यह उच्चारण करने लगे कि-महाराज! मै अन्तरिक्ष मे प्रवेश करना चाहता हूँ,
अन्तरिक्ष के विज्ञान मे रमण करना चाहता हूँ। भारद्वाज मुनि ने
उन्हे कुछ युक्तियां प्रकट कीं और महर्षि भारद्वाज के कथनानुसार राजा रावण के
विधाता कुम्भकरण एकांत हिमालय की कन्दाराओ मे विद्यमान हो करके छः मास तक निद्रा
का पान नहीं करते थें। वे ऐसे ही जागते रहते थे, क्योंकि वे
व्रती थे, वह आग्नेय अन्तरिक्ष के ऊपर विचार-विनिमय कर रहे
थे, अन्तरिक्ष के परमाणुओ मे अग्नि की पुट लगा रहे थे। वायु
के परमाणुओ मे अग्नि की पुअ लगा कर, एक यन्त्र उन्होने
अन्तरिक्ष मे त्यागा था। डेढ़ करोड़ वर्ष की आयु वाला वह यन्त्र है, उस यन्त्र की यह विशेषता रही और
वह आज भी गति कर रहा है, जिस प्रकार एक लोक दूसरे लोक की परिक्रमा कर रहा है, इसी प्रकार आकाश मे वह यन्त्र भी गति कर रहा है। कुम्भकरण
ने हिमालय की कन्दराओ मे विद्यमान हो करके लगभग बारह वर्ष तक अनुसन्धान किया। बारह
वर्षो तक अनुसंधान करके उन्होने कुछ अग्नि के परमाणुओ को ले करके, कुछ जल के परमाणु ले करके,
कुछ पृथ्वी के पार्थिव कण को ले करके और विशेष वायु के
परमाणु ले करके उन्होने एक यन्त्र का निर्माण किया था, जो
पूर्व प्रणाली मे व्रनतकेतु ऋषि हुए थें, उनका उस यन्त्र मे
चित्र आने लगा। उस चित्रकेतु यन्त्र मे अंतरिक्ष से चित्र आने लगे। वह जिस प्रकार
अपने शिष्यो को उपदेश देते थे, उसको कम्ुभकरण अपने यन्त्रो
मे दृष्टिपात कर रहे थे।
राजा रावण के विघाता कुम्भकरण
भारद्वाज मुनि की विज्ञानशला से नाना यन्त्रो को पान करते हुए अपनी अस्सीवी
प्रणाली के जो ऋषि थे। उस समय के चित्रो का उसी प्रकार का आकार बना हुआ है। (२४
अप्रैल, १९७७,
अमृतसर)
विद्यार्थी और वैज्ञानिक-शिक्षक
कुम्भकरण भारद्वाज मुनि के यहाँ
अध्ययन करते रहे थे और उन्होने बारह-बारह वर्ष के अनुष्ठान वहां किये। वे गऊंओ के
दुग्ध का आहार करते थे, और गायत्री छन्दो मे अपने को ले गये।
वे छः माह भारद्वाज के विद्यालय मे विज्ञान की शिक्षा लेकर छः माह तक अज्ञातवास
लेकर हिमालय की कन्दराओ मे अपनी विज्ञानशाला मे अस्त्र-शस्त्रो का निर्माण किया
करते थे और वापस आकर छः माह लंका के विश्वविद्यालयो मे ब्रह्मचारियो को विज्ञान की
शिक्षा देते थे। जिनका जीवन इस प्रकार का आदर्शवादी हो उनके जीपन को, अपने पूर्वजो के जीवन को, इस समाज ने रावण ने अपनी
स्वार्थपरता से भ्रष्ट कर दिया। (१४ मार्च,१९८६, बरनावा)
भूवैज्ञानिक
भारद्वाज मुनि के आश्रम मे नाना
प्रकार के यन्त्रो का निर्माण होता रहा है और पृथ्वी के राजा रावण का जितना वंशज
था, वह भारद्वाज मुनि के शिक्षालयो मे अध्ययन करता रहा और
विज्ञान की शिराओ मे महाराजा कुम्भकरण तो उस समय पारायण थे ही। जब वह डड़ान उड़ते
रहते थ,े तो उन्होने पृथ्वी-अणु-अन्वेषण एक यन्त्र का
निर्माण किया था। जो पृथ्वी के गर्भ मे जितनी-जितनी दूरी तक को जो खनिज था उसका
चित्र उस यन्त्र मे चित्रण होता रहा है। कितनी स्वर्ण कितनी दूरी पर है, कौन सा खनिज है कितनी दूरी पर?
इसको वह ज्ञानी जन अनुसन्धान करते रहे है। (१४ फरवरी, १९८२, मोदीनगर)
सूर्य-विज्ञान के ज्ञाता
महाराजा कुम्भकरण ने भारद्वाज
मुनि से कहा कि-प्रभु! सूर्य किरणो को हम यन्त्रो मे कैसे ला सकते है। मै महर्षि
भारद्वाज मुनि के यहाँ इस प्रकार की विज्ञानशालाए थी। कि जिन विज्ञानशालाओ मे
सूर्य किरणो का निरोध किया जाता था। वे किरणो जल को पृथ्वी के गर्भ मे शक्तिशाली
बना करके उसके रूप का परिवर्तन कर रहीं थी। और राष्ट्र के वैज्ञानिक जनों ने
पृथ्वी के गर्भ से इस जल को ले करके उसका शोधन करके उसको कार्य-रूप दे दिया।
महर्षि भारद्वाज के यहाँ एक ऐसी विज्ञानशाला थी, जहाँ सूर्य
की किरणो को यन्त्रो मे लिया जाता था और सूर्य की किरणो से वाहन गति करते थे। राजा
रावण के यहाँ इस प्रकार के वाहन थे जो सूर्य की किरणो से गति करते थे, जिनमे कोई मंगल की परिक्रमा कर रहा है, कोई चन्द्रमा की परिक्रमा कर रहा
है, कोई शनि की
परिक्रमा कर रहा हैं सूर्य की किरणो से यन्त्रो मे गति रहती थी। (०२ मार्च, १९८२, बरनावा)
अन्तरिक्ष वैज्ञानिक
प्रायः ऐसा मुझे स्मरण आता रहता है कि रावण के
विघाता कुम्भकरण, ब्रह्मचारी
सुकेता व कवन्धि तीनो ने महर्षि भारद्वाज की निर्माणशाला मे एक यन्त्र का निर्माण
किया था और वह यन्त्र उन्होने चन्द्रमा और पृथ्वी के मध्य मे स्थिर किया। वह अपने
यन्त्र से उड़ान उड़ कर उस मध्य स्थित अनुसंधानशाला मे जाते और दोनो मण्डलो का
परीक्षण करते रहते थे। कहने का आश्य क्या है कि हमारे वहां ऐसी-ऐसी अनुसंधानशालाए
थी।
कुम्भकरण का विज्ञान इतना
नितान्त था कि एक समय भारद्वाज मुनि महाराज को यहाँ ब्रह्मचारी सुकेता और महर्षि
पनपेतु मुनि महाराज की कन्या शबरी और कुम्भकरण, इन तीनो ने एक यन्त्र मे
विद्यमान हो करके महाराज कुम्भकरण बहतर लोको का भ्रमण किया करते थे। मुझे स्मरण है
कि वह जब पृथ्वी से उड़ान उड़ते तो चन्द्रमा मे जाते, चन्द्रमा से उड़ान उड़ी तो मंगल मे
चले गये, मंगल से उड़ान उड़ी तो बुद्ध मे चले गये और बुद्ध से
उड़ान उड़ी तो बुध मे चले गये और बुध से उड़ान उड़ी तो शुक्र मे चले गये।
स्वर्ण मे सुगन्ध एवं प्राण-विद्या पर विचार
महर्षि कुक्कुट मुनि और प्राणका
सम्वाद चल रहाथा उनकी विचार धराएं प्रारम्भ थी। तभी राजा रावण के विधाता कुम्भकरण
भी उनके समीप आ पंहुचे। उनके चरणो को स्पर्श करके, वह आसन पर विद्यमान हो गये। कुम्भकरण
ने कहा, भगवन! लंका मे आपका पर्दापण किस समय हुआ? उन्होने कहा-कई दिवस हो गये जब मैने भयंकर वनो मे से इस लंका मे प्रवेश
किया है। मै यह दृष्टिपात कर रहा हूँ। कि तुम्हारा जो लंका का चलन है, लंका के वायुमण्डल की जो धाराएं
है वह मेरे अन्तःकरण को छूती रहती है और उन्हे स्पर्श करता हुआ उन्हे विचार विनिमय
करता रहता हूँ। कि लंका का वायु मण्डल अशुद्ध हो गया है। राजा रावण के विघाता
कुम्भकरण विद्यालयो मे ब्रह्मचारियों को विज्ञान की शिक्षा देते थे। उनकी विज्ञान
की चर्चाएं चलती रहीं। कुम्भकरण जी बोले,
प्रभु! मै हिमालय की कन्दराओ मे विद्यमान था। वहा। मैने कुछ
वैज्ञानिक तत्वो से ऐसा दृष्टिपात किया है कि सूर्य से कोई किरण आती है वह धातु और
रसो का पिपाद कनाती है। मेरे मन मे इच्छा है कि यह जो स्वर्ण धातु है यह धातुओ मे
सर्वश्रेष्ठ मानी गयी है। मै इसमे सुगन्धि लाना चाहता हूँ। प्रभु! क्या इसमे सुगनघ
आ सकती है अथवा नहीं, इस पर आपके विचार जानना चाहता हूँ।
जब यह वाक्य महर्षि कुक्कुट
मुनि ने श्रवण किया तो वह बोले, हे ब्रह्मणे कृताम, हे वैज्ञानिक कुम्भकरण! तुम इसमे सुगन्ध लाना चाहते हो? सुगन्ध का अभिप्रायः जानते हो कि सुगन्ध किसे कहते है? हमारी दृष्टि मे सुगन्ध, सौन्दर्य को कहते है। सौन्दर्य उसे कहते है, जिसके जीवन मे एक रसता रहे, एक रस
रहे, उस धातु के जीवन मे एक सुगन्धि सदैव उत्पन्न होती रहती
है। संसार की कोई धातु ऐसी नहीं है,
जिसमे सुगन्धि का प्रादुर्भाव न होता हो। एक विशेष प्रकार की
गन्ध उनमे आती रहती है। विशेष प्रकार की एक कृतिभा आती है, जिसका उस धातु के जीवन से समन्वय
रहता है। इसलिये आज तुम स्वर्ण मे सुगन्धि लाने के लिये इच्छा न प्रकट करो, क्योंकि स्वर्ण मे सुगन्धि तो
स्वतः ही होती है। उसका जैसा प्राकृतिक स्वभाव होता है, वह उसी मे रह करके उसी प्रकार की
सुगन्धि आती रहती है। उसमे सुगन्धि तुम ला नहीं सकोगे। कोई भी वैज्ञानिक सृष्टि के
प्रारम्भ से अब तक नहीं हुआ जो इसमे सुगन्धि ला सके। तुम्हारा एक विचार बना है।
परन्तु यदि तुम प्राण स्वरूप को ऊर्ध्वा से जानो तो स्वर्ण मे विशेष प्रकार की
सुगन्ध स्वतः होती है परन्तु उसमे घ्राण की शक्ति होनी चाहिये। यागियो ने
ब्रह्मवेताओ ने ऋषि-मुनियो ने नाना प्रकार की धातुओ को योग के द्वारा जाना है।
कुक्कुट मुनि बोले कि एक समय सोमकेतु महाराज जो की हमारे सत्रहवें महापिता थे सोम
केतु महाराज एक समय सब धातुओ को अपने समीप ला करके उसमे प्राण की आभा को परिणीत
करा रहे थे। तो उसमे एक विशेष प्रकार की सुगन्ध दृष्टिपात की, क्योंकि इस मानव के घ्राण के द्वारा प्राण गति करता है और प्राण मे नाना
प्रकार की धातुए गति करती रहती है। नाना प्रकार के परमाणु होते है जो पृथ्वी की
आभा मे रमण कर रहे है और उसका समन्वय प्राण से होता है क्योंकि प्राण ही संसार मे
सबको रसास्वादन प्राप्त कराता रहता है। वह विभक्त हो करके सबको रस देता रहता है।
जब ऋषि ने यह वाक्य उच्चारण किया तो कुम्भकरण ने उनके चरणो को स्पर्श किया और
उन्होने कहा, घन्य हे, प्रभु! मै अन्धकार मे था। मुझे
तो योगी बनना चाहिये क्यांकि योग से यह वाक्य सिद्ध होगा। विज्ञान से मै इन वस्तुओ
को नहीं जान पाँऊगा।
कुम्भकरण ने कहा, प्रभु! मै आपके द्वारा यह जानना
और चाहता हूँ कि हम यदि इस प्राण की साधना करना चाहते है तो प्राण की साधना कैसे
करे? महर्षि कुक्कुट मुनि ने कहा -यदि तुम प्राण की साधना
करना चाहते हो तो महर्षि भारद्वाज के द्वार पर चले जाओ। वह तुम्हें इसका निर्णय दे
सकेंगे। मेरा तो निर्णय केवल यही है कि संसार मे दो वस्तुओ का विभाजन होता है। दो
वस्तु संसार मे दृष्टिपात आ रही है। एक विभक्त क्रिया जो विभाजन कर रही है और एक
तो विभाजित हो रही है। दोनो वस्तुओ का जिस काल मे समन्वय हो जाता है, उसी काल मे योग की आभा उत्पन्न
हो जता है और मानव यागेश्वर बनने के लिये तत्पर हो जाता है। क्योंकि यह जात
सर्वत्र ब्रह्माण्ड है, चाहे वह मंगल मण्डल मे हो,
चाहे सूर्य हो नाना प्राकर की किरणो क्यो न हो परन्तु उनमे
जो धातु पिपाद आ रहा है, पृथ्वी पर आ रहा है, मण्डल मे जा रहा है, सूर्य की किरणो मे गति कर रहा है,
वह सब मनस्तव और प्राणत्व ही गति कर रहा है। जो इन दोनो का
समन्वय कर लेता है, वही
विज्ञान मे पारायण हो जाता है, वही महान बन जाता है, वह मृत्यु को विजय कर लेता है। संसार मे प्रत्येक मानव मृत्यु से विजय
होना चाहता है। कुम्भकरण! तुम्हे यह प्रतीत होगा कि मानव जितना भी प्रयास करता है
राजा के राष्ट्र मे विज्ञान की उड़ान उड़ी जाती है परन्तु जहाँ ऋषि मुनि होते है, वह योग की उड़ान डड़ते रहते है। वे
मृत्यु से बचने का प्रयास करते रहते है। विचारते रहते है कि मेरी मृत्यु नहीं होनी
चाहिय। ऐसा कौन सा सोमरस है जिसके पान करने से मानव मृत्यु से उपराम हो जाता है?
मेरी प्यारी माता मृत्यु से उपराम हो जाती है? ज्ञान से यही विचारता है कि परमाणुओ का मिलान हुआ है, इनका विच्छेद होना है। जो इस
प्रकार की प्रतिक्रियाओ को अपने मे विचारता है, चिन्तन करता है, वह मृत्यु के मूल को जान जाता
है। मृत्यु क्या हे, संकीर्णता को त्यागतना होगा।
मृत्यु क्या है, संकीर्णता
है, संकीर्णता मे
जितना भी मानव रमण करता रहेगा और व्यापकवाद उसके द्वारा नही होगा, वह मृत्यु के गृह मे, आंगन मे रमण करता रहेगा। मृत्यु उसको निगलती रहेगी, परन्तु
जिस समय वह ज्ञान और विज्ञान की आभा को ले करके रमण करता है, व्यापकवाद को ले करके गति करता
है। व्यापकवाद किसे कहते है, जो भी वस्तु मेरे द्वार है,
वह सर्वत्र प्रभु की आभा है, उसी की महानता हे। जो इस प्रकार
का अध्ययन करता है, वह
इस अज्ञान रूपी अन्धकार को समाप्त कर देता है। महर्षि। कुक्कुट मुनि महाराज ने यही
कहा-हे कुम्भकरण! यदि आज तुम महान बनना चाहते हो तो दो वस्तुओ के समन्वय का नाम
प्रकाश हे और दोनो का विभाजन हो जानाही अन्धकार को क्षेत्र कहलाता है। इसको तुम
जानने का प्रयास करों। (२६ नवम्बर,
१९८१, अजमल खां पार्क, नयी दिल्ली)
रावण के विधाता कुम्भकरण महर्षि
भारद्वाज की विज्ञानशाला मे विद्यमान हो करके उड़ान उड़ रहे है। स्वर्ण जैसी धातु मे
सुगन्धि लाना चाहता है। यह सुगन्धि कैसे आयेगी? इस सुगन्धि
के ऊपर वह विचार-विनिमय कर रहे है। मुझे भी अनुभव है कि महाराजा कुम्भकरण छः माह
तक अपनी प्रयोशाला मे रहते और छः माह तक वह विद्यालय मे विज्ञान के वैज्ञानिको को
शिक्षा देते रहते है। आधुनिक जगत तो यह कहता है कि कुम्भकरण तो छः माह तक निद्रा
मे रहता था, माँस को आहार करता था, सुरापान
करता था। परन्तु उनके जीवन की बहुत सी विचारधारा मुझे स्मरण है। उन्होने अपने जीवन
मे सुरापान नहीं किया। माँस का भक्षण नही किया। भारद्वाज की शाला मे जो वैज्ञानिक
हो वह भक्षक होगा या रक्षक होगा? वह रक्षक था, भक्षक नहीं था। वह विज्ञान की तरंगो को जानता था। विज्ञान कैसा विशाल था
कि एक-एक यन्त्र ऐसा कि आधुनिक काल मे उस यन्त्र का निर्माण भी नहीं हुआ है। निचले
स्थान पर जलाश्य बन गया है, ऊपर से अग्नि की वर्षा हो रही है,
सर्वत्र सेना नष्ट हो जाती थी। इस प्रकार का यन्त्र आधुनिक
काल मे अभी प्रारम्भ नहीं हुआ।(१८ मार्च,
१९७८, बरनावा)
महाराज कुम्भकरण का एक यन्त्र
था जिको चित्राग्नि यन्त्र कहा करते थे। वह चित्राग्नि यन्त्र इस प्रकार का था कि
वह सर्वस्व जितने भी इस पृथ्वी पर लोक है। और लोको मे जो यन्त्रो के केन्द्र है
उनसे सम्बन्धित उस यन्त्र मे चित्र आते रहते थे। महाराजा कुम्भकरण नक विज्ञान को
लगभग १०० वर्षो तक जाना। १०० वर्ष की आयु तक उन्होने उस पर अनुसन्घान कि। परन्तु
जितने भू-मण्डल पर राष्ट्र थे, सबके केन्द्रो का उनमे चित्रण
आता तो संसार के सब वैज्ञानिक दृष्टिपात करने के लिये पंहुचते थे। हमारे यहाँ
कुम्भकरण को सबसे अधिक वैज्ञानिक माना गया है।
विद्या का अधिकारी-कुम्भकरण
कुम्भकरण एक समय हिमालय कन्दराओ
मे चले गयें हिमालय की कन्दराओ मे उन्होने भुञ्जु महाराज से शिक्षा प्राप्त की।
क्योंकि भुञ्जु महाराज वायु मुनि महाराज के १५०००वें प्रपौत्र कहलाते थे। भुञ्जु
ऋषि महाराज के यहाँ पंहुचे और उनके द्वार पर जा करके उन्होने कहा, प्रभु! मै तो आपकी शरण मे आया हूं। उन्होने कहा क्या चाहते हो
ब्रह्मपुत्र! उन्होने कहा कि -मै विज्ञान चाहता हूं। मै अपने मस्तिष्क में विज्ञान
की प्रतिभा चाहता हूं। उन्होने कहा, तुम विज्ञान के अधिकारी
हो अथवा नही? उन्होने कहाकि यह मेरे मस्तिष्क को अध्ययन कर
कीजीये। भुञ्जु ऋषि ने उनके मस्तिष्क का अध्ययन किया। उन्होने कहा, तुम अधिकारी हो। उन्होने शिक्षा प्रदान की। उन्होने नाना प्रकार के
यन्त्रो का निर्माण, नाना प्रकार के धातु, अणु, महा-अणुओ का दिग्दर्शन कराया। उनका दिग्दर्शन
कराया और निर्देशन दिया-कि तुम अपने
विचारो मे सुन्दर और प्रतिभा लिप्त हो जाओ।
कुम्भकरण की रावण को शिक्षा
कुम्भकरण ने सबसे प्रथम रावण को
कहा था कि-राम से तुम संग्राम मत करो, राम से संग्राम करने
से तुम्हे लाभ नहीं होगा। यह कुम्भकरण की शिक्षा थी, परन्तु
रावण क्यांकि अधिकारी नहीं था राष्ट्र का,
उसने शिक्षा नहीं मानी। सबसे प्रथम कुम्भकरण ने यह कहा था हे
रावण! हे विधाता! यह तुमने क्या किया? तुम माता सीता का हरण
कर लाये! यह तुम्हारा कार्य नही। था। यह राजाओ का कर्तव्य नहीं होता है। यदि मुझे
इस राष्ट्र राष्ट्र का विचार न होता तो मै तुम्हे अस्त्रो-शस्त्रो तुम्हे नष्ट कर
देता! जब कुम्भकरण ने यह वाक्य कहा तो रावण ने कहा-तुम महान कायर हो। मेरे विधाता
नहीं हो। अहा! उन्होने यही वाक्य जाना कि मै क्या करूं? मै
विधाता के साथ हूं। (०२ अगस्त, १९७०, जोर
बाग)
कुम्भकरण का पश्चाताप
कुम्भकरण ने मुत्यु से पूर्व
कहा था कि-हे विधाता! पूर्व जन्म के संस्कारो के कारण कुबेर की लंका मे जन्म लेने
का सौभाग्य मिला।
पुलस्त्य ऋषि का वंशज होत हुए भी आज अपने जीवन पर कोई अनुसंधान नहीं किया, मैने
केवल आपको शान्त करने के लिये, आपके
राष्ट्रो के जीवो को सताया और कुछ नहीं किया। आज मेरे सब पाप मेरे समक्ष आ रहे है।
इस शरीर को त्याग करके मै अगले लोको मे जा रहा हूं। आज जिस गति से मेरी मृत्यु हो
रही है उससे तो मुझे वह योनि प्राप्त होगी जहाँ मुझे प्रकाश का अंकुर भी न मिलेगा।
(१८ जुजाई, १९६३, लोधी
कालोनी, नयी दिल्ली)
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