ईश्वरीय गान ही मानव जीवन की अनिवार्यता
संसार में जितने भी वेद-मन्त्र हैं,प्रत्येक वेद-मन्त्र,उस
महान् प्रभु की आभा है। उसी का गान गाते रहते हैं। परन्तु ऋषि-मुनियों ने वेदों से
उस वस्तु को व्यवहार में साकार रूप दिया,जिसका जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध माना जाता है। जैसे गायत्री चौबीस अक्षरों वाली
गायत्री कहलाती है। उसमें तीन व्याहृतियाँ मानी जाती हैं। हमारा यह स्थूल मानव
शरीर चौबीस तत्त्वों से बना हुआ है। प्रत्येक अक्षर का सम्बन्ध प्रत्येक तत्त्व से
माना गया है। इस मानवीय तथ्य को भी जानना है।उस महान प्रभु की प्रतिभा के विभाग
किए जाते हैं। कुछ शब्द इस प्रकार के हैं, जिनका सम्बन्ध प्राणों से है, कुछ का मन से
कुछ का मन,
बुद्धि, चित्त और
अहंकार से तथा कुछ का इन्द्रियों से है। परन्तु प्रत्येक अक्षर का जो बोधक है,यह हमारा शरीर है। ऋषि मुनियों ने इन वाक्यों को साकार रूप दिया। साकार रूप
देने का एक ही अभिप्राय था कि इसके ऊपर अनुसन्धान कर सकें ।गायत्री का अभिप्राय है,जो गायी जाती है। वेद का प्रत्येक शब्द गाया जाता है। जब ऋचा को गाते हैं तो
मन मग्न हो जाता है। 730312
वेदमन्त्र का जब हम विशुद्ध रुप से,गान रुप में जब हम परिणित करते है,तो बहुत सी ग्रन्थियाँ ऐसी है,जो उस मन्त्र
के चिन्तन करने से,मन्त्र को स्वरों से
उच्चारण करने से मानव के मस्तिष्क की ग्रन्थियों में स्पष्टीकरण आ जाता है और वो
जो मनुष्य के मस्तिष्क की ग्रन्थियाँ जहाँ-जहाँ स्पष्टीकरण होती है,जहाँ-जहाँ धारा
जाती है,वहाँ रूग्ण का विनाश होता रहता है। बहुत से रूग्ण इस प्रकार के हैं जो
आधुनिक काल की औषधियों से,उससे परी बन जाते हैं।
तीन
प्रकार से जाप
तीन प्रकार से जाप किया जाता है। एक वाणी से,एक शब्दों से और तृतीय,मन से किया जाता है,जो प्राण सूत्र में प्रत्येक शब्द को पिरो देता है। राजा ने,महर्षि विश्वामित्र नेवही किया। करोड़ो गायत्रियों का छन्दों सहित मनन किया और
आहार क्या करते थे, पत्रों,पुष्पों का
आहार करते हुए,कन्दमूल इत्यादि भयंकर वनों से लाना,क्योंकि साधना बिना अन्न के पवित्र हुए कोई माना साधक नही बन सकता। उन्होंने
जब जाप किया,तो उनका आत्मा पवित्र हो गया।
ऋत की प्रार्थना
उन्होंने बारह वर्ष का तप करके पुनः जब अपने गृह आश्रम में
प्रवेश किया,राज्य में,
तो राष्ट्र्र बड़ा कुशल है। आनन्दयुक्त है। तो अस्त्रों
शस्त्रों से को अपनाते हुए, धारण करके अश्व
पर सवार हो करके ये विचार किया,अब मुझे वशिष्ठ मुनि महाराज सेब्रह्म उपाधि को
प्राप्त करना है,भ्रमण करते हुए,उस समय का,यह नियम,एक ऋषियों की नियमावली बनी हुई थी कि ब्रह्म उपाधि देने
वाला,वशिष्ठ कहलाता था और वशिष्ठ क्योंकि ब्रह्मवेत्ता थे,तो उनके बिना
उच्चारण किए,
वह उपाधि प्राप्त नही हो सकती थी। जब भ्रमण करते हुए, वशिष्ठ आश्रम में प्रवेश किया तो माता अरूण्धति और वशिष्ठ मुनि महाराज
विद्यमान थे। क्योंकि ब्रह्मचारियों से उपराम हो गएं थे। उन्होंने कहा आईए, राजर्षि जी! विराजिए, अब राजर्षि
उच्चारण करते उनके क्रोध की कोई सीमा न रही, और उन्होंने कहा हे ब्राह्मण! तुझे इतना अभिमान है। तुम मुझे राजर्षि उच्चारण
कर रहा है। वशिष्ठ मौन हो गये, और उन्होंने
उनके जो एक प्रिय शिष्य था, उसको मृत्यु
दण्ड दे दिया क्रोध में। जब मृत्यु दण्ड दिया, तो वे शान्त रहे, माता अरूण्धति भी शान्त रही परन्तु ऋषि क्रोधाग्नि में अवृत होता हुआ, अपने गृह को उन्होंने प्रवेश किया। वह राष्ट्र में पंहुचे तो जितना पुण्याद उस
क्रोधाग्नि से ऋषि का पुण्य समाप्त हो गया। राष्ट्रीय विचार धारा में पनपते रहे।
पुनः प्रभु से प्रार्थना की हे प्रभु! मैं तपस्वी बनना चाहता हूँ,तपस्या के लिए
पुनः उन्होंने गमन किया, उसी स्थली पर
जा करके भयंकर वनो में तप करने लगे तो प्रभु से प्रार्थना अश्रुपात करते रहते और
प्रभु से कहते प्रभु! आप मुझे देवतव की वृत्तियाँ मुझे प्रदान कीजिए,जिससे मैं
देवतव हो जाऊँ। हे प्रभु! ऋत हो जाऊँ। हे प्रभु! मैं बड़ा पामर हूँ। मेरे पुण्यार्थ
क्रोधाग्नि में शान्त हो गये, वह प्रार्थना
करते हुए मनस्तव और मन के द्वार पर मन और यह प्राण के द्वार पर जाता है और प्राण
और मन दोनों आत्मा के प्रकाश में क्रियाकलापों में अपना मिलन करते है। जब वह मनन
करने,
मिलन होता रहा, तो ऐसा स्मरण है।उन्होंने अरबों गायत्री के जप में लग गये, छन्द का गान गाने लगे, स्वरों पर
प्राण की ध्वनि को ध्वनित करने लगे, उनका तप पुनः
से प्रबल हो गया, जब प्रबल हो गया, तो अन्तरात्मा से प्रेरणा आने लगी अन्तरात्मा ही प्रेरक है। मानव की जितनी भी
प्रेरणाएँ है,
प्राप्त होती है। वे अन्तरात्मा से होती है और अन्तरात्मा
की प्रेरणा ही अवृत्ति बन करके रहती है। तो ऋषि ने मात्र चौबीस वर्ष का पुनः तप
किया,
और जब वह तपस्या उसकी पूर्ण हो गई,अन्तर्हृदय से प्रेरणा
आने लगी तो वहाँ से उन्होंने गमन किया और भ्रमण करते हुए अपने राष्ट्र्र को
दृष्टिपात किया वे बडे प्रसन्न है।
महर्षि
विश्वामित्र
महर्षि
विश्वामित्र महाराज पुनः अस्त्रों शस्त्रों से युक्त हो करके अश्व
पर सवार हो करके, वहाँ से गमन किया और
भ्रमण करते हुए वह जब वशिष्ठ मुनि आश्रम में प्रवेश किया, तो ऋषि ने कहा आईए, राजर्षि जी!
विराजिए,
राजर्षि उच्चारण करते पुनः क्रोध उत्पन्न हो गया, उसने कहा हे ब्राह्मण! तुझे इतना अभिमान है। तुझे मैं मृत्यु दण्ड दूंगा।
जब विश्वामित्र ने यह विचारा, आज मैं मृत्यु दण्ड दूंगा तो उनकी वाटिका में वह शान्त हो गएं अस्त्रों
शस्त्रों से युक्त थे। परन्तु उन्होंने यह विचारा जब यह निंद्रा की गोद में जाएगा
तो मैं इसे मृत्यु दण्ड दूंगा। वह पूर्णिमा का चन्द्रमा था अपनी सम्पूर्ण कलाओं से
युक्त था पूर्ण कलाओं वाला चन्द्रमा था। वे
अपने आसन पर विद्यमान है। माता अरूण्धति विद्यमान है। माता अरूण्धति ने
प्रश्न किया हे प्रभु! यह जो चन्द्रमा का प्रकाश है। यह कैसा अद्वितीय है भगवन!
कैसा पूर्णता में प्रकाश दे रहा है। उन्होंने कहा हे देवी! यह विश्वामित्र की
तपस्या के आगे कोई प्रकाश नही है। न होने के तुल्य है। सहस्रों गुणा प्रकाश
विश्वामित्र का है। माता अरूण्धति बोली हे प्रभु! आप भी बड़े विचित्र है भगवन! वह
तुम्हें अपशब्द उच्चारण करते हैं अपशब्द उच्चारण करते करते वह कही से कहीं चले
जाते है। आप के एक पुत्र को मृत्युदण्ड भी दिया है। उसके पश्चात भी उनकी प्रशंसा
कर रहे है। उन्होंने कहा देवी! मैं गुणों की प्रशंसा कर रहा हूँ। अवगुणों की नही
कर रहा हूँ। उसका जो तप वास्तव में प्रकाश है। परन्तु उस प्रकाश में नम्रता नही आ
पाती और जब तक तपस्वी में नम्रता नहीं आती है। निरभिमानिता नही आती जब तक राजसी पन
रहता है महर्षि वशिष्ठ बोले हे देवी!
नम्रता योगी का, साधक का आभूषण
कहलाता है और नम्रता ही मानव का जीवन कहलाता है। देवी! उनमें नम्रता की सूक्ष्मता है।
महर्षि विश्वामित्र, जो वाटिका में विद्यमान थे। वह करूणामयी
आ गएं है। अस्त्रों शस्त्रों को त्याग करके और अश्रुपात होने लगे और अश्रुपात हो
करके वशिष्ठ के चरणों में ओत-प्रोत हो गएं और यह कहा हे प्रभु! मुझे क्षमा
कीजिए,भगवन! मैं बड़ा पामर रहा हूँ। अपने काल में,हे देव! मेरे में क्रोध आया,यह भी
पामर पना है। हे प्रभु! मुझे क्षमा कीजिए, जब वह चरणों में ओत-प्रोत हो गये, तो वशिष्ठ ने कहा आईये,ब्रह्मर्षि जी! विराजिए,वह ब्रह्मर्षि उच्चारण करते ही
अमृत को प्राप्त हो गएं और वह विराजमान हो गये, तो ऋषि ने कहा हे भगवन! हे प्रभु! आप ने मेरे हृदय की ग्रंथिया स्पष्ट कर दी
हैं,मैं अन्धकार से प्रकाश में आ गया हूँ, हे प्रभु! मुझे क्षमा कीजिए यह अपने में नम्रता में परिणित हो गये, तो वशिष्ठ कहते है, हे
विश्वामित्र! तुम्हें यह ज्ञान हो गया है। क्या परमात्मा निरभिमानी है। इसीलिए
मानव को अभिमानी नहीं होना चाहिए,वे परमपिता परमात्मा सर्वज्ञ है, रचयिता है परन्तु अपने रचयिता पन का उसको अभिमान नही होता, परमात्मा नम्र है। इसीलिए मानव को नम्र हो जाना चाहिए, परमात्मा ज्ञानवान है, इसीलिए मानव को
ज्ञानी बनना चाहिए, परमपिता परमात्मा वह
सूक्ष्म है और वह सर्वज्ञ है। इसीलिए मानव को व्यापकवाद में प्रवेश करना चाहिए।
वेद
गान से आत्मा की प्रसन्नता
आज हमारा वेद पाठ बड़ा सुन्दर और मधुर था, ऐसा प्रतीत होता है जैसे परमपिता परमात्मा हमें आज कोई वस्तु प्रदान कर रहे
हों,
मेरे प्यारे महानन्द जी यह कहा करते हैं, कि वेद के मन्त्रों के गाने में यह आत्मा प्रसन्न क्यों हो जाता है? मेरे आदि ऋषियों ने उत्तरदायी बनते हुए ऐसा कहा है कि वेद वाणी हमारे यहाँ
ईश्वरीय वाणी मानी जाती है, आत्मा परमात्मा
का सम्बन्ध ऐसा है,जैसे पिता और पुत्र का
होता है,
जैसे माता और पुत्र का होता है, जब पुत्र अपने माता पिता से प्रसन्न होता है, तो अपने माता पिता का गुणगान, उनकी प्रसन्नता
और उनकी महिमा का गुण गाने लगता है, उसका हृदय
पवित्र हो जाता है और मग्न होने लगता है, इसी प्रकार परमात्मा की महिमा का गुणगान गाया जा रहा था और यह आत्मा अपने
परमपिता परमात्मा का गुणगान गाता हुआ प्रसन्न होने जा रहा था, अपने प्रभु की प्रशंसा करता हुआ, अपने पिता की महिमा का गुणगान गाता हुआ और हृदय में तरंगें उत्पन्न कर, यह आत्मा अपने प्रभु को ऊँचे स्वरों से पुकारता चला जा रहा था। 640417
वेद
गायन का मानवीय जीवन से सम्बन्ध
पूज्य महानन्द जीः
भगवन! मैं यह जानना चाहता हूँ जैसे हम वेदज्ञ ध्वनि का गान गाते हैं तो
उसका मानवीय जीवन से क्या सम्बन्ध हैं? ज्ञान से क्या सम्बन्ध है?
पूज्यपाद गुरुदेवः वेदमन्त्र का जब हम उच्चारण करते हैं, तो जितना भी वेदमन्त्र हैं यह देव वाणी में कहलाता हैं,इसको देव वाणी कहते हैं,देव वाणी का
अभिप्राय यह है,कि इसे देवता उद्घोष रुप में उदघोषित करते रहे हैं।और रहा यह,कि वेदमन्त्र से हमारे जीवन का क्या सम्बन्ध हैं? तो मैं यह कहा करता हूँ कि संसार में सम्बन्ध ही चेतना से है। सम्बन्ध ही एक
उग्र रुप को धारण कर लेता है। तो प्रत्येक वेदमन्त्र का मानव के जीवन से सम्बन्ध
है,जिस मन्त्र के आधार पर,हम अपने जन्म
जन्मान्तरों के संस्कारों को उद्घोष करने लगते हैं। जैसे हमने वेदमन्त्र को
उच्चारण किया,वाणी में पवित्रता आ जाती हैं, हृदयों में पवित्रता आ जाती है, आत्मा अपने लोक में प्रवेश कर जाता है। तो हमारे जीवन का सम्बन्ध,प्रत्येक
मन्त्र से उसका समन्वय रहता हैं। मानव जो भी उच्चारण कर रहा हैं, गान गाया जा रहा हैं,परन्तु यह केवल
आभा में कहलाने वाला एक विज्ञान है,जिस विज्ञान को
ले करके हम अपनी मानवीय दशा को महान बनाते हैं। परन्तु प्रत्येक वेदमन्त्र हमारे
जीवन का साथी बना हुआ है,उसमें
विकृतियां नही होती,परन्तु अपनी आभा में
गति करने वाला हैं,जिसको मन्त्र कहते हैं,मन्त्रार्थ कहते हैं। मन्त्र का सम्बन्ध हैं मन से, मन से जो भी मानव कर्म करता हैं, वह महान और पवित्र बन जाता हैं। तो उसी का नाम एक कर्म ध्वनि बन गई। तो यह जो
जितना भी क्रियाकलाप हो रहा है, यह सब प्रभु के
आङ्गन में,
प्रभु की महानता में, ओत प्रोत रहने वाला हैं। परन्तु जब हम वेदमन्त्रों की ध्वनि से, गान गाते हैं तो प्रत्येक नस नाड़ियाँ उद्घोष करने लगती हैं। जब प्रत्येक नस
नाडियां एक चित्रावली बन करके रह जाता है। तो वह ब्रह्म औषध कहलाती है, जिसको धारण करने के पश्चात,मानव के जीवन
में,एक मानवीयता के अङ्कुर उत्पन्न हो जाते हैं। क्योंकि परमपिता परमात्मा ने सीमा
में बद्ध करते हुए,अभ्यस्त हो गया है।
परन्तु जब यह प्रसंग आते हैं, कि हमारा जो
जीवन हैं,उसका आयुर्वेद से सम्बन्ध होता है, आयु में हमें लगाता है,|परन्तु ये
वेदमन्त्र भी ये कहता है कि बलों को धारण करने वाला,वह मेरा चैतन्य देव कहलाता हैं। प्रत्येक वेदमन्त्र को जो ध्वनि से गान रुप
में गाते हैं,तो उदात्त,अनुदात्त में गाते रहते हैं। हम अपने में इतने महान मन्त्र को ले करके, क्योंकि मन से इसका समन्वय रहता हैं और मन को ही सीमा में लाना, इसी का नाम मन्त्रणा कहलाया जाता है।
महापुरूष
तो प्रत्येक वेदमन्त्र मानव के जीवन को महान बना देता है आज
कोई भी वेदमन्त्र ले करके जब मानव अपने को ऊँचे स्वरों में ध्वनि रुप में, धनवती बना देता है, वायु में
गतियां हो रही है, धाराएं चल रही है, उन तरंगों को धारण करने वाला, महापुरूष
कहलाता हैं। मानव को अपनी आभा में अभ्यस्त रहना चाहिए,उन्हीं विचारों से मानव का
कल्याण होता है। वाहन गति कर रहा है,अन्तरिक्ष में जा रहा है, परन्तु वह
मन्त्रणा प्रथम कहलाती हैं।
पूज्य महानन्द जीः
तो भगवन! कोई मानव शत्रु हैं और उस शत्रु को हम विजय करना चाहते हैं,तो क्या ऐसा कोई मन्त्र हैं?
अजामेध
याग
पूज्यपाद गुरुदेवः हाँ ऐसा मन्त्र,उसका चिन्तन हैं,परन्तु वह चिन्तन महान होना चाहिए,उस चिन्तन में एक विशेषताएं होती है,जिससे वह अपने में अपनेपन को जाना जाता हैं। तो वेदमन्त्र कहता है कि शत्रु को
विजय करना है,तो अजामेध याग करो। हम अपने आन्तरिक शत्रु समाप्त करना चाहते हैं,तो बाह्य शत्रुओं का अभाव स्वतः हो जाता हैं। जैसे हम उच्चारण कर रहे हैं, ध्वनि रुप में अपने में वह पूर्णता को दृष्टिपात होता हैं। परन्तु वह अपनी आभा
में शत्रुता को विजय करना चाहता हैं,विजय हो सकता है परोक्ष, अपरोक्ष रुप
में,
सत्य के द्वारा सर्वत्र कार्य हो रहा है।
तो यह अनुपम ज्ञान हैं,जिसके ऊपर हम परम्परागतों से अनुसन्धान करते आए हैं,अजामेध याग का वर्णन जहाँ
आता है,वहाँ वह अन्वकृत कहलाता है। जिससे आन्तरिक शत्रु समाप्त हो जाएं,जब आन्तरिक शत्रु समाप्त होंगें तो बाह्य शत्रु भी समाप्त हो जाएंगें। तो
प्रथम अपने आन्तरिक शत्रुओं को समाप्त करना है तो जब हम एक वाक को उच्चारण करते
हैं,तो नाना रश्मियों का जन्म हो जाता है।
पुत्र की पवित्रता
जब मानव इस आकृति में, गायत्री छन्दों में रमण करता है, जहाँ जाते हैं, वहीं माता विराजमान है,न प्रतीत हमें क्या दण्ड दें,जैसे बालक माता
से भयभीत रहता है, और माता की भावुकता
में रमण करता रहता है और माता अपने हृदय से पुत्र को लगा लेती है और यह चाहती है, कि मेरा पुत्र पवित्र बने,इसमें किसी
प्रकार की त्रुटि न रहे,यह मेरे गर्भ
को ऊँचा बनाने वाला हो, इसी प्रकार
गायत्री माता भी चाहती है। भक्त की जब यह दशा हो जाती है,कि यदि मैं कोई पाप करूंगा,तो माता मुझे
दृष्टिपात कर लेगी और न प्रतीत क्या दण्ड दे, तो उस समय यह महान पवित्र गायत्री उस मानव को कण्ठ में धारण कर लेती है, अपने में ओत प्रोत कर लेती है,जैसे एक प्रिय
बालक होता है,जो माता पिता के नाना प्रकार के क्रोध की सीमाओं को नष्ट कर देता है, जैसे मैंने तुम्हें एक अलंकार भी नियुक्त किया था
एक राजा था। राजा के यहाँ एक सूक्ष्म-सा बालक था। परन्तु वह
राजा किसी साधु संगति में आत्मिक ज्ञान की चर्चा करने जाता था। वहाँ एक गान गाया
जाता था,कि अरे,
मानव! तू विरोध न कर,परमात्मा का चिन्तन कर,तुम्हारे
द्वारा प्रीति होनी चाहिए,यह बालक पूर्व
गान का फल था। बालक ने वह ही अपने कण्ठ में धारण कर लिया।
कुछ समय के पश्चात राजा और उनकी पत्नी दोनों का विरोध हो
गया,
और दोनों ने प्रतिज्ञा कर ली कि अब एक दूसर से कोई वाक्य
उच्चारण नहीं करेंगे। अधिक समय हो गया,राजा और रानी दोनों की इच्छा हुई,कि हमें दोनों में कैसे प्रेम भाव हो, कैसे मिलान हो,परन्तु एक दूसर से
वाक्य न मिलान करने की प्रतिज्ञा थी।
एक दिन बालक सत्संग से आया और पिता के स्थान पर कहने लगा, अरे,
मानव! तू विरोध न कर,परमात्मा का चिन्तन कर,पिता ने कहा कि
अरे,
अपनी माता से जाकर उच्चारण करो,माता के स्थान पर गया और उच्चारण किया,अरे, मानव! विरोध न कर,परमात्मा का चिन्तन कर, प्रेम प्रीति से रह। जब ऐसा कहा तो माता न कहा कि अरे, पिता के द्वार जाओ। अब पिता के द्वार पहुंचे, तो पिता ने कहा, माता के द्वार जाओ, बालक ने सोचा कि अब यह दोनों हो मुझे उच्चारण नहीं करने देंगे, वे दोनों के मध्य में विराजमान होकर वह वाक्य उच्चारण करने लगा,अब एक स्थान से माता ने उसे कण्ठ लगाया और एक स्थान से पिता ने कण्ठ लगाया।
उस बालक के प्रति माता पिता का प्रेम कितना उज्ज्वल था,कितनी ऊँची क्रोध की सीमा का नष्ट किया, उस बालक ने।
गायत्री
माता
इसी प्रकार योगी परमात्मा का बालक बनता है,माता गायत्री का बालक बनता है,गायत्री का अनुकरण
करता है,माता ही माता को पुकारता है और उसमें ओत प्रोत हो जाता है,तो उसे माता ही माता प्रतीत होती है। एक स्थान प्रकृति गायत्री माता और एक
स्थान से ब्रह्मा पिता उस महान आत्मा को अपने हृदय में धारण कर लेते हैं। वह ऋषि
बन जाता है,
योगी बन जाता है। प्रकृति माता कहलाती है,परमात्मा पिता
कहलाता है,
दोनों के मध्य में जो विरोध था, उसको इस महान आत्मा ने दोनों का अपनाते हुए, नष्ट कर दिया। प्रकृति को वैज्ञानिक रूपों से अपनाया और परमात्मा को उपासक रुप
में अपना कर,
संसार में वह उपासक, ज्ञानी और वैज्ञानिक योगी कहलाता है, हम उस प्रभु का अनुकरण करते चले जाएं,उस माता का अनुकरण करते चले जाएं,जो गायत्री माता अपने हृदय को पवित्र बनाती है, गायत्री हमें ऐसा अनुपम ज्ञान देती
है।
25 11 1970
ओ३म्
रुपी सूत्र
हमारे यहां परम्परागतों से ही प्रायः वेदवाणी का प्रसारण
होता रहता है,जिस पवित्र वेदवाणी में उस परमपिता परमात्मा का ज्ञान और विज्ञान
निहित रहता है क्योंकि वह परमपिता परमात्मा ज्ञान और विज्ञान से युक्त रहता है। हम
उस प्रभु की महिमा का गुणगान गाते चले जाएं। उसकी रचना उसका उज्जवल महानता में
सदैव परिणत रहता है। वह मेरा प्यारा प्रभु कितना अनुपम है वह कितना महान है मानव
शरीर का निर्माणवेत्ता रहता है। निर्माण करने वाला चैतन्य प्रभु है। माता के
गर्भस्थल में निर्माण हो रहा है, मेरी भोली माता
को यह ज्ञान नही होता कौन निर्माण कर रहा है। कौन निर्माणवेत्ता है यह प्रभु कितना
मानव के निकट रहता है इसीलिए हम अपने प्यारे प्रभु का गुणगान गाते चले जाएं। वह
प्यारा प्रभु एक मानव के अनुकूल रहता है। क्योंकि वह विज्ञान से युक्त है, निर्माणवेत्ता है, उसे विश्वकर्मा कहा
करते हैं। और भी नाना ऋषियों ने इस प्रकार के विचार विनिमय होते रहे हैं।
मन्त्र
से पूर्व ओ३म् का उच्चारण
एक समय महर्षि
शांडिल्य मुनि के आश्रम में महर्षि मुद्गल जी पंहुचें। महर्षि मुद्गल जी ने कहा-हे
ऋषिवर! आप दार्शनिक हैं ब्रह्मवेत्ता हैं। मैं यह जानना चाहता हूं कि वेद के
मन्त्र का उच्चारण करते हैं,तो मन्त्र से पूर्व ओ३म् का उच्चारण किया जाता है।
मुद्गल ने कहा ऐसा प्रश्न क्यों है? क्योंकि ऐसा
होना नही चाहिए,
क्योंकि बारम्बार पुनरुक्ति दोष होती है। जब ऐसा कहा तो
मुद्गल जी,शांडिल्य जी बोले कि तो चलो,महर्षि भृगु आश्रम में इसकी शंका निवारण करेंगे।
दोनो यथार्थ ब्राह्मण कदापि भी जो ब्रह्मवेत्ता होता है, ब्रह्मनिष्ठ होता है, उसके हृदय में
अभिमान नही होता है। वह दोनो ने वहां से प्रस्थान किया,भ्रमण करते हुए प्रवाहण के
द्वार पर आये। महराजा प्रवाहण ने जब ऐसा कहा,उसने उत्तर दिया,मैं इतना नही जानता,भ्रमण करते हुए वे महर्षि भृगु आश्रम
में प्रविष्ट हुए। महर्षि भृगु आश्रम में और भी ऋषियों का आगमन हो रहा था जैसे
पिप्पलाद जी सोमकेतु,मान्धाता, दालभ्य जी और भी आदि ऋषियों का वहां पदार्पण हुआ जैसे महर्षि दद्दड़ीय
भारद्वाज इत्यादि ऋषियों की एक विशाल सभा हुई। परन्तु विचार विनिमय प्रारम्भ होने
लगा। तो मृत्यु के सम्बन्ध कोई अपना प्रश्न कर रहा था,कोई जीवन के सम्बन्ध में,कोई
नेत्रों के सम्बन्ध में,कोई प्राण इत्यादि के सम्बन्ध में,परन्तु वहां महर्षि
शाण्डिल्य जी और मुद्गल जी दोनों ने यह कहा भई! हम यह जानना चाहते हैं,कि ओ३म् का
उच्चारण वेदमन्त्र से पूर्व क्यों किया जाता है? क्योंकि वेद को हमारे यहां परमपिता परमात्मा का उपदेश कहा जाता है। ज्ञान से
युक्त है,विज्ञान से युक्त है ओ३म् की पुनरक्ति क्यों आती है। उस समय बेटा! महर्षि
दालभ्य जी ने भृगु जी से कहा हे महाराज! इसका निवारण आप कीजिए। सभापतितव का चुनाव
हो गया। परन्तु वहां उन्होंने शंका का निवारण नही किया। उन्होंने कहा भई! मेरे
विचार में तो कुछ ऐसा आता है,जो मैं जानता हूंगा,उसका उत्तर दे सकता हूं| महर्षि शाण्डिल्य जी ने कहा भई! जितना आप जानते
हो,उसे उच्चारण कीजिए। हमारे आंगन में नही आयेगी,तो हम प्रश्न करेंगें। उन्होंने
कहा-बहुत सुन्दर,यह तो मानव का सिद्धान्त होना चाहिए। उन्होंने कहा मेरे विचार में
ऐसा आता है। क्योंकि ओ३म् जो शब्द है,यह तीन व्याहृतियों से बना हुआ है। क्योंकि
तीन से यह सर्वत्र जगत विभाजन होता रहता है। इस संसार में तीन ही गुण कहलाये गए
हैं,
त्रि विद्या है और तीन प्रकार के, तीन ही आश्रमों की निष्ठीतता
मानी है और इसी प्रकार तीन ही पदार्थ अनादि माने गए हैं। यह संसार तीनों से विभक्त
किया गया है। इसी प्रकार यह जो जगत है, यह तीनों के आंगन में भ्रमण कर रहा है। इसी प्रकार जब वेद का उच्चारण करते हैं, ओ३म् का उच्चारण प्रथम करते हैं। औ३म् उच्चारण भागाः,ओ३म् का उच्चारण पूर्व
आता है। ओ३म् का उच्चारण करने का अभिप्रायः कि जैसे माला होती है,और माला में मनके होते हैं मनके और धागे दोनों का तन्मय हो जाने का नाम ही
हमारे यहां माला कहलाई गई है।इसी प्रकार ऋषि ने कहा-हे ऋषिवर! एक यह जो परमात्मा
का जगत है,
परमात्मा का जो सर्वोत्तम नाम है। वह ओ३म् कहलाया गया है ।
ओ३म् का उच्चारण यह है कि जिसके गर्भ में यह सर्वत्र ओत प्रोत हो जाती है। क्योंकि
ओ३म् को परमात्मा की आत्मा कहा जाता है और म् में प्रकृति होती हैं,जितना यह जगत
है, म् में होती है, जितना म् वाद होगा,उतना मानव प्रकृति के आंगन में गमन करता
रहेगा। तो यह जो ओ३म् है, यह ऐसा व्यापक
शब्द है,प्रत्येक मानव के मुखारबिन्दु से सबसे प्रथम ओ का उच्चारण किया जाता है।
मानव किसी भी रुढ़ि में चला जाए,कहीं चला जाए,परन्तु ओ का उच्चारण अनिवार्य हो जाता है। क्योंकि यह
परमात्मा का सर्वोपरि उत्तम नाम है। उन्होंने कहा-इसी प्रकार यह जो ओ३म् रुपी धागा
है,इसमें जो वेद,ऋचा रुपी जो मनके हैं,वे ओ३म् रुपी धागे में पिरोये हुए होते हैं,इसी प्रकार यह जो जगत है,यह जो नाना प्रकार के लोक लोकान्तरों का जगत मुझे
प्रतीत हो रहा है,यह जो सर्वत्र जगत है, यह जगत एक एक परमाणु का, अणु का, एक एक
परमाणु,उस महान ओ३म् चेतना में पिरोया हुआ है। क्योंकि उसमें पिरोया हुआ होने के
नाते,आज वेद की ऋचा से पूर्व ओ३म् का उच्चारण किया जाता है। उसका मूल कारण केवल
यही कि जितना ज्ञान है,विज्ञान है।
भौतिकवाद है,आध्यात्मिकवाद है चाहे चन्द्रमा में जाने वाला हो, बुध में शुक्र जाने वाला प्राणी भी उस ओ३म् रुपी धागे में पिरोया हुआ है।
परमात्मा
का हृदय
जब यहां नाना प्रकार के प्रश्न उत्तरावलियों में नाना
प्रकार की विचारधारा मानव के समीप आती है। ऐसा आचार्यों ने कहा है कि ओ३म् का जो
सत ज्ञान है वही परमात्मा का हृदय माना गया है। क्योंकि वह इस हृदय में वह सर्वत्र
जगत समाहित हो रहा है। अपनी अपनी क्रिया में अपना क्रियावान हो रहा है। इसीलिए
ओ३म् रुपी धागा प्रत्येक परमाणु को क्रियाशील बना रहा है,एक एक परमाणु में उसकी
महत्तता दृष्टिपात आती है। इसीलिए हमारे यहां जब ओ३म् का उच्चारण करते हैं, तो उसके साथ ऋचाओं का उच्चारण होता है। क्योंकि ऋचाएं हमारे यहां विद्या कहलाई
गई हैं क्योंकि विद्या है।
वह सब ओ३म् रुपी धागे से पिरोई होने से चाहे वह चन्द्रमा में जाने वाली विद्या हो, मंगल में जाने वाली विद्या हो, शुक्र में जाने वाली विद्या हो और
नाना सूर्य मण्डल में जाने वाला विज्ञान क्यों न हो,ऋषि जन जब अन्तरिक्ष लोक
लोकान्तरों में रमण करते हैं तो और भी लोक लोकान्तरों में भ्रमण करने वाले ऋषिवर
भी उस ओ३म् रुपी धागे में पिरोये हुए होते हैं। जहां हम अपने जीवन को वास्तव में
उन्नत बना सके। हम अपने जीवन में उन्नत होना चाहते हैं। तो मानव को तपस्या करनी
चाहिए। क्योंकि ओ३म् रुपी धागे को भी हम तपस्या के बिना नही जान सकेंगें। उसकी
प्रतिभा को भी हम बिना तप के नही जान सकेंगे। जब हमारे में आत्मबल होगा, आत्मवत्त होगा तो अपनी चेतना में प्रतीत होता रहेगा। आत्मा को जानने वाले
प्राणी को आत्मवत्त बनना है। आत्मा को जानने के लिए हमे तप करना है। संसार में
प्रत्येक पदार्थ तप रहा है,एक एक परमाणु तप रहा है, लोक लोकान्तर तप रहे हैं,इसीलिए मानव को तपना चाहिए।
ब्रह्मरन्ध्र
से वाणी
हमारे यहाँ वेदों
के उच्चारण करने के नाना प्रकार के होते हैं। शब्दों का मिलान प्रायः छन्द
इत्यादियों से और उसमें नाना प्रकार के स्वरों को ग्रहीत करके होता है। जिस प्रकार
मानव के मुखारबिन्द में वाणी होती है वह प्रायः शब्दों की रचना करती रहती है।
शब्दों की रचना मानव के कंठ से लेकर के और जब तक उसका निर्माण और उसकी प्रतिभा
होती उसी में निहित रहती है। जब हम यह विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि हमारे
नाभि केन्द्र से प्राण का तारतम्य होता है और वहाँ जो तीन प्रकार की इडा,पिंगला और
सुषुमना नाड़ी होती हैं उनका सम्बन्ध भी कंठ के उन्हीं शब्दों से होता है। क्योंकि
वे नाड़ियां शब्दों की रचना में सहायक होती हैं। शब्दों की जो रचना है,उसका जो उद्गार है, उसका जो स्वर
प्रारम्भ होता है वह नाभि से लेकर के मस्तिष्क तक होता है। क्योंकि मस्तिष्क से भी
शब्दों का तारतम्य होता है। वास्तव में वाणी से,बाह्य वाक् उच्चारण करने को कहा
जाता है। जब हम गम्भीरता से विचारते हैं तो वाणी का जो उद्गार है वह मानव के शरीर
में ब्रह्मरन्ध्र से होता हैं। जहाँ नाना प्रकार की नस नाड़ियों का समूह होता है
वहाँ से उसकी रचना होती है।6977040
क्योंकि मानव जब आनन्द में होता है, तो नाना प्रकार का उसका स्वरगान भी होने लगता है।
69 77 057
विचारों के तीन प्रकार
हमारे यहां नित्यप्रति कुछ वेदमन्त्रों का प्रसारण होता
रहता है। जिसका कर्म परम्परागतों के आधारित माना जाता है। हमारे यहां भिन्न भिन्न
प्रकार के वाक् प्रारम्भ होते रहते
हैं। किसी काल में ब्रह्म विचार है,किसी काल में आत्म विचार है,और किसी काल में यह प्रकृति विचार है। तीनों प्रकार के विचारों का प्रसारण होता
रहता है,हमने कई काल में यह कहा है,आज भी हमारा हृदय पुकार कर उच्चारण कर रहा है। यह आत्मा का
विचार विनिमय करते चले जाएं। क्योंकि संसार में सबसे प्रथम आत्मा का ही विचार होता
है। जहां संसार के नाना प्रकार के बन्धनों से मानव मुक्ति पाना चाहता है। वह यह कि
हृदय में एक उत्कट इच्छा होती
है,कि संसार में जो नाना प्रकार का
भोगवाद है, मेरा हृदय उसको यह पुकारने लगता
है कि वास्तव में हमारा आत्मा का उत्थान होना और यह जो संसार के नाना प्रकार के
वैभव हैं,उनसे हमें उपराम होना है, क्योंकि प्रायः मानव जो आध्यात्मिक आत्म चिन्तन में लगा हुआ है,उसके मन की एक उत्कट इच्छा होती है
कि मैं वास्तव में उस परम आनन्द को प्राप्त करना चाहता हूं। जिसका मेरे से किसी
काल में विच्छेद नही होगा। परन्तु यह उसके हृदय कि आकाक्षा होती है।
एक समय मेरे प्यारे ऋषियों ने बहुत कुछ कहा,परन्तु महर्षि सुमन ऋषि महाराज के आश्रम में जब आदि ऋषिवर
आत्मा का चिन्तन करने के लिए पंहुचें,तो आत्मा के विषय में भिन्न-भिन्न प्रकार का विवेचन,भिन्न-भिन्न प्रकार वार्ताएं प्रारम्भ
होने लगी, परन्तु जहां यह प्रकृतिवाद है।
जहां तक इसका सत्य है और इसकी जहां तक प्रतिभा है, वह भी मनोहर है परन्तु उसकी वास्तविकता को जानना यह हमारा
वास्तव में कर्तव्य रहता है।
माला
पाठ
वेदों का पाठ कई प्रकार से किया जाता है। जैसे जटा पाठ, घन पाठ, माला पाठ, विसर्ग पाठ, उदात्त,अनुदात्त, आधुर्य इत्यादि नाना प्रकार से वेदमन्त्रों का पठन पाठन किया जाता है,परन्तु मैं नित्यप्रति कुछ समय से माला पाठ के सम्बन्ध अपना
विवेचन देना चाहता था,परन्तु देता चला जा रहा था हमारे यहां जिसको माला पाठ कहते हैं माला पाठ का
अभिप्राय क्या है?माला कहते हैं,जहां मनका और धागा दोनों का व्याप्य और व्यापक स्वरुप हो
जाता है,उसी को हमारे यहां माला कहा जाता
है। क्योंकि धागे में जब मनके पिरोये हुए होते हैं। तो वह मनके धागे में होने के
नाते ही माला कहलाई जाती है। इसी प्रकार यह जो बाह्य जगत है,यह जो जगत प्रतीत हो रहा है, व्यष्टि और समष्टि में जो प्रतीत होने लगता है। परन्तु
इसके जो परमाणु हैं,अथवा जितना भी वाद है। वह उस ब्रह्म में उस महान ओ३म् रुपी धागे में पिरोया
हुआ है। क्योंकि वह जो परमपिता परमात्मा है,उसी से सर्वश: जगत ओत-प्रोत हो रहा है। क्योंकि उसी की
महिमा से उसी के सन्निधान से इसका व्यापार चल रहा है। जो हमें दृष्टिपात आता चला
आ रहा है। तो आज हमें पुनः से विचार विनिमय
करने का सौभाग्य प्राप्त होता चला जा रहा है मैं इस वाक को ऐसी गम्भीरता में नही
ले जाना चाहता हूं,जिससे यह इतना वाक गम्भीर हो जाए।
कि मानव अन्तिम बुद्धि पर चला जाए। परन्तु वाक केवल यहां तक अपना सीमित विचार देना
है कि वास्तव में यह जो सर्वश: जगत है, यह ओ३म् रुपी धागे से
पिरोया हुआ है। हमारे यहां ऋषि मुनियों का विचार विनिमय होता रहता है|
तीन
प्रकार की व्याहृतियां
एक समय ऋषि मुनियों
के समाज में यह वार्ता आई,महर्षि शौनक ऋषि महाराज आश्रम में एक समय देवर्षि नारद,महर्षि दालभ्य आदि ऋषिवर और देवान्तरी ऋषि महाराज आदि
ऋषियों का समाज वह शौनक ऋषि महाराज के आश्रम में पंहुचे। परन्तु वहां देवर्षि नारद मुनि ने यह प्रश्न किया कि
महाराज! हम यह जानना चाहते हैं। कि वेदमन्त्रों का जब प्रारम्भ होता है,वेद के मन्त्रों के प्रारम्भ होते,ओ३म् की प्रतिभा आती है,क्योंकि ओ३म् को क्यों नही एक ही समय उच्चारण कर दिया जाए,सर्वश: वेद का पठन पाठन बिना ओ३म् के कर देना चाहिए? उस समय,महर्षि शौनक मुनि जी ने कहा था कि यह जो ओ३म् है। इसमें तीन प्रकार की
व्याहृतियां कहलाती हैं। सबसे प्रथम जब परमपिता परमात्मा ने यह जगत रचा था,तो सबसे प्रथम तीन व्याहृतियों का
जन्म हुआ था। वास्तव में जैसे अ है, उ हैं, और म् ये तीन व्याहृतियां कहलाई
जाती हैं। अ से भू,उ से भुवः और म् से स्वः ये तीनों व्याहृतियों का इन्ही से निकास होता है। क्योंकि जब
सृष्टि प्रारम्भ होती है,तो तीनों व्याहृतियों का व्यापक स्वरुप बन जाता है। इसी व्यापक स्वरुप में यह
सर्वत्र जगत ओत-प्रोत हो रहा हैं,और आत्मा की उन्नति,आत्मा का जहां वास प्रारम्भ होने लगता है,तो आत्मा उन्नत वाले प्राणियों का यह कर्तव्य रहता है,कि आत्मा का वास्तव में उत्थान करना चाहिए। परन्तु आत्मा के
उत्थान के लिए कोई न कोई वस्तु का चिन्तन करना बहुत अनिवार्य होता है,
मानवता
का उत्थान
आत्मा को भी अकर्त्ता स्वीकार किया जाए। परन्तु मैं यह कहा
करता हूं कि जब आत्मा को तुम चित्त वाला भी स्वीकार करते हो,क्योंकि चित्त आत्मा का होता है,क्योंकि प्रकृति का स्वरुप ही चित्त है,क्योंकि चित्रवान है,जितना भी चित्रवान है,वह प्रकृतिवाद में उत्पन्न होता है। परन्तु आत्मा केवल उसका
आभास मात्र होता है,उस आभास मात्र से मानव के शरीर में जैसे यह ब्राह्मण्ड में,प्रकृति में,उसका स्वतः कर्तव्य जागरुक हो जाता है। इसी प्रकार मानव के शरीर में भी वह
जागरुकता आ जाती है। और जागरुकता आ जाने के पश्चात यह जो मानव शरीर का जो व्यापार है,इसमें एक महानता का निदान होने लगता है। प्रतिक्रिया आ जाती
है। उसी प्रतिक्रिया से हमारे जीवन का,हमारी मानवता का एक उत्थान प्रारम्भ होने लगता है।
हमारा जो मानवतव,हमारी जो मानसिक प्रवृत्ति है। उसको हमें पुनः पुनः विचार विनिमय करना है। आत्मा के लिए चिन्तन करना है। महर्षि शौनक जी
का वाक चल रहा था। शौनक जी ने कहा भई! ओ३म् का इसीलिए उच्चारण किया जाता है,क्योंकि वेद का जितना ज्ञान है जितना उसका विज्ञान है,वह ओ३म् रुपी धागे पिरोया हुआ है
अहा,इसीलिए क्योंकि जैसे प्रत्येक मनके और धागा है क्योंकि धागा प्रत्येक मनके
के साथ है। इसी प्रकार ओ३म् रुपी जो धागा है। यह प्रत्येक वेद की ऋचा के साथ साथ
रमण करता रहता है। यह जो ब्रह्म है,वह जो ओ३म् रुपी धागा है,उसी से यह सर्वत्र जगत ओत प्रोत हो रहा है। उसी के आंगन में
रमण कर रहा है, क्योंकि सन्निधान में
ही प्रकृति और ब्रह्म का व्याप्य और व्यापक जो स्वरुप बनता है। क्योंकि उसी से ही
यह स्वतः अपनी क्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
कर्तव्य
हम वास्तव में
प्रभु के जगत में आये हैं प्रभु के ब्रह्माण्ड में आए हैं हमारा कर्तव्य है कि
प्रभु का सदैव चिन्तन करते हुए,अपने मानवतव को उन्नत बनाते चला जाएं। क्योंकि वास्तव में मानव भोग विलास में
तल्लीन रहता है। परन्तु एक समय वह आता है, जब मानव के द्वार से भोग विलासों की प्रतीती समाप्त हो जाती
है। परन्तु उस समय यह विचार विनिमय करने लगता है। एक समय वह आता है जब मानव भोग
विलासों से उपराम की वार्ता विचार विनिमय करने लगता है,तो महर्षि शौनक जी के ऐसे उत्तम विचार हैं कि जैसे ओ३म्
रुपी धागा प्रकृति में ओत प्रोत है,इसी प्रकार प्रत्येक मानव के शरीर में उन्नत हो रहा है। उसमें उसी की प्रतीती
हमें भासती चली जा रही है।
इसीलिए आज हमें विचार विनिमय यह करना
है,कि हमारा जो जीवन है,वह है प्रभु का चिन्तन करने के लिए
है। वास्तव में सुन्दर कार्य करने के लिए है,यहां विडम्बना के लिए नही है कि मानव अपनी प्रवृत्तियों को
विडम्बना में ले जाए और वह नाना प्रकार के संस्कारों को जन्म देता रहे और
संस्कारों को जन्म देना संस्कारों को उत्पन्न करना ही मानव का आवागमन बनता है,अन्यथा आवागमन का प्रश्न ही
उत्पन्न नही होता।
वाणी का अग्नि
स्वरूप
तो वेद का आचार्य कहता है ऋषि कहता है कि आवागमन जब प्राणी
का बनता है। जब उसके संस्कार होते हैं,उसकी प्रतिभा होती है। उन्ही संस्कारों से आवागमन का एक चक्र बना करता है।
परन्तु उससे आज हमे आवागमन से उपराम होना है। उसको त्यागना है। परन्तु उस काल में
त्यागोगे,जब निष्क्रिय हो जाओगे। निष्क्रिय
कैसे बनोगे जब तक तुम्हारे द्वारा उत्तम साधना नही होगी,क्योंकि जब तक संयम नही होगा, ब्रह्मवेत्ताओं का यह विचार है,व्यष्टि समष्टि में परिणत कर देनी चाहिए। क्योंकि हमारा जो
मानवीय विचार है, जैसे चक्षु है,चक्षुओं का जो सम्बन्ध है,वह अग्नि से होता है। जैसे जगत में यह अग्नि ओत प्रोत है।
कहीं विद्युत रुप में है,इसी प्रकार मानव को विचारना चाहिए,कि मानव का जो वाणीवाद है। मानव की जो वाणी है, यह अग्नि का स्वरुप है। अग्नि का सूक्ष्म स्रोत है, इस वाणी को व्यष्टि से समष्टि में परिणत कर देना है इसको
कैसे करोगे? इसको व्यष्टि से समष्टि में परिणत
करना है,मानव के विचारों की प्रतिभा
व्यष्टि से समष्टि में परिणत करती चली जा रही है और वह किस प्रकार होगी जब यह
विचारने लगते हैं कि जैसी यह अग्नि है,वाणी भी अग्नि है| इसको तुझे तपाना है जैसे अग्नि तपती है वह समिधाओं के मध्य में तपा करती है।
उसको कोई छू नही पाता है, इसी प्रकार प्रत्येक मानव प्रत्येक देवकन्या को प्रत्येक ऋषि मण्डल को वाणी को
तपाना है काहें में तपाना है,व्यापकवाद में तपाना है। जब मानव की वाणी में तपना आ जाता है तप क्या है? इस वाणी से मिथ्या
न उच्चारण करो क्योंकि वाणी का तपना है, ब्रह्मज्ञान में तन्मय हो जाना, व्यष्टि से समष्टि में परिणत करना है,क्योंकि उसकी व्यापकता को विचार विनिमय करना ही उसकी व्यापकता है और उसको
व्यापकता में लाना,उसका मानव का विचार मानव को स्वतः
विचार होता है। उन विचारों में ऐसा गम्भीरवाद होना चाहिए इतना सत्यवाद होना चाहिए।
जिससे उसकी वाणी ज्ञान रुपी अग्नि में तप जाए, और तपने के पश्चात उसका व्यष्टि से,समष्टि स्वरुप बनता चला जाए। हमारे यहां ब्रह्मवेत्ताओं का
विचार है, हमारे यहां ऋषि मुनियों का विचार
है,कि हम सदैव प्रत्येक इन्द्रियों को
तपने,उसे व्यष्टि से समष्टि में ले जाना चाहते हैं,जैसे नेत्रों का देवता सूर्यतव कहलाया जाता है। अहा, उसमें वाणी सप्तं
ब्रह्म है। परन्तु जैसे प्राणों की गति प्राण को भी व्यष्टि समष्टि प्राय: होता रहता है। हमारे यहां ऐसा स्वीकार किया गया है।
श्वांस में परमाणु
जब मानव श्वास लेता
है,प्रत्येक श्वास के साथ में
अरबों खरबों परमाणु चले जाते हैं बेटा! उन अरबों खरबों परमाणुओं को वह वायुमण्डल
में लय हो जाते हैं वायुमण्डल में गति करने लगते हैं अब जैसे मानव के प्राणों के
द्वारा विचार होता है साधना का विचार होता है तो वह परमाणु उसी प्रकार का कार्य
करते रहते हैं। मेरे प्यारे महानन्द जी यह कहा करते हैं कि आधुनिक काल का,जो वर्तमान का काल है,वह ऐसा प्रारम्भ हो रहा है कि अतिवृष्टि, अनावृष्टि प्रजा में
त्राहिमाम् हो जाती है, किसी काल में तो मैं यह कहा करता हूं,जब मानव के सुन्दर विचार नही होते, राष्ट्र के सुन्दर विचार नही होते हैं। तो प्रजा के सुन्दर विचार नही होते हैं
यह ब्रह्माण्ड विचारों की रचना होती है। यह वातावरण, यह विचारों से बना करता है। परन्तु विचारों में जितना
सात्विकवाद होता है, महानता होती है, प्राण और मन की दोनो की अक्षमता होती है, दोनो का मिलान होता रहता है,तो उस समय सात्विकवाद होता है और मानव नाना प्रकार के भोग
विलासों से उपराम होता है। वही परमाणु वायुमण्डल में परिणत हो जाते हैं और उन्ही
से यह जगत और राष्ट्र का निर्माण होता है आज का मानव यह उच्चारण करने लगता है मैं
तो यह कहा करता हूं, कि संसार तपमय होना चाहिए,
गृह में शुद्ध
परमाणु
जब प्राणों को
आवागमन हो,तो मन और प्राण की दोनों की क्षमता
होनी चाहिए। और दोनों में उत्तम संचार प्रसार विचार होना चाहिए। व्यापकवाद की
तरंगे होनी चाहिए, उन्ही तरंगों के परमाणुवाद तरंगों में परिणत हो जाता है। उसी से यह प्रकृतिवाद
का सुन्दर निर्माण होता है पदार्थ विद्या जितनी भी है वह विचारों से सुन्दर बना करती है। जैसे एक गृह है,उस गृह में यज्ञ इत्यादि होते रहते हैं, साधना होती रहती है। नाना प्रकार का अभद्र व्यावहार नही
होता, तो वह गृह, देववाणी हो जाता है और वह जो देवालय है उसमें देवताओं का
वास हो जाता है, देवता कहते हैं|कि मानव के सुन्दर विचार जब परिणत हो जाते हैं वहां मानव की
प्रवृत्ति देववत हो जाती है और वह देवालय कहलाया जाता है गृह क्या, गृह का परमाणुवाद भ्रमण करने लगते हैं तो जहां यज्ञ
इत्यादि होते हैं वह देवालय हो जाते हैं और वह देवालय बन करके मानव के विचारों को
सुन्दर बनाते हैं। और उन्ही से गृह का वातावरण सुन्दर बन जाता है। उसी से गृह में
एक महानता की अग्रित होने लगती है। इसी प्रकार जब बाह्य जगत में इस ब्रह्माण्ड में प्रत्येक मानव प्रत्येक
देवकन्या, प्रत्येक मेरे प्यारे ऋषिमण्डल,वायुमण्डल जब प्रत्येक अपने महा सुन्दर प्राणों और मन की गति को दोनों को
विचार विनिमय करता हुआ, इसका सन्निधान आत्मवत्त स्वीकार करता हुआ, इसका परमाणुवाद जब वायुमण्डल में परिणत होता है तो उससे
प्रकृतिवाद बना करता है उसी से समय पर वृष्टि होती है,समय पर सब कुछ कार्य होता हुआ, राष्ट्र का उत्थान होता चला जाता है
जिन विचारों से संसार में एक महानता की ज्योति जाग्रत हो
जाती हैं।
ओ३म्
रुपी धागा
तो आज हम प्रभु का चिन्तन करते हुए उस महान आनन्दमयी ज्योति
का प्रसारण करते हुए विचार करते चले जा रहे थे,मैंने महानन्द जी के कथनानुसार आत्मा का विषय बखान कर दिया
है। क्योंकि आत्मा का विषय तो आत्मवेत्ताओं का विचार विनिमय करने का होता है
क्योंकि आत्मा का विचार क्या है क्योंकि आत्मा का विचार क्या है? आत्मा क्या है? प्रत्येक मानव को विचार विनिमय करना है। हमारे यहां जटा पाठ और घन पाठ होता
है, माला पाठ होता है,यह महर्षि शौनक मुनि महाराज ने उच्चारण किया,क्योंकि संसार में जटा पाठ, माला जैसे धागा होता है,महर्षि शौनक जी से कहा देवर्षि नारद मुनि ने कि यह माला पाठ,ओ३म् क्यों उच्चारण किया जाता है? इसी प्रकार ओ३म् रुपी धागा और प्रकृति का जितना ज्ञान और विज्ञान है,परमाणुवाद है, वह एक मनके के तुल्य है,वह मनका और धागा दोनों पिरोये हुए होने के नाते दोनों का
व्याप्य और व्यापक स्वरुप बन करके यह संसार हमे दृष्टिपात आता चला आ रहा है। यह
व्यष्टि से समष्टि में प्रतीत होता चला जा रहा है,उसकी प्रतीति हो रही है,इसीलिए प्रत्येक मानव को यह विचार विनिमय करना है,कि हमे व्यष्टि से समष्टि में परिणत होना है। इसमें अपने को
स्वीकारा है परन्तु व्यष्टि समष्टि इन दोनो को जानना ही मानव की आत्मा की उन्नति
होना है,क्योंकि इसमें व्यापकवाद है,
आत्मा कितना सूक्ष्म है और ब्रह्म अति सूक्ष्म है। जैसे
आत्मा सूक्ष्म है,ऐसे ब्रह्म भी सूक्ष्म है। क्योंकि
आत्मा के इस सन्निधान मात्र से ही कार्य प्रारम्भ होता चला जा रहा है। जैसे
प्रकृति में सन्निधान मात्र से कार्य हो रहा है, इसी प्रकार आत्मा के सन्निधान मात्र से मानव के चित्त की
प्रक्रिया प्रारम्भ होती चली जा रही है। जिसको हमे सदैव विचार विनिमय करना है भोग
भोगने वाला कौन है? वेद के आचार्य ,महर्षि वायु जी ने कहा है महर्षि आदित्य मुनि महाराज के समीप कहा कि यह जो भोग
है चित्त का धर्म है,परन्तु चित्त के ऊपर यह आत्मा का प्रतिबिम्ब आता है, प्रतिबिम्ब आने के नाते,चित्त का भाव चित्त का भाव आने के नाते, उसका व्यापार प्रारम्भ होता रहता है और इसी के प्रारम्भ से
उसी के सन्निधान से यह सब प्रक्रिया प्रारम्भ होती रहती है।
आत्मा का परमात्मा का व्याप्य और व्यापक स्वरुप माना ही
जाता है क्योंकि इसमें किसी प्रकार का संदेह हो ही नही सकता। हम सदैव हम महामना उस
महादेव की शरण में आये हैं,हम उस महामना प्रभु का चिन्तन करने के लिए आये हैं हमारा यह कर्तव्य है कि हम
प्रभु का चिन्तन करते हुए संसार सागर से पार होते चले जाएं। हमारा जीवन वास्तव में
तप में महानता में परिणत होना चाहिए।
मानव को यहां कर्म
तो करना ही है, क्योंकि यहां शुद्ध
कर्म करो,अशुद्ध कर्म करो,परन्तु यहां तो करना ही है यह जो प्रकृतिवाद है,यह कर्म का क्षेत्र कहलाया जाता है,तो जब मानव को कर्म करना है,तो क्यों नही उत्तम कर्म करने चाहिए। हमारे यहां एक वाक आता
है
कल्पवृक्ष
एक समय देवर्षि मुनि यहां स्वर्ग मण्डल से इस मृत मण्डल में
आ पंहुचें,मृत मण्डल यह विचार विनिमय कि आज मैं किसी दुखित प्राणी का निरीक्षण करुंगा,तो देवर्षि नारद मुनि महाराज इस संसार में विचरते हुए, देवर्षि मुनि भ्रमण
करते हुए,एक मानव के समीप पंहुचें, वह मानव बड़ा कष्ट में
था,बड़ा दुखित हो रहा था,प्रातःकाल का समय था,नारद मुनि जी बोले कि अरे, भई! तुम इतने कष्ट में क्यों हो!?उन्होंने कहा कि महाराज! मैं इस समय बड़ा कष्ट में हूं। मैं अपना जीवन नही चाहता,भगवन! मैं तो मृत्यु चाहता हूं, उन्होंने कहा-क्यों? उन्होंने कहा-महाराज! मेरी पत्नी नित्यप्रति दण्ड देती
है। मेरी पत्नी मुझे दण्डित करती है। उन्होंने कहा बहुत सुन्दर,तो तुम क्या चाहते हो? मेरी इच्छा तो यह है कि तुम स्वर्ग में चलो, वह मानव बड़ा प्रसन्न हुआ,देवर्षि नारद मुनि और वह मानव दोनो स्वर्ग के लिए उन्होंने
प्रस्थान किया, भ्रमण करते हुए,वह स्वर्ग के द्वार पर जा पंहुचें और स्वर्ग के द्वार पर जा
करके,देवर्षि नारद मुनि बोले हे मानव!
यह स्वर्ग का द्वार है, तुम स्वर्ग के द्वार पर विराजमान हो जाओ और मैं भगवान विष्णु से आज्ञा ले आऊं, कि तुम स्वर्ग में जाने योग्य हो अथवा नही, क्योंकि यह कल्पवृक्ष है, यह स्वर्ग का द्वार है,इस कल्पवृक्ष के नीचे तुम विराजमान हो जाओ|
वह मानव वहां विराजमान हो गया देवर्षि नारद मुनि महाराज स्वर्ग में जा पंहुचें। अब नारद
मुनि महाराज स्वर्ग में और वह मानव वहां कल्पवृक्ष के नीचे विराजमान हो करके
कल्पना करने लगा। क्योंकि वहां तो मन्द सुगन्ध वायु चल रही थी,स्वर्गलोक सुन्दर हो रहा था, उस मानव के मन में कल्पना जागी,अरे,यहां तो तेरे लिए आसन होना चाहिए था। विराजमान होने के लिए वह तो कल्पवृक्ष था,वहां कल्पना मात्र से ही एक सुन्दर आसन लग गया,वह मानव उस आसन पर विराजमान हो गया। जब ऐश्वर्य ने अधिक
ललाहित किया,उस मानव के मन में संकलन जागा,अरे, तेरे लिए तो यहां विश्राम करने वाला आसन होना चाहिए था। अब कल्पना मात्र से
ही, कल्पना की, वह कल्पवृक्ष का वहां एक सुन्दर एक आसन लग गया, उस आसन पर वह मानव विराजमान हो गया। विराजमान हो जाने के
पश्चात मानव के जब ऐश्वर्य ने प्रभावित किया,मानव के मन में संकलन जाग्रत हुआ, संकल्प आया, अरे यहां तो नाना प्रकार की अप्सराएं होनी चाहिए थी,सेवा करने के लिए अब कल्पना मात्र से ही नाना प्रकार की
अप्सराएं भी आ पंहुचीं। अब उस मानव की सेवा होने लगी,मनुष्य के मन में कल्पना जागी,अरे, यदि तेरी मृतलोक वाली पत्नी होती, तो तेरे ऊपर डण्डा भी होता।
अब यह वाक आते ही
वह तो कल्पवृक्ष था,तो डण्डे सहित पत्नी जी भी आ पंहुचीं। अब आगे वह मानव है और उसके पश्चात वह
पत्नी भी डण्डे सहित विराजमान हैं,इतने में देवर्षि नारद मुनि स्वर्ग में से आ गए,नारद मुनि ने अपने नेत्रों की ज्योति से दृष्टिपात किया,यह क्या हो रहा है। अरे, यह क्या है,यह खिलवाड़ हो रहा है, जब यह विचार आया, देवर्षि नारद मुनि ने दीर्घ वाणी से कहा अरे, कल्पना को त्याग,
अब उस मनुष्य ने
कल्पना को त्यागा,न तो पत्नी है,न आसन है, न अप्सरा हैं,वही कल्पवृक्ष के नीचे विराजमान है|मनुष्य नारद मुनि ने कहा-अरे महामूर्ख! अरे, तूने कल्पवृक्ष के नीचे भी विराजमान हो करके, भोग विलासों की कल्पना की है| अरे, यदि तू स्वर्ग की कल्पना करता,तो तुझे आज स्वर्ग प्राप्त हो जाता। अरे, देवता बनने की कल्पना करते,तो तुम देवता बन जाते,ऋषि बनने की कल्पना करते,तो ऋषि बन जाते, अरे,यह तूने क्या कल्पना की है?तो वह मानव बड़ा लज्जित हुआ,वाक उच्चारण करने का अभिप्राय यह क्या? यह जो जगत है। यह जो तुम्हे दृष्टिपात आ रहा है,यह एक प्रकार का कल्पवृक्ष है,यहां स्वर्ग की कामना करोगे,तो स्वर्ग प्राप्त होगा। यहां ऋषि बनने की कल्पना करोगे,ऋषि बनोगे,यहां भोगी बनने की कल्पना करोगे,तो भोगी बन जाओगे।
इसीलिए विचार यहां
तुम्हे कुछ न कुछ करना है। अरे, इसीलिए तुम इस कल्पवृक्ष के नीचे विराजमान हो करके ऊंची कल्पना करो, जिससे तुम महान बनते चले जाओ|
ओ३म्
रुपी धागे में ब्रह्माण्ड
तो यह जो ब्रह्माण्ड है, यह सर्वत्र ब्रह्माण्ड ओ३म् रुपी धागे से पिरोया हुआ है।
उसी में ओत प्रोत हो रहा है। सन्निधान मात्र से ही उसकी प्रतिभा को विचारना,उसी का चिन्तन करना,आत्म विश्वासी बनना,ऊंची कल्पना करना
अखण्ड
ब्रह्मचर्य
हे राजन! तेरे यहां उस काल में याग होगा, जब तू एक वर्ष तक
अखण्ड ब्रह्मचारी रहेगा, पति और पत्नी यज्ञमान यज्ञमाननी पत्नी अखण्ड ब्रह्मचारी|
अखण्ड ब्रह्मचर्य का अभिप्रायःकि आहार सुन्दर हो,सात्विक आहार को पान करने वाला मानव अखण्ड ब्रह्मचारी रह सकता है। अखण्ड
ब्रह्मचर्य का अभिप्रायः वह गायत्रानि छन्दों का पठन पाठन करता हुआ, ब्रह्मचर्य की गति को ऊर्ध्वा बनाता हुआ एक वर्ष तक वह रहता है। तो उसके याग
की जो प्रणाली है। उसके याग की जो आभा है उसका ब्रह्मचर्य ब्रह्म में जो विचार है।
वह याग में विचार हो करके देवता उस मानव के प्रसन्न हो जाते हैं।
महाराजा ज्येनकेतु
नाम के राजा के यहां याग हुआ, वृष्टि याग हो रहा है। वृष्टि याग की घोषणा हुई, राजा वृष्टि याग करा रहा है। प्रजा के सुखद के लिए,प्रजा के आनन्द के लिए वृष्टि याग के लिए राजा को कहा जा
रहा था। तुम और तुम्हारी पत्नी एक वर्षों तक समय इतना नही था,छह माह तक घोषणा करने से पूर्व यह
आदेश दिया जाता था,कि गायत्री का जपन करो, छन्दों का पाठ करो। वेदों का अध्ययन किया जाए, प्राणायाम किया जाए, तो विचारों को,उसी प्रकार का बनाया जाए। उसी प्रकार की औषध,उसी प्रकार की समिधा एकत्रित करके वह याग हो रहा है।
वेद
पूज्यपाद गुरुदेवः सृष्टि के प्रारम्भ में चार वेद, चार ऋषियों से प्रकट
हुए, परमपिता परमात्मा न
उन्हें विशेष ज्ञान दिया, चारों वेदों का संसार में प्रकाश हुआ। इसके पश्चात ज्यों ज्यों समय आया, ऋषियों ने इन चारों
वेदों को संहिता रूपों में लाए,
हमारे आचार्यों ने इन चारों वेदों की ११२७ शाखाओं की गणना
कराई है, जिनमें से महानन्द जी
के संकेतानुसार इस समय संसार में ९०० के लगभग प्रकट हैं, कुछ शाखा लुप्त हो चुकी हैं और उनकी कुछ खोज नहीं मिल रही
है।परन्तु आज का बुद्धिमान तो यह कहता है कि यह मिथ्या है, परन्तु आज का बुद्धिमान उस संसार में होता,जब हमारे पुस्तकालय के पुस्तकालय
शान्त किए गए, जहाँ निधि की निधि
अग्नि में भस्म हो गई हों, हो सकता है, उस समय यह शाखाएं भी
भस्म हो गई हों।
आज यह माना जाता है कि वेदों का ज्ञान कण्ठस्थ होता है, और कण्ठस्थ होकर यह
बचा है। परन्तु बुद्धिमान को यह भी मानना चाहिए, कि एक मानव सब शाखाओं को कण्ठस्थ कर सकता है, परन्तु कोई न कोई शाखा
अवश्य ऐसी रह जाती है, जो कण्ठ नहीं रहती, इसको पुस्तक रूप में लाने में बहुत कठिनाई होती है,
ब्रह्मा
का व्याकरण
सृष्टि के आदि में ब्रह्मा के व्याकरण में और महर्षि पाणिनि ऋषि के व्याकरण में कुछ भिन्नता है, परन्तु आज का
बुद्धिमान यह कहता है, कि कोई भिन्नता नहीं है। मेरे प्यारे महानन्द जी! के कथनानुसार यदि आज का
बुद्धिमान उस व्याकरण को देखता कि आदि गुरु ब्रह्मा की व्याकरण की क्या संज्ञा थी, तो उसको भिन्न भेदता
ज्ञात हो जाती, इन सब ही वाक्यों पर
विचार करना चाहिए। पाणिनि ऋषि महाराज द्वापर के प्रारम्भ में हुए, परन्तु वेदों का उच्चारण, वेदों की प्रतिक्रियाएं, आज से नही अरबों वर्षों से चली आ रही हैं, इन सब ही पर विचार करना चाहिए।
यह भी माना जाए जैसा महानन्द जी कहा करते है, कि हर युग में पाणिनि ऋषि भी हो सकते हैं, है तो यह मूर्खों वाला वाक्य, परन्तु हो सकता है कि हर युग में पाणिनि ऋषि महाराज हों, परन्तु ऐसा नहीं पाणिनि ऋषि और पूर्व की व्याकरण में कुछ भिन्नता है,
महानन्द जी का गुरु विनोद
आज का हमारा मुख्य उद्देश्य देवताओं के सम्बन्ध में था, हमारा यह वाक्य अभी
पूर्ण तो नहीं हुआ। यह मूर्ख महानन्द पता नहीं कहाँ से आ जाता है, इनके प्रश्नों की पोथी
की पोथी बन जाती है, उन पोथियों को उच्चारण करना नहीं चाहते, देवताओं का कुछ विवरण रह गया है, समय मिलेगा तो द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ काल में प्रकट करेंगे। 630728
प्रवचन
की दिव्यता
पूज्य महानन्द जीः
धन्यवाद! आज हमारा हृदय प्रातः मना रहा है, कि आज हमारे गुरुजी का आदेश हुआ। जिज्ञासु या शिष्य का
पूर्व जन्मों का संस्कार होता है,जो ऐसे महान गुरु हमारे समक्ष,अपने महान विचारों को नियुक्त किया करते हैं और हमारी आत्मा तृप्त किया करते
है। आज गुरुजी का आदेश मिला। हम इस योग्य तो नहीं हैं, कि इस सूर्य के समक्ष आ करके हम अपना प्रकाश दें। इनके
समक्ष हम अपने क्या विचार प्रकट कर सकते हैं, परन्तु आज हृदय बड़ा गद् गद् हो रहा है, कि जो आज गुरुजी का
ऐसा आदेश मिला और ऐसा प्रतीत हो रहा हैं, जैसे हमारा पूर्वजन्म
होने वाला हो। जब गुरु का ऐसा आदेश मिला हो, तो हमारा कर्तव्य है कि हम अपना वाक्य अवश्य प्रकट करें।
पूज्य
महानंद जी का उद्बोधन क्यों
हमारा उच्चारण करना क्या है? हम नित्यप्रति
मृतमण्डल का भ्रमण किया करते हैं, अन्तरिक्ष में रमण करते हैं। गुरु जी के समक्ष जब आना चाहते
हैं तो उस समय अन्तरिक्ष में वायु के समक्ष बहुत से विद्वत समाज को आकर्षित कर
लेते है। आज यह एक आश्चर्यजनक वाक्य हो रहा है। यह कोई नवीन वाक्य
नहीं, यह तो हमारे गुरु जी
का न प्रति पूर्वजन्म का कौन सा अभागा समय बन गया है, जो विद्वत समाज को ऐसा होना पड़ रहा है। यदि वह पूर्व को
भान्ति विद्वत समाज में होते या वह विद्वत समाज इनका होता, तो आज इनकी यह स्थिति ही क्यों होती। यह बड़ा खेद का वाक्य
है। वास्तव में हमारे वाक्य जहाँ मृतमण्डल में जा रहे हैं, वहाँ के मानव के लिए यह बड़ा आश्चर्यजनक एक वाक्य बन रहा है।
परन्तु कोई आश्चर्य नहीं है। रही यह वार्त्ता, कि आधुनिक काल के व्यक्ति, विद्वत समाज, कहता है कि यह कोई वाक्य नहीं, परन्तु यह महान हमारे
गुरु जी का मनोहर शरीर है, जिसके द्वारा हमारी यह आकाशवाणी जा रही है, यह बालक जो अपनी सुषुप्ति अवस्था
में वेदों का व्याख्यान दे रहा है, यह वेदों का वाक्य नहीं? परन्तु जब हम किसी विद्वान से प्रश्न करते हैं, तो प्रश्न के उत्तर में उसकी मधुवाणी शान्त हो जाएगी।
प्रवचन वेद वाक्य
एक वार्ता हम जानना
चाहते हैं, कि यह वेद वाक्य नहीं,तो और क्या है? तुमने कौन कौन-सी संहिताओं को जाना है। रही यह
बात, कि वेदवाणी अशुद्ध
होती है। हमारे गुरुवर विद्वत समाज में जो वाक्य उच्चारण किया करते हैं, वह सब यथार्थ हैं।
परन्तु वह जो शरीर है,उस वाणी में अभौतिक शक्ति के कारण वह वाक्य, जाते जाते अशुद्ध हो जाते हैं। वाक्यों का अद्भुत रुप बन
जाता है। जैसे आज हमारा एक मधु आदेश चल रहा है। हम इस योग्य तो नहीं कि गुरुजी के
समक्ष कोई वाक्य उच्चारण करें।
महानन्द
जी का आत्मा
आज का मानव यह भी कह रहा है, कि न प्रतीत यह महानन्द जी का आत्मा कैसे बोलता है? एक शरीर में दो
आत्माएं कैसे आ जाती है? अरे, आज के विद्वत समाज में
तार्किकता रह गई है, गम्भीरता का लेशमात्र भी नहीं रहा है। जब मानव में गम्भीरता आ जाती है, अपने आध्यात्मिकता को
विचारता है, तो उस काल में विचार
आता है कि यह क्या पदार्थ है? आज का मानव भौतिक विज्ञान को ही मान बैठा है। आध्यात्मिक विज्ञान का कोई महत्वदायक नहीं मान रहा है। क्या कारण है?
इसका मुख्य उद्देश्य यह ही है कि आज का मानव अपने कर्तव्य
से,अपने आहार व्यवहार से इतना तुच्छ
बन चुका है कि अपनी तार्किक बुद्धि को ही बुद्धि समझ रहा है और यह नहीं विचारता कि
आध्यात्मिक विज्ञान भी कुछ महत्वपूर्ण है या नहीं। हमारा व्याख्यान या गुरुजी का आदेश, यह सब आध्यात्मिक विज्ञान के
अनुकूल हैं। प्रश्न आता है, कैसे हो रहा है?
प्रवचन
कैसे
अन्तरिक्ष में सूक्ष्म शरीर द्वारा महान आत्माओं से विनोद
होता है। यह जो आत्मा हमारे गुरुजी के शरीर में विराजमान हो रहा है, जो आज संसार में
अज्ञानी बनी बैठी है, पुनरुक्ति होती है, और उस सूक्ष्म शरीर वाले विद्वत मण्डल में जाकर वह ज्ञान प्रबल हो जाता है और
इनके पार्थिव शरीर द्वारा गुरुजी के और हमारे व्याख्यानों का इस मृतमण्डल में
प्रसार हो रहा है। यह है हमारा आध्यात्मिक विज्ञान। आज मानव यह विचार कर लेवे कि
मैं इस तार्किक बुद्धि से इसको विचार लूं, तो कदापि नहीं जानी जाएगी। इसका क्या कारण है? क्योंकि मानव में
गम्भीरता नहीं, केवल तार्किकता रह गई
है, कि यह वेदमन्त्र नहीं।
वेदमन्त्र तो यथार्थ हैं, परन्तु आज के वेदमन्त्रों से क्यों नहीं मिलते?
वेदमन्त्र
क्या इसका कारण यह नहीं कि आज का तार्किक बुद्धि वाला ही
वेदमन्त्रों से मिलान कर रहा है परन्तु हमने भी गुरुजी के मन्त्रों का वेदों से
मिलान किया है और देखा है कि कुछ वेदमन्त्र मिल जाते हैं परन्तु पूर्ण मन्त्र
वेदों में नहीं मिलते, इसका कारण क्या है?
सतोयुग काल में,जब ब्रह्मा का काल था,ऐसी महानता आई,कि मूल वेद तो चार ही रहे,परन्तु उनकी ११२७ संहिताएं और बन गई। कैसे बन गई? यह भी ऋषियों का एक महान विशेषण है। जिस ऋषि ने, जिस एक विषय को लिया, उसी की संहिता बन गई। हमारे
गुरुदेव ने भी त्रेता काल में जिस समय राजा दशरथ के द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ कराया, उस पुत्रेष्टि यज्ञ की संहिता
है। जिसे शृंग संहिता कहते हैं। आज जब मानव यही विचार लगाए, कि वह संहिताएं कहाँ हैं?तो हम कहाँ से खोजकर लाए।
हमारे गुरुजी के
पिता विभाण्डक ऋषि ने यह सोचा कि मैं अपने महान बालक को ब्रह्मचारी बनाऊंगा। उसी
बालक की आत्मा का आज मृतमण्डल में प्रसार हो रहा है। जिसे १७८ वर्ष तक देवकन्या का
ज्ञान भी नहीं था, आज यह बालक बना बैठा है। क्या करें, आज का समाज तो कुछ नहीं। आज का संसार तो बड़ा आश्चर्यजनक प्रतीत हो रहा है।
हमारा भाग्य है, दुर्भाग्य है, कि ऐसे काल में ऐसी
वार्त्ताएं, वाक्य प्रकट हो रहा
है। हम कहाँ तक इस वाक्य को प्रकट करें। गुरुजी के समक्ष हम उच्चारण करने के तो
योग्य नहीं। हम ११२७ संहिताओं का प्रसार कर रहे थे। आज हमने संसार का बहुत सा
भ्रमण किया और आधुनिक वेदमन्त्रों को चारों वेदों में लगभग बीस हजार मन्त्र हैं।
ऋषि
दयानन्द का पुरुषार्थ
पूज्य महानन्द
जीः तो गुरुजी! लगभग बीस हजार मन्त्र
चारों वेदों में हैं। इसमें यह भी है कि पाणिनीय मुनि के व्याकरण के अनुकूल वह वेदों का पाठ करते हैं। परन्तु हमारे गुरु जी ने गुरु ब्रह्मा के महान व्याकरण
को जाना और उसी के अनुकूल वह वेदों का प्रसार किया करते है। इसलिए आज के
वेदपाठियों के,तार्किक बुद्धि वालों के,कण्ठ नहीं आते,उनके विचार इनसे भिन्न रहते हैं।
आज का मानव यह भी मान बैठा है हमने भी गुरु जी से ऐसा सुना है कि अब से कुछ काल
पहले पूर्व यहाँ दयानन्द नाम के आचार्य आ पधारे,जिन्होंने कुछ महान वेदों को जाना और कुछ संहिताओं को
एकत्रित किया। आज का तार्किक समाज यही माने बैठा है कि जो दयानन्द आचार्य ने कर
दिया, वह ही यथार्थ है।
वास्तव में जितना कुछ उन्होंने किया, यह यथार्थ है, बुद्धिपूर्वक है। परन्तु आज का मानव उनकी वार्त्ताओं की गम्भीरता पर दृष्टि
नहीं पहुँचाता। आज का तार्किक बुद्धि वाला उनके विचारों से पृथक हो चुका है। हम
यही विचार लगाए बैठे रहें,कि जो मानव कहता है, वह ही यथार्थ है, तो मानव की बुद्धि सीमित हो जाती है।
आज मानव की बुद्धि
सीमित है। परन्तु आज हम उनके बड़े आभारी हैं। उन्होंने बड़ा ऊँचा ज्ञान हमारे समक्ष
नियुक्त किया, वह मानने योग्य है।
परन्तु क्या करें? आज का मानव तो उसके ऊपर भी नहीं चल रहा है। परमात्मा की आज्ञा के अनुकूल वेद
का प्रसार करने के लिए महान आत्माएं आती हैं। आज यह हमारा दुर्भाग्य नहीं, तो और क्या है, कि उन्हें कष्ट दें
करके, नष्ट भ्रष्ट करके, उनकी आज्ञाओं के
अनुकूल भी नहीं चलते। उन्होंने जो कुछ किया, वह यथार्थ किया, परन्तु रही यह वार्त्ता, कि वेदों की ११२७ संहिताएं हैं।
पैंतीस
हजार वेदमन्त्र
आज हमने बहुत-सा खोजा, कण्ठ तो नहीं रहा,चारों वेदों में लगभग बीस हजार
मन्त्र हैं। चारों वेदों में लगभग पैंतीस हजार मन्त्र हैं,वह कहाँ हैं? तार्किक बुद्धि वाले प्रश्न करते हैं, कि इतने मन्त्र कहाँ हैं, जो यह १५, ००० मन्त्र दृष्टिगोचर नहीं हो पा रहे हैं। यह कहाँ मिलेंगे? आज हम यह तार्किक
मनुष्यों से प्रश्न करते हैं तो उनकी बुद्धि शान्त हो जाती है। उनकी तार्किकता
समाप्त हो जाती है। वह कहेंगे कि जो ऋषि दयानन्द ने कहा है, वह यथार्थ है और हम
उन्हीं के अनुकूल चल रहे हैं। अरे, मानव! यह तो यथार्थ है,उन्होंने कहाँ-कहाँ से निधियों को खोजा और हमारे समक्ष नियुक्त कर दिया। परन्तु तुम्हारा
दुर्भाग्य ऐसा है, कि तुम उसके अनुकूल भी नहीं चल रहे हो। आज के मानव के समक्ष तो परमात्मा भी या
कोई ब्रह्मा भी बन करके वेदों का प्रसार करने लगे, तब भी यह संसार नहीं मानेगा। उसे भी नाना प्रकार की ठोकरें,नाना प्रकार के कष्ट और वज्रों से
समाप्त कर दिया जाएगा। उनका संसार में चिह्न भी न रहेगा। आज का मानव तो ऐसा बन रहा
है। आगे तो ऐसा काल आने वाला है, कि हमारे जो गुरुजी का शरीर है, इस पर न प्रति क्या कष्ट आएं। क्या क्या वज्रों का प्रकोप हो, यह तो आज हम उच्चारण
नहीं कर सकते। यह तो गम्भीर विषय है, इसे तो हम उच्चारण नहीं करेंगे। आज तो हम गुरुजी के आदेश के अनुकूल उच्चारण कर
रहे हैं।
आज हम यह नहीं कहते जो कुछ आचार्य ने कहा है, वह यथार्थ नहीं। हम तो
बलपूर्वक कहते हैं कि उन्होंने जो कुछ भी कहा है, गम्भीरतापूर्वक, आत्मिक बल के अनुकूल कहा है। परन्तु आज मानव उनके अनुकूल नहीं चल रहा है। उससे
विपरीत हो चुका है। आज कोई भी महान आत्मा आ जाए, प्रसार करके चली जाएगी। यह मानव तो ऐसा है,जैसे हमारी यह आकाशवाणी मृतमण्डल
में जा रही है,आज का संसार हमारे गुरुजी को कहा
करता है,कि अरे, हमें तो यह बड़े महान प्रतीत होते हैं। जैसे यह ब्रह्मचारी
इस प्रकार का स्वांग ही करता हो,यह तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं। आज का मानव यह कह दे, तो इससे हमारे ऊपर किसी प्रकार का कष्ट नहीं और न किसी
प्रकार की कोई आपत्ति ही आती है।
हम अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा देखा करते हैं, कि गुरुजी का आत्मा आज
ऐसा पात्र बन बैठा है। यह भी पूर्व जन्मों का एक महान विशेषण है। आज इस अवस्था में
गुरुजी का जो मृतलोकी शरीर है, महान मूर्ख बना बैठा है। वास्तव में मूर्ख है? परन्तु मानव! उस आत्मा का,परमात्मा का ऐसा ही विधान है। हमें बड़ा आश्चर्य आता है,कि आधुनिक काल में ऐसा जीवन कैसे
व्यतीत हो रहा है। ऐसा मधु वाक्य कैसे उच्चारण हो रहा है। बड़ा आश्चर्यजनक वाक्य
है। गुरुजी तो उच्चारण कर रहे हैं, कि प्रशंसा न करो।
तो हम क्या उच्चारण कर रहे थे, कि हम पैंतीस हजार वेदमन्त्रों को देखा करते हैं, और खोजा करते हैं। आज
भी हमें यह प्रतीत हो रहा है, कि हमें कितनी संहिताएं मिल रही हैं। आज संसार में दो सौ सत्ताईस (२२७)
संहिताएं लुप्त हो रही हैं। क्या करें, उन संहिताओं को कहाँ से लाए। महान गुरुजी ने तो कहा था, हम उच्चारण करेंगे, कि वे संहिताएं कहाँ
मिल सकती हैं? परन्तु इसका उत्तर आज
हम दे देवें, क्योंकि गुरुजी तो
उत्तर देते ही रहते हैं। हमें तो गुरुजी के समक्ष उच्चारण करने का किसी-किसी स्थान में ही अवसर मिलता है।
परन्तु गुरुजी! हम आपके समक्ष क्या उच्चारण कर सकते हैं। आप तो सूर्य बने बैठे
हैं। हम आपके द्वारा क्या प्रकाश दे सकते हैं। इतने योग्य तो नहीं, परन्तु चलो, न देने से कुछ देना ही
सुन्दर है।
लुप्त
संहिताएँ
वे संहिताएं कहाँ मिल
सकती हैं। उत्तराखण्ड के पर्वतों में, अब भी ऐसे ऋषि और महर्षि हैं,जिनके द्वारा भोजपत्रों पर सर्वश: सहिताएं नियुक्त हुई बैंठी हैं। आज मानव कैसे खोजेगा,यह तो बड़ा महत्वपूर्ण वाक्य है,आश्चर्यजनक वाक्य है। अहा! वह तो ऋषि और महर्षि हैं, वह भी उनको लिए शान्त
बैठे हैं। इसलिए कि संसार में जाएंगे,तो संसार के नाना प्रभाव में पड़ करके हमारा जीवन शान्त हो जाएगा। जो यह
परमात्मा का आनन्द लेते रहते हैं,वह शान्त हो जाएगा और वेद की जो महत्वपूर्ण संहिताएं हैं, इनका भी संसार में जा
करके इतना महत्व नहीं रहने का। गुरुजी तो हमें मूर्ख कहा ही करते हैं,परन्तु हम उन महर्षियों का भी कोई
महत्व नहीं मान रहे हैं,जो इतनी महान विद्या संसार से लुप्त है,आज वह विद्या संसार में आ जाए,तो कोई हानि नहीं। परन्तु क्या करे,वह भी यहाँ तक नहीं आते। क्योंकि ऐसी ऐसी महान आत्माओं को
जो कष्ट दिए जाते हैं, सुनकर वह संसार में नहीं आते। इसका मुख्य कारण यही है, कि यहाँ आकर कष्टों के सिवाय कोई सुख नहीं मिलता। वह तो
आत्मा के आनन्द में बैठे हुए हैं। इसलिए भगवन्! हम आपके समक्ष क्या आदेश दें।
जिस समय यहाँ दयानन्द नाम के आचार्य, शङ्कराचार्य नाम के आचार्य
आए,तो उन्होंने बड़ा बड़ा खोजा। नाना
प्रकार के अन्धकार को समाप्त किया,परन्तु दोनों मतों में ऐसी त्रुटियाँ आ गई हैं,कि मानव उन त्रुटियों में जा करके,उस अन्धकार से निकलना ही नहीं चाहता।
महात्मा बुद्ध ने एक वाक्य कहा था,कि हिंसा न करो। परन्तु आज का मानव हिंसावादी बन गया है। जब
हम आधुनिक काल के राजाओं को और प्रजा को देखते हैं,तो ऐसा प्रतीत होता है, कि आज के संसार में इतनी तुच्छता आ गई है,कि हम दूसरे जीवों को और उनके गर्भ
को आहार करने वाले बन गए हैं। आज जो मानव गर्भों का आहार कर रहा है, अरे, न प्रति उन्हें, क्या क्या कष्ट आएंगे।
अरे, जब तुम दूसरे जीवों का
आहार करते हो, उनके गर्भो का आहार
करते हो, तो यदि आज कोई
तुम्हारे गर्भों का आहार करे, तो तुम्हारा हृदय क्या कहेगा? आज मानव इस पर दृष्टि नहीं पहुँचाता। परमात्मा ने जो महान जीव बनाए हैं, जो भी योनियां दी हैं, इस आत्मा के कारागार
के लिए दी हैं। परन्तु मानव योनि,भोग योनि और कर्म योनि दोनों मानी गई हैं। अरे, मानव! जब परमात्मा के कारागार वाले जीवों की हिंसा करके,अपने जीवन की पूर्ति करते हो,तो एक काल वह आएगा,जब तुम भी परमात्मा के कारागार में
अवश्य चले जाओगे। भगवन्! आज
हम गंगोत्री के तट पर भ्रमण कर रहे थे तो वहाँ देखा, कि आचार्यों का शास्त्रार्थ हो
रहा था कि हमारे पूर्व के ऋषि मुनि मांस का भक्षण किया करते थे? तो हमने कहा कि चलो, गुरुजी से प्रश्न करेंगे
परन्तु गुरुजी का कार्य हमें ही करना पड़ गया।
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य...अच्छा बेटा!
पुरातन
ऋषियों का जीवन
आज का मानव यह माने बैठा है,कि यह जो जितनी योनियां परमात्मा ने दी हैं,सब मानव के लिए दी हैं,मानव के सुख के लिए दी हैं,यह यथार्थ है। यदि गुरुजी आज्ञा
देंगे, तो कल उच्चारण करेंगे, कि कौन कौन सी योनि
कितना लाभ देती है। परन्तु आज का मानव तो यह माने बैठा है, कि इन योनियों का आहार करने से ही तेरे उदर की पूर्ति होगी।
क्या करें यह संसार महात्मा बुद्ध के अनुकूल भी न रहा, महात्मा महावीर के अनुकूल भी न रहा। यह संसार न प्रतीत कहाँ से कहाँ
पहुँच गया है। गुरु नानक ने क्या कहा कि हिंसा से दूर भागो, अरे, हिंसा न करो। जब हिंसा
करोगे,तो तुम भी हिंसा वाले बन करके, संसार में तुम्हारा
जीवन समाप्त हो जाएगा। परन्तु उसके मत वाले,उसके अनुकूल न रहे। नाना प्रकार के मत बनाकर वेद के आदेशों
को समाप्त कर दिया।
आज जब हम गंगोत्री के तट पर भ्रमण कर रहे थे तो हमने सुना
कि पूर्वकाल के ऋषि गौमांस का भक्षण किया करते थे। आज हम उन पर दृष्टि पहुँचाते
हैं,तो वाक्य कहीं का कहीं जाता है। हम
उनसे प्रश्न करें, कि भाई! कौन से ऋषि मुनियों को तुमने ऐसा पाया? जो भी महान आत्मा आती है,वह ही अहिंसा का प्रचार करती है,न कि हिंसा करो। यदि आदि महर्षियों पर दृष्टि पहुँचाते हो,तो उनका जीवन न प्रतीत कितना
महत्वपूर्ण था। जब हम यह प्रश्न करते हैं,तो उनके द्वारा कोई उत्तर नहीं रहता। आज के मानव को ज्ञान
नहीं, कि वे हमारे महर्षि जन कैसे हिंसा करते थे? कैसा उनका भोग विलास था?
ऋषि,महर्षियों के आहार
पूर्वकाल में महर्षि ऐसा भोग विलास किया करते थे,ऐसी उनकी महान हिंसा थी, जैसा कल गुरुजी एक
आदेश प्रकट कर रहे थे। आज हम उसके विशेषण में कुछ उच्चारण कर देवें, कि हमारे ऋषि महर्षि
ऐसे थे,कि कामधेनु के दुग्ध का आहार करते
थे,आत्मा को प्रसन्न करने के लिए,जो परमात्मा ने रसदायक पदार्थ दिए,हृदय को उदार बनाने वाले पदार्थों
का आहार करके,ऋषि मुनि अपने कर्तव्य का पालन
करके,इस संसार को ऊँचा बना गए। उन्हीं ऋषियों के काल को सतोयुग
कहा जाता है। जिस काल में हिंसा नहीं होती,जिस काल में दूसरों के गर्भ को आहार नहीं किया जाता,वह काल हर प्रकार से श्रेष्ठ कहा
जाता है। आज गुरुजी का कार्य तो हमें ही करना पड़ गया। क्या करें, समय ही ऐसा आ गया है।
हम क्या उच्चारण कर रहे थे? हम वेद के सम्बन्ध में व्याख्यान दे रहे थे। आज राष्ट्र के
ऊपर दृष्टि पहुँचाते हैं, तो राजा कैसे बन गए हैं? पूर्वकाल में हमारे राजा,महाराजा कैसा भ्रमण करते थे?
त्याग से राष्ट्र
एक समय राजा दशरथ ने
महर्षि वशिष्ठ मुनि महाराज से प्रश्न किया था, कि मैं राष्ट्र का पालन करूं,तो कैसे करूं? उस समय उन्होंने कहा था कि कोई भी राष्ट्र का या किसी का पालन तब तक कर सकता
है, जब उसके द्वारा त्याग
होगा और आत्मिक ज्ञान होगा। आज के समाज को देखते हैं, राजा, महाराजाओं को देखते हैं, तो उनके द्वारा भौतिक विज्ञान तो है परन्तु आध्यात्मिक विज्ञान पर दृष्टि नहीं
पहुँचाते और कहते हैं कि हमारे शरीर में आत्मा है ही नहीं। हमारा शरीर तो
पञ्चभौतिक तत्वों से चल रहा है और
पञ्चभौतिक तत्वों में रमण कर जाएगा। यह
आत्मा कोई पदार्थ नहीं है। यदि हम उनसे प्रश्न करें कि भाई! जब तुम्हारा शरीर
पञ्चभौतिक तत्त्वों का बना हुआ है, तो पञ्चभौतिक तत्त्वों से बना हुआ,तो यह जल भी है। यह जल तुम्हारी भांति व्याख्यान क्यों नहीं कर देता? यह जल तुम्हारी भांति ज्ञान को क्यों नहीं प्राप्त होता? अरे,पञ्चभौतिक से तो यह अग्नि भी बनी
हुई है,क्योंकि यह अग्नि वायु में रमण
करती है, जल भी रमण करता है, अन्तरिक्ष भी रमण करता
है,प्रत्येक तत्त्व पञ्चभौतिक से बना हुआ है,तो यह वह कार्य क्यों नहीं कर देता? इसका उत्तर किसी के द्वारा नहीं मिलता।
आज का राजा महाराजा कैसा बना बैठा है? कि आज हम खूब अपने उदर
की पूर्ति करें, रक्त के आहार को लें।
दस इन्द्रियों के आहार को लें, तब ही हमारा राष्ट्र ऊँचा बनेगा। प्रजा भी यह मान बैठी है, तार्किक बुद्धि वाले
भी मान बैठे हैं,कि जो कुछ तुमने माना है वह यथार्थ है और उससे परे कोई पदार्थ नहीं है। क्या
करें? यह तो हमारा दुर्भाग्य
है, राष्ट्र का दुर्भाग्य
है,समय की प्रबलता है। जैसे गुरुदेव!
रात्रि को जुगनुओं को प्रकाश मिलता है,महान पिशाच योनियों को प्रकाश प्रतीत देता है, सूर्य के प्रकाश को नहीं लेना चाहता। ऐसे ही आज का तार्किक
बुद्धिमान बन बैठा है। आज उस तार्किक बुद्धि को विचार लगाना चाहिए,अपने में गम्भीरता लानी चाहिए।
आज हम अपने गुरुजी
के जीवन पर दृष्टि पहुँचाते हैं,तो उनका जीवन इतना महत्वपूर्ण था कि उन्होंने तार्किक बुद्धि में अपने जीवन को
ऐसा बनाया कि तार्किक बुद्धि में सौलह प्रकार की बुद्धि का विचार किया। इसके
पश्चात विचार आया कि तार्किक बुद्धि में कोई महत्वता नहीं।उसी समय गम्भीरता आई।
गम्भीरता आ करके हमारे गुरुजी को जिस काल में मृतमण्डलों में आकाशवाणी जा रही है,बालक मात्र पुकारा जाता है, उस बालक ने पूर्व जन्मों में
७१,७१ वर्ष तक निद्रा को जीतने
वाले कहलाए गएं हैं परन्तु आज हम क्या उच्चारण करें? यह तो दुर्भाग्य है। हमारा भी कोई
दुर्भाग्य है, गुरुजी का तो है ही,कि ऐसे काल में आ पहुँचे और गुरुजी के
आपत्तिकाल में सहायता देनी पड़ रही है।
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य......
क्या करें, कुछ कहा नहीं जाता। इस विशेषण में अधिक व्याख्यान नहीं देना चाहते? कल गुरुजी हमें समय
देंगे, तो इसके सम्बन्ध में
बहुत कुछ उच्चारण करेंगे। यह आज का हमारा एक आदेश था। आज हम किस काल पर दृष्टि
पहुँचाएं। कहाँ कहाँ के दृष्टान्तों को लिया जाए?
आज हम ११२७ संहिताओं पर अपना विचार करते हैं,तो हम एक महत्वपूर्ण आदेश को लेते
हैं। आज हमने वेदों से गुरुजी के बहुत से मन्त्रों का मिलान किया, तो गुरुजी के कुछ वेदमन्त्र तो वेदों में मिल
जाते हैं परन्तु अधिकतर नहीं, परन्तु कुछ कुछ मिलते हैं उसका कारण क्या है? वह कौन सी संहिताएं लुप्त हो
रही है। आज की संहिताओं में एक अङ्गिरस संहिता है जिसका आजकल गुरुजी का पाठ चला
रहा है। देखो, कल गुरुजी से अनुरोध करेंगे, कि यह अपना कुछ प्रकाश प्रकट
करें, कि जो आदेश हमने दिया है, वह कहाँ तक यथार्थ है। परन्तु
आज के मानव को यह नहीं मान लेना चाहिए, कि जो आज मानव कहता है, वह यथार्थ कहता है। हम यह नहीं कहते,कि उनकी वार्त्ताओं में यथार्थता नहीं
होती। हम तो यह चाहते हैं कि मानव की तीव्र बुद्धि होना चाहिए,आध्यात्मिक विज्ञान और ज्ञान उसके
द्वारा होना चाहिए, जिससे मानव में कुछ न कुछ विशेषता आए। हम तो कहते हैं कि हमारे द्वारा भी कोई
त्रुटि रह सकती है। कोई ऐसा अनुचित्त वाक्य उच्चारण हो गया हो, जिसके लिए हम सभी
दार्शनिकों से, महानुभावों से, गुरुजनों से, जो यहाँ उपस्थित हैं, उन सबसे प्रार्थना
करें, कि वह हमें अवश्य
क्षमा करेंगे।
इससे अधिक आज हम व्याख्यान करना नहीं चाहते। गुरुजी हमें
आदेश देंगे,तो कल हम उच्चारण करेंगे कि
परमात्मा के कारागार में जो इतनी योनियाँ हैं,इनमें क्या क्या गुण हैं? आज मानव यही मान बैठा है,कि जितनी ये योनियाँ है,यह सब भक्षण करने के लिए दी हैं। अरे, नहीं नहीं, भक्षण करने के लिए
परमात्मा ने तुम्हें बहुत से पदार्थ दिए हैं। बहुत सोमलताएं दी हैं, महान फल दिए हैं, जिनको पान करके
तुम्हारी बुद्धि तीव्र होती है,सात्विकता आती है,ब्रह्मचर्यता आती है,जिससे तुम्हारा हृदय उदार होता है, महानता आती है। गुरुदेव! आज का मानव तो प्रातःकाल में अपने स्थानों से अलग
होता है, और उस काल में यह
विचारता रहता है कि आज मुझे किस जीव के गर्भ को बनाना है। जिससे तेरी रसना की
पूर्ति हो। आज कौन से जीव की तुझे हिंसा करना है, जिससे तेरी रसना की पूर्ति हो जाए,जिससे तेरी उपस्थ इन्द्रियों की पूर्ति होगी। परमात्मा ने
जितनी भी ये सब योनियां दी हैं, ये सब मानव के भक्षण के लिए दी हैं। अरे, मानव! यह इसलिए नहीं दी हैं, ये तो परमात्मा ने सब मानव कल्याण के लिए दी हैं। आज का
हमारा आदेश समाप्त हो गया है। कल गुरुजी का आदेश होगा,तो कल उच्चारण करेंगे, यदि गुरु जी का आदेश होगा तो गुरुजी से अनुरोध करेंगे, कि ये स्वयं ही इस
व्याख्यान को देंगे। गुरुजी तो बड़े दयालु हैं। न प्रति हमारे ऊपर उनकी कितनी कृपा रहती है। हम तो इनके
महान आभारी हैं, जो इस आपत्ति काल में भी हमारी वार्त्ताओं को स्वीकार करते
रहते हैं, और हमारे प्रश्नों का उत्तर
देते रहते हैं। 620515
दीपमालिका
महाराजा नल जब साम गान गाते थे, प्राण को अपान में स्थिर करके जब गान गाते थे तो साम गान गाते गाते गृहों में
दीपमालिका के दीप प्रदीप्त हो जाते थे। प्राण को अपान में,अपान को प्राण व समान में प्रवेश करके यह गान गाया जा सकता है। प्राणों को
एकाग्र करने से लघु मस्तिष्क में एक लल्लाहट आ जाती है। उनमें अग्नि प्रदीप्त हो
जाती है। उस अग्नि के प्रकाश से शब्दों में वही शब्द ध्वनि है जो गान के रूप में
गाई जाती है तो दीपमालिका बन जाती है।880515
वेद
गान का महत्व
जब ब्राह्मण उद्गाता वेद का गान गाता हैं,जितना शुद्ध वेद का मन्त्र होता हैं उतना ही वायुमण्डल में अशुद्ध परमाणुओं को
नष्ट करता हुआ,अशुद्ध परमाणुओं को निगल लेता हैं। और
शुद्ध परमाणुओं को जन्म देता हुआ,द्यौ लोक को प्राप्त हो जाता हैं।
तो पति पत्नी अपने बाल्य बालिका को ले करके विराजमान होता
हैं,
अपने गृह में तो वेद का अध्ययन कर रहे हैं, और शुद्ध और पवित्र उनके दर्शनों का अध्ययन हो रहा हैं, तो वह जो शब्द हैं,वह उस गृह को
शुद्ध और पवित्र बनाते हैं। उस गृह को आभा से युक्त बना देते हैं। गृहपथ्य नाम की
अग्नि की पूजा क्या हैं? जो गृह में
अग्नि प्रदीप्त होती है,गृह में
सुसज्जित रहते हैं,पति पत्नी का विचार,वह गृहपथ्य नाम की अग्नि कहलाता है। वह द्यौ लोक को जाता हैं। अशुद्ध शब्द अन्तरिक्ष में प्रवेश
करता हैं, उससे अनावृष्टि अतिवृष्टि के
मूल कारण बनते हैं और जो शुद्ध पवित्रतव होता हैं। वह द्यौ लोक को जाता
प्रतीत होता है। वह स्वर्ग में ले जाने वाला हैं,मोक्ष का गामी बना देता हैं।
याग में परिणित होना चाहिए,प्रत्येक मानव को यहाँ यागिक
बनना चाहिए। याग का अभिप्रायः यह कि अग्न्याध्यान करना याग नही हैं,वह तो याग हैं, परन्तु उस याग में
पवित्रता आनी चाहिए, हृदय की पवित्रता
ब्रह्मचर्य से सुसज्जित होना चाहिए। उसके पश्चात पवित्र हृदय ही द्यौ लोक को जाता
हमें दृष्टिपात होता हैं,
आज का विचार क्या
हम अपने प्यारे प्रभु का गुणगान गाते हुए, देव की महिमा का गुणगान गाते हुए इस संसार सागर से पार होना चाहिए।
वेद पाठी यज्ञशाला में देवताओं का आह्वान करता हैं, जितना भी शुद्ध पवित्र, वेद पाठ होगा,उतने शुद्ध परमाणु बनेंगें,और जितने
परमाणु शुद्ध पवित्र बनेगें,उतना ही
वायुमण्डल पवित्र होगा,और जितना
वायुमण्डल पवित्र होगा,उतना ही वह
कर्तव्यवाद होगा,और जितना कर्तव्यवाद
होगा,उतना मानव समाज में शुद्ध और पवित्रता रहेगी।60469
वेद
गान
मेरे प्यारे महानन्द जी ने एक प्रश्न किया, क्या भगवन! यज्ञशाला में विराजमान होने वाला, पठन पाठन करने वाला आचार्य, और जिसे हम
उद्गाता कहा करते हैं, और ब्रह्मा, ये वेदों
का बड़े ऊँचे स्वरों के उच्चारण करते हैं,
हमारे यहाँ महानन्द जी ने एक समय ऐसा प्रश्न किया और यज्ञ
में आहुति के साथ में,वेद मन्त्रों के पठन पाठन की पद्धति क्यों हैं? इनके प्रश्नों का उत्तर और वह यह है कि संसार में जब हम यज्ञ कर्म में संलग्न
होते हैं,यज्ञ कितने भी प्रकार के होते हैं,एक मानव वाणी का यज्ञ करता है, मानव को वाणी
से,
मधुर और सत्य उच्चारण करता है,यह जब ही होता है,जब तीनों भावना उसके
साथ साथ होती हैं,तो वह एक प्रकार का
वाणी का यज्ञ हो रहा हैं। जब
वाणी के यज्ञ में उसकी महान प्रगति हो जाती हैं, उसी प्रगति के साथ साथ मानवीय वाक् मानवीय याग उच्चता को
प्राप्त होता रहता हैं। तो मेरे आचार्य जनों ने कहा है, मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा है कि वेद जो हैं उसे परमात्मा का ज्ञान कहा जाता हैं, जब हम वेद मन्त्रों की ऋचाओं को
उच्चारण करते हैं, मन्त्रों का पठन पाठन करते हैं, तो भगवान राम ने और भी आचार्यों ने वशिष्ठ इत्यादियों ने वर्णन किया कि वेद का जो एक एक अक्षर हैं। वेद
का जो एक एक मन्त्र हैं, उसमें शुद्ध वाक् है, जब मानव या ब्राह्मण जब हृदय से उसका पठन पाठन करता हैं।700469
वेद
गायन से वायुमण्डल का शुद्धिकरण
आज परमात्मा से निवेदन करें, परमात्मा से उच्चारण करें,कि हे परमात्मन्! आपके बनाए हुए संसार में, आज प्रत्येक मानव, प्रत्येक देवकन्या
दुःखित होती चली जा रही है, एक मानव दूसरे
मानव पर घात लगाए बैठा है। परन्तु वेदवाणी तो कहती है कि परमात्मा ने संसार को
मनोहर उत्पन्न किया है। वेदवाणी के उच्चारण से इस विशाल वायु मण्डल को शुद्ध किया
जाए,
जिससे कि मानव के अन्तःकरण में शुद्ध भावानाएं आएं।620401
वेद
गायन से शुद्धि
आज वेदों का गान गाते समय,हृदय में बड़ी मनमन्ता उत्पन्न हो
रही थी,और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे विधाता हमारी रसना में और हमारे कण्ठ में
विराजमान हो करके हमें उत्साह दे रहा है,कि मेरी वाणी का और अच्छी प्रकार से प्रसार करो। जिससे कि मेरी वाणी सर्वत्र
ब्रह्माण्ड में ओत प्रोत होकर, इस अन्तरिक्ष
को,इस भू मण्डल को पवित्र कर दें, अर्थात् यह
सारा संसार पवित्र हो जाए। क्या करें समय का अभाव है। आज हमारी इच्छा तो यह थी, कि उच्च स्वर से और अधिक वेदों का गान किया जाए, जिससे कि अन्तरिक्ष में वेदों के मन्त्रों का रमण हो करके, वातावरण अच्छी तरह शुद्ध हो जाए। यह ब्रह्माण्ड,यह सारी सृष्टि, आपकी बनाई हुई है। हमारी
रसना में आपका ही बल दिया हुआ है। हमारे कण्ठ में भी आप विराजमान हैं, आपकी ही कृपा से,आपकी ही सत्ता से हम
वेदमन्त्रों का गान कर पाते हैं। आपकी वाणी कहती है कि यह वायुमण्डल,यह अन्तरिक्ष वेदमन्त्रों से ही शब्दाययमान हो करके,शुद्ध हो जाता है। यह आपकी बड़ी मनोहरता है।620401
वेद
गान सात स्वर
हम तुम्हारे समक्ष उन वेद मन्त्रों का पाठ कर रहे थे,जिनका पाठ,
हमारे महर्षि अंगिरा मुनि आचार्य ने सात स्वरों में किया
था। हम पूर्व की भांति, वेदों का पाठ
अच्छी प्रकार से नहीं कर सकते। परन्तु हमारे गुरु ब्रह्मा जी ने बहुत पूर्व काल
में कहा था,
वेद पाठ न करने से कुछ करना भी सुन्दर होता है। इसलिए आज
उसी आज्ञा के आधार पर वेदों का गान गा रहे थे। महान प्रभु हमारी वाणियों की भी
वाणी है। हमारी वाणी में माधुर्य उसी का दिया हुआ है। वह महान प्रभु इस संसार को
चला रहा है। हमारे जीवन की नाना योजनाएं बना रहा है। आज के मन्त्रों में उस प्रभु
की महत्ता का वर्णन किया गया है। आज के वेद मन्त्रों में जो प्रभु का गुणगान किया
गया है,
हम तो उसका भी पूर्ण रूप से व्याख्यान करने में असमर्थ हैं, हम जो कुछ व्याख्यान करते हैं, उसकी रूपरेखा
परमात्मा के दिए उपदेश, वेद मन्त्रों, से ही लेकर कुछ व्याख्यान कर पाते हैं।620402
वेद
गान गायत्री
धर्म में पूरी पूरी आस्था रखते हुए,कभी भी मनुष्य को अपने कर्तव्य से विमुख नही होना चाहिए। धर्मशील मर्यादा
पुरूषोत्तम राम के जीवन को जब लंका में राम रावण युद्ध चल रहा था,तब भी राम नित्य
प्रातः एक सहस्र गायत्री का जप करके ही युद्ध स्थल में उतरा करते थे,राम जब तक एक सहस्र गायत्री का जप समाप्त नही कर लेते थे,तब तक वे संग्राम भूमि में उपस्थित नही होते थे। महाराज राम के चरित्र की तथा
इतिहास की इस बहुत सुन्दर वार्त्ता का कथन महर्षि बाल्मीकि ने हमारे समक्ष किया
था। महर्षि बाल्मीकि द्वारा महाराजा राम जी का इतिहास तो एक महान वन के तुल्य हैं।
620403
वेद
गायन का वास्तविक स्वरूप
हम तुम्हारे समक्ष वेदमन्त्रों का गान गा रहे थे। ये भी
तुम्हें प्रतीत हो गया होगा, जिन
वेदमन्त्रों का अभी अभी हमने तुम्हारे समक्ष पाठ किया। आज हृदय प्रातः मना रहा था
और वेदवाणी में इतना ललाहित हो रहा था, और पुकार पुकार कर कह रहा था, कि परमात्मा का
गुणगान गाते ही चले जाओ। आज के वेदपाठ में बहुत सी माधुर्यता और अलौकिकता थी। आज
हमें वेदपाठ माधुर्यता से ही करना चाहिए, और अन्तःकरण से करना चाहिए, वह हमें
शान्तिदायक होगा। जब हम वेदमन्त्रों को नाममात्र से ही उच्चारण करते हैं और उनका
अच्छी प्रकार मन्थन नहीं करते, तो वेद के
अक्षरों की रटन्त करने से कोई भी लाभ प्राप्त नहीं होता। लाभ उसी काल में प्राप्त
होगा,जब हम वेदवाणी के अनुकूल अपने विचारों को ऊँचा बनाएंगे। वेदवाणी कुछ उच्चारण
कर रही है और हमारा जीवन उसके विपरीत चल रहा है,तो उस वेदवाणी से कुछ लाभ न होगा। लाभ उसी काल में होगा जब बुद्धिमान ब्राह्मण
वेदमन्त्रों का मन्थन करता है, उसका अनुवाद
करके सरल से सरल बना लेता है। इसी प्रकार हमें अपने जीवन को इतना सरल और नम्र बना
लेना चाहिए,
कि हम महान् और विचित्र बनते रहें।620412
वेदपाठ
में माधुर्यता
आज हमें वेदपाठ माधुर्यता से ही करना चाहिए, और अन्तःकरण से करना चाहिए, वह हमें
शान्तिदायक होगा। जब हम वेदमन्त्रों को नाममात्र से ही उच्चारण करते हैं और उनका
अच्छी प्रकार मन्थन नहीं करते,तो वेद के
अक्षरों की रटन्त करने से कोई भी लाभ प्राप्त नहीं होता। लाभ उसी काल में प्राप्त
होगा,
जब हम वेदवाणी के अनुकूल अपने विचारों को ऊँचा बनाएंगे।
वेदवाणी कुछ उच्चारण कर रही है और हमारा जीवन उसके विपरीत चल रहा है,तो उस वेदवाणी से कुछ लाभ न होगा। लाभ उसी काल में होगा जब बुद्धिमान ब्राह्मण
वेदमन्त्रों का मन्थन करता है, उसका अनुवाद
करके सरल से सरल बना लेता है। इसी प्रकार हमें अपने जीवन को इतना सरल और नम्र बना
लेना चाहिए,
कि हम महान् और विचित्र बनते रहें।620412
वेदमन्त्र
शुद्ध उच्चारण करने की अनिवार्यता
जीते रहो! देखो! मुनिवरों! अभी अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त
हुआ।
पूज्य महानन्द जीः “गुरुजी! आपका पर्ययण समय समाप्त हो रहा
है,
परन्तु आज के वेद पाठ में एक वेदमन्त्र अशुद्ध उच्चारण हुआ।
हम आपसे अधिक वाक्य इसलिए उच्चारण नहीं किया करते,क्योंकि गुरुओं का आदर करना हमारा कर्त्तव्य है,परन्तु एक मन्त्र की अशुद्धि होना भी तो आपने एक प्रकार का पाप ही कहा है।
पूज्यपाद गुरुदेव बेटा! ऐसा तो नहीं हो सकता।
पूज्य महानन्द जीः तो क्या गुरुजी! हमने आपके समक्ष मिथ्या
उच्चारण कर दिया।
पूज्यपाद गुरुदेव बेटा! यह अभिप्राय नहीं। तुमने जो कुछ कहा
है,
सत्य ही कहा है। तुम उच्चारण करो, वह कौन सा मन्त्र था,द्वितीय उच्चारण कर दें।
पूज्य महानन्द जीः गुरु जी! आपका दसवां मन्त्र था।
(मंत्र उच्चारण के
पश्चात )
पूज्यपाद गुरुदेवः तो महानन्द जी! यही वेदमन्त्र था।
पूज्य महानन्द जीः हां भगवान! जैसे आपने मधु विश्वान्त
शब्दों का उच्चारण किया, यह पूर्व लुप्त
हो गए थे।
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा, चलो,
कोई बात नहीं।
पूज्य महानन्द जीः भगवन्! बात तो बहुत है। हमसे यदि किसी
स्थान पर अशुद्धि हो जाए, तो न प्रतीत
क्या हो जाए।
पूज्यपाद गुरुदेवः चलो, महानन्द जी! इस वार्त्ता को त्याग देना चाहिए,आगे का समय व्यतीत होता चला जा रहा है। उस अमूल्य समय को शांत कर देना चाहिए।
पूज्य महानन्द जीः कृपा कीजिए।620412
वेदगान
में क्रियात्मकता
मेरे प्यारे महात्मा एकान्त में भयंकर वनों में गान गा रहा है,स्वर
संगम में गान गा रहा है जब वह गान गा रहा है तो पक्षी गण भी उसके गान को श्रवण
करते हैं,भयंकर वनों में प्रत्येक पक्षी अपने आश्रम में शान्त हो रहा है,वह क्यों?
क्योंकि गान की जो ध्वनि है वह अपनी आत्मीयता से सम्बन्धित होती है,आत्मा से उसका
समन्वय होता है,तो वह गान गाता रहता है,जब चाक्राणी गार्गी भयंकर वनों में एक समय
जटा पाठ गान गा रही थी वेदमन्त्र है वेदमन्त्र अनेक है,परन्तु वह गान गा रही है,वह
बुद्धि,मेधा,ऋतम्भरा और प्रज्ञा को एकाग्र करके जब वह गान गा रही है,एक दूसरे
प्राण को प्राणों में सम्मलित कर रही है,प्राणों में प्राण का समन्वय करती हुई,जब
वह गान गा रही है तो जितने पक्षी गण अथवा हिंसक प्राणी वह सर्वत्र उसके गान से
शून्य हो रहे हैं और गान को गान रूप में गाया जा रहा है,जिससे आत्मा का समन्वय
रहता है तो ऋषि ने कहा हे ब्रह्मचारी! राजा के राष्ट्र में इस प्रकार के गान गाने
वाले बुद्धिजीवि प्राणी होने चाहिए। जो स्वर संगम में गान गाते हों। और वह ध्वनि
को जो स्वतः ही परमाणुओं के संघर्ष से संग्रहित होती हो तो श्रवण करने वाले
योगेश्वर होने चाहिए।620412
वेद
गान गायत्री
कामधेनु किस को कहा जाता है? कामधेनु नाम ही यह सरस्वती का है, कामधेनु नाम ही यह गायत्री है। जब मानव इस संसार में आ करके,उस कामधेनु अमृती को धारण करता है,अपने कण्ठ में उसके दुग्ध को पान कर लेता है,तो वास्तव में उसका कल्याण हो जाता है। आज हमें उसका पान करना चाहिए। जब
करोड़ों गायत्रियों का गान किया जाता है,तो उसमें अमृतधारा प्राप्त हो जाती है। इसी प्रकार महाराजा वशिष्ठ मुनि महाराज
और माता अरूण्धती के द्वारा वह महान कामधेनु थी,जिस कामधेनु से जो चाहते थे,वही मनोकामना
पूर्ण होती थी। राजा इन्द्र के राष्ट्र में रहने वाले,देवता कामधेनु के पदार्थो का आहार करके,अपने जीवन को मधुर बना लेते हैं और महान बन करके अमर लोकों में पहुँच जाते
हैं।620415
वेद
गान गायत्री
जिस मानव ने एक स्थान में विराजमान हो करके, गायत्री मन्त्रों को अच्छी प्रकार पाठ न किया हो, और न उसकी साधना ही हो और वह कहता है कि मैं योगी हूँ, परमात्मा के प्रत्येक ज्ञान और विज्ञान को जानता हूँ, तो यह मानव का केवल अहंकार मात्र है। आज मानव को स्वार्थमात्र से विचार नहीं
लगाना है। सबसे पूर्व गम्भीरता से आवश्यकता है। जिस काल में गम्भीरता से विचारने
लगेंगे,उस काल में अपनी त्रुटियों को देखने लगेंगे। उस काल में हमें ज्ञान हो जाएगा,कि संसार कौन से विस्तार वाला है। परन्तु जिस मानव ने यह नहीं जाना, कि मेरे द्वारा कितनी त्रुटियाँ हैं, और कहता चला जा रह है कि मैं परमात्मा की सर्वज्ञ विद्याओं को जानने वाला हूँ
तो यह केवल अहंकार है। केवल अपने मन ही मन गौरव प्रकट कर रहा है। किसी दार्शनिक
समाज में या किसी यौगिक मण्डल में जाकर उसकी महान अपकीर्ति हो सकती है। योगी बनने
के लिए आज हमें धारण, ध्यान, समाधियों में लय होना है। उनके ऊपर पुनः विचार करना है। आज हमें अपने मन से
गायत्री माता का पाठ करके आगे बढ़ना है।621209
वेद
गान गायत्री
हम प्रभु से नित्यप्रति कहा करते हैं,कि हे विधाता! वह समय किस काल में आएगा, जिस काल में वेदमन्त्रों का पाठ,प्रत्येक मानव,प्रत्येक देवकन्या के कण्ठ में होगा। जब माता गायत्री का एक महान उच्च स्वरों
से गान गाया जाएगा। आज इस समय का परिवर्तन चाहते हैं। हे देव! हमारे समक्ष उसी समय
को प्रकट करो,जहाँ गम्भीर व्यक्ति हों,जहाँ प्रत्येक
मानव,प्रत्येक वस्तु को विचारने वाला हो। हे विधाता! हमें उस समाज की आवश्यकता नहीं,जहाँ अभिमान हो। अपने से बड़ा संसार में किसी को न मान रहा हो। हे विधाता! जब
संसार में ऐसे ऐसे अभिमानी उत्पन्न हो जाएंगे, तो उनका अभिमान आपके अन्तरिक्ष में रमण करेगा। प्रतीत नहीं होता, कि वह अभिमान किस-किस मानव को नष्ट भ्रष्ट कर देगा। हे विधाता! हमें तो वह
व्यक्ति चाहिएं,
जो निरभिमानी हो, विद्या से परिपक्व हों, अर्थात् जिनके
द्वार अनन्त विद्या हो। हे देव! हे सखा! हे मित्र! हम आपकी शरण में आए हैं। हमारे
द्वारा उस महत्व को प्रदान करो, जिससे विधाता
हम महान बनें,
विचित्र बनें, यौगिक बनें।
621209
वेद
गान गायत्री
आज हमें माता गायत्री का आदर करना है। गायत्री के अनेक रूप
हैं और गायत्री की अनेक प्रकार साधना करनी पड़ती है। पुट गायत्री है, छन्द गायत्री है, इस प्रकार नाना
गायत्रियों को जानता है। गायत्री नाम गायन का है, जो गाया जाता है, आत्मा के उत्सव से
गाया जाता है,
उसी का नाम गायत्री माना गया है। परन्तु गाया वही जाता है
जो आत्मानुकूल होता है। जो आत्मा कहता है।621209
वेद
गान गायत्री
आज यहाँ द्रव्य की पूजा करने से सदाचारी नही होंगे,आज तुम द्रव्य के लिए स्थान स्थान पर वक्तव्य देने से सदाचार नही बनेगा,आज सदाचार,
त्याग और तपस्या से आएगा। आज तपस्या करो,माता गायत्री की
गोद में जाकर मग्न हो जाओ । जैसे माता का बालक, पूर्व माता की गोद में जा कर आनन्द मनाता है, विनोद करता है और माता उसे चूमने लगती हैं, इसी प्रकार जब तुम सदाचार की लहरों में जाओगे, मां गायत्री की गोद में जाओगे, तो मां गायत्री
तुम्हें चूमने लगेगी, संसार में जाओगे तो
संसार तुम्हारे वाक्यों को चूमेगा। जैसे माता अपने पुत्र को चूमा करती हैं। आज
तुम्हें वह नही बनना है,कि तुम्हारे
वाक्यों से दुनिया दूर चली जाएं।631109
वेद
गान गायत्री
वेद माता, जिस वेद माता
के गर्भ में जाने के पश्चात हम महान बन जाते हैं। जिस गायत्री के गर्भ में जाने के
पश्चात् हम महान बन जाते हैं, वह विचित्र बन
जाते हैं। तो वह हमारे द्वारा कौन है,वह हमारे द्वारा प्रकाश है। आज हमें प्रकाश
को पाने के लिए क्या करना पड़ेगा।631228
वेदों
का आविर्भाव
जिन ऋषियों पर परमात्मा की अनुपम कृपा होती है,उन ऋषियों को वेदों का ज्ञान प्रकट होता है,जो ऋषि संसार में मुक्ति का प्रयत्न करते हैं,और प्रयत्न करते करते उन्हें वेदों का ज्ञान होता है,और मुक्ति का कुछ सूक्ष्म समय रहते रहते प्रलय हो जाती है, तो उन आत्माओं को वेदों का ज्ञान स्वतः रहता है, जो ज्ञान अनादि विज्ञान है और शुद्ध चेतन परमात्मा से उत्पन्न होता है। जब
सृष्टि प्रारम्भ होती है, तो इन ऋषियों
को विशेष सत्ताएं प्राप्त हो करके, वेदों का ज्ञान
प्रकट हो जाता है और संसार में यह प्रणाली चलने
वाली हो जाती है, उसी प्रणाली से
ज्ञानी और विज्ञानी अपने को ऊँचा बनाया करते है, । 640418
गायत्री
हे गायत्री माता!
तू हृदय को पवित्र बना। तुझे वेदों ने गायत्री दुर्गा कहा है क्योंकि तू मानव के
दुर्गुणों को शान्त करने वाली है, हम तेरी गोद में आए हैं। हमारे हृदय को पवित्र बना। हमारी जितनी भी कामनाएं है
वह सब पवित्रत्व हों। हे मेरे भोले! जब मानव इस आकृति में गायत्री छन्दों में रमण
करता है कि जहां आते हैं वहीं माता विराजमान है, न प्रतीत हमे क्या दण्ड दे।640418
वेद
गान
गायत्री उसको कहते हैं, जो संसार का कल्याण करती है,जिसमें संसार
समाहित है,उस गायत्री का नाम माता है|जिस गायत्री
में तीन प्रकार की व्याहृतियाँ हों,उसका नाम
गायत्री है। मेरी प्यारी माता! इसी प्रकार वेदों ने तुझे माता कहा है,तेरे जीवन में भी तीन व्याहृतियाँ हैं,सबसे ऊँची व्याहृति यह है, कि तू बालक का
पालन पोषण करती है, द्वितीय व्याहृति यह
है,
कि तू अपने बालक को राष्ट्र का और संसार का विचित्र बालक
बनाती है और तृतीय व्याहृति यह है कि तेरे में संसार के कल्याण की भावनाएं होती
हैं,
अपने पुत्र को ही ऊँचा बनाने की नहीं,परन्तु संसार के पुत्रों को ऊँचा बनाने की जब तेरे में भावनाएं होती हैं,तो माता! तेरा मानवत्व ऊँचा कहलाता है, इसलिए हे मेरी प्यारी माता! वेदों ने तुझे गायत्री कहा है।640421
वेद
गान
गायत्री नाम है गान गाने का। जो गान प्रभु के निकट ले जाने
वाला हो,उसको गायत्री कहते हैं, जैसे मैं अभी
अभी पयर्यण समय में जटा पाठ कर रहा था। जटापाठ, घनपाठ,
माला पाठ, मधु पाठ, विसर्ग पाठ और नाना प्रकार के पाठ हैं, ज्यों ज्यों मुझे समय मिलता रहेगा, त्यों त्यों मैं सबको उच्चारण करके तुमको वर्णन करूंगा। 640421
माता गायत्री का जपन करे
मेरी प्यारी माताओं को नक्षत्रों का ज्ञान होना चाहिए और जब
गर्भ स्थापित हो जाए, उस समय माता यजन और
वेद पाठ करने वाली बनें। ब्रह्मचर्य धारण करके अपने मन को नियन्त्रण में करे, जिस प्रकार के मन में संकल्प व विचार धाराएं होंगी, उनके अनुकूल ही पुत्र उत्पन्न होगा, नाना तुच्छ भावनाओं को त्याग करके, माता गायत्री की गोद में पहुँच कर, गर्भ स्थल में रहने वाली सन्तान, चाहे कन्या हो या पुत्र हो, वह गायत्री
बालक तेरे गर्भ से अवश्य उत्पन्न होगा।640421
भगवान
कृष्ण का अनुसन्धान
भगवान कृष्ण तो अपने आसन पर विराजमान होते थे,हर समय मग्न रहते थे और वेद मन्त्रों के गोपनीय विषयों को विचारते रहते थे,उसके ऊपर अनुसन्धान किया करते थे और अनुसन्धान करते करते प्रकृति पर शासन कर
लेते थे। भगवान कृष्ण प्रातःकाल में जब अन्तरिक्ष में तारा मण्डलों का प्रकाश रहता
था। उस समय अपने स्थान को त्याग देते थे, और गायत्राणी छन्दों का पाठ किया करते थे, माता गायत्री का पाठ किया करते थे, उसके पश्चात् यज्ञ करते थे और यज्ञ के ऊपर अनुसन्धान किया करते थे, कि जिस सुगन्धिदायक औषधी की यज्ञशाला में अग्नि में आहुति दी है,वह सूक्ष्म रूप बन करके कहाँ चली गई,उसका परिणाम क्या होगा? अन्त में उस
विज्ञान को जानते हुए कि यह जो सुगन्धिदायक औषधि मैंने अग्नि में प्रविष्ट की है, सूक्ष्म रूप बन करके अन्तरिक्ष में रमण करने लगी,अन्तरिक्ष में वह सुगन्धि कहाँ जाती है? भगवान कृष्ण का यह अनुसन्धान किया हुआ है, कि वह सुगन्धि आदित्य तक जाती है और आदित्य तक पहुँचाते हुए,उससे मानव की जो भी इच्छाएं होती हैं,जो जो कल्पनाएं होती हैं, वह प्रत्येक
आहुति के द्वारा अन्तरिक्ष में जाती हैं और पुनः वह सुगन्धि संसार में आ जाती है, भगवान कृष्ण ने अनुसन्धान करते करते, यह जाना कि जो भी मैं प्रतिक्रिया करता हूँ, मैंने जल को स्थापित किया,यहाँ सब ही देवता विराजमान है, वायु भी है, अग्नि भी है, जल भी है, और पृथ्वी भी है, अब मैं इनमें से कौन कौन सी वस्तुओं
को जान सकता हूँ।640930
वेदमन्त्र
गान से पवित्रता
जिस काल में वेद मन्त्रों का पठन पाठन होता है,वह भी परमात्मा का दिया हुए एक उज्जवल समय होता है। जितना समय वेद मन्त्रों की
ध्वनि में व्यतीत होता है वह परमात्मा का प्रसाद है और हमारे जीवन में वह सौभाग्य
का समय होता है। मैं प्रभु से यही कहा करता हूँ,कि हे देव! आप कितने दयालु हैं,आपकी मनोहर दया से हमारा जीवन पनपता है और आप ही की कृपा से आपके गुणगान गाने
का ऐसा समय प्राप्त होता है।
हे प्रभु! वास्तव में तो आपकी सर्वज्ञ महिमा को, हम नहीं जान सकेंगे, क्योंकि हमारे
में अल्पज्ञता है। हम वायु मण्डल में रमण कर सकते हैं,चन्द्रमा और सूर्य के पास जा सकते हैं, परन्तु हमारे में इतनी शक्ति नहीं है कि आपके राष्ट्र से,आप की जो इतनी विशाल रचनात्मकता है उसकी सीमा से दूर जा सकें। हे देव! हम आपका
कहाँ तक गुणगान गायें, वाणी में इतनी शक्ति
नहीं। आचार्यजनों! आज का हमारा वेद मन्त्र क्या उच्चारण करता चला जा रहा था। आज हम
उस परमपिता परमात्मा की याचना करते चले जा रहे थे,जिसको वेदों ने ‘‘गो’’ कहा
है,धेनू कहा है। भिन्न भिन्न प्रकार से उसका रूपान्तर किया है। आज मैं केवल उन
वाक्यों को प्रकट करने आया हूं जो आदि ऋषियों के चुने हैं और जो वास्तव में
सर्वोपरि माने जाते हैं। जहाँ हम न वाक्यों को लेते हैं कि परमपिता परमात्मा की
महिमा का गुणगान गाने वाले और ब्रह्मवेत्ता कितने ऋषि हुए, वह भी अनन्त हुए। राजा और महाराजा भी ब्रह्मज्ञानी हुए। हमारे यहाँ एक वाक्य
आता है कि राष्ट्र की परम्परा और मानवीयता उस काल तक ऊँची रहती है,जब तक मानव
चरित्रवाद की महान महिमा होती है।हे देव! आप कितने दयालु हैं,आपकी मनोहर दया से हमारा जीवन पनपता है और आप ही की कृपा से आपके गुणगान गाने
का ऐसा समय प्राप्त होता है।670426
परमात्मा
का प्रसाद
हमारे यहाँ वेद मन्त्रों का पठन पाठन नित्य प्रति होता है,परन्तु जिस काल में वेद मन्त्रों का पठन पाठन होता है,वह भी परमात्मा का दिया हुए एक उज्ज्वल समय होता है। जितना समय वेद मन्त्रों
की ध्वनि में व्यतीत होता है,वह परमात्मा का प्रसाद है और हमारे जीवन में वह
सौभाग्य का समय होता है। मैं प्रभु से यही कहा करता हूँ कि हे देव! आप कितने दयालु
हैं,आपकी मनोहर दया से हमारा जीवन पनपता है और आप ही की कृपा से आपके गुणगान गाने
का ऐसा समय प्राप्त होता है।670426
माला
पाठ
वह सब बड़े आनन्दपूर्वक ऋषि मुनि सब विराजमान हो गएं,विराजमान हो जाने के पश्चात्,उन्होंने कहा
कि महाराज! अब आप प्रश्न कीजिए क्या प्रश्न था? ऋषि ने कहा कि महाराज! हम यह जानना चाहते है कि माला पाठ किसे कहते है? तो ऋषि ने कहा कि मैंने जो जाना है,उसी को निर्णय कर सकता हूँ,परन्तु मैं यदि
उसके ऊपर विवाद प्रारम्भ हो जाएगा,तो मैं उस विषय
में कोई वाक् उच्चारण नहीं करूंगा। महर्षि शौनक जी ने कहा-प्रभु! हम तो वही जानने
आए है,जो आप जानते हैं। उन्होंने कहा कि माला पाठ किसे कहते है? वेद को तुम जानते ही हो,परन्तु वेद में
जो नाना प्रकार के मन्त्र है,उन मन्त्रों
में भी जो शब्द है,जो ऋचाएं है,उनको भी जानते हो, श्रवण भी किया है। ऋषि
ने कहा कि महाराज! अवश्य किया है। तो ऋषि ने उत्तर दिया कि हम माला पाठ उसे कहा करते है,माला कहते है धागे में, जो मनके पिरोए हुए होते है। जब धागे में मनके पिरोएं जाते
है, तो वह मनके और धागे दोनों एक सूत्र
में आ जाने का नाम माला कहलाई जाती है। इसी प्रकार यह
जो परमात्मा का ब्रह्माण्ड है,जो दृष्टिपात आ रहा है और यह जो वेदों का ज्ञान है,वेदों की जितनी ऋचाएं है,वह ओ३म् रूपी
धागे से पिरोई हुई रहती है। यह जो वेद रूपी ऋचाएं है,यह एक प्रकार के मनके है,और ओ३म् रूपी
धागे में पिरोई हुई हैं,इसीलिए हमारे
यहाँ वेद के प्रारम्भ में, वेद के मन्त्र
को जब उच्चारण करते हैं, तो आचार्यजन
ओ३म् का उच्चारण किया करते है। ओ३म् का उच्चारण क्यों किया करते है? क्योंकि वेद की ऋचाएं जो ऋचाओं का हमने पठन पाठन किया, परन्तु उच्चारण किया स्वरों सहित, और उसमें सबसे प्रारम्भ ओ३म् को उच्चारण करते, क्योंकि ओ३म् रूपी धागा बना करके और वेदमन्त्र में जो ज्ञान और विज्ञान है, वह उस ओ३म् रूपी धागे से पिरोया हुआ है जितना भी ज्ञान विज्ञान है अथवा वह
भौतिक विज्ञान हो अथवा वह आध्यात्मिक विज्ञान हो परन्तु ओ३म् रूपी धागे से वह
पिरोया हुआ होता है। तो ऋषि कहते है हे ऋषिवरों! इसीलिए मैंने तो यह जाना है,कि यह जितना जगत है, जितना
ब्रह्माण्ड है जितना इसमें प्राणीमात्र है, ये सब ओ३म् रूपी धागे से पिरोया हुआ है। यह एक प्रकार का जो ब्रह्माण्ड है,यह माला के रूप में परिणित हो रहा है, और इसमें ओ३म् रूपी जो धागा है,वह पिरोया हुआ
है,इसलिए इसको हमारे यहाँ माला पाठ कहा जाता है। 690401
वेद
ज्ञान में पवित्रता
आज हमने पूर्व से जिन वेदमन्त्रों का पठन पाठन किया, हमारे यहाँ नित्य प्रति वेदों का कर्म उच्चारण अथवा उनकी पद्धतियों का विवरण
और उसका कर्म सदैव प्रचलित रहता है, क्योंकि हमारा
जो वेदज्ञ ज्ञान है, उस महान ज्ञान में
पवित्रता है,
और वह किस प्रकार का पवित्र है,जैसे ब्रह्म पवित्र है,इसी प्रकार, वेदों का ज्ञान भी पवित्र है। क्योंकि उसमें इतनी पवित्रता हम क्यों स्वीकार करते हैं, जो ज्ञान सर्वत्र ब्रह्माण्ड के लिए, एक तुल्य होता है। उस ज्ञान को हमारे यहां पवित्र कहा जाता है। तो यह जो वेदों
का अनुपम प्रकाश है,हमने बहुत पूर्व काल
में,पूर्व स्थलों में भी उच्चारण किया है,और इसकी प्रतिभा का परम्परा से वर्णन करते चले आएं हैं। आज हम ही नही वर्णन कर
रहे हैं,
हमारे सर्वश: ऋषि मण्डल ने,वेदज्ञ आचार्यों ने,सभी ने इसका
सुन्दर रूपों से इसका निरूपण किया है।690421
वेद
की व्यापकता
आज मैं वेदों के कुछ मन्त्रों को उच्चारण कर रहा था। बहुत
पूर्व काल में मैंने कहा था कि वेद केवल पोथियों में बद्ध नहीं किया जाता। वेद तो
इतना व्याप्क शब्द है, वेद प्रकाश को कहते
हैं जो मानव के अन्तःकरण का प्रकाश है, जो मानव के अन्तःकरण को पवित्र बना देता है,स्वच्छ बना देता है,निर्मल बना
देता है। वह जो अनहद नाद बजता है वहाँ गायत्री और छन्दों का निर्माण होता है,उन्हीं गायत्री और छन्दों में रमण करने वाला बन जाता है।
गायत्री कहते हैं जो गाई जाती हो। जो ब्रह्मरन्ध्र के
द्वारा गाई जाती हो,रश्मि का नाम गायत्री
है,जिस तेज के द्वारा ब्रह्मरन्ध्र भी नृत्य करने लगता है। जिस प्रकार सूर्य भी
नृत्य करने लगता है अपने आसन, जिस प्रकार
नाना प्रकार के लोक लोकान्तर अपने आसन पर नृत्य करने लगते हैं इसी प्रकार वह जो
महान आभा है,
वह जो धारा है, उसी धारा का नाम हमारे यहाँ गायत्री कहा गया है,जिसके प्रकाश में,जिसके प्रभाव से प्रत्येक लोक लोकान्तर अपने अपने आसन पर नृत्य कर रहा है। इसी
प्रकार आज हमें विचार विनिमय करना है कि आज हम अपनी उस महान पवित्र धाराओं को
जानने के लिए चल जाएं। जैसा हमारे यहाँ बाह्य जगत है, बाह्य यह शरीर है इसमें जो प्रत्येक इन्द्रिय का सम्बन्ध है वह मन के साथ होता
है,
मन का सम्बन्ध बुद्धि के द्वारा होता है, इन सबका सम्बन्ध मानव के हृदय से होता है और हृदय का सम्बन्ध मानव के मस्तिष्क
से हुआ करता है,
मस्तिष्क का सम्बन्ध ब्रह्मरन्ध्र से हुआ करता है और
ब्रह्मरन्ध्र का जो सम्बन्ध है वह उस महान सर्वश भगवान के भूमण्डल से माना गया है।
710413
गायत्री
मेरे प्यारे महानन्द जी ने इससे पूर्व शब्दों में संसार की
नाना चर्चाएं कीं। परन्तु उन चर्चाओं में एक अमूल्य विषय यह भी था,कि हमने कुछ
गायत्री के ऊपर अपना विचार देना प्रारम्भ किया था। परन्तु गायत्री कहते किसे हैं? मैंने कई काल में कहा है, पुत्र! संसार में जितने भी वेदमन्त्र हैं,प्रत्येक वेदमन्त्र उस महान प्रभु की आभा है और उसी का गान गाता रहता है।
परन्तु ऋषि मुनियों ने वेदों में से उस वस्तु को व्यवहार में साकार रूप दिया,जिसका
जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध माना जाता है। जैसे गायत्री २४ अक्षरों वाली गायत्री
कहलाती है। तीन उस में व्याहृतियां मानी जाती हैं। हमारा यह जो स्थूल मानव शरीर है
यह २४ तत्त्वों से बना हुआ है। उन २४ तत्त्वों से जो बना हुआ शरीर है,प्रत्येक
अक्षर का सम्बन्ध प्रत्येक तत्त्व से माना जाता है,इस मानवीय तथ्य (यथार्थ) को
जानना है। उस महान प्रभु की प्रतिभा के विभाग किए जाते हैं। कुछ शब्द इस प्रकार के
हैं जिनका सम्बन्ध प्राणों से है, कुछ का सम्बन्ध
मन से है। कुछ का मन, बुद्धि, चित्त,
अहंकार से,कुछ का इन्द्रियों से है। परन्तु प्रत्येक अक्षर
का जो बोधक है यह हमारा शरीर ही है। तो ऋषि मुनियों ने इन वाक्यों को साकार रूप
दिया। और साकार रूप देने का एक ही अभिप्राय था,कि जिसके ऊपर हम अनुसन्धान कर सकें
और अपने जीवन की आभा से उसका हम सम्बन्ध अथवा उसका मिलान कर सकें। रहा यह कि मैं
गायत्री के गूढ़तम रहस्य को तो कोई विशेष प्रतिभा में ले जाना नहीं चाहता हूँ। यह
वाक्य है कि प्रत्येक शब्द को हमारे यहाँ गायत्री कहा जाता है। गायत्री का
अभिप्राय है कि हमारे यहाँ जो गायी जाती है और वेद का प्रत्येक शब्द गाया जाता है।
जब ऋचा को गाते हैं तो मन मग्न हो जाते हैं। क्योंकि वह गायत्री कहलाई जाती है।
जिसके ऊपर हमें बारम्बार विचार विनिमय करना है। जिस आभा को ले करके हम संसार की उस
प्रतिभा में ऊँचा बनाना चाहते हैं। जिस जीवन में हमारे में एक महत्ता आती हो उस
आभा का नाम बहुत ही प्रियतम माना गया है।730412
गायत्री
जो गायत्री का जप नहीं कर पाता,गायत्री और छन्दों को अपने जीवन में नहीं लाता, अकल्याण की पोथियों का अध्ययन करता है,उस मानव के सात जन्मों का पुण्य समाप्त
हो जाता है,
ऐसा मुझे पूज्यपाद गुरुदेव ने अध्ययन कराया।730430
गायत्री
मुझे वह काल भली भांति स्मरण आता रहता है, जब हम अपने पूज्यपाद गुरुदेव के द्वारा परिणत होते थे, तो वे गायत्री को गाते थे। और हमारे द्वारा वह गान रूप में परिणत कराते थे। अब
गाता कौन मानव है? जिसका अन्तःकरण शान्त
होता है,
जिसका चित्त शान्त होता है और चित्त शान्त उस काल में होता
है,जब चित्त का भोजन उसे प्राप्त होने लगता है। चित्त का भोजन क्या है? अन्तःकरण अथवा चित्त का भोजन है ज्ञान। चित्त का भोजन है,यह जो विषय हैं,नाना
प्रकार के जो विषय स्वादन है,उनसे जब वह उपराम हो जाता है।
तो चित्त का भोजन ज्ञान है, विवेक है,चित्त को जब अन्न प्राप्त हो जाता है,तो चित्त स्वतः शान्त हो जाता है। और जब चित्त शान्त हो जाता है उसकी वाणी में
मौनपन आ जाता है,और वाणी में छन्द आ
जाते हैं। उस वाणी में ओजस्तव आ जाता है। वह मानव संसार में सौभाग्यशाली है। हे
मेरे प्यारे प्रभु! तेरे राष्ट्र में,तेरी विद्या में,तेरे विज्ञान में क्या नहीं है भगवन! हम तो भगवन! तेरी इस
पवित्र विद्या को अध्ययन करते हुए, हम तो चकित हो जाते हैं। और हमें ऐसा भान होने
लगता है जैसे माता का पुत्र,माता के अनुकूल विराजमान हो जाता है। और माता के
अनुकूल कर्म करने लगता है। माता उससे पुलकित होती हैं। माता के विपरीत चलता है, माता को माता के अनूकुल कर्म करने लगता है,माता उसे प्रीति देती है,माता के
विपरीत चलता है,माता को अशुद्ध वचन उच्चारण करता है,तो माता उससे दूरिता हो जाती
है। जब माता दूरिता हो जाती है। तो प्रीति कौन दे सकता है? तो यह जो गायत्री माँ है यह तो ममता है, यह चौबीस अक्षरों वाली गायत्री है चौबीस तत्त्व हमारे शरीर में भासतें है तीन
तन्मात्राएं हैं, तीन उनके शब्द हैं, इस प्रकार यह मानव को ऊर्ध्वा बनाने के लिए सदैव यह जो माँ गायत्री है, अक्षरों वाली चौबीस अक्षरों वाली यह छन्दों के सहित जब छन्दो के सहित
अन्तरात्मा में याग करते हो, पान्ति याग से तो मानव को सर्वत्र वस्तु प्राप्त हो
जाती है।
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने मेरा बारह वर्ष तक बहिष्कार किया
और यह कहा कि तुम गायत्रियों का जपन करो। परन्तु जो गायत्री का जप नहीं कर पाता, गायत्री और छन्दों को अपने जीवन में
नहीं लाता,अकल्याण की पोथियों का अध्ययन करता है,उस मानव के
सात जन्मों का पुण्य समाप्त हो जाता है, ऐसा मुझे पूज्यपाद
गुरुदेव ने अध्ययन कराया।
मेरी माता हो,पिता हो अथवा मानव हो,पति हो,पत्नी हो प्रत्येक को अपने अपने कर्तव्य में सदैव दक्ष होना चाहिए। और गाना
गाना चाहिए। वह गान क्या है? वह गान है
गायत्री,जो स्वरों से गाई जाती है। वेद जो स्वरों से गाया जाता है और गाने का
अभिप्रायः यह कि जो अपने अन्तःकरण में धारण किया जाता। उसको हमें सदैव धारण करना
है।730430
पान्ति
याग
हमारे यहाँ परम्परागतो में छन्दों और गायत्री ऋषि कहलाते थे
गायत्री और छन्दो का अभिप्रायः यह कि गायत्री तो गाई जाती है। और छन्दों का धारण
किया जाता है। छन्द उसे कहते हैं जो आभा है। वह आभाओं का जन्म होता है,उन आभाओं की जो चित्त में तरंगे उत्पन्न होती हैं,उन चित्त की तरंगों का नाम
छन्दावली,उन छन्दों से,उन तरंगों का अन्तःकरण में ही समावेश कर देना चाहिए।
महर्षि
वाल्मीकि का तप
महर्षि पतञ्जलि ने और भी आदि ऋषियों ने जैसे चित्त की
वृत्तियों को निरोध करने को कहा है,वह पान्ति याग
कहलाता है। जब महर्षि बाल्मीकि ने विराजमान होकर के गायत्री और छन्दों छन्दावली
ऋषि बने। तो यह शास्त्रीय और वैदिकता से सुगठित कहलाई जाती है। विचार यह कि जब वेद
के रूप को वेद के मन्त्र को गाया जाता है। वेद तो गाया जाता है और जब ऊँचे स्वर
से,मानव गाता है तो उसमें दो वस्तु आ जाती है। सबसे प्रथम जो मानव वेद की गायत्री
को गाता है उसकी वाणी में सतवाद आ जाता है। और जब वाणी में सत्वाद आता है तो सत्
में मधुरपन आ जाता है। मुनिवरों! देखो, जिसकी वाणी में सतवाद भी हो और मधुरपन भी हो, वह मानव तो संसार में कृतज्ञ कृतज्ञ
हो जाता है। मानव की वाणी में सतवाद तो है,परन्तु मानव की वाणी में यदि मधुरपन
नहीं है,तो उस मानव के अन्तःकरण का जो सुकृत है,वह हनन हो जाता है। ऐसा गायत्री और छन्दों से सिद्ध होता है। महर्षि बाल्मीकि
ने लगभग चौरनवें वर्षों तक इस प्रकार का
तप किया। उन्होंने सबसे प्रथम यह विचारा कि मैंने इस वाणी से कितना कठोर और मैने
भय दिया है इस वाणी से हे प्रभु! मेरी वाणी को सदैव ऊँचा बना,अब गायत्री का यज्ञन
करने वाला प्राणी,जो अन्तरात्मा में याग करता है पान्ति याग।730430
राम की गायत्री
राम सदैव लगभग एक सहस्र गायत्री का जाप करते थे। वे गायत्री
का पाठ वह मस्तिष्क में करते थे, शब्दों से
नहीं। उनका अभ्यास इतना ऊर्ध्व में था,कि वह मस्तिष्क में प्रत्येक स्थल को
सहस्रों समय उसकी पुनरुक्ति करते और पुनरुक्ति करते हुए मन गायत्री में रमण करता
रहता।730431
महर्षि
विश्वामित्र का वेद गान
महर्षि विश्वामित्र ने अनुष्ठान किया,गायत्री छन्दों में उन्होंने रमण किया,ऋषि बने,
कर्म वचन के द्वारा छन्द और गायत्री में रमण करने वाला ऋषि
अन्त में ब्रह्मवेत्ता कहलाया। तो हे मानव! तू व्रत्ती और अनुष्ठान करने वाला बन।
अनुष्ठान करता हुआ, प्रत्येक इन्द्रिय पर अनुशासन करने वाला और संयमी पुरुष होना
चाहिए,यही उसका व्रत और अनुष्ठान है।730501
ऋषियों
की गायत्री साधना
गुरु सोमाचरित ऋषि
महाराज उनके द्वार पर आए और सोमाचरित ऋषि कहते हैं, उन्होंने-कहो, अथर्वा! तुम्हारा मन कैसे भ्रमित है? उन्होंने कहा-प्रभु! मैं आज परमात्मा को अपने से अघोषित कर रहा हूँ और यह मेरा
निर्णय चुका है कि परमात्मा को वस्तु नहीं है इस संसार में। प्राण और मन ही संसार
का कार्य कर रहे हैं क्योंकि विज्ञान में मनों को विचार विनिमय करने वाले,मनों को
ही दृष्टिपात करते हैं। प्राणों का चिन्तन करने वाले प्राण को ही दृष्टिपात करते
हैं। परन्तु परमात्मा मुझे दृष्टिपात नहीं आ रहा। परन्तु ऋषि कहता है, हे अथर्वा! आप तो ऐसे महापुरुष के पुत्र हैं जो व्याकरण को भी अपने मस्तिष्क
की ध्वनि से जानते हैं और अनहद से जानते रहते हैं। आज तुम्हारे हृदय में ऐसी आशंका
कहाँ से उत्पन्न हुई? आशंका तुम्हें नहीं
होनी चाहिए। उन्होंने कहा प्रभु! मैं तो क्रिया में दृष्टिपात कर रहा हूँ और जो
मुझे क्रिया में दृष्टिपात आ रहा है। तो मैं कैसे स्वीकार न करूं। तो महाराजा
अथर्वा को ऋषि कहते हैं कि हे ऋषिवर! अब तुम तपस्वी बनो। अब तुम मन को और प्राण को
एक सूत्र में पिरो दो सूत्र में पिरोकर के उस का चिन्तन करो, तपस्या करो तो तपस्या करके उसके पश्चात् तुम 12 वर्ष का तप करो, उपवास करो, मानो गायत्री छन्दों के गर्भ में चले जाओ और श्रद्धापूर्वक जाओ। मानो देखो, उसके पश्चात् मैं तुमसे निर्णय लूंगा कि तुम्हारा ईश्वर में कितना विश्वास है।760407
वाणी में सरसता के लिए वेद गान
हे उद्गान गाने वाले ब्राह्मण! तू अपने उद्गार को ऊँचा
बनाता चल। तेरी वाणी में सरसता होनी चाहिए। तेरी वाणी में पवित्रता होनी चाहिए
जहाँ वेदों का पठन पाठन करना बहुत जरूरी है, परन्तु वेद के पठन पाठन के पश्चात् गम्भीर होना यह परमात्मा की कृपा हो जाएगी
तो गम्भीर प्रायः दृष्टि आने लगेगी।
आज कैसा सुहावना समय है। जिस सुन्दर समय में परमपिता
परमात्मा ने हमें इन वेद मन्त्रों के उच्चारण करने का सुअवसर दिया। आज इस अमृतबेला
में उस गान को गाएं।760424
साधना में प्रवेश
के लिए वेद गान
हमने बहुत पुरातन काल में कहा था कि इन्हीं शब्दों को मानव
जब साधना में प्रवेश करता है, तो उस समय वह
सबसे प्रथम वह अन्न के क्षेत्र में प्रवेश करता हैं, अन्न के जब क्षेत्र में जाता है कि हमारा जो अन्न है, वह कैसा होना चाहिए? उस अन्न में
सर्व योग प्रयत्न विद्यमान रहते हैं। जितना भी योग साध्य है, जितना भी परमाणुवाद है, जितने भी मानव
के अङ्ग हैं वे सर्व मानव के अन्न में विद्यमान रहते हैं। आज कोई मानव यह कहता रहे
कि अन्न किसी भी प्रकार का हो उसका विचारों पर अन्तर्द्वन्द्व नहीं होता परन्तु जब
मानव सूक्ष्म क्षेत्र में पहुंचेगा, योग के क्षेत्र
रहस्यों में प्रवेश करेगा वहाँ उसे अन्न की धाराओं का ज्ञान प्रतीत होता है। अन्न
की तरंगों की वहाँ प्रतीति होती है। 770222
वेद गान मस्तिष्क
में प्रकाशमय ललाहट
वाणी से तप कैसे किया जाता है? यह जो अपान प्राण है, उदान और प्राण
इन तीनों की सन्धि करता है जो जब सन्धि करता है तो एक शीतल एक चन्द्र एक सूर्य
कहलाता है। चन्द्र में शीतलता होती है और उसमें प्रकाश होता है, तेज होता है, ऊष्णता होती है तो जब
अग्नि का प्रहार प्रारम्भ होता है वाणी से उच्चारण करता है तो अपान और प्राण दोनों
का मिलान करता है। और मिलान करके जब वह गान गाता है, गान गाता हुआ मेरे पुत्रो! ऐसा प्रतीत होता है जो गान गाया तो मस्तिष्क में एक
ललाहट उत्पन्न हुआ और ललाहट क्योंकि वीर्यत्व था जिससे माता के गर्भस्थल में
निर्माण किया जाता है। वह वीर्यत्व मानो प्रकाशमय ललाहट में अग्नि प्रदीप्त हो गई।
उस अग्नि का परिणाम यह हुआ कि नगर की दीपमालिका जागरूक हो गई। ऋषियों के आश्रमों
में दीपमालिका जागरूक हो गई। तो वह उस समय ऋषि कहते हैं। अनुसूईया से अग्नि वही
लोकः,
वृष्टि भी प्रारम्भ होने लगी। परिणाम क्या कि मानव गान गाता
रहता है गान गाता है। तो जटा पाठ में गान गाता है और गान का स्वरूप है जो वह बड़ा
विचित्र माना गया है। 770223
पूज्यपाद गुरुदेव
द्वारा वेद गान
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव जब हमें वेदों का अध्ययन कराते रहे
तो वेदमन्त्रों को ही दृष्टिपात करते रहे और बारह बारह वर्ष के उन्होंने लगभग बारह
अनुष्ठान किए। तो नेत्रों में दिव्यता आ गयी। नेत्रों में ज्योति आ गई। वह
रात्रिकाल में इन तारा मण्डलों की माला बना लेते थे। माला बना करके इसको धारण करते
रहे। हम नेत्रों की ज्योति को विचारक बनाएं और विचारक बनाते हुए हमारी ज्योति में
प्रीति होनी चाहिए, धर्म होना चाहिए।
हमारे नेत्रों की ज्योति में ज्योतिवान की छटा रहनी चाहिए उसकी छटा रहनी चाहिए
जिससे हमारा मानव जीवन पवित्र और महान बनता चला जाए। दग दग मुनि महाराज ने जिज्ञासुओं से कहा कि
यह वेदमन्त्र यह कहता है कि मानव के नेत्रों की ज्योति इतनी सूक्ष्म बन जाती है कि
वह अन्तरिक्ष में विचरण करने वाले अपने जो पूर्वज हैं, अपने जो वंशज हैं, जो उनकी वार्ता प्रकट
हो रही है जो उन्होंने किसी काल में वार्ताएं प्रकट की हैं, वह वार्ताएं अन्तरिक्ष में ओत प्रोत रहती हैं और वह जो इन आभाओं को ले करके
अन्तरिक्ष में रमण करता है अपने महापुरुषों के चित्रों को अपने अन्तर्हृदय में
चित्रण करने लगता है। 800429
वेद गान
प्रत्येक वेदमन्त्रों में उस देव के ज्ञान और विज्ञान की
विवेचना होती रहती है। हमारे यहाँ परम्परगतों से ही पठन पाठन का क्रम है, क्योंकि वेदों की जो ध्वनि है अथवा उच्चारण करने के जो प्रकार है,वह भिन्न भिन्न प्रकार माने जाते हैं। हमारे यहाँ वेदों के पठन पाठन के प्रकार
जैसे जटा पाठ,
घन पाठ, माला पाठ, विश्व,
उदात्त, अनुदात्त यह
वेदमन्त्र उच्चारण करने के प्रकार हैं। भिन्न भिन्न प्रकारों से एक एक वेदमन्त्र
की ध्वनि होती है। एक मानव माला पाठ का वर्णन कर रहा है, माला पाठ से गान गा रहा है। हे मानव! तुझे गान तो गाना ही चाहिए। यदि तू गान
नहीं गाएगा,तो तेरे जीवन में अधूरापन आ जाएगा, परन्तु तू जटा पाठ में उस अपने देव की महिमा को गान के रूप में परिणित करता
चला जा। 800504
वेदमन्त्रों का गान
जब मानव के संस्कार प्रदान किए जाते हैं उस समय पुरोहित
देवताओं की भाषा वेदमन्त्रों का गान गाता रहता है।810912
शब्दों से उल्लासता
मानव को शब्दों से हासता व उल्लासता प्राप्त होती है
अन्तःकरण में ऐसी कौन सी आभा है। निराशा में कैसे मृत्यु है और उल्लास में कैसे
जीवन प्राप्त होता है।810912
भगवान राम का वेद
गान
भगवान राम आठ वर्ष की अवस्था से वो याग करते थे और वह वेदों को ध्वनि रूपों में गाते रहते थे। एकान्त
स्थली पर विद्यमान हैं, वशिष्ठ के
चरणों में हैं परन्तु वेद का गायन चल रहा है। रात्रि समय जब भी राम को दृष्टिपात
करो,वे वेद गान ही गाते दृष्टिपात होते थे। माता कौशल्या का जीवन भी सफल था। एक
समय भगवान राम से महर्षि व्रतेन्तु ने कहा था हे राम! तुम हर समय वेदगान ही क्यों गाते
रहते हो। इसका कारण क्या है? यह विद्या तुम
कहाँ से प्राप्त करते हो? भगवान राम कहते
है माता ने मुझे सुयोग्य बनाया है। मैं ऋषियों की कृपा से मेरी माता ने मुझे पाया
है,
प्राप्त किया है। मैं सदैव उस महान देव का गान गाता रहता हूँ
जिसने वेद जैसी पवित्र विद्या इस संसार में प्रकाशित की है, उसको पान करता रहता हूँ। आभा में रमण करता रहता हूँ। 810928
वेद गान का प्रभाव
गान रुप में जैसे दीपावली गान होता है ऐसे ही मेघों का गान
होता है इसी प्रकार वह मोहिनी अश्वासन गान को भी गाते रहते थे परन्तु एक समय जब वह
गान गा रहे थे,तो गान गाता हुआ ऋषि अपने में आनन्द विभोर हो रहा था और ऐसा आनन्द
विभोर हुआ की वेदों का गान गाता हुआ,साम गान गाता हुआ,उसमें भी जटा पाठ, और माला पाठ की वह पुट लगा रहे थे। परन्तु जब वह गान गाने लगा तो उनके आश्रम
में भयंकर वन था,कौन गान को श्रवण नही कर रहा था,परन्तु मार्ग में रहने वाले
प्राणी मात्र उस गान को श्रवण कर रहे थे,जब वह श्रवण कर रहे थे,तो कुछ मृगराज उनके
चरणों में आ गए और उस गान को श्रवण करने लगे गायत्री सुधा उनका गान चल रहा था
गायत्री सुधा उसे कहते हैं जो मेरे प्यारे गायत्री और छन्दों के सहित जो गान गाता
है अग्नि मित्रा,मेरे प्यारे वह अग्नि की आभा में ओत प्रोत हो करके,वह गान गा रहा
है जैसे अग्नि संसार में निर्भय होती है,अग्नि निर्भय होती है,क्योंकि वह सदैव
उसके लिए हिंसक हो अहिंसा परमोधर्मी हो किसी भी प्रकार का प्राणी मात्र हो परन्तु
उसे निर्भय रहना है। ओ३म् से गुथी हुई ध्वनि होती है तो इसीलिए आज हमे विचारना
चाहिए। 820119
वेद गान
ओ३म् रूपी सूत्र में, एक एक ऋचा पिरोई हुई है। और उन ऋचाओं में क्या है? संसार का ज्ञान और विज्ञान है। ज्ञान और विज्ञान उनमें पिरोया हुआ है। ओ३म्
रूपी सूत्र में,
तो हमें उस सूत्र के ऊपर चिन्तन करना है यह ब्रह्मयाग
कहलाता है।820120
वेद गान से
सौभाग्यता
तो यह अग्नि हमें, अग्नि का चयन करना है। प्रातःकालीन, जब वेदों की ध्वनि होती है, जिस गृह में
वेद की ध्वनि होती है वह गृह कितना सौभाग्यशाली होता है। जिस गृह में, जिन आश्रमों में, वेद का अध्ययन करते
हुए,
अपने को वेद को समर्पित करने वाले प्राणी होते है, वह आश्रम,
वह गृह कितने सौभाग्यशाली कहलाते है। 820120
वेद गान
वही मानव सौभाग्यशाली होता है संसार में, जो प्रातःकालीन प्रभु का चिन्तन करने वाला और गायत्री छन्दों में रमण करने
वाला हो। क्योंकि गायत्री कहते है गायन को, छन्द कहते है,जो उत्सर्ग में होता है। जो गायत्री से गान गाता है,अपने प्रभु का गान गाती है वह कन्या, वह मेरी प्यारी माता सौभाग्यशालिनी होती है। 820120
त्रेतकेतु ऋषि द्वारा वेद गान
एक समय त्रेतकेतु ऋषि महाराज अपने आसन पर विद्यमान हो करके
वह गान गा रहे थे। उद्गान गाते हुए उन्हें कुछ ऐसा प्रतीत हुआ, कि जो वायुमण्डल में प्राण नाशक परमाणु थे, वह,
उनके गान गाने से, वह मृतक से प्रतीत होने लगे। जैसे वह मृतक हो गएं हो। तो उन्हें यह प्रतीत हुआ, कि वेद में जो उद्गान की महिमा का वर्णन आता है, कि हम सबको उद्गान गाना चाहिए तो उससे यह सिद्ध हुआ कि हमारी जो वाणी है, वह जितनी वेद के प्रकाश से गुथी हुई होगी, उतना ही वायुमण्डल पवित्र होगा।
वायुमण्डल की
पवित्रता के लिए वेद गान
तो इससे हमें प्रतीत होता है, कि हम जो प्राण नाशक और प्राण वर्धक जो दोनों प्रकार के परमाणु गति कर रहे है, हमें उन परमाणुओं को ऊर्ध्वा में ले जाने के लिए, पवित्र बनाने के लिए, हमें उद्गान
गाना चाहिए। हमें, नम्रता से उद्गान और
तन्मय हो करके उद्गान गाना चाहिए। ज्ञानयुक्त हो करके गान गा रहा है। उद्गान गा
रहा है और उद्गान गाता हुआ, वाणी को पवित्र
बना रहा है। तो इन शब्दों के पवित्र बनाने की जो प्रतिभा है, अथवा उसका जो वर्णन, वेद का मन्त्र
कर रहा है। वह शब्दों की प्रतिभा का वर्णन कर रहा है। इसीलिए हमारे यहाँ जितने भी
महापुरुष होते है, वे जिस स्थली पर ये विचारते
है कि हमें तप करना है अथवा चिन्तन और मनन करना है, उस आसन को मेरे प्यारे! अपने प्राण के द्वारा, याग के द्वारा, विचारों के द्वारा, वहाँ का वायुमण्डल पवित्र बनाते जा रहे है। प्रपञ्च को त्याग करके, स्मरणियों शक्ति के द्वारा।820122
याग
संसार का प्रत्येक प्राणी याग कर रहा है। क्योंकि शुद्ध
कामना,
शुद्ध परमाणुओं को, वायुमण्डल में भरण करने का नाम याग कहलाता है। यह सृष्टि के आदि से ही ऋषि
मुनियों का अकाट्य सिद्धान्त माना गया है। 820122
वेद गान से वाणी की
पवित्रता
एक परमाणु, जो त्रि वार्ष्णेय परमाणु कहलाता है। उसका जब
विभाजन ऋषि मुनि करते रहते थे,तो जितना यह
ब्रह्माण्ड है नाना निहारिकाओं वाला है, यह उस परमाणु के विभक्त करने से, विभाजन करने से,उस सर्वत्र ब्रह्माण्ड
का चित्र उसमें दृष्टिपात आने लगता है। तो इससे हमें प्रतीत होता है,कि हम जो प्राण-नाशक और प्राण-वर्धक जो दोनों प्रकार के परमाणु गति कर रहे है, हमें उन परमाणुओं को ऊर्ध्वा में ले जाने के लिए, पवित्र बनाने के लिए,हमें उद्गान
गाना चाहिए। हमें,नम्रता से उद्गान और
तन्मय हो करके उद्गान गाना चाहिए। जैसे यज्ञशाला में, यज्ञमान आहुति दे रहा है,परन्तु उद्गाता, उद्गान गा रहा है और उद्गान गाता हुआ,वाणी को पवित्र बना रहा है। तो इन शब्दों के पवित्र बनाने की जो प्रतिभा है, अथवा उसका जो वर्णन, वेद का मन्त्र
कर रहा है। वह शब्दों की प्रतिभा का वर्णन कर रहा है। इसीलिए हमारे यहाँ जितने भी महापुरुष होते है,वे जिस स्थली पर ये विचारते है कि हमें तप करना है
अथवा चिन्तन और मनन करना है, उस आसन को अपने प्राण के
द्वारा,याग के द्वारा, विचारों के द्वारा, वहाँ का वायुमण्डल पवित्र बनाते जा रहे है। 820122
माता के वेद गान से जीवन में महानता
पंक्ति में माता ने भोज कराया,भोजन कराते हुए,माता जब पुत्र को भोजन
कराती है,तो गायत्री छन्दों के स्वरों की ध्वनियां देती रहती है। क्योंकि उससे वह
बालक,उन तरंगों में ओत प्रोत हो जाता है। जो माता उसे मन्त्र में त्याग देती है,और तपस्या की आभा देती है,उससे अन्नाद
में जो तरंगे पहुंचती है,उन तरंगों से
ही मानव के जीवन का निर्माण होता है।820123
वेद गान से मेघ की
उत्पति
एक समय महाराजा गाड़ीवान रेवक की आयु उस समय ४८१ वर्ष की थीं,वे ४८१ वर्ष के ब्रह्मचारी,वे सब रागों को जानते थे।
सौ सौ वर्षों तक उन्होंने एक एक विषय पर अनुसन्धान किया। वे प्राण और अपान का
मिलान करके,स्वरों की ध्वनि को जानता है उसकी ध्वनि में अग्नि प्रदीप्त हो करके दीपावली
राग बन जाता है। जो जल, जो उदान को और
समान को प्राण में दोनों में उनको पिरो देता है तीनों प्राणों का समावेश होकर के
जब वो गान गाता है तो उससे मेघ रागों का, मेघ उत्पन्न हो जाता है। तो ये विद्याएँ हमारे यहाँ, परम्परागतों से रही हैं। इन विद्याओं के ऊपर बहुत अनुसन्धान किया। परन्तु गान
गा रहा है,गृह के दीपक प्रकाशित हो रहे है। गान गा रहा है, मेघ उमड़ रहें है तो वृष्टि हो रही है।820203
वेद गान से राष्ट्र
में विवेकी पुरुष
उस काल में प्रत्येक गृह में याग होते थे। प्रत्येक गृह में
सुगन्धि होती थी और सुगन्धि होने के पश्चात वेदों की ध्वनियाँ होती थी।
ब्राह्मणत्व,
पाण्डित्व की दृष्टि से संसार की दृष्टिपात करता रहा। तो
राजा के राष्ट्र में राजकोश में इस प्रकार का एक विभाग था,जो केवल इसी के लिए, कि वेद का पठन हो। वेद की परम्पराएँ हो, उनकी रक्षा के लिए कोश में से भाग होता है। जिससे राजा के राष्ट्र में विवेक
पुरुष हों,
बुद्धिमान हों। जिन बुद्धिमानो से राष्ट्र और समाज पवित्र
बनते हैं। तो ये राजा के कोश में ऐसी एक नियमावली बनी हुई। और वह भी वह कोश होता था
जो सात्विक कोश,
कृषक का जो कोश रहता था क्योंकि ऋषि मुनि विवेकी बनते, आहार और व्यवहार से। तो इस प्रकार का राष्ट्र का कर्म विधान युक्त चलता रहा। 820203
वेद गान सत्यमयी
वाणी
वेदमन्त्र कहता है, हे वाणी! तू उद्गान गाने वाली बन, हे वाणी! तू उद्गाता बन करके, उद्गान गा,
जिससे तू वाणी,
जो सत्य उच्चारण करता है, वह सत्य वाणी उसी को प्राप्त होती
है,
जो सत्योमयी रहता है। 820223
वेद गान
हे आत्मा! तू आत्मा
है, मेरे गर्भ में प्रवेश हो गई है वह
विचारती रहती और दर्शनों की भाषा में शब्द उच्चारण करती रहती थी, शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निरंजनोऽसि हे आत्मा! तू बुद्ध
है, हे आत्मा! तू शुद्ध है, हे आत्मा! तू निरञ्जन है, किसी काल में तेरी मृत्यु भी नहीं
होती।820224
गायत्री मन्त्रों
का पठान पठान
एक समय स्वाति राज्य से तीन जिज्ञासु चले। वह भ्रमण करते
रहे। ब्रह्म की खोज में थे। वह चाहते थे कि ब्रह्म हमें प्राप्त हो जाए। भ्रमण
करते हुए जब आश्रम में आए,तो यह प्रश्न किया गया कि महाराज! पूज्यपाद! हम यह जानना चाहते हैं,कि मानव का कल्याण कैसे हो सकता है? उस समय पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा था कि तुम कितना जानते हो? उन्होंने कहा कि महाराज! हमने भ्रमण किया है,हम ब्रह्मचर्य से हैं, ब्रह्मवर्चोसि
हैं,
हम आगे जानना चाहते हैं। उस समय एक एक वर्ष तक गायत्री
छन्दों में उन्हें प्रवेश करा दिया। गायत्री छन्दों का पठन पाठन होता रहा। एक वर्ष
के पश्चात उन्होंने कहा, तुमने क्या
जाना?
उन्होंने कहा-प्रभु! हमारे कुछ प्रश्न हैं। उन्होंने कहा क्या प्रश्न हैं? महाराज! इस संसार का जो सूत्र है वह क्या है? तो पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा इस संसार का कोई सूत्र है तो वह प्राण है। प्राण ही सूत्र कहलाता है, जिस प्राण से संसार बंधा हुआ है, कटिबद्ध हो रहा है, माला की भांति
धागों का सूत्र बन करके एक माला बन रही है। वह एक वर्ष तक अध्ययन करते रहे,उसके
पश्चात बारह वर्षों तक कन्दराओं में अध्ययन और योगाभ्यास करते रहे। वही जिज्ञासु,वही
महापुरुष अपने नाना प्रकार के जन्मों की तरंगों को जानने लगे। 820307
वेद गान से
दीपमालिका व वृष्टि
महाराजा गाड़ीवान रेवक की आयु उस समय ४८१ वर्ष की थीं वे ४८१ वर्ष के ब्रह्मचारी वे सब रागों को जानते थे।
सौ सौ वर्षों तक उन्होंने एक एक विषय पर अनुसन्धान किया। वे प्राण और अपान का
मिलान करके,
स्वरों की ध्वनि को जानते है उसकी ध्वनि में अग्नि प्रदीप्त
हो करके दीपावली राग बन जाता है। जो जल,जो उदान को और समान को प्राण में दोनों में उनको पिरो देता है तीनों प्राणों
का समावेश होकर के जब वो गान गाता है तो उससे मेघ रागों का, मेघ उत्पन्न हो जाता है। तो ये विधाएँ हमारे यहाँ, परम्परागतों से रही हैं। इन विद्याओं के ऊपर बहुत अनुसंधान किया। परन्तु गान
गा रहा है,
गृह के दीपक प्रकाशित हो रहे है। गान गा रहा है, मेघ उमड़ रहें है तो वृष्टि हो रही है। इस प्रकार की विद्याएँ इस विद्या को
त्रेता के काल में, रावण के काल में
यंत्रो में इस परमाणु विद्या को उन्होंने यंत्रों में भरण करने का प्रयास किया।
प्रयास करके मेरे, यंत्रो को वायु में
त्यागा वृष्टि हो गई। इसी प्रकार मानव
अपने क्रिया कलापों में इस विद्या को प्रत्यक्ष करता रहा है। जैसे मल्हार राग गाती
है माता,
मल्हार राग गा करके वृष्टि होने लगती है जैसे दीपावली राग
गाता है,
गान गाता है तो दीपक प्रकाशित हो जाते है। इस प्रकार की
विद्याएँ जैसे परमाणु को विभाजन करने से अनन्त अग्नि का भण्डार उत्पन्न हो जाता
है। इसी प्रकार मानव की, वाणी में मानव
के प्राणों के निदान करने में वह शक्ति
प्राप्त होती है।820403
वेद गान
जिस काल में हम अपने पूज्यपाद गुरुदेव के चरणों में ओत
प्रोत हो जाते थे, और पूज्यपाद गुरुदेव
से प्रश्न करते रहते थे, वे उत्तर देते
रहते थे,
गान गाते थे,प्रत्येक मानव की नस नाड़ियाँ, इन्द्रियां, उसके साथ गति कर रही है मन्त्रार्थ उच्चारण किया जा रहा था, मानव के मुखारबिन्दु में, जो नसों का
नाड़ियों का जो एक इन्द्र जाल की भांति, जो एक जाल का प्रदर्शन हो रहा है। प्रत्येक नस नाड़ियाँ वेदमन्त्र से गतियां
करने लगती हैं संसार में जो वेद की विद्या, इसको मन्त्र कहते हैं। संसार की कोई भी गौणिक भाषा हो, उस भाषा का जो प्रादुर्भाव से हुआ है, वह देव वाणी से हुआ, और देव वाणी
में ही,
यह वेद भाषा निहित
रहती है,
जब मैं यह विचारता हूँ कि वायु मण्डल में जो तरंगों का
प्रादुर्भाव हो रहा हैं, जो तरंगेंवाद
गति कर रहा है, उसके आँगन में एक वेदमन्त्र कटिबद्ध हो रहा हैं। तुमने यह जान लिया, नही। परन्तु और जानो जैसे श्वञ्जनं दिव्यम् ब्रह्मा जैसे वेद ध्वनि हम उच्चारण
करते है। उसके पश्चात याग में हम स्वाहा कह देते हैं।820405
गायत्री
गायत्री गान से रोग शुद्धि
जब पचास दिवस हो गएं नित्यप्रति प्रातःकालीन याग करते रहे
तो वह एक ही वेदमन्त्र से गायत्राणी छन्द होता हैं, उस गायत्री छन्द से वह ध्वनि से वेदमन्त्रों का विशुद्ध रूप से,जब वेद ध्वनि करने लगे,और स्वाहा कहने
लगे,
तो पचास दिवस में,उनका वह रूग्ण शान्त हो गया।820405
वेद गान
बहुत समय हो गया, काल समाप्त हो गया, अन्तःकरण में वह संस्कार,जब उद्बुद्ध हो
जाते हैं,
वाक् आने लगते हैं। परन्तु वह क्यों ऐसा है? इन रोगों में कौन से
मन्त्रों का उच्चारण होना चाहिए,मन्त्र वह होना
चाहिए, जिससे उसके फुस फुसां
वाणी से,
उस फुस फुसां दोनों से उस मन्त्र का समन्वय होना चाहिए,बहुत
से मन्त्र इस प्रकार के हैं पुत्र! जिन मन्त्रों का सम्बन्ध वाणी से,और फुस फुस से होता हैं, कुछ मन्त्र ऐसे
होते हैं,
जिनका सम्बन्ध ईंगला, पिंगला,
सुषुम्ना नाड़ी से हो करके, रीढ के साथ में उनकी ध्वनि का समन्वय होता हैं। इसी प्रकार कुछ मन्त्र ऐसे
होते हैं जो सर्वा अंगी होते हैं,वह छन्दों का
भेदन हैं,उन छन्दों के भेदन के साथ साथ, हमें इन मन्त्रों
का उच्चारण करते हैं, जैसे हमारी वाणी और
फुस फुस का सम्बन्ध हैं, त्वानां
तुरुणश्चप्रव्हा अस्वं भवितां दिव्यं गतप्पव्हे अस्वाकं मधु वंजन्म तो इन वाक्यों
का जो समन्वय,
यह छन्द बन गया। परन्तु इस छन्द का सम्बन्ध फुस फुस और वाणी
से रहता हैं। परन्तु नस नाड़ियों से रहता है, कुछ समन्वय मन्त्र ऐसे होते हैं जिनका समन्वय मानव के शरीर में,उदर में जो नस नाड़ियाँ होती है, उदर में जो
अग्रहाण होता हैं,उदर में जो एक नाड़ियों
का एक विशाल,
एक भवन बना हुआ होता है। उन नस नाड़ियों में वह गति करती
रहती हैं,
वह गतियां होती रहती है, और वह जब गति करती है, तो शरीर के
अब्रहा भाग में,उदर में किसी भी प्रकार का रूग्ण हो, परन्तु मन्त्र को उच्चारण करते हैं जल की धाराओं के साथ में, हम उसको उच्चारण करते हैं, उसमें अपनी
विचारधाराओं की विद्युत देते हैं, और विद्युत दे
करके उद्बुद्ध आभास प्रगट होने लगता हैं। तो नाड़ियों का जो एक भवन होता है, उस भवन में किसी प्रकार का रूग्ण आ जाता है। तो वह उससे विशुद्ध बन जाता है।820405
वेद एक उपहार
आज का हमारा वेदमन्त्र,उच्चारण कर रहा था कि ब्रह्म रूद्रं ब्रह्मे कृतं लोकाः क्या सृष्टि के आदि
में ब्रह्मा ने इस संसार की रचना की, संसार की रचना करने के पश्चात,उसी मेरे देव
ने वेदों का ज्ञान और विज्ञान दिया,वेदों का जैसे माता, कन्या याग करती है, तो माता अपनी
पुत्री को गृह से कुछ उपहार दे करके, वह पति लोक को प्राप्त कराती है। और उसे कुछ पुष्पांजलियां देती है, कुछ मुद्राएं देती है, इसी प्रकार
प्रभु ने,
ब्रह्म ने इस संसार को रचा। परन्तु रचने के पश्चात, यह वेद विद्या इसे प्रदान कर दी संसार में, और वेद की विद्या प्रदान करके यह कहा-हे मानव! वह वेद की विद्या इसे प्रदान कर
दी। जैसे माता अपनी पुत्री को उपहार देती है, ऐसे ही इस संसार को उपहार के रूप में, प्रभु ने यह वेद विद्या उसे प्रदान की समाज को, यह समाज इस विद्या में परिणत हो रहा है, कोई मन्त्र के ऊपर मुग्ध हो रहा है, कोई उसके अर्थ पर मुग्ध हो रहा हैं, कोई लोकों की यात्रा करने में मुग्ध हो रहा है, तरंगों को जान करके वैज्ञानिक बन रहा है। वह जो ज्ञान रूपी समुद्र हैं, जो आदि ब्रह्मा ने सौगात के रूप में, अथवा पुत्री को दहेज के रूप में वह जो वेद विद्या दी हैं, वह अनुपम ज्ञान है। वह अनुपम विज्ञान हैं, जिसके ऊपर संसार का जितना भी विज्ञान हैं वह सब रमण कर रहा है, अथवा नृत्त कर रहा है। जैसे द्यौ लोक में, सूर्य प्रकाश कर रहा है,वह प्रकाश मानव
की अनन्तता में गति कर रहा हैं। अपने में विराम कर देता है, मौन हो जाता है। परन्तु एक ऐसी उज्ज्वल ज्ञान सृष्टि के पिता ने हमें प्रदान
किया,
जिस ज्ञान और विज्ञान को ले करके, मानव अपने जीवन को ऊँचा बनाता हैं, वह विद्या चाहे किसी भी रूप में विद्यमान हो, परन्तु वह प्रभु का दिया हुआ, उपहार है समाज
के लिए,
उपहार के रूप में यह प्रदान किया। उसी के अन्तर्गत सम्वत्सर
आ जाते हैं,
उसी के अन्तर्गत नाना गणना आ जाती हैं, उसी के अन्तर्गत यह ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु गति कर रही हैं। अथवा नृत्त
कर रही है।820405
गायत्री
पंक्ति में माता ने भोज कराया, भोजन कराते हुए, माता जब पुत्र को भोजन
कराती है,
तो गायत्री छन्दों के सुरों की ध्वनियां देती रहती है।
क्योंकि उससे वह बालक उन तरंगों में ओत प्रोत हो जाता है। तो माता उसे मन्त्र में त्याग देती है, और तपस्या की आभा देती है, उससे अन्नाद
में जो तरंगे पहुंचती है, उन तरंगों से
ही मानव के जीवन का निर्माण होता है।820423
वेदमन्त्र
रोगानुसार
बहुत समय हो गया, काल समाप्त हो गया, अन्तःकरण में वह
संस्कार,जब उद्बुद्ध हो जाते हैं, वाक् आने लगते
हैं। परन्तु वह ऐसा क्यों है? इन रोगों में
कौन से मन्त्रों का उच्चारण होना चाहिए, मन्त्र वह होना चाहिए, जिससे उसके
फुस फुसां वाणी से, उस फुस फुसां दोनों से
उसका मन्त्र का समन्वय होना चाहिए बहुत से मन्त्र इस प्रकार के हैं पुत्र! जिन
मन्त्रों का सम्बन्ध वाणी से, और फुस फुस से
होता हैं,
कुछ मन्त्र ऐसे होते हैं, जिनका सम्बन्ध ईंगला, पिंगला, सुषुम्ना नाड़ी से हो करके, रीढ के साथ में
उनकी ध्वनि का समन्वय होता हैं। इसी प्रकार कुछ मन्त्र ऐसे होते हैं जो सर्वा अंगी
होते हैं,
वह छन्दों का भेदन हैं, उन छन्दों के भेदन के साथ साथ, हमें इन
मन्त्रों का उच्चारण करते हैं, जैसे हमारी
वाणी और फुस फुस का सम्बन्ध हैं, त्वानां
तुरुणश्चप्रव्हा अस्वं भवितां दिव्यं गतप्पव्हे अस्वाकं मधु वंजन्म तो इन वाक्यों
का जो समन्वय,
यह छन्द बन गया। परन्तु इस छन्द का सम्बन्ध फुस फुस और वाणी
से रहता हैं। परन्तु नस नाड़ियों से रहता है,कुछ समन्वय मन्त्र ऐसे होते हैं जिनका समन्वय मानव के शरीर में, उदर में जो नस नाड़ियाँ होती है, उदर में जो
अग्रहाण होता हैं, उदर में जो एक नाड़ियों
का एक विशाल,
एक भवन बना हुआ होता है। उन नस नाड़ियों में वह गति करती
रहती हैं,
वह गतियां होती रहती है, और वह जब गति करती है, तो शरीर के
अब्रहा भाग में,उदर में किसी भी प्रकार का रूग्ण हो, परन्तु मन्त्र को उच्चारण करते हैं जल की धाराओं के साथ में, हम उसको उच्चारण करते हैं, उसमें अपनी
विचारधाराओं की विद्युत देते हैं, और विद्युत दे
करके उद्बुद्ध आभास प्रगट होने लगता हैं। तो नाड़ियों का जो एक भवन होता है, उस भवन में किसी प्रकार का रूग्ण आ जाता है। तो वह उससे विशुद्ध बन जाता है।820805
वेदमन्त्र का
प्रभाव
पूज्य महानन्द जीः भगवन! मैं यह जानना चाहता हूँ जैसे हम वेदज्ञ
ध्वनि का गान गाते हैं तो उसका मानवीय जीवन से क्या सम्बन्ध हैं? ज्ञान से क्या सम्बन्ध है?
पूज्यपाद गुरुदेवः मेरे पुत्र!यह वाक तो मैंने कई काल में
प्रगट कराया था,
परन्तु इसका उत्तर यह बन पाता है, कि वेदमन्त्र का जब हम उच्चारण करते हैं, तो जितना भी वेदमन्त्र हैं यह देव वाणी में कहलाता हैं,इसको देव वाणी कहते हैं, देव वाणी का
अभिप्राय यह है,
कि इसे देवता
उद्घोष रूप में उद्घोषित करते रहे हैं। रहा यह, कि हमारा वेदमन्त्र से क्या, जीवन का
सम्बन्ध हैं? मैं तो यह कहा करता हूँ कि संसार में सम्बन्ध ही चेतना से है। सम्बन्ध ही एक
उग्र रूप को धारण कर लेता है।
तो प्रत्येक वेदमन्त्र का मानव के जीवन से सम्बन्ध है, जिस मन्त्र के आधार पर, हम अपने जन्म
जन्मान्तरों के संस्कारों को उद्घोष करने लगते हैं। जैसे हमने वेदमन्त्र को
उच्चारण किया,
वाणी में पवित्रता आ जाती हैं। हृदयों में पवित्रता आ जाती
है,
आत्मा अपने लोक में प्रवेश कर जाता है। तो हमारे जीवन का
सम्बन्ध प्रत्येक मन्त्र से उसका समन्वय रहता हैं। मानव जो भी उच्चारण कर रहा हैं, गान गाया जा रहा हैं, परन्तु यह केवल
आभा में कहलाने वाला एक विज्ञान है, जिस विज्ञान को
ले करके हम अपनी मानवीय दशा को महान बनाते हैं। परन्तु प्रत्येक वेदमन्त्र हमारे
जीवन का साथी बना हुआ है, उसमें
विकृतियां नही होती, परन्तु अपनी आभा में
गति करने वाला हैं, जिसको मन्त्र कहते हैं, मन्त्रार्थ कहते हैं। मन्त्र
का सम्बन्ध हैं मन से, मन से जो भी मानव कर्म करता
हैं, वह महान और पवित्र बन जाता हैं। तो
उसी का नाम एक कर्म ध्वनि बन गई। तो हे मेरे पुत्रां
ब्रह्मा स्वस्तां ब्रहे मानो यह जो जितना भी क्रियाकलाप हो रहा है, यह सब प्रभु के आङ्गन में,प्रभु की
महानता में,
ओत प्रोत रहने वाला हैं। परन्तु विचार क्या कह रह है?कि जब हम वेदमन्त्रों की ध्वनि से, गान गाते हैं तो प्रत्येक नस नाड़ियाँ उद्घोष करने लगती हैं। जब प्रत्येक
नसनाडियां एक चित्रावली बन करके रह जाता है। सम्भवितां देवं गतं प्रमाणं ब्रह्मे
लोकाः मेरे प्यारे! वह ब्रह्म
औषध कहलाती है, जिसको धारण करने के
पश्चात,
मानव के जीवन में, एक मानवीयता के अङ्कुर उत्पन्न हो जाते हैं। क्योंकि परमपिता परमात्मा ने सीमा
में बद्ध करते हुए, अभ्यस्त हो गया है।
परन्तु जब यह प्रसंग आते हैं, कि हमारा जो
जीवन हैं,
उसका आयुर्वेद से सम्बन्ध होता है, आयु में हमें लगाता है, परन्तु ये
वेदमन्त्र भी ये कहता है बलं ब्रहे वर्णभेतु बलों को धारण करने वाला, वह मेरा चैतन्य देव कहलाता हैं। प्रत्येक वेदमन्त्र को जो ध्वनि से गान रूप
में गाते हैं,
तो उदात्त, अनुदात्त में
गाते रहते हैं। हम अपने में इतने महान मन्त्र को ले करके, क्योंकि मन से इसका समन्वय रहता हैं और मन को ही सीमा में लाना, इसी का नाम मन्त्रणा कहलाया जाता है।
तो प्रत्येक वेदमन्त्र मानव के जीवन को महान बना देता है आज
कोई भी वेदमन्त्र ले करके जब मानव अपने को ऊँचे स्वरों में ध्वनि रूप में, धन मन्त्र कृणत्वा धनवति बना देता है, वायु में गतियां हो रही है, धाराएं चल रही
है,
उन तरंगों को धारण करने वाला, महापुरूष कहलाता हैं।तो मानव को अपनी आभा में अभ्यस्त रहना चाहिए,उन्हीं
विचारों से मानव का कल्याण होता है। वाहन गति कर रहा है, अन्तरिक्ष में जा रहा है, परन्तु वह
मन्त्रणा प्रथम कहलाती हैं।
पूज्य महानन्द जीः तो क्या भगवन! जैसे कोई मानव शत्रु हैं
और शत्रु को हम विजय करना चाहते हैं, तो ऐसा कोई मन्त्र हैं?
पूज्यपाद गुरुदेवः हाँ ऐसा मन्त्र उसका चिन्तन हैं, परन्तु वह चिन्तन महान होना चाहिए, उस चिन्तन में एक विशेषताएं होती है, जिससे वह अपने में अपनेपन को जाना जाता हैं। तो वेदमन्त्र कहता है कि शत्रु को विजय करना है,तो अजामेध याग
करो। हम अपने आन्तरिक शत्रु समाप्त करना चाहते हैं, तो बाह्य शत्रुओं का अभाव स्वतः हो जाता हैं। जैसे हम उच्चारण कर रहे हैं, ध्वनि रूप में अपने में वह पूर्णता को दृष्टिपात होता हैं। परन्तु वह अपनी आभा
में शत्रुता को विजय करना चाहता हैं, विजय हो सकता है परोक्ष,अपरोक्ष रूप
में,
सत्य के द्वारा सर्वत्र कार्य हो रहा है।
तो यह कैसा अनुपम ज्ञान हैं, जिसके ऊपर हम परम्परागतों से अनुसन्धान करते आए हैं,अजामेध याग का वर्णन जहाँ आता है वहाँ वह अन्वकृत कहलाता है। जिससे आन्तरिक
शत्रु समाप्त हो जाएं,जब आन्तरिक शत्रु
समाप्त होंगें तो बाह्य शत्रु भी समाप्त हो जाएंगें। तो प्रथम अपने आन्तरिक
शत्रुओं को समाप्त करना है। जब हम एक वाक को उच्चारण करते हैं, तो नाना रश्मियों का जन्म हो जाता है। 820806
वेद गान मानसिक
दुखद निवृति
प्रत्येक मानव की इच्छा बलवती होनी चाहिए। तीव्र इच्छा के
बलवती होने पर रूग्णों का हृास हो जाता है। रूग्ण नही रहते। मानसिक चिन्तन को
सुन्दर होना चाहिए, मानसिक चिन्तन उस काल
में ऊँचा होगा,
जब प्रत्येक गृह में परमपिता परमात्मा की चर्चाएं होती
रहेंगी। उसके उद्गार होते रहेंगें। दर्शनों की भाषा में,दार्शनिक विचार शब्द रूप
में चित्रों के रूप में गृहों में रमण करते रहेंगें। तो वे गृह उस मृत्यु से
मानसिक चिन्तन के रूग्णों से मानव दूरी होता रहता है। ऋषि मुनियों को मानसिक दुखद
क्यों नही होता था, उसके मूल में उनका
चिन्तन विशुद्ध होता था,परन्तु विशुद्ध चिन्तन से मानसिक चिन्तन महान बन जाता है।820807
वेद गान की तीन
धाराएं
आज का हमारा वेदमन्त्र क्या कह रहा है, आज के वेद मन्त्रों में जहाँ ब्रह्म सूत्र की चर्चाएं आ रही थी, वहाँ सु की चर्चाएं,उसके ऊपर हम नाना प्रकार की धाराएं और उसके विज्ञान की
प्रतिभा,
हमारे समीप आती चली जा रही थी। हमारा एक एक वेदमन्त्र तीन
धाराओं में हमें रमण कराता रहता है। एक व्यावहारिक धारा है, एक वैज्ञानिक धारा है और एक यौगिक धारा कहलाती है। परन्तु देखो, यही धाराएं सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण रूप में परणित हो जाती है। 821020
वेदमन्त्रों का
हृदय से गान
वेदमन्त्रों का पठन पाठन किया, हमारे यहाँ ये पठन पाठन का क्रम परम्परागतों से ही, चला आ रहा है। क्योंकि इस पठन पाठन में, नाना प्रकार के व्यञ्जन होते हैं और उच्चारण करने के नाना प्रकार माने गए हैं।
जैसे हमारे यहाँ वेदों की ध्वनियाँ होती रहती हैं। गान गाने वाला गाता ही रहता है।
कहीं वह गान जटा पाठ में गा रहा है,कहीं माला पाठ
में गा रहा है, कहीं विसर्ग,उदात्त,अनुदात्त नाना प्रकार के वेद के पठन पाठन में
ऋषि मुनियों ने अनुसन्धान किया और यह उन्होंने कहा है कि मानव जब गान गाने लगता है
तो एक शब्द को,
उसके पश्चात् द्वितीय शब्द की धारा को जन्म देता है, वह उसका जन्मदाता बन जाता है परन्तु जो मानव हृदय से गान गाता है वह गाता ही
रहता है।830119
वेद गान की
विचित्रता
हम मनोहर वेदमन्त्रों का गुणगान गाते चले जा रहे थे,ये भी तुम्हें प्रतीत हो गया होगा, आज हमने पूर्व से, जिन वेदमन्त्रों का
पठन पाठन किया,हमारे यहाँ ये पठन पाठन का क्रम परम्परागतों से ही, चला आ रहा है। क्योंकि इस पठन पाठन में,नाना प्रकार के व्यञ्जन होते हैं और उच्चारण करने के नाना प्रकार माने गए हैं।
जैसे हमारे यहाँ वेदों की ध्वनियाँ होती रहती हैं। गान गाने वाला गाता ही रहता है।
कहीं वह गान जटा पाठ में गा रहा है, कहीं माला पाठ
में गा रहा है, कहीं विसर्ग उदात्त अनुदात्त नाना प्रकार के वेद के पठन पाठन में
ऋषि मुनियों ने अनुसन्धान किया और यह उन्होंने कहा है कि मानव जब गान गाने लगता है
तो एक शब्द को,
उसके पश्चात् द्वितीय शब्द की धारा को जन्म देता है, वह उसका जन्मदाता बन जाता है परन्तु जो मानव हृदय से गान गाता है वह गाता ही रहता है।
महर्षि भृगु मुनि
का गान
ऋषि मुनि जब गान गाते रहते थे, तो वह निर्भय और आत्मीयता में तन्मय हो करके गान गाते थे। जब महर्षि भृगु मुनि
गान गाते थे तो गान गाते गाते इतने तन्मय हो जाते थे कि उनको कोई प्रतीति नहीं
होती कि बाह्य जगत् भी है। सिंहराज आ रहे हैं, गान को श्रवण कर रहे हैं, मृगराज आ रहे
हैं,
गान को श्रवण कर रहे हैं, परन्तु ध्वनियाँ चल रही हैं, वायुमण्डल में
वे तरंगें जा रही हैं वो ऋषि हृदय से गा रहा है।
ह्रदय-गान से याग सिद्ध
तो मानव को जो भी गान गाना हो,उसे हृदय से गाना चाहिए क्योंकि हृदयग्राही हो करके जो मानव गान गाता है,वह उस
गान को प्रकाश में और अपने को प्रकाश में रत्त करा करके गान में ऊर्ध्वा को
प्राप्त हो जाता है। जैसे आज के हमारे वेद पाठ में यागां ब्रह्मे वस्तुतव प्रव्हा
वेद का आचार्य यह कहता है कि याज्ञिक पुरुष जब याग करता है तो गान गाता है,परन्तु हृदय से जब गान गाता है,तो याग उससे सिद्ध हो जाता है, वह याग में परिणित हो जाता है।
याग के भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वरूप हमारे यहाँ माने गए
हैं। क्योंकि मानव जब नेत्रों से सुदृष्टि पान कर रहा है, उन नेत्रों का सम्बन्ध मानव के हृदय से है। हृदय और नेत्रों का दोनों का जब
समन्वय होता है तो नेत्र गान गा रहे हैं। मानव जब श्रोत्रों से गान गाता है, वह संसार के चित्रों को, शब्दों को अपने
में ग्रहण कर रहा है। शब्दों के चित्रों को ला करके हृदय को प्रदान कर रहा है। वह
हृदय से शब्दों का ग्रहण कर रहा है। वह याग हो रहा है, वह साकल्य लाते हैं, हृदय में परिणित
कर देते हैं। तो ऐसी पांच ज्ञानेनिद्रयों का जो विषय है वह सर्वत्र उसकी जो स्थिरता
है वह मानव के हृदय में परिणित हो जाती है, वह हृदय में गान गाने लगती है। जैसे मैंने तुम्हें बहुत पुरातन काल में वर्णन
किया कि माता जब हृदय से गान गाती है और माता के हृदय में जब हम जैसे पुत्र जरायुज
रहते हैं तो उस समय माता गान गाती है, हृदय से जब गान गाती है, तो माता
मल्दालसा की भांति अपने गर्भस्थल में पुत्र को ब्रह्मवेत्ता बनाने की उत्सुकता में
लग जाती है।
माता का सौभाग्य
तो मानव को जो भी गान गाना चाहिए,वह हृदय से गाना चाहिए। क्योंकि
जितना भी संसार का कर्म है,वह सर्वत्र एक गान के रूप में है। जितना महानता वाला
कर्म है,माता मल्दालसा जब गान गाती रहती थीं तो अपने अन्तःकरण में अपने हृदय की
प्रति,उसको ग्राही बना लेती थी परिणाम ये वह गान गाती रहती थी और जब वह गान गाती
थी तो पांच वर्ष का बालक ब्रह्मवेत्ता बन करके माता से आज्ञा पाता। माता! मैं अब
ब्रह्म वर्चोसि अग्नि में जाना चाहता हूँ। माता प्रसन्न हो रही है और यह उच्चारण
कर रही है मेरा जो पुरुषार्थ है, मैंने जो गान
गाना है,
मेरा जो शुभ कर्म है,वह जो मैंने शुभ गान गाया है,वह मेरा सफल हो गया है। माता अपने में हर्ष
ध्वनियाँ कर रही हैं और यह उच्चारण कर रही हैं कि मैं कितनी सौभाग्यशाली हूँ, आज मेरा पुत्र बह्मवेत्ता बनने के लिए जा रहा है।
तो माता वह कहलाती है। सु माता, जिसका बालक ब्रह्मवेत्ता बन करके ब्रह्माग्नि में प्रवेश करने वाला हो, ब्रह्माग्नि को अपने में धारण करने वाला हो। विचार विनिमय क्या याग में गान
गाया जाता है। उद्गाता गान गा रहा है, उदगम गान गाने वाला स्वरों से गा रहा है। जटा पाठ, घन पाठ,
माला पाठ, विसर्ग पाठ, उदात्त अनुदात्त, रेणा अस्वत पाठ, दीपावली गान, स्वेत गान, नाना प्रकार के गानों का वर्णन हमारे वैदिक साहित्यों में हमें प्राप्त होता
रहा है। समय समय पर ऋषि मुनियों ने अपनी स्थलियों पर गान गाए हैं और मानव ही पान
नहीं करता है उस गान को,मृगराज, सिंहराज एक
पंक्ति में विद्यमान हो करके उस गान को श्रवण करते हैं। क्योंकि उसके शब्द में
इतनी शक्ति है,
इतनी सत्ता है, क्या वह सत् से पिरोया हुआ शब्द है,अहिंसा परमोधर्मः से पिरोया हुआ वह शब्द है,जो भी श्रवण करता है वह शान्त मुद्रा को प्राप्त हो जाता है,वह अपनी महत्ती को प्राप्त करने लगता है।
तो हम अपने में
अपनी महती को जानने वाले बनें। हम अपने को जानते हुए चले जाएं। अपनी प्रतिभा, अपनी ज्ञान-इन्द्रियों, कर्म
इन्द्रियों को जान करके हृदय स्थली में, अपने हृदय से गान गाने वाले बनें। हृदय से
ही,
प्रभु की सृष्टि को,जब हम निहारते रहते हैं,तो वैज्ञानिक बन जाते हैं। उस परमपिता परमात्मा की
सृष्टि को जब,
आभा में दृष्टिपात करने लगते हैं तो उस समय हम भक्तजन बन
करके ऋषियों की आभा में, मुनियों की
कोटि में प्राप्त हो जाते हैं।
वेद गान की राज्य
व्यवस्था
हे यज्ञमान! तेरे जीवन का सौभाग्य अखण्ड बना रहे। हे
ब्राह्मणत्व! तेरे जैसे उद्गान गाने वालों का राष्ट्रीयता से सर्वत्र निश्चित हो करके, तू वेद का पठन पाठन कर सकने वाला
होता,परन्तु आज के समय में, जिस काल में
जन्म हुआ है,उस काल में अपने में पूर्ति करने का स्वतः ही प्रयास करना होता है। यहाँ राजाओं के यहाँ से,ब्राह्मण
का प्रबन्ध होना चाहिए। ब्राह्मण की कृतियों में उसकी विद्या का अनुगान होना चाहिए, जिससे उद्गान गाने वाला स्वतन्त्र
रूपों से गान गा सके और जो गान गाने वाला, वेद के पठन पाठन करने वाले को उदर की पूर्ति का सदैव भय लगा
रहता है, वह स्वतन्त्र रूपों से वेद के पठन
पाठन में वह एक बाधक बन जाता है। इसी प्रकार बहुत पुरातन काल में हमारे यहाँ ऋषि
मुनि, जितने वैज्ञानिक वेद के पठन पाठन करने
वाले होते थे इसीलिए राजा के राष्ट्र में मानो देखो, नाना प्रकार के मत मतान्तरों की मानो देखो, भूमिका बनती जा रही है क्योंकि बेद के
पठन पाठन का प्रबन्ध यदि राष्ट्र से हो विवेकी पुरूष हो तो यह जो नाना प्रकार की
जो रूढ़ियाँ बनती है ये समाप्त हो जाएंगी ।830119
वेदमन्त्रों का
हृदय से गान
तो मानव को जो भी गान गाना हो,उसे हृदय से गाना चाहिए क्योंकि हृदयग्राही हो करके जो मानव गान गाता है वह उस
गान को प्रकाश में और अपने को प्रकाश में रत्त करा करके गान में ऊर्ध्वा को
प्राप्त हो जाता है। जैसे आज के हमारे वेद पाठ में यागां ब्रह्मे वस्तुतव प्रव्हा वेद का आचार्य यह कहता है
कि याज्ञिक पुरुष जब याग करता है तो गान गाता है,परन्तु हृदय से जब गान गाता है तो याग उससे सिद्ध हो जाता है, वह याग में परिणित हो जाता है।830119
वेदमन्त्रों का
हृदय से गान
मुझे स्मरण आता रहता है, ऋषि मुनि जब गान गाते रहते थे, तो बेटा! वह
निर्भय और आत्मीयता में तन्मय हो करके गान गाते थे। बेटा! मुझे वह काल स्मरण आता
रहता है जब महर्षि भृगु मुनि गान गाते थे तो गान गाते गाते इतने तन्मय हो जाते थे
कि उनको कोई प्रतीति नहीं होती कि बाह्य जगत् भी है। सिंहराज आ रहे हैं, गान को श्रवण कर रहे हैं, मृगराज आ रहे
हैं,
गान को श्रवण कर रहे हैं, परन्तु ध्वनियाँ चल रही हैं, वायुमण्डल में
वे तरंगें जा रही हैं वो ऋषि हृदय से गा रहा है।830119
वेदों की शाखाए
महर्षि मार्कण्डेय मुनि महाराज अपने में महान वैज्ञानिक और
महान प्रतिभाशाली थे। जिन्होंने वेद के कुछ सूक्तों को ले करके उन्होंने
मार्कण्डेय नामक एक शाखा का निर्माण किया। उसको वेद में से उद्बुद्ध किया। शाखा
कहते किसे है?
वह एक विचारणीय विषय है, शाखा उसे कहते है एक विषय पर कुछ मन्त्र है और उन मन्त्रों का जो एक भावार्थ
होता है वह अपने में जिस समय का, जिस काल का, वह भाषा का विशेषज्ञ राष्ट्र और समाज में जो साधारण और मार्मिक जो भाषा होती
है,
उस भाषा में वेदमन्त्र को उसको रूपान्तरित कर देना और
वेदमन्त्र ज्यों का त्यों है, एक शब्द लिया, जैसे एक शब्द हमने ले लिया “वर्णाः” तो वर्णाः के ऊपर एक जो राष्ट्र भाषा या समाज की या उस काल की भाषा होती है,उसी भाषा से एक वर्ण के ऊपर वह एक एक व्याख्या कर देता है। तो वह एक व्याख्या
पोथी बन जाती है। परन्तु उसको जब कटिबद्ध कर देते है तो वह शाखा के रूप में परिणित
हो करके वह राष्ट्र की सम्पदा बन जाती है और वह आगे आने वाला जो समाज है, वह उस पोथी के माध्यम से वेद के शब्दों को अच्छी प्रकार उसकी जानकारी उसे हो
जाती है।830404
वेद गान
राजा रावण के जीवन में एक आवरण छा गया, आवरण छा जाने के
पश्चात सबसे प्रथम उन्होंने कपट की वार्त्ताएं,जो ऐषणा अभिमान के एक वाक्,वैद्यराज से
प्रगट की। वैद्यराज से प्रगट करने से वह कोई, क्योंकि वैद्यराज जो होते हैं इनका बड़ा अध्ययन होता है, इनकी बड़ी विचित्र धाराएं होती हैं। अध्ययन करने की,परन्तु औषधियों के ऊपर इनका अधिपथ्य होता है औषधि ही जब अभिमान छा जाता है तो
रूग्ण भी अवश्य आता है। जब रूग्ण आता है तो उसी प्रकार की औषध वैद्यराज के द्वार
पर होती है। परन्तु जब मानव घृष्टता में परिणित होता है,घृष्टता के पश्चात मानव के शरीर में विष उत्पन्न ही जाता है,विष के उत्पन्न होने के पश्चात वैद्य के ही द्वारा एक औषध होती है, उस औषध को वह जब अपने में पान करता रहता है परन्तु वही रूग्ण समाप्त हो जाता
है।830404
वेदगान के लिए अन्न
की पवित्रता की आवश्यकता
उन सबका राष्ट्रीयता से,आहार का प्रबन्ध,आहार का उनकी कृतियाँ बना करती थीं। राजा के यहाँ से वह द्रव्य आता था। जिस
राज्य के द्रव्य में किसी प्रकार का तमोगुण और रजोगुण न हो, उस अन्न को ऋषि मुनियों के लिए उन्हें प्रवाह से प्रदान किया जाता, क्योंकि वेद के पठन
पाठन करने वालों को रजोगुणी और तमोगुणी प्रवृत्ति वाला जो अन्न है। वह उसकी आत्मा
को हनन कर देता है, उसकी बुद्धि का हनन कर देता
है। हमारे यहाँ मृत्युञ्जं भवा सम्भवेः जो मृत्यु कर होता है,उस अन्न को महापुरुषों को प्रदान नहीं करना चाहिए। ब्राह्मण समाज की मृत्यु का
यदि कोई मूल कारण है तो वह कारण मृत्यु का आहार करना है।830419
वेद गान का हिंसक
पशुओं पर प्रभाव
हमने पूर्व से,जिन वेदमन्त्रों का पठन पाठन किया,हमारे यहाँ ये पठन पाठन का क्रम परम्परागतों से ही, चला आ रहा है। क्योंकि इस पठन पाठन में,नाना प्रकार के व्यञ्जन होते हैं और उच्चारण करने के नाना प्रकार माने गए हैं।
जैसे हमारे यहाँ वेदों की ध्वनियाँ होती रहती हैं। गान गाने वाला गाता ही रहता है।
कहीं वह गान जटा पाठ में गा रहा है, कहीं माला पाठ
में गा रहा है,
कहीं विसर्ग,उदात्त,अनुदात्त नाना प्रकार के वेद के पठन
पाठन में ऋषि मुनियों ने अनुसन्धान किया और यह उन्होंने कहा है कि मानव जब गान
गाने लगता है तो एक शब्द को, उसके पश्चात्
द्वितीय शब्द की धारा को जन्म देता है, वह उसका जन्मदाता बन जाता है परन्तु जो मानव हृदय से गान गाता है वह गाता ही
रहता है।
हृदय से गान
ऋषि मुनि जब गान गाते रहते थे,तो वह निर्भय और आत्मीयता में तन्मय हो करके गान गाते थे। जब महर्षि भृगु मुनि
गान गाते थे,तो गान गाते गाते इतने तन्मय हो जाते थे कि उनको कोई प्रतीति नहीं
होती कि बाह्य जगत् भी है। सिंहराज आ रहे हैं, गान को श्रवण कर रहे हैं, मृगराज आ रहे
हैं,
गान को श्रवण कर रहे हैं, परन्तु ध्वनियाँ चल रही हैं, वायुमण्डल में
वे तरंगें जा रही हैं वो ऋषि हृदय से गा रहा है।
तो मानव जो भी गान गाना हो,उसे हृदय से गाना चाहिए क्योंकि हृदयग्राही हो करके जो मानव गान गाता है वह उस
गान को प्रकाश में और अपने को प्रकाश में रत्त करा करके गान में ऊर्ध्वा को
प्राप्त हो जाता है। वेद का आचार्य यह कहता है कि याज्ञिक पुरुष जब याग करता है तो
गान गाता है,परन्तु हृदय से जब गान गाता है तो याग उससे सिद्ध हो जाता है, वह याग में परिणित हो जाता है।
याग के भिन्न भिन्न प्रकार के स्वरूप हमारे यहाँ माने गए
हैं। क्योंकि मानव जब नेत्रों से सुदृष्टि पान कर रहा है, उन नेत्रों का सम्बन्ध मानव के हृदय से है। हृदय और नेत्रों का दोनों का जब
समन्वय होता है तो नेत्र गान गा रहे हैं। मानव जब श्रोत्रों से गान गाता है,वह संसार के चित्रों को,शब्दों को अपने
में ग्रहण कर रहा है। शब्दों के चित्रों को ला करके हृदय को प्रदान कर रहा है। वह
हृदय से शब्दों का ग्रहण कर रहा है। वह याग हो रहा है, वह साकल्य लाते हैं, हृदय में परिणित
कर देते हैं। तो ऐसी पांच ज्ञानेन्द्रियों का जो विषय है वह सर्वत्र,उसकी जो स्थिरता
है वह मानव के हृदय में परिणित हो जाती है,वह हृदय में गान गाने लगती है। जैसे मैंने तुम्हें बहुत पुरातन काल में वर्णन
किया कि माता जब हृदय से गान गाती है और माता के हृदय में जब हम जैसे पुत्र जरायुज
रहते हैं तो उस समय माता गान गाती है, हृदय से जब गान गाती है, तो माता
मल्दालसा की भांति अपने गर्भस्थल में पुत्र को ब्रह्मवेत्ता बनाने की उत्सुकता में
लग जाती है।
हृदय से वेद गान
मानव को जो भी गान गाना चाहिए वह हृदय से गाना चाहिए।
क्योंकि जितना भी संसार का कर्म है वह सर्वत्र एक गान के रूप में है। जितना महानता
वाला कर्म है माता मल्दालसा जब गान गाती रहती थीं,तो अपने अन्तःकरण में अपने हृदय
की प्रति आस्वा उसको ग्राही बना लेती थी, जब वह गान गाती थी,तो पांच वर्ष का बालक
ब्रह्मवेत्ता बन करके माता से आज्ञा पाता। माता! मैं अब ब्रह्मवर्चोसि,अग्नि में
जाना चाहता हूँ। माता प्रसन्न हो रही है और यह उच्चारण कर रही है,मेरा जो
पुरुषार्थ है,मेरा जो गान गाना है, मेरा जो शुभ
कर्म है,
वह जो मैंने शुभ गान गाया है,वह मेरा सफल हो गया है। माता
अपने में हर्ष ध्वनियाँ कर रही हैं और यह उच्चारण कर रही हैं कि मैं कितनी सौभाग्यशाली
हूँ,आज मेरा पुत्र बह्मवेत्ता बनने के लिए जा रहा है।
तो सु-माता, जिसका बालक
ब्रह्मवेत्ता बन करके ब्रह्माग्नि में प्रवेश करने वाला हो, ब्रह्माग्नि को अपने में धारण करने वाला हो। वेदमन्त्र यज्ञं भवा सम्भवत्ते
याग में गान गाया जाता है। उद्गाता गान गा रहा है, उदगम गान गाने वाला स्वरों से गा रहा है। जटा पाठ, घन पाठ,
माला पाठ, विसर्ग पाठ, उदात्त अनुदात्त, रेणा अस्वत पाठ, दीपावली गान, स्वेत गान, नाना प्रकार के गानों का वर्णन हमारे वैदिक साहित्यों में हमें प्राप्त होता
रहा है। समय समय पर ऋषि मुनियों ने अपनी स्थलियों पर गान गाए हैं और जिसको मानव ही
पान नहीं करता है उस गान को मृगराज, सिंहराज एक
पंक्ति में विद्यमान हो करके उस गान को श्रवण करते हैं। क्योंकि उसके शब्द में
इतनी शक्ति है,
इतनी सत्ता है, क्या वह सत् से पिरोया हुआ शब्द है,अहिंसा परमोधर्मः से पिरोया हुआ वह शब्द है, जो भी श्रवण करता है वह शान्त मुद्रा को प्राप्त हो जाता है,वह अपनी महत्ती को प्राप्त करने लगता है।
वेद गान से महती
अपनी प्रतिभा, अपनी ज्ञानेन्द्रियों,कर्म
इन्द्रियों को जान करके हृदय स्थली में अपने हृदय से गान गाने वाले बनें। हृदय से
ही प्रभु की सृष्टि को,जब हम निहारते
रहते हैं,तो वैज्ञानिक बन जाते हैं। उस परमपिता परमात्मा की सृष्टि को जब, आभा में दृष्टिपात करने लगते हैं तो उस समय हम भक्तजन बन करके ऋषियों की आभा
में, मुनियों की कोटि में प्राप्त हो जाते हैं।
यज्ञमान का सौभाग्य
मैं उस यज्ञमान को अपने हृदय की कामना सदैव प्रगट करता रहता
हूँ,
हे यज्ञमान! तेरे जीवन का सौभाग्य अखण्ड बना रहे। हे
ब्राह्मणत्व! तेरे जैसे उद्गान गाने वालों का राष्ट्रीयता से सर्वत्र निश्चित हो
करके तू वेद का पठन पाठन कर सकने वाला होता,परन्तु आज के समय में, जिस काल में जन्म हुआ है,उस काल में अपने में पूर्ति करने का स्वतः ही प्रयास
करना होता है। यहाँ राजाओं के यहाँ से ब्राह्मण का प्रबन्ध होना चाहिए। ब्राह्मण
की कृतियों में उसकी विद्या का अनुगान होना चाहिए, जिससे उद्गान गाने वाला स्वतन्त्र रूपों से गान गा सके और जो गान गाने वाला, वेद के पठन पाठन करने वाले को उदर की पूर्ति का सदैव भय लगा रहता है,वह स्वतन्त्र रूपों से वेद के पठन पाठन में वह एक बाधक बन जाता है। इसी प्रकार
बहुत पुरातन काल में हमारे यहाँ ऋषि मुनि, जितने वैज्ञानिक वेद के पठन पाठन करने वाले होते थे इसीलिए राजा के राष्ट्र
में मानो देखो,
नाना प्रकार के मत मतान्तरों की भूमिका बनती जा रही है
क्योंकि वेद के पठन पाठन का प्रबन्ध यदि राष्ट्र से हो विवेकी पुरूष हो तो यह जो
नाना प्रकार की जो रूढ़ियाँ बनती है।830419
वेद का प्रकाश
हे यज्ञमान! तेरा जीवन मानो देखो, एक महान बन करके रहता है, आज जब तू यज्ञ
में विद्यमान हो करके, वेदों की ध्वनियां
गाता है,वेद गाता ही रहता है,वेद का प्रकाश
है,
प्रकाश गाया ही जाता है, वह प्रकाश जब गाया जाता है उस प्रकाश में से अमृत की धाराओं का जन्म होता है।830423
वेद गान
हम द्यौ लोक को विचारने लगते हैं,द्यौ लोक में जो नाना प्रकार के शब्द,द्यौ में प्रवेश होते रहते हैं। उनका संघर्ष हो करके वायुमण्डल को पवित्र
बनाते रहते हैं,
क्योंकि अग्नि सदैव संघर्ष करती रहती है। तो वह एक दूसरे की
आभा को जन्म देने लगती है। जन्मदाता बन करके इस संसार में प्रकाश की द्यौतक बन
जाती है।840305
वेद गान कायाकल्प
में सहायक
कायाकल्प का अभिप्रायः यह है शरीर यदि जीर्ण हो जाएं,शरीर में जीर्णता आ जाएं जीवन शक्ति का हृास हो जाएं, तो औषधियों से उसको जीवन शक्ति प्रदान की जाती है। तो कुछ इस प्रकार के गायन
भी होते हैं,
जिन गायन के गाने से, जीवन शक्ति प्रदान की जाती है। ऐसा गान भी
होता हैं परन्तु वह गायन स्वर और ग्रणियों से परिपक्व रहता है।840416
महाराजा अश्वपति का
वेद गान
महाराजा अश्वपति ने १२ वर्ष का तप किया, और १२ वर्ष तक वेद के छन्दों में रमण करते रहे। उसका परिणाम यह हुआ कि उनका
राष्ट्र सर्वत्र गायत्री की गोद में जाने के लिए तत्पर हो गया। 840428
वेदमन्त्र
ब्रह्माण्ड की गाथा
वेद का आचार्य कहता है कि हमारा जीवन महान बनें, पवित्र बनें, और हम परमपिता
परमात्मा की गाथा का गान गा रहे हैं। प्रत्येक वेदमन्त्र उस ब्रह्म का गान गा रहा
है ब्रह्म की गाथा का वर्णन कर रहा है जैसे माता का पुत्र माता की गाथा गा रहा है
जैसे यह पृथ्वी ब्रह्माण्ड की गाथा गा रही है इसी प्रकार यह जो ब्रह्म है,इस ब्रह्म की,एक एक वेद मन्त्र,इसकी गाथा गा रहा है,इसके गुणों का
वर्णन कर रहा है गुणातीत बन रहा है।840721
दीपावली गान
तो वह किसी काल में
मल्हार रागों की प्रतिभा का एक चलन हमारी माताओं में रहा है और पुरुषों में, ऋषि मुनियों में एक विद्या रही इसको
दीपावली गान कहते थे। दीपावली उद्गीत करते थे। वह
उन्होंने गान गाया तो प्राणायाम किया और वो प्राणायाम शीतली प्राणायाम और खेतरी
मुद्रा दोनों प्राणायामों का मिलान किया,अपान और प्राण दोनों एक सूत्र में लाना, लाने से जो गान गाते थे। उसका मत्स्य कुल की वाणी में कलाप हो जाता है। उस कलाप
में एक अग्नि की प्रतिभा का जन्म हो करके प्राण अग्नि का द्यौतक कहलाता है वही
उन्हीं गान से दीपावली बन जाती है तो यह सब विद्याएँ हमारे वैदिक साहित्य में हमें
प्रायः प्राप्त होती हैं,जब वेदों का अध्ययन किया जाता है तो वेदों के अध्ययन में स्वर होता है एक व्यञ्जन
होता है। तो स्वर और व्यंजन नदोनों का जब समन्वय करता हुआ अप्राण और प्राण का
दोनों का समन्वय करता हुआ उद्गाता उद्गीत गाता है तो अनुपमता में इस प्रकार
प्राप्त हो जाता है। 850204
ब्रह्मज्योति ,वेद
गान
प्रत्येक मानव परम्परागतों से ही,अपने में गानरूपों में ही गाता रहता है,और यह अनुभव कराता रहता है गायं श्वञ्धनं ब्रह्म ज्योतिः। गायन भी एक धन है
परन्तु वह ब्रह्मज्योति है, ये ज्योति के
ऊपर प्रत्येक मानव का हृदय, जिस ज्योति के
ऊपर यह ब्रह्माण्ड निहित हो रहा है। वही ज्योति एक ज्योतिवान हो करके, इस संसार को भिन्न-भिन्न प्रकार के रूपों में परिणित कर रही है। 850225
कनक का प्रभाव
कणक को रात्रि में
मिट्टी के पात्र में भिगो करके प्रातःकाल उसको खरल करके गो दुग्ध में तपा करके,पान
करने से हृदय निर्मल होता है और गो घृत में तपा करके पान करने से बुद्धि निर्मल
होती है।850331
वेद गायन से वाणी
कि पवित्रता
गृहों में,वनों में रहने वाला हो,वायुमण्डल में जितना वाक्
शक्ति मानव की पवित्र होगी, उतना ही गृह
हो,बालक हो,पर्व हो,वह वहीं, उसी पवित्रता की धारा में रत्त रहता हैं वह सत्य ही
सत्य दृष्टिपात आता रहेगा। माता अपने पुत्रों को जब सत्यता का उपदेश देती हैं,तो पति और पत्नी दोनों गृह में,जब वेदज्ञ ध्वनि का पठन पाठन करते हैं,तो
बाल्यों की निन्द्रा में उनके श्वासों के द्वार पर भी,उन्हीं परमाणुओं की प्रतिभा
उनके हृदयों में प्रवेश कर जाती है
यह वाक् सदैव से सिद्ध हो गया है कि मानव को सदैव अपनी वाणी
में पवित्र रहना चाहिए मानव को अपने में तपस्या का अपना क्रियाकलाप बनाना
चाहिए,जिससे मानव अपने में जीवन में पवित्र धाराओं में रत्त होता हुआ,अपने को
पवित्र बनाता रहे। अपनी वाणी को,वेदज्ञ ध्वनि में परिणत करता रहे, इस वेद ध्वनि में ही,अपनी ध्वनि को
जानता हुआ,
वह जो ओ३म् रूपी ध्वनि हैं,वह उस ध्वनि में,वह ध्वनित रहना
चाहिए,
वह ध्वनि एक शाश्वत हैं। वह सृष्टि के प्रारम्भ से, वेदमन्त्रों के प्रारम्भ की एक धारा हैं, भूः भुव स्वः में यह सर्वत्र वेदमन्त्र गुथा हुआ है। तो इसीलिए हमें उस धारा में रत्त हो जाना चाहिए। हे मानव! तू मानव, प्रातःकालीन उस ब्रह्म का याग कर,तू यागी बन,
ब्रह्मयागी, तू उस काल में बनेगा, जब तू मानो तेरी शान्त प्रवृत्ति बन जाएगी अपनी शुद्ध अशुद्ध अपनी क्रियाओं से
निवृत्त हो करके,प्रभु के गान में लग
जा,क्योंकि वही तेरा जीवन है,वही तेरी धारा हैं, परन्तु इसके पश्चात वह संसार के भिन्न-भिन्न कार्यों में शारीरिक रचना का
व्यवधान प्रथम किया गया है। 850401
वेदमन्त्र गान की
पवित्रता प्रभाव
शोभनी ऋषि महाराज एक वेदमन्त्र का अध्ययन कर रहे थे,जब वेदमन्त्र का अध्ययन किया,तो शोभनी ऋषि यह विचारने लगे कि वेदमन्त्र ऐसा
क्यों कहता है,क्योंकि यह जो शब्द है,पवित्रता के जो शब्द है,यह हमारे गृहों में,हमारे आश्रमों में भ्रमण करते रहते हैं। जब वे इसके ऊपर मन्थन करने लगे।
विचारते रहे तो यह वाक् उनके आँगन में आ गया। क्योंकि वे प्रातःकालीन वेदज्ञ ध्वनि
को गाते रहते। तो एक समय उनके यहाँ एक उदवान केतु उनके समीप आ गये। उदवान केतु की तामसिक प्रवृत्ति बन गई थी। परन्तु
ऋषि ने बारह वर्षों तक वेद का अध्ययन किया तो,जब वह दैत्य उनके समीप आया, तो दैत्य के
आने से उसकी प्रवृत्ति में अन्तर्द्वन्द्व आ गया। जब अन्तर्द्वन्द्व बन अन्तर
प्रकाश में आ गया तो वह ऋषि के चरणों की वन्दना करने लगा। तो ऋषि बोले कि हे
दैत्यराज! तुम चरणों की वन्दना क्यों कर रहे हो? तुम तो मानव को नष्ट करने वाले हो। उन्होंने कहा प्रभु! मैं आज तुम्हारे इस
आसन पर आया हूँ,इतनी दूरी के आसन पर मैंने एक कवच को दृष्टिपात किया हैं और जब मैं
उस कवच के अन्तर्गत आ गया हूँ,तो मेरे मन की मेरे हृदय की प्रवृत्तियों में मेरा
अन्तर प्रकाश में अंधकार प्रकाश में आ गया है। भगवन! यह क्या कारण है? तो शोभनी ऋषि के आँगन में यह वाक् आया कि वह जो वेदमन्त्रों के जो उच्चारण
करते हैं तो उसमें ऐसा परिवर्तन हो जाता है। वह ऋषि के चरणों में विद्यमान हो गया।
उन्होने बारह बारह वर्ष के पुनः अनुष्ठान किये। उस दैत्यराज ने भी अनुष्ठान किये।
अनुष्ठान करके वह ऋषि बन गया। उस ऋषि का नाम शाकल्य मुनि बन गया। वह दैत्य न रह
करके शाकल्य मुनि बन गया।
इसीलिए मानव को सबसे प्रथम शारीरिक क्रियाओं से निवृत्त हो
करके ब्रह्मयाग करना चाहिए। प्रातःकाल की पवित्र बेला में ब्रह्मयाग होना चाहिए।
जब पति पत्नी गृह में, ब्रह्म याग करते हैं
तो उनका गृह स्वर्ग, महान और पवित्र बन
जाता है। ब्रह्म के गुथे हुए विचार उस वायुमण्डल में प्रवेश हो जाते हैं वाणी का
समन्वय करके मन और प्राण के सूत्र में ला करके वही पवित्र धाराएं,इस वायुमण्डल में
छा गई हैं और दूरी पर जो प्राणी आ जायेगा वही पवित्र बन करके जायेगा। वायुमण्डल
में जितना वाक् शक्ति मानव की पवित्र होगी,उतना ही गृह में पवित्रता की धारा में
रत रहता हैं। उसे सत्य ही सत्य दृष्टिपात आता रहेगा, माता अपने पुत्रों को जब सत्यता का उपदेश देती हैं,तो पति और पत्नी दोनों गृह
में जब वेदज्ञ ध्वनि का प्रतिपादन करते हैं तो बाल्यों को निन्द्रा में उनके
श्वासों के द्वार पर भी उन्हीं परमाणुओं की प्रति उनके हृदयों में प्रवेश कर जाती
है।
यह वाक् सदैव से सिद्ध हो गया है कि मानव को अपनी वाणी में
पवित्र रहना चाहिए। मानव को अपने में तपस्या का,अपना क्रियाकलाप बनाना चाहिए जिससे मानव अपने में,जीवन में पवित्र धाराओं में
रत्त होता हुआ अपने को पवित्र बनाते रहे,अपनी वाणी को,वेदज्ञ ध्वनि में परिणत करते रहे। इस वेद ध्वनि में ही अपनी ध्वनि को जानता
हुआ वह जो ओ३म् रूपी ध्वनि हैं उस ध्वनि में वह ध्वनित रहना चाहिए, वह ध्वनि एक शाश्वत हैं वह सृष्टि के प्रारम्भ से वेदमन्त्रों के प्रारम्भ की
एक धारा हैं भूः भुवः स्वः में यह सर्वत्र वेदमन्त्र गुथा हुआ है। तो इसीलिए हमें
उस धारा में रत हो जाना चाहिए। हे मानव! तू प्रातःकालीन उस ब्रह्म का याग कर, तू ब्रह्म यागी बन। ब्रह्मयागी,तू उस काल में बनेगा,जब तेरी शान्त प्रवृत्ति
बन जायेगी,अपनी अशुद्ध क्रियाओं से निवृत्त हो करके प्रभु के गान में लग जा, क्योंकि वही तेरा जीवन और वही तेरी धारा हैं।850401
पञ्च याग
सृष्टि के प्रारम्भ से हुई, ये पांच प्रकार के यागों की उपलब्धि हुई और पांचो प्रकार का याग क्या है? हे
मानव! तू प्रातःकालीन अपनी शारीरिक क्रियाओं से निवृत्त हो करके, और तू प्रभु के समीप जाने का प्रयास कर। तू ब्रह्मयाग कर, गृह में,
गृह आश्रम में पति पत्नी हैं, तो उसमें ब्रह्मयाग में रत्त हो जाना चाहिए। प्रातःकाल में ब्रह्मचारी,आचार्य दोनों ने ब्रह्मयाग करना चाहिए,वह ब्रह्मयागी बन जाएं, जब कहीं भी, किसी भी स्थली पर कोई मानव विद्यमान है, वह ब्रह्मयागी बन जाएं, क्योंकि
प्रातःकाल में ये जो जितना प्राणी मात्र है, आत्मवत है,
यह सर्वत्र प्रातःकालीन अपनी क्रियाओं से निवृत्त हो करके, गान गाता है, यह ध्वनित हो रहा है, प्राण,
जो प्राणी हैं प्राणों से ध्वनित हो रहा हैं,जो जीवात्मा
प्राणों को समूह ले करके रत्त रहता है,वह गान गा रहा हैं तो प्रातःकालीन क्या जो जितने भी परमात्मा के राष्ट्र में, प्रभु के राष्ट्र में, जितना भी
प्राणी मात्र हैं, वह सब एक गान गा रहा
है,
और वह गान गाता हुआ अपने में प्रसन्न हो रहा है, इसी प्रकार प्रातःकालीन तुम ब्रह्मयागी बनो और तुम नाना प्रकार के अज्ञान में
प्रवेश न करते हुए, जो तुम्हारे मस्तिष्क
में एक ध्वनि हो रही हैं और वह स्वरों का ज्ञान हो रहा हैं, प्रत्येक वेदमन्त्रों में ध्वनि होती हुई प्रतीत होती हैं। वह ध्वनित होता हुआ
दृष्टिपात आता है, जब वेद का याचक, वेद के गर्भ में, वेद की, वह भूमिका बनाने लगता है, जब उसका गान
गाता हैं,
तो प्रत्येक वेदमन्त्र उसके समीप एक ध्वनि बन करके रहता
हैं। प्रत्येक वेदमन्त्र अपनी आभा में रत्त और विज्ञान की धाराओं की उपलब्धि करने
वाला है,
ब्रह्मयाग की उपलब्धि करने वाला है, क्योंकि जैसे एक वेदमन्त्र हैं, परमात्मा का
रचाया हुआ ज्ञान और विज्ञान उसमें निहित रहता है।850401
वेद गान से
पवित्रता
वायुमण्डल में जितना वाक् शक्ति मानव की पवित्र होगी,उतना
ही गृह का बालक भी उसी पवित्रता की धारा में रत्त होगा। तो पति और पत्नी दोनों गृह
में जब वेदज्ञ ध्वनि का प्रतिपादन करते हैं,तो बाल्यों की निन्द्रा के उनके
श्वासों के द्वार पर भी उन्हीं परमाणुओं की प्रति उनके हृदयों में प्रवेश कर जाती
है। यह वाक् सिद्ध हो गया है कि मानव को सदैव अपनी वाणी में पवित्र रहना चाहिए,मानव
को अपने में तपस्या का अपना क्रियाकलाप बनाना चाहिए,जिससे मानव अपने जीवन में पवित्र
धाराओं में रत्त होता हुआ,अपने को पवित्र बनाते रहे। अपनी वाणी को वेदज्ञ ध्वनि
में परिणीत करता रहे।850401
वेद-गायन से दूषित
अन्न में अशुद्धता
महर्षि कागभुषुण्ड
जी ने कहा,कि जब माता मुझे भोज्य कराती थी,तो एक समय पितर ने कहा,माता से-हे देवी! बाल्य क्षुधा से पीड़ित हो रहा है,तो उन्होंने कहा कि क्षुधा से पीड़ित नही हैं,वह ज्ञान की पिपासा में रत्त होना चाहता है,वह ज्ञान कहाँ से प्राप्त होगा? वेद के
आचार्यों ने कहा कि अन्न सर्वत्र दान माना गया है। अन्न को पान करके ही सर्वत्र
धाराओं का जन्म होता हैं।
कौतुक राजा के यहाँ
आहार
एक समय,उन्होंने कहा-हे
देवी! मैं कौतुक राजा के यहाँ एक समय भ्रमण करने गया, तो राजा कौतुक के यहाँ पंहुचा,तो राजा कौतुक ने यह अपने राष्ट्र में घोषणा कराई थी, यह घोषणा कराई कि जितना राष्ट्र का द्रव्य है,वह मेरे कोष में आ जाना चाहिए। प्रजा ने उस अन्न को राजा के
कोष में पंहुचाना प्रारम्भ किया,जब वह राजा के
कोष में चला गया,तो जब मैं बाल्य काल
में,अपने पूज्यपाद गुरुदेव के द्वारा अध्ययन कर रहा था,तो कौतुक कहते है,अपनी पत्नी से,मेरी प्यारी माता से कहते हैं,जब कौतुक राजा
के यहाँ मैंने एक अन्न को ग्रहण किया था,मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने भी किया,तो जब प्रातःकालीन सांयकाल को हमने अन्न का ग्रहण किया। प्रातःकालीन जब हम साधना
में परिणित होने लगे,साधना करने लगे,तो हमारे मन की प्रवृत्ति चंचल बन गई। जब मन की प्रवृत्ति चंचल बन गई, हमने विचारा, क्या करें? दोनों ने साधना का काण्ड समाप्त कर दिया। उन्होंने कहा प्रभु! अब क्या करें? तो उन्होंने, पुनः स्नान किया, जल में प्रोक्षण करके पुनः जब मार्जन करने के लिए तत्पर हुआ। तो हम चिन्तन
करने लगे,तो चिन्तन में आत्म चिन्तन के आश्रित न रह करके, और ही चिन्तन होने लगा,जब चिन्तन दूषित बन गया। दूषित होने से वे तरंगें उत्पन्न होती रहीं, तो उस समय हमारे पूज्यपाद गुरुदेव ने
कहा था कि कहा था, हम दोनों भ्रमण करते हुए कौतुक राजा के द्वार पर पंहुचे,कौतुक राजा ने ऋषियों का स्वागत किया। उन्होंने कहा प्रभु! स्वागत तो पश्चात
होगा, हमारा स्वागत तो इससे पूर्व ही हो गया, जिससे हमारे मन की प्रवृत्ति अशान्त हो गई है। उन्होंने कहा-प्रभु! ऐसा क्यों? उन्होंने कहा तुम्हारे भण्डार में, हमने भोज्य प्राप्त किया था। उस समय राजा कौतुक ने निर्णय किया, कि तुमने, कैसा अन्न उत्पन, भोजनालय में अन्न का निर्माण किया था। तो पाचक ने राजा
से कहा -हे प्रभु! हे भगवन! मुझे ये प्रतीत नही है, वह कैसा अन्न है? कौतुक राजा ने उससे
निर्णय किया,जो वह अन्न को ले करके आए ,उन्होंने कहा-तुम ये अन्नाद कहाँ से लाए? उन्होंने कहा कि प्रभु! यह जो राष्ट्र का जो कोष है,उसी में द्रव्य लाया गया,उसी से अन्न को
लाया गया,वह अन्नाद हैं। तो कौतुक ने निर्णय किया,तो निर्णय करने के लिए प्रतीत
हुआ कि जितने भी राजा के राष्ट्र में द्रव्यपति थे उनका द्रव्य संग्रह सुन्दर
प्रवृत्ति से उन्होंने प्राप्त नही कराया, उनका जो अन्न का जो निर्माण किया,हम अन्न को,द्रव्य को जब मन्थन करके,जब द्रव्य को हम हृदय से चिन्तित होना ही हमारा कर्तव्य नही है। जो प्रजा
चिन्तित हो करके,अपने में भार स्वीकार
करके,
वह राष्ट्र कोष में अन्न जाता हैं, तो राजा के राष्ट्र को भ्रष्ट कर देता है। तो वही अन्नाद है,
तो कौतुक राजा ने, ऋषि मुनियों के चरणों को स्पर्श किया, और चरणों को स्पर्श करके कहा प्रभु! ये मेरा ही दोष है। मेरे राष्ट्र में
प्रजा का दोष है भगवन! अब मैं क्षमा चाहता हूँ।
कौतुक राजा ने जब ऐसा कहा तो ऋषि मुनियों ने कहा,मेरे
पूज्यपाद गुरुओं ने कहा कि हे राजन! ये अन्नाद तुम्हारी इस प्रवृत्ति को भ्रष्ट करेगा, और राजा की प्रवृत्ति भ्रष्ट जब हो जाती हैं, तो प्रजा का विनाश हो जाता है,ऐसा नही होना चाहिए। उन्होने कहा-तो प्रभु! मैं
तो इस अन्न को ग्रहण करता ही नही हूँ, मैं तो स्वयं कला कौशल करके ही उस अन्न को पान
करता हूँ। उन्होंने कहा राजन! यह तो यथार्थ है,जब हम तुम्हारे अतिथि बन करके आए, तुमने अपने अन्न में से क्यों नही कराया? उन्होंने कहा-प्रभु! यह आपको प्रतीत नही था,आपका मेरे से मिलन नही हुआ,तुम राष्ट्र
गृह में चले जाते, और राजलक्ष्मी तुम्हें
अन्न को ग्रहण करा देती।
उन्होंने कहा-हे राजन! ऐसा हमने नही विचारा,क्यों नही विचारा क्योंकि इससे पूर्व हम कई समय तुम्हारे अन्न को ग्रहण कर गएं
थे,और उस अन्न को ग्रहण करके हमारी बुद्धि प्रखर बनी रही,एक तरंगे नही,दो तरंगे नही,नाना प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती रहती हैं। तो
प्रभु! हमने जाना नही था,कि तुम्हारे राष्ट्र में ऐसा भी होता हैं।
कौतुक राजा ने कहा-भगवन! अब मैं क्षमा चाहता हूँ,प्रभु! चलो, मेरे राष्ट्र गृह में तुम्हारा प्रवेश हो, तो हम दोनों राष्ट्र गृह में पंहुचे,तो राष्ट्र गृह में देवी से कहा-देवी! मेरे पूज्य ऋषि मुनियों की, अन्तरात्मा में अशुद्ध अन्न ग्रहण हो गया है, मन की धाराओं का जन्म हुआ है, और वह जो मन की
धाराएं हैं,वह अशुद्धवाद में परिणित हो गई हैं,देवी! इनको अन्न ग्रहण कराओ। उन्होंने कहा-प्रभु! मैं इस प्रकार अन्न को ग्रहण
नही कराऊंगी। क्योंकि वह अन्न दमन हो जाएगा, वह तरंगें जो उस अन्न की हैं,जब वह दमन हो
जाएगी। तो वह किसी न किसी रूप में पुनः पुनरूक्तियों में आ करके,वह पुनः उभर करके इनकी तरंगों में पुनः आ करके दूषित वायुमण्डल को प्रदान
करेगा। तो हे भगवन! मैं इन ऋषि मुनियों को आज भोज नही कराऊंगी।
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा तो देवी! क्या करें? उन्होंने कहा कि तुम उपवास करो। और उपवास करके वेदों का अध्ययन करो। वेद का
अध्ययन करो,लगभग सूर्य उदय होने से और अस्त होने तक वेद का अध्ययन करो, और ध्वनि से जिससे वह परमाणुवाद तुम्हारा वेद की ध्वनि के साथ में मिश्रित हो
जाएं।
कागभुषुण्ड जी कहते हैं, कि मेरे पूज्य पिता जी ये कहा करते थे कि मैं और मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने इस
प्रकार अनुष्ठान किया, जल को अपने समीप ले
करके वेदमन्त्रों की तंरगें जल को स्पर्श करके जाती थी, कि जल का पान करना और वेद का अध्ययन करना जटा पाठ धन पाठ में गाना मध्य में ही
मन की प्रवृत्ति चंचलवत्त बनी, वह संस्कार
पुनः भी उनके समीप आए,वेद का अध्ययन करते
रात्रि काल में देवी ने कहा हे प्रभु! आप ऋषि है,आप साधक है,हम तो संसार के प्राणियों के प्रति साधना करते हैं, आप आत्म चिन्तन करते हुए,प्रभु को
प्राप्त करने के लिए,साधना करते हो। हे
प्रभु! रात्रि समय तुम चन्द्रमा आज पूर्णिमा का वह दिवस था। पूर्णिमा के चन्द्रमा
को निहारते रहो,
और उसमें प्रभु की सृष्टि को निहारते रहो,तो पूज्यपाद
गुरुदेव ने वही किया। परन्तु उसके पश्चात उनके हृदय की वह तरंगें मानो समाप्त हो
गई और प्रातः काल जब राष्ट्र गृह में प्रवेश हुआ,तो मन्त्रों की ध्वनि के साथ ऋषि मुनियों को अन्नाद का पान कराया, अन्न का निर्माण किया,निर्माण करके
उसको,
तपा करके, ऋषि मुनियों को
पान कराया तो माता यह कहती थी कि मेरा हृदय पवित्र बन जाएं और मेरे हृदय की तरंगें
ऋषि मुनियों के हृदयों में प्रवेश हो जाएं। जिससे वह शुद्ध उनकी साधना में पुनः
परिणित हो जाएं,क्योंकि यदि राजा के राष्ट्र में ऋषि समाज में भी अशुद्धवाद आ जाता है,और तरंगें अशुद्ध बन जाती है,तो यह राजा के
ऊपर भी भार बन जाता है। ये राजा की धृष्टता बन जाती हैं उस देश में माता ने जब भोज
कराया,तो माता ऋषि मुनियों के प्रति,ऐसी भावना अपने
में नियुक्त करने वाली है,तो वह यह चाहती
है कि मेरा पति और मेरे राष्ट्र में जो समाज है,वे पवित्र बन जाएं,यह मेरा जो पुत्र है, तो प्रजा के लिए राज लक्ष्मियां पितर कहलाती हैं। राजा पितर कहलाता है। तो जो
वास्तव में राजा होता है,वही तो पितर
कहलाता है।850405
वेद गान में मन और
प्राण का सन्तुलन
हमारे यहां भिन्न-भिन्न प्रकार कि पठन पाठन की
प्रतिक्रियाएं परम्परागतों से ही विचित्र मानी गई हैं। जैसे हमारे यहां माला पाठ
का वर्णन आता है,तो हमारे यहां माला
पाठ प्रत्येक शब्दों की प्रतिभा में निहित रहता है। क्योंकि उस परमपिता परमात्मा
ने जब इस मानवीयता का निर्माण किया,तो मानव के मस्तिष्क में एक ऊर्ध्वा में एक
ध्वनि हुआ करती है,जिस ध्वनि में ध्वनित
होता हुआ योगेश्वर उस ध्वनि को श्रवण करता रहता है, और उसमें आनन्दवत का ग्रहण करता है,तो उसी ध्वनि को जब बाह्य जगत में लाया जाता है,तो वहां वेदमन्त्रों का वो उद्घोष करता है और वेद मन्त्रों को अपना स्वर और
व्यञ्जन देता रहता है। वह शब्दों की प्रतिभा में सदैव निहित रहता है। जैसे माला और
नाना प्रकार के मनके और धागों का दोनों का समन्वय होता है,तो एक माला कहलाती है। इसी प्रकार प्रत्येक शब्द को धारा में रत्त कराना और
उसको ध्वनि में ध्वनित करने का नाम एक माला के रूप में परिणत हो जाता है, अथवा वह माला हमे दृष्टिपात आने लगती है। तो ये संसार जितना भी हमें प्रायः
दृष्टिपात आ रहा है, वो एक माला के सदृश्य
किसी भी प्रकार की योनि हो, किसी भी प्रकार
की आभा हो वह एक दूसरे में पिरोई हुई है,और एक दूसरे में निहित होती दृष्टिपात आती है। यदि उसमें एक दूसरे में प्रतिभाषित
नही होगी,तो ये संसार माला के रूप में दृष्टिपात नही आ सकेगा। शिल्पकार जब
यज्ञशाला का जब निर्माण करता है,तो वो भी एक प्रकार के रूपों को रूप देता चला जाता
है,तो वह माला बन जाती है। जैसे यज्ञमान अपनी यज्ञशाला में विद्यमान हो करके वह
याग करता है और याग करता हुआ वह अपने हृदय और प्राण और मनस्तव जब तक ये संतुलित
नहीं होते,तब तक वह याज्ञिक अपनी यज्ञशाला में सफलता को प्राप्त नही होता है।850415
वेदमन्त्र आख्यिका
हमारे यहां
वैज्ञानिकों ने यज्ञशाला में विद्यमान हो करके नाना प्रकार के यन्त्रों का भी
निर्माण किया है, एक समय वैशम्पायन ऋषि महाराज
और ब्रह्मचारी सुकेता, और ब्रह्मचारी कवन्धि
ब्रह्मचारी, रोहिणीकेतु और ब्रह्मचारी यज्ञदता यह
नाना ऋषिवर ब्रह्मवर्चोसि का दर्शन कर रहे थे एक समय उनके समीप
एक मन्त्र आया,वे वेद का मन्त्र महान अपनी आभा को
प्रगट कर रहा है, चित्रं रथं ब्रह्म
वाहा वार्णावस्ति वर्चो वस्तं स्वाहाः वेदमन्त्र कहता है कि जो यज्ञमान अपनी
यज्ञशाला में होता जन विद्यमान हो करके स्वाहा उच्चारण करते हैं,वह जो स्वाहा शब्द है,जो वेदमन्त्रों
से सुगठित है,
अथवा वेदमन्त्रों से गुथा हुआ है,वह शब्द द्यौ लोक को जाता है। वह द्यौ लोक को प्राप्त हो करके वह अन्तरिक्ष की
आभा में अगम्मयी हृदय में मानो उसका वास हो जाता है। 850430
वेद की तीन तरङ्गे
मुझे मेरे प्यारे! महानन्द जी ने पुरातन काल में यह वर्णन
कराया था कि मध्यकाल इस प्रकार का हुआ उसमें वेद केवल पूजा की स्थली माने गए और उसमें
ब्राह्मण समाज ने, बुद्धिमानों ने,पूजा की स्थलियों को उच्चारण किया कि ऐसा नहीं,मैं इसका खण्डन नहीं कर रहा हूँ। मैं इसका मण्डन करता हूँ कि वेद प्रकाश है और
प्रकाश पूजा का स्रोत है परन्तु उस प्रकाश में तीन प्रकार की तरंगों का
प्रादुर्भाव होता है और वे तीन प्रकार की तरंगें क्या हैं? व्यवहार है,विज्ञान हैऔर यौगिकवाद कहलाता है। ये तीन प्रकार की तरंगें वेद रूपी प्रकाश से
उत्पन्न होती हैं।860411
वेद भाष्य
वेद का भाष्यकार भी वही होता है, जो व्यवहार को जानता है, जो यौगिकवाद को
जानता है और विज्ञान को जानता है वही वेद का भाष्य कर सकता है। अन्यथा वेद की जो
चहुमुखी जो विद्या है इसका जो अध्ययन करने वाला हो, वही वेद की प्रतिभा को ऊँचा बनाता रहता है।860411
वेद गान में चरित्र
का स्वरूप
मानव वाणी उद्गीत रूप में गाता रहता है, वेद गान गाने वाला,वेद गान गा रहा
है। परन्तु वेद गान गा करके जब उसके ऊपर अपने जीवन को न्यौछावर करता है। तो उसी का
नाम चरित्र कहलाता हैं।87040
वेदों के विभिन्न
पाठ
हमारे यहाँ जब भी वेदों का पठन पाठन होता रहा है,वेदों के पठन पाठन के भिन्न भिन्न प्रकार माने गएं हैं जैसे हमारे यहाँ
जटापाठ,घनपाठ,उदात्त,अनुदात्त और माला पाठ और भी नाना प्रकार माने गएं हैं। परन्तु वेदमन्त्र मानव
के अन्तःकरण को प्रकाश देनेवाला है। जिस भी काल में मानव, वेद मन्त्रों की ध्वनियों में ध्वनित होता रहा है, वेदों का जो अनुपम जो
विचारणीय शब्दों में विज्ञान और ज्ञान की प्रतिभा और उसमें जो यौगिकवाद है वह मानव
के हृदय में जब समाहित,अपने में धारण
करने लगता है तो वह वेदज्ञ बन जाता है। वह वीरतव को प्राप्त हो जाता है।
तो हमारा वेद मन्त्रःउस परमपिता परमात्मा की महिमा का
गुणगान गा रहा है जैसे ये सूर्य हमारे नेत्रों का प्रकाशक है,नेत्रों को प्रकाश
देता रहता है,इसी प्रकार,वेदरूपी सूर्य अथवा प्रकाश है वह मानव के अन्तःकरण को पवित्र बनाता है।
अन्तःकरण में प्रकाश लाता है। तो उस परमपिता परमात्मा का जो वेदज्ञ ज्ञान है,वह
बड़ा अनूठा और प्रकाश में ले जाता है। मानव तो प्रकाश के लिए सदैव अपने में उपासना
करता रहा है और यह विचारता रहता है कि मेरे में अनुपम प्रकाश आ जाएं, जिस प्रकाश में मैं रत्त हो करके और प्रकाशमयी माला को मैं अपने मैं धारण करता
रहूँ। क्योंकि मानव एक माला को धारण करना चाहता है। मुझे वह काल स्मरण आता रहता है
जब ऋषि मुनि एकान्त स्थलियों पर विद्यमान हो करके परमपिता परमात्मा के ज्ञान और
विज्ञान में सदैव रत्त रहे हैं। मैंने यह वाक्य पूर्वकालों में भी प्रायः कई समय
उद्गीत रूप में गान गाया है, और यह गान गाने
के लिए कि हम परमपिता परमात्मा के अमूल्य रूप में रत्त होना चाहते हैं क्योंकि
हमारा ये जो मानवीय दर्शन है अथवा मानवीयतव है यह एक आभा में नियुक्त हो रहा है। 870401
मन,कर्म,वचन से वेद गान
राजलक्ष्मी ने यह वाक् प्रगट किया तो ऋषिवर मौन हो गये, ऋषि ने आगे उद्गाता से नाना प्रश्न किए, कि उद्गाता किसे कहते हैं? उन्होंने कहा उद्गाता कहते हैं जो उद्घोष करने वाला है,जो वेदमन्त्रों को
स्वरों से हृदय से गाता हैं, ऐसा उद्गीत गाने वाला होना चाहिए, जिसका मन,
कर्म, वचन एक सूत्र
में लय रहें,परन्तु मन, कर्म, वचन एक सूत्र में रह करके जब वह वेद का गान गाता हैं वही वेद का गान सुगन्धित
हो करके,
साकल्य को ले करके वायुमण्डल में छा जाता है और दूषित
वायुमण्डल को समाप्त कर देता हैं। 870407
वेद में माला पाठ
वे परमपिता परमात्मा यज्ञोमयी स्वरूप माने गएं है, याग में ही वह निहित रहते है, तो उस परमपिता
परमात्मा की जो अनन्तमयी महिमा का गुणगान गाया जाता है क्योंकि प्रत्येक वेद
मन्त्रों में,
उस परमपिता परमात्मा की महती का वर्णन होता रहता है।
क्योंकि जब वेद गान गाया जाता है तो वेद गान गाते हुए उद्गाता बन कर उद्गीत गाता
है। परन्तु जब जटा पाठ, माला पाठ, विसर्ग,
उदात्त और अनुदात्त में गान गाया जाता है। हमारे यहां माला
पाठ के सम्बन्ध में भी भिन्न भिन्न प्रकार की विचारधाराएं आती रही है। एक तो माला
पाठ उसे कहते है, जो स्वर है, जैसे माला में भिन्न भिन्न मनके होते है, और वह मनके बन करके ही सूत्र में पिराने से माला बन जाती है। इसी प्रकार
प्रत्येक शब्द अपनी रसना और तालु के समन्वय से और उसमें एक वृत्तियों का पुट लग
जाती है। तो उस पुट के साथ ही वह माला पाठ बन जाता है। तो वेदों के उद्गीत गाने वाले
भिन्न भिन्न प्रकार से उसका उद्गीत गाते है।870410
वेद का उद्गाता
हम उसके उद्गाता है,उद्गाता वही होता है,जो उस वाणी
का,उस शब्द का,शब्द से अपना मिलान करता हुआ अपने में ध्वनित होता चला जाए। राजलक्ष्मी
ने कहा-धन्य है,
ऋषिवर! मेरा यह प्रश्न पुनः से है, भगवन! क्या आप उद्गाता क्यों कहलाते है? उन्होंने कहा कि मैं उद्गाता इसलिए हूँ, क्योंकि मैं वेद का गान गाता हूँ, और वेद कहते है प्रकाश को और प्रकाश को और जिसमें सर्वत्र विद्या समाहित हो
जाती हो,उसको प्रकाश कहते है,और जहां प्रकाश
है,वहीं आनन्दवत है,मैं उस आनन्द में
विभोर हो करके गान गाता हूँ। जिससे मेरा हृदय उस महान प्रभु से समन्वय हो करके
प्रकाश में आ जाए। इसलिए मैं उद्गाता हूँ, मैं इसलिए उद्गीत गाता रहता हूँ, उन्होंने कहा-धन्य है प्रभु!, देवी ने पुनः कहा-प्रभु! मैं यह और जानना चाहती
हूँ,
क्योंकि मैं इस याग की यज्ञमान हूँ, मेरा कर्तव्य है, क्योंकि बुद्धिमान ही
मेरे याग का स्वामीतव ग्रहण कराने वाला हो,और उद्गीत गाने वाला है,यदि उद्गीत
गाता है,और उसका क्रियात्मक जीवन नहीं है, तो वह हमारे वाणी को और याग को सम्पन्न नहीं करा सकता।
बिना चित्त की प्रवृत्ति के हम उसके ऊपर संयम किए बिना, हम न तो शब्द
का अध्ययन कर सकते हैं, और न हम अपनी
वाणी को पवित्र बना सकते है। न वेदमन्त्र को हम प्रकाश के रूप में स्वीकार कर सकते
है। इसका तो जब साकार रूप बनता है, तभी मानव बाह्य
जगत से आन्तरिक जगत में प्रवेश करके यह मौन हो जाता है।870411
वेदमन्त्रों का
गायन अनुष्ठान
अनुष्ठान का अभिप्रायः यह है कि जो गायत्री छन्दों का पठन
पाठन करता है और पठन पाठन करके उसमें अपने को ही ले जाता है तो वह अनुष्ठान कहलाता
है। अनुष्ठान में और साधना में दोनों में अन्तर्द्वन्द्व कहलाता है तो उन्होंने उस
काल में राष्ट्र को गृह को त्याग करके अनुष्ठान किया।
870414
वेदमन्त्र का भाष्य
वेदमन्त्र में तीन प्रकार की धाराये विद्यमान हैं या यूं
उच्चारण करें कि वह तीन मनके है सूत्र केवल एक ही है। इसीलिए हमारे वैदिक आचार्यों
ने ऊँची ऊँची उड़ाने उड़ते हुए, अपने समीप
ज्ञान,विज्ञान और मानवीय दर्शन तीनों को अपनाते हुए ब्रह्माण्ड और पिण्ड, दोनों को एक सूत्र में लाने का प्रयास किया, दोनों का एकोकीकरण किया कि जो ब्रह्माण्ड की कल्पनाए हैं या ब्रह्माण्ड में जो
क्रियाकलाप हो रहा है वही मानवीयतव में भी विद्यमान है इसी प्रकार हमारे यहाँ तीन
मनके हैं और प्रत्येक वेदमन्त्र उनकी विवेचना करता रहता है,बिना तीन भाव के हम
वेदमन्त्र को जान नही पाते,न उनमें से
मानव दर्शन को जान सकते हैं, न विज्ञान को
जान सकते हैं और ज्ञान से हम शून्य हो जाते हैं। परन्तु जब प्रत्येक वेदमन्त्र में
तीन प्रकार के भावों को दृष्टिपात करोगे, तीन प्रकार की धाराओं के ऊपर विचार विनिमय होगा तो उसमें ज्ञान, विज्ञान और मानवीयता दर्शन दृष्टिपात होगा। उसमे जब तीनों दृष्टिपात करने
लगोगे तो वेदमन्त्र का आशय और ज्ञान की प्रतिभा हमारे समीप आ जाती है।870427
वेदों का उद्घोष
गृह में माता पिता और बाल्य प्रातःकालीन वेदों का उद्घोष
करते हैं,
श्रद्धायुक्त हो करके वेदमन्त्रों के द्वारा याग करते हैं, वेदमन्त्रों का पठन पाठन करते हैं। जिस गृह में इस प्रकार के पठन पाठन की
प्रणाली प्रचलित होती है, वह गृह स्वर्ग
बन जाता है। उस गृह में उनके आन्तरिक जगत वाले विचारों के परमाणु बाह्य स्थलियों
में ओत प्रोत हो जाते हैं। उन्हीं परमाणुओं से गृह पवित्र बन जाता है।870431
न्यौदामयी याग
एक समय महर्षि कागभुषुण्ड जी अनुष्ठान कर रहे थे। वह
न्यौदामयी में भक्ति का पठन पाठन करते थे। माता की आज्ञा का पालन करना, परमात्मा की प्रेरणा के आधार पर आत्मचिन्तन करना न्यौदामयी कहा जाता है। जब
मानव अपने को महापुरूषों की शरणगत, समर्पित कर
देता है ते वह न्यौदामयी कहलाता है। वह याग करता है, स्वाध्याय करता है। स्वाध्याय करके, मौन होकर उसके अन्तःकरण की तरंगों का समन्वय,जब हृदय मस्तिष्क से होता है तो
वहाँ एक स्वर संगम, एक स्वर उत्पन्न होता
है। वह अनहाद का जो स्वर संगम हो रहा है, उसे अपने में वह अनुभव कर रहा है। मैं अपने विचारों को वहाँ ले जा रहा हूँ
जहाँ ऋषि मुनि अपने में पवित्रतम की आभा में परिणित रहते हैं,न्यौदामयी मन्त्रों का उद्घोष करते हुए महर्षि कागभुषुण्ड जी माता की आज्ञा पा
करके अनुष्ठान करते रहते थे। भयंकर वन में जा कर नाना प्रकार का साकल्य एकत्रित
करके वह नाना प्रकार का याग करते थे।870431
वेद का पठन पाठन
वेद के पठन पाठन करने वालों को जान लेना चाहिए कि वेद मानव
का अनुपम प्रकाश है। वह वेद का जब ज्ञान गाता है। तो उसके आन्तरिक जगत में प्रकाश
आना प्रारम्भ हो जाता है। वह प्रकाश ही मानव के अन्तःकरण को प्रकाशित कर देता है।
सूर्य के साधारण प्राणी को ऊर्ज्वा के लिए प्रकाश देता है वेद रूपी प्रकाश मानव
अन्तःकरण को पवित्र बना देता है।870431
वेद गान
जब ऋषि मुनि अपनी स्थलियों पर विद्यमान होकर गान गाना
प्रारम्भ करते थे। जब वेद का एकान्त स्थली में, वनस्पतियों के मध्य में विद्यमान होकर हृदय से गान गाना हो तो मन, प्राण और चिन्तन की एक स्वर ध्वनि बन जानी चाहिए। जब वह गान गाता है तो अपने
प्रभु को अपने में स्वीकार करता हुआ,अपने अन्तःकरण को पवित्र बनाता है।870731
वेद गान
यज्ञमान ने कहा कि हे उद्गाता! तू उद्गीत गा रहा है यह किस
लिए गा रहा हैं,उन्होंने कहा मैं उद्गीत इसीलिए गा रहा हूँ,क्या वेदमन्त्र परमपिता परमात्मा की वाणी हैं।880226
वेद गान
आज का यज्ञमान तो यह चाहता है कि तो आहुति देते ही स्वर्ग
को चला गया हूँ प्रायः ऐसा नही हैं,जब तक मानव अपनी त्रुटियों को नहीं त्यागता,तब तक मानव मानव नहीं कहलाएगा। मैं कहता हूँ कि यज्ञमान अपने में महान बनता
चला जाएं,
द्रव्य का सदुपयोग होना चाहिए। आज का मानव द्रव्य का
दुरूपयोग कर रहा है,द्रव्य का जितना दुरूपयोग
करते हो उतना ही द्रव्य मानव को नष्ट कर देता है। 880228
वेद गान
जो भी अयोध्या में राजा हुए हैं, चाहे वह मनुवंश में हुए हैं। चाहे इन सबका जो राजपुरोहित रहा है उसका नाम
वशिष्ठ रहा है। क्योंकि वशिष्ठ एक उपाधि है।880228
वेद गान
जैसे यज्ञमयी जो साकल्य तुम यज्ञशाला में अग्नि के
मुखारबिन्द में परिणित करते हो, जानों की अपने
हृदय की वह आहुति और हृदय से उसका समन्वय करना चाहते हो, उसके साथ हृदय में दूसरों के प्रति दूरिता और क्रोधाग्नि जो जागरूक होती है, उस क्रोधाग्नि को शान्त करने का प्रयास करना चाहिए। या तो बाह्य जगत की अग्नि
रहेगी या आन्तरिक जगत की अग्नि रहेगी। 880228
वेद गान
प्रकाश में मृत्यु
नही है। अन्धकार में मृत्यु है ज्ञान में मृत्यु नही मेरे प्यारे! देखो, अज्ञान में मृत्यु मानी गई है। अज्ञान
को त्यागना प्रकाश में आना आत्मीयता में चिन्तन करना
प्रभु के राष्ट्र को विचारना यह मानव का ज्ञान है, विवेक है,
इसी से विवेक की उपलब्धि होती है। और वही विवेक ज्ञान युक्त
जो विवेक है। वह मृत्यु से मानव को पार कर देता है। 880302
वेद गान से ब्रह्मवेत्ता ऋषि
हे प्रभु! मैं यह जानना और चाहता हूँ,यह जो समाज है, यह जो राष्ट्रवाद से समाजवाद है,हे प्रभु! यह कैसे जीवित रहता है? इसके जीवन
का क्या स्रोत बना हुआ हैं? महर्षि वशिष्ठ
ने कहा कि हे ब्राह्मण! यह जो ब्रह्माण्ड,यह जो राष्ट्रवाद है इसका जो स्रोत है, इसका जो प्राण है,वह ब्रह्मवेत्ता ऋषि कहलाते हैं। जिस राष्ट्र में ब्रह्मवेत्ता
ऋषि होते हैं,
ब्रह्म को जानने वाले, ध्वनि वाले गान के रूप में वेदों का गान गाने वाले जब राजा के राष्ट्र में
विवेकी पुरूष होते हैं, ब्रह्म
श्रोत्रीय पुरूष होते है,तो राजा का राष्ट्र और समाज पवित्र बनता रहेगा। यह वैसे
ही पवित्र नही बनता है, यह अग्नि की
आभा में रत्त होने से ऊँचा बनता है।880308
वेद गान
देवी ने पुनः यह प्रश्न किया कि महाराज! उद्गाता का क्या
अभिप्राय है?
उन्होंने कहा, उद्गाता,जो उद्गीत गाता है,जो आत्मा से
गाता है,जो मन और प्राण को एक सूत्र में ला करके,तन्मय हो करके गान गाता है,जो मन कर्म वचन
से गान गाता है,जो रजोगुण तमोगुण सतोगुण को अपने में ऊर्ध्वा में, उसे ध्रुवा से त्याग करके ऊर्ध्वा में गान गाता है, वही तो उद्गाता कहलाता है।880317
वेद गान
हमारा वेद मन्त्र,उस परमपिता परमात्मा की महिमा का गुणगान गा रहा है। प्रत्येक मानवों के अन्तर्हृदयों
में यह विचार विनिमय होता रहा है,कि हम उस
परमपिता परमात्मा के वैदिक ज्ञान को जानने के लिए तत्पर रहे। परन्तु वेद में जो
ज्ञान और विज्ञान है उसके ऊपर भी मानव परम्परागतों से अन्वेषण करता रहा है। परन्तु
किसी काल में जब वह महान बलवती हो जाता है तो बलवती हो करके, वह अग्नि के काण्डों में समाप्त हो जाता है। परन्तु वह न्यून बन जाता है। और
किसी काल में जब अनुसन्धानवेत्ता, विशेषज्ञ विशेष
हो जाते हैं,तो वह पुनः बलवती होना प्रारम्भ हो जाता है। परन्तु इसी प्रकार ये
परमात्मा का जो ज्ञान और विज्ञान है इसके ऊपर मानव सृष्टि के प्रारम्भ से अन्वेषण
कर रहा है परन्तु यह इतना अनन्तमयी है और मानव का जीवन बड़ा सीमित है परन्तु जहाँ
इसकी सीमा होती है वहाँ तक जानता है। परन्तु उसके पश्चात वह न्यून हो जाता है।880406
वेद ज्ञान
परमात्मा की
अनन्तता के ऊपर,
विचार विनिमय करना,अणु और परमाणुओं में गतिवान होना समाधिष्ट हो करके, अपने को वायुमण्डल के आश्रित कर देना उसकी उड़ानें उड़ना, यह सर्वत्र एक मानवीयतव माना गया है,मानव यह चाहता है कि मैं एक एक वेदमन्त्र
के रहस्यतम को जानने वाला बन जाऊँ,परन्तु वह
जानता भी रहता है। परन्तु विचार पुनः यह आता है कि वेद के मन्त्रों को तो वह मानव
जानता है,
जो तपस्वी होता है। जो मानव प्राण को अनुदात्त में,अनुदात्त को
प्राण में,
प्राण को मन में और मन को अपने में परिणित करता हुआ, वह जब वेद के मर्म को जानता है।880406
वेद ज्ञान
एक एक वेदमन्त्र में तीन प्रकार का भाव हमें प्रतीत होता
है। वेदमन्त्र में जब श्रद्धामयी ज्योति जागरूक हो जाती है तो वह तीन प्रकार के
भाव में परिणित हो जाता है। सबसे प्रथम अपने में श्रद्धा में परिणित होता है,उसके पश्चात
श्रद्धा उसको कर्मकाण्ड की प्रतिभा बना लेता है और कर्म काण्ड
के पश्चात वह उसकी उपासना करना प्रारम्भ करता है और उपासना के पश्चात उसके
वैज्ञानिक तथ्यों में रत्त हो जाता है। तो मुनिवरों! देखो, एक ही वेदमन्त्र है, और वह तीन
प्रकार की प्रतिभा का हमें वर्णन कर रहा है। परमात्मा की महती का वर्णन करा रहा
है। आओ मुनिवरों! देखो, इस सम्बन्ध में
आज तुम्हें कुछ ऋषि मुनियों के विचारों में ले जाना चाहते हैं।880406
वेदमन्त्र के सूत्र
जैसे माला और धागे दोनों का समन्वय रहता है,और प्रत्येक उस मनके को उस सूत्र में पिरोएं हुए होने से वह एक माला दृष्टिपात
आने लगती है,इसी प्रकार परमात्मा का जो एक एक वेद का मन्त्र है,वह ज्ञान और विज्ञान और मानवीयता से गुथा हुआ हैं। दर्शन उसमें दृष्टिपात आता
रहता हैं,
तो इसीलिए वे परमपिता परमात्मा रूपी जो सूत्र हैं, सूत्र में प्रत्येक वेद का मन्त्र निहित रहता हैं, और एक एक वेदमन्त्रों में व्यवहार और भौतिक विज्ञान और आध्यात्मिकवाद उसमें
दृष्टिपात आता रहता हैं।
एक एक वेदमन्त्र हमें सृष्टि का वर्णन कर रहा है, एक एक वेदमन्त्र एक परमाणु की भांति सर्वत्र ब्रह्माण्ड का चित्रण कर रहा है।880407
उद्गाता
देवी ने पुनः यह प्रश्न किया कि महाराज! उद्गाता का क्या
अभिप्रायः है?
उन्होंने कहा, उद्गाता वह हैं,जो उद्गीत गाता है,जो आत्मा से गाता है,जो मन और प्राण
को एक सूत्र में ला करके,तन्मय हो करके
गान गाता है,जो मन कर्म वचन से गान गाता है,जो रजोगुण
तमोगुण सतोगुण को अपने में ऊर्ध्वा में, उसे ध्रुवा से त्याग करके ऊर्ध्वा में गान गाता है, वही तो कहलाता है।880407
वेदगान शंख ध्वनि
शंख ध्वनि किसे कहते है? शंख ध्वनि कहते है, वेदों के पठन
पाठन को। वेद का पाठ, जटा पाठ, घन पाठ,
माला पाठ, विसर्गपाठ वह
ध्वनि का नाम वेदो ब्रह्मा उसे जटा और माला पाठ में वर्णित किया गया है, राजा के राष्ट्र में पण्डितव होना चाहिए, निष्पक्ष पुरुष होने चाहिए। जो राष्ट्र ऊंचा बन जाए। यहां ब्रह्मवेत्ता जो गान
गाते है,
वेदों का उसके राष्ट्र में हिंसक प्राणी नहीं रह पाता। जब
जटा पाठ में गान गाते है, तो मृगराज
सिंहराज सर्पराज सब एक पंक्ति में हो करके,उनके गान को श्रवण करते हैं। आत्मीय गान
वह होता है,जो माला पाठ में गाया जाता है, जटा पाठ, घन पाठ,उदात्त और अनुदात्त में गाता है, जब ऋषि अपने आसन से गान गाता है, तो,
सिंह राज भी श्रवण करते है और वह कहते है, कि ऋषियों से जब यह प्रश्न किया गया ऋषि कहते है कि वेद ईश्वरीय वाणी है, परमात्मा का अनुपम ज्ञान है, कौन ऐसा पुत्र,
अभागा है,
जो अपने माता पिता की प्रशंसा नहीं चाहता। इसी प्रकार वेद
वह प्रभु की अमूल्य अमोघ पवित्रतव उसमें शब्द है, पवित्रतव आभा है, और उसे प्रत्येक
प्राणी अपने में श्रवण करना चाहता है,जब ऋषि वेद का गान गाता है,तो हिंसक
प्राणी अपनी अहिंसा को त्याग देता है, वह अपने में,अपने में ही रत्त हो
करके ऋषि अपने में श्रवण करता है।880415
वेद गायन
हमने पूर्व से जिन वेदमन्त्रों का पठन पाठन किया,हमारे यहां
यह पाठयक्रम परम्परागतों से ही विचित्रत्व माना गया है, क्योंकि वेदों का पठन पाठन हमारे यहां कई प्रकार से किया जाता है, जैसे जटा पाठ, माला पाठ, विसर्ग पाठ,
उदात्त और अनुदात्त से उनके स्वरों का स्वर व्यञ्जन होता
रहता है और भी नाना प्रकार के वेदमन्त्रों का उद्गीत गाया जाता है जैसे वैखरी
वर्णस्सुताः वर्णिमों में गाया जाता है। वही दीपावली के रागों में परिवर्तित होता
रहा है। हमारे यहां वेदों का पठन पाठन नाना प्रकार से गायन के रूप में किया जाता
है। जैसे माला पाठ होता है। जैसे माला में माला जब बनती है,तो धागे और मनकों का
दोनों का एक समन्वय होता है तो जब मनके और धागे का दोनों का समन्वय होता है तो वह
माला कहलाती है। इसी प्रकार शब्दः और वह शब्द,एक सुर में पिरोये जाते हैं और पिरोने
से ही वह माला बन जाती है,जिसको हमारे यहां माला पाठ के सम्बन्ध में, माला पाठ के ही रूप में निरूपण होता रहा है।
तो हम वेदों का गान गाना प्रारम्भ करें तो प्रत्येक
वेदमन्त्र की जो ऋचायें हैं जो ओ३म् रूपी धागे में पिरोई हुई हैं। अथवा वही उसका
सूत्र बना हुआ है और वह सूत्र में पिरोने से सूत्रित मन वृत्ति मानी जाती है। तो
विचार आता रहता है कि हम उस सूत्र के ऊपर विचार विनिमय करें।
याग की अनिवार्यता
वेद का ऋषि कहता है कि याग अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार जब तुम अपने में मन
मस्तिष्क को एकाग्र करके वेदमन्त्रों का उद्गीत गाओगे,तो तुम्हारा मन मस्तिष्क
पवित्र बन करके एक माला सदृश बन जायेगा।
यज्ञमान जिसे
प्रदीप्त कर रहा है,यज्ञमान उसे प्रदीप्त करके अपने शब्दों को द्यौ लोक में पंहुचा
रहा है। साकल्य के द्वारा पंहुचा रहा है, परन्तु द्यौ में वो
स्थिर हो जाते हैं वही शब्द है जो उसी को प्राप्त हो जाएगें।
उस परमपिता परमात्मा ने जब इस मानवीयता का निर्माण किया,तो
मानव के मस्तिष्क में एक ऊर्ध्वा में एक ध्वनि हुआ करती है,जिस ध्वनि मैं ध्वनित होता हुआ योगेश्वर उस ध्वनि को श्रवण करता रहता है, और उसमें आनन्दवत का ग्रहण करता है,तो उसी ध्वनि को जब बाह्य जगत में लाया जाता है,तो वहां वेदमन्त्रों का वह उद्घोष करता है और वेद मन्त्रों को अपना स्वर और
व्यञ्जन देता रहता है। वह शब्दों की प्रतिभा में सदैव निहित रहता है। जैसे माला और
नाना प्रकार के मनके और धागों का दोनों का समन्वय होता है, तो एक माला कहलाती है। इसी प्रकार प्रत्येक शब्द को धारा में रत्त कराना और
उसको ध्वनि में ध्वनित करने का नाम एक माला के रूप में परिणत हो जाता है, अथवा वह माला हमे दृष्टिपात आने लगती है। तो ये संसार जितना भी हमें प्रायः
दृष्टिपात आ रहा है, वो एक माला के सदृश्य
किसी भी प्रकार की योनि हो, किसी भी प्रकार
की आभा हो वह एक दूसरे में पिरोई हुई है, और एक दूसरे में निहित होती दृष्टिपात आती है।880416
वेदमन्त्रों का उच्चारण
भी याग
वेदमन्त्र अशुद्ध उच्चारण करने से वह माला नही बन पाती,इसीलिए
वेदमन्त्र अशुद्ध उच्चारण नही करना चाहिए। वाणी से उद्गीत होना चाहिए, तीव्र शक्ति से वेद मन्त्रों को उच्चारण करना और स्वाहाः कहने का नाम ही एक
याग करना है।880416
वेदगान का प्रभाव
जब चाक्राणी भयंकर वनों में साम गान गाती थी,वेदों का उद्घोष करती रहती थी,वेदों का उद्घोष करती रहती थी, तो वह भयंकर वन है शान्त वायुमण्डल है, और वहां कोई भी प्राणी मानव श्रवण करने वाला नहीं था केवल कही सर्पराज है, मृगराज है, सिंहराज है,
जब वह ध्वनि करती रहती थी, वेद का इतना अमोघ विचारो की ध्वनि है कि ध्वनि को मानव स्वरों से गाता है, जिसको हृदय से गान गाता है, माला पाठ और
जटा पाठ से गाता है, जब गान रूप में गाता
है,
तो सिंह राज भी अहिंसामयी परिणित हो जाता है। और सर्पराज भी
अहिंसामयी परिणित हो जाता है। वह चाक्राणी के चरणों को स्पर्श करते रहे।
गुरुदेव का जीवन
मुझे स्मरण आता रहता है, जब हम किसी काल में अपने बाल्य पूज्यपाद गुरुओं के द्वारा अध्ययन करते रहते थे,तो गुरूजन एक समय जब भयंकर वनों में, गान गा रहे थे तो सर्पराज, मृगराज उनके
चरणों की वंदना कर रहे थे। चरणों को स्पर्श कर रहे थे, मैंने अपने पूज्यपाद गुरुदेव से कहा हे प्रभु! यह क्या कारण है जो हिंसक प्राणी भी, आपके चरणों की वंदना कर रहे है, और आप के
स्वरों को ध्वनियों को श्रवण कर रहे है। पूज्यपाद गुरुदेव ने,मुझे जो उत्तर दिया था,उस समय वह बड़ा प्रियतम
है। उन्होंने कहा था कि यह जो मानव, जब वेद का गान गाता है, सामगान गाता है, वह हृदय से जब गाता है,श्रद्धामयी हो
करके गाता है,
तो ये सब जितने भी प्राणी मात्र है,वह सब उस परमपिता परमात्मा के पुत्र के तुल्य है, और जब वेदों का गान क्योंकि वेदो का गान, उस प्रभु की महती है, उसमें प्रभु का
विज्ञान है और उसमें प्रभु की प्रसन्नता है, तो उन स्वरों को कौन पान करके कौन अपने में कौन नहीं प्रसन्न होगा? इसलिए सर्पराज हो, मृगराज हो ऋषि मुनि तो
उनसे खिलवाड़ करते रहे है, और खिलवाड़ करके
उसको अपने कण्ठ से आलिंगन करते रहे है।880419
वेद परमात्मा की
वाणी
यज्ञमान की पत्नी कहती हैं। हे ऋषिवर! उद्गाता किसे कहते
हैं?
उन्होंने कहा उद्गाता कहते हैं यज्ञशाला को,जहाँ उद्गीत
गाया जा रहा है,जहाँ उद्गाता के अन्तिम चरण उस यज्ञशाला में युक्त हो जाते हैं,कैसे युक्त
होते हैं,एक स्वाहा उच्चारण किया,तो उसकी जो
आन्तरिक जो भावना हैं, वह साकल्य में लुप्त
हो गई हैं,
साकल्य का अग्नि ने विभाजन कर दिया हैं, और वही अग्नि स्वरूप बन करके वह वही परमाणु बन करके सूक्ष्म रूप बन करके
उद्गाता का जो अन्तिम चरण हैं, वह विभाजन में
और विभाजन अन्तरिक्ष में, और अन्तरिक्ष
वह क्रिया परमाणु में विभाजनवाद आ गया हैं। उसी विभाजनवाद में उसकी लुप्त होती
क्रिया का स्वरूप एक लिप्त रूपों में परिनित हो जाती हैं,वह व्यापत हो जाता हैं।
देवी बड़ी प्रसन्न हुई,इतने में यज्ञमान ने कहा कि हे
उद्गाता! तू उद्गीत गा रहा है,यह किस लिए गा रहा हैं, उन्होंने कहा मैं उद्गीत इसीलिए गा रहा हूँ,कि वेदमन्त्र परमपिता परमात्मा की वाणी हैं? और यह परमपिता परमात्मा ने यह शरीर का निर्माण माता के गर्भस्थल में किया हैं,जब
माता के गर्भस्थल में से माता उद्गीत गा रही थी और जब वेद के मन्त्र का समन्वय
होता हैं,
तो मैं वेदमन्त्र का जब उच्चारण करता हूँ, तो माता के गर्भाशय का और मेरी वाणी का दोनों का समन्वय हो करके उसमें जो
परमपिता परमात्मा का जो हिरण्यमयी गर्भ हैं, शब्द है और शब्द इसकी जितना यह ब्रह्माण्ड है, जितना यह जगत है यह हिरण्यमयी गर्भ में परमपिता परमात्मा के गर्भ में वास कर
रहा हैं,
इसीलिए मैं हिरण्यगर्भ का उद्गीत गा रहा हूँ,इसीलिए मुझे
उद्गाता कहते हैं
उद्गाता
तो पुनः यज्ञमान देवी ने कहा प्रभु! आपको उद्गाता किसलिए
कहते हैं?
उद्गाता का अन्तिम चरण क्या हैं? उन्होंने कहा कि उद्गाता का चरण प्रारम्भ होता है, उद्गीत से तालु से,जहाँ तालु और
रसना दोनों का समन्वय होता है,दोनों का मिलान
होता है,तो शब्द बन जाता है,वही शब्द बन
करके अन्तरिक्ष में जाता हैं और अन्तरिक्ष में द्यौ लोक में प्रवेश करता है। वही
शब्द गति करता है,वही शब्द श्रोत्रों का
विषय बन जाता हैं, तो दिशाओं में परिणीत हो जाता हैं। जिससे
मैं दिशाओं का गान गा रहा हूँ, उद्गीत गा रहा
हूँ,
क्योंकि ये जो आठों
दिशाएं हैं,यही मेरे श्रोत्र को श्रोत्रीय नृत्त बने हुए हैं, जिससे मैं इसे धारयामि बना करके,मैं इसको जान करके, मैं योग के
क्षेत्र में जा सकूं,
तो देवी प्रसन्न हो गई। उन्होंने कहा कि श्रोत्रों का वृत रहता है, उन्होंने कहा श्रोत्रों में शब्द भी हैं, चित्र भी है, और चित्र में
विभाजनवाद भी है, सर्वत्र, विज्ञान की प्रतिक्रिया उसमें निहित रहते हैं।
तो सृष्टि के प्रारम्भ में आदि ऋषियों ने वेद के भाषार्थ
अपने को जान करके उसको निर्माणित किया था,यह याग हिंसा से रहित हैं,यह याग अपने
में याग रूप बना हुआ हैं। एक एक वाक् को लिया जाएं,अध्वर्यु है,जो हिंसा से रहित है,अध्वर्यु,यह
दृष्टिपात करता है, कि मेरे याग में हिंसा
तो नही हो रही है। यदि याग में हिंसा हो रही है। साकल्य के द्वारा तो वह साकल्य
अव्रुत बन जाता हैं, तो वही अध्वर्यु है,वही अध्वर्यु हैं, जो साकल्य विभाजन
अग्नि के द्वारा कराता हैं। वही अध्वर्यु है, जो हिंसा से रहित हो करके राजा बनता है। राजा को भी अध्वर्यु कहते हैं,जो राजा अपने राष्ट्र में यह विचार रहा है,कि मेरे राष्ट्र में किसी प्रकार की हिंसा तो नही हो रही हैं,हिंसा कई प्रकार की होती हैं, एक हिंसा
प्राणी की होती है। एक हिंसा वह होती है जो एक दूसरे के विचारों में वृद्धपन आ
जाता हैं। एक दूसरे के विचारों में अग्नि प्रदीप्त हो जाती है। तो वह भी हिंसा
प्रारम्भ हो जाती हैं, शब्द की हिंसा मानव के
हृदय को विदीर्ण करती है, और हृदय का हृदय
से मिलन नही हो पाता,उससे विभाजनवाद बलवती हो जाता हैं।880426
वेदमन्त्र का
समन्वय अग्नि से
वेदमन्त्र का समन्वय अग्नि से हैं, देवताओं से है,और देवताओं का सम्बन्ध
द्यौ से हैं,और द्यौ का समन्वय सूर्य से हैं,और सूर्य से समन्वय होता हुआ त्रिकोण बन करके मेरी वाणी अन्तरिक्ष में सूर्य
की किरणों के साथ अग्नि की धाराओं पर विद्यमान हो करके वह द्यौ लोक में प्रवेश कर
जाती है।
880426
वेद किसी की धरोहर
नही
तो जब उनसे यह प्रश्न किया गया कि महाराज! यह हिंसक प्राणी
तो यह पान कर जाते हो,तुम इसमें निर्द्वन्द्व हो,उन्होंने कहा यह जो वैदिक परम्परा है,वेद का जो मन्त्र है,यह किसी की
धरोहर नही हैं,यह किसी की निजी सम्पति नही कहलाती। यह प्रत्येक प्राणी मात्र के लिए होते
हैं। क्योंकि यह ईश्वरीय और ऋषिकृत के विचार परमात्मा का ज्ञान ही उनको कहा जाता
है,
और जो पिता की वाणी है, या पिता का ज्ञान और विज्ञान जिसमें हैं वह सिंहराज के लिए भी इसी प्रकार है।
मानव के लिए भी इसी प्रकार है। मृगराज के लिए भी ऐसा ही बना हुआ है, तो यह शब्द जितना अहिंसामय होगा, शब्द जितना क्रियाकलापों में अहिंसा हो और कर्म में भी अहिंसा हो, और हृदय आन्तरिक जगत में भी अहिंसा हो, और वह व्यापार में भी अहिंसामयी वेद का मन्त्र, जब उद्गीत रूप में गाया जाता है।880428
वेद ज्ञान
प्रत्येक मानवों के अन्तर्हृदयों में यह विचार विनिमय होता
रहा है,
कि हम उस परमपिता परमात्मा के वैदिक ज्ञान को जानने के लिए
तत्पर रहे। परन्तु वेद में जो ज्ञान और विज्ञान है उसके ऊपर भी मानव परम्परागतों
से अन्वेषण करता रहा है। परन्तु किसी काल में जब वह महान बलवती हो जाता है तो
बलवती हो करके,वह अग्नि के काण्डों में समाप्त हो जाता है। परन्तु वह न्यून बन जाता है। और
किसी काल में जब अनुसन्धानवेत्ता, विशेषज्ञ विशेष
हो जाते हैं तो वह पुनः बलवती होना प्रारम्भ हो जाता है। परन्तु इसी प्रकार ये
परमात्मा का जो ज्ञान और विज्ञान है इसके ऊपर मानव सृष्टि के प्रारम्भ से अन्वेषण
कर रहा है परन्तु यह इतना अनन्तमयी है और मानव का जीवन बड़ा सीमित है परन्तु जहाँ
इसकी सीमा होती है वहाँ तक जानता है। परन्तु उसके पश्चात वह न्यून हो जाता है। 880906
वेद भाषा देव भाषा
भाषा संस्कृत और देव भाषा से भिन्न है,क्योंकि हमारे यहाँ वेद की जो भाषा है वह देव भाषा कहलाई जाती है। और जो
संग्रह की हुई मातृ भाषा है वह संस्कृत ही कहलाई गईहै, उसी से देवनागरी का जन्म होता है।, जैसा वह है वैसा उच्चारण किया जाता है तो यह उसकी महानता कहलाती है। वेद
देवभाषा में हैं, जैसे बाल्य माता के गर्भ से जन्म लेता है और वह इस संसार में आते
ही,वह अपनी वाणी से कुछ कहता है या रूदन मचाता है या रुदनों में रत्त हो जाता है,तो
उसका मैं इस प्रकार निर्णय देता रहता हूँ कि वह जो बाल्य है,जो माता के गर्भस्थल से उत्पन्न होते ही,उपराम संसार में आते ही वह रुदन करता है और वह व्याकुल हो जाता है,जब वह व्याकुल
होता है,तो व्याकुलता को न माता ही जानती है, और न पितर ही जानता है, न आचार्य जानता
है,
उस भाषा का नाम जो उद्गीत रूप में गा रहा है, उसको देव भाषा कहा जाता है। वह देव भाषा के रूप में परिणित होती है,इसी प्रकार हम देवतव को प्राप्त होते हुए, पूज्यपाद गुरुदेव ने मुझे कई काल में वर्णन कराते हुए कहा है। इनकी वर्णन शैली
बड़ी विचित्र रही है। हे महान पुरूषों! तुम वेद की पोथी को ले करके अग्रणीय बन जाओ, वेद जो कहता है,उसको समाज को देना
प्रारम्भ करो,तो वेद की जो देव भाषा है, वह तुम्हारी
जननी बन करके इस समाज और राष्ट्र को ऊँचा बना सकती है। 890318
वेदमन्त्र गायन
चौबीस वर्षों में उनका अन्तरात्मा पवित्र हो गया। उनका हृदय
रजोगुण,
तमोगुण से रहित हो गया, और रहित हो करके विदुषी सम्भूति ब्रह्मणा महते माता उसे गायत्रियों का छन्द एक
अन्न को पान कराया जाता। जिससे वेद की जो देव भाषा है,वह उसके हृदय में प्रवेश हो जाएं,वही तो गायत्राणि छन्दों से युक्त कहलाने वाली प्रतिभा है, उसको राम ने ग्रहण किया और चौबीस वर्षों का अनुष्ठान करने के पश्चात उन्होंने
उसके पश्चात
अयोध्या के राष्ट्र को अपनाया।890318
वेद गान करके अन्न
को तपाएं
राम ने लंका विजय के पश्चात चौबीस वर्षों का तप किया,तप
करने के पश्चात में उनका अन्तरात्मा पवित्र हो गया। उनका हृदय रजोगुण, तमोगुण से रहित हो गया, और रहित हो
करके क्योंकि विदुषी सम्भूति ब्रह्मणा महते माता,गायत्रियों का छन्द एक,अन्न को पान कराया जाता। जिससे वेद की जो देव भाषा है, वह उसके हृदय में प्रवेश हो जाएं, वही तो गायत्राणि छन्दों से युक्त कहलाने वाली प्रतिभा है,उसको राम ने ग्रहण किया और चौबीस वर्षों का अनुष्ठान करने के पश्चात उन्होंने
उसके पश्चात अयोध्या के राष्ट्र को अपनाया।890318
मानवीयता के लिए
वेद गान अनिवार्य
हम अपनी मानवीय पद्धति को ऊँचा बनाने के लिए विवेक को लाना
चाहते है। तो उस समय राजा के राष्ट्र में, सबसे प्रथम वेद का पठन पाठन वेद की पद्धति होनी चाहिए, प्रकाशमयी जो पद्धति है जिससे मानव के जीवन को व्यष्टि को समष्टि में और समष्टि को व्यष्टि में प्रवेश करती हुई अपनी मानवीयता
का,अपने में एक उज्ज्वल स्वरूप हमारे समीप आता रहे।890401
वेद का अभिप्रायः
विज्ञानशाला में वेदाङ्ग का अध्ययन होता है। ब्रह्मचारी
अध्ययन करते है और अध्ययन करके उनसे प्रातःकालीन, उनके यहाँ जो क्रियाकलाप होता था,वह केवल प्रातःकालीन याग करना, याग करने के
पश्चात् उसमें कुछ विचार विनिमय होता रहता था। वेद के सम्बन्ध में, याग के सम्बन्ध में, जो भी विचार
होता,
उनका आचार्य भली भांति उत्तर देता रहता। तो हमें कुछ ऐसा
स्मरण है,
ऐसा साहित्य से प्रतीत हुआ है कि एक समय उनके यहाँ एक यज्ञेश्वर नामक ब्रह्मचारी
अध्ययन करता था,वह सुनेता आचार्य का पुत्र कहलाता था। तो उन्होंने एक आचार्य से
प्रश्न किया कि महाराज! यह जो वेद है, यह क्या है?
उन्होंने कहा-वेद तो प्रकाश को कहते है। जब वेद प्रकाश को
कहते है तो वह प्रकाश कैसा है? क्योंकि हमारे
यहाँ जो प्रकाश आता है,वह प्रकाश
सम्भूति ब्रह्मणा प्रमं सूर्याणाः सूर्य का प्रकाश उससे कुछ सूक्ष्म प्रकाश
चन्द्रमा का है,
और चन्द्रमा से सूक्ष्म जो प्रकाश है,वह तारा मण्डलों का
रहता। तो हे प्रभु! इनमें से कौन सा प्रकाश है जो वेद हमें देता है। उन्होंने कहा
वेद प्रकाश ऐसा देता है कि जिनसे इस सर्वत्रता का ज्ञान हो जाता है। जैसे हम एक
प्रकाश में,अपने को ले जाना चाहते है जैसे मानव के नेत्र है, नेत्रों में जो प्रकाश आता है,वह सूर्य का
प्रकाश है और वह जो वेद का प्रकाश है,वह मानव के अन्तःकरण को प्रकाशित करता रहता है। इसलिए अन्तःकरण प्रकाशित करने
वाला वेदज्ञ माना गया है।
तो अन्तःकरण में जो प्रकाश आता है वही वेद का प्रकाश है और
वेदाङ्ग, वेद प्रकाशाः का भी प्रकाश माना गया है तो यज्ञदेव ने यह प्रश्न किया कि
हे भगवन! यह तो मैंने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया है परन्तु मेरी इच्छा यह है भगवन!
कि मैं यह ओर जानना चाहता हूँ कि वेद की माला कैसे बनती है? उन्होंने कहा वेद के लिए माला नहीं बनती है। उन्होंने कहा जब वेद की माला नहीं
बनती,तो प्रकाश कैसे आएगा? क्योंकि सूर्य
की नाना प्रकार की किरणों की माला बन जाती है और उन मालाओं के ऊपर मानव अन्वेषण
करता रहा है,इसी प्रकार वेद की भी तो माला होनी चाहिए। उन्होंने कहा वेद की भी माला बनायी
जा सकती है। क्योंकि प्रत्येक शब्द का एक मनका बन करके और वह सूत्र में पिरोयी
जाती है,प्रकाश रूपी सूत्र में पिरोने से वह माला बन जाती है। परन्तु वही माला अपनी
आभा में सदैव निहित रहती है। तो उन्होंने कहा वाक् तो आपका प्रियतम है। परन्तु
मेरा अन्तर्हृदय यह कहता है कि यह जो आप विवेचना कर रहे है,वेद रूपी प्रकाश की,यह मेरे अन्तर्हृदय में समाहित नहीं हो रही है। उन्होंने कहा यह क्यों नहीं हो
रही है?
क्योंकि मेरा अन्तरात्मा इसे स्वीकार नहीं कर रहा है या मैं
इस विद्या को जानता नहीं हूँ। तो इसलिए मेरे हृदय में, नाना प्रकार की आशंका बनी रहती है। उन्होंने कहा आशंका आचार्यो के हृदयों में
या जिज्ञासुओं के हृदयों में नहीं बना करती है। उनके हृदय में तो जिज्ञासा होती है
और जिज्ञासु जो प्राणी होता है, उसके
अन्तरात्मा में जो प्रकाश है,उसी प्रकाश से वह
प्रकाशित होता रहता है।890407
वेदमन्त्र के
उच्चारण से शुद्धिकरण करना
पुरातन काल में जब ऋषि मुनि एकान्त स्थलियों में विद्यमान
होते,
एक समय,हम अपने आचार्य के समीप विद्यमान हो करके
वेदमन्त्रों का उद्गीत गा रहे थे, वेद का अध्ययन
कर रहे थे,
जब वेद का मन्त्र अक्षर से अशुद्ध हो गया,तो आचार्य ने कहा-नही पुत्र! यदि यजूंषि का पठन पाठन कर रहे हो, तो ओ३म् भूः कहना चाहिए,तीन श्वासों के द्वारा,तो वह जो उसमें वेदमन्त्र में
अशुद्धि हो गई है, तो उसका शुद्धिकरण हो
करके,
एकोकीरण हो जाता है और यदि तुम्हें यदि ऋग में इस प्रकार की
अशुद्धि आ जाएं,
तो ओ३म् भुवः ऐसा उच्चारण करना चाहिए और साम गान में यदि
अशुद्धि आ जाएं तो ओ३म् स्वः कह करके, हूत करना चाहिए।
तीन तीन श्वासों के द्वारा, एक एक श्वास में वह तीन सत में उद्गीत गाना चाहिए। तो तो वेदमन्त्रों की अशुद्धियों की पूर्ति हो जाती है। वह पूर्ति नही हो पाती। तो
विचार आता रहता है मैं सम्बन्ध में व्याकरण की पद्धति में नही ले जा रहा हूँ यह तो
पठन पाठन की पद्धतियां हैं, विचार केवल यह
कि गीत गाना चाहता हूँ। यदि कोई भी साधन न हो तो ओ३म् स्वः, ओ३म् मह,
ओ३म् जनः, ओ३म् तपः
उच्चारण करते हुए पुनः आहुति देनी चाहिए,जिससे हमारी वाणी शब्द अन्तरिक्ष, हमारा सब उसमें
शुद्धिकरण हो जाएं।890417
वेद साधना
याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने यह कहा है कि जब हम वेद का
अध्ययन करते थे,वेद की साधना करते थे,वेद की भी साधना होती है क्योंकि मन यदि हमारा पवित्र
नही हैं,तो उसकी साधना पूर्ण नही होती। मन को पवित्र बनाना बहुत अनिवार्य है और मन
के पवित्र बनाने के लिए अन्न का पवित्र होना बहुत अनिवार्य है,यदि अन्न में
अशुद्धियां चलती रही,तो वाणी और मानव का हृदय कदापि भी पवित्र नही बन सकता। वह
कितने भी अनुष्ठान करने वाला महान व्यक्ति क्यों न बन जाएं, परन्तु बाह्य जगत के कर्मकाण्डी कह सकते हैं, परन्तु अपनी आत्मा के सम्पर्क में जा करके ही,आत्मा ही उसे कर्मकाण्डी नही
उच्चारण करता तो आत्मा के समक्ष जाना चाहिए।890417
शब्द में वैदिकता
शब्द में वैदिकता हो, शब्द वह कहलाता है, जिसमें
एकाग्रता हो|शब्द कहीं है और मानव का अन्तर विचार कहीं है। तो उसका चित्र नही बना
करता,चित्र उसका बनता है। जो संलग्न हो करके मन के द्वारा हृदय से उसका समन्वय
किया जाता है।890426
वेदमन्त्र उच्चारण में अशुद्धिकरण
जब वेद का मन्त्र अक्षर से अशुद्ध हो गया,तो आचार्य ने कहा-नही पुत्र!, यदि यजूंषि का
पठन पाठन कर रहे हो, तो ओ३म् भूः कहना
चाहिए। तीन श्वासों के द्वारा तो वह जो उसमें वेदमन्त्र में अशुद्धि हो गई है, उसमें एक प्रहात हो गया है उसका शुद्धिकरण हो करके, एकोकीरण हो जाता है और यदि तुम्हें ऋग में इस प्रकार की अशुद्धि आ जाएं, तो ओ३म् भुवः ऐसा उच्चारण करना चाहिए और साम गान में यदि अशुद्धि आ जाएं तो
ओ३म् स्वः कह करके, हूत करना चाहिए। तीन
तीन श्वासों के द्वारा, एक एक श्वास
में वह तीन सत में उद्गीत गाना चाहिए। तो, वेदमन्त्रों की अशुद्धियों की पूर्ति हो जाती है। यदि वह पूर्ति नही हो पाती।
यदि कोई भी साधन न हो तो ओ३म् स्वः, ओ३म् महः, ओ३म् जनः,
ओ३म् तपः उच्चारण करते हुए पुनः आहुति देनी चाहिए जिससे
हमारी वाणी देखो, शब्द अन्तरिक्ष, मानो देखो,
हमारा सब उसमें शुद्धिकरण हो जाएं।891217
वेदमन्त्रों में
स्वर ध्वनियों की अनिवार्यता
ये वेद का मन्त्र है और उस वेदमन्त्र को वह उद्गीत रूप में
गा रहा है,
और वेदमन्त्रों का उद्गीत गाता हुआ,एक दूसरें में माला
पिरोई जाती है,
शब्दों की माला बन रही है,अक्षरों की माला बन रही है, और माला को
व्याकरण से सजातीय बना दिया है,और व्याकरण को
मानव के मस्तिष्क से सजातीय बनाया है,और मस्तिष्क के आन्तरिक जगत में जो स्वरों की ध्वनियां हो रही है, जिसको अनहद कहते हैं,वह उसमें
पिरोया हुआ है,वह शब्दों में शब्दों की रचना हो रही है। ये कितना विचित्रतव कहलाता है।900405
वेदमन्त्र गायन की
माता के लिए अनिवार्यता
हमारा वेदमन्त्र हमें क्या कह रहा है,वेदमन्त्र किस मार्ग पर ले जा रहा है, शब्दों की ध्वनि को श्रवण करने वाली, मेरी पुत्रियां, माता भी इस प्रकार
विज्ञान में सदैव रत्त रही हैं। क्योंकि महर्षि शिकामकेतु उद्दालक के यहां, एक रोहिणी कृत नाम का ब्रह्मचारी था, जो माता रम्भेश्वरी से उसका जन्म हुआ था। वह शिकामकेतु उद्दालक के यहां माता
ने एक समय जब वह अपने गर्भ में वह गमन कर रहा था और तो एक समय शिकामकेतु उद्दालक से बोली कि हे प्रभु!
मेरे गर्भस्थल में एक शिशु पनप रहा है, एक पुत्रेष्टि याग हो रहा है, मैं,भगवन! उस
याग को कैसे सम्पन्न करूं? तो उस समय ऋषि
शिकामकेतु उद्दालक ने वेद के मन्त्रों का उद्गीत गाने लगे, और ये कहा कि हे देवी! तुम वेदमन्त्रों का उद्गीत गाओ,यदि तुम्हारी इच्छा यह
है कि मेरे गर्भस्थल से, एक महान से
महान पुत्र का जन्म हो, और विज्ञान और
साधक का जन्म हो, तो तुम्हें वेद के
मन्त्रों को उद्गीत गाने में सदैव तत्पर रहना होगा। तो माता रम्भेश्वरी प्रातःकालीन
वेदमन्त्रों का अध्ययन करती रहती, और उसकी
विवेचना करती रहती, जब रात्रि के अन्तिम
चरण में,वह समाधिष्ट हो जाती, और समाधिष्ट हो
करके,
अपनी अन्तर्हृदय में जो गर्भस्थल में जो शिशु पनप रहा है,उस शिशु से वह वार्त्ता प्रगट करती रहती, एक समय प्रातःकालीन में अन्तिम चरण
में अपनी आत्मा के चर्चा कर रही थी,और वह ये कह
रही थी कि हे बाल्य! हे आत्मा! तू मेरे गर्भस्थल में विद्यमान है। परन्तु वह माता
अपने में तप कर रही है, और तप करती
कहती है कि हे आत्मा! तुझे ब्रह्म ज्ञान में परिणित होना है, ब्रह्म ज्ञानी बनना है। माता के ये उदगार हृदय में समाहित हो रहे हैं, गर्भस्थल में वह अपने संस्कारों को उदबुद्ध कर रही है और संस्कारों को बाल्य
के अन्तःकरण में प्रवेश करा रही है।900406
वेद का मर्म
वही मानव योग में सिद्धता को प्राप्त करने वाला होता है,जो , वेद के मर्म को जानता है, और वेद का वह
भाष्यकार बन करके बेटा! उसका स्पष्टीकरण करता रहता है।910305
वेदमन्त्रों का गान
हे उद्गीत गाने
वाले! तुम कैसे उद्गीत गा रहे हो। उन्होंने कहा-प्रभु! मैं वेदमन्त्रों का उद्गीत गा
रहा हूँ। क्यों गा रहे हो? उन्होंने कहा जटा पाठ में भी घन पाठ और माला पाठ में भी और विसर्ग पाठ में,मैं चार प्रकार के वेदमन्त्रों
का उद्गीत गा रहा हूँ,उन्होंने कहा कि जैसे मानव साधना में प्रवेश करता है,तो मस्तिष्क में एक अनहद ध्वनि होती है,उसको अनहद ध्वनि कहते हैं,उसको साधक अपने
में धारण करता है,इसी प्रकार मेरी ये
जटा पाठ और घन पाठ में माला पाठ और विसर्ग पाठ की जो ध्वनि है। वह जो इस ब्रह्माण्ड
का जो मस्तिष्क,ये जो ब्रह्माण्ड कहा जाता है। इस
ब्रह्माण्ड में एक दूसरे के कटिबद्ध होने वाली वह ध्वनि हमें प्राप्त हो जाती है।
हम उसमें ध्वनित हो जाएं। प्रत्येक वेदमन्त्र उस ध्वनि अग्नि की धाराओं पर प्रवेश
हो करके द्यौ में प्रवेश हो जाएं, ऐसा हमारा
मन्तव्य रहता है।910310
वेद गानम् शंख
ध्वनि
शंख ध्वनि का अभिप्रायः ये है कि वह वेदमन्त्रों का गान
गाने वाला,जब वेदमन्त्रों का पाण्डितव गान
गाते हैं,विद्यालयों में,तो वह जटा पाठ,माला पाठ,घन पाठ,
विसर्ग, उदात्त और
अनुदात्त में जो वेदमन्त्रों का उद्गीत गाने वाले हैं। तो वह पाण्डितव कहलाते हैं।
वह पंच ध्वनि कहलाती हैं। राजा के राष्ट्र में ये शंख ध्वनि होनी चाहिए और इसी
ध्वनि के द्वारा राष्ट्र को उन्नत बनाया जाता है। राष्ट्र को पवित्र बनाया जाता
है। जब प्रत्येक ब्रह्मचारी विद्यालय में जब गान गाता है,वह ध्वनि से गाता है,माला पाठ से गाता है,उद्गीत गाने वाला उद्गीत गाता है,तो उसमें माधुर्यता आ जाती है,और उसमें
महानता का दर्शन होता है,और राष्ट्र को
उन्नत बनाने के लिए मानव मानव अपने में मानो देखो, श्वासों की प्रतिभा में रत्त हो जाता है। जब उद्गीत गाया जाता है,जब उदात्त और
अनुदात्त में वेदमन्त्रों का गान गाया जाता है। तो वहां ध्वनि पवित्र हो जाती है, ये आत्मा से ध्वनि का ध्वनित होना ही राजा के राष्ट्र में शंख ध्वनि कहलाती है, और वही चार प्रकार के नियम,राजा के राष्ट्र में होते हैं,सबसे प्रथम पदम, गदा और शंख ध्वनि ये
ध्वनियों के द्वारा राष्ट्र उन्नत बनता है, और यदि ये ध्वनियों में किसी भी प्रकार की ध्वनि में अध्वनितता आ जाती है तो
वही से राष्ट्रीय प्रणाली में सूक्ष्मता आना प्रारम्भ हो जाता है। तो राजा के
राष्ट्र में ये चार प्रकार की नियमावली होनी चाहिए,वास्तव में ध्वनि होनी चाहिएं।
जब गान गाने वाला गान गाता रहता है,तो वह गाता ही रहता
है वह उद्गीत गाता रहता है।वह उद्गीत गाने वाला ही अपने को पवित्र बनाता है।910404
वेद का भाष्यकार
वेद का भाष्यकार बन करके उसका स्पष्टीकरण करता रहता है, उनमें से कोई सा गुणाधानम न हो तो उसके मर्म को नही जान सकता। क्योंकि
विज्ञानवेत्ता भी योग से सिद्ध होता है। और योग भी विज्ञान से सिद्ध होता है। और
विज्ञान दोनों प्रकार उसके समीप होना चाहिए,एक विज्ञान आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के विज्ञान में रत्त रहने वाला
हो,तो ये राजा रावण ने अपने विज्ञानवेत्ताओं की सभा में,इस उद्गीत को गाया और
उन्होंने कहा कि वेद के मर्म को जानना चाहिए,क्योंकि वेदों में गुरूतव परमाणु का बड़ा विश्लेषण होता रहा है। अथवा उसकी
प्रतिभा में रत्त होना ही मानव का कर्तव्य है।910405
वेद का स्पष्टीकरण
वेद की प्रतिभा और प्रतिभाषा को वह मानव जानता है,जिसमें तीन प्रकार के गुणाधानम होते हैं,सबसे प्रथम तो वह वेद का श्रद्धालु
हो,वेद के मर्म को जानने वाला हो, और द्वितीय वह
वेद के अर्थों को जान सकता है, वह यौगिक भी हो, और वह विज्ञानवेत्ता हो,विज्ञानवेत्ता श्रद्धा
में हो,
और वह आध्यात्मिक विज्ञान को जानने वाला हो,ये तीन प्रकार
के भाव को ले करके जब वह वेद के गर्भ में प्रवेश होता है, तो वेद का स्पष्टीकरण
करता चला जाता है। यदि वह विज्ञानवेत्ता भी है, और वह वेद के भाव को जान सके, तो नही जान
सकेगा और यदि वह योगी है,और योग में परिणित
हो जाता है। तो केवल योगी भी उस वेद के
मर्म को,इस प्रकार उद्धबुद्ध नही कर सकता|तृतीय उसमें व्यवहार होता है,यदि उसमें व्यवहार पवित्र है,व्यवहार कुशल, विज्ञान कुशल तो वही मानव योग में
सिद्धता को प्राप्त करने वाला होता। वह वेद के मर्म को जानता है।910405
वेदगान से
वायुमण्डल की पवित्रता
हमारे आचार्यों का ये मन्तव्य रहा है कि जिस भी काल में वह
साधना के लिए तत्पर रहे हैं,तो साधना करने
के लिए,वह सबसे प्रथम उनका एक ही विचार रहा कि वहां का वायुमण्डल पवित्र हो जाएं।
जब वायुमण्डल पवित्र हो जाता है, तो उस
वायुमण्डल में मन की धारा, प्राण की धारा, एक सूत्र में आना,एक सूत्र में आना प्रारम्भ हो जाता है। और वह वायुमण्डल कैसे
ऊँचा बनता है,जब तक वेद के विचार,वेद के मन्त्रार्थों के साथ में उसका देवता और वह
वेदमन्त्र जब तक वायुमण्डल में परमाणु रूप में छा नही जाते। जब तक वायुमण्डल नही
बनता,मानव का विचार मानव की प्रतिभा उसमें सदैव निहित रहती है।910421
वेदमन्त्रों का
स्वर संगम से गान
प्रत्येक वेद मंत्रों में स्वर संगम होता रहता है। क्योंकि
जो वेद मंत्रों को स्वर संगम को गान के रूप में हृदय की आभा को लगाता हुआ,अपने में
गान गाने लगता है,तो वह गान विद्या में पूर्णता
को प्राप्त होता हुआ,और वेद मंत्रों को
स्वर संगम में रमण करता हुआ भयंकर वनों में गान गाने लगता है। जब मानव अपने में
गान गाने लगा,और वेद मंत्रों का जब उद्गीत गाने लगा, तो उसमें हिंसा का जो स्वर वृत्ति है तरंगे है वह समाप्त हो जाती है। क्योंकि
वेद के मंत्रों में स्वर संगम से ही हिंसा की तरंगें समाप्त हो जाती है। वेद मंत्र
बड़ी ऊर्ध्वा से,ऊर्ध्वा में ले जाता हुआ, हमें यह
प्रेरणा दे रहा है,मानव अन्तरात्मा से प्रेरणा के साथ में जब गान गाता है। तो उसके
अन्तर्हृदय से ऐसे उद्गारों का जन्म होता है,जिन उद्गारों में मानवीयता उसमें परिणित हो जाती है। वास्तव में जब ब्रह्मचारी
जन एक पंक्ति में विद्यमान हो करके वेदमन्त्रों के स्वरों का गान गाते हैं। उनकी
स्वर संगमता जागरूक हो जाती है।910424
वेद गान
जिसका उद्गीत गान पवित्रतम माना गया है। परन्तु जिसके ऊपर
हमारे यहां परम्परागतों से ही,मानव अपने में
मानवीयता का प्रसार करता रहा है। तो उस महान देव की महिमा को हम सदैव गुणगान गाते
रहें। उस उद्गीत को गा रहा है,हे मानव! तू
उद्गीत गा,नाना प्रकार के प्रपञ्चों से उपराम हो करके गान गा, जिससे हमारे उदगार
हमारी विचार धारा की उद्धबद्धता आए।910430
वेदगान से नैतिकवाद
महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने ब्रह्मचारियों के मध्य
में कहा हे ब्रह्मचारियों! तुम अपने में याज्ञिक बनो,और यदि तुम्हें कोई भी वस्तु प्राप्त न हो,तो तुम वेदमन्त्रों का उद्गीत अवश्य
गान रूप में गाओ,जिससे तुम्हारा
वेदमन्त्र ही तुम्हारे जीवन का सार्थक बन करके,और तुम अपने जीवन को ऊँचा बनाते रहो। तो इस प्रकार याज्ञवल्क्य मुनि महाराज
प्रातःकालीन अपने ब्रह्मचारियों को इस प्रकार का नैतिक उपदेश देते रहते थे, तो ये नैतिकवाद माना गया है।920404
वेद गायन से
वायुमण्डल का शुद्धिकरण
प्रत्येक दशा में मानव को वेदमन्त्रों का उद्गीत गाना चाहिए,जिससे वाणी तुम्हारी पवित्र हो जाएं और वायुमण्डल में वह ध्वनि प्रविष्ट हो
करके अशुद्ध परमाणुओं को निगलती चली जाए और उसका शुद्धिकरण हो जाए और शुद्ध
परमाणुओं से,
परमात्मा का यह जगत भव्यता को प्राप्त हो जाए। आज कैसा
सुहावना समय है जिस सुन्दर समय में परमपिता परमात्मा ने हमे,इन वेदमन्त्रों के उच्चारण करने का समय प्रदान किया।920411
वेद का पाठयक्रम
आज हमने पूर्व से, जिन वेदमन्त्रों का पठन पाठन किया, ये पाठयक्रम परम्परागतों से ही विचित्र माना गया है क्योंकि हो वेद का पठन
पाठन करने वाला जब वेदमन्त्रों का उदगीत गाता है तो, कही माला पाठ में गाता है, कही जटा पाठ
में गाता है,
कहीं घन पाठ में गाता है, कहीं उदात्त और अनुदात्त में गान गाता रहता है। जब वह माला पाठ में गाता है, तो गायन की स्वर ध्वनि बन जाती है। तो पाठयक्रम परम्परागतों से ऋषि मुनियों के
मस्तिष्क में सदैव रत्त रहा है, जिसके ऊपर मानव
परम्परागतों से अन्वेषण करता रहा है, और नाना प्रकार का अन्वेषण और नाना प्रकार की धाराओं में सदैव रत्त रहा है। तो
हमारा वेद का मन्त्र कहता है हे मानव! तू इस पाठयक्रम को अपने में लाने का प्रयास
कर। क्योंकि तेरा यह पाठयक्रम पवित्र होना चाहिए, और राष्ट्र को अपने में यह उपदेश देना चाहिए, कि हे राजन! तेरे राष्ट्र में यह वेद की विद्याएं, यह पाठयक्रम विचित्र होना चाहिए।920416
गायत्री
तो माता कौशल्या जी ने उसी समय अपना एक संकल्प किया,और संकल्प मात्र से अपने में स्वयं कला कौशल करती,और कला कौशल करके प्रातःकालीन याग भी किया करती और वह स्वयं कला कौशल करती
जिसके बदले जो द्रव्य आता,वह उसको ग्रहण करती रहती, और तपों में निष्ठ रहती। तो मुझे स्मरण है उनके गर्भस्थल में जब आत्मा का
प्रवेश हो गया,आत्मा जब वह प्रवेश हो गई, तो वह सदैव
अपने में गायत्री छन्दों में प्रवेश करती, और गायत्री छन्दों में प्रवेश करके वेद उद्गीत गाती रहती थी।
920416
गायत्री
यह जो वैदिकता है वैदिक जो भाषा है, इसको देव भाषा कहा जाता
है, देव वाणी कहा जाता है। इसको वेद को जानने वाला इसके प्रकारों को स्वरों को
जानने वाला,
ब्रह्माण्ड के लोकों की वार्त्ता को जान सकता है। ये जो भाषाओं
का,जो संसार में एक प्रकार का नृत्त हो रहा है,एक दूसरे से कटिबद्ध रहता है और
उसकी भाषा उसमें रमण कर रही है यह जो देव भाषा है और देवभाषा का का जो व्याकरण है, वह ब्रह्मा का व्याकरण कहलाता है, और जो अनहद ध्वनि होती है, मस्तिष्क में
जो उसका तारतम्य साधना से बना लेता है। 920427
गायत्री
वेदमन्त्रों का उद्गीत गाते रहो,जिससे वेद शब्द का जब
उद्गीत होता है,मन्त्रों के द्वारा उसमें ज्ञान और विज्ञान विद्यमान है। वह जो तरंगों में
तरंगित होने वाला तुम्हारा शब्द है,वही तो प्रदूषण
को शान्त करने वाला है। वह प्रदूषण को नष्ट करता है।920429
वेद गान में
पवित्रता
जितना यज्ञमान पवित्र होता हैं,जितने ऋत्विक पवित्र होते हैं, सुहृदय के होते
हैं,उतना ही यज्ञ पवित्र होता हैं। अशुद्ध वातावरण को नष्ट कर रहा है। पवित्रता को
उत्पन्न कर रहा हैं। जब ब्राह्मण,उद्गाता जब वेद का गान गाता हैं,जितना शुद्ध वेद का मन्त्र होता हैं उतना ही वायुमण्डल में अशुद्ध परमाणुओं को
नष्ट करता हुआ,अशुद्ध परमाणुओं निगल लेता हैं व शुद्ध परमाणुओं को जन्म देता हुआ द्यौ लोक को
प्राप्त हो जाता हैं।69 77 006
वेदमन्त्र की शुद्ध
उच्चारण की अनिवार्यता
जब ब्राह्मण उद्गाता वेद का गान गाता हैं,जितना शुद्ध वेद का मन्त्र होता हैं,उतना ही वायुमण्डल में अशुद्ध परमाणुओं को
नष्ट करता हुआ,अशुद्ध परमाणुओं निगल लेता हैं।! व शुद्ध परमाणुओं को जन्म देता हुआ द्यौ लोक
को प्राप्त हो जाता हैं।
तो पति पत्नी अपने बाल्य बालिका को ले करके विराजमान होता
हैं,अपने गृह में तो वेद का अध्ययन कर रहे हैं, और शुद्ध और पवित्र दर्शनों का अध्ययन हो रहा हैं, तो वह जो शब्द हैं, वह उस गृह को
शुद्ध और पवित्र बनाते हैं। उस गृह को आभा से युक्त बना देते हैं। गृहपथ्य नाम की
अग्नि की पूजा क्या हैं? जो गृह में
अग्नि प्रदीप्त होती है, गृह में
सुसज्जित रहते हैं,पति पत्नी का विचार,वह गृहपथ्य नाम की अग्नि कहलाता है। वह द्यौ लोक को जाता हैं। अशुद्ध शब्द
अन्तरिक्ष में प्रवेश करता हैं,उससे
अनावृष्टि,अतिवृष्टि के मूल कारण बनते हैं और जो शुद्ध पवित्रतव होता हैं। वह द्यौ
लोक को जाता प्रतीत होता है। वह स्वर्ग में ले जाने वाला हैं,मोक्ष का गामी बना देता हैं।
याग में परिणित होना चाहिए,प्रत्येक मानव को यहाँ यागिक
बनना चाहिए। याग का अभिप्रायः यह कि अग्न्याध्यान करना याग नही हैं,वह जो याग हैं,उस याग से पवित्रता
आनी चाहिए,हृदय की पवित्रता,ब्रह्मचर्य से सुसज्जित होना चाहिए। उसके पश्चात पवित्र हृदय
ही द्यौ लोक को जाता हुआ हमें दृष्टिपात होता हैं, तो हम अपने प्यारे प्रभु का गुणगान गाते हुए, देव की महिमा का गुणगान गाते हुए इस संसार सागर से पार होना चाहिए।
वेद पाठी यज्ञशाला में देवताओं का आह्वान करता हैं, जितना भी शुद्ध पवित्र, वेद पाठ होगा,उतने शुद्ध परमाणु बनेंगें, और जितने
परमाणु शुद्ध पवित्र बनेगें, उतना ही
वायुमण्डल पवित्र होगा, और जितना
वायुमण्डल पवित्र होगा, उतना ही वह
कर्तव्यवाद होगा, और जितना कर्तव्यवाद
होगा,
उतना मानव समाज में शुद्ध और पवित्रता रहेगी।69 77
006
वेद गान की यज्ञ
में अनिवार्यता
मेरे प्यारे महानन्द जी ने एक प्रश्न किया,कि भगवन! यज्ञशाला में विराजमान होने वाला, पठन पाठन करने वाला आचार्य, और जिसे हम
उद्गाता कहा करते हैं,और ब्रह्मा,ये वेदों
का बड़े ऊँचे स्वरों के उच्चारण करते हैं,हमारे यहाँ महानन्द जी ने एक समय ऐसा प्रश्न किया और यज्ञ में आहुति के साथ
में वेद मन्त्रों के पठन पाठन की पद्धति क्यों हैं? उस समय इनके प्रश्नों का उत्तर वह यह है कि संसार में जब हम यज्ञ कर्म में
संलग्न होते हैं, यज्ञ कितने भी प्रकार
के होते हैं,
एक मानव वाणी का यज्ञ करता है, मानव को वाणी से,मधुर और सत्य उच्चारण
करता है,यह जब ही होता है,जब तीनों भावना उसके
साथ साथ होती हैं, तो वह एक प्रकार का
वाणी का यज्ञ हो रहा हैं। जब वाणी के यज्ञ में उसकी महान प्रगति हो जाती हैं,उसी प्रगति के साथ साथ मानवीय वाक् मानवीय याग उच्चता को प्राप्त होता रहता
हैं। तो मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा है कि वेद जो हैं उसे परमात्मा का ज्ञान कहा
जाता हैं,जब हम वेद मन्त्रों की ऋचाओं को उच्चारण करते हैं, मन्त्रों का पठन पाठन करते हैं,तो भगवान राम
ने और भी आचार्यों ने वशिष्ठ इत्यादियों ने वर्णन किया कि वेद का जो एक एक अक्षर
हैं। वेद का जो एक एक मन्त्र हैं, उसमें शुद्ध
वाक् है,जिसको मानव या ब्राह्मण हृदय से उसका पठन पाठन करता हैं।69 77
007
वेद की आभा
वेदों के रहस्य को मानव रूढ़ि से नहीं जान सकता,उसको जब मन रूपी अपने घृत से उस मस्तिष्क को,अग्नि को प्रदीप्त करते हैं ज्ञान के द्वारा,हृदय की नाना प्रवृत्तियों को, बाह्य
प्रवृत्तियों को जब आन्तरिक बना लेते हैं और मस्तिष्क में विचार विनिमय प्रारम्भ
हो जाता है,उस विचार को ध्यानावस्थित कहते हैं। ध्यान की अवस्था होते ही उस वेद के
मन्त्र में,परमात्मा की वाणी में,जो रहस्य होता
है,वह समाप्त हो जाती है। उसका वास्तविक स्वरूप उसके समीप आ जाता है। क्योंकि हमारे
यहाँ प्रायः ऐसा माना गया है,कि वेदों में मन और प्राण दोनों की जो विशेषता है,जहाँ मन और प्राण का समन्वय हो जाता है,क्योंकि ध्यानावस्थित हम उसी को कहते हैं, जहाँ मन और प्राण दोनों की सहकारिता होती है,वह जो ध्यानावस्थित है,उसमें वेद की
रूढ़ि नहीं रहती। उसका मस्तिष्क उन रहस्यों को जानने लगता है। जहाँ रूढ़ि नहीं होती,वहाँ
वास्तविक ज्ञान होता है। वह ज्ञान से भरा एक महान् विज्ञान होता है। इसलिए वेद के
रहस्यों को जानने वाला प्रायः योगी ही होता है। योगी ही वेद के रहस्यों को जानता
है। क्योंकि प्रकाश का प्रकाश से समन्वय कर देना,जो जानता है,इसलिए वेदों के अर्थों को,वेद की आभा को
केवल वह योगी जानता है,जो अपने प्राण और मन दोनों को समन्वय कर देता हैं। 69 77
050
वेद गान व आयुर्वेद
मेरे प्यारे महानन्द जी ने मुझे यही प्रेरणा दी थी और वह
प्रेरणा क्या थी क्या रूग्ण नही रहने चाहिए और यदि वैज्ञानिक और औषधियों का तुम
अनुपान चाहते हो,तो यह नाना प्रकार के पंचांग है। इनको पान किया जाएं और गायत्री
छन्दों का मुखारबिन्दु से पठन पाठन किया जाएं,जिस मानव के शरीर में ऐसे परमाणुओं
का जन्म हो गया है। कि वह परमाणु मृत्यु का शरीर को त्यागनें का ही मूल बन गयें
हैं,तो ऐसे रूग्णों के लिए उन्हें गायत्री का जपन करना चाहिए। गायत्राणि छन्दों से
शुद्ध रूप से,
वेद मन्त्रों की ध्वनि होनी चाहिए संसार की विडम्बना को
त्याग देना चाहिए संसार के मायावाद को त्याग देना चाहिए परन्तु मैं त्यागने के लिए
इसीलिए कहता हूँ क्योंकि उसके लिए शरीर बहुत अनिवार्य है। तो उससे जब वह ऊर्ध्वा
से गति करेगा तो वाणी से,तो वाणी की जो उद्गमता है। वह सर्वत्र नस नाड़ियों से उसका
समन्वय रहता है,
समन्वय रह करके जितने उसमें विषैले परमाणु हैं, वह उससे समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि प्राण की विशेषता आ जाती है, प्राण बलवती हो जाता है तो इससे वह रूग्ण समाप्त हो जाते हैं।78 92
109
वेदगान में
क्रियातमकता
राजा के राष्ट्र में गान होने चाहिए और गान जो वेदमन्त्र
कहता है उसके अनुकूल गान होना चाहिए। वह जब स्वर संगम में गान गाने लगता है,तो
राजा के राष्ट्र में मल्हार गान होना चाहिए,राजा के राष्ट्र में दीपावली गान होना
चाहिए जिससे राष्ट्र में प्रकाश आ जाए और बुद्धि क्रियात्मकता में जीवन आ जाए,
जहां राजा के राष्ट्र में विज्ञान है और वह विज्ञान हमारे यहां परमाणुवाद से जाना
जाता है,वही विज्ञान गान रूपों में आता है तो गान के रूप में जब वह गान गाने लगता
है तो गान की प्रतिष्ठा अपने में प्रतिष्ठित हो जाती है और वह प्राण के द्वारा
गाता है,अपान के द्वारा गाता है,व्यान के द्वारा गान गाने लगता है,और समान की
उसमें पुट लगा देता है तो जब यह जटा पाठ में अथवा गान गाने लगता है तो अपने मानवीय
जीवन को वह दीपावली रूप में परिणत कर देता है। और दीपावली बन करके प्रकाश आ जाता
है मल्हार राग प्राण और अपान की पुट लगा करके गाता है और उसे वह माला पाठ और जटा
पाठ को ले करके गान गाता है प्राणों को एकाग्र करता हुआ उस समय वह मल्हार वह राग
रूपों में रमण कर जाता है मल्हार राग गाता है तो यह गान अपने में क्रियात्मक होना
चाहिए,जब वह क्रियात्मक होता है तो वही गान राजा के राष्ट्र को उन्नत बनाता है।
78 92 133
वेद गान
आज का हमारा वेदमन्त्र, तुम्हें प्रकाश के मार्ग को, प्रगति कराता
चला जा रहा था। आओ! हम भी चले,उसी प्रकाश में,हम भी प्रकाशमान होते चले जाएं। जो प्रकाश उस परमदाता ने, आनन्ददायक प्रभु ने, जो विचित्र
वीणा मानव के समक्ष निर्मित की है, हम भी उस वीणा
को,
शब्दमयी ध्वनि करते चले जाएं, और वह ध्वनि हमारे अग्रणीय भाग में हो, और हम उस ध्वनि के पश्चात हो,हे परमात्मन्!
आपकी यह कितनी अनुपम ध्वनि है,जब हम इस ध्वनि
का उच्चारण करते हैं, तो कितनी अनुपम ध्वनि
है ये,
जिस ध्वनि से यह पृथ्वी मण्डल ही नही, सूर्य मण्डल और ध्रुव, चन्द्र इत्यादि
सभी उसका वर्णन किया करते हैं।651030
उद्गीतम्
तो ऐसा उद्गीत गाना ही हमारा कर्तव्य हैं ऐसा उद्गीत कौनसा
है जिस उद्गीत को गान गाने से, स्वरों से
मधुर स्वर से जो उच्चारण और जिस मधुर स्वर में निर्भयता, हृदय की वेदना,आत्मीय चर्चा,हों वह जो मधुर गायन है,उद्गीत है उससे
प्रत्येक प्राणी वशी वर्णित हो जाता है। वह एक वशीकरण है, जिसको मानव विश्व को अपने में वशीभूत करने लगता है। तो यहाँ प्रत्येक परमाणु
संघर्ष करता हुआ गान गा रहा है, वायु वेदमयी
गान गा रही है। अग्नि का जब मिश्रण जल के समीप होता है, तो शीतलता का गान हो रहा है। जब इसी अग्नि
में वायु में अग्नि के परमाणुओं का भरण हो जाता है तो यह उद्गीत गाती रहती है। 840307
गानम्
उन्होंने जब स्वरों से गान गाना प्रारम्भ किया। मध्य रात्रि
में वह गान गाया जाता है, जब गान गाने
लगे गान की जब स्वर ध्वनियाँ होने लगीं,तो ऐसा काल मैंने श्रवण किया है कि मेघों से
वृष्टि प्रारम्भ होने लगी। जब मेघों से वृष्टि प्रारम्भ हुई
तो यह विद्या जैसे गणेश जी पर यह विद्या थी,महाराजा हनुमान जी भी जानते थे इस विद्या को, सम्पाति भी जानते थे,इस विद्या को कागभुषुण्ड जी भी जानते थे,इस विद्या को महर्षि लोमश मुनि भी अपनी गायन मंजरी में परिणित करते रहते थे। जड़वत
को,वृष्टि रूप में अपनी वैज्ञानिकता के द्वारा ऊर्ध्वाशक्ति देना।840307
वेद गानम् लकड़हारा
एक महान राजा मंत्रियों सहित भ्रमण कर रहे थे। उन्होंने वन
से समिधाएं लाकर गृहस्थियों के गृहों पर पहुंचाने वाले,एक दरिद्र व्यक्ति को देखा,जो कि मार्ग में मग्न भाव से उच्च स्वरों से साथ गान गा रहा था। वह ऐसा गान गा
रहा था,
कि जैसे ऋषिजन वेदों का घन पाठ में गायन करते हों। उसके
गायन पर तो पक्षीगण भी मुग्ध हो रहे थे।
उस समय राजा ने मन्त्रियों से कहा, अरे,
भाई! यह क्या है? यह कैसा मुग्ध हुआ गान गा रहा है? यह कितना सुखी होगा? जैसा कि हमने
कल उच्चारण किया था, कि ऐसा गान तो पवित्र
मन वाला व्यक्ति ही गाता है, और वही गा सकता
है कि जो सुखी होता है। जो सुखी नहीं,जो कलह में मग्न हो,वह ऐसा गान कदापि नहीं गा सकता। तो राजा ने उससे कहा, कि अरे,
भाई! तुम तो बड़ा सुन्दर गान गा रहे हो? उसने उत्तर दिया कि गान गाना मेरा कर्तव्य है, इसलिए मैं गा रहा हूँ। 620312
वेद गानम्
हमारा वेदमन्त्र यह उद्गीत गा रहा है क्योंकि यहाँ प्रत्येक
शब्द माला के रूप में दृष्टिपात आते रहते हैं। हमारा वेद का मन्त्र कहता है कि उस
माला को हमें धारण करना चाहिए, जिस माला में,जिन शब्दों में एक माला का अस्तित्व रहता है। हमारे यहाँ,एक माला पाठ भी आता है,जब वेद का पठन
पाठन किया जाता है, तो हमारे यहाँ जैसे एक
माला पाठ है,जटा पाठ है,
एक घन पाठ, विसर्ग और
उदात्त अनुदात्त तो यह नाना प्रकार है पाठ है। वैदिक मन्त्रों के उच्चारण करने के।
परन्तु जैसे एक माला पाठ है, माला उसे कहते
हैं,जो मानव के कण्ठ में समाहित हो जाए,माला उसे कहा जाता है जहाँ एक सुमेरू की वरणीयता आती रहती है,क्योंकि जब माला बनती है तो एक सुमेरू भी बनता है। तो वह क्यों बनता है?
क्योंकि जब माला बनती है,तो नाना प्रकार की मालाओं को जब धारण किया जाता है,तो
उसमें एक सूत्र होता है,और वह सूत्र ही महत्त्वदायक है। हमारे यहाँ नाना प्रकार के
मनके हैं और वे मनके जब सूत्र में पिरोए जाते हैं तो वह माला बन जाती है। इसी
प्रकार ये जो सर्वत्र ब्रह्माण्ड है,यह एक प्रकार की माला है और इस माला में जो नाना प्रकार के मनके पिरोए जाते
हैं,तो यह माला बन जाती है। 890326
वेद का उद्गीत
महर्षि प्रवाहण जी ने कहा कि जब हम माता की आंगन में
विद्यमान थे। तो माता हमें शब्द की आभा प्रगट कराती रहती थी और माता ने यह कहा था
कि तुम अध्वर्यु के द्वार पर चले जाओ,यह जो अध्वर्यु है। यह हिंसा से रहित
है,अध्वर्यु का अभिप्राय यह है कि वह जो हिंसा से रहित है,हिंसा नही होनी चाहिए और अहिंसा जो शब्द है। वह अन्तरिक्ष में गमन करता हुआ,अशुद्ध
परमाणुओं को निगलता हुआ,अपना शुद्धिकरण, तरंगो का त्यागता हुआ,यह द्यौ लोक में प्रवेश हो जाता है। यह महर्षि प्रवाहण
जी ने अपना निर्णय दिया,महर्षि शिलक जी उपस्थित हुए,शिलक जी ने कहा कि माता हमें
इससे विपरीत भी कुछ वाक प्रगट कराती रही है। माता ने यह कहा था, हे बाल्य! जब तुम अपने आश्रम से प्रस्थान करो,तो तुम उद्गाता के समीप पंहुचो
और उद्गाता,
जो वेद का उद्गीत गाने वाला है। जटा पाठ, घन पाठ में माला पाठ विसर्ग और उदात्त और अनुदात्त में जो गान गाने वाला है।
तुम उसके समीप विद्यमान हो और तुम्हारी वाणी को पवित्र बनाने वाला उद्गाता को
पवित्र बनाने वाला, उद्गाता कहलाता है,जो
उद्गीत गाता है,
उन्होंने कहा कि जो वह उद्गीत गा रहा है,वह सूर्य से,चन्द्रमा से,उसका समन्वय होता है। क्योंकि चन्द्रमा से अमृत को ले करके और सूर्य से
ऊर्ध्वा को ले करके अग्नि से वृत्तिका को ले करके,जब वह गान गाता है तो वही शब्द आकारित बनता हुआ, अन्तरिक्ष में रत्त हो जाता है। वह द्यौ लोक में प्रवेश हो जाता है।,जब यह वाक शिलक जी ने प्रगट किया, उन्होंने कहा उस शब्द का एक आकार बन जाता है। इसमे महर्षि शिलक और दालभ्य का जब
मन्तव्य हुआ,तो महर्षि प्रवाहण जी उपस्थित हुए और महर्षि प्रवाहण ने यह कहा कि भई!
हम माता से जब अवकाश ले करके,जब आचार्य के कुल में प्रवेश किया,तो आचार्य ने हमें त्रिविद्या का वर्णन कराया,कि यह जो त्रिविद्या है। यह त्रिविद्या कहलाता है। जैसे भूः भुवः और स्वः है।
ये त्रिविद्या कहलाता है। त्रिवर्धा पर विद्यमान हो करके जब हम अग्नि के सहित
अग्नि उन्हे वायु से प्राण ले करके जब वह गमन करता रहता है।890328
वेदमन्त्रों से
वृष्टि याग
महर्षि सोमकेतु ने कहा हे प्रभु! ये वृष्टि याग किसे कहते
हैं?
जब तीसरा उन्होंने प्रश्न किया,तो महर्षि विभाण्डक मुनि
महाराज ने इसका उत्तर दिया। इसमें ऋषि वैशम्पायन तो मौन हो गएं,परन्तु महर्षि
विभाण्डक कहते हैं,कि वृष्टि याग उसे
कहते हैं,
जहाँ जब उद्गाता उद्गीत गाता है, और वह ऐसा गाता है, दिशाओं में
संलग्न हो करके,
ऐसा गान गाता है,जिसका समन्वय आपो से रहता है। वही वेद मन्त्रों का उद्गीत गाता हुआ,जब आपों से समन्वय होता है, तो आपों,समुद्रों
से जलों का उत्थान हुआ,चन्द्रमा की आभा में, पूर्णिमा के दिवस जो वह परमाणु ऊर्ध्वा में गमन करता है वही परमाणु ध्रुवा में
आ करके वृष्टि के रूप में परिणित हो जाता है,अथवा उसका परिवर्तन हो जाता है। तो उसका नाम वृष्टि याग कहा जाता है। 890402
उद्गीत गानम्
इस प्रकार जब हमारे
अन्तर्हृदयों की,जब उद्गाता उद्गीत गाता है,तो वह गाता ही रहता है जहाँ माला पाठ
गाता है,
घन पाठ गाता है, उद्गीत रूपों में गा रहा है,गाता ही रहता
है। जब माला पाठ गाता है तो परमात्मा को उससे तन्मय हो जाता है।890406
वेदमन्त्र की ऋचाएं
सुनीति राजा उनके नायक,उस गऊ को त्याग करके अपने गृह को चले गए। कामधेनु गऊ,तो राजा ने ये विचारा मुझे भी ऐसी स्थिति उत्पन्न करना,अपने जीवन में जब जिसकी पशु भी रक्षा करते हैं। जिसकी पशु भी आज्ञा पालन करने
वाले हो। सुनीति नाम के राजा ने अपने राष्ट्र को त्याग करके भयंकर वन में चले गए।
भयंकर वन में जा करके तपस्या करने लगे,गायत्री छन्दों का पठन पाठन किया,वे उसी में
रत्त रहने लगे। करोड़ों गायत्री छन्दो के सहित,उसका अध्ययन और उसके ऊपर मनन,आत्मा
से आत्मा का भोजन किया। जब आत्मा पवित्र हो गया,उन्हें आकाशवाणी हुई,अन्तःकरण से-हे
राजन्! तुम्हारा तप बलवती हो गया है।890415
वेदमन्त्र की ऋचाएं
तो माता पिता अपने गृह में प्रायः वह अपने आश्रम में ,पवित्रता का अवधान करते रहे हैं और वह जब मातृ और पितरजन, गृहपथ्य नाम की अग्नि का पूजन करते हैं, अग्न्याध्यान करते हैं,दर्शनों में
गुथ जाते हैं,
और वेद मन्त्रों की ध्वनि से गान गाते हैं, तो वह पवित्रतम कहलाता हैं। तो गृहपथ्य नाम की अग्नि का वर्णन करते हुए, यमाचार्य ने कहा है हे ब्रह्मचारी! हे नाचिकेता यदि तुम स्वर्ग चाहते हो,तो इस
अग्नि के ऊपर व्यवधान करो, और अग्नि को
प्रदीप्त करके तुम उसमें याग करो आहुति दो। विचार दो। वायुमण्डल को पवित्र बनाने
का सदैव क्रियाकलाप बनाओ।890416
वेदमन्त्र के नाना
प्रकार
हमारे यहाँ, ये पाठ्यक्रम
परम्परागतों से विचित्रतव माना गया है। क्योंकि हमारे यहाँ, ये जो पाठ्यक्रम है, यह मानवीय
प्रकाश माना गया है। क्योंकि हमारे यहाँ, वेद मन्त्रों का उद्गीत और अपने में महानता में रत्त होने वाला, जो ये उद्गीत है,यह महान है। क्योंकि
वेद मन्त्रों के उच्चारण करने के,नाना प्रकार
माने गएं है। जैसे जटा पाठ, घन पाठ, माला पाठ,उदात्त और अनुदात्त, ये नाना प्रकार
के वेद मन्त्रों का उद्गीत, कई प्रकार के
गान रूप में गाया जाता है। तो हमारे यहाँ वैदिक साहित्य में,वेद मन्त्रों का उद्गीत गाता हुआ, मानव अपने में प्रायः ऊँची उड़ाने उड़ता रहा है। क्योंकि ये संसार वास्तव में एक
माला के सदृश्य मानी गई है। यहाँ प्रत्येक मानव माला की चर्चा कर रहा है, कि हम माला को अपने में धारण करने वाले बने। यहाँ प्रत्येक शब्द,एक माला के रूप में दृष्टिपात आता रहता है। जैसे हमारे यहाँ जटा पाठ, घन पाठ,
माला पाठ, विसर्ग पाठ, उदात्त,
और अनुदात्त में वेदों का उद्गीत गाया जाता है।900308
भगवान् राम माता
सीता और लक्ष्मण का स्वाहा उच्चारण
जहां वह आत्मदर्शी थे,वहां अहिंसा परमोधर्म की आभा में रमण
करते रहते थे,जहां वह आत्मा अहिंसा परमोधर्म के,अहिंसा परमोधर्म की व्याख्या को
अच्छी प्रकार जानते थे। राम, लक्ष्मण और
सीता तीनों प्राणी याग कर रहे थे। याग करते हुए सीता ने स्वाहा उच्चारण किया,परन्तु
राम ने भी किया,तो कहते हैं कि लक्ष्मण के स्वाहा में एक मात्रा की सूक्ष्मता रही,तो सीता
ने कहा-हे भगवन! यह आप जो शब्द उच्चारण कर रहे हैं इसमें एक मात्रा आप नही उच्चारण
कर रहे हैं। यही शब्द अन्तरिक्ष में जा करके आपके रथ में विद्यमान नही हो सकते,हमारा यह जो रथ जा
रहा है। अन्तरिक्ष को जाएगा,यह रथ जिस रथ में हम विद्यमान है यज्ञशाला रुपी जो रथ
है,इस पर विद्यमान हो करके इस पर विद्यमान हो करके,द्यौ लोक को जो हमारा यह शब्द,याग
का हमारा यह क्रियाक्लाप पंहुचेगा,तो हम इस रथ के अधिकारी नही तो लक्ष्मण ने वह
स्वीकार किया और सीता के चरणों को स्पर्श किया।78 92 256
ओ३म् रुपी सूत्र
मैं उस माता वसुन्धरा की उपासना कर रहा हूं,जो माता
वसुन्धरा बन करके इस संसार को धारण कर रही है। और उसके सन्निधान मात्र से,यह
ब्राह्मण्ड गति कर रहा है,लोक गतियां कर रहे हैं,वह सन्निधान मात्र ही वह ब्रह्म
सूत्र कहलाता है,जिस सूत्र में यह ब्राह्मण्ड पिरोया हुआ है,एक एक परमाणु पिरोया
हुआ है, यह जो ब्राह्मण्ड है। यह उस ब्रह्म की एक माला के सदृश्य बन करके रहता है।
जैसे सूत्र में मनके होते हैं और मनके हो करके वह माला बन जाती है। परन्तु वह माला
के सदृश्य बन जाता है। एक आचार्य ने बहुत पुरातन काल में यह कहा था कि मैं
वेदमन्त्रों की माला बना लेता हूं। वेदमन्त्रों
की माला बना लेता हूं
मन्त्र
मन्त्र वह कहलाता है जिससे मन्त्रणा की जाती है ज्ञान है, विज्ञान है ज्ञान और विज्ञान एक वेदमन्त्र में है परन्तु प्रारम्भ में ओ३म् का
उच्चारण करता है तो वह उस वेदमन्त्र का जो ज्ञान और विज्ञान है वह सूत्र में
पिरोया गया है वह मनका बन गया है और ओ३म् रुपी सूत्र बन करके उसे धारण कर रहा है।
इसी प्रकार वह जो मेरा चेतन देव है प्रभु है, माता वसुन्धरा है, वह एक सूत्र बन करके
इस ब्राह्मण्ड का सूत्र बन रहा है। लोक लोकान्तरों का सूत्र बन रहा है प्रत्येक
प्राणी का सूत्र बना हुआ है। उसमें यह ब्राह्मण्ड पिरोया हुआ है।78 92
221
वेद गानम्
महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने अपने ब्रह्मचारियों से
कहा-हे ब्रह्मचारियों! तुम याग करो,जिससे उद्गीत गाने से तुम्हारी स्वर और
ध्वनियां बनी रहें। उन ध्वनियों से ही वायुमण्डल पवित्र बन जाता है। वही ध्वनि
अग्नि की धाराओं पर विद्यमान हो करके द्यौ में समावेश हो जाती है। यह द्यौ में अपने
आकार अपनी स्वाभाविकता को न त्याग करके उसमें मानव रमण कर जाता है। 900814
वेद गानम्
यज्ञमान जितना तपा हुआ होता है। आचार्य जितना वाणी से तपा
हुआ होता है। और यज्ञमान जितना चरित्र से तपा हुआ होता है। और उसकी अन्तरात्मा में
शान्ति से तपा हुआ होता है,उतना ही याग ऊंचा बनता चला जाता है। उतने यागों में एक
महानता होती चली जाती है। उद्गाता जब गान गाता है। मन्त्रों में जितना महान स्वर
होगा। स्वरों के साथ में जितना शुद्ध शब्द होगा। और वह जो शब्द है वह देवताओं का भोज्य
माना गया है। देवता उस शुद्धता से महानता से और हृदय से जो उद्गान होगा,उसको देवता
पान करते हैं उस यज्ञमान का गृह भरणता को प्राप्त हो जाता है,यह तो विज्ञान
है। क्योंकि परमात्मा ने जो वेदों में,जो
वेदमन्त्र में,यज्ञमान का वर्णन आता है,उद्गाता का वर्णन आता है। महान से महान
वर्णन आता है,उसका सम्बन्ध तो मानवीय जीवन से होता है,इसका तो सम्बन्ध तो आत्मा से
होता है। क्योंकि आत्मा के लिए परमपिता परमात्मा ने यज्ञमान ने ब्रह्मा बन करके
संसार रुपी याग का निर्माण किया है। 69 77 008
वेद गान में
सुगन्धि
विवेकी पुरूषों से राष्ट्र ऊँचा बनता है,उसके पश्चात प्रत्येक गृह में याग होना चाहिए जिससे एक दूसरे का कोई भी ऋणी न
रहे,क्योंकि जो राजा ऋणी रहता है या प्रजा ऋणी रहती है, ये दोनो ही राष्ट्र के लिए हितकर नही होते,यह अहित होते हैं। यह प्रियता में नही होते हैं। राम का उपदेश चल रहा था, कि हमारे राष्ट्र में हे राष्ट्रवेत्ताओं! विवेकी पुरूष होने चाहिएं, शङ्ख ध्वनि वाले ब्राह्मण होने चाहिएं, उद्गीत गाने वाले,वह शङ्ख ध्वनि का वेदों का गान गाने वाले हों, वेदों में कोई जटा पाठ का गान कर रहा है, कोई माला पाठ में कोई विसर्ग उदात्त अनुदात्त में परिणित हो रहा है। जो इस
प्रकार का ध्वनिवाद राजा के राष्ट्र में प्रारम्भ होता है,तो राष्ट्र उन्नत कहलाता
है।
उन्होंने कहा-हे राष्ट्रवेत्ताओं! तुम्हारे यहाँ प्रत्येक गृह में सुगन्धि आनी चाहिए, सुगन्धि दो प्रकार की होती है। एक सुगन्धि वह कहलाती है, जो साकल्यमयी सुगन्धि, जिसे अग्नि के
मुख मे प्रदीप्त किया जाता है। एक वह सुगन्धि होती है, जो वेदमन्त्र के ऊपर और उद्गीत रूप में गाता है और विचार विनिमय करता है, वह उसके विचारों की सुगन्धि और साकल्यों की सुगन्धि, दोनों ही वायुमण्डल और राष्ट्र के राष्ट्रीयता को पवित्र बनाने वाली है। 890426
वेद गान
मेरे प्यारे! देखो, उन्होंने उनकी देवी ने कहा हे भगवन! मैं ये जानना चाहती हूँ,इस याग का किससे
समन्वय रहता है?उन्होंने कहा इस याग का उद्गाता से क्योंकि यदि उद्गाता नहीं होगा,तो याग
पूर्ण नहीं होगा क्योंकि वह उद्गीत गाता है,स्वाहा कहता है और वेद मन्त्रों का उद्गीत गाता है तो उससे याग सम्पन्न हो
जाता है उसका जो समन्वय है वे सूर्य से होता है। सूर्य ऊर्ज्वा देता है गान गाता
रहता है वह अतिथि बन करके ही मानो देखो, याग को अध्वर्यु के उद्गाता के रूप में पूर्ण करा देता है। 890703
माता सीता गायत्री
की गोद में।
राम वशिष्ठ मुनि के आश्रम में तपस्या कर रहे हैं, सीता अयोध्या में एकान्त स्थली में, गायत्री माँ की गोद में जा रही हैं। वह अपने में, तपस्या में परिणित हो गई क्योंकि मैंने रावण की बड़ी यातनाएँ सही हैं, मेरा चिन्तन सदैव अशुद्ध, क्षुद्र रहा
हैं,
मैं उसे नष्ट करना चाहती थी। एक दूसरा,
एक दूसरे में सहयोगी बन करके जीवन की धारा की उपलब्धियों
में परिणित हो रहा हैं। विज्ञान आत्मविज्ञान में प्रवेश कर गएं हैं। आत्मविज्ञान
पञ्चतन्मात्राओं में निहित रहता है, पञ्चतन्मात्राओं
में भौतिकवाद है। पञ्चतन्मात्रा का जहाँ समापन हुईं,प्राण का विज्ञान वहीं से शुरु हुआ,वहीं से आध्यात्मिकवाद की धाराओं का जन्म हुआ है। वह आध्यात्मिकवाद में प्रवेश
कर गएं हैं।
हम परमपिता परमात्मा की आराधना करते हुए अपने चित्त के
मण्डल को जानने के लिए सदैव तत्पर रहें और जब तक चित्त के मण्डल को नहीं जाना
जाएगा,चित्त के मण्डल को त्याग करके जैसे जीवात्मा स्थूल शरीर को त्याग देता है, इसी प्रकार चित्त के मण्डल को,चित्त के
सूक्ष्म शरीर को त्याग करके कारण शरीर में प्रवेश हो जाता हैं। कारण शरीर में प्राण और मन दोनों
एक दूसरे में समावेश हो जाते हैं और वह आत्मा उसमें साम्यता में स्थिर हो
जाता है। प्रभु का आनन्द उसे प्रतीत होने लगता है। 851029
माता गायत्री
हे माता गायत्री! हम तेरे द्वारा पर आ पहुंचे हैं,तू अपने महान पुत्रों की,अपने कण्ठ से अग्रणीय कर,जिससे हे माता! तेरी आनन्दमय, करूणामयी गोद
में विराजमान होकर उस सुख को अनुभव कर सकें। हे माता! तू सुख देने वाली है, पवित्र बनाने वाली है, तुझे वेदों ने
गायत्री कहा है,
आदि ब्रह्मा ने तुझे पुत्री बनाया है। तू संसार की माता और
ब्रह्मा को पुत्री कहलाती है, हम तेरी गोद
में आना चाहते हैं, जिसमें धारण होकर,हे
माता! हम हृदय पवित्र बना सकें। तू वास्तव मे गायत्री है,तेरी तीन प्रकार की व्याहृतियां हैं,
माता गार्गी अग्रिणा नहीं,
परन्तु अनसूईया और अत्रि मुनि दोनों का एक वचनबद्ध है कि
दोनों प्रातः काल में विराजमान हो करके,इस गायत्री का अनुकरण किया करते थे, जिस गायत्री से यह संसार रचता है,ऊर्ध्व गति में प्राप्त होता है और जिसमें यह लुप्त हो जाता है। परन्तु प्रश्न
उत्पन्न होता है कि क्या किसी विशेष मन्त्र को गायत्री कहा जाता है?
जितने वेदमन्त्र है, वेद मन्त्रों में पवित्र छंद,ओ३म् को
व्याहृतियों से बद्ध जो मन्त्र हैं, उन सब ही का
नाम गायत्री है,
क्योंकि हम गायत्री में रमण करते हैं और जिस गायत्री में यह
संसार समाहित हो जाता है। 641018
वेदगान से आत्मा की
प्रसन्नता
हम कुछ वेद मन्त्रों का गान गा रहे थे,आज हमारा वेद पाठ बड़ा सुन्दर और मधुर था, ऐसा प्रतीत होता है जैसे परमपिता परमात्मा हमें आज कोई वस्तु प्रदान कर रहे
हों,
मेरे प्यारे महानन्द जी यह कहा करते हैं, कि वेद के मन्त्रों के गाने में यह आत्मा प्रसन्न क्यों हो जाता है? मुनिवरों! मेरे आदि ऋषियों ने उत्तरदायी बनते हुए ऐसा कहा है कि वेद वाणी
हमारे यहाँ ईश्वरीय वाणी मानी जाती है, आत्मा परमात्मा का सम्बन्ध ऐसा है,जैसे पिता और पुत्र का होता है, जैसे माता और
पुत्र का होता है, जब पुत्र अपने माता
पिता से प्रसन्न होता है, तो अपने माता
पिता का गुणगान,
उनकी प्रसन्नता और उनकी महिमा का गुण गाने लगता है, उसका हृदय पवित्र हो जाता है और मग्न होने लगता है, इसी प्रकार हे मेरे प्यारे ऋषि मण्डल! आज परमात्मा की महिमा का गुणगान गाया जा
रहा था और यह आत्मा अपने परमपिता परमात्मा का गुणगान गाता हुआ प्रसन्न होने जा रहा
था,
अपने प्रभु की प्रशंसा करता हुआ, अपने पिता की महिमा का गुणगान गाता हुआ और हृदय में तरंगें उत्पन्न कर, यह आत्मा अपने प्रभु को ऊँचे स्वरों से पुकारता चला जा रहा था। 640417
वेद का पठन पाठन
भगवान राम ने और लक्ष्मण दोनों ने एक स्वर में कहा कि हमारी
इच्छा ये है भरत! कि तुम्हीं इस राष्ट्र का पालन करो। समाज को कर्तव्य में लाना है, ये कार्य तुम
स्वतः ही करो। परन्तु हम तो तुम्हारी सेवा कर सकते हैं,राष्ट्र के प्राणियों की सेवा कर सकते हैं। भरत जी ने कहा नहीं, भगवन्! ये मेरा कार्य नहीं है क्योंकि मैं तो आपका सेवक हूँ। मैंने जो ये तेरह वर्षों का राष्ट्र
का पालन किया है। मैंने केवल आपका दायित्व किया है, आपके चरणों की वंदना की है।
मैंने गायत्राणी छंदों का पठन पाठन किया है। और तप किया है। प्रभु! से ये
प्रार्थना करता रहता था,कि राम जब तक आए, प्रजा में अनुशासन बना रहे। वेद के पठन पाठन करने वाले ब्राह्मण गृह-गृह में
पुरोहितपने का कार्य करते रहें। जिससे अयोध्या का राष्ट्र उसकी सुरक्षा हो सके।
मैं तो ये प्रार्थना प्रभु से करता रहा हूँ, मैं तो आपके चरणों की वंदना करता रहा हूँ। आपकी पादूका राजस्थली पर विद्यमान
है। मैं इस राष्ट्र का अधिकारी नहीं हूँ। 761019
वेद का पठन पाठन
याग भी पूर्ण हो गया। याग के पूर्ण हो जाने के पश्चात सरयू नदी के तट पर चले गएं और तट पर एक सुन्दर आसन पर गायत्री का उपवास करने
लगे। उन्होंने भरत जी से ये कहा कि हे, भरत! अब मैं उपवास करूँगा,क्योंकि मैंने इस संसार का भ्रमण किया है। मैं
तपस्वी रहा हूँ। मेरा तप में ही जीवन रहने दीजिए भरत! अब मैं तपस्या करूँगा, मैं गायत्राणी छन्दों का उपवास करना चाहता हूँ। मुझे वो काल स्मरण आता रहता
हूँ। राम ने कहा था हे भरत! पूज्य महर्षि विश्वामित्र गायत्राणी छन्दों का पठन
पाठन करते थे,जब उन्होंने किसी काल में हमारे द्वारा धनुर्याग को पूर्ण कराया
था,तो धनुर्याग को पूर्ण कराते थे,तो हम ये दृष्टिपात करते थे,कि वे उनको रात दिवस
निंद्रा भी नहीं आती थी, वे गायत्राणी छन्दों में लगे रहते थे। गायत्राणी गान गाते रहते थे। एक समय हमें यह कहा गया, जब हम याग को पूर्ण कराने लगे कि हे ब्रह्मचारियों! तुम विश्राम गृह में
विश्राम करो।761020
वेद गान
राजा अपने राष्ट्र को,महान बनाना चाहता है,तो उसके
राष्ट्र में,
प्रत्येक गृह में याग होना चाहिए।प्रत्येक गृह में सुगन्ध
होनी चाहिए,परन्तु
साकल्य की सुगन्धि अपना महत्वदायक है,इतना इससे कहीं महत्वदायक यह शब्द और वेद मन्त्रों की,शब्दों पर तरंगों से
तरंगित हो करके जब शब्द और क्रियाकलाप जाता है वह द्यौ प्रवेश कर जाता है,वह वायुमण्डल का शोधन करता चला जाता है,वह मानवीयतव को ऊंचा बनाता चला जाता है। इसलिए हमारे ऋषि मुनियों ने एक एक ही
वाक उद्धृत किया,इस सम्बन्ध में,कि प्रत्येक वेदमन्त्र देवताओं से सम्बन्धित रहता है।देवता जन उसका प्रतिनिधि है।
जब वह याग करता है तो उस शब्दों के साथ में,उन देवताओं की आभा को ले करके द्यौ में प्रवेश कर जाता है। यह हमारे पूर्वजों
का और ऋषि मुनियों का एक मन्तव्य वह वृत्तियों में माना गया है। परन्तु अपने में
अपनेपन का भान तो पूज्यपाद गुरुदेव प्रगट कराते रहते है। 890817
वेद गान ओ३म् रुपी
सूत्र
हम पूर्व से, जिन
वेदमन्त्रों का पठन पाठन किया,हमारे यहाँ
नित्य प्रति कुछ पठन पाठन की पद्धतियों का वर्णन आता रहता है। जब हम विचार विनिमय
में करने लगते है,कि पद्धतियों का अभिप्राय क्या है? पद्धति उसे कहा जाता है, जिसकी प्रतिभा
में वृद्धपन नहीं आता। उसमें सदैव नवीनता रहती है, हमारे यहाँ वेद की,जो सुन्दर
सुन्दर पद्धतियाँ है,जैसे नाना प्रकार के
स्वरों में,नाना प्रकार के जो स्वर है,उनमें जो
उद्गार,जो उद्गम हैं, वह नाना प्रकार के
कहलाए गएं है। जैसे जटा पाठ, घन पाठ, माला पाठ,
विसर्ग पाठ और उदात्त अनुदात्त, हमारे यहाँ नाना और भी नाना प्रकार के वेदमन्त्रों का पठन पाठन किया जाता है।
जैसे माला पाठ है, हमारे यहाँ बेटा!
भिन्न भिन्न प्रकार के विचार विनिमय चलते रहते है।
माला पाठ
एक समय महर्षि भृगु आश्रम में, महर्षि लोमश, सोमकेतु शौनक इत्यादि
ऋषियों का आगमन हुआ। परन्तु महर्षि भृगु जी से प्रश्न किया गया, कि महाराज! हम माला पाठ को जानना चाहते है, माला पाठ किसे कहा जाता है? महर्षि भृगु जी
ने इसके ऊपर अनुसन्धान नहीं किया था। उन्होंने कहा कि महाराज! यह जो आश्रम हमें
निकट प्रतीत हो रहा है,दृष्टिपात आ
रहा है,यहाँ महर्षि पिप्लाद जी रहते है,उनके द्वारा चलते है, और उनसे प्रश्न
करेंगे। ऋषिवर और भृगु जी का, सभी ऋषियों का प्रस्थान हुआ,भ्रमण करते हुए जब पिप्पलाद आश्रम में पंहुचे। तो महर्षि पिप्पलाद जी ने कहा
क्या,
महाराज! मैं इसको नहीं जानता हूँ,मैं भी इसके ऊपर अभी अनुसन्धान कर रहा हूँ,और अभी मेरा अनुसन्धान प्रारम्भ है। क्योंकि मैंने प्रारम्भ में ही इसका
विवेचन कर दिया,
तो भगवन! उसमें किसी प्रकार का यदि दोषारोपण हो गया, तो प्रभु! मेरा मस्तिष्क नीचे गिर जाएगा। तो ऋषि ने यह वाक् कहा, तो उन्होंने महर्षि पिप्पलाद मुनि ने कहा, यह जो आश्रम हमें आगे प्रतीत हो रहा है, यह अगला आश्रम महर्षि पापडी मुनि महाराज का है। चलो, इसके द्वारा हमारा आगमन होगा और वह हमारे प्रश्नों का यथाशक्ति उत्तर देंगे।
तो वे भ्रमण करते हुए,ऋषियों का आगमन, महर्षि पापड़ी मुनि महाराज के द्वारा हुआ, तो तुम यह प्रश्न करोंगे, महर्षि पापड़ी मुनि कौन थे, वह महर्षि
आदित्य मुनि महाराज के सत्रहवें प्रपौत्र कहलाते थे, परन्तु जब महर्षि पापड़ी मुनि महाराज के द्वार पर पहुँचे, तो ऋषियों का जब आगमन दृष्टिपात किया, तो ऋषि का हृदय गद् गद् हो गया। उस समय उसने वेदमन्त्रों के उन विचारों में
देखो,
मन मग्न हो रहे थे। उनको वह नित्य प्रति अनुसन्धान, विचार धाराएं प्रारम्भ रहती थी। जब उनके द्वारा, ऋषि वरूण का आगमन हुआ, तो ऋषि मुनियों
ने उन्हें नतमस्तिष्क हो करके प्रणाम किया और प्रणाम करके ऋषियों ने कहा कि
महाराज! हम तो आपके समक्ष इसलिए आए है, कि माला पाठ किसे कहते है, हम माला पाठ को
जानना चाहते है?
ऋषि ने कहा बहुत सुन्दर आईए भगवन! पधारिए।
माला पाठ
वह सब बड़े आनन्द पूर्वक ऋषि मुनि सब विराजमान हो गएं,विराजमान हो जाने के पश्चात,उन्होंने कहा
कि महाराज! अब आप प्रश्न कीजिए,क्या प्रश्न था? ऋषि ने कहा कि महाराज! हम यह जानना चाहते है कि माला पाठ किसे कहते है? तो ऋषि ने कहा कि मैंने जो जाना है,उसी को निर्णय कर सकता हूँ। महर्षि शौनक जी ने कहा प्रभु! हम तो वही जानने आए
है,जो आप जानते हैं। उन्होंने कहा कि माला पाठ किसे कहते है? वेद को तुम जानते ही हो,परन्तु वेद में
जो नाना प्रकार के मन्त्र है,मन्त्रों में
भी जो शब्द है,
जो ऋचाएं है,उनको भी जानते
हो,श्रवण भी किया है। ऋषि ने कहा कि महाराज! अवश्य किया है। तो ऋषि ने उत्तर दिया
कि हम माला पाठ उसे कहा करते है,माला कहते है
धागे में,जो मनके पिरोए हुए होते है। जब धागे में मनके पिरोएं जाते है,तो वह मनके और धागे दोनों एक सूत्र में आ जाने का नाम माला कहलाई जाती है। इसी
प्रकार यह जो परमात्मा का जो ब्रह्माण्ड है,जो दृष्टिपात आ रहा है और यह जो वेदों का ज्ञान है,वेदों की जितनी ऋचाएं है,वह ओ३म् रूपी
धागे से पिरोई हुई रहती है। यह जो वेद रूपी ऋचाएं है,यह एक प्रकार के मनके है,और ओ३म् रूपी
धागे में पिरोई हुई हैं, इसीलिए हमारे
यहाँ वेद के प्रारम्भ में,वेद के मन्त्र
को जब उच्चारण करते हैं,तो आचार्यजन
ओ३म् का उच्चारण किया करते है। ओ३म् का उच्चारण क्यों किया करते है?क्योंकि वेद की ऋचाएं,जो ऋचाओं का हमने पठन पाठन किया,परन्तु उच्चारण किया स्वरों सहित, और उसमें सबसे प्रारम्भ ओ३म् को उच्चारण करते,क्योंकि ओ३म् रूपी धागा बना करके और वेदमन्त्र में जो ज्ञान और विज्ञान है,वह उस ओ३म् रूपी धागे से पिरोया हुआ है जितना भी ज्ञान विज्ञान है अथवा वह
भौतिक विज्ञान हो अथवा वह आध्यात्मिक विज्ञान हो परन्तु ओ३म् रूपी धागे से वह
पिरोया हुआ होता है। तो ऋषि कहते है हे ऋषिवरों! इसीलिए मैंने तो यह जाना है, क्या यह जितना जगत है, जितना
ब्रह्माण्ड है जितना इसमें प्राणीमात्र है,ये सब मानो ओ३म् रूपी धागे से पिरोया हुआ है। यह एक प्रकार का जो ब्रह्माण्ड
है,यह माला के रूप में परणित हो रहा है,और इसमें ओ३म् रूपी जो धागा है,वह पिरोया हुआ
है,इसलिए इसको हमारे यहाँ माला पाठ कहा जाता है।
तो ऋषिवरों की सन्तुष्टि हो रही थी,उन्होंने कहा कि महाराज! प्रतीत तो ऐसा ही होता है, कि माला पाठ, इसी को कहा जाएगा।
परन्तु इसका अभिप्राय अब ऋषि जी कहते है,शौनक जी ने कहा कि महाराज! क्या हम एक ही पाठ को,हम माला पाठ कहते है क्योंकि जैसे हमारे मधु पाठ है,और आरण्य पाठ है,कृतिकि पाठ है, और जैसे जटा पाठ और घन पाठ है,परन्तु इनमें
भी ओ३म् का उच्चारण किया जाता है। तो ऋषि कहते है कि माला पाठ का अभिप्राय यह है, कि जैसे माला को रचन्त किया जाता है,माला को कृतियों में किया जाता है,उसकी प्रतिभा को जाना जाता है,उसी प्रकार जब
हम जटा पाठ की भांति, जड़ को जान लेते है।
तो उनमें उच्चारण करने में भेदन हो जाता है। तो भेदन होने के नाते उसको माला पाठ
कहा जाता है। क्योंकि माला पाठ को हम भेदन के कारण,करने लगते हैं,किसी विशेष पठन पाठन
की जो प्रक्रियाएं है,उनमें नाना प्रकार के
भेदन है,उन भेदनों को,हमने भिन्न-भिन्न
रूपों से उनका निरूपण किया है। इसलिए एक को विशेष नहीं कहा जा सकता है।
तो महर्षि भृगुजी ने कहा-अरे, भोले ऋषिवरों! क्या तुम्हारी सन्तुष्टि हुई? तो उन्होंने कहा कि महाराज! इसके ऊपर तो हम विचार विनिमय करेंगे। परन्तु यहाँ
नहीं करेंगे,
तो हम अपने आश्रमों में जा करके,विचार विनिमय करेंगे।अनुसन्धान करेंगे,हम उनकी वार्ताओं को,श्रवण कर लिया
है,और आत्मा ने उसको ग्रहण कर लिया है। परन्तु उससे हमारी कुछ सन्तुष्टि हुई है।
तो वह वेद के ऊपर महा अनुसन्धान करते है, और अपनी प्रवृत्तियों पर अनुसन्धान करना है, यही नही कि वेद के अक्षरों पर हमे अनुसन्धान करना है,जो वेद की हमें प्रतिभा आज्ञा दे रही है,उसे हम अपने हृदय में,अपनी मानवता
में,अपनी अन्तरात्मा में धारण करना है,और उसके ऊपर हमें अपने जीवन को अग्रणीय बनाना है। तो ऋषिवर! उसी काल में हम
वेद के विशेषज्ञ बन सकते है,हमारे यहाँ ऋषि
मुनियों ने तो ऐसा कहा है,कि आज वेद के अक्षरों को जानने वाला, ब्राह्मण नहीं कहलाता है। जो अक्षरों के जानने वाला होता है,वह तो एक प्रकार की रटन्त विद्या है। परन्तु जो मानव उसके ऊपर अपने जीवन को
धारण करता है,और उस मार्ग का पथिक बन जाता है,वह मानव वेद का पथिक कहलाया जाता है।
हम परमपिता परमात्मा की उपासना करते हुए,परमपिता परमात्मा की प्रतिभा को जानते हुए,हम अपने जीवन को वास्तव में अग्रणीय बनाएं,और महान से महान बनाने का प्रयास करें,क्योंकि आत्मा का ज्ञान ही हमारा ज्ञान है,आत्मा के प्रकाश से ही,मानव प्रकाशित
होता है,आत्मा की ही ज्योति से मानव क्रियाशील हो रहे है। उसी में चेतनित हो रहा है, हमें उस चेतनित को,उस चेतना को
जानना है,जिस चेतना के आधार पर यह सर्वत्र ब्रह्माण्ड क्रियाशील हो रहा है।
तो वेद वाक्,नाना प्रकार की उसकी प्रक्रियाएं,और नाना प्रकार की पद्धतियाँ होती है। जिनके जटा पाठ,घन पाठ,
माला पाठ,विसर्ग पाठ,उदात्त,अनुदात्त,नाना प्रकार के वेदमन्त्रों का पठन पाठन नाना प्रकार से किया जाता है, आज हम उस पद्धतियों को अपनाने का प्रयास करें, पद्धति उसे कहा जाता है। जिस पद्धति में वृद्धपन नहीं आता। सदैव नवीनत्व रहता
है,
इसलिए वेद का जो ज्ञान है,पवित्र ज्ञान है, वह किसी भी काल में
उसमें वृद्धपन नहीं आता, सदैव नवीनवाद
रहता है,
नवीनता रहती है। इसमें सदैव पवित्रवाद ही वाद रहता है।
उसमें घृणा नहीं होती है,उसमें उल्लास हुआ करता है। तो हम वास्तविक पद्धति को
अपनाने का प्रयास करें।690901
वेदमन्त्रों का
उद्गीथ
सविता देवता
एक सविता नही है,प्रत्येक वेदमन्त्र किसी ना किसी देवता का सूचक माना गया है। और उस वेदमन्त्र
का देवता से सम्बन्ध रहता है,वे जो देवता है
वो हमारे अन्तर्हृदयों में और बाह्य जगत वो देवता वास कर रहे हैं। जिन देवताओं के
द्वारा ये जगत अपने में क्रियाशील बन रहा है, अथवा क्रीड़ा कर रहा है, हमारे यहां
जितने भी देवतव माने जाते हैं। चाहे वह सविता के रुप में हों, चाहे वह इन्द्र व ब्रह्म के रुप में हों, चाहे वे शिव और विष्णु की प्रतिभा में रत्त करने वाले हों। उन सबका जो समन्वय
रहता है,
वह याग से रहता है। कहीं कहीं मृत्यु का देवता यमराज के
सूक्त भी हमारे वैदिक साहित्य में आते रहे हैं। तो कहीं ऐसे वेदमन्त्र हैं,जो मृत्यु से विजय होने के भी मन्त्रार्थों का उदगीत गाया जाता है। तो उनका
समन्वय सब याग से रहता है।911215
सविता के मन्त्रों
का गान
ब्रह्मचारी कवन्धि ने कहा प्रभु! ये सविता कौन है? उन्होंने कहा सविता,जो गाई जाती है, उसी का नाम सविता है। ब्रह्मचारी ने कहा प्रभु! कौन गाता है? उन्होंने कहा गाता वह है,जो प्राण और मन दोनों का समन्वय करना जानता है।
उन्होंने कहा ऐसा कौन है,जो इनका दोनों
का समन्वय करना जानता है भगवन! उन्होंने कहा ऐसा वो है,जो गान विद्या को जानता है जो गाता रहता है, जो जटा पाठ को जानता है, वो घन पाठ, माला पाठ और भी नाना पठन पाठन की पद्धतियों को जानता है, वे गान विद्या में प्रवीण होता है,उन्होंने कहा प्रभु! ऐसा गान गाने वाला कौन हुआ है? जिस गान की इतनी उज्ज्वल महिमा रही है। तो महर्षि भारद्वाज मुनि ने कहा, क्या श्रवण करो। क्या शान्त हो जाओ,उन्होंने सविता देव के पठन पाठन,सविता देव के कुछ सूक्तों का उन्होंने पठन पाठन किया। और जब वह गान गाने लगे,जटा
पाठ और माला पाठ उन दोनों की पुट लगाई, तो उनके आश्रम के निकटतम पक्षीगण अपने में वार्ता प्रगट करते हुए सब मौन हो गए,और मौन हो करके आचार्य ने कहा हे ब्रह्मचारी! ये दृष्टिपात करो, ये ब्रह्म सूक्त का पठन पाठन करते ही सविता देव की महिमा का बखान करते ही और ये पक्षीगण मौन हो गए हैं, और इनके श्रोत्र, स्पष्टीकरण कर गए हैं, क्या,ये सविता
देव की कहीं से उपासना की जा रही है,तो इस प्रकार
ये अपने में शान्त हो गए।
जैसे सविता देव का गान हो रहा था,गान गाते जब आचार्य ने ये गान विद्या में प्राण और अपान को दोनों को एक सूत्र
में लाने का प्रयास किया, और मन को उसमें
गुंठित कर दिया। जब मन की उसमें पुट लगा दी, तो ये मन
सविता देव ने उस सविता देव की महिमा से आचार्य ने अपने
आश्रम के निकटतम, जितने भी जलचर हिंसक
प्राणी थे,
उसके मन को भी उन्होंने विजय कर लिया, और विजय करते हुए यही विजय है ये गान विद्या ही ये हृदय के उद्गार हैं, हृदय से जब उद्गार दिए जाते हैं, मन,
मस्तिष्क को एकाग्र करते हुए प्राण की उसमें जब पुट लगती
है। तो हिंसक अपने में हिंसक नही रहता। वे देवतव को धारण कर लेता है, और देवता बना करके उसे भी देवता बना देता है।911215
सविता के मन्त्रों
के अष्ट मन्त्रों का पठन पाठन
जब इस प्रकार के याग पुनः से प्रारम्भ होंगे। जैसे पारायण
यागों का चलन है, इसी प्रकार सविता देव
का भी चलन हो जाएगा,यह पठन पाठन की
पद्धतियों में जब निंद्रा से जागरूक यज्ञमान हो, तो इस प्रकार के अष्ट मन्त्रों का अपने में ध्यानावस्थित हो जाना चाहिए। वह सविता
याग कहलाता है। उसी के द्वारा वह अग्नि को प्रचण्ड करता है, और अग्नि में ध्यान करता है। प्रज्ञा और उनका सबका संगठन होता है, तो ये चित्त के मण्डल में बुद्धि, मेधा,ऋतम्भरा प्रज्ञां भूतंम ब्रह्मे ब्रणामः, मन बुद्धि चित्त में प्रवेश हो जाती है। चित्त में ही हृदय रहता है और चित्त
मण्डल में जन्म जन्मान्तरों के अङ्कुर संस्कार विद्यमान होते है,उसी को हमारे यहाँ
चित्त मण्डल कहते हैं और चित्त मण्डल के साथ में ही प्रकाश उसके ऊर्ध्वा भाग में
वह उसका सविता बनकर विद्यमान रहता है| तो ये जो आन्तरिक जगत है,यह बड़ा विचित्र जगत है,तो यह मन,बुद्धि,चित्त,अहङ्कार यह आन्तरिक जगत माना गया
है और इन सबमें एक दूसरे को सविता का अवधान हो रहा है,एक दूसरे में सविता का उसमें
समन्वय हो करके ही मानव चेतना में प्रवेश हो जाता है।
हे सवितां भूतं ब्रह्माः सविते तत्त्वाः हे सविता! तू मेरे अन्तर्हृदय
को ऊंचा बना। हे सविता देव! मैं हृदय से कोई भी ऐसा क्रियाकलाप नहीं करूं,जिससे मैं चित्त के मण्डल में,अपने संस्कारों
को उद्बुद्ध करने वाला बनूं। संस्कार को मैं चित्त मण्डल में देना नही चाहता हूँ,क्योंकि उससे मेरी जन्म जन्मान्तरों की भूमिका बनती है और जन्म जन्मान्तर ही
एक संस्कारों का समूह है और वह संस्कार ही मुझे भोगतव्य में ले जाते हैं। मैं उन
संस्कारों को नहीं चाहता हूँ। तो इस प्रकार यज्ञमान अपने पुरोहित से कहता है और
वेद सविता को लेकर के वह वेद के मन्त्रों का अवधान करता है। और इसीलिए आठ वसु कहलाते
हैं। आठ वसु जो चित्त मण्डल में प्रवेश कर जाते हैं, इसलिए उसमें सविता देव में अष्ट मन्त्रों का प्रतिपादन किया जाता है। अष्ट
मन्त्रों को लेकर के ही वह पुरोहित ब्रह्म व्रर्णः सुतम् उनका आवधान करके उनका
संगठन बना देता है। और अष्टों का संगठन बना करके इसलिए कि मैं, अष्टम ब्रहे आठ वसु में न प्रवेश होऊं, क्योंकि वसु कहते हैं जहाँ मैं वास करूंगा, तो मेरे चित्त का मणडल चित्त में संस्कार बनेंगे। संस्कार बनेंगे तो मैं प्रकृति
के भावावेश में पुनः से पुनरूक्ति जीवन को प्राप्त करता रहूँगा। और पुनरूक्ति के
शरीर को मुझे त्यागना होगा। तो इस प्रकार वह सविता देव मोक्ष के क्षेत्र के निकट
ले जाता रहता है।911216
वेद गान
सविता देव का उन्होंने उपदेश दिया। उन्हे ब्रह्मचारी कवन्धि ने
कहा प्रभु! ये सविता कौन है? उन्होंने कहा-सविता जो गाई
जाती है, उसी का नाम सविता है। ब्रह्मचारी ने कहा-प्रभु!
कौन गाता है? उन्होंने कहा गाता वह है जो प्राण और
मन दोनों का समन्वय करना जानता है। उन्होंने कहा ऐसा कौन है,जो इनका दोनों का समन्वय करना जानता है भगवन!
उन्होंने कहा ऐसा वो है, जो गान विद्या को जानता है।
मानो जो गाता रहता है, जो जटा पाठ को जानता है, वो घन पाठ, माला पाठ और भी नाना पठन पाठन की पद्धतियों को जानता है, वे गान विद्या में प्रवीण होता है, उन्होंने कहा प्रभु!
ऐसा गान गाने वाला कौन हुआ है? जिस गान की
इतनी उज्जवल महिमा रही है। तो महर्षि भारद्वाज मुनि ने कहा, क्या श्रवण करो। क्या शान्त हो जाओ उन्होंने सविता देव के पठन पाठन, सविता देव के कुछ सूक्तों का उन्होंने पठन पाठन किया। और जब वह गाने लगे जटा
पाठ और माला पाठ उन दोनों की पुट लगाई, तो उनके आश्रम के निकटतम पक्षीगण अपने में वार्ता प्रगट करते सब मौन हो गए, और मौन हो करके आचार्य ने कहा हे ब्रह्मचारी! ये दृष्टिपात करो ये ब्रह्म
सूक्त का पठन पाठन करते ही सविता देव की महिमा का बखान करते ही और ये पक्षीगण मौन
हो गए हैं,
और इनके श्रोत्र मानो देखो, स्पष्टीकरण कर गए हैं, क्या ये सविता
देव की कहीं से उपासना की जा रही है, तो इस प्रकार देखो, ये अपने में
शान्त हो गए। 911215
सविता के मन्त्रों
का गान
मुझे वह काल स्मरण आता रहता है, राजा नल का एक साहित्य मुझे स्मरण आ रहा है। राजा नल जब अपने पूज्यपाद गुरुदेव
के द्वारा अध्ययन करते थे तो पांच ब्रह्मचारी उनके यहाँ अध्ययन करते थे। इसमें
राजा नल,
समकेतु ऋषि महाराज, ब्रह्मचारी सुकेता, ब्रह्मचारी
श्वेनकेतु और कवन्धि ये सर्वत्र अपने में गान विद्या का अध्ययन करते थे। गान
विद्या जो अपने में गाता है, वही जानता है
कि वह सविता देव को गा रहा है। एक समय राजा नल का जब बाल्यकाल गुरु ने उसे
वेदमन्त्र का उद्गीत गाया, सामगान गा रहा
था। सामगान में उदात्त अनुदात्त से गाया जाता है, जब वह गान गा रहा था, तो कवन्धि ने
कहा,
क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा, मैं गान गा रहा हूँ।
कौन सा गान गा रहे हो? उन्होंने कहा मैं
सविता देव का गान गा रहा हूँ, मैं सविता देव
से अग्नि को प्रदीप्त करना चाहता हूँ।911216
सविता के मन्त्रों
का गान
जब वह गान गाते,तो इस गान का समन्वय सविता का जो समन्वय रहता है। इसका सम्बन्ध अग्नि से।
अग्नि का समन्वय रहता है इन प्राणों से। जब प्राण और अपान दोनों एक सूत्र में
समावेश हो जाते हैं, और जब ये गान गाते
हैं। तो व्यान प्राण की उपलब्धि और व्यान जो प्राण है, वह अग्नि का दूत कहलाता है। जब समान की पुट लगती हैं। तो समान में जब वह गान
गाता है। तो उदान से संस्कारों की उद्बुद्धता हो करके जब वह गान गाता है। तो वही
उद्बुद्धता हो जाती है और वही उद्बुद्धता हो करके जब गान गाता है। उस नगर की नगर
में दीपावाली बन जाती है, दीपक प्रकाश
में आ जाते हैं। वह सविता देव कोई गा रहा है राजा नल ने यह कहा कि मैं उस सविता की
उपासना कर रहा हूँ। उसका गान गा रहा हूँ, जिससे मेरे अन्तरात्मा में जो मेरे हृदय में पंचाग्नि जागरूक हो रही है। उस
पंचाग्नि को मैं और जागरूक करना चाहता हूँ।
तो जब वह गान गाते थे,तो दीपावली बन जाती है। जब वह दीपावली बन जाती है। तो प्रकाश ही प्रकाश हो
जाता है। इसी प्रकार ब्रह्मचारी कवन्धि जब आश्रम में गान गाते थे। कजली वनों में, तो वे भी रात्रि समय आश्रम को प्रकाशमान बना देते। ऐसे ब्रह्मचारी कवन्धि और
ब्रह्मचारी सुकेता भी अपने में गान गाते रहते। तो सविता देव का जो गान गाना जानता
है। वह मन को जानता है, मन को, स्तम्भ बना लेता है। मन को जकड़ देता है, किसी स्तम्भ पर, और वह प्राण के, प्राण रूपी जो रस्सी है उसमें उसको प्राण भरण कर देता है। आगे जो दोनों को ले
करके जिज्ञासु गमन करता है। मन और प्राण को जब एकाग्र बना करके, दोनों को ले करके, गमन करता है, स्तम्भ बना करके तो वह ज्ञान रूपी प्रतिभा में, और प्राण और अपान की पुट लगा करके गान गाना जानते हैं, अग्नि को प्रचण्ड कर देते हैं, अग्नि उसी का
आश्रित बन करके अग्नि, प्रकाश में, वाणी के रूप में प्रगट हो जाती है। ये वाणी ही तो अग्नि है, वाणी ही तो अग्नि का स्वरूप है। जैसे राजा के राष्ट्र में एक अग्नि प्रदीप्त
हो गई है और वह अग्नि शान्त हो जाती है,जल के द्वारा। परन्तु ये जो अग्नि, जो मानव के हृदय की अग्नि है, जब ये प्रचण्ड
हो जाती है यह जल, जब प्राणाग्नि प्रचण्ड
हो जाती है,
यह जल इस अग्नि को शान्त नहीं कर सकता। ये अग्नि इतनी
प्रचण्ड बन जाती है, कि वह अग्नि मानव को
अग्नि स्वतः अपने में भस्म कर देती है। विचार आता है राष्ट्र के राष्ट्र संग्राम
में नष्ट हो जाते हैं। आत्मा का दाह हो जाता है। जब वह अग्नि बड़वानल नाम की अग्नि
क्या एक विश्वसनीय अग्नि कहलाती है, जो हृदयों में
प्रदीप्त हो जाती है। वहीं अग्नि अपने में महानता को प्राप्त होती रही है। आज इसी
अग्नि का व्यवधान करता हुआ, परमाणुओं में
उस अग्नि को ले जाता है। तो एक एक परमाणु में,जब अग्नि प्रदीप्त करता है। वह तो वह उस अग्नि के उस परमाणु में से अग्नि का
एक प्रचण्ड रूप बन जाता है। और वही लोक लोकान्तरों के रूप में परमाणुवाद दृष्टिपात
आने लगता है। वह अग्नि अपने में विचित्र कहलाती है।911216
वेदमन्त्र स्वर
संगम
उस सर्वत्र ब्रह्माण्ड के मूल में प्रायः वह परमपिता
परमात्मा दृष्टिपात आते रहते हैं। तो मानव अपने में गान गा रहा है और नाना प्रकार
का जो गान गाता है,तो उस गान में जो स्वर संगम होता है वह उस परमपिता परमात्मा की
महती है और उसकी महानता का वह स्रोत कहा जाता है। तो जिसके ऊपर मानव परम्परागतों
से ही अपने में प्रायः अनुसन्धान करता रहा है और विचारता रहा है कि वह परमपिता
परमात्मा का जो ज्ञान और विज्ञान है उस ज्ञान और विज्ञान की प्रतिभा में हम सदैव
रत्त हो जाएं।920706
वेदमन्त्र स्वर
संगम
जब हम विद्यालय में
अध्ययन करते थे, साधना करते थे तो पूज्यपाद गुरुदेव उस
समय बोले कि चलो,आज तुम्हें मैं भ्रमण कराऊँ। तो जब भ्रमण करने के लिए पहुँचे,तो
चाक्रार्णी गार्गी सामगान का अध्ययन कर रही थी,जब सामगान का अध्ययन कर रही थी,तो
निर्जन वन में वह गान गा रही है अनुदात्त, उदात्त से और मालापाठ में गान गा रही है परन्तु वह वीरांगना बन रही है।
सर्पराज चरणों की वन्दना कर रहे हैं, सर्पराज उन शब्दों को वैखरी वाणी को अपने में ग्रहण कर रहे हैं, सिंहराज विद्यमान हैं। तो वहाँ शान्त हो करके पूज्यपाद गुरुदेव ने हमें निर्णय
कराया कि हे पुत्रवत! यह वीरांगना के लक्षण हैं। यह वीरांगना है जब प्राणी इन
परमाणुओं की रक्षा करता है तो वह अपने से मुक्त हो जाता है। वह अपने संसार के
अव्ययों से मुक्त हो जाता है,परमात्मा के राष्ट्र में चला जाता है और परमात्मा के
राष्ट्र में किसी का भय नहीं होता, परमात्मा के
राष्ट्र में निर्द्वन्द्व हो जाता है। तो इसी प्रकार यह वीरांगना अपने में
निर्द्वन्द्व हो गई है,इसे किसी का
अवृत नहीं है,यह परमात्मा के आश्रित हो गई है। तो वह वैखरी वाणी में गान गा रही है,स्वर ध्वनियाँ हो रही हैं परन्तु सिंह और मृगराज उन ध्वनियों को श्रवण कर रहे
हैं। तो जब श्रवण कर रहे हैं,तो आनन्दवत छा रहा था, विश्व में लोक की चर्चाएँ होती रहती हैं।
जब सभा विसर्जन हुई,वेद पाठ समाप्त हुआ तो सर्पराज भी अपने आश्रम को चला गया और सिंहराज भी अपने
आश्रम का चला गया। परन्तु जब मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा हे देवी! यह क्या कारण
है,कि सिंहराज अहिंसक प्राणी हैं और तुम्हारे चरणों की वन्दना कर रहे थे? उन्होंने कहा-हाँ प्रभु! यह क्या कारण है? उन्होंने कहा-जब वाणी में अमृत हो जाता है और वाणी में अमृत जब होता है जब
अहिंसा परमोधर्म का पालन करता है, वह उसकी वाणी
में अमृत हो जाता है। जब हिंसा उसके हृदय में ही नहीं रहती,तो वाणी का जब नृत होने
लगता है,वेदमन्त्रों का स्वर आ जाता है। जब वह जटा पाठ में, धन पाठ में गाता है। तो सिंहराज भी चरणों की वन्दना करते रहते हैं। पूज्यपाद
गुरुदेव ने जब हमें यह दृष्टिपात कराया तो हमारा अन्तरात्मा बड़ा प्रसन्न हुआ।920715
स्वर व्यञ्जन से
वेद गायन
मनोहर वेदमन्त्रों का गुणगान गाते चले जा रहे थे। ये भी
तुम्हे प्रतीत हो गया होगा आज हमने पूर्व से जिन वेदमन्त्रों का पठन पाठन किया
हमारे यहां यह पाठ्यक्रम परम्परागतों से ही विचित्रत्व माना गया है, क्योंकि वेदों का पठन पाठन हमारे यहां कई प्रकार से किया जाता है, जैसे जटा पाठ, माला पाठ, विसर्ग पाठ,
उदात्त और अनुदात्त से उनके स्वरों का स्वर व्यञ्जन होता
रहता है और भी नाना प्रकार के वेदमन्त्रों का उद्गीत गाया जाता है जैसे वैखरी
वर्णस्सुताः वर्णिमों में गाया जाता है। वही दीपावली के रागों में परिवर्तित होता
रहा है। और वही गायन हमारे यहां मल्लाहर राग में परिणत होता रहा है| हमारे
यहां वेदों का पठन पाठन नाना प्रकार से गायन रूप में किया जाता है। जैसे माला पाठ
होता है। जैसे माला में माला जब बनती है तो धागे और मनकों का दोनों का एक समन्वय
होता है तो जब मनके और धागे का दोनों का समन्वय होता है तो वह माला कहलाती है। इसी
प्रकार शब्दः हैं और वह शब्द एक सुर में पिरोये जाते हैं और पिरोने से ही वह माला
बन जाती है, जिसको हमारे यहां माला पाठ के सम्बन्ध में,माला पाठ के ही रूप में निरूपण होता रहा है।
हम जब वेदों का गान गाना प्रारम्भ करें तो प्रत्येक
वेदमन्त्र की जो ऋचायें हैं,जो ओ३म् रूपी धागे में पिरोई हुई हैं। अथवा वही उसका
सूत्र बना हुआ है और वह सूत्र में पिरोने से सूत्रित मन वृत्ति मानी जाती है। 920216
व्याकरण से शब्द
विजातीय से सजातीय
इसी वाणी के कारण, शब्द के कारण ही पाण्डितव पाण्डितव को प्राप्त होता रहता है। वह एक एक
वेदमन्त्र को उद्गीत रूप में गाता है और उसको व्याख्या के रूप में वर्णन करता रहता
है। नाना प्रकार के पाण्डितव में रमण करता है,तो वह शब्द के ही कारण पाण्डितव
कहलाता है। एक राजा अपने राज्य सभा से घोषणा कर रहा है परन्तु शब्द के कारण उसका
शब्द मान्य हो जाता है। वह शब्द का प्रकाश है
तो शब्द के प्रकाश से ही ध्वनि पर नाना प्रकार की ध्वनियाँ आ रही हैं। जब साधक इस
ध्वनि के ऊपर विचार विनिमय प्रारम्भ करता है तो अनहद उसमें रमण करता है। जब
व्याकरण का विद्वान, व्याकरणवेत्ता जब
शब्दों को सजातीय बनाता है और विजातीय शब्दों को निष्कासित कर देता है,तो व्याकरण का महान पाण्डितव को
प्राप्त हो जाता है। तो शब्द को अपने में सजातीय बनाया जाता है,विजातीय को नष्ट किया जाता है। तो
इस प्रकार वेद के ऋषि ने कहा कि वह जब कुछ नहीं
होता,तब तुम शब्द के प्रकाश से प्रकाशमान होते हैं। यह शब्द को ऋषि मुनि रात्रि के
काल में जो संघर्षहोता रहता है, परमाणुओं का उसे अपने में ग्रहण करते रहते हैं और जो संघर्ष हमारे यहाँ नाना
प्रकार की ध्वनि लघु मस्तिष्क में होती रहती है,उससे उसका मिलान करते हैं,अनुभव करते हैं तो वह महान साधक कहलाते हैं। तो इस प्रकार ऋषि ने संक्षिप्त से
अपना परिचय दिया और यह कहा कि हमारे यहाँ जो प्रकाश आ रहा है वह शब्द का प्रकाश है
और शब्द ही हमारे नेत्रों का भी नेत्र है,वह प्रकाश के देने वाला है।920706
माता द्वारा गायत्रणी
छन्दों द्वारा अन्न को तपाना
सृष्टि के पिता ने, परमपिता परमात्मा ने सात प्रकार के अन्न को उत्पन्न किया,प्रभु की कैसी अनोखी रचना है,एक ही पौधा है, उस पर दो प्रकार का अन्न है, एक मानव पान कर
रहा है,
एक पशु पान कर रहा है, पशु पान कर रहा है, तो दुग्ध आहार करा
रहा है,
पय दे रहा है, और मानव पान कर रहा है, तो ओज और तेज
की उत्पति कर रहा है, एक अन्न को मेरी
प्यारी माता भोजनालय में तपा रही है। और उसे ऊर्ध्वा गति को प्राप्त हो रहा है, गायत्राणी छन्दों का पठन पाठन करते हुए, मेरी माता अपने पुत्रों को भोज करा रही है, वह ज्ञान में अपनी, तरंगों से
ज्ञान दे करती हुई वेदमन्त्रों का उद्घोष करती हुई, पुत्र को महान बनाना चाहती है, गृह को पवित्र
बनाना चाहती है,उसी अन्न के द्वारा और वही अन्न पय देने वाला गो नाम का पशु है। जिससे सृष्टि
का नृत्त होता रहता है, नृतियों में
नृत्त करने वाला,अपने में नृत्त करता
रहता है। तो एक ही पौधा है। 891022
साम की शाखा
हे यज्ञमान! मेरा अन्तरात्मा तेरे अन्तर्हृदय से समन्वय
करने वाला है। हे यज्ञमान! मेरा अन्तर्हृदय प्रायः तेरे आंगन में सदैव गति करता
रहता है। हे यज्ञमान! तेरे जीवन का प्रायः सौभाग्य अखण्ड बना रहे। परन्तु जिस
स्थली पर याग सम्पन्न हुआ है अथवा यह साम गान के द्वारा याग परिणित हो रहा था।
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने मुझे कई काल में, यह वर्णन कराते हुए कहा था, कुछ ऋषियों के
द्वारा,इसी सामगान के द्वारा कुछ शाखाओं का निकास हुआ था। आचार्यों ने इसी सामगान को
ले करके और इसी के माध्यम से, उन्होंने नाना
प्रकार की शाखा,
पोथियों का निर्माण किया है। और शाखा, पोथियों का निर्माण करते हुए उन्होंने यह जान लिया कि यह जो तुम उद्गीत गाते
हो अभ्य कृति है। यह सब परमपिता परमात्मा का अनूठा जगत है, और परमात्मा के अनूठे जगत में अपनी आभा में सदैव निहित रहना चाहिए।861217
गायत्री माता
हे माता गायत्री! हम तेरे द्वारा पर आ पहुंचे हैं, तू अपने महान पुत्रों को अपने कण्ठ से अग्रणीय कर,जिससे हे माता! तेरी आनन्दमय, करूणामय गोद
में विराजमान होकर उस सुख को अनुभव कर सकें। हे माता! तू सुख देने वाली है,पवित्र बनाने वाली है, तुझे वेदों ने
गायत्री कहा है,
आदि ब्रह्मा ने तुझे पुत्री बनाया है। तू संसार की माता और
ब्रह्मा को पुत्री कहलाती है, हम तेरी गोद
में आना चाहते हैं, जिसमें धारण होकर हे
माता! हम हृदय पवित्र बना सकें। तू वास्तव मे गायत्री है, तेरी तीन प्रकार की व्याहृतियां हैं,
अहा! माता गार्गी अग्रिणा, नहीं,
परन्तु अनसूईया और अत्रि मुनि दोनों का एक वचनबद्ध है कि
दोनों प्रातः काल में विराजमान हो करके, इस गायत्री का अनुकरण किया करते थे,जिस गायत्री से यह संसार रचता है,ऊर्ध्व गति में प्राप्त होता है और जिसमें यह लुप्त हो जाता है। परन्तु प्रश्न
उत्पन्न होता है कि कि किसी विशेष मन्त्र को गायत्री कहा जाता है?
नहीं! जितने वेदमन्त्र है,वेद मन्त्रों में पवित्र छंद,ओ३म् को
व्याहृतियों से बद्ध जो मन्त्र हैं,उन सब ही का
नाम गायत्री है,क्योंकि हम गायत्री में रमण करते हैं और जिस गायत्री में यह संसार समाहित हो
जाता है। जब हम ब्रह्मा के कमण्डलु के द्वारा जाते हैं,तो वह कितना पवित्र है,जिसमें
गंगा अवतरण आती है,जिस गंगा में स्नान
करके,
मानव भावुकता से परिपक्व होता है।
मुझे आचार्यों का एक वचनबद्ध प्राप्त होता है और वह यह होता
है कि सृष्टि के आदि में जब यह संसार रचा, तो यह गंगा ब्रह्मा के कमण्डलु में विराजमान थी। जब यहाँ संसार को तरणतारन
करने वाले आदि आचार्यों ने शिव की याचना और आराधना की। और आराधना करते हुए शिव की
भावुकता ब्रह्म लोक के द्वारा जा पहुंची, जहाँ ब्रह्मा के द्वारा यह गंगा कमण्डलु वाली गंगा हमें अर्पित कर दीजिए । आज
यह संसार इसके स्नान का इच्छुक है, जिस स्नान से
हृदय पवित्र हो सकता है, आत्मा पवित्र
हो सकता है,
मन पवित्र हो सकता है, अपने ब्रह्मचर्यत्व को प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु ब्रह्मा ने कहा कि यह मेरी
सुन्दर पुत्री है,मैं इस गंगा को इस प्रकार अर्पित नहीं कर सकता।
जब सभी देवताओं ने याचना की,तो उस समय ब्रह्मा के कमण्डलु
से यह गंगा अर्पित हो गई और संसार सागर में आ गई और इसको पवित्र बनाती रही। अपना
कण-कण संसार में अर्पित करती रही, मानव के हृदयों
को पवित्र बनाती रही,तो यह वह अमृत प्रभात है,जब परमपिता परमात्मा ने इस अमृत वेला
को अर्पित किया।841018
वेद की माला
वेदमन्त्रों के पठन
पाठन की हमारे यहां, परम्परागतों से ही, परम्परा है, सृष्टि के प्रारम्भ से यह मानवीय मस्तिष्कों में और ऋषि मुनियों की उदारता में, यह सदैव निहित रही है, क्योंकि हमारे
यहां जो वेद का पठन पाठन होता है, उसके नाना
प्रकार माने गएं हैं, जैसे हमारे यहां जटा
पाठ,
घन पाठ, माला पाठ, विसर्ग और उदात्त और अनुदात्त में हम वेदों की पठन पाठन के प्रतिक्रियाएं, प्रायः मानव के हृदयों में निहित रही है। तो वह अपना गान गाते रहते हैं,माला पाठ उसे कहा जाता है,एक शब्द दूसरे में जो समाहित हो जाएं,इस प्रकार यह जो नाना प्रकार के जो मनकें हैं,और यह एक सूत्र में पिरो दिए जाते हैं,तो यह माला बन जाती है,इसी प्रकार जैसे
मानव अपने शब्दों की झड़ियां लगा रहा है,और वह शब्द पर शब्द अपने में पिरोए जा रहे हैं तो वह भी एक प्रकार माला कहलाती
है हमारे यहां माला के बहुत से स्वरूप माने गएं हैं,एक मण्डल है,और उस मण्डल के जो
अन्तर्गत नाना मण्डल कहलाते हैं,तो उसको एक
मण्डल अपने में धारण करने लगता है,तो एक माला बन
जाती है,
तो माला के भिन्न भिन्न प्रकार के स्वरूप माने गएं हैं,जैसे हमारे यहां वेद का मन्त्र है,और वेद के मन्त्र के प्रारम्भ में ओ३म् की ध्वनि होती है,और जब वह ध्वनि होती है,तो प्रत्येक
वेदमन्त्रों में जो ज्ञान है,अथवा विज्ञान
है,
वह सर्वत्र ओ३म् रूपी सूत्र में पिरोया हुआ है। जब वह
पिरोया जाता है,तो नाना ऋचाओं रूपी जो मनका है,उसमें जो ज्ञान
और विज्ञान है,वह ओ३म् रूपी सूत्र में पिरोया जाता है। तो वह माला बन जाती है। कैसी विचित्र
माला है,जिस माला को धारण करने के पश्चात माला में तल्लीन हो जाता है, जैसे हमारे यहां यज्ञमान अपनी यज्ञशाला में ही हमे अपनी वाणी और शब्दों को एक
सूत्र में पिरो देना है। और वह सूत्र क्या है? जिसमें पिरोना है,वह सूत्र हमारा है, स्वाहाः,
जब स्वाहाः उद्गीत रूप में गाता है, तो वह सूत्र बन करके प्रत्येक वेदमन्त्र की जो प्रतिभा है,वह उसमें पिरोई जाती है, तो वह एक माला
बन जाती है। यह विज्ञान अपनी आभा में बड़ा विचित्र बन करके रहा है,यज्ञमान कहता है-हे देवी! आओ,हम अग्नि को अपने में धारण करें और हम तेजोमयी बन
करके अपनी वाणी को उद्गीत गाते हुए,इस अग्नि के
समीप और अग्नि भी स्वाहा रूप में परिणित करना चाहते हैं। तो वह अपनी यज्ञशाला में
विद्यमान हो करके अपने में ध्वनित हो रहा है, और ध्वनियां दे रहा है, इसी प्रकार यह
माला पाठ कहलाता है। जब यह माला पाठ में परिणित हो जाता है। तो यह माला ही माला रह
जाती है। और यह ब्रह्माण्ड एक प्रकार की माला बन करके रहता है, तो यह उस परमपिता परमात्मा का एक सूत्र है,और परमपिता परमात्मा इस सूत्र बन करके इस संसार को अपने में धारण कर रहा है। 891119
वेद गानम् एक माला
वेदों का जो पठन पाठन होता है,उसके नाना प्रकार माने गएं हैं, जैसे घन पाठ है, घन पाठ में वाणी को स्वरों में मध्यम बनाना और दीर्घता में ले जाना और उसमें स्वर विचार ले करके जब वह गान गाता है, तो वह उद्गीत बन जाता है, और उद्गीत बन
करके वही हमारे यहां घन पाठ की ध्वनियों में ध्वनित हो जाता है। तो यहां नाना
प्रकार का जो पठन पाठन के प्रकार हैं जैसे उदात्त है, जब उदात्त में उद्गीत गाने लगता है, तो स्वरों को वह त्रि व्यंजन में ले जाता है, और नाना प्रकार के व्यंजनों में परिणित हो करके जब वह गान गाता है, तो अपने में ततवृत्ति हो जाता है। 891119
वेद चार ऋषियों को ही क्यों
वेद चार हैं, परमात्मा की उपासना से चार
ऋषियों अग्नि ऋषि, अंगिरा ऋषि, आदित्य ऋषि, वायु ऋषि से प्रकट हुये हैं। वेद
ब्रहा की वाणी है।
गुरुदेव परमात्मा
तो निराकार है और वाणी तो साकार से उत्पन्न होती है।
महानन्द जी तुम
भौतिक ध्वनि की बात कर रहे हो,यहां पर प्रसंग यौगिक वाणी का है जिसमें तरंगवाद
ज्ञान इन्द्रियों का विषय नहीं है।
महर्षि महानन्द जी ने प्रश्न किया कि हे गुरुदेव! यह वेद वाणी इन चार ऋषियो को
क्यों दी?
हमें क्यों नहीं अर्पित की?
महानन्द जी तुम योग्य हो जाते तो प्राप्त कर लेते,सुनो, यह
वेदवाणी सृष्टि की उत्पत्ति तक महत् में रहती है,महत् से ही प्राण और मन की
सूक्ष्म धाराएं चलती हैं महत् ही वेदवाणी का घर है।जो ब्रह्म आत्माएं परमात्मा के
समीप होते हैं,उन्हें ही वेदवाणी परमात्मा की सहायता से प्राप्त होती है। जैसे उक्त चार ऋषियों ने ग्रहण की।
माता गायत्री की प्रार्थना
रवितम्! मम तेनु हृदयश्वति विश्वं मम तेनु कामाः
प्रातर्भूषणं ममिते गच्छामि मामा करणमि भूश्चति विश्वं मम तेनु हृदयश्चना वेतु न
ममते वार्णोंति कस्मासि हृदयं भवनेत्यावनोति मानाः वञ्चता वेनु धो संगमा रेति न
मातश्चत,
येनेति मातर्हृदयसमं मातस्वति गोदश्चता ममिरेति हृदयः। मनः
वाचने कामा वर्तोति देवं दध्मे कामाः।
हे मेरे भोले ऋषि मण्डल। यह कैसा पवित्र समय,जिस पवित्र अमृत वेला में,आज हम पुनः से वेद मन्त्रों का और परमात्मा की उस
अमूल्य वाणी का प्रसार करने के लिए आ पहुंचे हैं, जिस पवित्र वेला में ऋषि मुनियों ने और ब्रह्मा ने पुलकित होकर सन्ध्या के लिए आग्रह किया।
अपनी आत्मा को पवित्र बनाने के लिए, मन की उच्चता के लिए, हम पुनः पुनः
मातश्चेति जो दुर्गा हैं,‘दर्गुणि दुर्गस्यते दुर्ग भावनस्य’ जो हमारे दुर्गुणों
को नष्ट करने वाली है,उसको बारम्बार नमस्कार
करते हैं।
हे मेरे भोले आचार्य जनो! आज हम इस सुन्दर वेला में,जब
अन्तरिक्ष में तारा मन्डलों का एक प्रभात हो,चन्द्रमा भी अपने स्थान को चला जा रहा हो,ऐसे ही आज हम भी उस प्रकाश वाली
पंक्ति में आ पहुंचे हैं,जिस पंक्ति में
विराजमान होकर तारा मण्डल अपने ग्रह,वसु,जो संसार को बसाने वाले हैं,उस पवित्र पंक्ति में,आज हमें
सौभाग्य मिला है। यह वह सौभाग्य है, जिसमें आदि
ब्रह्मा अपनी महान पुत्री सन्ध्या से विनोद करते हैं।
अहा! विनोद कराते हुए,अपनी आत्म सत्ता को पवित्र बनाने के
लिए,
ऊंचे स्थान पर विराजमान होकर जैसे रेणुका अपनी शुद्धि को
लेकर इस संसार में विचरण किया करती है,इसी प्रकार आज का अमूल्य वेद पाठ ऐसी भावुकता से भरा हुआ था,जिसमें हमारा हृदय उस महानता का गुणगान गा रहा था,जिसके लिए हमरे ऋषि मुनियों ने पुनः पुनः प्रयत्न कराते हुए,इस पवित्र वेला के लिए,आदि ब्रह्मा ने,आदि विष्णु ने,आदि शिव ने अपनी नाना
प्रकार की सत्ताओं को प्रगत कराते हुए इस मनोहर पवित्र वेला की रचना की
यह पवित्र वेला रजोगुण तमोगुण से परे कहलाती है। क्योंकि
रजोगुण,यह प्रभाती ज्योति है, इनका सूक्ष्म
रुप है,जैसे हमारे यहाँ ऋषि मुनियों का सूक्ष्म रुप पवित्रतव में रचाया जाता है,उस पवित्रतव को रचाने क लिए,मेरे भोले
मण्डल! गर्भणी माता के गर्भ में विराजमान हो करके,हम अपने हृदय में गायत्राणी छन्दों का पाठ करते हुए,गायत्री माता को बारम्बार नमस्कार करते हैं,कि हे गायत्री! तू संसार में उज्ज्वल पदार्थ है,तेरा अनुकरण करते हुए,ऋषि मुनि अपने
पवित्रतव को पान करते हैं,हृदय में एक
ज्योति,
ज्ञानमय आनन्द और ज्योति जाग्रत हो जाती है,जिसके लिए हमारे ऋषि मुनियों का प्रातर भूषणम् रहा है।
प्रार्थना
हे भगवन्! तेरी करूणामयी वाणी के लिए हम बारम्बार प्रार्थना
करते चले आ रहे हैं। हे परमात्मन्! आपका रचाया हुआ,यह संसार कैसा महान व्याकुल है,इसको पवित्र
बनाने के लिए आप पुनः से इस संसार में कोई न कोई ऐसा प्रयत्न कीजिए,जिससे आपका रचाया हुआ,संसार पवित्र
का पवित्र बना रहे। इसमें किसी प्रकार की त्रुटि न आ सके। मानव एक दूसरे के रक्त
का पिपासु न बने,परन्तु एक दूसरे का
पथप्रदर्शक बने। जब मेरी भोली माताएं अपने पवित्र स्थानों में विराजमान होकर,एक
दूसरे से प्रीति की चर्चा में अपनी गर्भाणि पुत्रश्चते वार्त्तान्यति गायत्राणि
गायत्राणी छन्दों से अपने गृहों में,इस पवित्र वेला में,अपने
मुखारबिन्द से प्रगट करेंगी,तो उस समय वह
गृह पवित्र कहलाता है।
हे भगवन्! आज हम उस संसार को चाहते हैं, जिसमें यह इन्द्र अपनी पवित्र सति के सहित संसार में रमण करने वाला हो,जैसे महर्षि वशिष्ठ और अरुण्धति दोनों स्तुति करने वाले, इसी प्रकार हम बलि और सचिव, बलि और रेणुका दोनों का संगम चाहते हैं, यह पवित्र वेला जो गायत्री है,इसके प्रभात से अपनी आत्मा को पवित्र बनाना
चाहते हैं,
प्रभु! करुणा कीजिए, दया कीजिए,
हमारे नेत्रों में वह अमूल्य सत्ता दीजिए,हे आनन्द में रमण कराने वाले देव! आपको बारम्बार नमस्कार है।
आज हम ब्रह्मचर्य को धारण करना चाहते हैं,उस आनन्दमय ज्योति को पान करना चाहते हैं,जिस आनन्दमय ज्योति को पान करते हुए
माता गार्गी अपने ब्रह्मचर्य को अपने अग्राण से अपने को पवित्र बनती हुई,जिसके
हृदय में एक आनन्दमय ज्योति हो । आज हम उस आनन्दमय ज्योति को पान करना चाहते है,जिस
आनन्दमय ज्योति को पान करते हुए,माता गार्गी महान,अपनी इस वाणी से राजाओं को
ठुकराती थीं,जैसे सूर्य की किरणें तमोमय अन्धकार का ठुकरा देती हैं,इसी प्रकार राजाओं में जो नाना प्रकार के दोष होते हैं,उन्हें ठुकराया जाता है।
हे ब्रह्मचर्य के धारण करने वालो। आओ, प्रातः काल में ब्रह्मचर्य की ऊर्ध्वा गति बना लें। हे ब्रह्मचारिणी! आ, तू इस गृह को पवित्र बनाती है,तू अपने
ब्रह्मचर्य को पवित्र बनाती हुई,इस को मस्तिष्क में धारण करती हुई,ब्रह्मरन्ध्र और
त्रिवेणी स्थानों में रमण करती हुई,तू इस ब्रह्मचर्य को पवित्र बना।
हे महान ब्रह्मचारी! तू भी इसी प्रकार अपने जीवन को पवित्र
बना,यह वेद का अमूल्य आदेश कहता है। वेद ने कहा है वहन्ति हृदयश्चता वार्णोति
कामाः वेतु न हृदयश्चते कामन्तेनु गच्छामि हृदयस्वता। यह जो हमारा हृदय है,वह इतना पवित्र है और कोमल है कि इस हृदय को हम इस प्रकार पवित्र बना सकते हैं,जिस प्रकार सूर्य की किरणें स्वच्छ होती हैं,चन्द्रमा की कान्ति स्वच्छ होती है।
इसी प्रकार वायुमण्डल में वायु रमण करती है,वह इतनी पवित्र और अमूल्य होती है, उस अमूल्यता में रमण करते हुए पवित्र हो
सकता है,परन्तु वह उसी काल में हो सकता है,जब प्रभु! तेरी अनुपम कृपा हमारे ऊपर
छायामान हो जाएगी,जब तक आपकी ज्योति
हमारे में छायामान न होगी,तब तक हमारा
हृदय किसी काल में पवित्र न बन सकेगा।
माता गायत्री
हे माता गायत्री! हम तेरे द्वारा पर आ पहुंचे हैं, तू अपने महान पुत्रों को अपने कण्ठ से अग्रणीय कर,जिससे हे माता! तेरी आनन्दमय, करूणामयी गोद
में विराजमान होकर उस सुख को अनुभव कर सकें।
हे माता! तू सुख देने वाली है,पवित्र बनाने वाली है,तुझे वेदों ने
गायत्री कहा है,आदि ब्रह्मा ने तुझे पुत्री बनाया है। तू संसार की माता और ब्रह्मा को पुत्री
कहलाती है,हम तेरी गोद में आना चाहते हैं,जिसमें धारण
होकर हे माता! हम हृदय पवित्र बना सकें। तू वास्तव मे गायत्री है,तेरी तीन प्रकार की व्याहृतियां हैं,तेरी प्रत्येक वेद भवनीस्यत्रि अत्रिन गच्छाम्यस्ते। परमं भवते निगच्छता।
अहा! माता गार्गी अग्रिणा, नहीं,
परन्तु अनसूईया और अत्रि मुनि दोनों का एक वचनबद्ध है कि
दोनों प्रातः काल में विराजमान हो करके,इस गायत्री का अनुकरण किया करते थे,जिस गायत्री से यह संसार रचता है,ऊर्ध्व गति में प्राप्त होता है और जिसमें यह लुप्त हो जाता है। परन्तु प्रश्न
उत्पन्न होता है कि क्या किसी विशेष मन्त्र को गायत्री कहा जाता है?
नहीं! जितने वेदमन्त्र है, वेद मन्त्रों में पवित्र छंद,ओ३म् को
व्याहृतियों से बद्ध जो मन्त्र हैं, उन सब का ही नाम
गायत्री है,क्योंकि हम गायत्री में रमण करते हैं और जिस गायत्री में,यह संसार समाहित हो
जाता है। जब हम ब्रह्मा के कमण्डलु के द्वारा जाते हैं तो वह कितना पवित्र है
जिसमें गंगा अवतरण आती है,जिस गंगा में
स्नान करके,मानव भावुकता से परिपक्व होता है।
मुझे आचार्यों का एक वचनबद्ध प्राप्त होता है और वह यह होता
है कि सृष्टि के आदि में जब यह संसार रचा, तो यह गंगा ब्रह्मा के कमण्डलु में विराजमान थी। जब यहाँ संसार को तरण तारन
करने वाले आदि आचार्यों ने शिव की याचना और आराधना की। और आराधना करते हुए शिव की
भावुकता ब्रह्म लोक के द्वारा जा पहुंची, जहाँ ब्रह्माके द्वारा यह गंगा कमण्डलु वाली गंगा हमें अर्पित कर दीजिए । आज
यह संसार इसके स्नान का इच्छुक है,जिस स्नान से
हृदय पवित्र हो सकता है,आत्मा पवित्र
हो सकता है,मन पवित्र हो सकता है,अपने
ब्रह्मचर्यत्व को प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु ब्रह्मा ने कहा कि भाई! यह मेरी
सुन्दर पुत्री है,मैं इस गंगा को इस प्रकार अर्पित नहीं कर सकता।
जब सभी देवताओं ने याचना की,तो उस समय ब्रह्मा के कमण्डलु
से यह गंगा अर्पित हो गई और संसार सागर में आ गई और इसको पवित्र बनाती रही। अपना
कण कण संसार में अर्पित करती रही, मानव के हृदयों
को पवित्र बनाती रही तो यह वह अमृत प्रभात है जब परमपिता परमात्मा ने इस अमृत वेला
को अर्पित किया।
ब्रह्मा का कमण्डलु
ब्रह्मा परमात्मा को कहते हैं और ब्रह्मा का कमण्डलु है
ब्रह्मा की रचना। ब्रह्मा के महत रुपी कमण्डलु से यह संसार रचा जाता है जो हमारे
दृष्टिगोचर है।
प्रभु! आपने यह संसार कमण्डलु से रचा है,इस कमण्डलु में कोई वस्तु थी और वह थी वेदवाणी में अमूल्य ज्ञान। इस गायत्री
रुपी गंगा में रमण करता हुआ,मनुष्य अपने
हृदय को पवित्र बनाता है,ओ३म् स्यते ओ३म् व्रणा गच्छामि वेतु नः देवं भवनेति
अग्रणाः वातेन हृदयस्यते। हे हृदय को उदार बनाने वाली पवित्र वेला! तू आ, ऋषि मुनियों को पवित्र बनाती है,आज हम तुझको बारम्बार पुकारते चले जा रहे हैं।
हे भगवन्! आज हम पुनः से अपने हृदय को पवित्र बनाना चाहते
हैं,ज्ञान में रमण करना चाहते हैं,आज हम उस माँ
काली की गोद में आने के लिए आ पहुंचे हैं,जो हमारे कालेपन को समाप्त करती है,और हमें पवित्र बना देती है।
गायत्री माता के गर्भ में गायत्री माता की याचना करने के
लिए आ पहुंचे। हे गायत्री माता! तू हृदय को पवित्र बना। तुझे वेदों ने गायत्री कहा
है,
दुर्गा कहा है,क्योंकि तू मानव के दुर्गुणों को शान्त करने
वाली है,हम तेरी गोद में आए हैं,हमारे हृदय को
पवित्र बना,हमारी इस करूणामयी वाणी को पवित्र बना,हमारी जितनी भी कामनाएं हैं,वह सब पवित्रतव में हों।
हे अग्रणी, भूषण अग्ने! यह
संसार तेरा अनुकरण करता है,आज हम भी तेरा
अनुकरण करते हुए उस पवित्र वेला में उस पवित्रतव में, तेरी गोद में आए हैं,आज तुझसे कुछ
प्राप्त करना चाहते हैं,आज मानव के
हृदयों को पवित्र बना,हमें भी पवित्र बना।
हे माता! दुर्गुण दुर्गस्वते! हे दुर्गुणों को शान्त करने
वाली दुर्गा! तू चमण्डला है, दैत्यों को
नष्ट करने वाली है,जब तू दैत्यों का हनन
करती है और देवताओं की रक्षा करती है,तो संसार में दैत्य बनने ही न दे,यह संसार सब देवता ही बना रहे और देवता बन करके तेरे आनन्दमय सागर में रमण
करता हुआ,
स्नानम् ध्यानम् करता हुआ तेरी गोद का इच्छुक रहे।
हे माता दुर्गे! तुझे वेदों न चमन्डला कहा है, काली कहा है,सरस्वती कहा है,भगवती कहा है,माँ किलेष्णी कहा है,भिन्न भिन्न रूपों से पुकारा है।
जब तू अपना वाहन लेकर दुर्गा का स्वरुप धारण करके संसार में
आती है,और सहस्त्रों नहीं,अष्टम भुज वाली
बन करके तू मानव को चेताती है,यह मानव तेरी
उस अष्ट भुजाओं वाली गोद में आना चाहता है जिन अष्ट भुजाओं ने संसार को चकित बनाया
है,
दैत्यों का हनन किया है। दैत्यों का हनन करने वाली माता! तू
आ और हमारे हृदयों को पवित्र बना।
गायत्री माता
हमारे यहाँ प्रत्येक वेदमन्त्र को गायत्री कहा जाता है
क्योंकि प्रत्येक वेदमन्त्र में ज्ञान और विज्ञान ओत-प्रोत है। जिसमें ज्ञान
विज्ञान ओत-प्रोत होता है,वही गायत्री कहलाती है। यह तीन व्याहृतियों से गायत्री
कहलाती है। जैसे माता का पवित्र जीवन तीन भागों में होता है एक भाग वह कहलाता है, जिसमें माता अपने पुत्र को अपने गर्भ स्थल में धारण करती है, एक भाग वह होता है, जब अपने बालक
को अपनी लोरियों में आनन्द पान कराती है और एक भाग वह है,जब अपने प्रिय पुत्र को अपने हृदय से पृथक कर देती है,युवा हो जाता है, इसी प्रकार वह गायत्री
है,
जब मानव इसके गर्भ में जाने के लिए लालायित होता है। जहाँ
भी मानव देखता है,वहीं माता को देखता है,जहाँ भी दृष्टिपात करता है, वहीं माता का
दृश्य उनके समक्ष है, माता उसकी प्रतीक बनी
हुई है,
जब वह इस भावुकता में आ जाता है, कि जहाँ मैं जाता हूँ, वहीं मेरी माता
विराजमान है,
तो मैं पाप करने कहाँ जाऊं, पापों को जानने वाली मेरी माता विराजमान है, यदि मेरी माता ने इस पाप को जान लिया, तो न प्रतीत मेरी माता क्या दण्ड दे।
हे मेरे भोले! जब मानव इस आकृति में, गायत्री छन्दों में रमण करता है, जहाँ जाते हैं, वहीं माता विराजमान है, न प्रतीत हमें क्या दण्ड दें, जैसे बालक माता
से भयभीत रहता है, और माता की भावुकता
में रमण करता रहता है और माता अपने हृदय से पुत्र को लगा लेती है और यह चाहती है, कि मेरा पुत्र पवित्र बने, इसमें किसी
प्रकार की त्रुटि न रहे, यह मेरे गर्भ
को ऊँचा बनाने वाला हो, इसी प्रकार
गायत्री माता भी चाहती है।
भक्त की जब यह दशा हो जाती है, कि यदि मैं कोई पाप करूंगा, तो माता मुझे
दृष्टिपात कर लेगी और न प्रतीत क्या दण्ड दे,तो उस समय यह महान पवित्र गायत्री उस मानव को कण्ठ में धारण कर लेती है,अपने में ओत प्रोत कर लेती है,जैसे एक प्रिय
बालक होता है,जो माता पिता के नाना प्रकार के क्रोध की सीमाओं को नष्ट कर देता है, जैसे मैंने तुम्हें एक अलंकार भी नियुक्त किया था, सुनो :
एक राजा था। राजा के यहाँ एक सूक्ष्म सा बालक था। परन्तु वह
राजा किसी साधु संगति में,आत्मिक ज्ञान की चर्चा करने जाता था। वहाँ एक गान गाया
जाता था,
कि अरे, मानव! तू विरोध
न कर,
परमात्मा का चिन्तन कर, तुम्हारे द्वारा प्रीति होनी चाहिए, यह बालक पूर्व गान का फल था। बालक ने वह ही अपने कण्ठ में धारण कर लिया।
कुछ समय के पश्चात राजा और उनकी पत्नी दोनों का विरोध हो
गया,और दोनों ने प्रतिज्ञा कर ली,राजा और रानी दोनों की इच्छा हुई, कि हमें दोनों में कैसे प्रेम भाव हो, कैस मिलान हो,
एक दिन बालक सत्संग से आया और पिता के स्थान पर कहने लगा, अरे,
मानव! तू विरोध न कर, परमात्मा का चिन्तन कर, पिता ने कहा कि
अरे,
अपनी माता से जाकर उच्चारण करो, माता के स्थान पर गया और उच्चारण किया अरे, मानव! विरोध न कर, परमात्मा का चिन्तन कर, प्रेम प्रीति से रह। जब ऐसा कहा तो माता न कहा कि अरे, पिता के द्वार जाओ। अब पिता के द्वार पहुंचे, तो पिता ने कहा, माता के द्वार जाओ, बालक ने सोचा कि अब यह दोनों हो मुझे उच्चारण नहीं करने देंगे, वह दोनों के मध्य में विराजमान होकर वह वाक्य उच्चारण करने लगा, अब मुनिवरों! एक स्थान से माता ने उसे कण्ठ लगाया और एक स्थान से पिता ने कण्ठ
लगाया।
उस बालक के प्रति माता पिता का प्रेम कितना उज्ज्वल था, कितनी ऊँची क्रोध की सीमा का नष्ट किया, उस बालक ने।
परमात्मा का बालक योगी
इसी प्रकार योगी परमात्मा का बालक बनता है, माता गायत्री का बालक बनता है, गायत्री का
अनुकरण करता है,
माता ही माता को पुकारता है और उसमें ओत प्रोत हो जाता है, तो उसे माता ही माता प्रतीत होती है। एक स्थान प्रकृति गायत्री माता और एक
स्थान से ब्रह्मा पिता उस महान आत्मा को अपने हृदय में धारण कर लेते हैं। वह ऋषि
बन जाता है,
योगी बन जाता है। प्रकृति माता कहलाती है परमात्मा पिता
कहलाता है,
दोनों के मध्य में जो विरोध था, उसको इस महान आत्मा ने दोनों का अपनाते हुए, नष्ट कर दिया। प्रकृति को वैज्ञानिक रूपों से अपनाया और परमात्मा को उपासक रुप
में अपना कर,
संसार में वह उपासक, ज्ञानी और वैज्ञानिक योगी कहलाता है। आओ, हम उस प्रभु का अनुकरण करते चले जाएं, उस माता का अनुकरण करते चले जाएं, जो गायत्री माता अपने हृदय को पवित्र बनाती है, जो गायत्री हमें ऐसा अनुपम ज्ञान देती है।
हम अपनी आत्मा को पवित्र बनाने के लिए इस अमृत वेला में आ
पहुंचे,
जो ब्रह्मा के कमण्डलु में रमण करने वाली और मानो विष्णु के
चरणों में रमण करने वाली यह महान गंगा है, जिसमें स्नान करते हैं, अपने पवित्रतव
को पान करते हैं, हृदय से, मन से,
आत्मा से उसका चिन्तन करते हैं।
तो हम उस महान गायत्राणी का गान गाते चले जाएं :
गात्राणि भूषणं पविते निगच्छता प्रातर्भूषणं, ममतिगृधे,
आचन्नमति न देवं पविते निरज्जताः। यवनाति मेनः गात्राणि
हृदयस्यति यदिते नो, ग्राधि ममते मातरम्वति
गृधाः निरज्जति वानर्धेनु, मज्जतः वनदेनु
कामाः वेतु न देवाः।
हे माता! तू आ, संसार को पवित्र बनाने वाली है, हे माता! जो तेरा
अनुकरण करता है,
आज वह संसार सागर से पार हो जाता है। हे माता! जो तेरी इस
भावुकता में करुणामयी आनन्द को पान करने वाला है, वह इस संसार को कटुता में, जो एक दूसरे का
विरोध है,
उसे नष्ट करता है।
तरूणञ्चति विश्वं भग्नाति देवं वृजनेति कामाः, वाजन्नमः देवं दध्मा वेतु न प्राणाः गच्छामि हृदयः,
हे माता! जब यह हृदय तेरी भावुकता से ऐसा परिपक्व हो जाता
है,
जैसे सूर्य की किरणों से यह संसार प्रकाशमान हो जाता है, तो ऐसे ही तेरी ज्ञान रुपी किरणो से हमारा हृदय प्रकाशमान हो जाता है, मल विक्षेप दूर हो जाते हैं। उस समय हम अपने उस प्रातर् भूषणम् अग्नि की
आराधना करते हुए अपनी आत्मा को पवित्र बनाते हैं। अहा! तू वास्तव में हमारी आत्मा
को पवित्र करने वाली है।
संगति भूषणं मृत्यन्नताः देवं दध्मः, वर्चे निरच्चता वाप्नोति देवं पा पश्यत,
हे माता! जब हम तेरा अनुकरण करते हैं, तेरे गर्भ में तेरी महानता की आराधना करते हैं, तो उस समय हमारे हृदय में, जो नाना प्रकार
के पाप हैं,
वह सब भस्म हे जाते हैं जैसे अग्नि ईंधन को नष्ट कर देती है
अगृणी भूषर्ण पवनाति देवं मा मा वेतु, कामश्चते वेतु न राजन्नः हृदये कामा वेतु माः।
हे माता! आप ही हमारी लक्ष्मी, श्री,
माता, और राजा है, हम आपको ही चुनौती देते रहे, हम संसार में
आपके सिवाय किसी को नमस्कार न करें। केवल नमः हो, तो आपके लिए, क्योंकि आप हमारे
अधिराज हैं पापनोति पापो को नष्ट करने वाले हैं, हृदय में,
वाणी में हर समय हम आपका उच्चारण करते रहें, आपकी आनन्दमयी ज्योति में रमण करते रहें। स्वस्ति ब्रह्मणा गच्छाति हृदये
वासंगति न जहा,
याचन्नतो भवनाति ब्रह्मणा गप्छते रेवं पमोनाः।
हे माता! हम तुझे बारम्बार पुकारते चले जा रहे हैं, तू हमारे पापों को नष्ट कर और ऐसा पवित्र बना कि हम संसार में जन्म लेते हुए
यौगिकता को प्राप्त करते रहें, तेरे गर्भ में
आएं और अपने हृदय को ऐसा पवित्र बनाते रहें, जिससे तेरी गोद में, तेरी शरण में आ
सकें,
हमें अपने से दूर न कर, यदि हम तेरे से दूर हो गए, तो हमारा जीवन
व्यर्थ होता चला जाएगा, हमारे जीवन में
न प्रीति रहेगी,
न आनन्द रहेगा, यदि हमारे हृदय में आपकी ज्योति रहेगी, तो हम संसार को ज्योतिष्मान कर सकते है, अन्यथा हमारा जीवन अन्धकार में डूबता रहेगा।
परमपिता परमात्मा ने यह प्रातः काल का अमूल्य अवसर दिया,जिसमें माता प्रकृति और पिता परमात्मा दोनों का चिन्तन करने का सौभाग्य मिला। 641018
माता गायत्री
तुम और तुम्हारी पत्नी एक वर्षों तक,छह माह तक गायत्री का
जपन करो,
छन्दों का पाठ करो। वेदों का अध्ययन किया जाए, प्राणायाम किया जाए, तो विचारों को
उसी प्रकार का बनाया जाए। उसी प्रकार की औषध,उसी प्रकार की समिधा एकत्रित करके वह
याग हो रहा है। वह काल कितना भव्य था । 69 77 017
माता गायत्री
पंक्ति में माता ने भोज कराया, भोजन कराते हुए, माता जब पुत्र को भोजन
कराती है,
तो गायत्री छन्दों के स्वरों की ध्वनियां देती रहती है।
क्योंकि उससे वह बालक उस तरंगों में ओत प्रोत हो जाता है। जो माता उसे मन्त्र में
त्याग देती है,और तपस्या की आभा देती है,उससे अन्नाद
में जो तरंगे पहुंचती है,उन तरंगों से
ही मानव के जीवन का निर्माण होता है। 820123
यह एक जो पुस्तक
हमने पहले छापी थी उसमें से लिए गए हैं।
पूज्यपाद गुरुदेव वेद गायन
पूज्यपाद गुरुदेव ने वेदों के
विषय में इतना उच्चारण किया है कि जिसे सहस्रों पृष्ठों में लिपिबद्ध करना भी कठिन
है। पूज्यपाद गुरुदेव वेद पाठ करते समय संस्कृत व देवनागरी भाषा में प्रवचन करते
समय शब्दों को इतनी उत्तमता से उच्चारण करते हैं कि जिसको शब्दों में व्यक्त नही
किया जा सकता। उनकी उच्चारण ध्वनि में आप शब्द के अन्तर्गत प्रत्येक अक्षर को जैसे
स्वर, स्वर सहित व्यञ्जन, स्वर रहित व्यञ्जन, अनुस्वार व वैदिक ध्वनि उच्चारण
चिह्न इत्यादि को पृथक पृथक अनुभव कर सकते हैं। दो शब्दों के मध्य में अंतराल को
भी आप भिन्न भिन्न अनुभव कर सकते हैं।
वेदमत्र गायन से प्रदूषण
समाप्ति
वेदमन्त्रों का उद्गीत गाते रहो
जिससे वेद शब्द का जब उद्गीत होता है, मन्त्रों के द्वारा उसमें ज्ञान और विज्ञान विद्यमान है। वह जो तरंगों में
तरंगित होने वाला तुम्हारा शब्द है, वही तो प्रदूषण को शान्त करने
वाला है। वह प्रदूषण को नष्ट करता है।
यम नियम के पालन की अनिवार्यता
यम नियम के पालन करते हुए वेद मन्त्रों का उदगीत गाना चाहिए ।
वेदों का वेदत्व
पूज्यपाद गुरुदेव के प्रवचनों
में परमपिता परमात्मा के उपरान्त जिस किसी के महत्व को सबसे ज्यादा प्रतिपादित
किया गया है तो वे वेद ही हैं। क्योंकि वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं, और वे हमें शुद्ध चैतन्य परमपिता परमात्मा से प्राप्त
होते हैं। जीव परमपिता परमात्मा से संसार को बनाने की प्रार्थना करता है कि हे
परमात्मन! आप हमारे लिए सृष्टि का प्रारम्भ करो हम संसार में आना चाहते हैं हमें
पूर्व की भांति उत्पन्न करो। हमारे जो शेष कर्म हैं हम उनको किसी न किसी प्रकार
पूर्ण करना चाहते हैं। उस समय परमपिता परमात्मा हमारे लिए सृष्टि का प्रारम्भ कर
देते हैं। आत्मा का सम्बन्ध हमारे शरीर से है हमें अपने जीवन को ऋषि परम्परा के
अनसार जीना चाहिए और ऋषि परम्परा उसी काल में ऊँची बन सकती हैं जब हमारे जीवन में
एक एक वेद मन्त्र गहने की तरह सुशोभित हो जायेगा। जिस प्रकार वेद का प्रत्येक
मन्त्र, ओ३म् की ध्वनि में बिंधा हुआ है इसी प्रकार हमारे
शरीर में जितने अंग हैं उपांग हैं वे जब एक एक वेद मन्त्र से बिंध जायेंगें तो उस
समय मानव में से सुगन्ध उत्पन्न हो जायेगी।
वेद नाम प्रकाश का
वेद नाम प्रकाश का है और जब यह
प्रकाश हमारे में प्रविष्ट हो जाता है तो यह आत्मा उस प्रकाश को पा करके उस महान
प्रकाश में लय हो जाता है।
वेद का वेदत्व
एक ही वेद मन्त्र में तीन
प्रकार की धाराएं विद्यमान हैं, बिना तीन भाव के वेद मन्त्र को
जान नहीं पाते, न उसमें से मानव दर्शन को जान सकते हैं, न विज्ञान को जान सकते हैं और ज्ञान से हम शून्य हो
जाते हैं। परन्तु जब प्रत्येक वेद मन्त्र में तीन प्रकार के भावों को दृष्टिपात
करोगे, तीन प्रकार की धाराओं के ऊपर विचार विनिमय होगा, तो उसमें ज्ञान, विज्ञान और मानवीय दर्शन दृष्टिपात होगा। उसमें जब तीनों दृष्टिपात करने लगोगे
तो वेद मन्त्र का आशय और ज्ञान की प्रतिभा हमारे समीप आ जाती है।
वैदिक जो भाषा है इसको देव भाषा
कहा जाता है इसको देव वाणी कहा जाता है। वेद को जानने वाला उसके प्रकारों को, स्वरों को जानने वाला ब्रह्माण्ड के लोकों की वार्ता
को जान सकता है। यह जो देव भाषा है और देवभाषा का जो व्याकरण है वह ब्रह्मा का व्याकरण कहलाता है। जो अनहद ध्वनि होती है मस्तिष्क
में जो उसका तारतम्य साधना से बना लेता है वह ब्रह्माण्ड के किसी भी लोक की भाषा
को जान लेता है।
वेदों की रचना
वेदों की रचना के सन्दर्भ में
आधुनिक मान्यता के अनुसार पूज्यपाद गुरुदेव ने अन्य ऋषियों और अपने गुरु आदि
ब्रह्मा के कथनों को उदधृत करते हुए कहा कि चारों ऋषियों के द्वारा वेद उत्पन्न
हुए उन्होंने प्रभु की अनुपमता के द्वारा आदि ब्रह्मा की सहायता से इनकी रचना की, ब्रह्मा मुख्य माने जाते हैं और ब्रह्म नाम परमात्मा
का है अतः सृष्टि के प्रारम्भ में चारों वेद चार ऋषियों से प्रकट हुए। क्योंकि परमपिता परमात्मा ने उन्हें विशेष ज्ञान दिया। पूज्य
महानन्द जी के इस प्रश्न का उत्तर कि चारों ऋषियों को ही यह ज्ञान क्यों दिया ? के उत्तर में पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा कि जिन ऋषियों
पर परमात्मा की अनुपम कृपा होती है, उन ऋषियों को वेदों का ज्ञान
प्रकट हुआ, जो ऋषि संसार में मुक्ति का प्रयत्न करते हैं उन्हें
वेदों का ज्ञान होता हैं। और मुक्ति का कुछ सूक्ष्म समय रहते रहते प्रलय हो जाती
है तो उन आत्माओं को, वेदों का ज्ञान स्वतः रहता है, जो अनादि ज्ञान, विज्ञान हैं, जो शुद्ध चैतन्य परमात्मा से उत्पन्न ज्ञान होता हैं।
जब सृष्टि प्रारम्भ होती हैं तो उन ऋषियों को विशेष संतोष प्राप्त होकर के वेदों
का ज्ञान प्रकट हो जाता हैं और संसार में यह प्रणाली चलने लगती हैं। और अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चार ऋषियों
पर ये चारों वेद प्रकट हुए।
वेद रुपी प्रकाश को चार भागों
में विभक्त करने के निर्णय पर ऋषि मुनियों के निर्णय को उदधृत करते हुए पूज्यपाद
गुरुदेव ने कहा है कि वेद हमारे यहां एक हैं, और वह अमूल्य वाणी हैं परन्तु प्रत्येक वेद मंत्र में चार व्याहृतियां चार व्याहृतियां कहलाती हैं उसमें ज्ञान भी है
विज्ञान भी है, कर्म भी है और उपासना भी । अतः मूल वेद एक है। यह
ब्रह्मा की सहायता से उत्पन्न होते हैं और चारों ऋषियों ने उस वेद रूपी प्रकाश को
हुए उसकी चार व्याहृतियां बना दी, वास्तव में तो संसार में
व्याहृतियां तीन ही होती हैं। परन्तु वेद में चार प्रकार की व्याहृतियां बनाईं और
आग्नेय शरीर से ऋषियों का जन्म होता है और वह उसी रूप से,उसी प्रधानता में वेदों की रचना करते हैं। सृष्टि के
प्रारम्भ में जो आत्माएं आती हैं,उनमें इतनी शक्ति होती हैं कि
वह प्रकृति के कुछ परमाणुओं को ग्रहण करके स्वतः ही मानव जाति में आ जाते हैं। वेद
का ज्ञान न तो कही से आता है और न ही कहीं जाता हैं।
वेदों का काल
वेदों का उच्चारण, वेदों की प्रतिक्रिया आज से नही अरबों वर्षों से चली
आ रही हैं।
शाखा विभाजन
शाखा कहते किसे है? वह एक विचारणीय विषय है। शाखा उसे कहते है जिसमें एक
विषय पर कुछ मन्त्र है और उन मन्त्रों का जो एक भावार्थ होता है वह अपने में जिस
समय का जिस काल का, वह भाषा का विशेषज्ञ होता है, राष्ट्र और समाज में जो साधारण
और मार्मिक जो भाषा होती है, उस भाषा में वेद मन्त्र को
रुपान्तरित कर देता है। वेद मन्त्र ज्यों का त्यों है एक शब्द लिया, जैसे हमने एक शब्द लिया वर्णाः तो वर्णाः के ऊपर एक
जो राष्ट्र भाषा या समाज की या उस काल की भाषा होती है उसी भाषा से एक वर्ण के ऊपर
वह एक एक व्याख्या कर देता है। तो वह एक व्याख्या पोथी बन जाती है। परन्तु उसको जब
कटिबद्ध कर देते है तो वह शाखा के रूप में परिणत हो करके, वह राष्ट्र की सम्पदा बन जाती है और वह आगे आने वाला जो समाज है वह उस पोथी के
माध्यम से, वेद के शब्दों को अच्छी प्रकार उसकी जानकारी उसे हो
जाती है।
सतयुग के काल में जब ब्रह्मा का
काल था तो ऐसी महानता का एक महान विशेषण है। जिस ऋषि ने, जिस एक विषय को लिया, उसी की संहिता बन गई। जैसे
हमारे यहां महर्षि पिप्पलाद हुए रेवक हुए कात्यानी, दालभ्य, श्रृंगकेतु, गौतम, पनपेतु, शांगति, भृगु इत्यादि ऋषियों का जन्म हुआ इन्ही ऋषियों के
द्वारा ये संहिताये बनी जैसे सोमकेतु हैं ब्रह्माणी और इसी प्रकार नाना संहितायें
हुई। महानन्द जी के अनुसार हमारे गुरुदेव शृंगी ऋषि महाराज ने भी त्रेता के काल
में जिस समय राजा दशरथ के यहां पुत्रेष्टि यज्ञ कराया गया उस पुत्रेष्टि यज्ञ की
संहिता है जिसे श्रृंगकेतु संहिता कहते हैं।
मार्कण्डेय मुनि महाराज अपने
में महान वैज्ञानिक और महान प्रतिभाशाली थे। उन्होंने वेद के कुछ सूक्तों को ले
करके मार्कण्डेय नामक एक शाखा का निर्माण किया। उसको वेद में से ही उद्बुद्ध किया
।
वेदमन्त्रों के गायन की अनिवार्यता
जिसका उद्गीत गान पवित्रतम माना
गया है। परन्तु जिसके ऊपर हमारे यहां परम्परागतों से ही
मानव अपने में मानवीयता का
प्रसार करता रहा है। तो बेटा! उस महान देव की महिमा को हम
सदैव गुणगान गाते रहें। आज का हमारा वेदमन्त्र बेटा! उस उद्गीत को गा रहा है, जो उद्गीतां भू वर्णनं ब्रह्ने सो वर्णनं देवाः हे
मानव! तू उद्गीत गा परन्तु इन नाना प्रकार के प्रपञ्चों से उपराम हो करके गान गा
जिससे हमारे उदगार हमारी विचारधारा की उद्धबद्धता आए
वेदमन्त्रों का गायन
वेदों को स्वरों व छंदों सहित, स्मरण शक्ति के द्वारा, एक योगी, जो प्राणो को मिलान करने की विधि को जानता है, वहीं वेदों की पूर्ण गायन विद्या व चहुमुखी भाष्य को
जान सकता है।
आत्मा के भाव से उत्पन्न, न्यौदा में, ब्रह्म के गुथे हुए विचार, उस वायुमण्डल में प्रवेश हो
जाते हैं। और वायुमण्डल पवित्र हो जाता है। और वह वेद मन्त्र अग्नि की धाराओं पर
विद्यमान हो करके द्यौ को प्राप्त हो जाते हैं।
पूज्यपाद गुरुदेव गुरुदेव जब
प्राणों का परस्पर मिलान करा करके वेद मन्त्रों का गान गाते थे तो सिंहराज, मृगराज भी पङ्क्तिबद्ध होकर गान को श्रवण करते थे।
जिस काल में वेद मन्त्रों का
पठन पाठन होता है, वह भी परमात्मा का दिया हुए एक उज्जवल समय होता है।
जितना समय वेद मन्त्रों की ध्वनि में व्यतीत होता है वह परमात्मा का प्रदान किया
हुआ सौभाग्य का समय होता है। मैं प्रभु से यही कहा करता हूँ कि हे देव! आप कितने
दयालु हैं, आपकी मनोहर दया से हमारा जीवन पनपता है और आप ही की
कृपा से आपके गुणगान गाने का ऐसा समय प्राप्त होता है।
हे उद्गान गाने वाले ब्राह्मण!
तू अपने उद्गार को ऊँचा बनाता चल । तेरी वाणी में सरसता होनी चाहिए। तेरी वाणी में
पवित्रता होनी चाहिए जहाँ वेदों का पठन पाठन करना बहुत जरूरी है, परन्तु वेद के पठन पाठन के पश्चात् गम्भीर होना यह
परमात्मा की कृपा हो जाएगी तो गम्भीर प्रायः दृष्टि आने लगेगी।
आज कैसा सुहावना समय है। जिस
सुन्दर समय में परमपिता परमात्मा ने हमें इन वेद मन्त्रों के उच्चारण करने का
सुअवसर दिया। आज इस अमृतबेला में उस गान को गाएं।
वेद गायन का प्रभाव
जिस काल में वेद मन्त्रों का
पठन पाठन होता है, वह भी परमात्मा का दिया हुए एक उज्जवल समय होता है।
जितना समय वेद मन्त्रों की ध्वनि में व्यतीत होता है वह परमात्मा का प्रसाद है और
हमारे जीवन में वह सौभाग्य का समय होता है। मैं प्रभु से यही कहा करता हूँ कि हे
देव! आप कितने दयालु हैं,आपकी मनोहर दया से हमारा जीवन
पनपता है और आप ही की कृपा से आपके गुणगान गाने का ऐसा समय प्राप्त होता है।
हे प्रभु! वास्तव में तो आपकी
सर्वज्ञ महिमा को, हम नहीं जान सकेंगे, क्योंकि हमारे में अल्पज्ञता है। हम वायु मण्डल में रमण कर सकते हैं, चन्द्रमा और सूर्य के पास जा सकते हैं परन्तु हमारे
में इतनी शक्ति नहीं है कि आपके राष्ट्र से आप की जो इतनी विशाल रचनात्मकता है
उसकी सीमा से दूर जा सकें। हे देव! हम आपका कहाँ तक गुणगान गायें, वाणी में इतनी शक्ति नहीं। आचार्यजनों! आज का हमारा
वेद मन्त्र क्या उच्चारण करता चला जा रहा था। आज हम उस परमपिता परमात्मा की याचना
करते चले जा रहे थे जिसको वेदों ने ‘“गो’” कहा है धेनू कहा है। भिन्न भिन्न प्रकार से उसका रूपान्तर किया है। आज मैं
केवल उन वाक्यों को प्रकट करने आया हूं जो आदि ऋषियों के चुने हैं और जो वास्तव
में सर्वोपरि माने जाते हैं। जहाँ हम न वाक्यों को लेते हैं कि परमपिता परमात्मा
की महिमा का गुणगान गाने वाले और ब्रह्मवेत्ता कितने ऋषि हुए, तो बेटा! वह भी अनन्त हुए। राजा और महाराजा भी
ब्रह्मज्ञानी हुए। हमारे यहाँ एक वाक्य आता है कि राष्ट्र की परम्परा और मानवीयता
उस काल तक ऊँची रहती है जब तक मानव चरित्रवाद की महान महिमा होती है। हे देव! आप
कितने दयालु हैं, आपकी मनोहर दया से हमारा जीवन पनपता है और आप ही की
कृपा से आपके गुणगान गाने का ऐसा समय प्राप्त होता है।
वाक् ध्वनि का प्रभाव
वायुमण्डल में जितना वाक् शक्ति
मानव की पवित्र होगी उतना ही गृह का बालक भी उसी पवित्रता की धारा में रत्त होगा।
तो पति और पत्नी दोनों गृह में जब वेदज्ञ ध्वनि का प्रतिपादन करते हैं तो बाल्यों
की निन्द्रा के उनके श्वासों के द्वार पर भी उन्हीं परमाणुओं की प्रति उनके हृदयों
में प्रवेश कर जाती है। यह वाक् सिद्ध हो गया है कि मानव को सदैव अपनी वाणी में
पवित्र रहना चाहिए मानव को अपने में तपस्या का अपना क्रियाकलाप बनाना चाहिए जिससे
मानव अपने जीवन में पवित्र धाराओं में रत्त होता हुआ अपने को पवित्र बनाते रहे।
अपनी वाणी को वेदज्ञ ध्वनि में परिणीत करता रहे।
वेदमन्त्र शुद्ध उच्चारण करने
की अनिवार्यता
जीते रहो! देखो! मुनिवरों! अभी
अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ।
पूज्य महानन्द जीः “गुरुजी! आपका पर्ययण समय समाप्त हो रहा है, परन्तु आज के वेद पाठ में एक वेदमन्त्र अशुद्ध
उच्चारण हुआ। हम आपसे अधिक वाक्य इसलिए उच्चारण नहीं किया करते, क्योंकि गुरुओं का आदर करना हमारा कर्त्तव्य है, परन्तु एक मन्त्र की अशुद्धि होना भी तो आपने एक
प्रकार का पाप ही कहा है।
पूज्यपाद गुरुदेव बेटा! ऐसा तो
नहीं हो सकता।
पूज्य महानन्द जीः तो क्या
गुरुजी! हमने आपके समक्ष मिथ्या उच्चारण कर दिया।
पूज्यपाद गुरुदेव बेटा! यह
अभिप्राय नहीं। तुमने जो कुछ कहा है सत्य ही कहा है। तुम उच्चारण करो वह कौन सा
मन्त्र था द्वितीय
उच्चारण कर दें।
पूज्य महानन्द जीः गुरु जी!
आपका दसवां मन्त्र था।
(मंत्र उच्चारण के पश्चात )
पूज्यपाद गुरुदेवः तो महानन्द
जी! यही वेदमन्त्र था।
पूज्य महानन्द जी हां भगवान!
जैसे आपने मधु विश्वान्त शब्दों का उच्चारण किया, यह पूर्व लुप्त हो गए थे ।
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा, चलो, कोई बात नहीं।
पूज्य महानन्द जीः भगवन्! बात
तो बहुत है। हमसे यदि किसी स्थान पर अशुद्धि हो जाए, तो न प्रतीत क्या हो जाए ।
पूज्यपाद गुरुदेवः चलो, महानन्द जी! इस वार्त्ता को त्याग देना चाहिए, आगे का समय व्यतीत होता चला जा रहा है। उस अमूल्य समय
को शांत कर देना चाहिए।
पूज्य महानन्द जीः कृपा कीजिए ।
वेद साधना
याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने कहा
है कि जब हम वेद का अध्ययन करते थे। वेद की साधना करते थे वेद की भी साधना होती है
क्योंकि यदि हमारा मन पवित्र नही हैं तो उसकी साधना पूर्ण नही होती। मन को पवित्र
बनाना बहुत अनिवार्य है और मन के पवित्र बनाने के लिए अन्न का पवित्र होना बहुत
अनिवार्य है यदि अन्न में अशुद्धियां चलती रही तो वाणी और मानव का हृदय कदापि भी
पवित्र नही बन सकता । कितने भी अनुष्ठान करने वाला महान व्यक्ति क्यों न बन जाये, परन्तु उसे बाह्य जगत के कर्मकाण्डी कह सकेंगें।
परन्तु अपनी आत्मा के सम्पर्क में जा करके ही, आत्मा ही उसे कर्मकाण्डी उच्चारण नही करता, तो उसे आत्मा के समक्ष जाना चाहिए। जितने भी अनुष्ठान होते हैं।
इस संसार का, मुझे बहुत सा अनुभव स्मरण आता रहता है। साधना के
क्षेत्रों में बहुत सी विचारधाराएं आती रहती हैं आज मैं इस सम्बन्ध में विशेष
तुम्हें विचार देना नहीं चाहता हूँ केवल यह हमारा मन बुद्धि और विचार तीनों पवित्र
होने चाहिएं। जब तक बुद्धि और विचार पवित्र नही होंगें, प्राण का शुद्धिकरण नही होगा, और प्राण का यदि शुद्धिकरण नही
होगा तो साधना भी नही बन पायेगी। वेद के आचार्यों ने बड़ी विचित्र विवेचना
याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने कहा है कि जब हम साधना के लिए पंहुचे तो मैत्रेयी, कात्यानी को दोनों को शुद्धिकरण कराते हुए जब हम
भंयकर वनों में पंहुचे तो हम अन्न का दुग्ध बना करके आहार करते थे उससे हमारे शरीर
के, एक एक परमाणु का शोधन हो गया, हमने वृक्षों की छाल को ले करके, उनको खरल बना करके उसको अग्नि में तपा करके पान करते
थे, शरीर के एक एक अंग का शुद्धिकरण हो गया विचार, प्राण तीनों पवित्रता में रत्त हो करके हमारी साधना
पूर्ण हो गयी ।
वेदमन्त्र गायन से रूग्ण निवारण
औषधि विज्ञान को जानने के लिए
मानव कितना परिश्रम करता है औषधि विज्ञान एक महान विज्ञान है नाना प्रकार का औषधि
विज्ञान यह ऋषि मुनियों के मस्तिष्कों में परम्परागतों से ही नृत्त करता रहा है
रूग्ण होना यह मानव की कामना का फल है यह जो मनुष्यों की कामना बलवती हो जाती है
उन कामनाओं के ऊपर वह आधिपथ्य नही कर पाता दार्शनिक सिद्धान्त यही तो कहता है मानव
को अपनी कामनाओं का विशाल वृक्ष नही बनाना चाहिए सूक्ष्म से सूक्ष्म वृक्ष बनाना
चाहिए जिससे उनके जीवन में सार्थकता बनी रहे ओर उनमें प्राण ओर मन की विभक्त
क्रिया विशेष बनी रहे क्योंकि मन ही, इसके मूल में है इस मन को ही न पनपने दो यह मन जितना पनपेगा उतने ही प्राण की
आभा सूक्ष्म होती चली जायेगी और जितनी प्राण की आभा सूक्ष्म होगी मन बलवती होगा
उतने रूग्णों का साम्राज्य हो जायेगा।
प्राण की सूक्ष्म क्रिया बन गई।
प्राण की सूक्ष्म क्रिया न बने। इसीलिए मानव को प्राण और मन को समन्वय करना बहुत
अनिवार्य है। एक समय आना चाहिए दिवस रात्रि में जिससे हम दो प्रहर चतुष प्रहर मन
और प्राण दोनों को एक मनके एक सूत्र में पिरो दें जैसे दो विधाता एक स्थली पर
विद्यमान हो करके अपने गृह की योजना बद्ध बना लेते हैं जिस प्रकार पति पत्नी अपने
गृह के लिए सांय या प्रातः काल अपने गृह को निर्माणित करने के लिए एक स्थली पर
विद्यमान हो करके एक दूसरे के विचारों में समकालीनता आ जाती है इसी प्रकार हे मानव
यदि तू ऊर्ध्वा में जाना चाहता है रूग्णों को शान्त चाहता है हृदय में न रहें तो
मन और प्राण को एक स्थली में विद्यमान हो करके उन्हें स्थिर करो ओर एक सूत्र में
उन्हें पिरो दो जिससे तुम्हारा रूग्णों में शान्ति आ जाये ।
रूग्ण नही रहने चाहिए और यदि
वैज्ञानिक और औषधियों का तुम अनुपान चाहते हो तो यह नाना प्रकार के पांचांग है
इनको पान किया जाये ओर गायत्री छन्दों का मुखारबिन्दु से पठन पाठन किया जाये जिस
मानव के शरीर में ऐसे परमाणुओं का जन्म हो गया है तो वह परमाणु मृत्यु का शरीर को
त्यागने का ही मूल बन गयें हैं तो ऐसे रूग्णों के लिए उन्हें गायत्री का जपन करना
चाहिए गायत्राणि छन्दों की वेद मन्त्रों की ध्वनि होनी चाहिए।
संसार की विडम्बना को त्याग
देना चाहिए, संसार को मायावाद को त्याग देना चाहिए, क्योंकि मैं त्यागने के लिए इसीलिए कहता हूँ क्योंकि
उसके लिए शरीर बहुत अनिवार्य है तो उससे जब वह ऊर्ध्वा से गति करेगा तो वाणी की जो
उदगमता है वह सर्वत्र नस नाड़ियों से उसका समन्वय रहता है समन्वय रह करके जितने
उसमें विषैले परमाणु हैं वह उससे समाप्त हो जाते हैं क्योंकि प्राण की विशेषता आ
जाती है प्राण बलवती हो जाता है तो इससे वह रूग्ण समाप्त हो जाते हैं तो हमारे
यहां परम्परागतों से ही मानवीय सिद्धान्त दोनों का समन्वय होना चाहिए दोनों की आभा
में रमण करना चाहिए
हम अपने जिस गृह में रहते हैं
उस गृह को शुद्ध बनायें पवित्र बनायें वाक् ध्वनि को पवित्र बनायें। परन्तु उसमें
रूग्ण न रहने दें कामना की बलवती न हो जाये, क्रोध की बलवती न हो जाये इस सिद्धान्त को ले करके मानव अपने जीवन को ऊर्ध्वा
बनाता रहे। हम वेद के साहित्य को अपनाने वाले बनें।
याग करते
जितनी कुप्रथायें हैं,इन कुप्रथाओं को समाप्त करना है,तो हमें एक महान मार्ग को अपनाना होगा और वह मार्ग है याग का हुए उस पर हमारी
एक क्रान्ति होनी चाहिए, ज्ञान और विवेक होना चाहिए।
जिससे हम राष्ट्र और समाज को ऊँचा बना सकें। आज ये जो समाज में, आधुनिक काल में त्राहि त्राहि हो रही है, उसका मूल कारण है, कि हमने धर्म और मानवता को नहीं जाना । यदि आज का राष्ट्र और मानव धर्म और
मानवता को जान जाये तो ये कुप्रथायें समाप्त हो जायेंगी और हम राष्ट्र को एकोकीचरी
करते हुए उससे समाज को ऊँचा बनाये।
वेदगान से मानव का जीवन पवित्र
और अमृत बन जाता है आज हमें गान अवश्य गाना चाहिए जिससे मानव ही नहीं मार्ग में
विचरण करने वाले हिंसक प्राणी और यह पृथ्वी मण्डल भी स्वर्ग हो जाए।
हे परमात्मन्! आपने इस संसार को
रचाया है इसका कल्याण करो। हम शरण में आए हैं प्रभु! हमारा कल्याण कर, हम तेरी महानता चाहते हैं, उस महानता को लेकर जब संसार में विचरण करते हैं तो हे
परमात्मन्! वास्तव में हमारा कल्याण होता है, जब यह आत्मा इस आपने जो सृष्टि के आरम्भ में नियम रचा उस समय के
अनुकूल शरीर को त्यागता हुआ अन्तरिक्ष में मरण करता है और उस
समय विधाता! यह उस स्थान पर पहुँच जाता है जहाँ इसका भोग होता है।
वेद का ज्ञान अन्य लोकों में
जब प्रत्येक लोक लोकांतरों में
सृष्टि है तो वहाँ भी वेद विद्यमान है तो वहाँ जो वेद विद्या विद्यमान है उसमें
पृथ्वी मण्डल का ज्ञान है ओर जो वेद विद्या पृथ्वी मण्डल पर विद्यमान है उसमे
अन्यलोक लोकांतरों का ज्ञान विद्यमान है तो वेद तो समस्त ब्रह्मांड में एक ही हुआ
। केवल लोक लोकांतरों में प्रकृति तत्वों की प्रधानता की भिन्नता के कारण वहाँ की
भाव अभिवयक्ति के कारण वेद के उच्चारण की भाषा में भिन्नता हो सकती है लेकिन
श्रृंगी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज के द्वारा मंगल गृह पर पृथ्वी तत्व प्रधान होने
के कारण वहाँ संस्कृत जैसी ही भाषा है। ऐसा उन्होंने अपने प्रवचनों में उच्चारण
किया है।
वेद का देवत्व
याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने कहा
है कि जब हम वेद का अध्ययन करते थे। वेद की साधना करते थे कयोंकि वेद की भी साधना
होती है क्योंकि यदि हमारा मन पवित्र नही हैं तो उसकी साधना पूर्ण नही होती। मन को
पवित्र बनाना बहुत अनिवार्य है और मन के पवित्र बनाने के लिए अन्न का पवित्र होना
बहुत अनिवार्य है यदि न में अशुद्धियां चलती रही तो वाणी और मानव का हृदय कदापि भी
पवित्र नही बन सकता। कितने भी अनुष्ठान करने वाला महान व्यक्ति क्यों न बन जाये, परन्तु उसे बाह्य जगत के कर्मकाण्डी कह सकेंगें।
परन्तु अपनी आत्मा के सम्पर्क में जा करके, आत्मा ही उसे कर्मकाण्डी उच्चारण नहीं करता, तो उसे आत्मा के समक्ष जाना चाहिए। इस संसार का, मुझे बहुत सा अनुभव स्मरण आता रहता है। साधना के क्षेत्रों में बहुत सी
विचारधाराएं आती रहती हैं यह हमारा मन, बुद्धि और विचार तीनों पवित्र होने चाहिएं। जब तक बुद्धि और विचार पवित्र नहीं
होंगें, प्राण का शुद्धिकरण नहीं होगा, और प्राण का यदि शुद्धिकरण नही होगा तो साधना भी नही
बन पायेगी। वेद के आचार्य याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने कहा है कि जब हम साधना के
लिए पंहुचे तो मैत्रेयी, कात्यानी को दोनों को शुद्धिकरण
कराते हुए जब हम भंयकर वनों में पंहुचे तो हम अन्न का दुग्ध बना करके आहार करते थे, उससे हमारे शरीर के, एक एक परमाणु का शोधन हो गया, हमने वृक्षों की छाल को ले करके, उनको खरल बना करके उसको अग्नि में तपा करके पान करते
थे, शरीर के एक एक अंग का शुद्धिकरण हो गया विचार प्राण
तीनों पवित्रता में रत्त हो करके हमारी साधना पूर्ण हो गयी।
वेदमन्त्र गायन में पवित्रता की
अनिवार्यता
जितना यज्ञमान पवित्र होता हैं, जितने ऋत्विक पवित्र होते हैं, सुहृदय के होते हैं, उतना ही यज्ञ पवित्र होता हैं। अशुद्ध वातावरण को नष्ट कर रहा है। पवित्रता को
उत्पन्न कर रहा हैं। मेरे प्यारे! देखो जब ब्राह्मण उद्गाता जब वेद का गान गाता
हैं, जितना शुद्ध वेद का मत्र होता हैं उतना ही बायुमण्डल
में मेरे प्यारे! अशुद्ध परमाणुओं को नष्ट करता हुआ अशुद्ध परमाणु निगल लेता हैं।
मेरे प्यारे! व शुद्ध परमाणुओं को जन्म देता हुआ द्यौ लोक को प्राप्त हो जाता हैं।
यज्ञ में वेदमन्त्र
मेरे प्यारे महानन्द जी ने एक
प्रश्न किया क्या भगवन! यज्ञशाला में विराजमान होने वाला, पठन पाठन करने वाला आचार्य, और जिसे हम उद्गाता कहा करते
हैं, और ब्रह्मा ये वेदों का बड़े ऊँचे स्वरों के उच्चारण
करते हैं, हमारे यहाँ महानन्द जी ने एक समय ऐसा प्रश्न किया और
यज्ञ में आहुति के साथ में वेद मन्त्रों के पठन पाठन की पद्धति क्यों हैं ? उस समय बेटा! आज मुझे स्मरण आता चला आ रहा है इनके
प्रश्नों का उत्तर और वह यह है कि संसार में बेटा! जब हम यज्ञ कर्म में संलग्न
होते हैं, यज्ञ कितने भी प्रकार के होते हैं, एक मानव वाणी का यज्ञ करता है, मानव को वाणी से, मधुर और सत्य उच्चारण करता है, यह जब ही होता है, जब तीनों भावना उसके साथ साथ होती हैं, तो वह एक प्रकार का वाणी का यज्ञ हो रहा हैं। जब वाणी
के यज्ञ में उसकी महान प्रगति हो जाती हैं उसी प्रगति के साथ साथ मानवीय वाक्
मानवीय याग उच्चता को प्राप्त होता रहता हैं। तो मेरे आचार्य जनों ने कहा है, मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा है कि वेद जो हैं उसे
परमात्मा का ज्ञान कहा जाता हैं, जब हम वेद मन्त्रों की ऋचाओं को
उच्चारण करते हैं मन्त्रों का पठन पाठन करते हैं, तो भगवान राम ने और भी आचार्यों ने वशिष्ठ इत्यादियों ने वर्णन किया कि वेद का
जो एक एक अक्षर हैं। वेद का जो एक एक मन्त्र हैं उसमें शुद्ध वाक् है, जब मानव या ब्राह्मण जब हृदय से उसका पठन पाठन करता
हैं, तो यज्ञ साथ के साथ ...
वेदमन्त्र गायन से पवित्रता
शोभनी ऋषि महाराज एक वेदमन्त्र
का अध्ययन कर रहे थे,वेदमन्त्र का अध्ययन किया तो शोभनी ऋषि यह विचारने
लगे कि वेदमन्त्र ऐसा क्यों कहता है क्योंकि यह जो शब्द है,पवित्रता के जो शब्द है,यह हमारे गृहों में,हमारे आश्रमों में भ्रमण करते
रहते हैं। जब वे इसके ऊपर मन्थन करने लगे। विचारते रहे तो यह वाक् उनके आँगन में आ
गया। क्योंकि वे प्रातःकालीन वेदज्ञ ध्वनि को गाते रहते। तो एक समय उनके यहाँ एक
उदवान केतु उनके समीप आ गये। उदवान केतु की तामसिक प्रवृत्ति बन गई थी। परन्तु ऋषि
ने बारह वर्षों तक वेद का अध्ययन किया तो जब वह दैत्य उनके समीप आया, तो दैत्य के आने से उसकी प्रवृत्ति में
अन्तर्द्वन्द्व आ गया। जब अन्तर्द्वन्द्व बन अन्तर प्रकाश में आ गया तो वह ऋषि के
चरणों की वन्दना करने लगा। तो ऋषि बोले कि हे दैत्यराज! तुम चरणों की वन्दना क्यों कर रहे हो ? तुम तो मानव को नष्ट करने वाले
हो । उन्होंने कहा प्रभु! मैं आज तुम्हारे इस आसन पर आया हूँ इतनी दूरी के आसन पर
मैंने एक कवच को दृष्टिपात किया हैं और जब मैं उस कवच के अन्तर्गत आ गया हूँ तो
मेरे मन की मेरे हृदय की प्रवृत्तियों में मेरा अन्तर प्रकाश में अंधकार प्रकाश
में आ गया है। भगवन! यह क्या कारण है ? तो शोभनी ऋषि के आँगन में यह वाक् आया कि वह जो वेदमन्त्रों के जो उच्चारण
करते हैं तो उसमें ऐसा परिवर्तन हो जाता है। वह ऋषि के चरणों में विद्यमान हो गया।
उन्होने बारह बारह वर्ष के पुनः अनुष्ठान किये। उस दैत्यराज ने भी अनुष्ठान किये।
अनुष्ठान करके वह ऋषि बन गया। उस ऋषि का नाम शाकल्य मुनि बन गया। वह दैत्य न रह
करके शाकल्य मुनि बन गया। इसीलिए मानव को सबसे प्रथम
शारीरिक क्रियाओं से निवृत्त हो करके ब्रह्मयाग करना चाहिए। प्रातः काल की पवित्र
बेला में ब्रह्मयाग होना चाहिए। जब पति पत्नी गृह में ब्रह्म याग करते हैं तो उनका
गृह स्वर्ग महान और पवित्र बन जाता है। ब्रह्म के गुथे हुए विचार उस वायुमण्डल में
प्रवेश हो जाते हैं वाणी का समन्वय करके मन और प्राण के सूत्र में ला करके वही
पवित्र धाराएं इस वायुमण्डल में छा गई हैं और दूरी पर जो प्राणी आ जायेगा वही
पवित्र बन करके जायेगा। वायुमण्डल में जितना वाक् शक्ति मानव की पवित्र होगी उतना
ही गृह में पवित्रता की धारा में रत रहता हैं। उसे सत्य ही सत्य दृष्टिपात आता
रहेगा, माता अपने पुत्रों को जब सत्यता का उपदेश देती हैं तो
पति और पत्नी दोनों गृह में जब वेदज्ञ ध्वनि का प्रतिपादन करते हैं तो बाल्यों को
निन्द्रा में उनके श्वासों के द्वार पर भी उन्हीं परमाणुओं की प्रति उनके हृदयों
में प्रवेश कर जाती है।
मानव को अपनी वाणी में पवित्र
रहना चाहिए। मानव को अपने में तपस्या का अपना क्रियाकलाप बनाना चाहिए जिससे मानव
अपने में जीवन में पवित्र धाराओं में रत्त होता हुआ,अपने को पवित्र बनाते रहे,अपनी वाणी को वेदज्ञ ध्वनि में
परिणत करते रहे। इस वेद ध्वनि में ही अपनी ध्वनि को जानता हुआ वह जो ओ३म् रूपी
ध्वनि हैं उस ध्वनि में वह ध्वनित रहना चाहिए, वह ध्वनि एक शाश्वत हैं वह सृष्टि के प्रारम्भ से वेदमन्त्रों के प्रारम्भ की
एक धारा हैं भूः भुवः स्वः में यह सर्वत्र वेदमन्त्र गुथा हुआ है। तो इसीलिए हमें
उस धारा में रत हो जाना चाहिए। हे मानव! तू प्रातः कालीन उस ब्रह्म का याग कर तू
ब्रह्म यागी बन। ब्रह्मयागी तू उस काल में बनेगा जब तेरी शान्त प्रवृत्ति बन
जायेगी अपनी अशुद्ध क्रियाओं से निवृत्त हो करके प्रभु के तेरा जीवन और वही तेरी
धारा हैं।
वेद गायन का प्रभाव
जिस काल में वेद मन्त्रों का
पठन पाठन होता है, वह भी परमात्मा का दिया हुए एक उज्जवल समय होता है। जितना
समय वेद मन्त्रों की ध्वनि में व्यतीत होता है वह परमात्मा का प्रसाद है और हमारे
जीवन में वह सौभाग्य का समय होता है। मैं प्रभु से यही कहा करता हूँ कि हे देव! आप
कितने दयालु हैं, आपकी मनोहर दया से हमारा जीवन पनपता है और आप ही की
कृपा से आपके गुणगान गाने का ऐसा समय प्राप्त होता है।
हे प्रभु! वास्तव में तो आपकी
सर्वज्ञ महिमा को, हम नहीं जान सकेंगे, क्योंकि हमारे में अल्पज्ञता है। हम वायु मण्डल में रमण कर सकते हैं, चन्द्रमा और सूर्य के पास जा सकते हैं परन्तु हमारे
में इतनी शक्ति नहीं है कि आपके राष्ट्र से आप की जो इतनी विशाल रचनात्मकता है
उसकी सीमा से दूर जा सकें। हे देव! हम आपका कहाँ तक गुणगान गायें, वाणी में इतनी शक्ति नहीं। आचार्यजनों! आज का हमारा
वेद मत्र क्या उच्चारण करता चला जा रहा था। आज हम उस परमपिता परमात्मा की याचना
करते चले जा रहे थे जिसको
वेदों ने ‘“गो” कहा है धेनू कहा है। भिन्न
भिन्न प्रकार से उसका रूपान्तर किया है। आज मैं केवल उन वाक्यों को प्रकट करने आया
हूं जो आदि ऋषियों के चुने हैं और जो वास्तव में सर्वोपरि माने जाते हैं। जहाँ हम
न वाक्यों को लेते हैं कि परमपिता परमात्मा की महिमा का गुणगान गाने वाले और
ब्रह्मवेत्ता कितने ऋषि हुए, तो बेटा! वह भी अनन्त हुए। राजा
और महाराजा भी ब्रह्मज्ञानी हुए। हमारे यहाँ एक वाक्य आता है कि राष्ट्र की
परम्परा और मानवीयता उस काल तक ऊँची रहती है जब तक मानव चरित्रवाद की महान महिमा
होती है। हे देव! आप कितने दयालु हैं, आपकी मनोहर दया से हमारा जीवन पनपता है और आप ही की कृपा से आपके गुणगान गाने
का ऐसा समय प्राप्त होता है।
वेदमन्त्र के गायन से दूषित अन्न से उत्पन्न अशुद्ध तरंगों
को शुद्ध करने की प्रक्रिया
जब मन की
कौतुक राजा के यहाँ अन्न ग्रहण से अशुद्धता
एक समय उन्होंने कहा हे देवी!
मैं कौतुक राजा के यहाँ भ्रमण करने गया। तो कौतुक राजा के यहाँ पंहुचा तो राजा
कौतुक ने अपने राष्ट्र में घोषणा कराई थी कि जितना राष्ट्र में अन्न रूप में
द्रव्य है वह मेरे कोष में आ जाना चाहिए। प्रजा ने उस अन्न को राजा के कोष में पंहुचाना
प्रारम्भ किया। जब वह राजा के कोष में चला गया। जब मैं बाल्य काल में अपने
पूज्यपाद गुरुदेव के द्वारा अध्ययन कर रहा था तो कौतुक राजा के यहाँ मैंने अन्न को
ग्रहण किया था। मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने भी किया। तो जब सांयकाल को हमने अन्न को
ग्रहण किया और प्रातः कालीन जब हम साधना में परिणत होने लगे साधना करने लगे तो
हमारे मन की प्रवृत्ति चंचल बन गई प्रवृत्ति चंचल बन गई तो हमने विचार किया कि अब
क्या करें ? दोनों ने साधना का काण्ड समाप्त कर दिया। उन्होंने
कहा प्रभु! अब क्या करें? तो उन्होंने पुनः स्नान किया, जल में प्रोक्षण करके पुनः जब मार्जन करने के लिए
तत्पर हुए तो हम चिन्तन करने लगे
तो आत्म चिन्तन के आश्रित न रह
करके ओर ही चिन्तन होने लगा। जब चिन्तन दूषित बन गया, दूषित होने से वह तरंगें उत्पन्न होती रहीं तो उस समय हम दोनों भ्रमण करते हुए, कौतुक राजा के द्वार पर पंहुचे । कौतुक राजा ने
ऋषियों का स्वागत किया। उन्होंने कहा प्रभु! स्वागत तो पश्चात होगा। हमारा स्वागत
तो इससे पूर्व ही हो गया। जिससे हमारे मन की प्रवृत्ति अशान्त हो गई है। उन्होंने
कहा प्रभु! ऐसा क्यों ? उन्होंने कहा तुम्हारे भण्डार में, हमने भोज्य प्राप्त किया था। परन्तु हमारी साधना तो
दूषित हो गई उस समय राजा कौतुक ने निर्णय किया और पाचक से कहा भोजनालय में कैसे
अन्न का निर्माण किया था ? तो पाचक ने राजा से कहा भगवन!
मुझे यह प्रतीत नही है वह कैसा अन्न है? कौतुक राजा ने उससे निर्णय किया। वह अन्न को ले करके आये। उन्होंने कहा कि
कहिये तुम यह अन्नाद को कहाँ से लाएं? उन्होंने कहा कि यह जो राष्ट्र का कोष है, उसी में से अन्न को लाया गया हैं।
राजा कौतुक ने निर्णय किया
निर्णय करने से प्रतीत हुआ कि जितने भी राजा के राष्ट्र में द्रव्यपति थे उन्होंने
द्रव्य का संग्रह सुन्दर प्रवृत्ति से प्राप्त नही कराया। उन्होंनं अन्न का जो
निर्माण किया द्रव्य का हृदय से चिन्तित होना ही हमारा कर्तव्य नही है प्रजा
चिन्तित हो करके अपने में भार स्वीकार करके वह राष्ट्र कोष में अन्न जाता हैं तो
राजा के राष्ट्र को भ्रष्ट कर देता है तो कौतुक राजा ने ऋषि मुनियों के चरणों को
स्पर्श किया और चरणों को स्पर्श करके कहा प्रभु! यह मेरा ही दोष है मेरे राष्ट्र
में प्रजा का दोष है। भगवन! अब हम क्षमा चाहते हैं।
कौतुक राजा ने जब ऐसा कहा तो
ऋषि मुनियों ने कहा, कि हे राजन! यह अन्नाद तुम्हारी इस प्रवृत्ति को
भ्रष्ट करेगा और राजा की प्रवृत्ति जब भ्रष्ट हो जाती हैं तो प्रजा का विनाश हो
जाता है। ऐसा नही होना चाहिए। उन्होने कहा तो प्रभु! मैं तो इस अन्न को ग्रहण करता
ही नही हूँ। मैं तो स्वयं कला कौशल करके ही अन्न को पान करता हूँ। उन्होंने कहा राजन!
यह तो यथार्थ है जब हम तुम्हारे अतिथि बन करके आये तो तुमने अपने अन्न में से
क्यों नही हमें भोज्य कराया ? उन्होंने कहा प्रभु! मुझे यह
प्रतीत नही था आपका मेरे से मिलन नही हुआ। तुम राष्ट्र गृह में चले जाते और
राजलक्ष्मी तुम्हें अन्न को ग्रहण करा देती। उन्होंने कहा हे राजन! ऐसा हमने नही
विचारा क्यों नही विचारा? क्योंकि इससे पूर्व हम कई समय
तुम्हारे अन्न को ग्रहण कर गये थे और उस अन्न को ग्रहण करके हमारी बुद्धि प्रखर
बनी रही एक तरंग नही, दो तरंग नही, नाना प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती रहती हैं। तो प्रभु! हमने जाना नहीं था कि
तुम्हारे राष्ट्र में ऐसा भी होता हैं। कौतुक राजा ने कहा भगवन! अब मैं क्षमा
चाहता हूँ प्रभु! चलो मेरे राष्ट्र गृह में तुम्हारा प्रवेश हो। तो हम राष्ट्र गृह
में पंहुचे। राजा ने गृह में देवी से कहा देवी! ऋषि मुनियों की अन्तरात्मा में
अशुद्ध अन्न ग्रहण हो गया है। मन में अशुद्ध धाराओं का जन्म हुआ है और वह जो मन की
धाराएँ हैं वह अशुद्धवाद में परिणत हो गई हैं। देवी! स्वयं के उस अन्न को ग्रहण
कराओ उन्होंने कहा प्रभु! मैं इस प्रकार अन्न को ग्रहण नही कराऊंगी क्योंकि वह अन्न दमन हो जायेगा वह तरंगें जो उस अन्न की
हैं वह जब दमन हो जायेंगी तो वह किसी न किसी रूप में पुनः पुनरूक्तियों में आ करके, वह पुनः उभर करके उनकी तरंगों में पुनः दूषित
वायुमण्डल को प्रदान करेगा, तो हे भगवन! आज मैं इन ऋषि
मुनियों को भोज नही कराऊंगी। मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा तो देवी! क्या करें ? उन्होंने कहा कि उपवास करो और उपवास करके वेदों का
अध्ययन करो। लगभग सूर्य उदय होने से और अस्त होने तक वेद का अध्ययन करो ध्वनि से
जिससे वह परमाणुवाद तुम्हारा वेद की ध्वनि के साथ में मिश्रित हो जाये। और मेरे
पूज्यपाद गुरुदेव ने इस प्रकार व्यवधान किया जल को अपने समीप ले करके वेद मन्त्रों
की तरंगें जल को स्पर्श करके जाती थी कि जल का पान करना और वेद का अध्ययन करना जटा
पाठ घन पाठ में गाना, मध्य में, मन की प्रवृत्ति कुछ चंचल बनी, वह संस्कार पुनः उनके समीप आये
तो वेद का अध्ययन करते, रात्रि काल में देवी ने कहा हे
प्रभु! आप ऋषि हैं, आप साधक है हम तो संसार के प्राणियों के प्रति साधना
करते हैं आप आत्म चिन्तन करते हुए प्रभु को प्राप्त करने के लिए साधना करते हो ।
हे प्रभु! आज पूर्णिमा के चन्द्रमा को निहारते रहो और उसमें प्रभु की सृष्टि को
निहारते रहो। पूज्यपाद गुरुदेव ने वही किया परन्तु उसके पश्चात उनके हृदय की वे
तरंगें समाप्त हो गई और प्रातः काल जब राष्ट्र गृह में प्रवेश हुआ, तो मन्त्रों की सुगन्ध के साथ, ऋषि मुनियों को अन्नाद का पान कराया, अन्न का निर्माण किया। निर्माण करके उसको तपा करके
ऋषि मुनियों को पान कराया, तो माता यह कहती थी कि मेरा
हृदय पवित्र बन जाएं मेरे हृदय की तरंगें ऋषि मुनियों के हृदयों में प्रवेश हो
जाएं जिससे वह साधना में पुनः परिणत हो जायें।
वेद गायन का वास्तविक स्वरूप
हम तुम्हारे समक्ष वेदमन्त्रों
का गान गा रहे थे। ये भी तुम्हें प्रतीत हो गया होगा, जिन वेदमन्त्रों का अभी अभी हमने तुम्हारे समक्ष पाठ किया। आज हृदय प्रातः मना
रहा था और वेदवाणी में इतना ललाहित हो रहा था, और पुकार पुकार कर कह रहा था कि परमात्मा का गुणगान गाते ही चले जाओ। आज के वेदपाठ में बहुत सी माधुर्यता
और अलौकिकता थी। आज हमें वेदपाठ माधुर्यता से ही करना चाहिए, और अन्तःकरण से करना चाहिए, वह हमें शान्तिदायक होगा। जब हम वेदमन्त्रों को नाममात्र से ही उच्चारण करते
हैं और उनका अच्छी प्रकार मन्थन नहीं करते तो वेद के अक्षरों की रटन्त करने से कोई
भी लाभ प्राप्त नहीं होता। लाभ उसी काल में प्राप्त होगा, जब हम वेदवाणी के अनुकूल अपने विचारों को ऊँचा बनाएंगे। वेदवाणी कुछ उच्चारण
कर रही है और हमारा जीवन उसके विपरीत चल रहा है, तो उस वेदवाणी से कुछ लाभ न होगा। लाभ उसी काल में होगा जब बुद्धिमान ब्राह्मण
वेदमन्त्रों का मन्थन करता है, उसका अनुवाद करके सरल से सरल
बना लेता है। इसी प्रकार हमें अपने जीवन को इतना सरल और नम्र बना लेना चाहिए, कि हम महान् और विचित्र बनते रहें ।
वेद गायन से शुद्धि
आज वेदों का गान गाते समय हृदय
में बड़ी मनमन्ता उत्पन्न हो रही थी और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे विधाता हमारी
रसना में और हमारे कण्ठ में विराजमान हो करके हमें उत्साह दे रहा है कि मेरी वाणी
का ओर अच्छी प्रकार से प्रसार करो। जिससे कि मेरी वाणी सर्वत्र ब्रह्माण्ड में ओत
प्रोत होकर, इस अन्तरिक्ष को, इस भू मण्डल को पवित्र कर दें, अर्थात् यह सारा संसार पवित्र
हो जाए। क्या करें समय का अभाव है। आज हमारी इच्छा तो यह थी कि उच्च स्वर से और
अधिक वेदों का गान किया जाए, जिससे कि अन्तरिक्ष में वेदों
के मन्त्रों का रमण हो करके, वातावरण अच्छी तरह शुद्ध हो जाए
।
यह ब्रह्माण्ड, यह सारी सृष्टि,आपकी बनाई हुई है। हमारी रसना में आपका ही बल दिया हुआ है। हमारे कण्ठ में भी
आप विराजमान हैं, आपकी ही कृपा से, आपकी ही सत्ता से हम वेदमन्त्रों का गान कर पाते हैं। आपकी वाणी कहती है कि यह
वायुमण्डल यह अन्तरिक्ष वेदमत्रों से ही शब्दाययमान हो करके, शुद्ध हो जाता है। यह आपकी बड़ी मनोहरता है। हमारे आँगन में एक वार्त्ता नहीं आ रही है कि आपका
बनाया हुआ संसार क्या पदार्थ है ? इसको क्या आपने रचाया है ? और यह क्यों रचाया है?और आपने कौन कौन से पदार्थों से यह संसार बनाया है।
वेद भाष्य
वेदों को स्वरों व छन्दों सहित
स्मरण शक्ति के द्वारा, एक योगी, जो प्राणों के मिलान करने की विधि को जानता है वही
वेदों में पूर्ण गायन विद्या व वेद के चहुमुखी भाष्य को जान सकता है।
गायत्री
गायत्री किसे कहते हैं? मैंने कई काल में कहा है पुत्र जितने भी वेदमन्त्र
हैं, प्रत्येक वेदमन्त्र उस महान प्रभु की आभा है और उसी
का गान गाता रहता है। परन्तु ऋषि मुनियों ने वेदों में से उस वस्तु को व्यवहार में
साकार रूप दिया जिसका जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध माना जाता है। जैसे गायत्री चौबीस
अक्षरों वाली गायत्री कहलाई जाती है। तीन उसमें व्याहृतियां मानी जाती है। हमारा
यह जो स्थूल शरीर है , यह चौबीस तत्त्वों से बना हुआ है। प्रत्येक अक्षर का
सम्बन्ध प्रत्येक तत्त्व से माना जाता है इस मानवीय तथ्य को जानना है। उस महान
प्रभु की प्रतिभा के विभाग किए जाते है कुछ शब्द इस प्रकार के होतो हैं जिनका
सम्बन्ध मानो प्राणों से होता है कुछ का सम्बन्ध मन से है, कुछ का सम्बन्ध मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से, कुछ का इन्द्रियों से है। परन्तु प्रत्येक अक्षर का जो बोधक है यह हमारा शरीर
ही है।
गायत्री
हे गायत्री माता! तू हृदय को
पवित्र बना। तुझे वेदों ने गायत्री दुर्गा कहा है क्योंकि तू मानव के दुर्गुणों को
शान्त करने वाली है गोद में आए हैं। हमारे हृदय को पवित्र बना। हमारी जितनी भी
कामनाएं है वह सब पवित्रत्व हों । हे मेरे भोले! जब मानव इस आकृति में गायत्री
छन्दों में रमण करता है कि जहां आते हैं वहीं माता विराजमान है, न प्रतीत हमे क्या दण्ड दे।
वेद का पठन पाठन
वेद के पठन पाठन करने वालों को
जान लेना चाहिए कि वेद मानव का अनुपम प्रकाश है। वह वेद का जब ज्ञान गाता है। तो
उसके आन्तरिक जगत में प्रकाश आना प्रारम्भ हो जाता है। वह प्रकाश ही मानव के
अन्तःकरण को प्रकाशित कर देता है। सूर्य के साधारण प्राणी को ऊर्जा के लिए प्रकाश
देता है वेद रूपी प्रकाश मानव अन्तःकरण को पवित्र बना देता है।
गृहपथ्य अग्नि
गृह में माता पिता और बाल्य
प्रातः कालीन वेदों का उद्घोष करते हैं, श्रद्धायुक्त हो करके वेदमन्त्रों के द्वारा याग करते हैं, वेदमन्त्रों का पठन पाठन करते हैं। जिस गृह में इस
प्रकार के पठन पाठन की प्रणाली प्रचलित होती है वह गृह स्वर्ग बन जाता है। उस गृह
में उनके आन्तरिक जगत वाले विचारों के परमाणु बाह्य स्थलियों में प्रोत प्रोत हो
जाते हैं। उन्हीं परमाणुओं से गृह पवित्र बन जाता है। जिसने गायत्री का, छन्दों व स्वरों सहित गायन नही गाया वह योगी बन जाए, यह असम्भव है।
वेद की व्यापकता
वेद केवल पोथियों में बद्ध नही
किया जाता । वेद तो इतना व्यापक शब्द है, वेद प्रकाश को कहते हैं, जो मानव के अन्तःकरण का प्रकाश
है, जो मानव के अन्तःकरण को पवित्र बना देता है, स्वच्छ बना देता है, निर्मल बना देता है। प्रत्येक दशा में मानव को
वेदमन्त्रों का उद्गीत गाना चाहिए, जिससे वाणी तुम्हारी पवित्र हो
जाएं और वायुमण्डल में मानो वह ध्वनि प्रविष्ट हो करके अशुद्ध परमाणुओं को निगलती
चली जाए और उसका शुद्धिकरण हो जाए और शुद्ध परमाणुओं से मेरे प्यारे! परमात्मा का
यह जगत भव्यता को प्राप्त हो जाए। आज कैसा सुहावना समय है जिस सुन्दर समय में
परमपिता परमात्मा ने हमे वेदमन्त्रों के उच्चारण करने का समय प्रदान किया।
वेद गायन
जब वेद का एकान्त स्थली में, विद्यमान होकर हृदय से गान गाया जाए तो मन, प्राण और चिन्तन की एक स्वर ध्वनि बन जाती है।
वेद का भाष्य
वेद का भाष्यकार भी वही होता है, जो व्यवहार को जानता है, जो यौगिकवाद को जानता है और विज्ञान को जानता है वही वेद का भाष्य कर सकता है।
अन्यथा,वेद की जो चहुमुखी जो विद्या है,इसका जो अध्ययन करने वाला हो,वही वेद की प्रतिभा को ऊँचा
बनाता रहता है।
महाभारत काल का जो समय व्यतीत
हो गया, उसके पश्चात् का, जो काल है वह मानो देखो, रूढ़िवाद में परिणत हो गया।
हिंसक प्राणियों ने वेद की प्रतिभा को नष्ट कर दिया। यौगिक नही रहे, यौगिक व्यवहार और विज्ञान जब नहीं रहता है, जब विज्ञान को वेद में से कर देते हैं, केवल अपने उदर की पूर्ति का एक साधन बना लेते हैं, तो वेद की प्रतिभा को अपने से दूरी कर देते हैं। ये
वेद हमारा पूज्य स्थली है और पूज्य में क्या क्या वार्त्ता आती हैं मानो देखो
व्यवहार, जिसका पवित्र होता है वह पूज्य होता है और जिसके
द्वारा विज्ञान होता है वह पूज्य होता है और जिसके द्वारा यौगिकवाद होता है प्राण
और मन को जब एकाग्र करके वह अपनी हृदय स्थली में, वेद के मत्र को चिन्तन में लाता है,श्वास
की, तरंगों में,उसे
गणित करने लगता है। वेद का वह योगी अर्थ करने में वह सफलता को प्राप्त होता है।
पुरातन काल में जब मैं अपने पूज्यपाद गुरुदेव के द्वारा अध्ययन करता रहा हूँ,लाखों करोड़ों वर्ष व्यतीत हो गए जब ऋषि मुनि यौगिकवाद में प्रवेश करते थे। और
यौगिकवाद किसे कहते हैं ? जहाँ मानव का दर्शन होता है
जहाँ आत्मा का विज्ञान,मानव के समीप उभर करके आता है वही यौगिकवाद कहलाता
है। भौतिक विज्ञान की सीमा समाप्त हो जाती है।
योग तो तब ही सिद्ध होगा,जिस प्रकार, हमारे अहिंसा में विचार बन जाते हैं,ब्रह्मचर्य
जब ही सिद्ध होगा है,जबकि ब्रह्म में हमारी निष्ठा हो जाएं,ब्रह्म के जो कौतुक हैं,उनकी जो क्रियाकलापता हैं,हम दोनों का एक सूत्र बन जाएं।
तो इसको हम अपने में स्वीकार करते हैं। तो विचार विनिमय मैं बेटा! विशेष देना नही
चाहता हूँ, मैं कोई व्याख्यता भी नही हूँ, केवल परिचय देने के लिए आता हूँ, व्याख्या तो वह दिया करते हैं जिनको व्याख्यां ब्रह्म
व्रते जो ब्रह्म में सदैव ब्रह्म में ही अपने को दृष्टिपात करके वही तो ब्रह्म की
व्याख्या करते हैं। जब मानव तपस्वी होता है, वेद का अध्ययन करने के लिए, वेद का देवतव में वह उसका भाष्य
करता है, उसके ऊपर टिप्पणी करता है, वेद का वह मानव वह तपस्वी भाष्य करता है, जो विवेकी होता है, जो प्रभु में जिसकी निष्ठा होती
है, परमात्मा में निष्ठा परमात्मा के विज्ञान में
भौतिकवाद में निष्ठा, आध्यात्मिकवाद में निष्ठा, क्योंकि आध्यात्मिकवेत्ता जो होता है। जो परमात्मा आत्मा और आत्मा में
परमात्मा को दृष्टिपात और परमात्मा से आत्मा को इसी प्रकार दोनों का समन्वय करने
वाले और परमात्मा की वाणी को जो अपने में स्वीकार करता है, तो वह वेद के ऊपर टिप्पणी कर सकता है। वह वेद के ऊपर भाष्य कर सकता है, क्योंकि वह भौतिक विज्ञान को जानता है, और बाह्य और आन्तरिक दोनों व्यापारों को जानता है। जो
उसका व्यवहार है। और व्यवहार में भी विवेक हो और मानो प्राण अपान को, उदान में दोनों का समन्वय करने वाला हो, तो वह वेद के ऊपर टिप्पणी उसका भाष्य कर सकता है।
क्योंकि जिस भी काल में वेद के मन्त्र में, जब कोई किसी प्रकार की भ्रान्ति होती है। तो उसी काल में वह समाधिष्ट हो जाता
है, प्राण को अपान में, अपान को प्राण में, और समान को व्यान में, व्यान और समान में दोनों को उदान में जिसका समन्वय
जितनी गति होती है। वेद के भाष्य में अपने में सफलता को प्राप्त होता
रहता है।
वेद की आभा
यौगिकवाद वेद की आभा को परिणत
करता है। यह मानव की विवेचना मुझे कोई प्रिय नहीं लग रही है कि आज मैं यह उच्चारण करने लगूं,वेद भिन्न भिन्न रूपों में, भिन्न भिन्न आश्रमों का एक एक
वेद हैं,वेद तो ज्ञान कह रहा है। वेद व्यवहार कह रहा है, वेद यौगिकवाद की व्याख्या कर रहा है। ये वेद की
प्रतिभा कहलाती है,जितना भी ज्ञान और विज्ञान है वह वेद के माध्यम से
प्रारम्भ होता है।
वेद की तीन तरङ्गे
मुझे मेरे प्यारे महानन्द जी ने
पुरातन काल में यह वर्णन कराया था कि मध्यकाल इस प्रकार का हुआ, उसमें वेद केवल पूजा की स्थली माने गए, और उसमें ब्राह्मण समाज ने,बुद्धिमानों ने पूजा की स्थलियों को उच्चारण किया,कि ऐसा नहीं, मैं इसका खण्डन नहीं कर रहा हूँ। मैं इसका मण्डन करता
हूँ कि वेद प्रकाश है और प्रकाश पूजा का स्रोत है,परन्तु उस प्रकाश में तीन प्रकार की तरंगों का
प्रादुर्भाव होता है और वे तीन प्रकार की तरंगें क्या हैं?व्यवहार है, विज्ञान है और यौगिकवाद कहलाता है। ये तीन प्रकार की
तरंगें वेद रूपी प्रकाश से उत्पन्न होती हैं।
गायत्री व छन्द
हमारे यहाँ परम्परागतो में
छन्दों और गायत्री ऋषि कहलाते थे गायत्री और छन्दों का अभिप्रायः यह कि गायत्री तो
गाई जाती है। और छन्दों को धारण किया जाता है। छन्द उसे कहते हैं,जो आभा है। आभाओं का जन्म होता है,उन
आभाओं की,जो चित्त में तरंगे उत्पन्न होती हैं,उन चित्त की तरंगों का नाम छन्दावली,उन
छन्दों से उन तरंगों का अन्तःकरण में ही समावेश कर देना चाहिए ।
महर्षि पातञ्जलि ने और भी आदि ऋषियों ने जैसे चित्त की वृत्तियों को निरोध करने को कहा है वह पान्ति
याग कहलाता है। जब महर्षि बाल्मीकि ने विराजमान होकर के गायत्री और छन्दों,छन्दावली ऋषि बने। तो वह क्योंकि यह शास्त्रीय और वैदिकता से सुगठित कहलाई
जाती है। विचार यह कि जब वेद के रूप को,वेद के
मन्त्र को गाया जाता है। वेद तो गाया जाता है और जब ऊँचे स्वर से मानव गाता है तो
उसमें दो वस्तु आ जाती है। सबसे प्रथम जो मानव वेद की गायत्री को गाता है,उसकी वाणी में सतवाद आ जाता है। और जब वाणी में सतवाद आता है,तो सत् में मधुरपन आ जाता है। जिसकी वाणी में सतवाद भी हो और मधुरपन भी हो,वह मानव तो संसार में कृतज्ञ कृतज्ञ हो जाता है। मानव की वाणी में सतवाद तो है,परन्तु मानव की वाणी में यदि मधुरपन नहीं है,तो उस मानव के अन्तःकरण का जो सुकृत है,वह हनन हो जाता है। ऐसा गायत्री और छन्दों से सिद्ध होता है। महर्षि वाल्मीकि ने लगभग चौरनवं वर्षों तक इस प्रकार का तप किया। उन्होंने सबसे प्रथम
यह विचारा कि मैंने इस वाणी से कितना कठोर और मैने भय दिया है इस वाणी से, हे प्रभु! मेरी वाणी को सदैव ऊँचा बना,अब गायत्री का यज्ञन करने वाला प्राणी,जो
अन्तरात्मा में याग करता है पान्ति याग।
छन्द
मुझे वह काल भली भांति स्मरण
आता रहता है,जब हम अपने पूज्यपाद गुरुदेव के द्वारा परिणत होते थे,तो वे गायत्री को गाते थे। और हमारे द्वारा वह गान
रूप में परिणत कराते थे। अब गाता कौन मानव है ? जिसका अन्तःकरण शान्त होता है, जिसका चित्त शान्त होता है और
चित्त शान्त उस काल में होता है,जब चित्त का भोजन उसे प्राप्त
होने लगता है। चित्त का भोजन क्या है अन्तःकरण अथवा चित्त का भोजन है ज्ञान ।
चित्त का भोजन है,यह जो विषय हैं,नाना प्रकार के जो विषय स्वादन है,उनसे जब वह उपराम हो जाता है।
तो चित्त का भोजन ज्ञान है,विवेक है,चित्त को जब अन्न प्राप्त हो जाता है,तो चित्त स्वतः शान्त हो जाता है। और जब चित्त शान्त हो जाता है,उसकी वाणी में मौनपन आ जाता है और उस वाणी में छन्द आ जाते हैं।
ओजस्तव आ जाता है। वह मानव
संसार में सौभाग्यशाली है। हे मेरे प्यारे प्रभु! तेरे राष्ट्र में, तेरी विद्या में तेरे विज्ञान में क्या नहीं है भगवन!
हम तो भगवन! तेरी इस पवित्र विद्या का अध्ययन करते हुए हम तो चकित हो
जाते हैं। और हमें ऐसा भान होने लगता है,जैसे
माता का पुत्र माता के अनुकूल विराजमान हो जाता है। और माता के अनुकूल कर्म करने
लगता है। माता उससे पुलकित होती हैं। माता के विपरीत चलता है, माता को माता के अनूकुल कर्म करने लगता है,माता उसे प्रीति देती है,माता के विपरीत चलता है माता को अशुद्ध वचन उच्चारण करता है तो माता उससे
दूरिता हो जाती है। जब माता दूरिता हो जाती है। तो प्रीति कौन दे सकता है ? तो यह जो गायत्री माँ है यह तो ममता है, यह चौबीस अक्षरों वाली गायत्री यह चौबीस अक्षरों वाली गायत्री है चौबीस तत्त्व हमारे
शरीर में भासतें है,तीन तन्मात्राएं हैं, तीन उनके शब्द हैं, इस प्रकार यह मानव को ऊर्ध्वा
बनाने के लिए सदैव यह जो माँ गायत्री है,अक्षरों
वाली चौबीस अक्षरों वाली यह छन्दों के सहित जब छन्दो के सहित अन्तरात्मा में याग
करते हो, पान्ति याग तो मानव को सर्वत्र वस्तु प्राप्त हो जाती
है।
मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने मेरा
बारह वर्ष तक बहिष्कार किया और यह कहा कि तुम गायत्रियों का जपन करो। परन्तु जो
गायत्री का जप नहीं कर पाता, गायत्री और छन्दों को अपने जीवन
में नहीं लाता अकल्याण की पोथियों का अध्ययन करता है उस मानव के सात जन्मों का पुण्य समाप्त हो जाता है, ऐसा मुझे पूज्यपाद गुरुदेव ने अध्ययन कराया। मेरी माता हो, पिता हो अथवा मानव हो, पति हो, पत्नी हो प्रत्येक को अपने अपने कर्तव्य में सदैव दक्ष होना चाहिए। और गाना
गाना चाहिए। वह गान क्या है? वह गान है गायत्री जो स्वरों से
गाई जाती है। वेद जो स्वरों से गाया जाता है और गाने का अभिप्रायः यह कि जो अपने
अन्तःकरण में धारण किया जाता। उसको हमें सदैव धारण करना है।
गायत्री
मेरे प्यारे महानन्द जी ने इससे
पूर्व शब्दों में संसार की नाना चर्चाएं कीं। परन्तु उन चर्चाओं में एक अमूल्य
विषय यह भी था कि हमने कुछ गायत्री के ऊपर अपना विचार देना प्रारम्भ किया था।
परन्तु गायत्री कहते किसे हैं? संसार में जितने भी वेदमन्त्र
हैं, प्रत्येक वेदमंत्र उस महान प्रभु की आभा है और उसी का
गान गाता रहता है। परन्तु ऋषि मुनियों ने वेदों में से उस वस्तु को व्यवहार में
साकार रूप दिया,जिसका जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध माना जाता है। जैसे २४
अक्षरों वाली गायत्री कहलाती है। तीन उस में व्याहृतियां मानी जाती हैं। हमारा यह
जो स्थूल मानव शरीर है,यह २४ तत्त्वों से बना हुआ है। उन २४ तत्त्वों से जो
बना हुआ शरीर है,प्रत्येक अक्षर का सम्बन्ध प्रत्येक तत्त्व से माना
जाता है इस मानवीय तथ्य को जानना है। उस महान प्रभु की प्रतिभा के विभाग किए जाते
हैं। कुछ शब्द इस प्रकार के हैं,जिनका सम्बन्ध प्राणों से है, कुछ का सम्बन्ध मन से है। कुछ का मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से कुछ का इन्द्रियों से है। परन्तु प्रत्येक
अक्षर का जो बोधक है यह हमारा शरीर ही है। तो ऋषि मुनियों ने इन वाक्यों को साकार
रूप दिया। और साकार रूप देने का एक ही अभिप्राय था,कि जिसके ऊपर हम अनुसन्धान कर सकें और अपने जीवन की आभा से उसका हम सम्बन्ध
अथवा उसका मिलान कर सकें। रहा यह कि मैं गायत्री के गूढ़तम रहस्य को तो कोई विशेष
प्रतिभा में ले जाना नहीं चाहता हूँ। यह वाक्य है कि प्रत्येक शब्द को हमारे यहाँ
गायत्री कहा जाता है। गायत्री का अभिप्राय है कि हमारे यहाँ जो गायी जाती है और
वेद का गाया गया प्रत्येक शब्द गायत्री कहा जाता है। जब ऋचा को गाते हैं,तो मन मग्न हो जाते हैं।
क्योंकि वह गायत्री कहलाई जाती है। जिसके ऊपर हमें बारम्बार विचार विनिमय करना है।
जिस आभा को ले करके हम संसार की उस प्रतिभा में ऊँचा बनाना चाहते हैं। जिस जीवन
में हमारे में एक महत्ता आती हो,उस आभा का नाम बहुत ही प्रियतम
माना गया है।
वेदमन्त्र
हम अपने पूज्यपाद गुरुदेव के
गान गाते थे प्रत्येक मानव के मानव मन्त्रों का अध्ययन कर
रहा है, वह काल मुझे स्मरण आता रहता है,जिस काल में चरणों में ओत प्रोत हो जाते थे, और पूज्यपाद गुरुदेव से प्रश्न करते रहते थे, वे उत्तर देते रहते थे,मानव की नस नाड़ियाँ, इन्द्रियां,उसके साथ गति कर रही है मन्त्रार्थ उच्चारण किया जा
रहा था, मानव के मुखारबिन्दु में,जो नसों का,नाड़ियों का जो एक इन्द्र जाल की भांति, जो एक जाल का प्रदर्शन हो रहा है। प्रत्येक नस
नाड़ियाँ वेदमन्त्र से गतियां करने लगती हैं संसार में जो वेद की विद्या, इसको मन्त्र कहते हैं। संसार की कोई भी
गौणिक भाषा हो, उस भाषा का जो प्रादुर्भाव से हुआ है, वह देव वाणी से हुआ, और देव वाणी में ही, यह वेद भाषा निहित रहती है,जब मैं यह विचारता हूँ कि वायु मण्डल में जो तरंगों
का प्रादुर्भाव हो रहा हैं,जो तरंगेंवाद गति कर रहा है,उसके आँगन में एक वेदमन्त्र कटिबद्ध हो रहा
हैं।
वेद एक उपहार
आज का हमारा वेदमन्त्र उच्चारण कर रहा था कि सृष्टि के आदि में ब्रह्मा ने इस संसार की रचना की, संसार की रचना करने के पश्चात,उसी मेरे देव ने वेदों का ज्ञान और विज्ञान दिया
वेदों का जैसे माता,कन्या याग करती है, तो माता अपनी पुत्री को गृह से कुछ उपहार दे करके वह पति लोक को प्राप्त कराती
है। और उसे कुछ पुष्पांजलियां देती है, कुछ मुद्राएं देती है, इसी प्रकार प्रभु ने, ब्रह्म ने इस संसार को रचा।
परन्तु रचने के पश्चात, यह वेद विद्या इसे प्रदान कर दी
संसार में, और वेद की विद्या की प्रदान करके यह कहा-हे मानव! वह वेद की विद्या इसे प्रदान कर दी। जैसे माता अपनी पुत्री को उपहार
देती है, ऐसे ही इस संसार को उपहार के रूप में, प्रभु ने यह वेद विद्या उसे प्रदान की समाज को, यह समाज इस विद्या में परिणत हो रहा है, कोई मन्त्र के ऊपर मुग्ध हो रहा है, कोई उसके अर्थ पर मुग्ध हो रहा हैं, कोई
लोकों की यात्रा करने में मुग्ध हो रहा है,तरंगों को जान करके वैज्ञानिक बन रहा है। वह जो ज्ञान रूपी समुद्र हैं, जो आदि ब्रह्मा ने सौगात के रूप में, अथवा पुत्री को दहेज के रूप में वह जो वेद विद्या दी
हैं, वह अनुपम ज्ञान है। वह अनुपम विज्ञान हैं जिसके ऊपर
संसार का जितना भी विज्ञान हैं वह सब रमण कर रहा है अथवा नृत्त कर रहा है। जैसे
द्यौ लोक में, सूर्य प्रकाश कर रहा है, वह प्रकाश मानव की अनन्तता में गति कर रहा हैं। मानो अपने में विराम कर देता
है, मौन हो जाता है। परन्तु एक ऐसी उज्ज्वल ज्ञान सृष्टि
के पिता ने बेटा! हमें प्रदान किया, जिस ज्ञान और विज्ञान को ले करके, मानव अपने जीवन को ऊँचा बनाता हैं, वह विद्या चाहे किसी भी रूप में विद्यमान हो, परन्तु वह प्रभु का दिया हुआ, उपहार है समाज के लिए, उपहार के रूप में यह प्रदान
किया। उसी के अन्तर्गत सम्बन्तसर आ जाते हैं उसी के अन्तर्गत नाना गणना आ जाती हैं, उसी के अन्तर्गत यह ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु
मानो गति कर रही हैं। अथवा नृत्त कर रही है।
गायत्री मन्त्र से आहुति
जब पचास दिवस हो गएं,नित्यप्रति प्रातः कालीन याग करते रहे तो वह एक ही वेदमन्त्र से गायत्राणी
छन्द होता हैं,उस गायत्री छन्द से वह, ध्वनि से वेदमन्त्रों का विशुद्ध रूप से, जब वेद ध्वनि करने लगे, और स्वाहा कहने लगे, तो पचास दिवस
में, उनका वह रूग्ण शान्त हो गया।
रोगानुसार मन्त्र
बहुत समय हो गया, काल समाप्त हो गया,अन्तःकरण में वह संस्कार,जब उद्बुद्ध हो जाते हैं, वाक् आने लगते हैं। परन्तु वह क्यों ऐसा है? इन रोगों में कौन से मन्त्रों का उच्चारण होना चाहिए, मन्त्र वह होना चाहिए, जिससे उसके फुस फुसां वाणी से, उस फुस फुसां दोनों से उसका
मन्त्र का समन्वय होना चाहिए,बहुत से मन्त्र इस प्रकार के हैं पुत्र! जिन मत्रों का सम्बन्ध वाणी से, और फुस फुस से होता हैं, कुछ मन्त्र ऐसे होते हैं, जिनका सम्बन्ध ईंगला, पिंगला, सुषुम्ना नाड़ी से हो करके, रीढ के साथ में उनकी ध्वनि का
समन्वय होता हैं। इसी प्रकार कुछ मन्त्र ऐसे होते हैं जो सर्वा अंगी होते हैं, वह छन्दों का भेदन हैं, उन छन्दों के भेदन के साथ साथ, हमें इन मंत्रों का उच्चारण
करते हैं, जैसे हमारी वाणी और फुस फुस का सम्बन्ध हैं हैं, त्वानां तुरुणश्चप्रव्हा अस्वं भवितां दिव्यं
गतप्पव्हे अस्वाकं मधु वंजन्म तो इन वाक्यों का जो समन्वय, यह छन्द बन गया। परन्तु इस छन्द का सम्बन्ध फुस फुस और वाणी से रहता हैं।
परन्तु नस नाड़ियों से रहता है, कुछ समन्वय मन्त्र ऐसे होते हैं
जिनका समन्वय मानव के शरीर में, उदर में जो नस नाड़ियाँ होती है, उदर में जो अग्रहाण होता हैं, उदर में जो एक नाड़ियों का एक विशाल, एक भवन बना हुआ होता है। उन नस नाड़ियों में वह गति करती रहती
हैं, वह गतियां होती रहती है, और वह जब गति करती है, तो शरीर के अब्रहा भाग में, उदर में किसी भी प्रकार का रूग्ण हो, परन्तु मन्त्र को उच्चारण करते हैं जल की धाराओं के
साथ में, हम उसको उच्चारण करते हैं, उसमें अपनी विचारधाराओं की विद्युत देते हैं, और विद्युत दे करके उद्बुद्ध आभास प्रगट होने लगता हैं। तो नाड़ियों का जो एक
भवन होता है,उस भवन में किसी प्रकार का रूग्ण आ जाता है। तो वह
उससे विशुद्ध बन जाता है।
वेदमन्त्रों का गायन कायाकल्प
में सहायक
कायाकल्प का अभिप्रायः यह है कि शरीर यदि जीर्ण हो जाएं, शरीर में जीर्णता आ जाएं जीवन
शक्ति का ह्रास हो जाएं, तो औषधियों से उसको जीवन शक्ति
प्रदान की जाती है। तो कुछ इस प्रकार के गायन भी होते हैं, जिन गायन के गाने से, जीवन शक्ति प्रदान की जाती है।
ऐसा गान भी होता हैं परन्तु वह गायन स्वर और ग्रणियों से परिपक्व रहता है।
चरित्र क्या है
जैसे एक मानव वाणी उद्गीत रूप
में गाता रहता है, वेद गान गाने वाला, वेद गान गा रहा है। परन्तु वेद गान गा करके जब उसके ऊपर अपने जीवन को न्यौछावर
करता है। तो उसी का नाम चरित्र कहलाता
हैं।
मन कर्म वचन से वेद का ज्ञान
जब राजलक्ष्मी ने यह वाक् प्रगट
किया तो ऋषिवर मौन हो गये,ऋषि ने आगे उद्गाता से नाना
प्रश्न किए कि उद्गाता किसे कहते हैं ? उन्होंने कहा-उद्गाता कहते हैं जो उद्घोष करने वाला है,जो वेदमन्त्रों को स्वरों से हृदय से गाता हैं,ऐसा उद्गीत गाने वाला होना चाहिए,जिसका
मन, कर्म, वचन एक सूत्र में लय रहें,परन्तु मन,कर्म, वचन एक सूत्र में रह करके,जब वह वेद का गान गाता हैं,वही वेद का गान सुगन्धित हो
करके, साकल्य को ले करके वायुमण्डल में छा जाता है और दूषित
वायुमण्डल को समाप्त कर देता हैं।
वेदों के विभिन्न पाठ
हमारे यहाँ जब भी वेदों का पठन
पाठन होता रहा है,वेदों के पठन पाठन के भिन्न भिन्न प्रकार माने गए हैं,जैसे हमारे यहाँ जटापाठ,धनपाठ,उदात्त,अनुदात्त और माला पाठ और भी नाना प्रकार माने गए हैं।
परन्तु वेदमन्त्र मानव के अन्तःकरण को प्रकाश देनेवाला है। जिस भी काल में मानव, वेद मन्त्रों की ध्वनियों में ध्वनित होता रहा है, वेदों का जो अनुपम जो विचारणीय शब्दों में विज्ञान और ज्ञान की प्रतिभा और
उसमें जो यौगिकवाद है,वह मानव के हृदय में जब समाहित,अपने में धारण करने लगता है तो वह वेदज्ञ बन जाता है।
वह वीरतव को प्राप्त हो जाता है।
तो हमारा वेद मन्त्रः उस
परमपिता परमात्मा की महिमा का गुणगान गा रहा हैजैसे ये सूर्य हमारे नेत्रों का
प्रकाशक है,नेत्रों को प्रकाश देता रहता है,इसी प्रकार, वेदरूपी सूर्य अथवा प्रकाश है वह मानव के अन्तःकरण को पवित्र बनाता है।
अन्तःकरण में प्रकाश लाता है। तो उस परमपिता परमात्मा का जो वेदज्ञ ज्ञान है वह
बड़ा अनूठा और प्रकाश में ले जाता है। मानव तो प्रकाश के लिए सदैव अपने में उपासना
करता रहा है और यह विचारता रहता है कि मेरे में अनुपम प्रकाश आ जाएं,जिस प्रकाश में,मैं रत्त हो करके और प्रकाशमयी माला को,मैं अपने मैं धारण करता रहूँ। क्योंकि मानव एक माला को धारण करना चाहता है।
मुझे वह काल स्मरण आता रहता है जब ऋषि मुनि एकान्त स्थलियों पर विद्यमान हो करके,परमपिता परमात्मा के ज्ञान और विज्ञान में सदैव रत्त रहे हैं। वेदगान गाने के लिए कि हम परमपिता परमात्मा के अमूल्य रूप में रत्त होना चाहते
हैं,क्योंकि हमारा ये जो मानवीय दर्शन है अथवा मानवीयतव
है यह एक आभा में नियुक्त हो रहा है।
हमारा वेद मन्त्र, उस परमपिता परमात्मा की महिमा का गुणगान गा रहा है।
प्रत्येक मानवों के अन्तर्हृदयों में विचार विनिमय होता रहा है, कि हम उस परमपिता परमात्मा के
वैदिक ज्ञान को जानने के लिए तत्पर रहे। परन्तु वेद में जो ज्ञान और विज्ञान है उसके ऊपर भी मानव परम्परागतों से अन्वेषण करता रहा है। परन्तु किसी
काल में जब वह महान बलवती हो जाता है तो, बलवती हो करके, वह अग्नि के काण्डों में समाप्त हो जाता है। परन्तु
वह न्यून बन जाता है। और किसी काल में जब अनुसन्धानवेत्ता, विशेषज्ञ विशेष हो जाते हैं तो वह पुनः बलवती होना प्रारम्भ हो जाता है।
परन्तु इसी प्रकार ये परमात्मा का जो ज्ञान और विज्ञान है,इसके ऊपर मानव सृष्टि के प्रारम्भ से अन्वेषण कर रहा
है परन्तु यह इतना अनन्तमयी है और मानव का जीवन बड़ा सीमित है परन्तु जहाँ इसकी
सीमा होती है वहाँ तक जानता है। परन्तु उसके पश्चात वह न्यून हो जाता है।
तपस्वी मानव को वेद ज्ञान
तो परमात्मा की अनन्तता के ऊपर
विचार विनिमय करना,अणु और परमाणुओं में गतिवान होना,समाधिष्ट हो करके, अपने को वायुमण्डल के आश्रित कर देना,उसकी उड़ानें उड़ना,यह सर्वत्र एक मानवीयतव माना
गया है परन्तु विचार आता रहता है कि हमारा वेद का मत्र क्या कहता है, वेद के मन में क्या क्या प्रतिभा आती रहती है, इसके ऊपर भी मानव को विचार विनिमय करना चाहिए। मानव
यह चाहता है कि मैं एक एक वेदमन्त्र के रहस्यतम को जानने वाला बन जाऊँ, परन्तु वह जानता भी रहता है। परन्तु विचार पुनः यह
आता है कि वेद के मन्त्रों को तो वह मानव जानता है जो तपस्वी होता है। जो मानव प्राण
को अनुदात्त में,अनुदात्त को प्राण में,प्राण को मन में और मन को अपने में परिणत करता हुआ, वह जब वेद के मर्म को जानता है।
वेदमन्त्र में तीन भाव
जब वेद का आश्रय आता है,तो एक एक वेदमन्त्र में तीन प्रकार का भाव हमें प्रतीत
होता है। वेदमन्त्र में जब श्रद्धामयी ज्योति जागरूक हो जाती है तो वह तीन प्रकार
के भाव में परिणत हो जाता है। सबसे प्रथम अपने में श्रद्धा में परिणत होता है, उसके पश्चात श्रद्धा उसको कर्मकाण्ड की प्रतिभा बना
लेता है और कर्म काण्ड के पश्चात वह उसकी उपासना करना प्रारम्भ करता है और उपासना
के पश्चात उसके वैज्ञानिक तथ्यों में रत्त हो जाता है। तो एक ही वेदमन्त्र है, और वह तीन प्रकार की प्रतिभा का हमें वर्णन कर रहा
है। परमात्मा की महती का वर्णन करा रहा है।
वेद ध्वनि
ये सृष्टि के प्रारम्भ से हुई, ये पांच प्रकार के यागों की उपलब्धि हुई और पांचो
प्रकार का याग क्या है,हे मानव! तू प्रातः कालीन अपनी
शारीरिक क्रियाओं से निवृत्त हो करके, और तू प्रभु के समीप जाने का प्रयास कर | तू ब्रह्मयाग कर ,गृह में गृह आश्रम में पति
पत्नी हैं, तो उसमें ब्रह्मयाग में रत्त हो जाना चाहिए। प्रातः
काल में ब्रह्मचारी, आचार्य दोनों ने ब्रह्मयाग करना चाहिए,वह ब्रह्मयागी बन जाएं,जब कहीं भी,किसी भी स्थली पर कोई मानव विद्यमान है,वह ब्रह्मयागी बन जाएं,क्योंकि प्रातः काल में,ये जो जितना प्राणी मात्र है, आत्मवत है,यह
सर्वत्र प्रातः कालीन अपनी क्रियाओं से निवृत्त हो करके, गान गाता है,यह ध्वनित हो रहा है,प्राण,जो प्राणी हैं, प्राणों से ध्वनित हो रहा हैं,जो जीवात्मा प्राणों को समूह ले
करके रत्त रहता है,वह गान गा रहा हैं,तो प्रातःकालीन क्या जो जितने भी परमात्मा के राष्ट्र में,प्रभु के राष्ट्र में, जितना भी प्राणी मात्र हैं, वह सब एक गान गा रहा है,और वह गान गाता हुआ,अपने में प्रसन्न हो रहा है,इसी प्रकार प्रातःकालीन तुम
ब्रह्मयागी बनो और तुम नाना प्रकार के अज्ञान में प्रवेश न करते हुए, जो तुम्हारे मस्तिष्क में एक ध्वनि हो रही हैं और वह
स्वरों का ज्ञान हो रहा हैं प्रत्येक वेदमन्त्रों में ध्वनि होती हुई प्रतीत होती
हैं। वह ध्वनित होता हुआ दृष्टिपात आता है, जब वेद का याचक, वेद के गर्भ में, वेद की वह भूमिका बनाने लगता है,जब
उसका गान गाता हैं,तो प्रत्येक वेदमन्त्र उसके समीप एक ध्वनि बन करके
रहता हैं। प्रत्येक वेदमन्त्र अपनी आभा में रत्त और विज्ञान की धाराओं की उपलब्धि
करने वाला है, ब्रह्मयाग की उपलब्धि करने वाला है, क्योंकि जैसे एक वेदमन्त्र हैं, परमात्मा का रचाया हुआ ज्ञान और विज्ञान उसमें निहित
रहता है।
वेद ध्वनि
तो विचारा गया तो इसी वाक् की
रचना मेरे पुत्रों! देखो, ऋषि मुनियों से हुई है क्या
गृहों में क्या वनों में रहने वाला हो वायुमण्डल में जितना वाक् शक्ति
मानव की पवित्र होगी,उतना ही गृह हो बालक ,पर्व हो, वह उसी पवित्रता की धारा में रत्त रहता हैं,वह
सत्य ही सत्य दृष्टिपात आता रहेगा। माता अपने पुत्रों को जब सत्यता का उपदेश देती
हैं,तो पति और पत्नी दोनों गृह में जब वेदज्ञ ध्वनि का
पठन पाठन करते हैं तो बाल्यों की निन्द्रा के उनके
श्वासों के द्वार पर भी उन्हीं परमाणुओं की प्रतिभा उनके हृदयों में प्रवेश कर
जाती है, और सदैव से सिद्ध हो गया है,कि मानव को सदैव अपनी वाणी में पवित्र रहना चाहिए,मानव को अपने में तपस्या का,अपना क्रियाकलाप बनाना चाहिए, जिससे मानव अपने में जीवनता में पवित्र धाराओं में रत्त होता हुआ,अपने को पवित्र बनाता रहे। अपनी वाणी को वेदज्ञ ध्वनि
में परिणत करता रहे,इस वेद-ध्वनि
में ही, अपनी ध्वनि को जानता हुआ,वह जो ओ३म् रूपी ध्वनि हैं,वह उस ध्वनि में वह ध्वनित रहना
चाहिए,वह ध्वनि एक शाश्वत हैं। वह सृष्टि के प्रारम्भ से,वेदमन्त्रों के प्रारम्भ की एक धारा हैं, भूः भुव स्वः में यह सर्वत्र वेदमत्र गुथा हुआ है। तो
इसीलिए हमें उस धारा में रत्त हो जाना चाहिए। हे मानव! तू प्रातःकालीन उस ब्रह्म
का याग कर,तू ब्रह्मयागी बन, ब्रह्मयागी तू उस काल में बनेगा,जब तू
तेरी शान्त प्रवृत्ति बन जाएगी,अपनी शुद्ध,अशुद्ध अपनी क्रियाओं से निवृत्त हो करके,प्रभु के गान में लग जा, क्योंकि वही तेरा जीवन है, वही तेरी धारा हैं,इसके पश्चात वह संसार के भिन्न-भिन्न कार्यों में शारीरिक रचना का व्यवधान प्रथम
किया गया है।
वेदों के ज्ञान में पवित्रता
हम,कुछ मनोहर वेदमन्त्रों का गुणगान गाते चले जा रहे थे,ये भी तुम्हें प्रतीत हो गया होगा,आज
हमने पूर्व से,जिन वेदमन्त्रों का पठन पाठन किया,हमारे यहाँ नित्य प्रति वेदों का कर्म उच्चारण अथवा
उनकी पद्धतियों का विवरण और उसका कर्म सदैव प्रचलित रहता है, क्योंकि हमारा जो वेदज्ञ ज्ञान है,उस महान ज्ञान में पवित्रता है,और वह किस प्रकार का पवित्र है,जैसे ब्रह्म पवित्र है, इसी प्रकार, वेदों का ज्ञान भी पवित्र है। क्योंकि उसमें इतनी
पवित्रता हम क्यों स्वीकार करते हैं,जो
ज्ञान सर्वत्र ब्रह्माण्ड के लिए,एक तुल्य होता है। उस ज्ञान को
हमारे यहां पवित्र कहा जाता है। तो यह जो वेदों का अनुपम प्रकाश है,हमने बहुत पूर्व काल में,पूर्व स्थलों में भी उच्चारण किया है,और इसकी प्रतिभा का परम्परा से वर्णन करते चले आएं हैं। आज हम ही नही वर्णन कर
रहे हैं,हमारे सर्वश: ऋषि मण्डल ने,वेदज्ञ आचार्यों ने,सभी ने इसका सुन्दर रूपों से इसका निरूपण किया है।
परमात्मा की वाणी वेद
यज्ञमान की पत्नी कहती हैं-हे ऋषिवर! उद्गाता किसे कहते हैं? उन्होंने कहा उद्गाता कहते हैं यज्ञशाला को,जहाँ उद्गीत गाया जा रहा है,जहाँ उद्गाता के अन्तिम चरण उस यज्ञशाला में युक्त हो जाते हैं,कैसे युक्त होते हैं,एक स्वाहा उच्चारण किया,तो उसकी जो आन्तरिक जो भावना
हैं,वह साकल्य में लुप्त हो गई हैं,साकल्य का अग्नि ने विभाजन कर दिया हैं,और वही अग्नि स्वरूप बन करके,वह वही परमाणु बन करके सूक्ष्म रूप बन करके उद्गाता का जो अन्तिम चरण हैं,वह विभाजन में और विभाजन अन्तरिक्ष में और अन्तरिक्ष
वह क्रिया परमाणु में विभाजनवाद आ गया हैं।उसी विभाजनवाद में उसकी लुप्त होती
क्रिया का स्वरूप एक लिप्त रूपों में परिनित हो जाती हैं,वह
व्यापत हो जाता हैं। देवी बड़ी प्रसन्न हुई इतने में यज्ञमान ने कहा कि हे
उद्गाता! तू उद्गीत गा रहा है यह किस लिए गा रहा हैं उन्होंने कहा मैं उद्गीत
इसीलिए गा रहा हूँ, क्याकि वेदमन्त्र परमपिता परमात्मा की
वाणी हैं और यह परमपिता परमात्मा ने यह शरीर का निर्माण माता के गर्भस्थल में किया
हैं,जब माता के गर्भस्थल में से माता उद्गीत गा रही थी और
जब वेद के मत्र का समन्वय होता हैं, तो मैं वेदमन्त्र का जब उच्चारण
करता हूँ, तो माता के गर्भाशय का और मेरी वाणी का दोनों का
समन्वय हो करके उसमें जो परमपिता परमात्मा का जो हिरण्यमयी गर्भ हैं,शब्द है और शब्द इसकी जितना यह ब्रह्माण्ड है,जितना यह जगत है,यह हिरण्यमयी गर्भ में परमपिता परमात्मा के गर्भ में वास कर रहा हैं,इसीलिए मैं हिरण्यगर्भ का उद्गीत गा रहा हूँ| इसीलिए मुझे उद्गाता कहते हैं,जब ऋषि ने इस प्रकार उत्तर दिया
तो महर्षि विश्वामित्र इस प्रकार की विवेचना करते रहते थे।
यज्ञमान देवी ने कहा-प्रभु! आपको उद्गाता किसलिए कहते हैं ? उद्गाता का अन्तिम चरण क्या हैं ? उन्होंने कहा कि उद्गाता का चरण प्रारम्भ होता है
उद्गीत से तालु से, जहाँ तालु और रसना का दोनों का समन्वय होता है दोनों का मिलान होता है, तो शब्द बन जाता है, वही शब्द बन करके अन्तरिक्ष में
जाता हैं और अन्तरिक्ष में द्यौ लोक में प्रवेश करता है। वही शब्द गति करता है,वही शब्द श्रोत्रों का विषय बन जाता हैं,तो दिशाओं में परिनित हो जाता हैं। जिससे मैं दिशाओं का गान गा रहा हूँ,उद्गीत गा रहा हूँ, यह जो आठों दिशाएं हैं, यही मेरे श्रोत्र का,श्रोत्रीय नृत्त बने हुए हैं, जिससे मैं इसे धारयामि बना करके,मैं इसको जान करके,मैं योग के क्षेत्र में जा सकूं|देवी प्रसन्न हो गई। उन्होंने कहा
कि श्रोत्रों का वृत रहता है,उन्होंने कहा श्रोत्रों में
शब्द भी हैं, चित्र भी है,और चित्र में विभाजनवाद भी है,सर्वत्र विज्ञान की प्रतिक्रिया
उसमें निहित रहते हैं। तो यह तो ऋषि मुनियों का एक विचित्र क्रियाकलाप हैं, वह सृष्टि के प्रारम्भ में आदि ऋषियों ने वेद के मन्त्रार्थ
अपने को जान करके उसको निर्माणित किया था,यह याग हिंसा से रहित हैं,यह याग अपने में याग रूप बना
हुआ हैं।
अध्वर्यु,
अध्वर्यु,जो हिंसा से रहित है,अध्वर्यु यह दृष्टिपात करता है, कि मेरे याग में हिंसा तो नही
हो रही है। यदि याग में हिंसा हो रही है। साकल्य के द्वारा तो वह साकल्य वह साकल्य
अब्रुत बन जाता हैं, तो वही अध्वर्यु है, वही अध्वर्यु हैं, जो साकल्य विभाजन अग्नि के द्वारा कराता हैं। वही
अध्वर्यु है, जो हिंसा से रहित हो करके राजा बनता है। राजा को भी
अध्वर्यु कहते हैं, जो राजा अपने राष्ट्र में यह विचार रहा है,कि मेरे राष्ट्र में किसी प्रकार की हिंसा तो नही हो रही हैं,हिंसा कई प्रकार की होती हैं,एक हिंसा प्राणी की होती है। एक हिंसा वह होती है जो एक दूसरे के विचारों में
वृद्धपन आ जाता हैं। एक दूसरे के विचारों में अग्नि प्रदीप्त हो जाती है। तो वह भी
मानो हिंसा प्रारम्भ हो जाती हैं, मेरे पुत्रों! ब्रह्मे देखो, शब्द की हिंसा मानव के हृदय को विदीर्ण करती है,और हृदय, हृदय मिलन नही हो पाता उससे विभाजनवाद बलवती हो जाता हैं।
वेद किसी की धरोहर नही
तो जब उनसे यह प्रश्न किया गया कि महाराज!आप तो यह जो हिंसक प्राणी, जो पान कर जाते हो तुम इसमें निर्द्वन्द्व हो, उन्होंने कहा यह जो वैदिक परम्परा है, वेद का जो मन्त्र है,यह किसी की धरोहर नही हैं,यह किसी की निजी सम्पति नही कहलाती। ये प्रत्येक प्राणी मात्र के लिए होते हैं। क्योंकि
यह ईश्वरीय और ऋषिकृत के विचार परमात्मा का ज्ञान ही उनको कहा जाता है और जो पिता
की वाणी है,या पिता का ज्ञान और विज्ञान जिसमें हैं वह सिंहराज
के लिए भी इसी प्रकार है। मानव के लिए भी इसी प्रकार है। मृगराज के लिए भी ऐसा ही
बना हुआ है तो यह शब्द जितना अहिंसामय होगा, शब्द जितना क्रियाकलापों में अहिंसा हो और कर्म में
भी अहिंसा हो, और हृदय आन्तरिक जगत में भी अहिंसा हो,अहिंसामयी वेद का मत्र, जब उद्गीत रूप में गाया जाता
है। और वह व्यापार में भी
वेदमन्त्र सूत्रित
वैदिक वेदमन्त्र ऐसा अपने में
सूत्रित हो रहा हैं। जैसे माला और धागे का,दोनों
का समन्वय रहता है,और वह प्रत्येक उस मनके उस सूत्र में पिरोएं हुए होने
से वह एक माला दृष्टिपात आने लगती है,इसी
प्रकार परमात्मा का जो एक एक वेद का मन्त्र है,वह ज्ञान और विज्ञान और मानवीयता से गुथा हुआ हैं। दर्शन उसमें दृष्टिपात आता
रहता हैं, तो इसीलिए वे परमपिता परमात्मा रूपी जो सूत्र हैं, सूत्र में प्रत्येक वेद का मन्त्र निहित रहता हैं, और एक एक वेदमन्त्रों में व्यवहार और भौतिक विज्ञान और आध्यात्मिकवाद उसमें दृष्टिपात आता रहता हैं।
तो एक एक वेदमन्त्र हमें सृष्टि
का वर्णन कर रहा है, एक एक वेदमन्त्र एक परमाणु की भांति सर्वत्र
ब्रह्माण्ड का चित्रण कर रहा है।
उद्गाता
देवी ने पुनः यह प्रश्न किया कि
महाराज! यह उद्गाता का क्या अभिप्राय: है ? उन्होंने कहा, उद्गाता,जो उद्गीत गाता है, जो आत्मा से गाता है, जो मन और प्राण को एक सूत्र में ला करके,तन्मय हो करके गान गाता है,जो मन कर्म वचन से गान गाता है,जो रजोगुण,तमोगुण,सतोगुण को अपने में ऊर्ध्वा में,उसे ध्रुवा से त्याग करके ऊर्ध्वा में गान गाता है
वही तो कहलाता है।?
शुद्ध वेदमत्र की अनिवार्यता
जब ब्राह्मण उद्गाता जब वेद का
गान गाता हैं, जितना शुद्ध वेद का मत्र होता हैं उतना ही वायुमण्डल
में अशुद्ध परमाणुओं को नष्ट करता हुआ,अशुद्ध
परमाणुओं निगल लेता हैं। और शुद्ध परमाणुओं को जन्म देता
हुआ द्यौ लोक को प्राप्त हो जाता हैं।
तो पति पत्नी अपने बाल्य बालिका
को ले करके विराजमान होता हैं,अपने गृह में तो वेद का अध्ययन
कर रहे हैं,और शुद्ध और पवित्र उनके दर्शनों का अध्ययन हो रहा
हैं,तो वह जो शब्द हैं,वह उस गृह को शुद्ध और पवित्र बनाते हैं। उस गृह को आभा से युक्त बना देते
हैं। गृहपथ्य नाम की अग्नि की पूजा क्या हैं? जो गृह में अग्नि प्रदीप्त होती है, गृह में सुसज्जित रहते हैं,पति पत्नी का विचार,वह गृहपथ्य नाम की अग्नि कहलाता है। वह द्यौ लोक को
जाता हैं। अशुद्ध शब्द अन्तरिक्ष में प्रवेश करता हैं उससे अनावृष्टि अतिवृष्टि के
मूल कारण बनते हैं और जो शुद्ध पवित्रतव होता हैं। वह द्यौ लोक को जाता
प्रतीत होता है। जाने वाला हैं, मोक्ष का गामी बना देता हैं।
स्वर्ग में ले याग में परिणित होना चाहिए,प्रत्येक मानव को यहाँ यागिक बनना चाहिए। याग का अभिप्रायः यह कि अग्न्याध्यान
करना याग नही हैं, वह तो याग हैं, परन्तु उस याग में पवित्रता आनी चाहिए,हृदय की पवित्रता,ब्रह्मचर्य से सुसज्जित होना चाहिए उसके पश्चात
पवित्र हृदय ही द्यौ लोक को जाता,हमें दृष्टिपात होता हैं,तो हम अपने प्यारे प्रभु का गुणगान गाते हुए, देव की महिमा का गुणगान गाते हुए,इस संसार सागर से पार होना चाहिए।
देवताओं का आह्वान
वेद पाठी यज्ञशाला में देवताओं
का आह्वान करता हैं, जितना भी शुद्ध पवित्र,वेद पाठ होगा,उतने शुद्ध परमाणु बनेंगें, और जितने परमाणु शुद्ध पवित्र बनेगें,उतना ही वायुमण्डल पवित्र होगा,और जितना वायुमण्डल पवित्र होगा,उतना ही वह कर्तव्यवाद होगा,और जितना कर्तव्यवाद होगा,उतना मानव समाज में शुद्ध और
पवित्रता रहेगी।
वेद का पठन पाठन
यज्ञमान के साथ मेरा हृदय यह
विचार बना रहता है-हे यज्ञमान! तू
अपने वैदिकता के द्वारा ब्राह्मण से जब तू वेद का पठन पाठन कराता है,वेद की ध्वनि,तेरी अन्तरिक्ष में रत्त हो जाती है,,वह चित्र बन करके अन्तरिक्ष में रत्त हो जाते हैं,तुझे ही वह प्राप्त होंगें।
वेद गान की विचित्रता
हम तुम्हारे समक्ष पूर्व की
भांति,कुछ मनोहर वेदमन्त्रों का गुणगान गाते चले जा रहे थे
प्रतीत हो गया होगा,आज हमने पूर्व से,जिन वेदमन्त्रों का पठन पाठन किया,हमारे
यहाँ, ये पठन पाठन का क्रम परम्परागतों से ही चला आ रहा
है। क्योंकि इस पठन पाठन में नाना प्रकार के व्यञ्जन होते हैं और उच्चारण करने के
नाना प्रकार माने गए हैं। जैसे हमारे यहाँ वेदों की ध्वनियाँ होती रहती हैं। गान
गाने वाला गाता ही रहता है। कहीं वह गान जटा पाठ में गा रहा है,कहीं माला पाठ में गा रहा है,कहीं विसर्ग उदात्त अनुदात्त
नाना प्रकार के वेद के पठन पाठन में ऋषि मुनियों ने अनुसन्धान किया और यह उन्होंने
कहा है कि मानव जब गान गाने लगता है,तो एक शब्द को,उसके पश्चात् द्वितीय शब्द की धारा को जन्म देता है,वह उसका जन्मदाता बन जाता है परन्तु जो मानव हृदय से
गान गाता है वह गाता ही रहता है।
ऋषि मुनि जब गान गाते रहते थे, तो वह निर्भय और आत्मीयता में
तन्मय हो करके गान गाते थे। जब महर्षि भृगु मुनि गान गाते थे,तो गान गाते गाते,इतने तन्मय हो जाते थे,कि उनको कोई प्रतीति नहीं होती,कि बाह्य जगत् भी है। सिंहराज आ
रहे हैं गान को श्रवण कर रहे हैं,मृगराज आ रहे हैं,गान को श्रवण कर रहे हैं,परन्तु ध्वनियाँ चल रही हैं, वायुमण्डल में वे तरंगें जा रही हैं,वो ऋषि
हृदय से गा रहा है।
तो मानव को जो भी गान गाना हो,उसे हृदय से गाना चाहिए,क्योंकि हृदयग्राही हो करके जो
मानव गान गाता है,वह उस गान को प्रकाश में और अपने को प्रकाश में रत्त
करा करके गान में ऊर्ध्वा को प्राप्त हो जाता है। वेद का आचार्य यह कहता है कि
याज्ञिक पुरुष जब याग करता है,तो गान गाता है,परन्तु हृदय से जब गान गाता है,तो याग उससे सिद्ध हो जाता है,वह याग में परिणित हो जाता है।
याग के भिन्न भिन्न प्रकार के
स्वरूप हमारे यहाँ माने गए हैं। क्योंकि मानव जब नेत्रों से सुदृष्टि पान कर रहा
है,उन नेत्रों का सम्बन्ध मानव के हृदय से है। हृदय और
नेत्रों का, दोनों का जब समन्वय होता है,तो नेत्र गान गा रहे हैं। मानव जब श्रोत्रों से गान गाता है
वह संसार के चित्रों को,शब्दों को अपने में ग्रहण कर रहा है। शब्दों के
चित्रों को ला करके हृदय को प्रदान कर रहा है। वह हृदय से शब्दों का ग्रहण कर रहा
है। वह याग हो रहा है, वह साकल्य लाते हैं, हृदय में परिणित कर देते हैं।
तो पांच ज्ञानेनिद्रयों का जो विषय है वह
सवर्त्र,उसकी जो स्थिरता है वह मानव के हृदय में परिणित हो जाती है,वह हृदय में गान गाने लगती है। माता जब हृदय से गान
गाती है और माता के हृदय में जब हम जैसे पुत्र जरायुज रहते हैं,तो उस समय माता गान गाती है, हृदय से जब गान गाती है,तो माता मल्दालसा की भांति अपने गर्भस्थल में पुत्र
को ब्रह्मवेत्ता बनाने की उत्सुकता में लग जाती है।
तो मानव को जो भी गान गाना
चाहिए,वह हृदय से गाना चाहिए। क्योंकि जितना भी संसार का
कर्म है,वह सर्वत्र एक गान के रूप में है। जितना महानता वाला
कर्म है| माता मल्दालसा जब गान गाती रहती थीं, तो अपने अन्तःकरण में अपने हृदय की प्रति उसको ग्राही बना लेती थी,तो वह गान गाती रहती थी और जब वह गान गाती थी,तो पांच वर्ष का बालक ब्रह्मवेत्ता बन करके माता से आज्ञा पाता। माता! मैं अब
ब्रह्म वर्चोसि,अग्नि में जाना चाहता हूँ। माता प्रसन्न हो रही है और
यह उच्चारण कर रही है मेरा जो पुरुषार्थ है,मेरा
जो गान गाना है, मेरा जो शुभ कर्म है,वह जो मैंने शुभ गान गाया है,वह मेरा सफल हो गया है। माता
अपने में हर्ष ध्वनियाँ कर रही हैं और यह उच्चारण कर रही हैं,कि मैं कितनी सौभाग्यशाली हूँ,आज मेरा पुत्र बह्मवेत्ता बनने
के लिए जा रहा है।
तो माता वह कहलाती है। सु माता, जिसका बालक ब्रह्मवेत्ता बन करके ब्रह्माग्नि में
प्रवेश करने वाला हो, ब्रह्माग्नि को अपने में धारण करने वाला हो। तो याग में गान गाया जाता है।
उद्गाता गान गा रहा है, उदगम गान गाने वाला स्वरों से
गा रहा है। जटा पाठ, घन पाठ, माला पाठ, विसर्ग पाठ, उदात्त अनुदात्त, रेणा स्वत पाठ, दीपावली गान, स्वेत गान, नाना प्रकार के गानों का वर्णन हमारे वैदिक साहित्यों में हमें प्राप्त होता
रहा है। समय समय पर ऋषि मुनियों ने अपनी स्थलियों पर गान गाए हैं और मानव ही पान
नहीं करता है,उस गान को मृगराज, सिंहराज एक पंक्ति में विद्यमान हो करके उस गान को श्रवण करते हैं। क्योंकि
उसके शब्द में इतनी शक्ति है,इतनी सत्ता है, कि वह सत् से पिरोया हुआ शब्द है,अहिंसा परमोधर्मः से पिरोया हुआ,वह शब्द है| जो भी श्रवण करता है,वह शान्त मुद्रा को प्राप्त हो जाता है,वह अपनी महत्ती को प्राप्त करने लगता है।
तो हम अपने में अपनी महती को
जानने वाले बनें। हम अपने को जानते हुए चले जाएं। अपनी प्रतिभा, अपनी ज्ञान इन्द्रियों, कर्म इन्द्रियों को जान करके हृदय स्थली में अपने हृदय से गान गाने वाले बनें।
हृदय से ही प्रभु की सृष्टि को जब हम निहारते रहते हैं,तो वैज्ञानिक बन जाते हैं। उस परमपिता परमात्मा की सृष्टि को जब,आभा में दृष्टिपात करने लगते हैं,तो उस समय हम भक्तजन बन करके ऋषियों की आभा में, मुनियों की कोटि में प्राप्त हो जाते हैं।
तो भगवन! मैं उस यज्ञमान को अपने हृदय की कामना सदैव
प्रगट करता रहता हूँ,हे यज्ञमान! तेरे जीवन का सौभाग्य अखण्ड बना रहे। हे
ब्राह्मणत्व! तेरे जैसे उद्गान गाने वालों का राष्ट्रीयता से सर्वत्र निश्चित हो
करके तू वेद का पठन पाठन कर सकने वाला होता,परन्तु आज के समय में, जिस काल में जन्म हुआ है,उस काल में अपने में पूर्ति करने का स्वतः ही प्रयास करना होता है। यहाँ
राजाओं के यहाँ से ब्राह्मण का प्रबन्ध होना चाहिए। ब्राह्मण की कृतियों में उसकी
विद्या का अनुगान होना चाहिए,जिससे उद्गान गाने वाला,स्वतंत्र रूपों से गान गा सके और जो गान गाने वाला,वेद के पठन पाठन करने वाले को उदर की पूर्ति का सदैव भय लगा रहता है,वह स्वतन्त्र रूपों से वेद के पठन पाठन में वह एक
बाधक बन जाता है। इसी प्रकार बहुत पुरातन काल में हमारे यहाँ ऋषि मुनि, जितने वैज्ञानिक वेद के पठन पाठन करने वाले होते थे
इसीलिए राजा के राष्ट्र में नाना प्रकार के मत मतान्तरों की भूमिका बनती जा रही है
क्योंकि बेद के पठन पाठन का प्रबन्ध यदि राष्ट्र से हो,विवेकी पुरूष हो,तो यह जो नाना प्रकार की जो रूढ़ियाँ बनती है ,ये समाप्त हो जाएगी |
वेदगान के लिए अन्न की पवित्रता
की आवश्यकता
उन सबका राष्ट्रीयता से आहार का
प्रबन्ध,उनकी कृतियाँ बना करती थीं। राजा के यहाँ से वह
द्रव्य आता था। जिस राज्य के द्रव्य में किसी प्रकार का तमोगुण और रजोगुण न हो,उस अन्न को ऋषि मुनियों के लिए उन्हें प्रवाह से
प्रदान किया जाता,क्योंकि वेद के पठन पाठन करने वालों को रजोगुणी और तमोगुणी प्रवृत्ति वाला जो अन्न है। वह उसकी आत्मा को हनन कर देता
है,उसकी बुद्धि का हनन कर देता है। हमारे यहाँ जो मृत्यु
कर होता है महापुरुषों को प्रदान नहीं करना चाहिए। ब्राह्मण समाज की मृत्यु का यदि
कोई मूल कारण है तो वह कारण देखो,
वेद मन्त्र की आख्यिका
हमारे यहां वैज्ञानिकों ने
यज्ञशाला में विद्यमान हो करके नाना प्रकार के यत्रों का भी निर्माण किया है,एक समय वैशम्पायन ऋषि महाराज और ब्रह्मचारी सुकेता,और ब्रह्मचारी कवन्धि ब्रह्मचारी रोहिणीकेतु और
ब्रह्मचारी यज्ञदता यह नाना ऋषिवर ब्रह्मवर्चोसि का दर्शन
कर रहे थे,एक समय उनके समीप एक मन्त्र आया, वे वेद का मन्त्र महान,अपनी आभा को प्रगट कर रहा है,चित्रं रथं ब्रह्म बाहा वार्णावस्ति वर्चो वस्तं स्वाहा यह वेदमन्त्र एक
आख्यिका आई है और आख्यिका का अभिप्रायः यह है कि वेदमन्त्र कहता है कि जो यज्ञमान
अपनी यज्ञशाला में होताजन विद्यमान हो करके स्वाहा उच्चारण करते हैं,वह जो स्वाहा शब्द है,जो वेदमन्त्रों से सुगठित है,अथवा वेदमन्त्रों से गुथा हुआ
है,वह शब्द द्यौ लोक को जाता है। वह द्यौ लोक को प्राप्त
हो करके वह अन्तरिक्ष की आभा में अगम्मयी हृदय में उसका वास हो जाता है।
वेद का पाठयक्रम
हम कुछ मनोहर वेदमन्त्रों का
पठन पाठन करते चले जा रहे थे,ये भी तुम्हें प्रतीत हो गया
होगा,आज हमने पूर्व से जिन वेदमन्त्रों का पठन पाठन किया,ये पाठयक्रम परम्परागतों से ही विचित्र माना गया है,क्योंकि हो वेद का पठन पाठन करने वाला? जब
वेदमन्त्रों का उदगीत गाता है,तो कही माला पाठ में गाता है,कही जटा पाठ में गाता है, कहीं घन पाठ में गाता है,कहीं उदात्त और अनुदात्त में
गान गाता रहता है। जब वह माला पाठ में गाता है,तो गायन की स्वर ध्वनि बन जाती है। तो विचार आता है कि यह पाठयक्रम
परम्परागतों से ऋषि मुनियों के मस्तिष्क में सदैव रत्त रहा है
जिसके ऊपर मानव परम्परागतों से
अन्वेषण करता रहा है,और नाना प्रकार का अन्वेषण और नाना प्रकार की धाराओं
में सदैव रत्त रहा है। तो हमारा वेद का मन्त्र कहता है हे मानव! तू इस पाठयक्रम को
अपने में लाने का प्रयास कर। क्योंकि तेरा यह पाठयक्रम पवित्र होना चाहिए और राष्ट्र को अपने में यह उपदेश देना चाहिए,कि हे राजन! तेरे राष्ट्र में यह वेद की विद्याएं, यह पाठयक्रम विचित्र होना चाहिए।
माता कौशल्या द्वारा गायत्री छन्दों का उदगीत
तो माता कौशल्या जी ने उसी समय
अपना एक संकल्प किया और संकल्प मात्र से अपने में स्वयं कला कौशल करती, और कला कौशल करके प्रातः कालीन याग भी किया करती और वह स्वयं कला कौशल करती,जिसके बदले जो द्रव्य आता,वह उसको ग्रहण करती रहती, और तपों में निष्ठ रहती। तो उनके गर्भस्थल में जब
आत्मा का प्रवेश हो गई, तो वह सदैव अपने में गायत्री
छन्दों में प्रवेश करती,और गायत्री छन्दों में प्रवेश
करके वेद उद्गीत गाती रहती थी ।
नैतिकवाद
महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज
ने अपने ब्रह्मचारियों के मध्य में कहा-हे
ब्रह्मचारियों! तुम अपने में याज्ञिक बनो और यदि तुम्हें कोई भी वस्तु प्राप्त न
हो,तो तुम वेदमन्त्रों का उद्गीत अवश्य गान रूप में गाओ,जिससे तुम्हारा वेदमन्त्र ही तुम्हारे जीवन का सार्थक
बन करके,और तुम अपने जीवन को ऊँचा बनाते रहो। तो इस प्रकार
याज्ञवल्क्य मुनि महाराज प्रातः कालीन अपने ब्रह्मचारियों को इस प्रकार का नैतिक
उपदेश देते रहते थे, तो ये नैतिकवाद माना गया है।
ओ३म् रूपी धागा,माला पाठ
वह सब बड़े आनन्दपूर्वक ऋषि
मुनि सब विराजमान हो गएं,विराजमान हो जाने के पश्चात् उन्होंने
कहा कि महाराज! अब आप प्रश्न कीजिए क्या प्रश्न था? ऋषि ने कहा कि महाराज! हम यह जानना चाहते है,कि माला पाठ
किसे कहते है ? तो ऋषि ने कहा कि मैंने जो जाना है,उसी को निर्णय कर सकता हूँ,परन्तु मैं यदि उसके ऊपर विवाद प्रारम्भ हो जाएगा,तो मैं उस विषय में कोई वाक् उच्चारण नहीं करूंगा। महर्षि शौनक जी ने कहा-प्रभु! हम तो वही जानने आए है,जो आप जानते हैं। उन्होंने कहा कि माला पाठ किसे कहते
है ? वेद को तुम जानते ही हो, परन्तु वेद में जो नाना प्रकार के मन्त्र है, मन्त्रों में भी जो शब्द है, मानो जो ऋचाएं है, उनको भी जानते हो, श्रवण भी किया है। ऋषि ने कहा कि महाराज! अवश्य किया है। तो ऋषि ने उत्तर दिया
कि हम माला पाठ , माला कहते है धागे में, जो मनके पिरोए हुए होते है। जब धागे में मनके पिरोएं जाते है, तो वह मनके और धागे दोनों एक सूत्र में आ जाने का नाम
माला कहलाई जाती है। इसी प्रकार यह जो परमात्मा का ब्रह्माण्ड है,जो दृष्टिपात आ रहा है और यह जो वेदों का ज्ञान है, वेदों की जितनी ऋचाएं है,वह ओ३म् रूपी धागे से पिरोई हुई
रहती है। यह जो वेद रूपी ऋचाएं है, यह एक प्रकार के मनके है,और ओ३म् रूपी धागे में पिरोई हुई हैं, इसीलिए हमारे यहाँ बेद के प्रारम्भ में, वेद के मन्त्र को जब उच्चारण करते हैं,तो आचार्यजन ओ३म् का उच्चारण किया करते है। ओ३म् का
उच्चारण क्यों किया करते है ? क्योंकि वेद की ऋचाएं,जो ऋचाओं का हमने पठन पाठन किया,परन्तु
उच्चारण किया स्वरों सहित,और उसमें सबसे प्रारम्भ ओ३म् को
उच्चारण करते,क्योंकि ओ३म् रूपी धागा बना करके और वेदमन्त्र में जो
ज्ञान और विज्ञान है,वह उस ओ३म् रूपी धागे से पिरोया हुआ है,जितना भी ज्ञान विज्ञान है अथवा वह भौतिक विज्ञान हो अथवा वह आध्यात्मिक
विज्ञान हो,परन्तु ओ३म् रूपी धागे से वह पिरोया हुआ होता है। तो
ऋषि कहते हैहे ऋषिवरों! इसीलिए मैंने तो यह जाना है,कि यह जितना जगत है,जितना ब्रह्माण्ड है,जितना इसमें प्राणीमात्र है,ये सब ओ३म् रूपी धागे से पिरोया
हुआ है। यह एक प्रकार का जो ब्रह्माण्ड है,यह माला के रूप में परिणित हो रहा है,और इसमें ओ३म् रूपी जो धागा है,वह पिरोया हुआ है, इसलिए इसको हमारे यहाँ माला पाठ कहा जाता है।
गायत्री का अन्न पर प्रभाव
पंक्ति में माता ने भोज कराया, भोजन कराते हुए,माता जब पुत्र को भोजन कराती है तो गायत्री छन्दों के सुरों की ध्वनियां देती
रहती है। क्योंकि उससे वह बालक उस तरंगों में ओत प्रोत हो जाता है। जो माता उसे
मन्त्र में त्याग देती है और तपस्या की आभा देती है,उससे अन्नाद में जो तरंगे पहुंचती है,उन तरंगों से ही मानव के जीवन का निर्माण होता है।
वेद एक प्रकाश
हे यज्ञमान! तेरा जीवन एक महान
बन करके रहता है,आज जब तू यज्ञ में विद्यमान हो करके,वेदों की ध्वनियां गाता है है,वेद गाता ही रहता है,वेद का प्रकाश है,प्रकाश गाया ही जाता है,वह प्रकाश जब गाया जाता है उस प्रकाश में से अमृत की धाराओं का जन्म होता है।
वेदमन्त्र की माला
हम कुछ मनोहर वेदमन्त्रों का
गुणगान गाते चले जा रहे थे। ये भी तुम्हे प्रतीत हो गया होगा आज हमने पूर्व से जिन
वेदमत्रों का पठन पाठन किया,हमारे यहां यह पाठयक्रम
परम्परागतों से ही विचित्रत्व माना गया है,क्योंकि वेदों का पठन पाठन,हमारे यहां कई प्रकार से किया
जाता है जैसे जटा पाठ, माला पाठ, विसर्ग पाठ, उदात्त और अनुदात्त से उनके स्वरों का स्वर व्यञ्जन होता रहता है और भी नाना प्रकार के वेदमन्त्रों का
उद्गीत गाया जाता है जैसे वैखरी वर्णस्सुताः वर्णिमों में गाया जाता है। वही
दीपावली के रागों में परिवर्तित होता रहा है। हमारे यहां वेदों का पठन पाठन नाना
प्रकार से गायन के रूप में किया जाता है। जैसे माला पाठ होता है। जैसे माला में
माला जब बनती है तो धागे और मनकों का दोनों का एक समन्वय होता है तो जब मनके और धागे
का दोनों का समन्वय होता है,तो वह माला कहलाती है। इसी
प्रकार शब्द: और वह शब्द एक सुर में पिरोये जाते हैं और पिरोने से ही वह माला बन
जाती है,जिसको हमारे यहां माला पाठ के सम्बन्ध में,माला पाठ के ही रूप में निरूपण होता रहा है। तो हम जब
वेदों का गान गाना प्रारम्भ करें तो प्रत्येक वेदमन्त्र की जो ऋचायें हैं,जो ओ३म् रूपी धागे में पिरोई हुई हैं। अथवा वही उसका सूत्र बना हुआ है और वह
सूत्र में पिरोने से सूत्रित मन वृत्ति मानी जाती है। तो हम उस सूत्र के ऊपर विचार
विनिमय करें।
याग की अनिवार्यता
वेद का ऋषि कहता है कि याग
अवश्य होना चाहिए। इस प्रकार जब तुम अपने में मन मस्तिष्क को एकाग्र करके
वेदमन्त्रों का उद्गीत गाओगे,तो तुम्हारा मन मस्तिष्क पवित्र
बन करके एक माला सदृश बन जायेगा। यज्ञमान जिसे प्रदीप्त कर रहा
है,यज्ञमान उसे प्रदीप्त करके अपने शब्दों को द्यौ लोक
में पंहुचा रहा है। साकल्य के द्वारा पंहुचा रहा है परन्तु द्यौ में वो स्थिर हो
जाते हैं,वही शब्द है,जो उसी
को प्राप्त हो जाएगें।
उस परमपिता परमात्मा ने जब इस
मानवीयता का निर्माण किया,तो मानव के मस्तिष्क में एक
ऊर्ध्वा में एक ध्वनि हुआ करती है,जिस ध्वनि मैं ध्वनित होता हुआ,योगेश्वर उस ध्वनि को श्रवण करता रहता है,और उसमें आनन्दवत का ग्रहण करता है, तो उसी ध्वनि को जब बाह्य जगत में लाया जाता है,तो वहां वेदमन्त्रों का वो उद्घोष करता है और वेद मन्त्रों को अपना स्वर और
व्यञ्जन देता रहता है। वह शब्दों की प्रतिभा में सदैव निहित रहता है। जैसे माला और नाना प्रकार के मनके
और धागों का दोनों का समन्वय होता है,तो एक माला कहलाती है। इसी
प्रकार प्रत्येक शब्द को धारा में रत्त कराना और उसको ध्वनि में ध्वनित करने का
नाम एक माला के रूप में परिणत हो जाता है, अथवा वह माला हमे दृष्टिपात आने लगती है। तो ये संसार जितना भी हमें प्रायः
दृष्टिपात आ रहा है,वो एक माला के सदृश्य किसी भी प्रकार की योनि हो,किसी भी प्रकार की आभा हो,वह एक दूसरे में पिरोई हुई है,और एक दूसरे में निहित होती
दृष्टिपात आती है। वेदमन्त्र अशुद्ध उच्चारण करने से वह माला नही बन
पाती,इसीलिए वेदमन्त्र अशुद्ध उच्चारण नही करना चाहिए।
वेदमन्त्रों उच्चारण भी याग
वाणी से उद्गीत होना चाहिए, तीव्र शक्ति से वेद मन्त्रों को उच्चारण करना और
स्वाहाः कहने का नाम ही देखो एक याग करना
है।
माला पाठ
वे परमपिता परमात्मा यज्ञोमयी
स्वरूप माने गए है, याग में ही वह निहित रहते है,तो उस परमपिता परमात्मा की जो अनन्तमयी महिमा का
गुणगान गाया जाता है,क्योंकि प्रत्येक वेद मन्त्रों में,वेद गान गाया जाता है,तो वेद गान गाते हुए उस परमपिता
परमात्मा की महती का वर्णन होता रहता है। क्योंकि जब उद्गाता बन कर उद्गीत गाता है। परन्तु जब जटा पाठ, माला पाठ, विसर्ग, उदात्त और अनुदात्त में गान गाया जाता है। हमारे यहां माला पाठ के सम्बन्ध में
भी भिन्न-भिन्न प्रकार की विचारधाराएं आती रही है। सूत्र में वृत्तियों एक तो माला पाठ उसे कहते है,जो स्वर है,जैसे माला में भिन्न भिन्न मनके होते है, और वह मनके बन करके ही,पिराने से माला बन जाती है। इसी प्रकार प्रत्येक शब्द अपनी रसना और तालु के
समन्वय से और उसमें एक का पुट लग जाती है। तो उस पुट के साथ ही वह माला पाठ बन
जाता है। तो वेदों के उद्गीत गाने वाले भिन्न भिन्न प्रकार से उसका उद्गीत गाते
है।
अनुष्ठान
अनुष्ठान का अभिप्रायः यह है कि
जो गायत्री छन्दों का पठन पाठन करता है और पठन पाठन करके उसमें अपने को ही ले जाता
है तो वह अनुष्ठान कहलाता है। अनुष्ठान में और साधना में दोनों में अन्तर्द्वन्द्व
कहलाता है तो वह उन्होंने उस काल में राष्ट्र को गृह को त्याग करके अनुष्ठान किया।
वेद का उद्गाता
हम उसके उद्गाता है,उद्गाता वही होता है,जो उस वाणी का,उस शब्द का,शब्द
से अपना मिलान करता हुआ अपने में ध्वनित होता चला जाए। दिव्या राजलक्ष्मी ने कहा
धन्य है, ऋषिवर! मेरा यह प्रश्न पुनः से है, भगवन! क्या आप उद्गाता क्यों कहलाते है ? उन्होंने कहा कि मैं उद्गाता इसलिए हूँ, क्योंकि मैं वेद का गान गाता हूँ, और वेद कहते है प्रकाश को और प्रकाश को जिसमें सर्वत्र
विद्या समाहित हो जाती हो,उसको प्रकाश कहते है,और जहां प्रकाश है,वहीं आनन्दवत है,मैं उस आनन्द में विभोर हो करके गान गाता हूँ। जिससे मेरा हृदय उस महान प्रभु
से समन्वय हो करके प्रकाश में आ जाए। इसलिए मैं उद्गाता हूँ,मैं इसलिए उद्गीत गाता रहता हूँ, उन्होंने कहा-धन्य
है प्रभु! देवी ने पुनः कहा-प्रभु! मैं यह और जानना चाहती हूँ, क्योंकि मैं इस याग की यज्ञमान हूँ,मेरा कर्तव्य है,क्योंकि बुद्धिमान ही मेरे याग का स्वामीतव ग्रहण कराने वाला हो,और उद्गीत गाने वाला है,यदि उद्गीत गाता है, और उसका क्रियात्मक जीवन नहीं
है,तो वह हमारे वाणी को और याग को सम्पन्न नहीं करा सकता
।
बिना चित्त की प्रवृत्ति के हम
उसके ऊपर संयम किए बिना,हम न तो शब्द का अध्ययन कर सकते
हैं, और न हम अपनी वाणी को पवित्र बना सकते है। न
वेदमन्त्र को हम प्रकाश के रूप में स्वीकार कर सकते है। इसका तो जब साकार रूप बनता
है तभी मानव बाह्य जगत से आन्तरिक जगत में प्रवेश करके
यह मौन हो जाता है।
शंख ध्वनि
शंख ध्वनि किसे कहते है ? शंख ध्वनि कहते है,वेदों के पठन पाठन को । वेद का पाठ,जटा
पाठ, घन पाठ, माला पाठ, विसर्गपाठ वह ध्वनि का नाम वेदो ब्रह्मा उसे जटा और
माला पाठ में वर्णित किया गया है, राजा के राष्ट्र में पण्डितव होना चाहिए, निष्पक्ष पुरुष होने चाहिए। जो राष्ट्र ऊंचा बन जाए।
यहां ब्रह्मवेत्ता जो गान गाते है, वेदों का,उसके राष्ट्र में हिंसक प्राणी नहीं रह पाता। जब जटा पाठ में गान गाते है,तो मृगराज,सिंहराज
एक पंक्ति में सर्पराज क्या एक पंक्ति में हो करके,उनके गान को श्रवण करते हैं। आत्मीय गान वह होता है, जो माला पाठ में गाया जाता है,जटा पाठ, घन पाठ,उदात्त
और अनुदात्त में गाता है,
जब ऋषि अपने आसन से गान गाता है, तो सिंहराज भी श्रवण करते है और वह कहते है,कि ऋषियों से जब यह प्रश्न किया गया,ऋषि कहते है कि वेद ईश्वरीय वाणी है, परमात्मा का अनुपम ज्ञान है,कौन ऐसा पुत्र अभागा है,जो अपने माता पिता की प्रशंसा नहीं चाहता। इसी प्रकार
वेद वह प्रभु की अमूल्य अमोघ पवित्रतव उसमें शब्द है, पवित्रतव आभा है, और जब उसे प्रत्येक प्राणी अपने में श्रवण करना चाहता
है, तो जब ऋषि वेद का गान गाता है,तो हिंसक प्राणी अपनी अहिंसा को त्याग देता है,वह अपने में, अपने में ही रत्त हो करके ऋषि अपने में श्रवण करता है।
वेदगान का प्रभाव
विचार देते हुए कहा-देवी! तुम्हें प्रतीत होगा,जब चाक्राणी भयंकर वनों में साम
गान गाती थी,वेदों का उद्घोष करती रहती थी,वेदों का उद्घोष करती रहती थी,तो वह भयंकर वन है,शान्त वायुण्डल है, और कोई भी प्राणी मानव श्रवण
करने वाला नहीं था,केवल कही सर्पराज है, मृगराज है, सिंहराज है, जब वह ध्वनि करती रहती थी, वेद का इतना अमोघ विचारो की
ध्वनि है कि ध्वनि को मानव स्वरों से गाता है जिसको हृदय से गान गाता है, माला पाठ और जटा पाठ से गाता है, जब गान रूप में गाता है,तो सिंह राज भी,अहिंसामयी परिणित हो जाता है। और सर्पराज भी अहिंसामयी परिणित हो जाता है। तो वे देवी के चरणों को, चाक्राणी के चरणों को स्पर्श करते रहे।
जब हम किसी काल में अपने बाल्य पूज्यपाद
गुरुओं के द्वारा अध्ययन करते रहते थे,तो गुरूजन,एक समय जब भयंकर वनों में गान गा रहे थे,तो सर्पराज, मृगराज उनके चरणों की वंदना कर रहे थे। चरणों को
स्पर्श कर रहे थे, मैंने अपने पूज्यपाद गुरुदेव से कहा हे प्रभु! यह
क्या कारण है,जो हिंसक प्राणी भी,आपके चरणों की वंदना कर रहे है,और आप के स्वरों को ध्वनियों को श्रवण कर रहे है।
पूज्यपाद गुरुदेव ने, मुझे जो उत्तर दिया था, उस समय वह बड़ा प्रियतम है। उन्होंने कहा था कि यह जो मानव,जब वेद का गान गाता है,सामगान गाता है, वह हृदय से जब गाता है,श्रद्धामयी हो करके गाता है,तो ये सब जितने भी प्राणी मात्र
है,वह सब उस परमपिता परमात्मा के पुत्र के तुल्य है,और जब वेदों का गान क्योंकि वेदो का गान उस प्रभु की
महती है,उसमें प्रभु का विज्ञान है और उसमें प्रभु की
प्रसन्नता है,तो उन स्वरों को कौन पान करके,कौन अपने में कौन नहीं प्रसन्न होगा ? इसलिए सर्पराज हो, मृगराज हो ऋषि मुनि तो उनसे खिलवाड़ करते रहे है,और खिलवाड़ करके उसको अपने कण्ठ से आलिंगन करते रहे
है।
शब्द में वैदिकता
शब्द में वैदिकता हो,शब्द वह कहलाता है,जिसमें एकाग्रता हो शब्द कहीं है,और मानव
का अन्तर विचार कहीं है। उसका चित्र नही बना करता,चित्र उसका बनता है, जो संलग्न हो करके मन के द्वारा हृदय से उसका समन्वय किया जाता है।
मानवीयता के लिए वेद गान अनिवार्य
हम अपनी मानवीय पद्धति को ऊँचा
बनाने के लिए विवेक को लाना चाहते है। तो उस समय राजा के राष्ट्र में,सबसे प्रथम वेद का पठन पाठन, वेद की पद्धति होनी चाहिए, प्रकाशमयी जो पद्धति है,जिससे मानव के जीवन को व्यष्टि को समष्टि में और समष्टि को व्यष्टि में प्रवेश
करती हुई,अपनी मानवीयता का, अपने में एक उज्वल स्वरूप हमारे समीप आता रहे।
वेद का अभिप्राय
उनके यहाँ विज्ञानशाला है और
विज्ञानशाला में वेदाङ्ग का अध्ययन होता है। ब्रह्मचारी अध्ययन करते है और अध्ययन
करके उनसे प्रातः कालीन, उनके यहाँ जो क्रियाकलाप होता
था, वह केवल प्रातःकालीन याग करना, याग करने के पश्चात्,उसमें कुछ विचार विनिमय होता रहता था। वेद के सम्बन्ध में, याग के सम्बन्ध में,जो भी विचार होता, उनका आचार्य भली भांति उत्तर देता रहता।
तो एक समय उनके यहाँ एक यज्ञेश्वर नामक ब्रह्मचारी अध्ययन करता था,वह
सुनेता आचार्य का पुत्र कहलाता था। तो उन्होंने एक आचार्य से प्रश्न किया,कि महाराज! यह जो वेद है, यह क्या है ? उन्होंने कहा वेद तो प्रकाश को कहते है। जब वेद
प्रकाश को कहते है,तो वह प्रकाश कैसा है? क्योंकि हमारे यहाँ जो प्रकाश आता है,वह प्रकाश सूर्य का प्रकाश उससे कुछ सूक्ष्म प्रकाश चन्द्रमा का है, और चन्द्रमा से सूक्ष्म जो प्रकाश है वह तारा मण्डलों
का रहता। तो हे प्रभु! इनमें से कौन सा प्रकाश है,जो वेद हमें देता है। उन्होंने कहा वेद प्रकाश ऐसा देता है,कि जिनसे इस सर्वत्रता का ज्ञान हो जाता है। जैसे मानव, हम एक प्रकाश में,अपने को ले जाना चाहते है,जैसे मानव के नेत्र है,नेत्रों में जो प्रकाश आता है,वह सूर्य का प्रकाश है और वह जो वेद का प्रकाश है,वह मानव के अन्तःकरण को प्रकाशित करता रहता है। इसलिए
अन्तःकरण प्रकाशित करने वाला वेदज्ञ माना गया है। तो हमारे यहाँ अन्तःकरण में जो
प्रकाश आता है,वही वेद का प्रकाश है और वेद का भी प्रकाश माना गया है|
वेद रूपी प्रकाश
तो यज्ञदेव ने यह प्रश्न किया
कि हे भगवन! यह तो मैंने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया है परन्तु मेरी इच्छा यह है
भगवन! कि मैं यह और जानना चाहता हूँ कि वेद की माला कैसे बनती है ?उन्होंने कहा वेद के लिए माला नहीं बनती है। उन्होंने
कहा जब वेद की माला नहीं बनती,तो प्रकाश कैसे आएगा ? क्योंकि सूर्य की नाना प्रकार की किरणों की माला बन
जाती है और उन मालाओं के ऊपर मानव अन्वेषण करता रहा है,इसी प्रकार आपं वेद की भी तो माला होनी चाहिए। उन्होंने कहा वेद की भी माला
बनायी जा सकती है। क्योंकि वह माला प्रत्येक शब्द का एक मनका बन करके और वह सूत्र
में पिरोयी जाती है,प्रकाश रूपी सूत्र में पिरोने से वह माला बन जाती है।
परन्तु वही माला अपनी आभा में सदैव निहित रहती है। तो उन्होंने कहा वाक् तो आपका
प्रियतम है । परन्तु मेरा अन्तर्हृदय यह कहता है कि यह जो आप विवेचना कर रहे है,वेद रूपी प्रकाश की,यह मेरे अन्तर्हृदय में समाहित
नहीं हो रही है। उन्होंने कहा यह क्यों नहीं हो रही है ? क्योंकि मेरा अन्तरात्मा इसे स्वीकार नहीं कर रहा है,या मैं इस विद्या को जानता नहीं हूँ। तो इसलिए मेरे हृदय में, नाना प्रकार की आशंका बनी रहती है। उन्होंने कहा
आशंका,आचार्यो के हृदयों में या जिज्ञासुओं के हृदयों में
आशंका नहीं बना करती है। उनके हृदय में तो जिज्ञासा होती है और जिज्ञासु जो प्राणी
होता है उसके अन्तरात्मा में जो प्रकाश है,उसी प्रकाश से वह प्रकाशित होता रहता है।
वेदमन्त्रों की स्वर ध्वनियां
ये वेद का मन्त्र है और उस
वेदमन्त्र को वह उद्गीत रूप में गा रहा है, और वेदमन्त्रों का उद्गीत गाता हुआ,एक
दूसरें में माला पिरोई जाती है, शब्दों की माला बन रही है, अक्षरों की माला बन रही है, और माला को व्याकरण से सजातीय बना दिया है,और व्याकरण को मानव के मस्तिष्क से सजातीय बनाया है और मस्तिष्क के आन्तरिक
जगत में जो स्वरों की ध्वनियां हो रही है जिसको अनहाद कहते हैं,वह उसमें पिरोया हुआ है, वह शब्दों में शब्दों की रचना हो रही है,ये कितना विचित्रतव
माता के लिए वेदमन्त्र गायन की
अनिवार्यता
तो हमारा वेदमन्त्र हमें क्या
कह रहा है,वेदमन्त्र किस मार्ग पर ले जा रहा है,शब्दों की ध्वनि को श्रवण करने वाली,मेरी पुत्रियां, माता भी इस प्रकार विज्ञान में सदैव रत्त रही हैं। क्योंकि महर्षि शिकामकेतु
उद्दालक के यहां,एक रोहिणी कृत नाम का ब्रह्मचारी था, जो माता रम्भेश्वरी से उसका जन्म हुआ था। वह शिकामकेतु
उद्दालक के यहां,माता ने एक समय जब वह अपने गर्भ में वह गमन कर रहा था
और वह एक समय शिकामकेतु उद्दालक से बोली कि हे प्रभु! मेरे गर्भस्थल में एक शिशु
पनप रहा है, एक पुत्रेष्टि याग हो रहा है,मैं,भगवन!उस याग को कैसे सम्पन्न करूं? तो उस समय ऋषि शिकामकेतु उद्दालक ने वेद के मन्त्रों
का उद्गीत गाने लगे, और ये कहा कि हे देवी! तुम वेदमन्त्रों का उद्गीत गाओ
यदि तुम्हारी इच्छा यह है कि मेरे गर्भस्थल से, एक महान से महान पुत्र का जन्म हो, और विज्ञान और साधक का जन्म हो, तो तुम्हें वेद के मन्त्रों को
उद्गीत गाने में सदैव तत्पर रहना होगा। रम्भेश्वरी प्रातःकालीन वेदमन्त्रों का
अध्ययन करती रहती, और उसकी विवेचना करती रहती,जब रात्रि के अन्तिम चरण में,वह समाधिष्ट हो जाती, और समाधिष्ट हो करके, अपनी अन्तर्हृदय में जो गर्भस्थल में जो शिशु पनप रहा है,उस शिशु से वह वार्त्ता प्रगट करती रहती, एक समय प्रातःकालीन में अन्तिम चरण में अपनी आत्मा के चर्चा कर रही थी, और वह ये कह रही थी कि हे बाल्य! हे आत्मा! तू मेरे
गर्भस्थल में विद्यमान है।
परन्तु वह माता अपने में तप कर
रही है, और तप करती कहती है कि हे आत्मा! तुझे ब्रह्म ज्ञान
में परिणित होना है,ब्रह्म ज्ञानी बनना है। माता के ये उदगार हृदय में समाहित हो रहे हैं,गर्भस्थल में वह अपने संस्कारों
को उदबुद्ध कर रही है और संस्कारों को अन्तःकरण में प्रवेश करा रही है।
वेद के मन्त्रार्थ
प्रातःकालीन क्योंकि हमारे
आचार्यों का ये मन्तव्य रहा है,कि जिस भी काल में वह साधना के
लिए तत्पर रहे हैं,तो साधना करने के लिए,वह सबसे प्रथम,उनका एक ही विचार रहा कि वहां का वायुमण्डल पवित्र हो
जाएं। जब वायुमण्डल पवित्र हो जाता है तो उस वायुमण्डल में मन की धारा,प्राण की धारा,एक सूत्र में आना,एक सूत्र में आना प्रारम्भ हो जाता है। और वह
वायुमण्डल कैसे ऊँचा बनता है,जब तक वेद के विचार वेद के
मन्त्रार्थों के साथ में उसका देवता और वह वेदमन्त्र जब तक वायुमण्डल में परमाणु
रूप में छा नही जाते। जब तक वायुमण्डल नही बनता,मानव का विचार मानव की प्रतिभा उसमें सदैव निहित रहती है।
वेद गानम् शंख ध्वनि
शंख ध्वनि का अभिप्रायः ये है
कि वह गान गाने वाला वेदमन्त्रों का हो,जब
वेदमंत्रों का पाण्डितव गान गाते हैं विद्यालयों में,तो वह, जटा पाठ, माला पाठ, घन पाठ, विसर्ग, उदात्त और अनुदात्त में जो वेदमन्त्रों का उद्गीत
गाने वाले हैं। वह पाण्डितव कहलाते हैं। वह पंच ध्वनि कहलाती हैं। राजा के राष्ट्र
में ये शंख ध्वनि होनी चाहिए और इसी ध्वनि के द्वारा राष्ट्र को उन्नत बनाया जाता
है। राष्ट्र को पवित्र बनाया जाता है। जब प्रत्येक ब्रह्मचारी विद्यालय में जब गान
गाता है,वह ध्वनि से गाता है,माला पाठ गाता है,उद्गीत गाने वाला उद्गीत गाता है, तो उसमें माधुर्यता आ जाती है,और उसमें महानता का दर्शन होता है और राष्ट्र को
उन्नत बनाने के लिए मानव मानव अपने में श्वासों की प्रतिभा में रत्त हो जाता है।
जब उद्गीत गाया जाता है जब, उदात्त और अनुदात्त में
वेदमन्त्रों का गान गाया जाता है। तो वहां ध्वनि पवित्र हो जाती है,ये आत्मा से ध्वनि का ध्वनित होना ही राजा के राष्ट्र में शंख ध्वनि कहलाती है
और वही चार प्रकार के नियम राजा के राष्ट्र में होते हैं, सबसे प्रथम पदम, गदा और शंख ध्वनि,ये ध्वनियों के द्वारा राष्ट्र उन्नत बनता है,और यदि ये ध्वनियों में किसी भी प्रकार की ध्वनि में अध्वनितता आ जाती है वही
राष्ट्रीय प्रणाली में सूक्ष्मता आना प्रारम्भ हो जाता है। तो विचार आता रहता है
इसीलिए राजा के राष्ट्र में ये चार प्रकार की नियमावली होनी चाहिएं, वास्तव में ध्वनि होनी चाहिएं। जब गान गाने वाला,गान गाता रहता है,तो वह गाता ही रहता है,वह उद्गीत गाता रहता है। वह उद्गीत गाने वाला ही अपने को पवित्र बनाता है।
वेद का भाष्यकार
वेद की प्रतिभा और प्रतिभाषा को
वह मानव जानता है,जिसमें तीन प्रकार के गुणाधनम होते हैं,सबसे प्रथम तो वह वेद का श्रद्धालु हो, वेद
के मर्म को जानने वाला हो, और, द्वितीय वह वेद के अर्थों को जान सकता
है,वह यौगिक भी हो,और वह विज्ञानवेत्ता हो, विज्ञानवेत्ता हो, श्रद्धा में हो,और वह आध्यात्मिक विज्ञान को जानने वाला हो,ये तीन प्रकार के भाव को ले करके,जब वह वेद के गर्भ में प्रवेश
होता है। तो वेद का स्पष्टीकरण करता चला जाता है। यदि वह विज्ञानवेत्ता भी है, और वह वेद के भाव को जान सके,तो नही जान सकेगा और यदि वह योगी है,और योग
में परिणित हो जाता है। तो केवल,योगी भी उस वेद के मर्म को,इस प्रकार उद्धबुद्ध नही कर
सकता, तृतीय उसमें व्यवहार होता है,यदि उसमें व्यवहार पवित्र है,व्यवहार कुशल,विज्ञान कुशल और वही मानव योग में सिद्धता को प्राप्त
करने वाला हो। वह वेद के मर्म को जानता है, और वेद का वह भाष्यकार बन करके,उसका स्पष्टीकरण करता रहता है, उनमें से कोई सा गुणाधानम न हो,तो उसके मर्म को नही जान सकता। क्योंकि विज्ञानवेत्ता भी योग से सिद्ध होता
है। और योग भी विज्ञान से सिद्ध होता है। और विज्ञान दोनों प्रकार उसके समीप होना
चाहिए,एक विज्ञान आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के
विज्ञान में रत रहने वाला हो,तो ये राजा रावण ने अपने
विज्ञानवेत्ताओं की सभा में इस उद्गीत को गाया और उन्होंने कहा कि वेद के मर्म को
जानना चाहिए,क्योंकि वेदों में गुरूतव परमाणु का बड़ा विश्लेषण
होता रहा है। अथवा उसकी प्रतिभा में रत्त होना ही मानव का कर्तव्य
है।
वेदमन्त्रों का गायन
वास्तव में,ब्रह्मचारी जन एक पंक्ति में विद्यमान हो करके,जब वेदमन्त्रों के स्वरों का गान गाते हैं। उनकी स्वर संगमता जागरूक हो जाती
है।
स्वर संगम से वेदमन्त्रों का
गान
प्रत्येक वेद मंत्रों में स्वर
संगम होता रहता है। क्योंकि जो वेद मंत्रों को स्वर संगम को गान के रूप में हृदय
की आभा को लगाता हुआ,अपने में गान गाने लगता है,तो वह गान विद्या में पूर्णता को प्राप्त होता हुआ,और वेद मंत्रों को स्वर में दिव्य ब्रह्मा वह स्वर संगम में रमण करता हुआ,भयंकर वनों में गान गाने लगता है। जब मानव अपने में गान गाने लगा,और वेद मंत्रों का जब उद्गीत गाने लगा,तो उसमें हिंसा का जो स्वर वृत्ति है,तरंगे है,वह समाप्त हो जाता है। क्योंकि वेद के मंत्रों में
स्वर संगम से ही हिंसा की तरंगें मानो समाप्त हो जाती है। हमारा यह वेद मंत्र बड़ी
ऊर्ध्वा से,ऊर्ध्वा में ले जाता हुआ, हमें यह प्रेरणा दे रहा है कि मानव अन्तरात्मा से प्रेरणा के
साथ
क्या मानव अन्तरात्मा से
प्रेरणा के साथ में, जब गान गाता है। तो उसके अन्तर्हृदय से उद्गारों का
जन्म होता है,जिन उद्द्वारों में मानवीयता उसमें परिणित हो जाती है।
88 परमात्मा की महत्ता की आवश्यकता
हमारे वेद मन्त्रों में अनेक
स्थानो पर वर्णन आ रहा है कि यह महान संसार उस परमात्मा को पाने के लिए बनाया है।
इसीलिए हमको अधिक महत्ता की आवश्यकता है।
89 वेदगान
में क्रियात्मकता
गान विद्या होनी चाहिए। राजा के
राष्ट्र में गान होने चाहिए और गान जो वेदमन्त्र कहता है,उसके अनुकूल गान होना चाहिए। वह जब स्वर संगम में गान गाता है,अथवा जब वह गान गाने लगता है,तो राजा के राष्ट्र में मल्हार
गान होना चाहिए,राजा के राष्ट्र में दीपावली गान होना चाहिए,जिससे राष्ट्र में प्रकाश आ जाए और बुद्धि क्रियात्मकता में जीवन हो जाए,जहां राजा के राष्ट्र में विज्ञान है और वह विज्ञान,हमारे यहां परमाणुवाद से जाना जाता है,वही
विज्ञान गान रूपों में आता है|तो गान के रूप में जब वह गान
गाने लगता है,तो गान की प्रतिष्ठा अपने में प्रतिष्ठित हो जाती है
और वह प्राण के द्वारा गाता है,अपान के द्वारा गाता है,व्यान के द्वारा गान गाने लगता है और समान की उसमें पुट लगा देता हैं| तो जब यह जटा पाठ में अथवा गान गाने लगता है,तो अपने मानवीय जीवन को वह दीपावली रूप में परिणत कर देता है। और दीपावली बन
करके प्रकाश आ जाता है,मल्हार राग प्राण और अपान की पुट लगा करके गाता है और
उसे वह माला पाठ और जटा पाठ को ले करके गान गाता है,प्राणों को एकाग्र करता हुआ उस समय वह मल्हार वह राग रूपों में रमण कर जाता है,मल्हार राग गाता है|तो यह गान अपने में क्रियात्मक होना चाहिए,जब वह क्रियात्मक होता है,तो वही गान राजा के राष्ट्र को उन्नत बनाता है,
महात्मा एकान्त भयंकर वनों में
गान गा रहा है,स्वर संगम में गान गा रहा है,जब वह गान गा रहा है तो पक्षी गण भी उसके गान को श्रवण करते हैं भयंकर वनों
में प्रत्येक पक्षी अपने आश्रम में शान्त हो रहा है,वह क्यों? क्योंकि गान की जो ध्वनि है,वह अपनी आत्मीयता से सम्बन्धित होती है,आत्मा
से उसका समन्वय होता है तो वह गान गाता रहता है
जब चाक्राणी गार्गी भयंकर वनों
में एक समय वह जटा पाठ गान गा रही थी वेदमन्त्र है वेदमत्र अनेक है परन्तु वह गान
गा रही है,वह बुद्धि,मेधा,ऋतम्भरा और प्रज्ञा को एकाग्र करके जब वह गान गा रही है एक दूसरे प्राण को
देखो, प्राणों को प्राणों में सम्मिलित कर रही है,प्राणों में प्राण का समन्वय करती हुई,जब वह गान गा रही है,तो जितने पक्षी गण अथवा हिंसक प्राणी वह सर्वत्र,उसके गान से शून्य हो रहे हैं और गान को गान रूप में गाया जा रहा है,जिससे आत्मा का समन्वय रहता है
तो ऋषि ने कहा हे ब्रह्मचारी!
राजा के राष्ट्र में इस प्रकार के गान गाने वाले बुद्धिजीवी प्राणी होने चाहिए। जो स्वर संगम में गान गाते हों। और वह ध्वनि को जो स्वतः
ही परमाणुओं के संघर्ष से संग्रहित होती हो तो श्रवण करने वाले योगेश्वर होने
चाहिए।
वेदपाठ में माधुर्यता
हमें वेदपाठ माधुर्यता से ही
करना चाहिए, और अन्तःकरण से करना चाहिए,वह हमें शान्तिदायक होगा। जब हम वेदमन्त्रों को नाममात्र से ही उच्चारण करते
हैं और उनका अच्छी प्रकार मन्थन नहीं करते,तो वेद के अक्षरों की रटन्त करने से कोई भी लाभ प्राप्त नहीं होता। लाभ उसी
काल में प्राप्त होगा,जब हम वेदवाणी के अनुकूल अपने विचारों को ऊँचा
बनाएंगे। वेदवाणी कुछ उच्चारण कर रही है और हमारा जीवन उसके विपरीत चल रहा है,तो उस वेदवाणी से कुछ लाभ न होगा। लाभ उसी काल में
होगा,जब बुद्धिमान ब्राह्मण वेदमन्त्रों का मन्थन करता है,उसका अनुवाद करके सरल से सरल बना लेता है | इसी प्रकार हमें अपने जीवन को इतना सरल और नम्र बना
लेना चाहिए, कि हम महान् और विचित्र बनते रहें। जो इन्द्रियां विकृत हो गई हैं, उन्हीं को तो स्वरों में लाना है, एकाग्रता के आंगन में प्रेवश कराना है।
गान के परमाणुवाद का यत्रों में
भरण
महाराजा गाड़ीवान रेवक की आयु उस
समय ४८१ वर्ष की थीं,वे ४८१ वर्ष के ब्रह्मचारी वे सब रागों को जानते थे। सौ सौ वर्षों तक उन्होंने एक एक विषय पर अनुसन्धान
किया। वे प्राण और अपान का मिलान करके स्वरों की ध्वनि को जानता है उसकी ध्वनि में
अग्नि प्रदीप्त हो करके दीपावली राग बन जाता है। जो जल,जो उदान को और समान को प्राण में दोनों में उनको पिरो देता है तीनों प्राणों का समावेश होकर के जब वो गान गाता है तो
उससे मेघा रागों का,मेघ उत्पन्न हो जाता है। तो ये विधाएँ हमारे यहाँ, परम्परागतों से रही हैं। इन विद्याओं के ऊपर बहुत
अनुसंधान किया। परन्तु गान गा रहा है,गृह के
दीपक प्रकाशित हो रहे है। गान गा रहा है, मेघ उमड़ रहें है,तो वृष्टि हो रही है। इस प्रकार की विद्याएँ,इस विद्या को त्रेता के काल में, रावण के काल में यंत्रो में इस परमाणु विद्या को उन्होंने यंत्रों में भरण
करने का प्रयास किया। प्रयास करके यंत्रो को वायु में त्यागा,तो वृष्टि हो गई। इसी प्रकार मानव अपने क्रिया कलापों
में इस विद्या को प्रत्यक्ष करता रहा है। जैसे माता मल्हार राग गाती है,मल्हार राग गा करके वृष्टि होने लगती है जैसे दीपावली
राग,गान गाता है,तो
दीपक प्रकाशित हो जाते है। इस प्रकार की विद्याएँ जैसे परमाणु को विभाजन करने से,अनन्त अग्नि का भण्डार उत्पन्न हो जाता है। इसी
प्रकार मानव की वाणी में मानव के प्राणों के निदान करने में वो
शक्ति प्राप्त होती है।
वेद गान
आज परमात्मा से निवेदन करें,परमात्मा से उच्चारण करें कि हे परमात्मन्! आपके बनाए हुए संसार में,आज प्रत्येक मानव,प्रत्येक देवकन्या दुःखित होती चली जा रही है, एक मानव दूसरे मानव पर घात लगाए बैठा है। परन्तु
वेदवाणी तो कहती है कि परमात्मा ने संसार को मनोहर उत्पन्न किया है। वेदवाणी के
उच्चारण से इस विशाल वायु मण्डल को शुद्ध किया जाए,जिससे कि मानव के अन्तःकरण में शुद्ध भावानाएं आएं।
माला पाठ
हमारे यहां भिन्न भिन्न प्रकार
कि पठन पाठन की प्रतिक्रियाएं परम्परागतों से ही विचित्र मानी गई हैं। जैसे हमारे
यहां माला पाठ का वर्णन आता है,तो हमारे यहां माला पाठ
प्रत्येक शब्दों की प्रतिभा में निहित रहता है। क्योंकि उस परमपिता परमात्मा ने जब
इस मानवीयता का निर्माण किया,तो मानव के मस्तिष्क में एक
ऊर्ध्वा में एक ध्वनि हुआ करती है,जिस ध्वनि मैं ध्वनित होता हुआ, योगेश्वर उस ध्वनि को श्रवण करता रहता है, और उसमें आनन्दवत का ग्रहण करता है,तो उसी
ध्वनि को जब बाह्य जगत में लाया जाता है,तो
वहां वेदमन्त्रों का वो उद्घोष करता है और वेद मन्त्रों को अपना स्वर और व्यञ्जन
देता रहता है। वह शब्दों की प्रतिभा में सदैव निहित रहता है। जैसे माला और नाना प्रकार के मनके और धागों का दोनों का समन्वय
होता है,तो एक माला कहलाती है। इसी प्रकार प्रत्येक शब्द को धारा
में रत्त कराना और उसको ध्वनि में ध्वनित करने का नाम एक माला के रूप में परिणत हो
जाता है,अथवा वह माला हमे दृष्टिपात आने लगती है। तो ये संसार
जितना भी हमें प्रायः दृष्टिपात आ रहा है,वो एक माला के सदृश्य किसी भी प्रकार की योनि हो,किसी भी प्रकार की आभा हो,वह एक दूसरे में पिरोई हुई है,और एक दूसरे में निहित होती दृष्टिपात आती है। यदि
उसमें एक दूसरे में प्रतिभाषित नही होगी,तो ये
संसार माला के रूप में दृष्टिपात नही आ सकेगा। शिल्पकार जब यज्ञशाला का निर्माण
करता है,तो वो भी एक प्रकार के रूपों को रूप देता चला जाता है,तो वह माला बन जाती है। जैसे यज्ञमान अपनी यज्ञशाला
में विद्यमान हो करके वह याग करता है और वह याग करता हुआ,अपने हृदय और प्राण और मनस्तव जब तक ये संतुलित नहीं होते,तब तक वह याज्ञिक अपनी यज्ञशाला में सफलता को प्राप्त नही होता है।
वेद गान
हे विधाता! यह ब्रह्माण्ड, यह सारी सृष्टि,आपकी बनाई हुई है। हमारी रसना में आपका ही बल दिया हुआ है। हमारे कण्ठ में भी
आप विराजमान हैं।आपकी ही कृपा से, आपकी ही सत्ता से,हम वेदमन्त्रों का गान कर पाते हैं। आपकी वाणी कहती है,कि यह वायुमण्डल यह अन्तरिक्ष, वेदमन्त्रों से ही शब्दाययमान हो करके, शुद्ध हो जाता है। यह आपकी बड़ी मनोहरता है।
वेदमन्त्रों का हृदय से गान
हमारे यहाँ ये पठन पाठन का क्रम
परम्परागतों से ही,चला आ रहा है। क्योंकि इस पठन पाठन में,नाना प्रकार के व्यञ्जन होते हैं और उच्चारण करने के
नाना प्रकार माने गए हैं। जैसे हमारे यहाँ वेदों की ध्वनियाँ होती रहती हैं। गान
गाने वाला गाता ही रहता है। कहीं वह गान जटा पाठ में गा रहा है,कहीं माला पाठ में गा रहा है, कहीं विसर्ग उदात्त,अनुदात्त नाना प्रकार के वेद के पठन पाठन में ऋषि मुनियों ने अनुसन्धान किया
और यह उन्होंने कहा है कि मानव जब गान गाने लगता है,तो एक शब्द को,उसके पश्चात् द्वितीय शब्द की धारा को जन्म देता है,वह उसका जन्मदाता बन जाता है,परन्तु जो मानव हृदय से गान गाता है वह गाता ही रहता है। मृगराज आ रहे हैं, गान को श्रवण कर रहे हैं,ऋषि मुनि जब गान गाते रहते थे, तो वह निर्भय और आत्मीयता में तन्मय हो करके गान गाते
थे।
जब महर्षि भृगु मुनि गान गाते थे तो गान गाते
गाते इतने तन्मय हो जाते थे, कि उनको कोई प्रतीति नहीं होती
कि बाह्य जगत् भी है। सिंहराज आ रहे हैं,गान को
श्रवण कर रहे हैं,ध्वनियाँ चल रही हैं,वायुमण्डल में वे तरंगें जा रही हैं,वो ऋषि
हृदय से गा रहा है।
तो मानव को जो भी गान गाना हो,उसे हृदय से गाना चाहिए,क्योंकि हृदयग्राही हो करके जो मानव गान गाता है वह उस गान
को प्रकाश में और अपने को प्रकाश में रत्त करा करके गान में ऊर्ध्वा को प्राप्त हो
जाता है। वेद का आचार्य यह कहता है कि याज्ञिक पुरुष जब याग करता है,तो गान गाता है। परन्तु हृदय से जब गान गाता है,तो याग उससे सिद्ध हो जाता है,वह याग में परिणित हो जाता है।
वेदमत्रों का गायन सप्त स्वरों में
वेद गायन की अनिवार्यता
हम तुम्हारे समक्ष उन वेद
मंत्रों का पाठ कर रहे थे,जिनका पाठ,हमारे महर्षि अंगिरा मुनि आचार्य ने सात स्वरों में
किया था। हम पूर्व की भांति,वेदों का पाठ अच्छी प्रकार से
नहीं कर सकते। परन्तु हमारे गुरु ब्रह्मा जी ने बहुत पूर्व काल में कहा था,वेद पाठ न करने से कुछ करना भी सुन्दर होता है। इसलिए आज उसी आज्ञा के आधार पर
वेदों का गान गा रहे थे। महान प्रभु हमारी वाणियों की भी वाणी है। हमारी वाणी में
माधुर्य उसी का दिया हुआ है। वह महान प्रभु इस संसार को चला रहा है। हमारे जीवन की
नाना योजनाएं बना रहा । आज के मन्त्रों में उस प्रभु की महत्ता का वर्णन
किया गया है। आज के वेद मन्त्रों में जो प्रभु का गुणगान किया गया है,हम तो उसका भी पूर्ण रूप से व्याख्यान करने में
असमर्थ हैं,हम जो कुछ व्याख्यान करते हैं,उसकी रूपरेखा परमात्मा के दिए उपदेश,वेद मन्त्रों, से ही लेकर कुछ व्याख्यान कर पाते हैं।
सावित्री ऋचा, गायत्री मन्त्र
गोमेध याग के बहुत से भिन्न
भिन्न प्रकार के पर्यायवाची हैं, ब्रह्मचारी विद्यालय में गोमेध
याग कर रहा है, एक किसी नदियों के तट पर विद्यमान हो करके,एक योगेश्वर जब अपनी इन्द्रियों के ऊपर संयम करता है और इन्द्रियों के विषयों को साकल्य बना रहा है और साकल्य बना करके अपने में
एकोकीकरण कर रहा है, वह भी गोमेध याग कर रहा है।
प्राण चिकित्सा
हमारे यहाँ आयुर्वेद की औषधियों
को पान करके ऋषि योगाभ्यास करते रहे हैं और यागी बनते रहे हैं,क्योंकि जब तक प्राण का संचार अच्छे विशुद्ध रूप से नही हो पाता,तब तक हमारा योगी बनना असम्भव हो जाता है। क्योंकि प्राण विशुद्ध रूपों से गति
करना,प्राण का अपने में संघर्ष न करना बहुत अनिवार्य है।
हमारे आचार्यजन एक संकल्पोमयी प्राणायाम किया करते थे। पुरातन काल में ये प्रायः
हम भी कराते रहे हैं। संकल्प से प्राणायाम होते हैं। जैसे हमने संकल्प किया है,सूर्य और चन्द्रमा स्वरिञ्जनी होती है। जब संकल्प के द्वारा उनका आदान प्रदान
होता है। तो संकल्पोमयी प्राणायाम मानव के बहुत से रूग्णों को और चंचलता को समाप्त
कर देता है।
एक समय मगध राष्ट्र में चले गए थे, बहुत पुरातन काल हुआ। मगध राष्ट्र में एक सरूचिकेत
नामक ऋषि थे,वह राष्ट्र मे बड़े प्रसिद्ध थे,वह भयंकर वनों रहते थे। नद नदियों के तट पर रहते और ब्रह्मचारियों को कुछ
शिक्षा भी देते रहते,एक ब्रह्मचारी उनके द्वारा ऐसा आ पंहुचा,मनोबल चंचल बन गया,चंचल कैसे बना,जिसे उन्माद के रूप में परिणत करते हैं। इसे उन्माद के रूपों में वर्णन करते
रहते हैं। सरूचि ऋषि ने उस ब्रह्मचारी को अपने आश्रम में आसन दिया।
वह उसके ऊपर अन्वेषण कर रहे थे। अन्वेषण क्या था, उनके त्रि जो दोष हैं, उन दोषों के ऊपर अन्वेषण और
शोधन कर रहे थे,समुद्र जल की प्रतिक्रियाओं में जल में उन्हें लाना
जल में तपाना और संकल्पोमयी प्राणायाम करने से मस्तिष्क की सूक्ष्मवाहक नाड़ी है।
जो अग्नि में किसी कारण किसी आवेश से या किसी के आक्रमण से नाड़ी संकुचित हो जाती
है,नाड़ियों में संकुचित पन आ जाता है। वह नाड़ियों का
स्पष्टीकरण हो जाता है। स्पष्टीकरण होने से बुद्धि का विकास हो जाता है और बुद्धि
का विकास होने से उसका रूग्ण समाप्त हो जाता है।
तो यहाँ बहुत सी नाना प्रकार की औषधियां है,जिनको पान करने से मानव महान बन जाता है,पवित्र बन जाता है,सर्पगन्धा औषधि के आसन से यदि योगेश्वर ये चाहता है, कि मैं ध्यानावस्थित हो जाऊं,तो ध्यानावस्थित हो करके, वह परमात्मा से अपना मिलान करने लगता है,हमारे यहाँ ऐसे ऐसे कुशा के आसनों पर विद्यमान हो करके नदियों के तटों पर
विद्यमान हो करके,ऋषियों ने बहुत सा अनुसन्धान प्रभु को निहारते हुए
प्रभु से वार्त्ता प्रगट करते रहते थे। हमारे यहाँ नाना रूपों में, कुशा मानी जाती है। कुशा के आसन पर सर्प नही आ पाता,और कोई प्राणी उस अव्रत नही कर पाता,तो आसन पवित्र माना गया है। कुशा भी हमारे यहाँ वैदिक साहित्य में बारह प्रकार की होती है।
बारह प्रकार की कुशाओं को ले करके यदि उसको जल में तपाया जाता है। तपाने से उनका
रस बनाया जाता है,रस बना करके उसको जल की कृतिका बना करके जब खरल रह
जाता है। उसको मधु वर्णिता में पान करने से वह सर्प जैसे विषैले प्राणियों को विजय
करने वाला बन जाता है।
सामान्य भवनों में महापुरुष
मैं तुम्हें प्रारम्भ कर रहा था, राजन! कि महात्मा ज्ञानश्रुति की चर्चा कर रहा था, महात्मा ज्ञानश्रुति वह भी जब राष्ट्रीय पद्धति में,राजा ज्ञानश्रुति हमारे यहाँ बड़े भव्य राजा थे और
राजा के हृदय में,जब राष्ट्र को त्याग करके,वह आत्मज्ञान के लिए,आत्मवान बनने के लिए तत्पर होते
हैं,तो राष्ट्रीयता उसी काल में ऊँची बन जाती है।
राजा ज्ञानश्रुति एक समय अपने
राष्ट्र में, मंत्रियों के मध्य में विद्यमान थे और मध्य में
विद्यमान हो करके महाराजा ज्ञानश्रुति ने अपने मंत्रियों से कहा हे मन्त्रीगणों!
मेरी इच्छा यह है कि मैं किसी महापुरुष के द्वारा अपने को समर्पित करके,मैं आत्मवान बनना चाहता हूँ। क्योंकि आत्मवान बनना
बहुत अनिवार्य है राजा जब त्याग करता है, राष्ट्र का, तो उस समय वह आत्मवान बनने के लिए और राष्ट्र को जेठे
पुत्र को दे करके ही वह अपने को त्यागकर भयंकर वनों में चला जाता है।
महाराजा ज्ञानश्रुति के इन
शब्दों को पान करते हुए, मन्त्रीगणों ने वहाँ से आज्ञा
पा करके वह भ्रमण करते हुए, ब्रह्मवेत्ता के लिए सदैव तत्पर
हो गये। उन्होंने यह कहा था, कोई भी ब्रह्मवेत्ता हो उसके
मुझे दर्शन करके,उसके चरणों की वंदना करनी है। मन्त्रीगण भ्रमण करते
हुए राष्ट्र गृहों में पहुँचे, राष्ट्र गृहों में ब्रह्मवेत्ता
को प्राप्त करने लगे, तो ब्रह्मवेत्ता नहीं प्राप्त हुआ। वह द्रव्यपतियों के
गृहों में पहुँचे, वहाँ भी ब्रह्मवेत्ता नहीं थे, जब वह पुनः राजा के समीप आये, राजा से कहा प्रभु! हमें किसी ब्रह्मवेत्ता का दर्शन नहीं हुआ। तो उन्होंने
कहा कहाँ गये? उन्होंने कहा, पृथ्वी तल पर, प्रत्येक राष्ट्रगृहों में, प्रत्येक द्रव्यपतियों के गृहों में, हम पहुँचे, हमें कहीं भी ब्रह्मवेत्ता प्राप्त नहीं हुआ।
महाराजा ज्ञानश्रुति बोले कि हे
मंत्रियों! ब्रह्मवेत्ता तो कहीं भयंकर वनों में तुम्हें प्राप्त होगा। नदियों के
तटों पर, जहाँ वे, परमपिता परमात्मा का दर्शन करते हैं आत्मवान बनने के लिए जो सदैव तत्पर होते
हैं वे भयंकर वनों में होते हैं। वहाँ होते हैं जहाँ ऋषि का आसन पृथ्वी होता है और
ओढ़न उसका अन्तरिक्ष होता है और दिशाएं उसके पांसे बन करके उसकी कृतियों में रत्त
होने वाले हो। तो मंत्रियों ने वहाँ से गमन किया, भ्रमण करते हुए रेवक मुनि महाराज के द्वार पर पहुँचे, तो महात्मा रेवक मुनि महाराज जिनको बेटा! एक सौ पांच
वर्ष तक गाड़ी के नीचे व्यतीत किए हुए हो गएं थे। अपने प्रभु का चिन्तन करते हुए, आत्मवान बनते हुए, ब्रह्मवेत्ता कहाँ,किस स्थली पर ब्रह्मवेत्ता रहते हैं, जहाँ भयंकर वनों में जलाशय गमन कर रहा हो, और वह एक सौ पांच वर्ष तक गाड़ी
के नीचे तपस्या करते करते व्यतीत हो गया था।
तो जब मन्त्री उनके समीप पहुँचे, तो महाराजा गाड़ीवान रेवक मुनि ने कहा-आईए, मन्त्री जी,पधारिए।
मन्त्री बड़े आश्चर्य में हुए। मन्त्री ने कहा-प्रभु! आप मुझे कैसे जान गए हैं? उन्होंने कहा कि मैं आपको इसलिए जानता हूँ कि आप महाराजा ज्ञानश्रुति जो
मनुवंश में जो जन्मत्तं राजा है वह बड़े धर्मात्मा, महान और तपस्वी हैं आप वहाँ से विराजे हैं। उन्होंने स्वीकार कर लिया। मन्त्री
ने कहा प्रभु! यथार्थ है। वहाँ से वार्ता प्रगट करके, कुछ ब्रह्मवाद की,महामन्त्री ने वहाँ से गमन किया और भ्रमण करते
अयोध्या में पहुँचे। अयोध्या में आने के पश्चात महाराजा ज्ञानश्रुति से कहा प्रभु!
एक ब्रह्मवेत्ता का दर्शन हुआ है। उन्होंने कहा बहुत प्रियतम!
महाराजा ज्ञानश्रुति अपने
अस्त्रों शस्त्रों से और आभूषणों से नाना द्रव्य ले करके, वह महापुरुष के, गाड़ीवान रेवक मुनि महाराज के द्वार पर पहुँचे, और गाड़ीवान रेवक मुनि महाराज ने कहा, आइये,कैसे आए ? उन्होंने कहा-प्रभु!
मैं ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने के लिए आया हूँ। उन्होंने कहा परन्तु तुम तो
शुद्र हो। जब राजा ने यह विचारा,जब मुद्रा अर्पित करने लगे,तो उन्होंने राजा को जब शुद्र कहा तो ज्ञानश्रुति उन
मुद्रा को ले करके, अपने गृह में पहुँचे।गृह में विचारने लगे,अपनी पत्नी से बोले देवी! मैं आज ऋषि के द्वार पर
पहुँचा। तो ऋषि को जब मैं द्रव्य समर्पित करने लगा, तो उन्होंने मुझे शुद्र कहा है। मुझे शुद्र की संज्ञा प्रदान की है। उन्होंने
विचारा कि द्रव्य सूक्ष्म है। तो बहुत सा द्रव्य ले करके, राजा ने गमन किया। ऋषि के द्वार पर जब चरणों में समर्पित करने लगे,तो राजा से ऋषि ने कहा हे राजन! तुम शुद्र हो।
गाड़ीवान रेवक मुनि महाराज ने जब शुद्र कहा तो पुनः वह अपने
राज्य अयोध्या में आ पहुँचे, अयोध्या में बोले कि हे देवी!
मुझे तो ऋषि ने पुनः यह कहा है कि तुम शुद्र हो। उन्होंने कहा-प्रभु! द्रव्य सूक्ष्म है। तो उन्होंने एक रथ को सजातीय बना करके, रथ को स्वर्ण के आभूषणों से, उसे सजातीय बना करके, उसमें द्रव्य ले करके मणि
इत्यादियों को लेकर के,उन्होंने,वहाँ से गमन किया।गमन करके, जब ऋषि को जा करके समर्पित करने लगे तो उन्होंने पुनः उन्हें शुद्र कहा।
वे पुनः अयोध्या में आए,तो राजा अब यह जानकर,चिंतत करने लगे कि ऐसा क्यों? उन्होंने मन्त्रीगणों की एक सभा
उपस्थित की, और उन्होंने कहा ऋषि ने मुझे शुद्र कहा है। द्रव्य
देने के पश्चात भी, रथ सजातीय देने के पश्चात भी, मुझे शुद्र कहा है। तो मंत्रियों ने कहा प्रभु! कोई चिन्तन किया जाए,इस सम्बन्ध में,तो एक वृद्ध सुकृत नाम के उनके महामन्त्री थे,उनके पिता के समय के,उन्होंने कहा हे ज्ञानश्रुति!
तुम्हें यह प्रतीत होना चाहिए कि तुम्हारे वंशलज में,इस मनुवंश में भी जितने भी राजा हुए हैं वह सर्वत्र ही इसी प्रकार के हुए हैं,जिन्होंने राष्ट्र त्याग करके केवल एक वस्त्र धारण
करके, इन आत्मवेत्ताओं के समीप पहुँचे।
ज्ञानश्रुति के हृदय में यह
वार्ता समाहित हो गई। उन्होंने सब आभूषणों को त्याग करके और सब को त्याग करके उन्होंने
केवल एक वस्त्र धारण करके,और वह वन वृत्ति बन करके वनचर
बन करके, उन्होंने अपने राष्ट्र से गमन किया और भ्रमण करते हुए
जब ऋषि गाड़ीवान रेवक मुनि महाराज के द्वार पर पहुँचे,तो गाड़ीवान ने राजा से कहा, वेद का आचार्य कहता है कि तुम
ब्रह्मवेत्ता बनने के लिए आए हो, तुम ब्रह्मवेत्ता बनने के लिए
तत्पर हो जाओ। आओ, विराजो।
महाराजा ज्ञानश्रुति तथा नाना
ऋषिवर उनके यहाँ अनुसन्धान करते रहे। मैं उसी ज्ञानश्रुति की चर्चा करने चला हूँ।
जिस समय ज्ञानश्रुति ने नाना प्रकार की मुद्राओं को त्याग कर के अपना स्वरूप बनाया,तो वह गाड़ीवान रेवक मुनि के द्वार पर पहुँचे। गाड़ीवान रेवक मुनि महाराज ने
उनके स्वागतार्थ ब्रह्मज्ञान की चर्चाएँ की।
गाड़ीवान रेवक से महाराजा
ज्ञानश्रुति ने कहा प्रभु! मैं ब्रह्मज्ञान चाहता हूँ। अपना राष्ट्र मैंने अपने
ज्येष्ठ पुत्र को प्रदान कर दिया है। मैं ज्ञान और विज्ञान में रत्त रहना चाहता
हूँ। जब हम यह विचारते हैं कि जैसे ब्रह्म का आयतन यह विज्ञानमीय स्वरूप वाला जगत, विज्ञानमयी स्वरूप वाला वह ब्रह्म हमें दृष्टिपात आता
है। तो यह जो शरीर है, यह जो प्राण पञ्च महाभौतिक तत्त्वों में रत्त रहने
वाला है यह आत्मा का आयतन है। आत्मा का यह गृह माना गया है। जैसे एक एक परमाणु
ब्रह्म का आयतन माना गया है। वह मानव शरीर में आत्मा भी ब्रह्म का आयतन माना गया
है इसलिए वह वास कर रहा है। तो जब यह विवेचना आने लगी तो गाड़ीवान रेवक मुनि माहराज
ने यह विवेचना प्रारम्भ की।
महाराजा ज्ञानश्रुति ने कहा
प्रभु! मैं यह जानना चाहता हूँ, जब में नाना मुद्राएँ ले करके आपके
समीप आया,तो आपने मुझे यह कहा। परन्तु संसार में नाना प्रकार
की माया और मुद्राओं के बिना राष्ट्र का क्रियाकलाप नहीं चलता, क्रियाशील नहीं हो पाता। याग इत्यादिओं का जो कर्म,वह भी मुद्रा के बिना नहीं हो पाता। तो उससे अनभिज्ञ होने को आपने मुझे कहा।
गाड़ीवान रेवक ने कहा, कहो राजन! आपके हृदय में जब यह विचार आया कि मैं
ब्रह्मवेत्ता बनना चहता हूँ। हे राजन! जब तुम्हारी यह जिज्ञासा थी तो द्रव्य का
कोई समन्वय नहीं रह पाता। जब उन्हाँने यह कहा तो महाराजा ज्ञानश्रुति ने कहा, प्रभु! ज्ञान और माया का प्रायः समन्वय रहता है। मानव
का जो शरीर है यह पञ्च महाभौतिक है यह माया के गुणाध्यान कहलाया गया है,इसी प्रकार यह सर्वत्र ब्रह्माण्ड और राष्ट्र में एक ही क्रियाकलाप हो रहा है।
महाराजा ज्ञानश्रुति के वाक्य को पान करके गाड़ीवान रेवक ने कहा, हे राजन! जब तुम मेरे समीप मुद्रा ले करके आए, तो ब्रह्म में मुद्रा का कोई समन्वय नहीं होता।
तुम्हारा पथ यह कहता है कि माया
कृतियों में भी निष्पक्ष हो करके मानव निर्बन्धन हो करके इसमें रमण कर सकता है और
तुमने ऐसा वर्णन कराया कि यही जानना चाहते हो। परन्तु मैंने इसलिए शुद्र कहा कि
तुम ब्रह्मवेत्ता को अपनाना चाहते थे,स्थापित
करना चाहते थे ओर उस ब्रह्मवेत्ता की इच्छा नहीं है,जब इसकी इच्छा नहीं है,तो देने वाला भी क्षुद्र के
तुल्य है और यही लक्ष्मी तो चञ्चल है ही जो मानव को कहीं का कहीं ले जाती है।
उन्होंने यह कहा तो गाड़ीवान रेवक मुनि के वाक्यों को पान करके ज्ञानश्रुति मौन
होने लगे और उन्होंने कहा, हे राजन! तुम रथ को सजातीय बना
करके तुम रथ को ले करके यहाँ आए,तो तुम्हारा मन नाना कृतियों
में रत्त रहने वाला नहीं था। महाराजा ज्ञानश्रुति मौन हो गए।
तो जब ब्रह्मवेत्ता के समीप
पहुँची तो तीन समिधा ले करके जाना चाहिए। समिधा का अभिप्राय क्या? मैंने बहुत परातन काल में कहा, तीन समिधा वह होती हैं,जो आत्मा को चेताने के लिए अग्नि में उद्बुद्ध की जाती हैं।
वेदमन्त्र का गान
प्रत्येक दशा में मानव को
वेदमन्त्रों का उद्गीत गाना चाहिए। जिससे तुम्हारी वाणी पवित्र हो जाए और
वायुमण्डल में वह ध्वनि प्रविष्ट हो करके अशुद्ध परमाणुओं को निगलती चली जाए, और उसका शुद्ध परमाणुओं से शुद्धिकरण हो जाए। मेरे
प्यारे परमपिता परमात्मा का यह जगत भव्यता को प्राप्त हो जाए। आज कैसा सुहावना समय
है जिस सुन्दर समय में परमपिता परमात्मा ने हमे वेदमन्त्रों के उच्चारण करने का
सुअवसर प्रदान किया है।-पूज्यपाद गुरुदेव
ऋग और साम उसी को कहा जाता है जहाँ एक
दूसरे का मिलान होता हो। हमारे यहाँ जैसे पृथ्वी को ऋग कहा जाता है और वायु को साम
कहा है दोनों के मिलान से ही सामगान होता है। इसी प्रकार जैसे मानव का तालु होता
है और जीभ होती है दोनों के मिलान से ही मानव के मुखारबिन्द से शब्द की रचना होती
है इसी प्रकार वहाँ भी ऋग और साम दोनों का मिलान हो करके वहाँ वायु और जल दोनों का
ऋग और साम माना है। जैसे हमारे इस पृथ्वी मण्डल पर पृथ्वी और वायु को ऋग और साम
माना है वहाँ पूरे चन्द्र मण्डल में वायु को और जल को दोनों ऋग और साम को उपाधि प्रदान
की जाती है। उस काल में वहाँ गान गाया जाता है। गान उसे कहते हैं जहाँ दोनों का
मिलान होता है, वहाँ शब्द की रचना होती है, वहीं मिलान होता है, वहीं नाना प्रकार की उत्पत्ति
का कारण बना करता है।
चाक्राणी गार्गी
जब चाक्राणी गार्गी अपने शरीर
को त्यागने लगी तो उस समय, वह सामगान गा रही थी और जब वे
सामगान गा रही थी तब नाना, ऋष मुनि विद्यमान हैं। उनके
मध्य में चाक्राणी गार्गी विद्यमान हो करके कहती हैं, हे ऋषियो! अब मैं अपने गृह में प्रवेश कर रही हूँ। मैं इस संसार के गृह को
त्याग रही हूँ। इस क्षेत्र में आ करके मैंने मृत्यु को विजय किया है। ऐसे ही
ऋषियो! तुम भी मृत्यु त्ते विजय करने का प्रयास करो।
साम गान वेत्ताओं ने सामगान को
लिया और गान गाने लगे। जब गान गाने लगे, गान गाता रहा,उद्गार चलते रहे, जब प्राण की गति को जानने लगे, जब प्राण उद्गार बन गये, उन प्राणों का अभ्यास करते करते चार चार घड़ी का अभ्यास किया।
उस अभ्यास के करने से वाणी अग्नि का स्वरूप बन गई,जैसे जब अग्नि का स्वरूप बन गई जैसे बाह्य जगत में समिधा को समिधा के घर्षण से
अग्नि उत्पन होने लगी। इसी प्रकार यह वाणी ही शब्द के घर्षण से अग्नि उत्पन्न होने
लगी। जब यह उत्पन्न होने लगी तो यह विचारा कि यह तो विशाल अग्नि है। अग्नि को
जानने का प्रयास किया और इस अग्नि को कहा दीपावली बनने लगी।
पूज्य महानन्द जीःआज मैं अपने
पूज्यपाद गुरुदेव से वाक प्रकट कर रहा हूँ कि जहाँ हमारी ये आकाशवाणी जा रही है, वहाँ सामगान का पारायण हुआ, उसकी पूर्ण अस्वाति अध्ह्वे समाप्त हुआ।
कल्याणमयी वेदवाणी
वेद मन्त्रों की जो प्रतिभा है,वह मानव को कहीं का कहीं वर्णित कर रही है। उसी वर्णन
शैली में, जब हम प्रवेश करते है तो अन्तर्हृदय गद् गद् हो जाता
है।
हम तुम्हारे समक्ष पूर्व की भान्ति
कुछ वेदमन्त्रों का गुणगान गाते चले जा रहे थे,ये भी तुम्हे प्रतीत हो गया होगा। आज हमने पूर्व से जिन वेदमन्त्रों का पठन
पाठन किया, हमारे यहां परम्परागतों से ही उस मनोहर वेदवाणी का
प्रसारण होता रहता है,जिस पवित्र वेदवाणी में उस परमपिता परमात्मा की महिमा
का गुणगान गाया जाता है, क्योंकि वे परमपिता परमात्मा
महिमावादी हैं, और वे सर्वज्ञ जगत के नियन्ता अथवा निर्माण करने वाले
हैं, और जितना भी ये जड़ जगत अथवा चैतन्य जगत हमे
दृष्टिपात आ रहा है, उस सर्वत्र ब्रह्माण्ड के मूल में प्रायः वे परमपिता
परमात्मा दृष्टिपात आते रहते हैं। प्रत्येक मानव का ये कर्तव्य है, क्या उस परमात्मा की अनुपम सृष्टि को निहारना चाहिए, और उसको अन्तर्हृदय में जो मानव धारयामि बना लेता है, अथवा धारण कर लेता है, तो उस मानव का हृदय विशाल और पवित्रता को प्राप्त हो जाता है। तो परमात्मा की
सृष्टि को दृष्टिपात करना अथवा उसे निहारना और हृदय स्थली में सर्वत्र ज्ञान और विज्ञान को उसमें धारण करना उसमें समावेश करना ये
प्रत्येक मानव का कर्तव्य कहलाता है। जिससे मानव के अन्तर्हृदय में एक पवित्रता का
समूह उपलब्ध हो जाए। और जिस समूह के द्वारा हमारा जीवन महान बनता है। उस साम्यता
को प्रायः हम दृष्टिपात करते रहें। तो आज का हमारा वेदमन्त्र ये उदगीत गा रहा है, क्या इस संसार में मानव जब याग के क्षेत्र में प्रवेश
करता है, तो भिन्न भिन्न प्रकार के यागों का चयन करने लगता है, आज कहीं से मुझे ये प्रेरणा आ रही है, कि सविता के सम्बन्ध में कुछ विचार विनिमय दिया जाए।
कल्याणमयी वेदवाणी
हे वेदवाणी! तू कल्याण करने
वाली है। तू वह वेदवाणी है,जो सृष्टि के प्रारम्भ से संसार
के कल्याणार्थ आयी है। हे वाणी! तेरा जो अनुकरण करते हैं उनका वास्तव में कल्याण
होता है। तू वह वाणी है, जो सूर्य और चन्द्रमा को
प्राप्त हुई है। हे वाणी! तू वह वाणी है जिसने यह संसार रचाया है। तू बड़ी उदार व
पवित्र है। संसार में जो तेरा अनुकरण करते हैं वे बड़े ऊंचे और पवित्र बन जाते हैं, वही उदार होते हैं।
आज का मनोहर पाठ हमारे हृदय को
छूता चला जा रहा था। हमें ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हम परमपिता परमात्मा की इस
पवित्र वाणी का प्रसारण करते ही चले जायें और वह जो आनन्दमयी माँ है उसकी ज्ञान
रूपी लोरियों का हम पान करते ही रहें। यह जो ज्ञान विज्ञान रूपी वेद है यह मानव के
अन्तःकरण को ऊर्ध्व बनाने वाला है। वह वेद वाणी हमारे जीवन को ऊर्ध्व और मानवता
में परिणत करती चली जा रही है।
वेद मन्त्र की प्रेरणा
वेद हमे बारम्बार यह प्रेरणा दे
रहा है, प्रेरित कर रहा है कि जहाँ जो शब्द उद्गीत रूप में
गाया जाये, वहाँ उसको उसी रूप में गाना चाहिए। उस शब्द का, उसकी जो रचना है, उसको विकृत नहीं करना चाहिए। तो इसी प्रकार का हमारा वेद का मन्त्र हमें
प्रेरित करता है।
इस संसार में आज हम उस वेद माता
की याचना करते चले जाएं,जो वेद माता हमें प्रकाश के देने वाली है। हमें प्रकाश
के मार्ग पर पंहुचाने वाली है,आज हम पुनः से उसकी याचना करते
चले जाएं। वेद रूपी प्रकाश है,यह वेद रूपी माता है? कौन सी माता है वेद माता, जिस वेद माता के गर्भ में जाने के पश्चात हम महान बन जाते हैं। जिस गायत्री के
गर्भ में जाने के पश्चात् हम महान बन जाते हैं, विचित्र बन जाते हैं तो वह हमारे द्वारा कौन है वह हमारे द्वारा प्रकाश है
हमें प्रकाश को पाने के लिये क्या करना पड़ेगा? वेद का जो विज्ञान है वह एक
महान है, वह मानव को एक महानता का दर्शन कराता है। वेद का
भाष्यकार भी वही होता है जो व्यवहार को जानता है, यौगिकवाद को जानता है और विज्ञान को जानता है वही वेद का भाष्य कर सकता है।
अन्यथा वेद की जो चहुमुखी विद्या है इसका जो अध्ययन करने वाला हो, वही वेद की प्रतिभा को ऊँचा बनाता रहता है। एक ही वेद
मन्त्र में तीन प्रकार की धाराएं विद्यमान हैं, बिना तीन भाव के वेद मन्त्र को जान नहीं पाते, न उसमें से मानव दर्शन को जान सकते हैं, न विज्ञान को जान सकते हैं और ज्ञान से हम शून्य हो जाते हैं।परन्तु जब
प्रत्येक वेद मन्त्र में तीन प्रकार के भावों को दृष्टिपात करोगे, तीन प्रकार की धाराओं के ऊपर विचार विनिमय होगा, तो उसमें ज्ञान, विज्ञान और मानवीय दर्शन दृष्टिपात होगा। उसमें जब तीनों दृष्टिपात करने लगोगे
तो वेद मन्त्र का आशय और ज्ञान की प्रतिभा हमारे समीप आ जाती है।
वैदिक जो भाषा है इसको देव भाषा
कहा जाता है इसको देव वाणी कहा जाता है वेद को जानने वाला उसके प्रकारों को, स्वरों को जानने वाला ब्रह्माण्ड के लोकों की वार्ता
को जान सकता है। यह जो देव भाषा है और देवभाषा का जो व्याकरण है वह ब्रह्मा का
व्याकरण कहलाता है। ओर अनहद ध्वनि होती है मस्तिष्क में जो उसका तारतम्य साधना से
बना लेता है वह ब्रह्माण्ड के किसी भी लोक की भाषा को जान लेता है।
वेद ही प्रकाश है, आनन्द है। जैसे सूर्य प्रातःकाल में प्रकाश लेकर आता
है और वह संसार को प्रकाश देता चला जाता है, ऊर्ज्वा देता है, सत्ता प्रदान कर देता है, इसी प्रकार वेद के पठन पाठन करने वालों को जान लेना चाहिए कि वेद मानव का
अनुपम प्रकाश है। वह वेद का जब गान गाता है तो उसके आन्तरिक जगत में प्रकाश आना
प्रारम्भ हो जाता है। वह प्रकाश ही मानव के अन्तःकरण को प्रकाशित कर देता है।
सूर्य इस साधारण प्राणी को ऊर्ज्वा में प्रकाश देता है, वेद रूपी प्रकाश मानव के अन्तःकरण को पवित्र बना देता है।संसार में आयु का जो
वेद है उसको विचारना है। ‘‘आयु को देने वाला हो वेद है।’’ जो मानव प्रकाश में जाता
है उस मानव को आयु दीर्घ हो जाती है आयुर्वेद किसे कहा जाता है जो आयु का देने
वाला होता है। आयु क्या होती है? ‘‘मानव का नियन्त्रण होता है जब
वह अपनी सब इन्द्रियों पर संयम कर लेता है उसके विचारों में, आचार में संयम आ जाता है तो आयु को देने वाला बन जाता
है।
वेद वाणी का मानवीय जीवन से सम्बन्ध
वेदमन्त्र का जब हम उच्चारण
करते हैं,तो जितना भी वेदमन्त्र हैं,यह देव वाणी में कहलाता हैं, इसको देव वाणी कहते हैं, देव वाणी का अभिप्राय यह है, कि कि इसे देवता उद्घोष रुप में उदघोषित करते रहे हैं। रहा
यह, कि हमारा वेदमन्त्र से क्या, जीवन का सम्बन्ध हैं? संसार में सम्बन्ध ही चेतना से
है। सम्बन्ध ही एक उग्र रुप को धारण कर लेता है। तो प्रत्येक वेदमन्त्र का मानव के
जीवन से सम्बन्ध है, जिस मन्त्र के आधार पर, हम अपने जन्म जन्मान्तरों के संस्कारों को उद्घोष करने लगते हैं। जैसे हमने
वेदमन्त्र को उच्चारण किया, वाणी में पवित्रता आ जाती हैं।
हृदयों में पवित्रता आ जाती है, आत्मा अपने लोक में प्रवेश कर
जाता है। तो हमारे जीवन का सम्बन्ध प्रत्येक मन्त्र से उसका समन्वय रहता हैं। मानव
जो भी उच्चारण कर रहा हैं, गान गाया जा रहा हैं, परन्तु यह केवल आभा में कहलाने वाला एक विज्ञान है, जिस विज्ञान को ले करके हम अपनी मानवीय दशा को महान
बनाते हैं। परन्तु प्रत्येक वेदमन्त्र हमारे जीवन का साथी बना हुआ है, उसमें विकृतियां नही होती, परन्तु अपनी आभा में गति करने वाला हैं, जिसको मन्त्र कहते हैं, मन्त्रार्थ कहते हैं। मन्त्र का
सम्बन्ध हैं मन से, मन से जो भी मानव कर्म करता हैं, वह महान और पवित्र बन जाता हैं। तो उसी का नाम एक
कर्म ध्वनि बन गई। तो यह जो जितना भी क्रियाकलाप हो रहा है, यह सब प्रभु के आङ्गन में, प्रभु की महानता में, ओत प्रोत रहने वाला हैं। परन्तु
जब हम वेदमन्त्रों की ध्वनि से, गान गाते हैं तो प्रत्येक नस
नाड़ियाँ मानो उद्घोष करने लगती हैं। जब प्रत्येक नस नाडियां एक चित्रावली बन करके
रह जाता है। वह ब्रह्म औषध कहलाती है,जिससे एक मानवीयता के अङ्कुर उत्पन्न हो जाते हैं। क्योंकि
परमपिता परमात्मा ने सीमा में बद्ध करते हुए, अभ्यस्त हो गया है। परन्तु जब यह प्रसंग आते हैं, कि हमारा जो जीवन हैं, उसका आयुर्वेद से सम्बन्ध होता
है,आयु में हमें लगाता है,परन्तु ये वेदमन्त्र भी ये कहता है बलों को धारण करने वाला, वह मेरा चैतन्य देव कहलाता हैं प्रत्येक वेदमन्त्र को जो ध्वनि से गान रुप में गाते हैं, तो उदात्त, अनुदात्त में गाते रहते हैं। हम अपने में इतने महान मन्त्र को ले करके, क्योंकि मन से इसका समन्वय रहता हैं और मन को ही सीमा
में लाना, इसी का नाम मन्त्रणा कहलाया जाता है।
तो प्रत्येक वेदमन्त्र मानव के
जीवन को महान बना देता है आज कोई भी वेदमन्त्र ले करके जब मानव अपने को ऊँचे
स्वरों में ध्वनि रुप में, धन मन्त्र कृणत्वा धनवति बना
देता है, वायु में गतियां हो रही है, धाराएं चल रही है, उन तरंगों को धारण करने वाला, महापुरूष कहलाता हैं। परन्तु मानव को अपनी आभा में अभ्यस्त रहना चाहिए उन्हीं
विचारों से मानव का कल्याण होता है।, वाहन गति कर रहा है, अन्तरिक्ष में जा रहा है, परन्तु वह मन्त्रणा प्रथम कहलाती हैं।
अजामेघ याग
वेदमन्त्र कहता है क्या, शत्रु को विजय करना है, तो अजामेध याग करो। हम अपने आन्तरिक शत्रु समाप्त करना चाहते हैं, तो बाह्य शत्रुओं का अभाव स्वतः हो जाता हैं। जैसे हम
उच्चारण कर रहे हैं, ध्वनि रुप में अपने में वह पूर्णता को दृष्टिपात होता
हैं। परन्तु वह अपनी आभा में शत्रुता को विजय करना चाहता हैं,विजय हो सकता है परोक्ष, अपरोक्ष रुप में, सत्य के द्वारा सर्वत्र कार्य हो रहा है।
तो यह कैसा अनुपम ज्ञान हैं, जिसके ऊपर हम परम्परागतों से अनुसन्धान करते आए हैं, अजामेध याग का वर्णन जहाँ आता है वहाँ वह अन्वकृत
कहलाता है। जिससे आन्तरिक शत्रु समाप्त हो जाएं,जब आन्तरिक शत्रु समाप्त होंगें तो बाह्य शत्रु भी समाप्त हो जाएंगें। तो
प्रथम अपने आन्तरिक शत्रुओं को समाप्त करना है। तो नाना रश्मियों का जन्म हो जाता
है। 820806
साम गानम्
प्रत्येक दशा में मानव को
वेदमन्त्रों का उद्गीत गाना चाहिए। जिससे तुम्हारी वाणी पवित्र हो जाए और
वायुमण्डल में वह ध्वनि प्रविष्ट हो करके अशुद्ध परमाणुओं को निगलती चली जाए, और उसका शुद्ध परमाणुओं से शुद्धिकरण हो जाए। मेरे
प्यारे परमपिता परमात्मा का यह जगत भव्यता को प्राप्त हो जाए। आज कैसा सुहावना समय
है,जिस सुन्दर समय में परमपिता परमात्मा ने हमे
वेदमन्त्रों के उच्चारण करने का सुअवसर प्रदान किया है।-पूज्यपाद गुरुदेव
सामगान
ऋग और साम उसी को कहा जाता है
जहाँ एक दूसरे का मिलान होता हो। हमारे यहाँ जैसे पृथ्वी को ऋग कहा जाता है और वायु को साम कहा है दोनों के
मिलान से ही सामगान होता है। इसी प्रकार जैसे मानव का तालु होता है और जीभ
होती है दोनों के मिलान से ही मानव के मुखारबिन्द से शब्द की रचना होती है इसी
प्रकार वहाँ भी ऋग और साम दोनों का मिलान हो करके वहाँ वायु और जल दोनों का ऋग और
साम माना है। जैसे हमारे इस पृथ्वी मण्डल पर पृथ्वी और वायु को ऋग और साम माना है
वहाँ पूरे चन्द्र मण्डल में वायु को और जल को दोनों ऋग और साम को उपाधि प्रदान की
जाती है। उस काल में वहाँ गान गाया जाता है। गान उसे कहते हैं जहाँ दोनों का मिलान
होता है,वहाँ शब्द की रचना होती है,वहीं मिलान होता है, वहीं नाना प्रकार की उत्पत्ति
का कारण बना करता है।
जब चाक्राणी गार्गी अपने शरीर
को त्यागने लगी तो उस समय वह सामगान गा रही थी और जब वे सामगान गा रही थी तब नाना, ऋष मुनि विद्यमान हैं। उनके मध्य में चाक्राणी गार्गी
विद्यमान हो करके कहती हैं, हे ऋषियो! अब मैं अपने गृह में
प्रवेश कर रही हूँ। मैं इस संसार के गृह को त्याग रही हूँ। इस क्षेत्र में आ करके
मैंने मृत्यु को विजय किया है। ऐसे ही ऋषियो! तुम भी मृत्यु त्ते विजय करने का
प्रयास करो।
सामगान से दीपावली का स्वरूप
साम गान वेत्ताओं ने सामगान को
लिया और गान गाने लगे। जब गान गाने लगे, गान गाता रहा, उद्गार चलते रहे, जब प्राण की गति को जानने लगे, जब प्राण उद्गार बन गये, उन प्राणों का अभ्यास करते करते चार चार घड़ी का
अभ्यास किया। उस अभ्यास के करने से वाणी अग्नि का स्वरूप बन गई जैसे जब अग्नि का
स्वरूप बन गई जैसे बाह्य जगत में समिधा को समिधा के घर्षण से अग्नि उत्पन होने
लगी। इसी प्रकार यह वाणी ही शब्द के घर्षण से अग्नि उत्पन्न होने लगी। जब यह
उत्पन्न होने लगी तो यह विचारा कि यह तो विशाल अग्नि है। अग्नि को जानने का प्रयास
किया और इस अग्नि को कहा दीपावली बनने लगी।
पूज्य महानन्द जीःआज मैं अपने
पूज्यपाद गुरुदेव से वाक प्रकट कर रहा हूँ कि जहाँ हमारी ये आकाशवाणी जा रही है, वहाँ सामगान का पारायण हुआ, उसकी पूर्ण अस्वाति अध्ह्वे समाप्त हुआ।


No comments:
Post a Comment