रावण भाइयों में सबसे दिव्य वैज्ञानिक कुम्भकरण थे ,
दुर्भाग्य रामलीलाओं में उन्हें सबसे निकृष्ट दिखाया जाता है
वैज्ञानिक
कुम्भकरण
महात्मा पुलस्त्य
ऋषि महाराज उनके गोत्र में,उनके
पूर्वजों में, सत्यवादी पुरुष होते रहे है। सत्य उसे कहते जो
अपनी अन्तरात्मा में समाहित रहता है और अन्तरात्मा, जिससे
प्रश्न रहता है,उन शब्दों में और क्रियात्मकता में जो
क्रियाकलाप हो रहा है,उस क्रियाकलाप की आभा में आत्मा
प्रसन्न हो रहा है। वह मानव सत्यवादी कहलाता है। और यदि उसके क्रियाकलाप से और
व्यावहारिक जीवन में, अपने से उसका अन्तरात्मा यदि दुखित हो
रहा है आन्तरिकता में, उसको धिक्कार रहा है तो वही पाप का
मूल बन करके रहता है। मुझे स्मरण है। क्यो मानव का जीवन क्रियाकलापता में रहना
चाहिए?
रावण के पिता
महात्मा पुलस्त्य
ऋषि महाराज के यहाँ वे सत्यवादी पुरुष रहे। मैं, बहुत समय हुआ, जब इन ब्रह्मचारियों
को, आभा में प्रगट करते रहते। मैं वरुण देव की चर्चा कर रहा
था, परन्तु उनके पिता, जिनका नाम
मणिचन्द्र था, मैं वरुण की चर्चा कर रहा था। क्योंकि वरुण,
पुलस्त्य ऋषि महाराज के पौत्र थे और मणिचन्द्र उनके पुत्र कहलाते
थे। तो वह मणिचन्द्र ब्रह्मचारी की चर्चाएं थी। तो शकुन्तकेतु उनकी माता थी और
मणिचन्द्र, शिक्षा अध्ययन करने के पश्चात अपने गृह में,
उनका प्रवेश हुआ। तो वह अध्ययनशील, हमारे यहाँ
एक परम्परागतों से एक वार्त्ता चली आई, कि जैसे ही विद्यालय
से ब्रह्मचारी, गृह में प्रवेश करता, तो
माता-पिता उस ब्रह्मचारी के लिए गृह में प्रवेश होने के लिए, उनका सब कर्म बना देते थे।
रावण की माता
तो महात्मा
पुलस्त्य ऋषि महाराज एक समय भ्रमण करते हुए,
वह शाण्डिल्य, गोत्रीय एक ऋषि थे, जिनका नाम ब्रद्दस्त् ऋषि महाराज था। वे त्रीत ऋषि कहलाते थे। क्योंकि वे
क्रोधी बहुत थे। परन्तु वह त्रेतकेतु ऋषि के द्वार पर, जब
पहुँचे, तो महात्मा पुलस्त्य ऋषि महाराज और त्रीतकेतु की
चर्चाएं हुई। तो जब चर्चाएं होने लगी, तो उनके आश्रम में एक
बालिका, कृतिभा सोमकेतु बालिका, उनके
आश्रम में अध्ययन कर रही थी। तो महात्मा पुलस्त्य, ने उसके
गुणों का अध्ययन किया और अध्ययन करने के पश्चात त्रीत ऋषि से कहा कि महाराज! हे
शाण्डिल्य! इस कन्या का संस्कार, मेरे गृह में, यह कन्या सुशोभित हो जाए, तो मेरा बड़ा सौभाग्य होगा।
तो ऋषि ने इस वाक् को स्वीकार कर लिया।
उन्होंने मणिचन्द्र
का नामोकरण भी श्रवण किया था, क्योंकि वह ऋषियों के आश्रमों में भ्रमण करते रहते थे। तो कन्या ने भी
नामोच्चारण, उनकी प्रतिष्ठा स्वीकार की थी। तो ऋषि ने,
कन्या से कहा- हे कन्या! यह ऋषि चाहता है कि मेरा पुत्र मणिचन्द्र
नामोच्चारण करते ही कन्या ने वह स्वीकार कर लिया।
माता का तप
तो स्वीकार करने के
पश्चात, महात्मा पुलस्त्य
ऋषि महाराज ने और त्रीत ऋषि महाराज ने, शाण्डिल्य गोत्र में
उत्पन्न होने वाली कन्या का संस्कार, पुलस्त्य गोत्र में
उसका संस्कार हुआ। संस्कार, क्योंकि हमारे यहाँ माताओं का,
कन्याओं का, बड़ा सौभाग्य रहा है। उनका जो तप
है, वह गृह को सजातीय बनाता है। माता का जो तप है, वह माता के शृंगार की रक्षा करता है। जब उनके गृह में, उसका प्रवेश हुआ, तो कन्या तपस्विनी थी, गायत्री छन्दों का पठन-पाठन किया करती थी, प्रातःकालीन
अपनी क्रियाओं से निवृत्त हो करके अपने गृह के कार्यो में, अपने
को संलग्न कराती रहती। क्योंकि वही मानव सौभाग्यशाली होता है संसार में, जो प्रातःकालीन प्रभु का चिन्तन करने वाला और गायत्री छन्दों में रमण करने
वाला हो। क्योंकि गायत्री कहते है गायन को, छन्द कहते है जो
उत्सर्ग में होता है। तो जो गायत्री से गान गाता है,अपने
प्रभु का गान गाती है वह कन्या, वह मेरी प्यारी माता
सौभाग्यशालिनी होती है।
तो हमारे यहाँ
परम्परागतों से ही, गृह
आश्रम के लिए एक क्रियाकलाप बनाया, तपस्या करने के पश्चात,
उन्होंने वेद का अध्ययन किया और वेद का अध्ययन करने के पश्चात
उन्होंने ब्रह्मयाग को रचा, उसके पश्चात देवयाग को रचा और भी
ओर भी याग रचे, परन्तु दो याग विशेष होते है। सबसे प्रथम
ब्रह्मयाग होता है।
माता का बाल्य पर प्रभाव
तो वह वह शाण्डिल्य
गोत्र की कन्या,जब
प्रातःकालीन पुलस्त्य के गोत्र में आने वाली कन्या, प्रतिष्ठित
हो गई तो,! वह प्रातःकालीन ब्रह्म का चिन्तन करती रहती थी,
इसलिए हमारे ऋषि मुनियों ने कहा है-कि मेरी पुत्रियों को वेद का
अध्ययन करना चाहिए। वेद का अध्ययन करने से उनके जीवन में ब्रह्म की आभा होनी चाहिए,
जिससे उनका जीवन महान बनता हुआ,उनके गर्भों से
उत्पन्न होने वाले, हम जैसे शिशु सब बुद्धिमान बन जाए। सब
महान बन करके रहे। तो माता का तप ही पुत्र को महान बनाता है। माता का तप ही संसार
में, माता का तप ही संसार में मिथ्या को दूरी कर देता है। और
सत्यता में ओत-प्रोत कर देता है। माता के दिए हुए विचार, बाल्यकालीन
हो, गर्भ स्थल में हो, उनको विद्यालय
में आचार्य समाप्त नहीं कर सकता। उनको आगे आने वाला समाज समाप्त नहीं कर सकता। वह
महान रहते है। वह उसी प्रकार ज्यों के त्यों बने रहते है, ऋषियों ने तप कहा है। कि
उसको, तप की मीमांसा करने वाला, वेद का ऋषि कहता है कि हे
माता! तू आयुर्वेद, क्या, तू महान बनने के लिए, वेद का अध्ययन कर। वेद कहते है प्रकाश को, तेरा जीवन
प्रकाश में रहेगा, तो गृह प्रकाशित रहेगा। गृह प्रकाशित
रहेगा तो राष्ट्र पवित्र रहेगा। और राष्ट्र पवित्र रहेगा तो उसका नामोकरण महान और
पवित्रता में परिणत हो जाएगा।
सौभाग्य से याग
तो, जिस गृह में पुत्र-वधु आती है और वह याग
करती है वह ब्रह्म का चिन्तन करने वाली, ब्रह्मयाग, देव याग नाना प्रकार के याग होते है उन याग को करने वाला मानव सौभाग्यशाली
होता है।
बालक वरुण का भविष्य
तो महात्मा
पुलस्त्य ऋषि महाराज के यहाँ, जब कन्या का प्रवेश हो गया, तो गृह स्वर्ग बन गया।
जब गृह स्वर्ग बन गया, तो कुछ समय के पश्चात शाण्डिल्य
गोत्रीय कन्या से एक सन्तान का जन्म हुआ, जिस सन्तान का नाम
यहाँ वरुण नाम नियुक्त किया गया। वरुण माता की लोरियों में आनन्दित होता रहता,
एक समय महात्मा पुलस्त्य ऋषि महाराज के यहाँ सोमभाग कृति भानु केतु
ऋषि महाराज उनके द्वार पर आये, वह अंगिरस कहलाते थे। पुत्र,
आंगन में गति कर रहा था। ऋषि ने मस्तिष्कों का अध्ययन करते हुए,
हमारे यहाँ प्रथम जो विद्यालयों की शिक्षाएं, आयुर्वेद
का जो ज्ञान है, वह बड़ा विशाल भण्डार है। मस्तिष्कों का
अध्ययन करने मात्र से, उस मानव के जीवन की,भविष्य की आभा को प्रगट करने वाले ऋषि रहे है।
अंगिरस ने आ करके, उस ब्रह्मचारी के मस्तिष्क का अध्ययन किया, पुलस्त्य वहीं विद्यमान थे, उन्होंने उनका स्वागत
किया। मणिचन्द ने भी उनका स्वागत किया। उन्होंने कहा-हे पुलस्त्य! गोत्र में जन्म
लेने वाले, तुम्हारे वंशलज में कोई राजा नहीं हुआ, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह तुम्हारा पुत्र राजा बनेगा। और महात्मा
पुलस्त्य आश्चर्य में चकित हो गये। उन्होंने कहा-कि महाराज! यह क्या उच्चारण कर
रहे हो? राष्ट्र तो निर्मम,यह राष्ट्र तो नरक का गामी होता है
उन्होंने कहा-कि यह मैं नहीं जानता। परन्तु इसके मस्तिष्क की मध्य जो रेखा है,
वह कहती है। उन्होंने एक वाक् ओर कहा कि यह बालक पवित्र तो रहेगा,
परन्तु आभा में, संशय में जीवन रहेगा। संशय का
जीवन क्या होता है? वह चरित्र की आभा में सूक्ष्म बन जाता
है।
नक्षत्र का प्रभाव
यह वाक् उच्चारण
करके अंगिरस मौन हो गये। पुलस्त्य ऋषि महाराज आश्चर्य में चकित हो गये, कि हमारे वंशलज में तो सदाचारी पुरुष
हुए है, महान पुरुष हुए है, इसके मूल
में क्या है? तो दार्शनिक-जन जो होता है,बहुत ऊंची उड़ान उड़ने
लगते है। बहुत ऊंची उड़ान उड़ते रहते है, उन्होंने उड़ान उड़ी,
कि अन्तरिक्ष में, एक स्वाति नक्षत्र होता है। और वह जो स्वाति
नक्षत्र है स्वाति नक्षत्र में एक सोम भूनि नाम की एक औषध होती है, उसको माताएं,छठे मास में ग्रहण करती है। स्वाति नक्षत्र की, जब छाया पूर्ण रूप से आती है तो उस औषध को, बुद्धिमान
आयुर्वेद के जानने वाला उस औषध को पृथ्वी से लाता है। और यदि वह उस नक्षत्र में
नहीं लाता, तो उस औषधि का दूसरा रूप बन जाता है। उस औषध का,
एक रूप यह कि स्वाति नक्षत्र की पूर्ण छाया में, उसको पान किया जाता है तो वह बुद्धिमता है और यदि दूसरे नक्षत्रों की आभा
में उसको लिया जाता है तो उसका द्वितीय स्वरूप बन जाता है, वह
उसमें बुद्धिमान रह करके, बुद्धिमान तो रहेगा, परन्तु बुद्धि में परिवर्तन आता रहेगा।
तो ऋषि ने यह
अध्ययन किया। तो उस बालक का पुलस्त्य ऋषि महाराज ने अपना अनुसन्धान करके और वह
अपने में मौन हो गये, उसने
विचार लिया कि यह सूक्ष्मता रही। उनके यहाँ, उनके वैद्यराज
थे,सोम भूनक ऋषि, वह आयुर्वेद के ऊपर अध्ययन करते थे,उन्होंने इसमें धृप्टता की, कि वह नक्षत्रों में
औषधियों का वरण नहीं किया, वह औषधि द्वितीय रूपों में प्रगट कराई। तो उसको पान करने
से दूसरा रूप बन गया।
महात्मा पुलस्त्य के तीन पौत्र
तो हम कर्मकाण्ड
में, कितने विशेष, हमारा कर्मकाण्ड कैसा हो, हम समर्पित करने वाले,
अपने जीवन को, महात्मा पुलस्त्य मुनि महाराज
के तीन सन्तानों का जन्म हुआ, महात्मा पुलस्त्य मुनि महाराज
के जब तीन पौत्र, उत्पन्न हुए, तो उनका
नामोकरण, उनका जन्मोकरण नाना प्रकार के, उनमें संस्कार देने का ऋषि ने प्रयास किया। क्योंकि मणिचन्द तो स्वतः ही
बुद्धिमान थे, वह उनमें संस्कार देते रहते थे। माता भी
संस्कार देती रहती थी।
माता के चिन्तन का बालक पर प्रभाव
जिस समय माता के
गर्भ स्थल में कुम्भकरण थे, तो
एक समय माता, एक ऋषि के दर्शन करने के लिए जा पहुँची। तो वह ऋषि, आसन पर विद्यमान हो करके, वह लोकों की उड़ान उड़ रहा
था। कि लोक क्या है? निंद्रा क्या है? यह
क्या है? तो इसके ऊपर अब, वह कन्या
उनका,वह भी वहीं जा विद्यमान हुई। तो ऋषि, उन्हें अध्ययन
कराने लगे। जैसे ऋषि कर रहा था वैसे ही वह देवी भी करने लगी, क्योंकि बुद्धिमान तो वह स्वतः थी। तो अपने बालक की, जो कि चतुष माह में, आयुर्वेद का सिद्धान्त, आयुर्वेद की आभा कहती है कि चतुष माह में, बालक के
अंग प्रत्यंग का निर्माण हो जाता है। बुद्धि के अंकुरों की उपज हो जाती है। तो जो
ऋषि का क्रियाकलाप था, उस माता के विचारों में परिणित हो गया, विज्ञान में
परिणत हो गया। तो वही जो विज्ञान का, ऋषि का दिया हुआ विचार,
वायुमण्डल का, माता के गर्भ में रहने वाला
शिशु,उसमें जब वह विचार प्रवेश कर गये।
तो, तुमने, कुम्भकरण
का जीवन दृष्टिपात किया होगा, वह कितने महान रहे है। तो उसी
माता के गर्भ से, कुम्भकरण का जन्म हुआ।
तो तीन सन्तानों का
जन्म हुआ। मेरे प्यारे महानन्द जी ने, मुझे कई काल में यह प्रगट कराया है कि आप रावण के वंश को क्यों उच्चारण कर
रहे हो, मैं यह कहा करता हूँ कि-हे पुत्रों! मैं रावण के वंश
को नहीं, मैं ऋषि मुनियों के वंशों का वर्णन करता हूँ। कि
उनमें कितनी महानता रही है और गृह आश्रमों में कितनी महानता की आवश्यकता रहती है।
माता कौशल्या का जीवन इसी प्रकार का था। परन्तु जितनी भी मेरी पुत्रियाँ रही है,
उनका जीवन आयुर्वेद से,विज्ञान से कटिबद्ध
रहता है। तब ही तो यह सन्तान और पुत्रों
को जन्म दे करके, अपने जीवन को सौभाग्यशाली बनाती है।
जीवन तब ही सौभाग्यशाली बनता है जब बुद्धिमानों का जन्म होता है, ऋषियों का जन्म होता है, विवेकी पुरुषों का जन्म
होता है। क्या इस मायावाद की नगरी वाला जो जीवन है, यह
तो घृष्टता का जीवन हैं, द्रव्यपति होना
चाहिए, परन्तु द्रव्य विवेकयुक्त होना चाहिए। द्रव्य में
विवेक होना चाहिए, यदि द्रव्य में अविवेक आ गया है, तो वह द्रव्य ही उसको निगल जाता है। उसको नारकिक बना देता है।
२०-०१-१९८२ अमृतसर
रावण भाइयों का
अध्ययन
महात्मा पुलस्त्य
मुनि महाराज के गोत्रीय तीनों पुत्र ब्रह्मा जी के यहाँ अध्ययन में लग गये। अध्ययन
करने लगे। परन्तु एक समय वे बालक, जब अध्ययन कर रहे थे। तो वरुण जब अध्ययन कर रहा था, तो
वह एक समय अध्ययन करता हुआ दसों दिशाओं की वार्त्ता प्रगट करने लगा। गुरु के चरणों
में ओत-प्रोत है। उन्होंने कहा-प्रभु! मुझे तो दस दिशाओं का ज्ञान कराईए? ब्रह्मा ने उनको दसों दिशाओं का ज्ञान कराया। सबसे प्रथम प्राचीदिक् होता
है,प्राचीदिक् का देवता अग्नि कहलाया गया है। अग्नि ऊर्ध्वा
कहलाता है। हे ब्रह्मचारी! अग्नि ऊर्ध्वा है,यह मानव को
ऊर्ध्वा में ले जाती है और प्रकाशमयी है। इसी अग्नि का सम्बन्ध काष्ठों से होता
है। इसी अग्नि का सम्बन्ध, नेत्रों से होता है। इसी अग्नि का
सम्बन्ध बाह्य जगत में, द्यौ और सूर्य से होता है।
इस अग्नि का चयन
कराते हुए, ऋषि ने इसका
ज्ञान कराया। दक्षिणीदिक् का देवता, वरुण कहलाता है।
उन्होंने कहा-हे ब्रह्मचारी! यह दक्षिण है, यह इसका देवता
वरुण कहलाता है। यह दक्षिण दिशा में जितना विद्युत का भण्डार है, वह रहता है। मेधो की जो उत्पतियाँ और, उसमें जो आभा
रहती है, उसका समन्वय द्यौ और चन्द्रमा से रहता है।
ब्रह्मचारी को यह ज्ञान हुआ। अब ऋषि उसकी भूमिका बना रहा है। उन्होंने हमारे यहाँ
तृतीय प्रतीचीदिक् कहलाती है जहाँ अन्न का भण्डार होता है। वह वर्षा से, इन्द्र देवता प्रगट होते है। और इन्द्र देवता वह देवों की आभाएँ, शचि की सहायता से, यह वृष्टि जब प्रारम्भ होती है तो
वृत्तियाँ उत्पन्न होती है वृष्टियाँ होने लगती है। तो नाना रूपों में वनस्पतियों
का जन्म हो जाता है। वह जो वनस्पतियों का जन्म और अन्नाद की उत्पति होती है,
जिससे मानव का, इस संसार का जन जीवन चलता है।
गतिशील होता रहता है। इसी प्रकार उदीची का देवता सोम कहलाया जाता है, सोम आता है, जो सोम को पान करने वाला है, वह योगी बन जाता है।
तो इन विद्यालय के
ब्रह्मचारियों ने विद्या अध्ययन कर ली, विद्या अध्ययन के पश्चात ब्रह्मा जी ने महात्मा पुलस्त्य जी को निमन्त्रित
किया और उन ब्रह्मचारियों के पिता मणिचन्द्र को भी निमन्त्रित किया और उनके
निमन्त्रण के अनुसार, वह विद्यालय में आये, तो विद्या में ब्रह्मचारी पारायण हो गये, पुलस्त्य
ऋषि महाराज बड़े प्रसन्न हुए,आचार्य के चरणों की वन्दना की,
और कहा-कि धन्य है प्रभु! आप ने हमारे वंश को पुनः से महान बनाया
है। परन्तु ब्रह्मा जी ने महात्मा पुलस्त्य से एक वाक् कहा-कि समय की प्रबलता इतनी
विशेषकर है, यह जो तुम्हारा जेठी पुत्र है, यह पुत्र मन का विशुद्ध नहीं है। यह मन का विशुद्ध नहीं बनेगा जीवन में।
उन्होंने कहा भगवन!
यह क्यों? उन्होंने कहा-क्यों,
यह ब्रह्मचारी ऐसा है? इसके ऊपर तुम पुनः
विचार विनिमय करना। मैंने तो तुम्हें संकेत दे दिया है, इसके
विचार राजसी है, और राजसी विचारों में कोई महानता नहीं है।
परन्तु मेरे यहाँ तो विद्या दी जाती है, विद्याओं का प्रसार
किया जाता है। अब विद्या को कौन ब्रह्मचारी, किस प्रकार उसका
अध्ययन करता है, यह विषय आचार्यों का नहीं होता, यह विषय उनका होता है, जो उसको अध्ययन करता है। किस
दृष्टि से अध्ययन करता है। एक वेद के, वेद का पठन-पाठन करने
वाला किस दिशा में, अपने को ले जाता है। इस दिशा का आचार्य
वर्णन नहीं कर सकता। वेद के पठन-पाठन करने वाला भी, हृासता
को प्राप्त हो सकता है। परन्तु बहुत सूक्ष्म अध्ययन करने वाला भी महान बन सकता है।
यह वाक् उन्होंने
प्रगट किया और उन्होंने कहा इसी के आधार पर दोनों ब्रह्मचारियों का जीवन महान
बनेगा। परन्तु यह ब्रह्मचारी वैज्ञानिक बन करके, अपने को महान बनाता रहेगा। उनके गुणों का वर्णन किया और
उन्हें यह कहा-जाओ! ब्रह्मचारियों को तुम यहाँ से ले जाओ।
ब्रह्मा जी का दीक्षान्त उपदेश
दीक्षान्त समारोह
हुआ, ब्रह्मचारी पंक्तियाँ
लगा करके विद्यमान हो गएं और उस समय ब्रह्मा जी ने अपना दीक्षान्त एक उपदेश होता
है। वे दीक्षान्त उपदेश देने लगे, क्योंकि प्रत्येक मानव
अपने में, उऋण होना चाहता है। ब्रह्मा जी अपना उपदेश दे करके,
उऋण होना चाहते थे। उन्होंने उऋण होने के लिए, ब्रह्मचारियों की पंक्ति, विद्यमान है, और उन्होंने अपना दीक्षान्त उपदेश प्रारम्भ किया। हे ब्रह्मचारियो! हमारे
इस विद्यालय में, परम्परागतों से ही,
ब्रह्मचारियों को, शिक्षा और दीक्षा दी जाती है। दीक्षा का
जो माध्यम है वह, वेद की तरंगे हैं, जो
मानव प्रातःकालीन संध्या के गर्भ में जाता है जब रात्रि और दिवस दोनों का मिलान
होता है, इसी प्रकार तरंगों का और वेद की विद्या इन दोनों का
समन्वय होता हुआ, ब्रह्मचारियों! तुम्हारे हृदय में वह
प्रवेश करता है। उससे तुम्हारा ब्रह्मचर्यतव ऊर्ध्वा में गति करता है। क्योंकि
बिना साधना के ब्रह्मचर्य की आभा को कोई मानव एकत्रित नहीं कर सकता। क्योंकि
ब्रह्मचर्य को वहीं ऊंचा बना सकता है जो साधक होता है, जो
प्राण की गति के ऊपर, अपने को उसमें परिणत कर देता है,
जैसे हे ब्रह्मचारियो! मैंने दिशाओं की आभा और उसका ज्ञान विज्ञान
तुम्हें प्रगट कराया जैसे एक एक दिशा का देवता है, और वह
देवता भी एक सूत्र का देवता है। वह भी सूत्र में पिरोएं हुए है। जैसे तुम इस
देवताओं के सूत्र में, जैसे तुम्हारा जीवन देवताओं से पिरोया
हुआ है। एक ही देवता का भी कोई सूत्र है।
जीवन का दिशाओं से सम्बन्ध
दीक्षान्त उपदेश
देते हुए उन्होंने कहा कि पूर्व दिशा का देवता अग्नि है,दक्षिण दिशा का देवता इन्द्र है, और पश्चिम दिशा का देवता वरुण है और उत्तरायण का देवता सोम है और ध्रुवा
का देवता विष्णु है और ऊर्ध्वा का देवता बृहस्पति है। ऐसे ही ईशान कोण का देवता
सूर्य है, और दक्षिणाय का देवता अदिति है। इसी प्रकार पश्चिम
दिशा की कोण का देवता मेध है और उदीची का, सोम का, देवता ज्ञान है और यह दस दिशा कहलाई जाती है। परन्तु यह जो हमारा मानवीय
जीवन है, इससे इन दिशाओं का बहुत विशेष घनिष्ट सम्बन्ध रहता
है क्योंकि जब हम पूर्व में अपने जीवन को ले जाते है तो हम प्रकाश में होते हैं।
दक्षिणाय में ले जाते है तो अन्धकार से प्रकाश में ले जाते है,तो कुबेर बनते है,
और जब उत्तरायण में जाते है तो सोम, ज्ञान,
विवेकी बन जाते है। इसी प्रकार ध्रुवा में जाते है तो खनिज के
स्वामी बन करके, हम विष्णु को दृष्टिपात करते है। ऊर्ध्वा
में जाते है तो बृहस्पति को दृष्टिपात करते है। इसलिए जब मानव इस विद्या को जान
लेता है,तो पाप कर्म करने का अधिकार उसे मिलता ही नहीं। क्योंकि जहाँ उसका मन जाता
है वहीं देवता विद्यमान होता है। परन्तु हे ब्रह्मचारियों! इस विद्या का भी कोई,
दस देवता है, दस दिशाएं है इनका भी कोई सूत्र
है। जैसे तुम्हारा जीवन इनमें पिरोया हुआ है, ऐसे ही यह भी
किसी में पिरोई हुई है। जैसे इन देवताओं का, एक शरीर है,
ऐसे ही यह भी किसी के परिणाम है।
ब्रह्मा ने कहा- यह
जो तुम्हे दृष्टिपात आ रहे है देवता, इन दिशाओं का कोई सूत्र है और जो सूत्र है वही ब्रह्म है। यह चक्र चल रहा
है। प्राण ही सूत्र है। एक-एक परमाणु में, प्राण परिणत हो
रहा है। यहाँ प्राण एक सूत्र रूप में स्वीकार किया। द्वितीय उन्होंने एक अध्याय के
पश्चात दूसरा विषय उन्होंने प्रारम्भ किया हे ब्रह्मचारियों! जैसे कर्मकाण्ड की,
नाना प्रकार के यागों की चर्चा आती है। इनका भी कोई सूत्र है। जैसे
यह याग किसी का शरीर है, ऐसे ही जैसे याग हमारा शरीर है,
और जिसका याग शरीर बन रहा है जो भी किसी का, शरीर
है वह भी किसी का आयतन माना गया है। परन्तु जैसे यह ब्रह्माण्ड, इस संसार का है, इसी प्रकार ब्रह्माण्ड भी किसी का
आयतन वाला, वह ब्रह्म कहलाता है। वे परमपिता परमात्मा कहलाता
है। उसका वही सूत्र बन करके संसार को अपने में पिरो रहा है।
द्वितीय उन्होंने
कर्मकाण्ड की आभा को परिणत किया। जब तृतीय विषय उन्होंने प्रारम्भ किया तो
उन्होंने कहा-हे ब्रह्मचारी! यह जो तुम्हें विज्ञानमय संसार दृष्टिपात आ रहा है,नाना निहारिकाओं वाला ब्रह्माण्ड है
एक-एक निहारिकाओं के लोकों की तुम गणना करने लगोगे,तो
तुम्हारा जीवन ही व्यतीत हो जाएगा और अन्त में तुम मौन हो जाओगे। क्योंकि तुम्हें
जहाँ मैं यह उपदेश देता हूँ, विद्यालयों में, तुमने यह सब दृष्टिपात किया, इन कक्षों में जहाँ
उपदेश शाला है, वहाँ विज्ञानशाला भी है। जहाँ विज्ञानशाला है,
वहाँ नाना प्रकार के यन्त्र विद्यमान है। और वह यन्त्र उन्हें लोकों
की आभायें हमें दृष्टिपात आती है जब सूर्य कहाँ-कहाँ, क्या-क्या
करता है उसकी छाया, इन वैज्ञानिक यन्त्रों में आती है। लोक
लोकान्तर निहारिका है, जितनी निहारिकाओं के चित्र, यन्त्र में आते है।
विशाल यन्त्रशाला
तुम्हें प्रतीत है
यह यन्त्र कहाँ से लाए गये? महाराजा
सोमकेतु दद्दड मुनि महाराज ने, अपनी विज्ञानशाला में,
वैज्ञानिको को अपनी आभा प्रकट करके उन्होंने यन्त्रों को जाना और
एक-एक यन्त्र में दस-दस निहारिकाओं का दिग्दर्शन होता है और एक निहारिका जिसे हम
एक आकाश गंगा कहते है, उस एक आकाश गंगा के मानो पृथ्वियों का
जब गणित करने लगे, तो पृथ्वियाँ अनगणित हो गई। एक-एक
निहारिका में इतनी पृथ्वियाँ है, एक-एक निहारिका में गणना
नहीं कर सकते। सूर्यों की, बृहस्पति की, इसी प्रकार ध्रुव मण्डल है।
इसी प्रकार एक समय
महाराजा सोमकेतु ने गणना की, तो उन्होंने जब गणना करते-करते एक ध्रुव की गणना करने लगे, ध्रुव मण्डल की, तो एक निहारिका में चार खरब के लगभग
उन्होंने ध्रुवों की गणना की और अन्त में वे मौन हो गये। तो इसमें चार खरब विशेष
निहारिका में ध्रुव मण्डल जैसे मण्डल है जिनमें लगभग सहस्रों सूर्य समाहित हो जाते
है ऐसा मण्डल है। तो ऐसी निहारिका, सोमकेतु मुनि की यन्त्र
शालाओं में दस निहारिकाओं के चित्र उन्हें दृष्टिपात आते थे। तो हम, इन निहारिकाओं के सम्बन्ध में या इन लोकों के सम्बन्ध में बहुत विचार करने
से प्रतीत होता है कि अनन्त वाला, यह ब्रह्माण्ड है।
ब्रह्मचारी
तो ब्रह्मा जी ने
कहा कि हे ब्रह्मचारियों! यह दीक्षान्त भाषण इसलिए दे रहा हूँ, तुम्हें, क्योंकि
तुमने इस विद्या को अध्ययन किया है, इस विद्यालय में,
इस विद्या को तुम सुरक्षित और विद्या का सदुपयोग करो और ब्रह्मचर्य
में रह करके, अपने जीवन को व्यतीत करो। ब्रह्मचर्य की
बहुत-सी मीमांसा ऋषि-मुनियों ने की है। परन्तु ब्रह्मचर्य की एक ही मीमांसा है,
क्या अपने श्वास को सूत्र में पिरोने का नाम ब्रह्मचारी है। किस
सूत्र में, अपने श्वास में पिरोने का नाम एक, ब्रह्मचर्यवत कहलाता है। ऐसा क्यों कहा ऋषियों ने? यन्त्रों
में यह दृष्टिपात हुआ है। अब यह वेद से भी सिद्ध होता है और यह वैज्ञानिक यन्त्रों
से भी सिद्ध हुआ ऋषि-मुनियों को, कि मानव का यह जो श्वास गति
करता है, इस श्वास के साथ में अन्तरिक्ष में एक चित्र बनता
है। एक-एक श्वास के साथ में मानव का जो श्वास है, उस मानव का,
उतने आकार का एक चित्र बन करके अन्तरिक्ष में चला जाता है।- -२२-०१-१९८२ अमृतसर
कुम्भकरण का
बाल्यकाल का नाम अश्विनीकेतु था। किन्तु महर्षि भारद्वाज ने उसका नामकरण कुम्भकरण
इसलिये कर दिया, क्योंकि वह
बलवान था,बलिष्ठ था,विशाल हृदय का था।
क्योंकि जैसे कुम्भ का जल शीतल होता है वैसा ही शीतल सौम्य स्वभाव का कुम्भकरण था।
उसका मस्तिष्क इतना विशाल था जैसे कुम्भ आकार होता है। उनमें विशेषता थी कि वह
निद्रा को बहुत सूक्ष्म पान करते थे, क्योंकि वह सदैव
अनुसंधान मे लगे रहते थे।
याज्ञिक कुम्भकरण प्रातःकाल यज्ञ करते, यज्ञ में जब स्वाहा करते थे,तो वह २८४ प्रकार की औषधियों को एकत्रित करके
सामग्री बनाते थे। और, वह जो साकल्य था,वनस्पतियाँ थी,किसी में अग्नि प्रधान किसी में वायु
प्रधान व किसी में जल प्रधान होता था,उनका साकल्य बना करके
आहुतियां देते थें। उनके यहाँ नौ कोण वाली यज्ञशाला थी,उस नौ कोणो वाली यज्ञशाला
में जब सुगन्धित सामग्री प्रदान की जाती थी,तो उसमे सुगन्धि उत्पन्न होती थी। उन
सुगन्धियों को अपने यन्त्रों में एकत्र कर लेते थे और फिर उन परमाणुओं के द्वारा
मंगल की यात्रा करते थे। एक समय जब उन्होने उड़ान उड़नी प्रारम्भ की, तो ऐसा कहा
जाता है कि दो दिवस और दो रात्रियों में वह मंगल मे पंहुच गये थे। ( ११ मार्च, १९७२, ग्राम
माछरा )
क्रोध पर अनुसन्धान
राजा रावण के काल में विज्ञान बहुत प्रियतम में मे
था। कुम्भकरण, अश्विनी कुमार और सुधन्वा एक समय नगरी में
कहीं भ्रमण कर रहे थे,तो रात्रि समय मे एक पत्नी,अपने पति से
क्रोध कर रही थी, वह अत्यन्त क्रोध कर रही थी। जब क्रोध करते
करते वह पृथ्वी पर ओत-प्रोत हो गयी तो मुनिवरो! उस माता में जितना विष बलवती हुआ,उसे उन्होने यन्त्रो मे उसके क्रोध को परिणित कर लिया। ऐसा कहा जाता है कि
उस माता के गर्भ स्थल में षष्ट मास का गर्भ विद्यमान था। जब अश्विनी कुमारों ने
यन्त्र से दृष्टिपात किया और वहाँ के परमाणु को यन्त्रो में ले करके उन परमाणुओ को
विभक्त किया, विभक्त करने से ऐसा उन्होने निर्णय दिया कि यह
जो षष्ट माह का माता के गर्भ मे बाल्य है, इस बालक की छटे
माह मे बाह्य जगत मे आ करके मृत्यु हो जायेगी। राजा के विघाता कुम्भकरण जो महर्षि
भारद्वाज मुनि के यहाँ अनुसन्धान करते थे,वे अज्ञातवास मे रह
करके अनुसन्धान करते रहते थे। उन्होने और अश्विनी कुमारो ने वैद्यराज की दृष्टि से
यह निर्णय दिया था। ( २० फरवरी, १९८०, बरनावा
)
निंद्रा पर अनुसन्धान
महर्षि भारद्वाज मुनि के आश्रम मे देखो पुलत्स्य ऋषि
महाराज के जो पौत्र थे। वे मंगल की यात्रा करने को तत्पर रहते थे। उनका विचार
अनुसन्धान प्रायः चलता रहता था। एक समय महाराजा कुम्भकरण ने यह कहा कि भगवन! मै यह
जानना चाहता हूँ कि संसार मे निद्रा क्या वस्तु है उस समय भारद्वाज मुनि ने कहा यह
जो निद्रा है जिसको हम सुषुप्ति कहते है। यह सुषुप्ति क्या है? मन, बुद्धि,चित और अहंकार एक
स्थान मे आ जाने का नाम ही निद्रा कहलाई जाती है उसको हमारे यहाँ सुषुप्ति कहते
है। मन को जो व्यापार है मन की जो रचना है जो संसार मे दृष्टा बना हुआ है उसके
शान्त होने की अवस्था का नाम निद्रा है। परन्तु प्रकृति का जो जागरूक अवस्था का
व्यापार है वह जब समाप्त हो जाता है उसको निद्रा कहते है सुषुप्ति कहा जाता है। (
११ मार्च, १९६२, माछरा मेरठ )
राजा रावण के विधाता कुम्भकरण बड़े वैज्ञानिक थे। वह
निद्रजीत कहलाते थे। मेरे पुत्र महानन्द जी ने मुझे कहा है कि आधुनिक जगत ऐसा
स्वीकार करता हे कि वह छः माह तक निद्रा मे रहते थे। परन्तु बेटा! ऐसा नही वह छः
माह तक निद्रा का पान नहीं करते थे। वह वर्षो तक निद्रा का पान नहीं करते थे।
निद्रा का अभिप्रायः आलस्य कहलाता है,
निद्रा का अभिप्रायः अज्ञान कहलाता है। परन्तु वह सूक्ष्म सा
मन को विश्राम देते थे। मन, बुद्धि,चित्त,अहंकार को जब वह विश्राम देते थे, तो मुनिवरो! वे
अर्न्तध्यान हो करके बाह्यजगत मे से अपने को समेट करके आन्तरिक जगत मे ले जाते थे,
जिससे उन्हे आत्मिक शक्ति प्राप्त हो जाती थी। योग मे निद्रा नही
होती। योग तो परमात्मा का मिलान होता है। इसी प्रकार प्रकृति से जो मिलान करता है, परमाणुओ को जो संगठन करता है, परमाणुओ को एक-दूसरे मे पिरो
देता है, वह निद्रा
को प्राप्त नही होता। ( २४ अप्रैल,
१९७७, अमृतसर )
छः मास सोना व छः मास जागने का रहस्य
हमारे यहाँ ऐसा कहा जाता हे जो मेरे प्यारे महानन्द
जी ने कई काल मे वर्णन कराया कि आधुनिक काल मे उनके प्रति एक प्रचलित वार्ता है कि
कुम्भकरण छः माह तक निद्रा मे तल्लीन हो जाते थे और छः माह वह जागरूक रहते थे। ऐसा
कहा जाता है, परन्तु
मुझे ऐसा दृष्टिपात कराया गया था कि महाराजा कुम्भकरण पर्वतो पर अनुसन्धान शाला मे
छः मास के लिये चले जाते थे। छः मास मे वह अपनी रात्रि के रूपो मे अपने को स्वीकार
करते थे। मैं राष्ट्र मे नहीं हूँ। संसार मे नहीं हूँ मेरा कर्तव्य है कि अपनी
अनुसन्धानशाला मे विराजामन रहूँ! ठतना विज्ञान उनके द्वारा था, मेघनाथ को भी उन्होने शिक्षा प्रदान की थी। कुम्भकरण जैसा वैज्ञानिक, जिसका छः मास तक अभ्यास था,वह संसार की वस्तुओ मे लोलुप नहीं होते थे। अहा! ऐसा उनका जीवन रहता था।
राष्ट्र मे आते तो रावण की विज्ञानशालाओं मे उदनके वैज्ञानिको को शिक्षा देते। इस
प्रकार उनका जीन छः मास के लिये लुप्त रहता था। छः मास के लिये उनका जीवन संसार मे, राष्ट्र मे होता था।
राष्ट्रीयकरण पर विचार-विनिमय होता रहता था।
इस प्रकार का विज्ञान हमारे यहाँ प्रायः रहा है और आज
यह वैज्ञानिको को और आत्मवेताओ दोनो को एक स्वरूप बनाना चाहिये। जैसे कोई
ब्रह्मवेता है, आज
किसी ऋचा को जानना है, दर्शनो मे ऋचा का वर्णन आता है,
ऋचा का विचारक जो पुरूष होता है, एकान्त स्थान मे चला जाता है, भयंकर बनो मे चला जाता है अपने
मे ऋचा को अर्पित कर देता है। समर्पित कर देता है। वह ऋचा को जानने मे एक-एक ऋषि
को, बेटा! लगभग एक सौ और सहस्त्रो वर्ष व्यतीत हो गये है।
अहा! वह अपने को यही नहीं जान पाये कि-मै जगत मे हूँ,संसार
मे हूँ कहाँ हूँ? वह अपने को यह अनुभव कर लेते है कि-मै तो
चेतना मे हूँ। मेरी चेतना ही भिन्न है। इसी प्रकार जो वैज्ञानिक होते है वे एक-एक
वस्तु पर, एक एक परमाणु पर उन परमाणुओ मे जो धाराए होती है।
उन पर अनुसन्धान किया करते है। अहा! बेटा मुझे व समय और काल जब स्मरण आता है,
मै कहा करता हूँ कि वास्तव मे वह समाज, वह काल, किस प्रकार का था? मुनिवरो! देखो वह काल मुझे स्मरण है, वहाँ एक एक वैज्ञानिक कैसे छः
मास तक लुप्त हो जाता था और उस पर अनुसन्धान करता हुआ नाना प्रकार के परमाणु,
अस्त्रो का निर्माण करने वाला बनता था। इस प्रकार की धारा अनकी
प्रायः रही है। (०२ अगस्त, १९७०, जोर
बाग, नयी दिल्ली)
सात्विक खानपान
भारद्वाज मुनि महाराज के द्वारा कुम्भकरण बारह वर्षो
तक यौगिक क्रियाओ का अध्ययन करते रहे थे। मुझे स्मरण है वह इतने अहिंसा परमोधर्मी
थे कि वह पुष्पो का व पत्रो का पान करते थे। एक समय महर्षि भारद्वाज मुनि महाराज
ने उन्हे जाल,पीपल,वट, वृक्ष आदि के पांचांग का पान कराया था। उसके पश्चात बारह वर्ष। तक उन्हे
योग की विद्याओ, दर्शनो
का अध्ययन और चन्द्रमा के यातायात का वर्णन कराया था। (२० फरवरी १९८०,बरनावा)
भारद्वाज के विशेष शिष्य
राजा रावण के विधाता विशेष वैज्ञानिक थे। भरद्वाज
मुनि उनके गुरू कहलाते थे। वह एक समय अपने गुरु के चरणो को छू करके यह उच्चारण
करने लगे कि-महाराज! मै अन्तरिक्ष मे प्रवेश करना चाहता हूँ, अन्तरिक्ष के विज्ञान मे रमण करना चाहता हूँ। भारद्वाज मुनि ने उन्हे कुछ
युक्तियां प्रकट कीं और महर्षि भारद्वाज के कथनानुसार राजा रावण के विधाता
कुम्भकरण एकांत हिमालय की कन्दाराओ मे विद्यमान हो करके छः मास तक निद्रा का पान
नहीं करते थें। वे ऐसे ही जागते रहते थे, क्योंकि वे व्रती
थे, वह आग्नेय अन्तरिक्ष के ऊपर विचार-विनिमय कर रहे थे,
अन्तरिक्ष के परमाणुओ मे अग्नि की पुट लगा रहे थे। वायु के परमाणुओ
मे अग्नि की पुअ लगा कर, एक यन्त्र उन्होने अन्तरिक्ष मे
त्यागा था। डेढ़ करोड़ वर्ष की आयु वाला वह यन्त्र है, उस यन्त्र की यह विशेषता रही और
वह आज भी गति कर रहा है, जिस प्रकार एक लोक दूसरे लोक की परिक्रमा कर रहा है, इसी प्रकार आकाश मे वह यन्त्र भी गति कर रहा है। कुम्भकरण
ने हिमालय की कन्दराओ मे विद्यमान हो करके लगभग बारह वर्ष तक अनुसन्धान किया। बारह
वर्षो तक अनुसंधान करके उन्होने कुछ अग्नि के परमाणुओ को ले करके, कुछ जल के परमाणु ले करके,
कुछ पृथ्वी के पार्थिव कण को ले करके और विशेष वायु के
परमाणु ले करके उन्होने एक यन्त्र का निर्माण किया था, जो
पूर्व प्रणाली मे व्रनतकेतु ऋषि हुए थें, उनका उस यन्त्र मे
चित्र आने लगा। उस चित्रकेतु यन्त्र मे अंतरिक्ष से चित्र आने लगे। वह जिस प्रकार
अपने शिष्यो को उपदेश देते थे, उसको कम्ुभकरण अपने यन्त्रो
मे दृष्टिपात कर रहे थे।
राजा रावण के विघाता कुम्भकरण भारद्वाज मुनि की विज्ञानशला
से नाना यन्त्रो को पान करते हुए अपनी अस्सीवी प्रणाली के जो ऋषि थे। उस समय के
चित्रो का उसी प्रकार का आकार बना हुआ है। (२४ अप्रैल, १९७७, अमृतसर)
विद्यार्थी और वैज्ञानिक-शिक्षक
कुम्भकरण भारद्वाज मुनि के यहाँ अध्ययन करते रहे थे
और उन्होने बारह-बारह वर्ष के अनुष्ठान वहां किये। वे गऊंओ के दुग्ध का आहार करते
थे, और गायत्री छन्दो मे अपने को ले गये। वे छः माह भारद्वाज
के विद्यालय मे विज्ञान की शिक्षा लेकर छः माह तक अज्ञातवास लेकर हिमालय की
कन्दराओ मे अपनी विज्ञानशाला मे अस्त्र-शस्त्रो का निर्माण किया करते थे और वापस
आकर छः माह लंका के विश्वविद्यालयो मे ब्रह्मचारियो को विज्ञान की शिक्षा देते थे।
जिनका जीवन इस प्रकार का आदर्शवादी हो उनके जीपन को, अपने पूर्वजो के जीवन को, इस समाज ने रावण ने अपनी
स्वार्थपरता से भ्रष्ट कर दिया। (१४ मार्च,१९८६, बरनावा)
भूवैज्ञानिक
भारद्वाज मुनि के आश्रम मे नाना प्रकार के यन्त्रो का
निर्माण होता रहा है और पृथ्वी के राजा रावण का जितना वंशज था, वह भारद्वाज मुनि के शिक्षालयो मे अध्ययन करता रहा और विज्ञान की शिराओ मे
महाराजा कुम्भकरण तो उस समय पारायण थे ही। जब वह डड़ान उड़ते रहते थ,े तो उन्होने पृथ्वी-अणु-अन्वेषण एक यन्त्र का निर्माण किया था। जो पृथ्वी
के गर्भ मे जितनी-जितनी दूरी तक को जो खनिज था उसका चित्र उस यन्त्र मे चित्रण
होता रहा है। कितनी स्वर्ण कितनी दूरी पर है, कौन सा खनिज है कितनी दूरी पर?
इसको वह ज्ञानी जन अनुसन्धान करते रहे है। (१४ फरवरी, १९८२, मोदीनगर)
सूर्य-विज्ञान के ज्ञाता
महाराजा कुम्भकरण ने भारद्वाज मुनि से कहा कि-प्रभु!
सूर्य किरणो को हम यन्त्रो मे कैसे ला सकते है। मै महर्षि भारद्वाज मुनि के यहाँ
इस प्रकार की विज्ञानशालाए थी। कि जिन विज्ञानशालाओ मे सूर्य किरणो का निरोध किया
जाता था। वे किरणो जल को पृथ्वी के गर्भ मे शक्तिशाली बना करके उसके रूप का
परिवर्तन कर रहीं थी। और राष्ट्र के वैज्ञानिक जनों ने पृथ्वी के गर्भ से इस जल को
ले करके उसका शोधन करके उसको कार्य-रूप दे दिया। महर्षि भारद्वाज के यहाँ एक ऐसी
विज्ञानशाला थी, जहाँ सूर्य की किरणो को यन्त्रो मे लिया
जाता था और सूर्य की किरणो से वाहन गति करते थे। राजा रावण के यहाँ इस प्रकार के
वाहन थे जो सूर्य की किरणो से गति करते थे, जिनमे कोई मंगल
की परिक्रमा कर रहा है, कोई चन्द्रमा की परिक्रमा कर रहा है, कोई शनि की परिक्रमा कर रहा हैं
सूर्य की किरणो से यन्त्रो मे गति रहती थी। (०२ मार्च, १९८२, बरनावा)
अन्तरिक्ष वैज्ञानिक
प्रायः ऐसा
मुझे स्मरण आता रहता है कि रावण के विघाता कुम्भकरण, ब्रह्मचारी सुकेता व कवन्धि तीनो
ने महर्षि भारद्वाज की निर्माणशाला मे एक यन्त्र का निर्माण किया था और वह यन्त्र
उन्होने चन्द्रमा और पृथ्वी के मध्य मे स्थिर किया। वह अपने यन्त्र से उड़ान उड़ कर
उस मध्य स्थित अनुसंधानशाला मे जाते और दोनो मण्डलो का परीक्षण करते रहते थे। कहने
का आश्य क्या है कि हमारे वहां ऐसी-ऐसी अनुसंधानशालाए थी।
कुम्भकरण का विज्ञान इतना नितान्त था कि एक समय
भारद्वाज मुनि महाराज को यहाँ ब्रह्मचारी सुकेता और महर्षि पनपेतु मुनि महाराज की
कन्या शबरी और कुम्भकरण, इन तीनो ने एक यन्त्र मे विद्यमान हो करके महाराज कुम्भकरण बहतर लोको का
भ्रमण किया करते थे। मुझे स्मरण है कि वह जब पृथ्वी से उड़ान उड़ते तो चन्द्रमा मे
जाते, चन्द्रमा से
उड़ान उड़ी तो मंगल मे चले गये, मंगल से उड़ान उड़ी तो बुद्ध मे
चले गये और बुद्ध से उड़ान उड़ी तो बुध मे चले गये और बुध से उड़ान उड़ी तो शुक्र मे
चले गये।
स्वर्ण मे सुगन्ध एवं प्राण-विद्या पर विचार
महर्षि कुक्कुट मुनि और प्राणका सम्वाद चल रहाथा उनकी
विचार धराएं प्रारम्भ थी। तभी राजा रावण के विधाता कुम्भकरण भी उनके समीप आ
पंहुचे। उनके चरणो को स्पर्श करके,
वह आसन पर विद्यमान हो गये। कुम्भकरण ने कहा, भगवन! लंका मे आपका पर्दापण किस समय हुआ? उन्होने
कहा-कई दिवस हो गये जब मैने भयंकर वनो मे से इस लंका मे प्रवेश किया है। मै यह
दृष्टिपात कर रहा हूँ। कि तुम्हारा जो लंका का चलन है, लंका के वायुमण्डल की जो धाराएं
है वह मेरे अन्तःकरण को छूती रहती है और उन्हे स्पर्श करता हुआ उन्हे विचार विनिमय
करता रहता हूँ। कि लंका का वायु मण्डल अशुद्ध हो गया है। राजा रावण के विघाता
कुम्भकरण विद्यालयो मे ब्रह्मचारियों को विज्ञान की शिक्षा देते थे। उनकी विज्ञान
की चर्चाएं चलती रहीं। कुम्भकरण जी बोले,
प्रभु! मै हिमालय की कन्दराओ मे विद्यमान था। वहा। मैने कुछ
वैज्ञानिक तत्वो से ऐसा दृष्टिपात किया है कि सूर्य से कोई किरण आती है वह धातु और
रसो का पिपाद कनाती है। मेरे मन मे इच्छा है कि यह जो स्वर्ण धातु है यह धातुओ मे
सर्वश्रेष्ठ मानी गयी है। मै इसमे सुगन्धि लाना चाहता हूँ। प्रभु! क्या इसमे सुगनघ
आ सकती है अथवा नहीं, इस पर आपके विचार जानना चाहता हूँ।
जब यह वाक्य महर्षि कुक्कुट मुनि ने श्रवण किया तो वह
बोले, हे ब्रह्मणे
कृताम, हे वैज्ञानिक
कुम्भकरण! तुम इसमे सुगन्ध लाना चाहते हो? सुगन्ध का
अभिप्रायः जानते हो कि सुगन्ध किसे कहते है? हमारी दृष्टि मे
सुगन्ध, सौन्दर्य को
कहते है। सौन्दर्य उसे कहते है, जिसके जीवन मे एक रसता रहे,
एक रस रहे, उस धातु के जीवन मे एक सुगन्धि
सदैव उत्पन्न होती रहती है। संसार की कोई धातु ऐसी नहीं है, जिसमे सुगन्धि का प्रादुर्भाव न
होता हो। एक विशेष प्रकार की गन्ध उनमे आती रहती है। विशेष प्रकार की एक कृतिभा
आती है, जिसका उस
धातु के जीवन से समन्वय रहता है। इसलिये आज तुम स्वर्ण मे सुगन्धि लाने के लिये
इच्छा न प्रकट करो, क्योंकि
स्वर्ण मे सुगन्धि तो स्वतः ही होती है। उसका जैसा प्राकृतिक स्वभाव होता है, वह उसी मे रह करके उसी प्रकार की
सुगन्धि आती रहती है। उसमे सुगन्धि तुम ला नहीं सकोगे। कोई भी वैज्ञानिक सृष्टि के
प्रारम्भ से अब तक नहीं हुआ जो इसमे सुगन्धि ला सके। तुम्हारा एक विचार बना है।
परन्तु यदि तुम प्राण स्वरूप को ऊर्ध्वा से जानो तो स्वर्ण मे विशेष प्रकार की
सुगन्ध स्वतः होती है परन्तु उसमे घ्राण की शक्ति होनी चाहिये। यागियो ने ब्रह्मवेताओ
ने ऋषि-मुनियो ने नाना प्रकार की धातुओ को योग के द्वारा जाना है। कुक्कुट मुनि
बोले कि एक समय सोमकेतु महाराज जो की हमारे सत्रहवें महापिता थे सोम केतु महाराज
एक समय सब धातुओ को अपने समीप ला करके उसमे प्राण की आभा को परिणीत करा रहे थे। तो
उसमे एक विशेष प्रकार की सुगन्ध दृष्टिपात की, क्योंकि इस
मानव के घ्राण के द्वारा प्राण गति करता है और प्राण मे नाना प्रकार की धातुए गति
करती रहती है। नाना प्रकार के परमाणु होते है जो पृथ्वी की आभा मे रमण कर रहे है
और उसका समन्वय प्राण से होता है क्योंकि प्राण ही संसार मे सबको रसास्वादन
प्राप्त कराता रहता है। वह विभक्त हो करके सबको रस देता रहता है। जब ऋषि ने यह
वाक्य उच्चारण किया तो कुम्भकरण ने उनके चरणो को स्पर्श किया और उन्होने कहा,
घन्य हे, प्रभु! मै अन्धकार मे था। मुझे तो योगी बनना चाहिये क्यांकि योग से यह
वाक्य सिद्ध होगा। विज्ञान से मै इन वस्तुओ को नहीं जान पाँऊगा।
कुम्भकरण ने कहा, प्रभु! मै आपके द्वारा यह जानना
और चाहता हूँ कि हम यदि इस प्राण की साधना करना चाहते है तो प्राण की साधना कैसे
करे? महर्षि कुक्कुट मुनि ने कहा -यदि तुम प्राण की साधना
करना चाहते हो तो महर्षि भारद्वाज के द्वार पर चले जाओ। वह तुम्हें इसका निर्णय दे
सकेंगे। मेरा तो निर्णय केवल यही है कि संसार मे दो वस्तुओ का विभाजन होता है। दो
वस्तु संसार मे दृष्टिपात आ रही है। एक विभक्त क्रिया जो विभाजन कर रही है और एक
तो विभाजित हो रही है। दोनो वस्तुओ का जिस काल मे समन्वय हो जाता है, उसी काल मे योग की आभा उत्पन्न
हो जता है और मानव यागेश्वर बनने के लिये तत्पर हो जाता है। क्योंकि यह जात
सर्वत्र ब्रह्माण्ड है, चाहे वह मंगल मण्डल मे हो,
चाहे सूर्य हो नाना प्राकर की किरणो क्यो न हो परन्तु उनमे
जो धातु पिपाद आ रहा है, पृथ्वी पर आ रहा है, मण्डल मे जा रहा है, सूर्य की किरणो मे गति कर रहा है,
वह सब मनस्तव और प्राणत्व ही गति कर रहा है। जो इन दोनो का
समन्वय कर लेता है, वही
विज्ञान मे पारायण हो जाता है, वही महान बन जाता है, वह मृत्यु को विजय कर लेता है। संसार मे प्रत्येक मानव मृत्यु से विजय
होना चाहता है। कुम्भकरण! तुम्हे यह प्रतीत होगा कि मानव जितना भी प्रयास करता है
राजा के राष्ट्र मे विज्ञान की उड़ान उड़ी जाती है परन्तु जहाँ ऋषि मुनि होते है, वह योग की उड़ान डड़ते रहते है। वे
मृत्यु से बचने का प्रयास करते रहते है। विचारते रहते है कि मेरी मृत्यु नहीं होनी
चाहिय। ऐसा कौन सा सोमरस है जिसके पान करने से मानव मृत्यु से उपराम हो जाता है?
मेरी प्यारी माता मृत्यु से उपराम हो जाती है? ज्ञान से यही विचारता है कि परमाणुओ का मिलान हुआ है, इनका विच्छेद होना है। जो इस
प्रकार की प्रतिक्रियाओ को अपने मे विचारता है, चिन्तन करता है, वह मृत्यु के मूल को जान जाता
है। मृत्यु क्या हे, संकीर्णता को त्यागतना होगा।
मृत्यु क्या है, संकीर्णता
है, संकीर्णता मे
जितना भी मानव रमण करता रहेगा और व्यापकवाद उसके द्वारा नही होगा, वह मृत्यु के गृह मे, आंगन मे रमण करता रहेगा। मृत्यु उसको निगलती रहेगी, परन्तु
जिस समय वह ज्ञान और विज्ञान की आभा को ले करके रमण करता है, व्यापकवाद को ले करके गति करता
है। व्यापकवाद किसे कहते है, जो भी वस्तु मेरे द्वार है,
वह सर्वत्र प्रभु की आभा है, उसी की महानता हे। जो इस प्रकार
का अध्ययन करता है, वह
इस अज्ञान रूपी अन्धकार को समाप्त कर देता है। महर्षि। कुक्कुट मुनि महाराज ने यही
कहा-हे कुम्भकरण! यदि आज तुम महान बनना चाहते हो तो दो वस्तुओ के समन्वय का नाम
प्रकाश हे और दोनो का विभाजन हो जानाही अन्धकार को क्षेत्र कहलाता है। इसको तुम
जानने का प्रयास करों। (२६ नवम्बर,
१९८१, अजमल खां पार्क, नयी दिल्ली)
रावण के विधाता कुम्भकरण महर्षि भारद्वाज की
विज्ञानशाला मे विद्यमान हो करके उड़ान उड़ रहे है। स्वर्ण जैसी धातु मे सुगन्धि
लाना चाहता है। यह सुगन्धि कैसे आयेगी? इस सुगन्धि के ऊपर वह
विचार-विनिमय कर रहे है। मुझे भी अनुभव है कि महाराजा कुम्भकरण छः माह तक अपनी
प्रयोशाला मे रहते और छः माह तक वह विद्यालय मे विज्ञान के वैज्ञानिको को शिक्षा
देते रहते है। आधुनिक जगत तो यह कहता है कि कुम्भकरण तो छः माह तक निद्रा मे रहता
था, माँस को आहार करता था, सुरापान
करता था। परन्तु उनके जीवन की बहुत सी विचारधारा मुझे स्मरण है। उन्होने अपने जीवन
मे सुरापान नहीं किया। माँस का भक्षण नही किया। भारद्वाज की शाला मे जो वैज्ञानिक
हो वह भक्षक होगा या रक्षक होगा? वह रक्षक था, भक्षक नहीं था। वह विज्ञान की तरंगो को जानता था। विज्ञान कैसा विशाल था
कि एक-एक यन्त्र ऐसा कि आधुनिक काल मे उस यन्त्र का निर्माण भी नहीं हुआ है। निचले
स्थान पर जलाश्य बन गया है, ऊपर से अग्नि की वर्षा हो रही है,
सर्वत्र सेना नष्ट हो जाती थी। इस प्रकार का यन्त्र आधुनिक
काल मे अभी प्रारम्भ नहीं हुआ।(१८ मार्च,
१९७८, बरनावा)
महाराज कुम्भकरण का एक यन्त्र था जिको चित्राग्नि
यन्त्र कहा करते थे। वह चित्राग्नि यन्त्र इस प्रकार का था कि वह सर्वस्व जितने भी
इस पृथ्वी पर लोक है। और लोको मे जो यन्त्रो के केन्द्र है उनसे सम्बन्धित उस
यन्त्र मे चित्र आते रहते थे। महाराजा कुम्भकरण नक विज्ञान को लगभग १०० वर्षो तक
जाना। १०० वर्ष की आयु तक उन्होने उस पर अनुसन्घान कि। परन्तु जितने भू-मण्डल पर
राष्ट्र थे, सबके केन्द्रो का उनमे चित्रण आता तो संसार के
सब वैज्ञानिक दृष्टिपात करने के लिये पंहुचते थे। हमारे यहाँ कुम्भकरण को सबसे
अधिक वैज्ञानिक माना गया है।
विद्या का अधिकारी-कुम्भकरण
कुम्भकरण एक समय हिमालय कन्दराओ मे चले गयें हिमालय
की कन्दराओ मे उन्होने भुञ्जु महाराज से शिक्षा प्राप्त की। क्योंकि भुञ्जु महाराज
वायु मुनि महाराज के १५०००वें प्रपौत्र कहलाते थे। भुञ्जु ऋषि महाराज के यहाँ
पंहुचे और उनके द्वार पर जा करके उन्होने कहा, प्रभु! मै तो
आपकी शरण मे आया हूं। उन्होने कहा क्या चाहते हो ब्रह्मपुत्र! उन्होने कहा कि -मै
विज्ञान चाहता हूं। मै अपने मस्तिष्क में विज्ञान की प्रतिभा चाहता हूं। उन्होने
कहा, तुम विज्ञान के अधिकारी हो अथवा नही? उन्होने कहाकि यह मेरे मस्तिष्क को अध्ययन कर कीजीये। भुञ्जु ऋषि ने उनके
मस्तिष्क का अध्ययन किया। उन्होने कहा, तुम अधिकारी हो।
उन्होने शिक्षा प्रदान की। उन्होने नाना प्रकार के यन्त्रो का निर्माण, नाना प्रकार के धातु, अणु, महा-अणुओ
का दिग्दर्शन कराया। उनका दिग्दर्शन कराया और
निर्देशन दिया-कि तुम अपने विचारो मे सुन्दर और प्रतिभा लिप्त हो जाओ।
कुम्भकरण की रावण को शिक्षा
कुम्भकरण ने सबसे प्रथम रावण को कहा था कि-राम से तुम
संग्राम मत करो, राम से संग्राम करने से तुम्हे लाभ नहीं होगा।
यह कुम्भकरण की शिक्षा थी, परन्तु रावण क्यांकि अधिकारी नहीं
था राष्ट्र का, उसने
शिक्षा नहीं मानी। सबसे प्रथम कुम्भकरण ने यह कहा था हे रावण! हे विधाता! यह तुमने
क्या किया? तुम माता सीता का हरण कर लाये! यह तुम्हारा कार्य
नही। था। यह राजाओ का कर्तव्य नहीं होता है। यदि मुझे इस राष्ट्र राष्ट्र का विचार
न होता तो मै तुम्हे अस्त्रो-शस्त्रो तुम्हे नष्ट कर देता! जब कुम्भकरण ने यह
वाक्य कहा तो रावण ने कहा-तुम महान कायर हो। मेरे विधाता नहीं हो। अहा! उन्होने
यही वाक्य जाना कि मै क्या करूं? मै विधाता के साथ हूं। (०२ अगस्त, १९७०, जोर बाग)
कुम्भकरण का पश्चाताप
कुम्भकरण ने मुत्यु से पूर्व कहा था कि-हे विधाता! पूर्व जन्म के संस्कारो के कारण कुबेर की लंका मे जन्म लेने का सौभाग्य मिला। पुलस्त्य ऋषि का वंशज होत हुए भी आज अपने जीवन पर कोई अनुसंधान नहीं किया, मैने केवल आपको शान्त करने के लिये, आपके राष्ट्रो के जीवो को सताया और कुछ नहीं किया। आज मेरे सब पाप मेरे समक्ष आ रहे है। इस शरीर को त्याग करके मै अगले लोको मे जा रहा हूं। आज जिस गति से मेरी मृत्यु हो रही है उससे तो मुझे वह योनि प्राप्त होगी जहाँ मुझे प्रकाश का अंकुर भी न मिलेगा। (१८ जुजाई, १९६३, लोधी कालोनी, नयी दिल्ली)
श्रृंगी ऋषि कृष्णदत्त वेद यज्ञ विज्ञान न्यास
12/4 मॉल श्री, शिप्रा सन सिटी इन्दिरापुरम, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

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