Wednesday, October 2, 2024

भगवान राम की दिव्यता में माता कौशल्या का तप

भगवान राम की दिव्यता में माता कौशल्या का तप राजा दशरथ के काल में,रघुकुल प्रणाली में कुछ न्यूनता आ गयी थी। क्योंकि वे ऐश्वर्य में संलग्न हो गये। अज के पुत्र का नाम दशरथ था। वह भी ऐश्वर्य में इतना आ गया कि उनकी तीन पत्नियां थी,वे उन्ही में संलग्न रहते और उन्हें यह विचार न रहता कि राज्य का पालन कैसे करना है । लंका के राजा रावण ने महाराजा रघु के अधिकतर साम्राज्य पर अपना अधिपत्य जमा लिया था। केवल राजा दशरथ का ही इस पृथ्वी पर सूक्ष्म का राज्य अयोध्या रह गया था,जहाँ रावण का राज्य नही था,इसलिए माता कौशल्या को भगवान राम को जन्म देने की आवश्यकता हुई,क्योंकि माता कौशल्या यह जानती थी कि मेरा पति तो ऐश्वर्य में आ गया है और राष्ट्र का उत्थान होना चाहिये। वशिष्ठ मुनि और अरून्धती भी यही चाहते थे,क्योंकि रावण का राज्य सुन्दर नही था,उसमें दुराचार की मात्रा अधिक थी और चरित्र नाम की कोई वस्तु नही थी| (प्रवचन सन्दर्भ 9-11-1968) परम्पराओ से हमारे यहा तीन संस्कार कराना अपराध मना गया है। भगवान राम ने स्वयं अपने में स्वीकार किया कि हमारी रघुवंश परम्परा है,राजा सगर से लेकर जो वंश चला आ रहा है,इस वंश में आ करके महाराज अज के पुत्र जो राजा दशरथ थे,उन्होंने पुत्र के मोह में तीन संस्कार कराये और प्रमाद में परिणित हो गये। जिसका परिणाम यह हुआ कि राजा रावण का राष्ट्र सर्वत्र पृथ्वी पर फैल गाया | (प्रवचन सन्दर्भ 9-11-1973) माता कौशल्या का शिक्षण माता कौशल्या के गुरू का नाम तत्वमुनि महाराज था। तत्वमुनि महाराज की आयु 284 वर्ष की थी,वह अखण्ड ब्रह्मचारी थे। एक समय शिक्षा अध्ययन करते-करते जब कौशल्या दर्शनों का अध्ययन कर रही थी,तो उनके मन में एक विचार आया,कि-हे गुरूदेव! मै गृहस्थ आश्रम में परिणित नही होना चाहती। ऋषि ने कहा-पुत्री! जैसी तुम्हारी इच्छा,परन्तु कौशल्या ने अधिक अध्ययन किया तो एक समय रात्रि में अपने गुरू के द्वार पर पंहुची और चरणों का छूकर बोली कि-हे प्रभु! मेरी इच्छा है,कि मै अपने गर्भस्थल से एक ऊंचे और महान बालक को जन्म देना चाहती हूं। उस समय गुरू ने पुनः से आज्ञा दी कि-पुत्री! जैसी तुम्हारी इच्छा हो। माता कौशल्या का राजा दशरथ से संस्कार कौशल्या का यह संकल्प था,कि वह एक ऐसे महान बालक को जन्म देगी,जो संसार से आततायियो का नाश करके धर्म की पताका फहरायेगा। यह विचार ऋषि मुनियों में चर्चा का विषय बन गया और यह वार्ता महाराजा रावण को भी प्रतीत हो गयीं,अतः रावण ने कौशल देश के राजा से कहा-अपनी पुत्री हमको अर्पित करो, हम इससे संस्कार तो नही करांएगे,पर इस कन्या को बन्दी करके रखेंगे। कौशलेश ने अपनी पुत्री कौशल्या को,रावण को दे दिया और रावण ने उस कन्या को,समुद्र के मध्य में एक टापू पर दुर्ग बनाकर यन्त्रों में ओत-प्रोत कर दिया। राजा दशरथ को भी यह बात पता चल गई,अतः जब वे रानी कैकेयी के साथ कुबेर को युद्ध में परास्त कर लौट रहे थे,तो मार्ग में समुद्र के बीच में बनें दुर्ग में अपने वाहन से पंहुचे और वहाँ से उस यन्त्र को लाए,जिसमें कौशल्या को बन्द किया हुआ था। इस प्रकार कौशल्या माता को रावण के बन्दीगृह से मुक्ति कराया तथा कुछ समय के पश्चात कौशल्या का संस्कार राजा दशरथ के साथ हो गया और संस्कार होने के पश्चात वह गृह में प्रविष्ट हो गई,रघु परंपरा के अनुसार वह राष्ट्र-गृह में आ पंहुची। त्रेता के काल में जब राजा दशरथ के कोई सन्तान का जन्म नही हुआ,तो उन्होंने सन्तान के लिए संस्कार भी कराए, परन्तु उनसे भी सन्तान का कोई उर्पाजन नही हुआ। तो ऋषि मुनियों की एक सभा में यह निर्णय हुआ कि पुत्रेष्टि याग होना चाहिए। पुत्रेष्टि याग जब राजा दशरथ के कोई सन्तान का जन्म नही हुआ,तो एक समय राजा दशरथ महर्षि वशिष्ठ मुनि महाराज के द्वार पर पंहुचें,माता अरून्धती और वशिष्ठ मुनि महाराज प्रातःकालीन याग करके अपने ब्रह्मचारियों के मध्य में उपदेश दे रहे थे। राजा उनके समीप पंहुचे,तो ऋषि ने उनका स्वागत किया। वे विराजमान हो गये,तो ऋषि ने कहा कि-कहो राजन! कैसे आगमन हुआ है? दशरथ ने कहा कि-प्रभु! अयोध्या राष्ट्र ऋषियों की अनुपम कृपा से ऊर्ध्वा में गमन करता रहा है। जब महाराजा दिलीप के कोई सन्तान नही हुई,तो ऋषि मुनियों ने ही पुत्रेष्टि याग किया और रघु का जन्म हुआ। इसी प्रकार भगवन! अब पुनः से धर्म संकट आ गया है, इसका उद्धार कीजिये। महर्षि वशिष्ठ बोले-जाओ तुम 184 वर्ष के ब्रह्मचारी महर्षि शृंगी के द्वारा पुत्रेष्टि याग कराओ,तो पुनः से तुम्हारे राष्ट्र की आभा का,पुत्र का जन्म हो सकता है।(प्रवचन सन्दर्भ 16-07-1962) जब राजा दशरथ के यहाँ पवित्र यज्ञ कर्म हुआ,उस समय तीनों पत्नियां और राजा दशरथ लगभग एक वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हुए पृथ्वी पर उनका आसन रहा। जब यज्ञ का समय हुआ,तो ब्रह्मा की आवश्यकता हुई। महर्षि वशिष्ठ से कहा कि-प्रभु! यज्ञ का समय हो गया है,यज्ञ आरम्भ कराईये। तो ऋषि बोले- मै तो यज्ञ कर्म कराने का अधिकारी नही हूँ, जिस विषय को मै जानता नही,उस विषय का ले करके मै यज्ञ कर्म करूं,तो ये मेरे सामर्थ्य नही हैं । राजा ने कहा तो क्या होना चाहिए,प्रभु !, ऋषि ने कहा-हे राजन! इस यज्ञ को कराने के अधिकारी तो महर्षि शृंगी है,उन्हें कजली वनों से लाईये,जहाँ उनके पिता की उन्हें संयमी बनाने की धारणा रहती है। पुत्रेष्टि यज्ञ कराने का वही अधिकारी होता है,जो आयुर्वेद का महान पण्डित होता है और आयुर्वेद का पंडित ही यज्ञ की सुगन्धित औषधियो को जानता है कि यज्ञ में कौन कौन सी औषधियो का पान कराने से यज्ञमान की नासिका, नेत्रो व उसकी रसना के अग्रभाग के कौन-कौन से रोग दूर होते है। यह सब आयुर्वेद का पंडित ही जानता है। (प्रवचन सन्दर्भ 17-07-1970) शृंगी ऋषि से पुत्रेष्टि याग महर्षि वशिष्ठ मुनि महाराज ने भयंकर वन को गमन किया और भ्रमण करते,वे कजली बनों में पंहुचे। उन्होंने वहा शृंगी ऋषि को निमन्त्रण दिया। निमन्त्रण के अनुसार अयोध्या में उनका आगमन हुआ। आगमन पर यज्ञशाला की रचना हुई, जहाँ महर्षि वायु मुनि महाराज और अंगिरस आदि सब विद्यमान हो थे। शृंगी जी ने याग का विधान किया और पुत्रेष्टि याग की रचना की,नाना प्रकार की वनस्पतियो को ले करके उन्होने पुत्रेष्टि याग की रचना की। नाना प्रकार की वनस्पतियों को ले करके पुत्रेष्टि याग का चरू बनाया,उन्होंने गो-दुग्ध और कुछ वृक्षों का रस ले करके एक प्रसाद का निर्माण किया, याग प्रारंभ किया,और कुछ समय तक याग चलता रहा, क्योंकि वे ब्रह्मवर्चोसि थे और ब्रह्मवर्चोसि ही याग का वर्णन कर सकता है ।(प्रवचन सन्दर्भ 16-07-1992) महर्षि वेती अंगिरा मुनि महाराज उस याग में विद्यमान हंए और महर्षि शृंगी ने उस याग को पूर्णता में परिणित कराया। याग करने के पश्चात याग की भूमिका में आचार्यो ने यह उपदेश दिया- हे राजन! तुम अपने को ब्रह्म में पिराया हुआ स्वीकार करो,कयोंकि ब्रह्मचर्य का अभिप्रायः यही होता है, जो अपने को ब्रह्म में पिरो देता है। अंगिरा मुनि ने नाना प्रकार के साकल्यो को ले करके उसे शृंगी ऋषि की सहायता से उस याग में औषधियो का एक पात बनाया और पात बना करके औषधियों के पात को देवियो को प्रदान कर दिया। (प्रवचन सन्दर्भ 30-07-1990) यज्ञ की दक्षिणा राजा दशरथ के यहा जब पुत्रेष्टि याग हुआ तो उस याग में नाना देवता, बुद्धिमान महापुरुषों को आगमन हुआ। जब याग की समाप्ति हुई,तो वहां दक्षिणा का प्रश्न आया। राजा ने अपनी शक्ति के अनुसार गऊ और मुद्राएं प्रदान की। परन्तु माता कौशल्या के हृदय में यह आकांशा उत्पन हुई,कि मै भी ब्राह्मण समाज को, बुद्धिमानों को गऊंए दक्षिणा में दूं। जब माता कौशल्या दक्षिणा देने के लिए तत्पर हुई, तो उस समय ऋषियो ने कहा-हे देवी! हमें यह दक्षिणा नही चाहिये, हम तुमसे मुद्रा नही चाहिये। वह बोली तो महाराज! क्या चाहते हो? उन्होने कहा-हम संकल्प चाहते है। हमें यह प्रतीत हो रहा है कि इस समय अराजकता आ गयी है। अराजकता को समाप्त करने के लिए महापुरूषो को चाहते है। इस संसार में एक महापुरूष होना चाहिए,ऋषि मुनियो ने कहा-हे देवी! हम यह चाहते है,तुम्हारे गर्भस्थल से ऐसी सन्तान का जन्म होना चाहिये,जिसकी आभा चन्द्रमा की भांति शीतल और महान बन करके अमृत को बहाने वाली हो,जो राष्ट्र का उत्थान करने वाली हो। आज महापुरूषो की रक्षा होनी चाहिये। तो हम यह चाहते है कि तुम्हारे गर्भ से ऐसे बाल्य का जन्म होना चाहिये, जिससे राष्ट्र और समाज महान से महान पवित्रता को प्राप्त हो जाये। ऋषि ने कहा-हे पुत्री हम यह चाहते है कि तुम्हारे गर्भ से ऐसे बालक का जन्म होना चाहिये, जो राष्ट्र और समाज को ऊंचा बनाये और संसार में रूढ़ि न रह पायें क्योंकि ईश्वर के नाम पर जो रूढ़िया होती है वह राष्ट्र और समाज का विनाश कर देती है। जब ऋषि ने इस प्रकार वर्णन किया | तो माता कौशल्या ने इन वाक्यों को श्रवण किया और दक्षिणा प्रदान की,उनके विचारों की पूजा करने लगी और कहा कि-प्रभु! जब मै विद्यालय में अध्ययन करती थी,उस समय भी मेरे पूज्यपाद गुरुदेव मुझे यह प्रकट कराया करते थे,कि मानव को अपने जीवन में स्वतन्त्र रहना चाहिये। मानव को स्वतन्त्रता से महता प्राप्त होती है। इसीलिए मैं बहुत समय से अपने विचारों को महान बनाने के लिए कल्पना करती रही हूँ। आज भी मै कल्पना कर रही हूँ। यदि समय बलवती बनेगा तो आप जो मुझे प्रेरणा दे रहे है। मैं उस प्रेरणा को अवश्य पूरा करूंगी। (प्रवचन सन्दर्भ 18-11-1986) ऋषि ने पुनः कहा कि -हे दिव्या! रघुवंश और राजा रघु का जो राज्य था,महाराजा दिलीप की जो उतम प्रणाली थी उसमें सूक्ष्मवाद आ गया है। माता कौशल्या बोली- ऋषिवर!पूज्यपाद!! जो तुम क्या चाहते हो वर्णन करो? उन्होने कहा-तुम्हारे गर्भ से एक ऐसे बाल्य का जन्म होना चाहिये, जो तपस्या में ही परिणीत होने वाला हों माता कौशल्या ने यह स्वीकार कर लिया और उन्होने कहा कि- भगवन! मै तपस्या में ही अपने जीवन को व्यतीत करूंगी, मै राष्ट्र का अन्न नही ग्रहण करूंगी। यह उन्होने संकल्प किया,मुझे वह काल स्मरण आता रहता है कि कैसे उन्होने अपने में संकल्प किया और अपने गृह में वास करने लगी। (प्रवचन सन्दर्भ 14-04-1986) माता कौशल्या ने स्वयं अन्न को एकत्रित करना प्रारम्भ किया। स्वयं कला-कौशल करना उन्होने प्रारम्भ किया और जो भी कला-कौशल से द्रव्य आता उसको वह ग्रहण करती रहती। जब वह ग्रहण करती रहती,तो उनके मस्तिष्क में महान तरंगो का जन्म होने लगा। (प्रवचन सन्दर्भ 31-07-1990) कौशल्या द्वारा राष्ट्रीय अन्न-त्याग माता कौशल्या का यह नियम था कि वे स्वयं कला कौशल करती और उसके द्वारा जो द्रव्य आता,उसको स्वयं ग्रहण करती। उसने संकल्प धारण किया था,जो कि मै राष्ट्र का कोई अन्न ग्रहण करना चाहती,क्योंकि राष्ट्र में आकर ऊंचे बालक को उसी काल में जन्म दे सकती हूँ। जब मेरे मन की प्रवृतियां पुरुषार्थी होंगी,महान होंगी पवित्र होंगी और अन्न की जो प्रतिभा है,वह ऊंची होगी, और अन्न की जो प्रतिभा है वह ऊंची होगी,क्यांकि अन्न से मन की प्रतिभा उत्पन्न होती है। माता कौशल्या का यही नियम था,कि वे स्वयं कला-कौशल करती और उसके द्वारा जो द्रव्य आता उसक ग्रहण करके सन्तुष्ट रहती। जब माता कौशल्या के हृदय में यह धारण बनी कि मै गर्भ से जिस शिशु को जन्म दूंगी तो वह महान होना चाहिये, तो माता कौशल्या सोमलता को भंयकर वनो से लाती और उसका पान करती। अणिमा से उसका खरल करती रहती। खरल करते करते उसके हृदय में जो पुरातत नाम की नाड़ी है, जिसका समन्वय बाल्य के शिशु के हृदय से होता है उससे, उसमें उसकी तरंगे जा जा करके बालक की पुरातत नाम की नाड़ी से समन्वय हो करके,उस नाड़ी का समन्वय मस्तिष्क से होता हुआ, हृदय अगम्यता को प्राप्त होता रहा है। वह माता अपने में विचित्रता को अनुभव करती रही है। उसके हृदय में जो शिशु विद्यमान है, वह महान पवित्रत्व को प्राप्त होता रहा है।(प्रवचन सन्दर्भ 17-02-1991) गर्भवती कौशल्या स्वाध्याय के लिए शृंगी-आश्रम में जब माता कौशल्या के गर्भस्थल में आत्मा विद्यमान थी,राम जैसा शिशु विद्यमान था तो माता कौशल्या ने अपने मन में यह विचारा कि मुझे क्या करना है अंगिरस गोत्र में एक ऋषि थे, उनके द्वार पर पंहुची। उन्होने कहा कि-ऋषिवर! आपने मेरा पुत्रेष्टि याग किया और मेरे गर्भस्थल में शिशु का प्रवेश हो गयाहै, अब मै क्या करूं? उन्होंने कहा कि महर्षि शृङ्गी से उनके द्वार पर जाकर यह प्रश्न करो। मै इस सम्बन्ध में इतना नही जानता हूँ, उन्होंने ऋषि के द्वार पर जाकर यह प्रश्न किया,तो उन्होंने कहा कि हे दिव्या! तुम्हें अपने गर्भ के शिशु को कैसा बनाना है? तुम त्याग तपस्या वाले अन्न को ग्रहण करो। त्याग-तपस्या वाला अन्न वह है,कि जिन विचारों से तुम अन्न को भोजानलय में तपाओगे,उन्ही विचारों का वह अन्नाद होगा। उसको तपा करके पान किया जाये, उसी से माता के गर्भस्थल में पिण्ड का निर्माण होता है।(प्रवचन सन्दर्भ 08-02-1991) माता कौशल्या श्रृंगी से बोली हे प्रभु! मेरे गर्भ में तृतीय माह के बाल्य वृतियों में प्राप्त हो गया है। हे प्रभु! मुझे कोई उदगीत गाइये, कयोंकि मेरा मस्तिष्क तो उस आहार से पवित्र बन गया है। प्रभु! मै जानना चाहती हूँ कि अब मैं क्या करूं? उन्होंने कहा- यह तो तुम्हारा प्राण है इस प्राण को तुम व्यान में प्रवेश कर दो और व्यान को समान में प्रवेश कर दो और समान प्राण को उदान में परिणित करते हुए तुम वहां चित्त के मण्डल का दर्शन करो और चित्त मण्डल के दर्शन करते हुए वह जो तुम्हारे गर्भ स्थल में शिशु पनप रहा है। चतुर्थ माह में उस आत्मा से तुम वार्ता प्रगट कर सकती हो। उस समय ये युक्तियां देवी को परिणित करा दी। माता कौशल्या ने कहा -प्रभु! धन्य है। पन्द्रह दिवस ऋषि के आश्रम में उन्होने प्राण विद्या को जाना, क्योंकि हमारे यहाँ परम्परागतो से ही प्राण विद्या का बड़ा नृत्य होता रहा है। प्राण विद्या का अपने में नृत्य करते हुए,रूग्णो के रूप में, यदि रूग्णो को नष्ट करना है,तो प्राण के द्वारा जैसे खेचरी मुद्रा प्राणायाम किया जाता है, तो उससे जो शरीर में अग्नि का ताण्डव, अग्नि प्रचंड हो गयी है वह अग्नि उससे शमन हो जाती है, वह अग्नि को अपने में शमन कर लेता है और यदि शीतलता का प्रकोप आ गया है,तो उस समय शीतलता को शान्त करने के लिए वह सूर्य प्राण का आश्रय लेता हैं, सूर्य प्राणाणम करता है। जब माता को अपने में प्राणाणम करना हो और गर्भ की आत्मा से कुछ वार्ता प्रगट करनी हो, तो एकान्त स्थली में विद्यमान हो जाओ और वह मन और प्राण दोनो का आश्रय ले करके और प्राण का उदान में प्रवेश करते हुए और उदान को समान में समान को व्यान में प्रवेश करते हुए अपने गर्भ की आत्मा से वह मेरी प्यारी माता वार्ता प्रगट कर सकती है और वह कहती है - कतमोऽसि हे आत्मा! तू कहां से आयी है, हे आत्मा! तू कौन है? वह अपनी आत्मा से आत्म परिचय लेती है। महात्मा श्रृंगी ने उन्हें यह वार्ता प्रकट करायी और प्रकट कराने के पश्चात उन्होने कहा-धन्य है, प्रभु! पन्द्रह दिवस उन्होंने यह अभ्यास किया। अन्नादि का पान करती थी, फल-पुष्पों के द्वारा पन्द्रह दिवस के पश्चात वह पुनः अपने गृह में प्रवेश हो गयी। माता कौशल्या द्वारा राष्ट्र अन्न त्याग से चिन्तित राजा दशरथ जब वह गृह में आ पंहुची,तो राजा को कुछ समय में यह प्रतीत हुआ कि कौशल्या जी अन्न को ग्रहण नही कर रही है। एक समय राजा कौशल्या के कक्ष में पंहुचे और उन्होंने कहा-हे देवी! मैने यह श्रवण किया हैं कि तुम राष्ट्रीय अन्न को ग्रहण नही कर रही हो? उन्होंने कहा-हां प्रभु! मै ग्रहण नही कर रही हूं। उन्होंने कहा-क्यों नही कर रही हो? उन्होंने कहा- राष्ट्र का जो अन्न होता है,वह रजोगुण और तमोगुण से सना हुआ होता है,क्योंकि राष्ट्र का अन्न पवित्र नही होता,इसलिए मैं इसको ग्रहण नही कर पाऊंगी। मेरे पूज्यपाद गुरुदेव, जिनको मैने दक्षिणा प्रदान की है, अन्नादि के लिए उन्होने मुझे वार्ता प्रकट कराई थी,कि एक समय में वह अपने कुछ ब्रह्मचारियों सहित महाराजा अश्वपति के यहाँ पंहुचे और उन्होंने महाराजा अश्वपति के राष्ट्र का अन्न ग्रहण नही किया था,क्योंकि राष्ट्र का अन्न रजोगुणी होता है । तो प्रभु! मेरी भी यह मनोकामना हे, मेरी प्रबल इच्छा है कि मै राष्ट्र के अन्न को ग्रहण करना नही चाहती हूं। कि मेरे गर्भस्थल में जो शिशु पनप रहा है, देवता उसकी रक्षा कर रहे है। तो प्रभु! मेरी अन्तरात्मा यह कहती है कि प्रभु! मै राष्ट्र के अन्न को ग्रहण न करूं। राजा ने कहा- हे देवी! यह तो अपराध हो जायेगा,क्योंकि राजा के राष्ट्र के अन्न को न ग्रहण करना,यह तो बड़ा अनर्थ है। उन्होंने कहा-प्रभु! मै तो संकल्पवादी हूं। और संकल्प में ही पवित्रता होती है। क्योंकि तुम जो राजा हो,वह केवल संकल्पमात्र से हो और प्रभु! संकल्प ही तुम्हें राष्ट्रीय प्रणाली में ऊर्ध्वा को गमन करा रहा है। इसलिए यह जो ब्रह्माण्ड है,यह सर्वत्र एक प्रकार का,यह संकल्प मात्र कहलाता है |तो हे प्रभु! जब यज्ञमान यज्ञशाला में उपस्थित होता है,तो वह याग करने का अपने में संकल्प लेता है,देवी से कहता है-हे देवी! आओ, हम संकल्प करते है कि हम याज्ञिक बनेंगें ,तो वह संकल्प करते है वह अपने दिवस की प्रणाली का उद्घोष करते रहते है तो वे संकल्पमयी है। जब पति और पत्नी का संस्कार होता है, वह संकल्पमात्र से ही जीवन की प्रणाली,जीवन की लीला प्रारम्भ होती है और वही जीवन की आभा शान्त हो जाती है। तो यह क्या है? केवल एक संकल्प मात्र है भगवन! मेरा, राजा ने कहा-हे देवी! मै तुम्हें व्याख्यान के द्वारा परास्त नही कर सकता। मेरी तो एक प्रार्थना है कि तुम अन्न को ग्रहण करो, देवी ने कहा-प्रभु! मैं अन्न को ग्रहण नही करूंगी,क्योंकि मैने आचार्या को यज्ञ में दक्षिणा दी है और दक्षिणा का हृदय से ही समन्वय रहता है और हृदय से उद्घोष होता है। राजा ने विचारा कि-यह तो मेरे वाक्य को स्वीकार नही करेगी। मै आज महात्मा वशिष्ठ और माता अरून्धती के द्वार पर पंहुचूंगा और वे दोनो ही उसको अन्नादि ग्रहण करा सकते है। राजा दशरथ वशिष्ठ ऋषि आश्रम में राजा ने सांय काल के समय में उनके आश्रम को प्रस्थान किया, और वह भ्रमण करते हुए महात्मा वशिष्ठ के आश्रम में पंहुचे। वशिष्ठ आश्रम में रात्रि छा गयी थी। माता अरून्धती और महर्षि वशिष्ठ मुनि महाराज की विवेचना हो रही थी, अपने में चर्चा कर रहे थे,वे तपस्वियो की चर्चा करते रहते थे। पति पत्नी वे ही महान बनते है,जो जब रात्रि छा जाती है,चन्द्रमा अपनी सम्पूर्ण कलाओ से युक्त हो जाता है, प्रातः से लेकर के सांय काल को जब पति पत्नी विद्यमान हो,तो उनको महापुरूषों की चर्चा करनी चहिये कि-अमुक तपस्वी कितना महान है और हम कितने निकृष्ट है,अपने में अपने पन को भी विचारना चाहियें। महर्षि मुनि महाराज और माता अरुन्धती की विचित्र चर्चाए हो रही थी। गृह वही पवित्र होता है,जहाँ पति और पत्नी विराजमान हो करके, रात्रि में प्रकृति को निहारते रहते है,परमात्मा के जगत को निहारते है,जैसे माता अरून्धती और महर्षि वशिष्ठ मुनि महाराज की चर्चाए,वे बुद्धिमता से युक्त होती थी, तो राजा दशरथ वहां शान्त मुद्रा में बैठकर चर्चाओं को सुनने लगे । कुछ अंतराल बाद महर्षि वशिष्ठ ने महाराजा दशराथ को देखकर कहा-हे राजन! तुम्हारा आगमन इस स्थली पर कैसे हुआ है? उन्होने कहा-प्रभु! मै इस समय बड़ा आपातकाल में हूँ। वशिष्ठ बोले कि-क्या आपात काल है? उन्होंने कहा कि माता अरून्धती और आप दोनों को मै चाहता हूँ कि राष्ट्र-गृह में जा करके कौशल्या जी को शिक्षा दो,क्योंकि कौशल्या जी राष्ट्र का अन्न ग्रहण नही कर रही है, वे क्षुधा से पीडित रहती है अथवा नही, इसको मै नही जान पाया। उन्होने स्वीकार किया और अपनी क्रियाओ से निवृत्त हो करके माता अरुन्धती और महर्षि वशिष्ठ,राजा के वाहन में विद्यमान हो करके राष्ट्र गृह अयोध्या में आ पंहुचे। महर्षि वशिष्ठ और माता अरून्धती का कौशल्या जी से आग्रह ब्रह्मवेता का राष्ट्रगृह में आना और भी सौभाग्य था। वे कौशल्या जी के समीप पंहुचे। माता कौशल्या जी ने उन्हें तीन आसन प्रदान किये-एक राजा को,एक माता को और एक महर्षि वशिष्ठ जी को। जब वे आसन पर विद्यमान हो गये,तो उन्होंने बारी-बारी चरणों को स्पर्श किया और कहा कि-भगवन! आज कैसे मेरा सौभाग्य जागरूक हो गया है, मैं कितनी सौभाग्यशालिनी हूँ! हे भगवन! आप उदगीत गाईये, कैसे आगमन हुआ है, बिना सूचना के, बिना कोई कारण के,महर्षि वशिष्ठ मुनि बोले कि-हे दिव्या! हे पुत्री! हम तुमसे कुछ प्रश्न करना चाहते है। कौशल्या जी ने कहा-भगवन् जो मझे आज्ञा दोगे, उसको में सादर धारण करूंगी। उन्होंने कहा -हे दिव्या!हमने यह श्रवण किया है कि तुम राष्ट्र का अन्न ग्रहण नही कर रही हो? उन्होंने कहा-प्रभु! मै राष्ट्र अन्न ग्रहण नही कर पा रही हूँ। उन्होंने कहा –क्यों नहीं ग्रहण कर पा रही हो ? उन्होंने कहा-इसलिये कि मैं अपने गर्भस्थल से ऐसे महापुरूष सन्तान को जन्म देना चाहती हूँ,जिससे वह त्याग और तपस्या में अपने जीवन को व्यतीत करें,मेरी यह कामना है,उसी कामना में,मै सदैव तत्पर रहती हूं। जब उन्होंने ऐसा कहा तो महर्षि वशिष्ठ बोले -हे पुत्री! हमारी इच्छा यह कि तुम राष्ट्र का अन्न ग्रहण करो। उन्होने कहा-प्रभु! मै राष्ट्र के अन्न को ग्रहण नही करूंगी,यह मेरा संकल्प हो गया है और यह जो परमात्मा का जगत है यह संकल्पो में ही निहित रहता है। यदि परमात्मा को यह संकल्प है जब परमात्मा ने तप किया था,तो यह ब्रह्माण्ड नाना प्रकार के लोक लोकान्तरों में परिणित हो गया। हे प्रभु! यह प्रभु का संकल्प है जितनी आयु उन्हें प्रदान की है,वे उतनी आयु में रहेंगे,उतने समय तक उनका पिण्ड बना रहेगा। चाहे प्राण सत्ता चली जाये, प्राण छिन्न-भिन्न हो जाये, प्रभु संकल्पोमयी यह संसार है और मै भी अपने संकल्प को नष्ट करूंगी। ऋषि ने जब यह श्रवण किया तो वे निरूतर हो गये, माता अरुन्धती ने कहा-हे दिव्या! हे पुत्री! हमारी इच्छा ऐसी है कि राष्ट्र का अन्न ग्रहण करो,क्योंकि राष्ट्र का अन्न ग्रहण करना तुम्हारे लिए बहुत अनिवार्य है। उन्होंने कहा-मातेश्वरी! क्यों अनिवार्य है? उन्होंने कहा-तुम राष्ट्र का अन्न इसलिए ग्रहण करो,क्योंकि तुम्हें राजकुमार को जन्म देना । उन्होंने कहा कि माता की यह इच्छा नही है,जो इस प्रकार की संतान को जन्म दे। मेरी यह कामना हैं मेरी इच्छा है कि मै त्याग और तपस्या से पुत्र को जन्म देना चाहती हूं। हे मातेश्वरी! राष्ट्रीय अन्न से यदि यह विकृत हो जायेगा,तो यह छिन्न-भिन्न हो जायेगा। संकल्पो में ही समाप्त हो जायेगा। इस पर माता अरून्धती मौन हो गयी। पुनः वशिष्ठ बोले कि-हे पुत्री! राष्ट्रीय अन्न में कोई दोषारोपण नही होता,तो उन्होंने कहा-मै स्वयं कला-कौशल कर लेती हूँ, और उसके बदले जो अन्न आता हैं उससे अपने उदर की पूर्ति कर लेती हूँ, हे प्रभु! आप तो जानते है,क्योंकि आप ब्रह्मवेत्ता हो और ब्रह्मवेत्ताओं की बुद्धि बड़ी प्रखर होती है और बड़ी ऊंची उड़ान उड़ती रहती है। इस उड़ान के साथ यह स्वीकार करना तुम्हारे लिए अनिवार्य हो जायेगा,कि प्रत्येक मानव एक संकल्प है। राजा भी एक संकल्प मात्र है,प्रजा संकल्प मात्र है, इसी प्रकार माता भी संकल्प मात्र है|प्रवचन सन्दर्भ 14-04-1989 ) माता कौशल्या की संकल्प-निष्ठा उन्होने कहा-प्रभु! मै राष्ट्र के अन्न को ग्रहण नही करूंगी। उन्होने कहा-क्यों नही करोगी? हे प्रभु! जब यहा पुत्रेष्टि याग हुआ था तो महर्षि शृंगी ने पुत्रेष्टि याग कराया जब याग कराया तो उस समय उन्हे दक्षिणा दीं, दक्षिणा में ऋषि ने क्या इच्छा प्रकट की? यह मै तुम्हे उच्चारण किये देती हूं। माता कौशल्या ने कहा जब यज्ञ समाप्त हो गया, यज्ञ के समापन होने के पश्चात मेरा इच्छा,संकल्प जागा कि मै आचार्य को कोई दक्षिणा प्रदान करूं,तो जब मै दक्षिणा प्रदान करने लगी,तो आचार्य कहने लगे-हे पुत्री! मै द्रव्य दक्षिणा नहीं चाहता हूँ? मैने कहा- तो क्या चाहते है भगवन? जो आप इच्छा कंरेंगे,मै वही प्रदान करूगी। उन्होंने कहा-मै संसार का द्रव्य नही चाहता,वैभव नही चाहता। मै केवल दक्षिणा यह चाहता हूँ कि यह जो समाज है,यह जो त्रेता का काल चल रहा है, जहाँ आततायी रावण का आतंक चल रहा है। क्योंकि रावण के राष्ट्र में सूर्य अस्त नही होता हैं, न उदय होता है। मै यह चाहता हूं,कि ऐसे आततायी रावण के राष्ट्र को जो कर्तव्यवादी बना दे। मै ऐसी सन्तान को चाहता हूं। उस समय मैने यह दक्षिणा प्रदान कर दी और कहा-ऐसा ही होगा, तो यह विचारा गया कि यह जो राष्ट्रीय अन्न है। यह तो दूषित होता है। मैने स्वयं कला कौशल करके अन्न को ग्रहण किया है। उस अन्नादि को मै पान करती हूँ। पान करने के पश्चात उस अन्न के द्वारा ही में अपनी जीविका पूरी करती हॅ। मेरा यह संकल्प है। मै चाहती हू, मेरे गर्भ से ऐसी सन्तान का, ऐसी भव्य दिव्य आत्मा का जन्म हो जो इस ससार को महान बना सके और राष्ट्रीयता में धारण कर सके। माता कौशल्या ने जब ऐसा कहा तो वशिष्ठ और अरून्धती दोनो ने फिर कहा-नही पुत्री! तुम राष्ट्र अन्न को ग्रहण करने ही लगो। उन्होंने कहा-प्रभु! आपको प्रतीत है कि संकल्प में संसार हैं,जब मानव का संकल्प समाप्त हो जाता है तो उसका प्राण चला जाता है। मैने जो संकल्प किया है, वह संकल्प मेरा है,मेरी प्रतिभा नष्ट नही होनी चाहियें,मैं अप्रतिभावान बनना नही चाहती हूं। ब्रह्मवेत्ता के समीप मैने एक संकल्प किया है। प्रभु! में इसको नष्ट नही कर सकती,क्योंकि यह जो प्रभु का जितना भी जगत है यह सब संकल्पमात्र से है। माता कौशल्या कहती है-हे प्रभु! सर्वत्र ब्रह्माण्ड में मुझे प्रभु का संकल्प मात्र दृष्टिपात आता है। जिस प्रकार,हे प्रभु! आपको तो यह प्रतीत है कि माता के गर्भस्थल में जब बाल्य की स्थापना होती है, यह माता पिता का संकल्प मात्र ही तो है। परन्तु जो उस शरीर में आत्मा है उसको न माता जानती है न पितर जानते है,उसको कोई नही जानता, न आचार्य जानता है किस प्राणी की आत्मा स्थित है। परन्तु यह माता-पिता का संकल्प मात्र ही तो है, जो उस शरीर में आत्मा हैं उसको न माता जानती है, न पितर जानते है उनको कोई नही जानता, न आचार्य जानता हैं, किस प्राणी की आत्मा स्थित है। यह माता-पिता का संकल्प मात्र है,यह उसी का पुत्र कहलाता हैं वह माता का पुत्र है,पिता का पुत्र बना हुआ,तो प्रभु! यह माता-पिता का संकल्प मात्र ही तो कार्य कर रहा है, इस संसार में। जो आध्यात्मिक दृष्टि से गम्भीरता से दृष्टिपात करोगे तो न तो कोई किसी का पुत्र है, न पुत्री है| आत्मा किसी का पुत्र नही होती। शरीर तो जड़ वस्तु है। वह किसी को पुत्र-पुत्री नही बना सकता है। जब चेतना चली जाती है,तो माता-पिता भी उसे स्वाहा कह कर अग्नि में प्रदीप्त कर देता है। तो क्या प्रभु! यह संकल्प मात्र जगत नही है? आप मेरे संकल्प को नष्ट क्यों नष्ट करा रहे है? मैने एक ऋषि के समीप संकल्प किया है, प्रभु! क्योंकि मै पितर बनना चाहती हूँ। मेरी कामना जागी है,कि मै पितर बनूं और पितर उसी काल में बन सकती हूँ,जब मै वास्तव में पुत्र का निर्माण अच्छी प्रकार कर सकूं। पुनः उन्होंने कहा कि-पुत्री हमारा एक ही अंतिम वाक् है कि तुम अन्न ग्रहण करने लगो। जैसे ही उन्होंने यह कहा तो कौशल्या ने पुनः कहा-प्रभु! जैसे प्रभु के संकल्प समाप्त होने पर प्रलय काल आ जाता है। ये एक दूसरे में लय हो जाते है कौशल्या ने कहा-यह संसार क्या है,प्रभु! यह मुझे प्रभु का संकल्प दृष्टिपात आता है। जब संकल्प समाप्त होता है तो अंधकार आ जाता है, उसको ब्रह्म-रात्रि कहते है और जब दिवस आता है सृष्टि रचना को दिवस कहते है वह ब्रह्म-दिवस कहलाता है,तो हे प्रभु! ये जो दिवस और रात्रि है मेरे उस प्यारे प्रभु का संकल्प है, जिस संकल्प से सर्व-जगत ओत-प्रोत है जैसे पति पत्नी दोनों का संस्कार होता है,वह संस्कार क्या है? वह केवल एक संकल्प मात्र है वह उन्हें एक दूसरे में ओत-प्रोत कर देता है और वे पितर बनते है। ओत-प्रोत जब तक नही होते तब तक पितर भी नही बनते। माता कौशल्या ने कहा-हे ऋषिवर!मै अपने संकल्प को समाप्त नही करूंगी। हां एक कारण से कर सकती हूं। यदि प्रभु आप दोनो माता अरुन्धती और आप विद्यमान है अपने संकल्प को पति-पत्नी-पन को समाप्त कर दो, तो प्रभु! मै समाप्त कर सकती हूँ। वशिष्ठ मौन हो गये, और अरून्धती भी मौन हो गयी, क्योंकि दोनों ब्रह्मवेत्ता थे। उन्होंने कहा-जैसी कौशल्या की इच्छा,इनके संकल्प को नष्ट न करो वे संकल्पवादी है। (प्रवचन सन्दर्भ 08-07-1978) वशिष्ठ और अरून्धती ने अपने आश्रम को गमन किया और उन्होंने राजा से कहा-हे राजन! यह तो संकल्प है। आचार्य के द्वारा उन्होंने संकल्प किया हुआ है और संकल्प उनका नष्ट नही होना चाहिये,यदि संकल्प चला गया,प्राण चला गया,तो मानवता चली जाती है। हे राजन! तुम देवी को इसी प्रकार रहने दो, तुम अपने क्रियाक्लापों में परिणित हो जाओ। उस समय राजा भी मौन हो गया (प्रवचन सन्दर्भ 18—04-1989) सन्तान को जन्म देने वाली माता अपने में तप कर रही है,वह तपस्या में रत्त हो रही है, और राष्ट्र का अन्न ग्रहण नही कर रही है| राजा कहता है -हे देवी! राष्ट्र का अन्न ग्रहण कर। कौशल्या कहती है-कदापि नही। राष्ट्रीय अन्न रजोगुण,तमोगुण से सन्ना हुआ अन्न होता है, मैं उस अन्न को ग्रहण नही करूंगी। माता के गर्भ से राष्ट्रीय पुत्र का जन्म होना होगा,तो माता कौशल्या जैसा अवश्य बनना होगा। माता कौशल्या राम को जन्म देने वाली थी, जो त्याग में स्वयं कला-कौशल करके तप कर रही है,दार्शनिकता में रमण कर रही है,अपने को गायत्राणी छन्दों में ले जा रही है। गर्भ में रहने वाला शिशु पनप रहा है, तप युक्त अन्नाद और ज्ञान को प्राप्त कर रहा है। प्रवचन सन्दर्भ 21-10-1982 ) माता कौशल्या के गर्भ समय की जीवन शैली जब माता कौशाल्या तप करती थी,तो वह तप करती हुई पृथ्वी से कहती थी कि-हे पृथ्वी! तू ब्रह्मा के तुल्य है। तेरे गर्भस्थल में नाना प्रकार का परमाणुवाद गति कर रहा है और वही परमाणुवाद हमारे प्राण के द्वारा हमारे में प्रवेश करके,हमें जीवन दे रहा है, हमें वह महानता प्रदान कर रहा है। (प्रवचन सन्दर्भ १२-०३-1986) माता कौशल्या के गर्थस्थल मे राम जैसी पुनीत आत्मा जब प्रवेश हो गया, तो माता कौशल्या याग करती थी, वर्चोंसि अग्नि की पूजा करतीं,आत्मा को चेतनित करने के लिए तपस्या करने लगी, क्योंकि माता की यह कामना थी कि मेरे गर्भस्थल से तो याज्ञिक पुत्र होना चाहिए। माता कौशल्या तपस्या में परिणित हो गयीं,अपने जीवन को उन्होंने क्रियात्मक बनाना प्रारम्भ किया। वह प्रातःकालीन समिधाओ को ले करके जब अग्न्याधान प्रारम्भ करती थी, तो कहती थी कि-हे अग्ने! तू प्रकाश हैं, तू मेरे अन्तःकरण का प्रकाश हैं। हे अग्ने! तेरी ही ज्योति उर्ध्व में रमण करती है, हे अग्ने!तू सप्तजिव्हा वाली है। प्रत्येक जिव्हा से तू संसार का कल्याण करती है। माता कौशल्या उस अग्नि की आराधना करती थीं, मघ्य समय आता तो माता कौशल्या कला कौशल करती थी (प्रवचन सन्दर्भ 03-10-1981 ) भगवान राम जब माता कौशल्या के गर्भ में थे, तो उस समय माता कौशल्या राष्ट्र को कोई अन्न और जलपान नही करती थी, न राष्ट्र का वस्त्र ही धारण करती थी। एक समय गुणक ऋषि महाराज ने प्रश्न किया कि-हे देवी! तुम राष्ट्र के वस्त्रों को, राष्ट्र के अन्न को क्यो नही पान कर रही हो। उस समय माता ने कहा था कि-हे ऋषिवर! हे ऋषि! मै अपने गर्भ से ऊंचा बालक चाहती हूँ, श्रेष्ठ पुत्र चाहती हू। मेरे हृदय की वेदना हैं कि मेरे गर्भस्थल से उत्पन्न होने वाले बालक के शरीर में किसी किसी प्रकार भी ऐसा अन्न का अंकुर न चला जाये,जिससे मेरा बालक राजसी बन जाये और राजसी बन करके राज्य के ऐश्वर्य में आ करके वह प्रजा का कल्याण नही कर सकेगा। राजा दशरथ भी कहते कि-हे देवी! तुम राज-स्थान में रहती हो,सुन्दर राष्ट्र गृह है परन्तु इसका अन्न क्यों पान करती हो? कौशल्या उस समय कहा करती कि-राजन! मेरा अधिकार नही है। जब प्रभु ने हमारे लिए यह दो भुज बनाये हैं, सुन्दर स्वच्छता से शरीर बनाया हैं, यदि इसमें हम सुन्दरता को पान नही करते, अपने हृदय को पवित्र नही बनाते, शुद्ध अन्न से और शुद्ध विचारों से ऊंचे बालक को जन्म न दे सकें,तो हमारे जीवन को धिक्कार है। (प्रवचन सन्दर्भ 12-07-1966) बारह वर्ष तक माता कौशल्या ने गायत्री का पठन पाठन किया। उसके पश्चात माता कौशल्या कला कौशल करके अन्न का ग्रहण करती थी। गर्भ स्थापन के पश्चात भी कार्य करतीं उस माता का जो तप था, वह व्यर्थ नही गया। भगवान राम जैसे पुत्र को जन्म दिया। (प्रवचन सन्दर्भ 29-07-1967) गौरवमयी मां कौशल्या वह माता कितनी पवित्र होती है,जो अपने गर्भ से महान वीर पुत्र को जन्म देती है। महान आत्माओं को जन्म देती है,उन माताओ को धन्य हैं, जहाँ भगवान राम जैसे पुत्र जन्म लेते है,भगवान राम का जीवन कितना उदार था,उनका हृदय कितना उदार था,हृदय कितना विवेक ,कितना त्याग तपस्या थी। (प्रवचन सन्दर्भ 18-10-1964) जब गर्भ में भगवान राम विद्यमान थे तब माता कौशल्या गान गा रही है, वह मधु-विद्या का गान गा रही है। आठ लाख वर्षो से भी अधिक वर्ष हो गये,आज तक माता कौशल्या को माता कहा जाता है। माता क्यों कहा जा रहा है,पुत्र के कारण ही तो माता कहा जा रहा है। यदि माता कौशल्या के राम जैसा पुत्र नही होता,तो कौन माता कहता ? यदि माता गान नही गाती,तो राम कैसे जन्म लेते? राम जैसी पुण्य आत्मा कैसे आती इस संसार में? उसका परिणाम यह हुआ कि उनको आज तक माता ही कहकर पुकारा जाता है| (प्रवचन सन्दर्भ २३-02-1977) shringirishi.nyas@gmail.com श्रृंगीऋषि क्रष्णदत्त वेद यज्ञ विज्ञान न्यास 12/4 मॉल श्री, क्षिप्रा सनसिटी इन्दिरापुरम, गाजियाबाद,उत्तर प्रदेश प्रवचन संपर्क डॉ कृष्णावतार 9999075748  

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