भगवान राम और राजा रावण दोनों का ही पालन दिव्य-माताओं से हुआ था,तो फिर रावण वेदज्ञ होकर भी जीवन दिशा क्यों भटका ?
पाप का मूल
महात्मा पुलस्त्य
ऋषि महाराज उनके गोत्र में,उनके
पूर्वजों में, सत्यवादी पुरुष होते रहे है। सत्य उसे कहते जो
अपनी अन्तरात्मा में समाहित रहता है और अन्तरात्मा, जिससे
प्रश्न रहता है,उन शब्दों में और क्रियात्मकता में जो
क्रियाकलाप हो रहा है,उस क्रियाकलाप की आभा में आत्मा
प्रसन्न हो रहा है। वह मानव सत्यवादी कहलाता है। और यदि उसके क्रियाकलाप से और
व्यावहारिक जीवन में, अपने से उसका अन्तरात्मा यदि दुखित हो
रहा है आन्तरिकता में, उसको धिक्कार रहा है तो वही पाप का
मूल बन करके रहता है। मुझे स्मरण है। क्यो मानव का जीवन क्रियाकलापता में रहना
चाहिए?
रावण के पिता
महात्मा पुलस्त्य
ऋषि महाराज के यहाँ वे सत्यवादी पुरुष रहे। मैं, बहुत समय हुआ, जब इन ब्रह्मचारियों
को, आभा में प्रगट करते रहते। मैं वरुण देव की चर्चा कर रहा
था, परन्तु उनके पिता, जिनका नाम
मणिचन्द्र था, मैं वरुण की चर्चा कर रहा था।
क्योंकि वरुण, पुलस्त्य ऋषि
महाराज के पौत्र थे और मणिचन्द्र उनके पुत्र कहलाते थे। तो वह मणिचन्द्र
ब्रह्मचारी की चर्चाएं थी। तो शकुन्तकेतु उनकी माता थी और मणिचन्द्र, शिक्षा अध्ययन करने के पश्चात अपने गृह में, उनका
प्रवेश हुआ। तो वह अध्ययनशील, हमारे यहाँ एक परम्परागतों से
एक वार्त्ता चली आई, कि जैसे ही विद्यालय से ब्रह्मचारी,
गृह में प्रवेश करता, तो माता-पिता उस
ब्रह्मचारी के लिए गृह में प्रवेश होने के लिए, उनका सब कर्म
बना देते थे।
रावण की माता
तो महात्मा
पुलस्त्य ऋषि महाराज एक समय भ्रमण करते हुए,
वह शाण्डिल्य, गोत्रीय एक ऋषि थे, जिनका नाम ब्रद्दस्त् ऋषि महाराज था। वे त्रीत ऋषि कहलाते थे। क्योंकि वे
क्रोधी बहुत थे। परन्तु वह त्रेतकेतु ऋषि के द्वार पर, जब
पहुँचे, तो महात्मा पुलस्त्य ऋषि महाराज और त्रीतकेतु की
चर्चाएं हुई। तो जब चर्चाएं होने लगी, तो उनके आश्रम में एक
बालिका, कृतिभा सोमकेतु बालिका, उनके
आश्रम में अध्ययन कर रही थी। तो महात्मा पुलस्त्य, ने उसके
गुणों का अध्ययन किया और अध्ययन करने के पश्चात त्रीत ऋषि से कहा कि महाराज! हे
शाण्डिल्य! इस कन्या का संस्कार, मेरे गृह में, यह कन्या सुशोभित हो जाए, तो मेरा बड़ा सौभाग्य होगा।
तो ऋषि ने इस वाक् को स्वीकार कर लिया।
उन्होंने मणिचन्द्र
का नामोकरण भी श्रवण किया था, क्योंकि वह ऋषियों के आश्रमों में भ्रमण करते रहते थे। तो कन्या ने भी
नामोच्चारण, उनकी प्रतिष्ठा स्वीकार की थी। तो ऋषि ने,
कन्या से कहा- हे कन्या! यह ऋषि चाहता है कि मेरा पुत्र मणिचन्द्र
नामोच्चारण करते ही कन्या ने वह स्वीकार कर लिया।
माता का तप
तो स्वीकार करने के
पश्चात, महात्मा पुलस्त्य
ऋषि महाराज ने और त्रीत ऋषि महाराज ने, शाण्डिल्य गोत्र में
उत्पन्न होने वाली कन्या का संस्कार, पुलस्त्य गोत्र में
उसका संस्कार हुआ। संस्कार, क्योंकि हमारे यहाँ माताओं का,
कन्याओं का, बड़ा सौभाग्य रहा है। उनका जो तप
है, वह गृह को सजातीय बनाता है। माता का जो तप है, वह माता के शृंगार की रक्षा करता है। जब उनके गृह में, उसका प्रवेश हुआ, तो कन्या तपस्विनी थी, गायत्री छन्दों का पठन-पाठन किया करती थी, प्रातःकालीन
अपनी क्रियाओं से निवृत्त हो करके अपने गृह के कार्यो में, अपने
को संलग्न कराती रहती। क्योंकि वही मानव सौभाग्यशाली होता है संसार में, जो प्रातःकालीन प्रभु का चिन्तन करने वाला और गायत्री छन्दों में रमण करने
वाला हो। क्योंकि गायत्री कहते है गायन को, छन्द कहते है जो
उत्सर्ग में होता है। तो जो गायत्री से गान गाता है,अपने
प्रभु का गान गाती है वह कन्या, वह मेरी प्यारी माता
सौभाग्यशालिनी होती है।
तो हमारे यहाँ
परम्परागतों से ही, गृह
आश्रम के लिए एक क्रियाकलाप बनाया, तपस्या करने के पश्चात,
उन्होंने वेद का अध्ययन किया और वेद का अध्ययन करने के पश्चात
उन्होंने ब्रह्मयाग को रचा, उसके पश्चात देवयाग को रचा और भी
ओर भी याग रचे, परन्तु दो याग विशेष होते है। सबसे प्रथम
ब्रह्मयाग होता है।
माता का बाल्य पर प्रभाव
तो वह वह शाण्डिल्य गोत्र की कन्या,जब प्रातःकालीन पुलस्त्य के गोत्र में आने वाली कन्या, प्रतिष्ठित हो गई तो,! वह प्रातःकालीन ब्रह्म का चिन्तन करती रहती थी, इसलिए हमारे ऋषि मुनियों ने कहा है-कि मेरी पुत्रियों को वेद का अध्ययन करना चाहिए। वेद का अध्ययन करने से उनके जीवन में ब्रह्म की आभा होनी चाहिए, जिससे उनका जीवन महान बनता हुआ,उनके गर्भों से उत्पन्न होने वाले, हम जैसे शिशु सब बुद्धिमान बन जाए। सब महान बन करके रहे। तो माता का तप ही पुत्र को महान बनाता है। माता का तप ही संसार में, माता का तप ही संसार में मिथ्या को दूरी कर देता है। और सत्यता में ओत-प्रोत कर देता है। माता के दिए हुए विचार, बाल्यकालीन हो, गर्भ स्थल में हो, उनको विद्यालय में आचार्य समाप्त नहीं कर सकता। उनको आगे आने वाला समाज समाप्त नहीं कर सकता। वह महान रहते है। वह उसी प्रकार ज्यों के त्यों बने रहते है, ऋषियों ने तप कहा है। कि उसको, तप की मीमांसा करने वाला, वेद का ऋषि कहता है कि हे माता! तू आयुर्वेद, क्या, तू महान बनने के लिए, वेद का अध्ययन कर। वेद कहते है प्रकाश को, तेरा जीवन प्रकाश में रहेगा, तो गृह प्रकाशित रहेगा। गृह प्रकाशित रहेगा तो राष्ट्र पवित्र रहेगा। और राष्ट्र पवित्र रहेगा तो उसका नामोकरण महान और पवित्रता में परिणत हो जाएगा।
सौभाग्य से याग
तो, जिस गृह में पुत्र-वधु आती है और वह याग
करती है वह ब्रह्म का चिन्तन करने वाली, ब्रह्मयाग, देव याग नाना प्रकार के याग होते है उन याग को करने वाला मानव सौभाग्यशाली
होता है।
बालक वरुण का भविष्य
तो महात्मा
पुलस्त्य ऋषि महाराज के यहाँ, जब कन्या का प्रवेश हो गया, तो गृह स्वर्ग बन गया।
जब गृह स्वर्ग बन गया, तो कुछ समय के पश्चात शाण्डिल्य
गोत्रीय कन्या से एक सन्तान का जन्म हुआ, जिस सन्तान का नाम
यहाँ वरुण नाम नियुक्त किया गया। वरुण माता की लोरियों में आनन्दित होता रहता,
एक समय महात्मा पुलस्त्य ऋषि महाराज के यहाँ सोमभाग कृति भानु केतु
ऋषि महाराज उनके द्वार पर आये, वह अंगिरस कहलाते थे। पुत्र,
आंगन में गति कर रहा था। ऋषि ने मस्तिष्कों का अध्ययन करते हुए,
हमारे यहाँ प्रथम जो विद्यालयों की शिक्षाएं, आयुर्वेद
का जो ज्ञान है, वह बड़ा विशाल भण्डार है। मस्तिष्कों का
अध्ययन करने मात्र से, उस मानव के जीवन की,भविष्य की आभा को प्रगट करने वाले ऋषि रहे है।
अंगिरस ने आ करके, उस ब्रह्मचारी के मस्तिष्क का अध्ययन किया, पुलस्त्य वहीं विद्यमान थे, उन्होंने उनका स्वागत
किया। मणिचन्द ने भी उनका स्वागत किया। उन्होंने कहा-हे पुलस्त्य! गोत्र में जन्म
लेने वाले, तुम्हारे वंशलज में कोई राजा नहीं हुआ, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह तुम्हारा पुत्र राजा बनेगा। और महात्मा
पुलस्त्य आश्चर्य में चकित हो गये। उन्होंने कहा-कि महाराज! यह क्या उच्चारण कर
रहे हो? राष्ट्र तो निर्मम,यह राष्ट्र तो नरक का गामी होता है
उन्होंने कहा-कि यह मैं नहीं जानता। परन्तु इसके मस्तिष्क की मध्य जो रेखा है,
वह कहती है। उन्होंने एक वाक् ओर कहा कि यह बालक पवित्र तो रहेगा,
परन्तु आभा में, संशय में जीवन रहेगा। संशय का
जीवन क्या होता है? वह चरित्र की आभा में सूक्ष्म बन जाता
है।
नक्षत्र का प्रभाव
यह वाक् उच्चारण
करके अंगिरस मौन हो गये। पुलस्त्य ऋषि महाराज आश्चर्य में चकित हो गये, कि हमारे
वंशलज में तो सदाचारी पुरुष हुए है, महान पुरुष हुए है, इसके मूल में क्या है? तो दार्शनिक-जन जो होता है,बहुत
ऊंची उड़ान उड़ने लगते है। बहुत ऊंची उड़ान उड़ते रहते है, उन्होंने उड़ान उड़ी, कि अन्तरिक्ष में, एक स्वाति
नक्षत्र होता है। और वह जो स्वाति नक्षत्र है स्वाति नक्षत्र में एक सोम भूनि नाम
की एक औषध होती है, उसको
माताएं,छठे मास में ग्रहण करती है।
स्वाति नक्षत्र की, जब छाया
पूर्ण रूप से आती है तो उस औषध को, बुद्धिमान आयुर्वेद के
जानने वाला उस औषध को पृथ्वी से लाता है। और यदि वह उस नक्षत्र में नहीं लाता,
तो उस औषधि का दूसरा रूप बन जाता है। उस औषध का, एक रूप यह कि स्वाति नक्षत्र की पूर्ण छाया में, उसको
पान किया जाता है तो वह बुद्धिमता है और यदि दूसरे नक्षत्रों की आभा में उसको लिया
जाता है तो उसका द्वितीय स्वरूप बन जाता है, वह उसमें
बुद्धिमान रह करके, बुद्धिमान तो रहेगा, परन्तु बुद्धि में परिवर्तन आता रहेगा।
तो ऋषि ने यह
अध्ययन किया। तो उस बालक का पुलस्त्य ऋषि महाराज ने अपना अनुसन्धान करके और वह
अपने में मौन हो गये, उसने
विचार लिया कि यह सूक्ष्मता रही। उनके यहाँ, उनके वैद्यराज
थे,सोम भूनक ऋषि, वह आयुर्वेद के ऊपर अध्ययन करते थे,उन्होंने
इसमें धृप्टता की, कि वह नक्षत्रों में औषधियों का वरण नहीं
किया, वह औषधि द्वितीय
रूपों में प्रगट कराई। तो उसको पान करने से दूसरा रूप बन गया।
महात्मा पुलस्त्य के तीन पौत्र
तो हम कर्मकाण्ड
में, कितने विशेष, हमारा कर्मकाण्ड कैसा हो, हम समर्पित करने वाले,
अपने जीवन को, महात्मा पुलस्त्य मुनि महाराज
के तीन सन्तानों का जन्म हुआ, महात्मा पुलस्त्य मुनि महाराज
के जब तीन पौत्र, उत्पन्न हुए, तो उनका
नामोकरण, उनका जन्मोकरण नाना प्रकार के, उनमें संस्कार देने का ऋषि ने प्रयास किया। क्योंकि मणिचन्द तो स्वतः ही
बुद्धिमान थे, वह उनमें संस्कार देते रहते थे। माता भी
संस्कार देती रहती थी।
माता के चिन्तन का बालक पर प्रभाव
जिस समय माता के
गर्भ स्थल में कुम्भकरण थे, तो
एक समय माता, एक ऋषि
के दर्शन करने के लिए जा पहुँची। तो वह ऋषि,
आसन पर विद्यमान हो करके, वह लोकों की उड़ान उड़
रहा था। कि लोक क्या है? निंद्रा क्या है? यह क्या है? तो इसके ऊपर अब, वह
कन्या उनका,वह भी वहीं जा विद्यमान हुई।
तो ऋषि, उन्हें अध्ययन कराने
लगे। जैसे ऋषि कर रहा था वैसे ही वह देवी भी करने लगी, क्योंकि
बुद्धिमान तो वह स्वतः थी। तो अपने बालक की, जो कि चतुष माह
में, आयुर्वेद का सिद्धान्त, आयुर्वेद
की आभा कहती है कि चतुष माह में, बालक के अंग प्रत्यंग का
निर्माण हो जाता है। बुद्धि के अंकुरों की उपज हो जाती है। तो जो ऋषि का
क्रियाकलाप था, उस माता के विचारों में परिणित हो गया, विज्ञान में परिणत हो गया। तो वही जो विज्ञान का, ऋषि का दिया हुआ विचार, वायुमण्डल का, माता के गर्भ में रहने वाला शिशु,उसमें जब वह विचार प्रवेश कर गये।
तो, तुमने, कुम्भकरण
का जीवन दृष्टिपात किया होगा, वह कितने महान रहे है। तो उसी माता के गर्भ से,
कुम्भकरण का जन्म हुआ।
तो तीन सन्तानों का जन्म हुआ। मेरे प्यारे महानन्द जी ने, मुझे कई काल में यह प्रगट कराया है कि
आप रावण के वंश को क्यों उच्चारण कर रहे हो, मैं यह कहा करता
हूँ कि-हे पुत्रों! मैं रावण के वंश को नहीं, मैं ऋषि
मुनियों के वंशों का वर्णन करता हूँ। कि उनमें कितनी महानता रही है और गृह आश्रमों
में कितनी महानता की आवश्यकता रहती है। माता कौशल्या का जीवन इसी प्रकार का था।
परन्तु जितनी भी मेरी पुत्रियाँ रही है, उनका जीवन आयुर्वेद
से,विज्ञान से कटिबद्ध रहता है। तब ही तो यह सन्तान और पुत्रों को जन्म दे करके, अपने जीवन को सौभाग्यशाली बनाती है।
जीवन तब ही सौभाग्यशाली बनता है जब बुद्धिमानों का जन्म होता है, ऋषियों का जन्म होता है, विवेकी पुरुषों का जन्म
होता है। क्या इस मायावाद की नगरी वाला जो जीवन है, यह
तो घृष्टता का जीवन हैं, द्रव्यपति होना चाहिए, परन्तु द्रव्य विवेकयुक्त होना चाहिए। द्रव्य में विवेक
होना चाहिए, यदि द्रव्य में अविवेक आ गया है, तो वह द्रव्य ही उसको निगल जाता है। उसको नारकिक बना देता है।
२०-०१-१९८२ अमृतसर
महाराजा रावण का शिक्षण काल
तीन इन्द्रियों का महत्त्व
मुझे स्मरण आता
रहता है महाराजा मणिचन्द्र के यहाँ, प्रथम पुत्र, द्वितीय पुत्र और तृतीय पुत्र तीन
पुत्रों का जन्म हुआ। परन्तु आचार्यजन
इनके समीप आते रहे। हमारे यहाँ आयुर्वेद की विद्या, वनस्पति विज्ञान परम्परागतां से पराकाष्ठा पर रहा है।
हमने बहुत पुरातन काल में, यह वाक् कहा था कि जो मानव इस
संसार, समाज को ऊंचा बनाना चाहता है तो विद्यालयों में,
आचार्य ऊँचे होने चाहिए। और आचार्य कैसे हो? आयुर्वेद
का पूर्णत्व ज्ञान हो। वे रेखाओं को जानने वाले हो, क्योंकि
मानव का जो मस्तिष्क होता है, इसमें कुछ रेखाएँ होती है और
वेद के जो पण्डित होते है,वह इसके
मस्तिष्क का अध्ययन करके,उसके
जीवन की कुछ वार्त्ताएं प्रगट कर देते है।
तो जब
महात्मा पुलस्त्य ऋषि गोत्र में, इन तीनों सन्तानों का जन्म हुआ तो सुख देरावत्त ऋषि महाराज उनके समीप आए और उन्होंने उनका
अध्ययन किया। तो ऋषि ने एक वाक् कहा, परिवार में, कि यह जो
तुम्हारा प्रथम पुत्र है, यह राजा बनेगा। द्वितीय जो पुत्र
है यह कोई विशेष महानता वाला नहीं है और तृतीय जो पुत्र है यह विज्ञान में रमण
करने वाला बनेगा। परन्तु यह वाक् प्रगट करके वहाँ से प्रस्थान किया। जब ये बाल्य कुछ प्रबल हुए, तो इनका विद्यालय में
प्रवेश हुआ। ब्रह्मा जी के यहाँ इनकी शिक्षा, दीक्षा।
क्योंकि हमारे यहाँ, परम्परागतों से यह माना गया है कि नाना
प्रकार की उपाधियाँ होती है और उन उपाधियों में, कुछ विशेष
गुण और उनका क्रियाकलाप होता है।
ब्रह्मा
हमारे यहाँ ब्रह्मा
एक उपाधि है, और ब्रह्मा उसे
कहा जाता है जो वेद के मर्म को जानता है। ब्रह्मा के चार मुख होते है। परन्तु
प्रायः चार मुख नहीं होते,क्योंकि वह चारों प्रकार की,
जितनी विद्याएं है,विद्याएं तो तीन ही प्रकार
की होती है। परन्तु चतुष में, विज्ञान को परिणत किया जाता
है। जो इनको अच्छी प्रकार जानता है, मन्थन युक्त है। तो वह
ब्रह्मा कहलाता है। जो वेद के कर्म काण्डों को जानने वाला हो, और चारों वेदों के, एक-एक वेदमन्त्र उन्हें स्वप्नवत
में आ करके और मन्त्र अपने गुणों का वर्णन करने वाला हो, इतना
उसका अध्ययन, इतनी उसमें यौगिकता होनी चाहिए।
रावण भाईयों का अध्ययन
तो महात्मा
पुलस्त्य मुनि महाराज के, गोत्रीय
तीनों पुत्र ब्रह्मा जी के यहाँ अध्ययन में लग गये। अध्ययन करने लगे। परन्तु एक
समय वे बालक, जब अध्ययन कर रहे थे। तो वरुण जब अध्ययन कर रहा
था, तो वह एक समय अध्ययन करता हुआ दसों दिशाओं की वार्त्ता
प्रगट करने लगा। गुरु के चरणों में ओत-प्रोत है। उन्होंने कहा-प्रभु! मुझे तो दस
दिशाओं का ज्ञान कराईए? ब्रह्मा ने उनको दसों दिशाओं का
ज्ञान कराया। सबसे प्रथम प्राचीदिक् होता है,प्राचीदिक् का
देवता अग्नि कहलाया गया है। अग्नि ऊर्ध्वा कहलाता है। हे ब्रह्मचारी! अग्नि
ऊर्ध्वा है,यह मानव को ऊर्ध्वा में ले जाती है और प्रकाशमयी
है। इसी अग्नि का सम्बन्ध काष्ठों से होता है। इसी अग्नि का सम्बन्ध, नेत्रों से होता है। इसी अग्नि का सम्बन्ध बाह्य जगत में, द्यौ और सूर्य से होता है।
इस अग्नि का चयन
कराते हुए, ऋषि ने इसका
ज्ञान कराया। दक्षिणीदिक् का देवता, वरुण कहलाता है। उन्होंने
कहा-हे ब्रह्मचारी! यह दक्षिण है, यह इसका देवता वरुण कहलाता
है। यह दक्षिण दिशा में जितना विद्युत का भण्डार है, वह रहता
है। मेधो की जो उत्पतियाँ और, उसमें जो आभा रहती है, उसका समन्वय द्यौ और चन्द्रमा से रहता है। ब्रह्मचारी को यह ज्ञान हुआ। अब
ऋषि उसकी भूमिका बना रहा है। उन्होंने हमारे यहाँ तृतीय प्रतीचीदिक् कहलाती है जहाँ
अन्न का भण्डार होता है। वह वर्षा से, इन्द्र देवता प्रगट
होते है। और इन्द्र देवता वह देवों की आभाएँ, शचि की सहायता
से, यह वृष्टि जब प्रारम्भ होती है तो वृत्तियाँ उत्पन्न
होती है वृष्टियाँ होने लगती है। तो नाना रूपों में वनस्पतियों का जन्म हो जाता
है। वह जो वनस्पतियों का जन्म और अन्नाद की उत्पति होती है, जिससे
मानव का, इस संसार का जन जीवन चलता है। गतिशील होता रहता है।
इसी प्रकार उदीची का देवता सोम कहलाया जाता है, सोम आता है,
जो सोम को पान करने वाला है, वह योगी बन जाता
है।
योग
सोम कैसे पान दिया
जाता है? हे ब्रह्मचारी!
आचार्य के कुलों में जब ब्रह्मचारी जब ब्रह्म को अपने में पिरो लेता है, तो उस समय वह सोम का पान करता है। सोम कहते है विद्या को, विद्या का मन्थन किया हुआ, जो मानव की आभा में रमण
करता है उसे सोम कहते हैं। जैसे हमारे यहाँ योगी जन, समाधिष्ट
होते रहते है। और जो प्राण और मन दोनों को सम्मिलान करते हुए, क्योंकि योग कहते किसको है? मन और प्राण का जब
विभाजन हो जाता है। मन और प्राण जहाँ विभक्त हुए उसी काल में जब दोनों का मिलन
होता है तो उसे योग कहते है।
सोम रस
एक समय ब्रह्मा जी,उन्हें वर्णन करा रहे थे, कि मैं जब बाल्यकाल में था,तो एक
समय ऊर्ध्वा मुख बना करके, आसन पर विद्यमान हो गये, संकल्प से युक्त, हमने एक सौ एक वर्ष तक की समाधि,
एक सौ एक वर्ष तक संकल्प किया और ब्रह्मरन्ध्र को मूलाधार से ले करके, स्वाधिष्ठान, जहाँ
नाभि, नाभि, हृदय और कण्ठ और
स्वाधिष्ठान और त्रिकुटी उसके पश्चात ब्रह्मरन्ध्र आता है। इन तीनों में जब प्राण
और मन को गमन करने लगे, तो गमन करके ब्रह्मरन्ध्र के ऊपर,
एक पिपाद स्थान होता है। उस पिपाद स्थान में से परमाणु झरने लगते
है। और उन परमाणुओं को झरने वाला, स्वादिष्ट अग्रणा रसना के
अग्र भाग को, उसको पान करता है। उस सोम को, जब पान करता है तो जितना ब्रह्माण्ड है, यह
ब्रह्माण्ड उसके लिए खिलवाड़ बन जाता है। लोक लोकान्तर,उसके
ब्रह्मरन्ध्र की छाया करने लगती है। तो वह योगी कौन, रस का
पान करता है। वह उदीची वह प्राण का
देवता-हे ब्रह्मचारी! वह सोम कहलाता है। तुम सोम रस को पान करने वाले बनो। सोम रस
किसे कहते है? व्यष्टि और समष्टि को, व्यष्टि
को समष्टि में परिणत कराने का नाम सोमरस कहलाता है।
तो जब यह वाक्
उन्होंने प्रगट किया तो ब्रह्मचारी प्रसन्न होने लगा। उन्होंने ध्रुवा का ज्ञान
कराया, ध्रुवा का देवता
विष्णु है, ध्रुवा का देवता कौन है? विष्णु,जो पालन करने वाला है। संसार का कौन पालन कर रहा है? विष्णु, ध्रुवा
में गमन करने वाला, विष्णु है। जो नाना प्रकार की वनस्पतियों
को और प्राणी मात्र को पालन के रूपों में रमण करा रहा है। वह ध्रुवा में गति कर
रहा है। वह ध्रुवा में, जब ब्रह्मचारी प्रवेश होता है,
विष्णु का पालन करने वाला शृंगार करता है, स्वयं
भी पालना की पुकार करता रहता है। तो विष्णु रूप बन करके और विष्णुश्चन कहलाता है।
ऊर्ध्वा का देवता बृहस्पति कहलाया गया है बृहस्पति कहते है, जो
ज्ञान की वृष्टि करने वाला है। ज्ञान देता रहता है। तो इसी से, हमारे यहाँ एक दूसरां का निर्माण भी हुआ। बृहस्पति जो ज्ञान की वृष्टि
करता हुआ ऊर्ध्वा में गमन करता है। आचार्य सदैव ऊर्ध्वा में रहते है। इसी प्रकार
वह वृष्टि करने वाला है, बृहस्पति,
तो जब उन्होंने यह
ज्ञान कराया, तो वरुण ने
कहा-प्रभु! यह तो मैंने जान लिया। परन्तु ईशान कोण का देवता कौन है? उन्होंने कहा ईशान कोण का देवता द्यौ कहलाता है। उन्होंने कहा-दक्षिणाय जो
कोण है, उसका देवता कौन है? उन्होंने
कहा इसका देवता शचि कहलाता है। उन्होंने कहा-उसका देवता मेध कहलाता है। उन्होंने
कहा-कि उदीची का देवता कौन है? उदीची, सोम
का देवता कौन है उन्होंने कहा उसका देवता ज्ञान है। तो जब उन्होंने दसों दिशाओं का
ज्ञान दिया और वह बालक अच्छी प्रकार ज्ञान को जानने लगा, कोई
ब्रह्मचारी ऐसा नहीं था,वरुण के द्वारा, जो इस प्रकार की जानकारी और मानो इतना ऊर्ध्वा मस्तिष्क वाला हो, तो ब्रह्मा ने उनको दशानन कहना प्रारम्भ किया। उन्हें दशानन कहा। उसने
कहा-हे ब्रह्मचारी! अब तुम इसके ऊपर अध्ययन करो।
उन्हें प्रत्येक
दिशाओं का ज्ञान करा करके, ब्रह्मा
जी मौन हो गये। वह ब्रह्मचारी एकान्त स्थली में विद्यमान हो करके उनका अध्ययन करता
रहा। अध्ययन की चर्चाएं होती रही, समादेश अपने में धारण करते
रहे। अब तीनों ब्रह्मचारी अपने में अध्ययन करते रहे, परन्तु
उन दशाओं का ज्ञान, वरुण ने प्राप्त किया, गुरुओं के चरणों में। वह दिशान देवाः भविष्यम् कर्मकाण्ड को जानने वाला,
वह कर्म काण्ड की चर्चा करते रहते। और तृतीय वह बाल्य वह परमाणु
विद्या में गति करते रहते थे।
वर्ण व्यवस्था का निर्माण
तो इसलिए आयुर्वेद
की आवश्यकता आचार्यों को रहती है। क्योंकि आचार्यों को, आयुर्वेद की इसलिए आवश्यकता है, क्योंकि वे मस्तिष्क का अध्ययन किए बिना, कोई भी
मानव, वर्ण व्यवस्था को ला नहीं सकता। क्योंकि वर्ण व्यवस्था
का जो निर्वाचन होता है, विद्यालयों में होता है। विद्यालयों
में प्रायः इनका निर्माण होता रहता है। भगवान मनु ने जब वर्ण व्यवस्था को लाने का
प्रयास किया,तो समाज को चार विभागों में विभक्त कर दिया।
परन्तु वह विद्यालयों से किया गया। हमारे यहाँ विद्यालयों में ही ब्रह्मचारियों का
अध्ययन किया जाता है। यह कौन से गुण वाला बन सकता है? कौन-सा
कर्म करने वाला है। इसके रूपों में परम्परागतों से ही, क्योंकि
कर्म करने वाला प्राणी सदैव ऊर्ध्वा मुख में गति करता रहता है। वह ऊर्ध्वा को
प्राप्त होता रहता है।
तो हमारे यहाँ
ब्रह्मा जी ने,उस वर्ण
व्यवस्था को अपने विद्यालय में निर्धारित किया। हमारे यहाँ बुद्धिमान आचार्यो के
द्वारा ही, समाज की रचना होती है। समाज की आभा,उसी में परिणित होती रहती है और समाज
का निर्माण भी उसी काल में होता रहता है।
विद्यालय से राष्ट्रवाद
तो उससे राष्ट्रवाद की उत्पति, विद्यालयों से होती है। तो हमारे यहाँ एक वाक् उच्चारण करने का अभिप्रायः
कि संसार में प्रत्येक मानव, प्रत्येक देव कन्याएँ, संसार में ज्ञान के इच्छुक रहते है और ज्ञान होना चाहिए। क्योंकि ज्ञान के
बिना मानव अपंग कहलाता है। और ज्ञान, मन्थन किए बिना प्राप्त
नहीं होता। एक वस्तु को हमने श्रवण किया है, उसके ऊपर चिन्तन
करना, सूक्ष्म रूपों में उसे ले जाना। क्योंकि मानव का यह जो
शरीर है इसमें भी पांचों तत्त्व गति करते रहते है और जितना यह ज्ञान है, यह पांचों लोकों में, पांचों तत्त्वों में गति करता
रहता है। ब्रह्म कैसे इसमें ओत-प्रोत है,कैसे गति कर रहा है,यह सब उस महान, पंच लोकों में, आभा में रमण करने वाला है। क्योंकि पंच लोक कहलाता है। पंच लोक में,
प्रत्येक मानव गति कर रहा है और आत्मा गति कर रहा है।
तो हमारे यहाँ प्रत्येक मानव, जब अपनी आभा में
गति करता रहता है, तो उस आभा में गति करने वाला प्राणी,
इस संसार सागर से पार हो जाता है। क्योंकि इस परमात्मा ने जो वेद की
सुकृत विद्या है इसमें प्रत्येक वस्तु का ज्ञान, हमें
प्राप्त होता है। मन्थन करने वालों को प्राप्त होती है। मेरी प्यारी माता, जब यह विचारने लगती है, क्या, मैं
अपने ही गर्भ से, महान सन्तान को जन्म देना चाहती हूँ,
तो माता का जो विचार, मानो परमाणुओं में गति
करता है। उन्हीं परमाणुओं से, बालक का निर्माण होता है। तो
माता अपने को सौभाग्यशाली और चिन्तन में स्वीकार करती हुई, अपने
जीवन का, उसे ज्ञान हो जाता है।
तो प्रत्येक मानव इस संसार में ज्ञान चाहता है,चाहता
है कि वह ज्ञान स्वरूप,इसीलिए उस प्रभु के राष्ट्र में,
जो भी प्राणी आया है, वह ज्ञान स्वरूप बनना चाहता
है, ज्ञानी बनना चाहता है। क्योंकि उसके ज्ञान युक्त राष्ट्र
में वह मानव विद्यमान है। वह प्रभु ज्ञान और विज्ञान में रमण करने वाला है ज्ञान
और विज्ञान के राष्ट्र में जो प्राणी रहता है, वह उसकी आभा
को जानना चाहता है।
दिनांक-२१-०१-८२ अमृतसर
2 २२-०१-१९८२
महाराजा रावण को दीक्षांत उपदेश
हमारे यहाँ, परम्परागतों से ही,
उस मनोहर वेदवाणी का प्रसारण होता रहता है,जिस
पवित्र वेदवाणी में,वह महामना,जो
सर्वत्र व्याप्त हो रहा है, उसकी व्यापकता और वह कैसे इस
संसार में पिरोया हुआ है, वह प्रत्येक वेदमन्त्र उस महानता
का परिचय देता रहता है। क्योंकि उसकी महानता तो, प्रकृति के
कण-कण में दृष्टिपात होती रहती है।
एक समय त्रेतकेतु ऋषि महाराज अपने आसन पर
विद्यमान हो करके वह गान गा रहे थे। उद्गान गाते हुए उन्हें कुछ ऐसा प्रतीत हुआ, कि जो वायुमण्डल में प्राण नाशक परमाणु
थे,वह
उनके गान गाने से,वह मृतक से प्रतीत होने लगे। जैसे वह
मृतक हो गएं हो। तो उन्हें यह प्रतीत हुआ, कि वेद में जो
उद्गान की महिमा का वर्णन आता है, कि हम सबको उद्गान गाना
चाहिए,तो उससे यह सिद्ध हुआ कि हमारी जो वाणी है,वह जितनी वेद के प्रकाश से गुथी हुई होगी,उतना ही
वायुमण्डल पवित्र होगा।
उद्गान का महत्त्व
एक परमाणु को जो
त्रि वार्ष्णेय परमाणु कहलाता है। उसका जब विभाजन ऋषि-मुनि करते रहते थे, तो जितना यह ब्रह्माण्ड है नाना
निहारिकाओं वाला है, यह उस परमाणु के विभक्त करने से,
विभाजन करने से, उस सर्वत्र ब्रह्माण्ड का
चित्र उसमें दृष्टिपात आने लगता है। तो इससे हमें प्रतीत होता है,कि हम जो प्राणनाशक और प्राणवर्धक जो दोनों प्रकार के परमाणु गति कर रहे
है, हमें उन परमाणुओं को ऊर्ध्वा में ले जाने के लिए,
पवित्र बनाने के लिए, हमें उद्गान गाना चाहिए।
हमें, नम्रता से उद्गान और तन्मय हो करके उद्गान गाना चाहिए।
जैसे यज्ञशाला में, यज्ञमान आहुति दे रहा है, परन्तु उद्गाता, उद्गान गा रहा है और उद्गान गाता
हुआ, वाणी को पवित्र बना रहा है। तो इन शब्दों के पवित्र
बनाने की जो प्रतिभा है, अथवा उसका जो वर्णन, वेद का मन्त्र कर रहा है। वह शब्दों की प्रतिभा का वर्णन कर रहा है।
इसीलिए हमारे यहाँ जितने भी महापुरुष होते है,वे जिस स्थली
पर ये विचारते है कि हमें तप करना है अथवा चिन्तन और मनन करना है, उस आसन को अपने प्राण के द्वारा, याग के द्वारा,
विचारों के द्वारा, वहाँ का वायुमण्डल पवित्र
बनाते जा रहे है।
ऋषियों का अकाट्य सिद्धान्त
संसार का प्रत्येक प्राणी याग कर रहा है। क्योंकि शुद्ध
कामना,
शुद्ध परमाणुओं को, वायुमण्डल में भरण करने का
नाम याग कहलाता है। यह सृष्टि के आदि से ही ऋषि-मुनियों का अकाट्य सिद्धान्त माना
गया है। क्योंकि परमाणुवाद को तो मैं करुँगा ही, परन्तु उसको
जानना, मानव का, मानवीय दर्शन कहलाता
है। क्योंकि मानव का एक-एक अणु, एक-एक परमाणु अग्नि की,
विद्युत धाराओं पर विद्यमान हो करके गति करता है। इसलिए आज के हमारे
वेद पाठ में, अग्नि की बड़ी महानता का वर्णन किया जाता है। यह
अग्नि ही जो मानव के चित्रों को ले करके,वायु मण्डल में गति
कराती है। एक दूसरे से गुथा हुआ, यह जगत, ऐसा प्रतीत होता है, क्या मानव जैसे आभा में रमण कर
रहा हो। प्राणी मात्र का जीवन, एक दूसरे से गुथा हुआ है।
माता से बाल्य
हमारे यहाँ जितना
भी निर्माण होता है,मानवीयतव
का,वह माता के गर्भस्थल में होता है और द्वितीय विद्यालयों
में होता है,आचार्यों के चरणों में ओत-प्रोत हो करके। परन्तु
जो विचार माता परिणत कर देती है, वह आचार्य नहीं दे सकता। जो
माता अपने में तपस्वी बन करके, तपस्वी बना देती है वह आचार्य,उसे तपस्या नहीं दे सकता। वार्त्ता तो बहुत,इस संसार
की, बहुत-सी चर्चाएं है। जो शुभचिन्तक है,माता अपने आसन पर विद्यमान है, याग कर रही है,अग्निहोत्र करके नया जीवन दे रही है। प्रभु से उपासना करती हुई, अपने बाल्य के लिए शुभकामना करती रहती थी। परन्तु वह विचार दे रही है,
कि प्राण चल रहा है, अग्नि का प्रहार चल है,
दृष्टिपात हो रहा है। माता प्रसन्न हो रही है। माता के उद्गार माता
के गर्भ में, जो बाल्य रहता है उसमें प्रवेश हो रहे है। वही,
बालक, जब विद्यालय में प्रवेश करता है,तो उसकी बुद्धि प्रखर हो जाती है। मुझे स्मरण है,मैं
उस काल की चर्चा करने जा रहा हूँ, जिस काल में, विद्यालय में, आचार्यों का मिलाप उसकी बुद्धि और
उसके तप के साथ किया जाता है। ब्रह्म-आयु उपदेश हो रहे है।
कर्मकाण्ड की आभा
, वह बाल्य,
वह कर्म काण्ड की आभा में जाना चाहता है। कर्मकाण्ड में प्रवेश करना
चाहता है। परन्तु कर्म काण्ड किसे कहते है? जो अपने मानवीयतव
को शोधन बनाता है। प्रत्येक इन्द्रियों के विज्ञान को जानता है, और विज्ञान उसका नाम कर्मकाण्ड है। यह जो मानव शरीर है, यह एक प्रकार की यज्ञोमयीशाला कहलाती है। और इस यज्ञोमयी-शाला में,
जो अग्नि तप रही है, उस अग्निष्टोम याग के लिए,
यह जो कर्म होता है, साकल्य लाते है और हृदय
रूपी अग्नि में स्वाहा दे रहे है। और उस हृदय का समन्वय, यह
जो बाह्य हृदय परमपिता परमात्मा का जो तुम्हें अनन्तता में दृष्टिपात आ रहा है।
नाना निहारिकाएं है।
तो नाना निहारिकाएं जो अनन्त काल तक परिणत होती है। एक-एक निहारिका
के मण्डलों की, मण्डलों में
भी अवन्तिका की, परन्तु सूर्यों की गणना करने लगोगे, तो तुम्हें अनन्तता प्राप्त होगी। शनि मण्डलों की, जब
गणना करने लगे। तो अनन्तता में दृष्टिपात आयेगा। सूर्य अनन्त है, क्या, यह जो निहारिकाओं वाला जगत, यह हृदय है, जिस हृदय से यह सर्वत्र ब्रह्माण्ड गति
कर रहा है। ऐसे ही मानव के हृदय में जब याग होता है। जब हृदय रूपी याग करता है
प्राणी, अग्निष्टोम, तो नाना होता,
वह जो साकल्य ला करके, और वह होता, साकल्य बन करके वायुमण्डल में और प्रभु के हृदय से उसका समन्वय होता है।
तो यह कर्मकाण्ड की आभा कहलाती है।
ब्रह्मा ने
कर्मकाण्ड की उपासना करते हुए और आदि ब्रह्मचारियों को यह शिक्षा दी और उन्होंने कहा-तुम्हारी
कर्मकाण्ड में विशेष वृत्ति हो, तो तुम कर्मकाण्डी बनो। प्रभु को एक-एक कण-कण में पिरोया हुआ स्वीकार करो।
कहाँ, कैसे, मानव विद्यमान होता है,
उसको कर्मकाण्ड कहते है। जैसे एक यज्ञशाला में, अग्नि का चयन कर रहा है। परन्तु अग्नि की परिक्रमा कर रहा है। जिस से, विधि से, आभा में होनी चाहिए। यह कर्मकाण्ड का
विषय है। यज्ञमान पश्चिम दिशा में विद्यमान होता है, क्योंकि
वह कुबेर है। वह वरुण का अधिपति कहलाता है वह यज्ञमान है, उद्गाता
कहा? उत्तरायण में रहता है। उदगान गा रहा है, सोम रस में तन्मय हो कर। वह उत्तरायण में रहता है और पूर्व दशा में
सम्भवति ब्रह्मण अध्वर्यु रहता है। अध्वर्यु क्यों रहता है? क्योंकि
वह सबको प्रकाश देता है। त्रिवत कहलाता है। त्रिनेत्रों वाला कहलाता है। क्योंकि
त्रिवर्धा में ही यह जगत विद्यमान रहता है। दक्षिणायन में ब्रह्मा रहता है।
ब्रह्मा का अभिप्रायः क्या है? क्या, सर्वत्र
विद्युत का जितना कोष है,वह सब ब्रह्मवर्चोसि कहलाता है।
जहाँ जिसका जैसा स्थान हो, उसको वहाँ विद्यमान होने का नाम
कर्मकाण्ड कहलाता है। यह कर्मकाण्ड की प्रतिभा, कहीं-कहीं
ऐसा है, जब अश्वमेध याग होते हैं। तो कहीं ब्राह्मण, ब्रह्मा राजा को ऊर्ध्वा स्थान दे करके, उसका
राज्याभिषेक किया जाता है। वह अश्वमेध याग में आता है।
विशेष विज्ञान
तो यह कर्मकाण्ड की आभा प्रगट
कराते हुए,ब्रह्मा ने कहा-हे
ब्रह्मचारियों! तुम कर्मकाण्डी बनों। वह कर्मकाण्ड के ऊपर अध्ययन करने लगे,
कि वह सुनीति ब्रह्मचारी,उनके द्वारा, उनके चरणों में ओत-प्रोत हो, उनके अध्ययन करने का
विषय, केवल त्रव्यवाद था। जिसे हम विज्ञानकाण्ड कहते है।
विज्ञान कहते है। यो तो सर्वत्र में विज्ञान विद्यमान है। परन्तु ज्ञान और विज्ञान
ज्ञान का होना उसकी प्रतिभा, उसकी प्रतिभाषिता में रमण करने
का नाम विज्ञान कहलाता है। आज जब हम विज्ञान में रमण करते है, तो ऐसी, ऐसी तरंगों को, हम
उद्बुद्ध करना, हम दृष्टिपात करते है। जिन तरंगों को हम,
इस संसार की, प्रतिभा में दृष्टिपात करने लगते
है। जैसे वैज्ञानिक, हमारे यहाँ वैज्ञानिक जनों ने, नाना सूर्या की
किरणों को, एकत्रित किया, ब्रह्मा जी
ने यही वाक् कहा-हे ब्रह्मचारी! संसार में वो वैज्ञानिक, विशेषतम
होता है, जो
सूर्य की किरणों के द्वारा, वाहनों को गति देता है। परन्तु
जो पृथ्वी के, खनिज के द्वारा वाहन को गति देता है वह उस
वायु मण्डल को अशुद्ध करता है। यह वैज्ञानिक तथ्यों में प्राप्त होते है। परन्तु
वायुमण्डल में एक त्रुशुक नाम की, वायु गति करती है। वह इतनी
शक्तिशाली रहती है,उसका द्यौ से सम्बन्ध रहता है। उस वायु को,
यन्त्रों में लाने का प्रयास करते है। और यन्त्रों में ला करके उसके
द्वारा वाहन को गति देते है। वह विशेषकर विज्ञान होता है। जो महानता में रहता है।
उससे मानव की बुद्धि में घृणित पना नहीं आता। उसमें मानव का चरित्र नष्ट नहीं
होता।
परन्तु यदि विज्ञान
से मानव का चरित्र नष्ट हो गया है,तो वह विज्ञान अशुद्ध है। परन्तु एक मानव,यहाँ से,
पृथ्वी के, खनिज को ले करके वाहन को गति दे
करके चन्द्रमा में चला गया। क्योंकि पृथ्वी के गर्भतः होने के नाते, उसमें अभिमान की मात्रा बलवती हो जाती है। परन्तु मानव के जीवन का सम्बन्ध
द्यौ से रहता है। और यदि इसमें द्यौ, आभा में, गति करने से उसी से विशेष समन्वय रहता है तो उस धातु को यदि हम, एकत्रित करते है,उससे वाहनों में गति देते है। तो
वाहन में गति देने से, वह हमारे राष्ट्र, समाज के लिए लाभप्रद होता है। पृथ्वी में नाना प्रकार की धातु विद्यमान है,
क्योंकि सूर्य की किरणों से उनका समन्वय रहता है और सूर्य का समन्वय
रहता है विद्युत से, द्यौ से, और द्यौ
से विशेष धातु का मानो सीधा सम्बन्ध होता है वह धातु एकत्रित करना वैज्ञानिक के
लिए कई गुणा लाभप्रद होती है। तो मैं विज्ञान की चर्चाओं में तुम्हें ले जाने नहीं
आया हूँ, केवल विचार विनिमय क्या, पूर्व
ऋषि-मुनि, ब्रह्मा इत्यादि अपने विद्यालय में जब शिक्षा देते
थे तो विज्ञान को भर देते थे। विज्ञान का भरण कर देते थे।
सुनीति ब्रह्मचारी
उस विद्या को पान करने लगा। ब्रह्मचारी उस विद्या को पान करने लगा, अध्ययनशील हो गया। उसी काल में, तुम्हें प्रतीत होगा, तुम्हें दृष्टि चारी हुई होगी
कि उस विद्यालय में महाराजा
हनुमान ने भी शिक्षा प्राप्त की। वे भी इसी विद्या को पान करते थे, इसी विद्यालय में, शिक्षा का अध्ययन, आभा में रमण करता रहा। क्योंकि मुझे स्मरण है कई काल में, वाक् प्रगट भी किए है, कि हनुमान जी सूर्य की,
सर्वत्र विद्या को, अपने कण्ठ में धारण करते
रहते थे और कण्ठ से उसका दमन करके, विज्ञान में गति करते थे।
ज्ञान, कर्म और उपासना
इसी विद्यालय में
नाना ब्रह्मचारी ओर भी अध्ययन करते थे। परन्तु विद्या यहाँ, तीन ही प्रकार की मानी गई है। तीन
प्रकार की विद्याओं का, उपयुक्त होना, परम्परागतों
से माना गया है। जो हमें वैदिक साहित्य से प्राप्त होता है। सबसे प्रथम ज्ञान,
ज्ञान के पश्चात कर्मकाण्ड और उपासना। तो ज्ञान का अर्थ तो जानकारी
हो गई और कर्मकाण्ड उसके अनुसार कर्म करना हो गया और उपासना वह जो इन दोनों के
द्वारा जानकारी ली है उस विद्या का सदुपयोग करने का नाम, उपासना
कहीं जाती है। उपासना की विधि का नाम नाना प्रकार के भेदन है। विहित सीमा काण्डों
में नाना प्रकार के भेदन है। तो यह बाह्य जगत में भी नाना प्रकार है और आन्तरिक
जगत में भी नाना प्रकार है वह अखण्डता का काण्ड बन जाता है।
तो यह विद्यालय में, शिक्षा अध्ययन होती रही।
जब विद्यालय में शिक्षा पूर्णताम् उन ब्रह्मचारियों ने, अपने
में धारण कर ली, धारण करने के पश्चात् दसों दिशाओं को जानने वाला, दशानन बन गया और कर्म
काण्ड को जानने वाला, कर्मकाण्डी
बना और विज्ञान काण्ड में अध्ययन करने वाला, सुनीतिकेतु बना।
तो वे विद्या में पूर्णता को प्राप्त हो गये। पुलस्त्य ऋषि महाराज, यह जो पुलस्त्य गोत्र है इसमें परम्परागतों से ही, इस
विद्या की उद्बुद्धता के ऊपर अधिपथ्य रहा है, और उन्होंने
बहुत अनुसन्धान किया। अनुसन्धानवेत्ता ही इस संसार में, महानता
को प्राप्त होते रहे है। क्योंकि हमारे यहाँ जब यह विद्या अध्ययन कर ली, अध्ययन में कुछ समय हो
गया, तो
वरुण का मन एक समय गुरु पत्नी को दृष्टिपात करके, चंचलता को
प्राप्त हुआ। उस चंचलता को, उन्होंने
अपने ज्ञान-विज्ञान उसे शान्त कर दिया। परिणाम क्या शब्द ही महाशाप बना जीवन में।
जब महान शाप, अपश्रात बनता है, मानव की
चंचलता से, चलता के भी कुछ प्रकार होते है। परन्तु एक चंचलता
आई, उसके बहुत अपश्रात बन जाते है। मानव के जीवन का, जो साहित्य होता है वह समाप्त होने लगता है।
महाराजा रावण की चंचलता
तो इन विद्यालय के
ब्रह्मचारियों ने विद्या अध्ययन कर ली, विद्या अध्ययन के पश्चात ब्रह्मा जी ने महात्मा पुलस्त्य जी को निमन्त्रित
किया और उन ब्रह्मचारियों के पिता मणिचन्द्र को भी निमन्त्रित किया और उनके
निमन्त्रण के अनुसार, वह विद्यालय में आये, तो विद्या में ब्रह्मचारी पारायण हो गये, पुलस्त्य
ऋषि महाराज बड़े प्रसन्न हुए,आचार्य के चरणों की वन्दना की,
और कहा-कि धन्य है प्रभु! आप ने हमारे वंश को पुनः से महान बनाया
है। परन्तु ब्रह्मा जी ने महात्मा पुलस्त्य से एक वाक् कहा-कि समय की प्रबलता इतनी
विशेषकर है, यह जो तुम्हारा जेठी पुत्र है, यह पुत्र मन का विशुद्ध नहीं है। यह मन का विशुद्ध नहीं बनेगा जीवन में।
उन्होंने कहा भगवन!
यह क्यों? उन्होंने कहा-क्यों, यह ब्रह्मचारी ऐसा है? इसके ऊपर तुम पुनः विचार
विनिमय करना। मैंने तो तुम्हें संकेत दे दिया है, इसके विचार
राजसी है, और राजसी विचारों में कोई महानता नहीं है। परन्तु
मेरे यहाँ तो विद्या दी जाती है, विद्याओं का प्रसार किया
जाता है। अब विद्या को कौन ब्रह्मचारी, किस प्रकार उसका
अध्ययन करता है, यह विषय आचार्यों का नहीं होता, यह विषय उनका होता है, जो उसको अध्ययन करता है। किस
दृष्टि से अध्ययन करता है। एक वेद के, वेद का पठन-पाठन करने
वाला किस दिशा में, अपने को ले जाता है। इस दिशा का आचार्य
वर्णन नहीं कर सकता। वेद के पठन-पाठन करने वाला भी, हृासता
को प्राप्त हो सकता है। परन्तु बहुत सूक्ष्म अध्ययन करने वाला भी महान बन सकता है।
यह वाक् उन्होंने
प्रगट किया और उन्होंने कहा इसी के आधार पर दोनों
ब्रह्मचारियों का जीवन महान बनेगा। परन्तु यह ब्रह्मचारी वैज्ञानिक बन करके, अपने को महान बनाता रहेगा। उनके गुणों
का वर्णन किया और उन्हें यह कहा-जाओ! ब्रह्मचारियों को तुम यहाँ से ले जाओ।
ब्रह्मा जी का दीक्षान्त उपदेश
दीक्षान्त समारोह
हुआ, ब्रह्मचारी पंक्तियाँ
लगा करके विद्यमान हो गएं और उस समय ब्रह्मा जी ने अपना दीक्षान्त एक उपदेश होता
है। वे दीक्षान्त उपदेश देने लगे, क्योंकि प्रत्येक मानव
अपने में, उऋण होना चाहता है। ब्रह्मा जी अपना उपदेश दे करके,
उऋण होना चाहते थे। उन्होंने उऋण होने के लिए, ब्रह्मचारियों की पंक्ति, विद्यमान है, और उन्होंने अपना दीक्षान्त उपदेश प्रारम्भ किया। हे ब्रह्मचारियो! हमारे
इस विद्यालय में, परम्परागतों से ही,
ब्रह्मचारियों को, शिक्षा और दीक्षा दी जाती है। दीक्षा का
जो माध्यम है वह, वेद की तरंगे हैं, जो
मानव प्रातःकालीन संध्या के गर्भ में जाता है जब रात्रि और दिवस दोनों का मिलान
होता है, इसी प्रकार तरंगों का और वेद की विद्या इन दोनों का
समन्वय होता हुआ, ब्रह्मचारियों! तुम्हारे हृदय में वह
प्रवेश करता है। उससे तुम्हारा ब्रह्मचर्यतव ऊर्ध्वा में गति करता है। क्योंकि
बिना साधना के ब्रह्मचर्य की आभा को कोई मानव एकत्रित नहीं कर सकता। क्योंकि
ब्रह्मचर्य को वहीं ऊंचा बना सकता है जो साधक होता है, जो
प्राण की गति के ऊपर, अपने को उसमें परिणत कर देता है,
जैसे हे ब्रह्मचारियो! मैंने दिशाओं की आभा और उसका ज्ञान विज्ञान
तुम्हें प्रगट कराया जैसे एक एक दिशा का देवता है, और वह
देवता भी एक सूत्र का देवता है। वह भी सूत्र में पिरोएं हुए है। जैसे तुम इस
देवताओं के सूत्र में, जैसे तुम्हारा जीवन देवताओं से पिरोया
हुआ है। एक ही देवता का भी कोई सूत्र है।
जीवन का दिशाओं से सम्बन्ध
दीक्षान्त उपदेश
देते हुए उन्होंने कहा कि पूर्व दिशा का देवता अग्नि है,दक्षिण दिशा का देवता इन्द्र है, और पश्चिम दिशा का देवता वरुण है और उत्तरायण का देवता सोम है और ध्रुवा
का देवता विष्णु है और ऊर्ध्वा का देवता बृहस्पति है। ऐसे ही ईशान कोण का देवता
सूर्य है, और दक्षिणाय का देवता अदिति है। इसी प्रकार पश्चिम
दिशा की कोण का देवता मेध है और उदीची का, सोम का, देवता ज्ञान है और यह दस दिशा कहलाई जाती है। परन्तु यह जो हमारा मानवीय
जीवन है, इससे इन दिशाओं का बहुत विशेष घनिष्ट सम्बन्ध रहता
है क्योंकि जब हम पूर्व में अपने जीवन को ले जाते है तो हम प्रकाश में होते हैं।
दक्षिणाय में ले जाते है तो अन्धकार से प्रकाश में ले
जाते है,तो कुबेर बनते है, और जब उत्तरायण में जाते है तो सोम, ज्ञान, विवेकी बन जाते है। इसी प्रकार ध्रुवा में
जाते है तो खनिज के स्वामी बन करके, हम विष्णु को दृष्टिपात
करते है। ऊर्ध्वा में जाते है तो बृहस्पति को दृष्टिपात करते है। इसलिए जब मानव इस
विद्या को जान लेता है,तो पाप
कर्म करने का अधिकार उसे मिलता ही नहीं। क्योंकि जहाँ उसका मन जाता है वहीं देवता
विद्यमान होता है। परन्तु हे ब्रह्मचारियों! इस विद्या का भी कोई, दस देवता है, दस
दिशाएं है इनका भी कोई सूत्र है। जैसे तुम्हारा जीवन इनमें पिरोया हुआ है, ऐसे ही यह भी किसी में पिरोई हुई है। जैसे इन देवताओं का, एक शरीर है, ऐसे ही यह भी किसी के परिणाम है।
ब्रह्मा ने कहा- यह
जो तुम्हे दृष्टिपात आ रहे है देवता, इन दिशाओं का कोई सूत्र है और जो सूत्र है वही ब्रह्म है। यह चक्र चल रहा
है। प्राण ही सूत्र है। एक-एक परमाणु में, प्राण परिणत हो
रहा है। यहाँ प्राण एक सूत्र रूप में स्वीकार किया। द्वितीय उन्होंने एक अध्याय के
पश्चात दूसरा विषय उन्होंने प्रारम्भ किया हे ब्रह्मचारियों! जैसे कर्मकाण्ड की,
नाना प्रकार के यागों की चर्चा आती है। इनका भी कोई सूत्र है। जैसे
यह याग किसी का शरीर है, ऐसे ही जैसे याग हमारा शरीर है,
और जिसका याग शरीर बन रहा है जो भी किसी का, शरीर
है वह भी किसी का आयतन माना गया है। परन्तु जैसे यह ब्रह्माण्ड, इस संसार का है, इसी प्रकार ब्रह्माण्ड भी किसी का
आयतन वाला, वह ब्रह्म कहलाता है। वे परमपिता परमात्मा कहलाता
है। उसका वही सूत्र बन करके संसार को अपने में पिरो रहा है।
द्वितीय उन्होंने
कर्मकाण्ड की आभा को परिणत किया। जब तृतीय विषय उन्होंने प्रारम्भ किया तो
उन्होंने कहा-हे ब्रह्मचारी! यह जो तुम्हें विज्ञानमय संसार दृष्टिपात आ रहा है,नाना निहारिकाओं वाला ब्रह्माण्ड है
एक-एक निहारिकाओं के लोकों की तुम गणना करने लगोगे,तो तुम्हारा
जीवन ही व्यतीत हो जाएगा और अन्त में तुम मौन हो जाओगे। क्योंकि तुम्हें जहाँ मैं
यह उपदेश देता हूँ, विद्यालयों में, तुमने
यह सब दृष्टिपात किया, इन कक्षों में जहाँ उपदेश शाला है,
वहाँ विज्ञानशाला भी है। जहाँ विज्ञानशाला है, वहाँ नाना प्रकार के यन्त्र विद्यमान है। और वह यन्त्र उन्हें लोकों की
आभायें हमें दृष्टिपात आती है जब सूर्य कहाँ-कहाँ, क्या-क्या
करता है उसकी छाया, इन वैज्ञानिक यन्त्रों में आती है। लोक
लोकान्तर निहारिका है, जितनी निहारिकाओं के चित्र, यन्त्र में आते है।
विशाल यन्त्रशाला
तुम्हें प्रतीत है
यह यन्त्र कहाँ से लाए गये? महाराजा
सोमकेतु दद्दड मुनि महाराज ने, अपनी विज्ञानशाला में,
वैज्ञानिको को अपनी आभा प्रकट करके उन्होंने यन्त्रों को जाना और
एक-एक यन्त्र में दस-दस निहारिकाओं का दिग्दर्शन होता है और एक निहारिका जिसे हम
एक आकाश गंगा कहते है, उस एक आकाश गंगा के मानो पृथ्वियों का
जब गणित करने लगे, तो पृथ्वियाँ अनगणित हो गई। एक-एक
निहारिका में इतनी पृथ्वियाँ है, एक-एक निहारिका में गणना
नहीं कर सकते। सूर्यों की, बृहस्पति की, इसी प्रकार ध्रुव मण्डल है।
इसी प्रकार एक समय
महाराजा सोमकेतु ने गणना की, तो उन्होंने जब गणना करते-करते एक ध्रुव की गणना करने लगे, ध्रुव मण्डल की, तो एक निहारिका में चार खरब के लगभग
उन्होंने ध्रुवों की गणना की और अन्त में वे मौन हो गये। तो इसमें चार खरब विशेष
निहारिका में ध्रुव मण्डल जैसे मण्डल है जिनमें लगभग सहस्रों सूर्य समाहित हो जाते
है ऐसा मण्डल है। तो ऐसी निहारिका, सोमकेतु मुनि की यन्त्र
शालाओं में दस निहारिकाओं के चित्र उन्हें दृष्टिपात आते थे। तो हम, इन निहारिकाओं के सम्बन्ध में या इन लोकों के सम्बन्ध में बहुत विचार करने
से प्रतीत होता है कि अनन्त वाला, यह ब्रह्माण्ड है।
ब्रह्मचारी
तो ब्रह्मा जी ने
कहा कि हे ब्रह्मचारियों! यह दीक्षान्त भाषण इसलिए दे रहा हूँ, तुम्हें, क्योंकि
तुमने इस विद्या को अध्ययन किया है, इस विद्यालय में,
इस विद्या को तुम सुरक्षित और विद्या का सदुपयोग करो और ब्रह्मचर्य
में रह करके, अपने जीवन को व्यतीत करो। ब्रह्मचर्य की
बहुत-सी मीमांसा ऋषि-मुनियों ने की है। परन्तु ब्रह्मचर्य की एक ही मीमांसा है,
क्या अपने श्वास को सूत्र में पिरोने का नाम ब्रह्मचारी है। किस
सूत्र में, अपने श्वास में पिरोने का नाम एक, ब्रह्मचर्यवत कहलाता है। ऐसा क्यों कहा ऋषियों ने? यन्त्रों
में यह दृष्टिपात हुआ है। अब यह वेद से भी सिद्ध होता है और यह वैज्ञानिक यन्त्रों
से भी सिद्ध हुआ ऋषि-मुनियों को, कि मानव का यह जो श्वास गति
करता है, इस श्वास के साथ में अन्तरिक्ष में एक चित्र बनता है। एक-एक श्वास के साथ
में मानव का जो श्वास है, उस
मानव का, उतने आकार का एक चित्र बन करके अन्तरिक्ष में चला
जाता है।- -२२-०१-१९८२ अमृतसर
3 २३-०१-१९८२
हमने पूर्व से, जिन वेद मन्त्रों का
पठन-पाठन किया हमारे यहाँ, परम्परागतों से ही, उस मनोहर वेदवाणी का प्रसारण होता होता है जिस पवित्र वेदवाणी में उस देव
की महिमा का गुणगान गाया जाता है, जो देव इस संसार की आभा में रमण कर रहा है, जिसका
यह संसार, आयतन माना गया है, प्रत्येक वेदमन्त्र, उस देव के विज्ञान और ज्ञान की
चर्चा कर रहा है। करता ही रहता है। क्योंकि एक-एक वेदमन्त्र के ऊपर हम महिमा का
वर्णन करते रहते है, आज के हमारे वेद के पठन पाठन में, उस महान ब्रह्म की चर्चाएं
हो रही थी, जिस ब्रह्म ने एक-एक परमाणु के लिए, भरण करने के लिए, मानो उनको स्थान
दिया माता के शरीर में, जब परमाणुओं का सम्मिलन होता है, तो उनको उचित स्थान मेरे
देव ने दिया। परन्तु वह गति कर रहा है माता उन परमाणुओं को दृष्टिपात करने से, और
जो क्रिया हो रही है उससे माता प्रायः वंचित रहती है, उसे वह दृष्टिपात नहीं आता।
क्योंकि रचनाकार कोई ओर है,
स्थान तो द्वितीय है,परन्तु माता तो स्थान है, और रचयिता मेरा प्यारा प्रभु है।
स्थान का भी प्रतीत नहीं होता। परन्तु वह स्थान भी माता को प्रतीत नहीं होता कौन
स्थली है। किस रंग रूप वाली स्थली है परन्तु उस स्थली वाले निर्माणवेत्ता वह जो
विश्वकर्त्ता बन करके उस एक एक स्थली को गति प्रदान कर रहा है, जड़वत में भी और
चैतन्यवत में भी उसकी आभा दृष्टिपात आती है। जब मानव चिन्तनवेत्ता बन जाता है
चिन्तन करने लगता है प्रत्येक वेदमन्त्र में उस मानव के जीवन में पुष्प जैसे पुष्प
मानो वायु में, अपनी युवा में सुन्दर प्रतीत होता है, इसी प्रकार उस चिन्तन से,
हृदय में, ऐसे पुष्प मानो सौन्दर्यता, उसकी वाणी में सजातीय हो जाती है। तो प्रभु
का जो ज्ञान और विज्ञानमयी यह जो जगत, एक-एक स्थली ऐसी है, जिसके ऊपर चिन्तन करने
से, मानव को विवेक उत्पन्न होता है,और विवेक में ही परिणत हो करके, प्रभु के
राष्ट्र में, वह गमन कर रहा है प्रभु के राष्ट्र में जब वह गमन करता है, तो मेरे
प्यारे! उसके जीवन में रात्रि भी नहीं होती, क्योंकि प्रभु के राष्ट्र में, सदैव
प्रकाश रहता है। और प्रभु के राष्ट्र में जाने वाले प्राणी के जीवन में, प्रमाद
नहीं होता, आलस्य नहीं होता, परन्तु रात्रि नहीं होती, तो बे वह सदैव प्रकाश में रमण करता रहता है। तो मैं इस साधना के क्षेत्रों में,
तुम्हें ले जाने नहीं आया हूँ। केवल परिचय देना है, वेद का मन्त्र, हमें क्या-क्या
कहता है, उससे हमें नाना प्रकार की प्रेरणाएं प्राप्त होती रहती है, जिस प्रेरणा
के सूत्र में कटिबद्ध हो करके, मानव अपना क्रियाकलाप करता रहता है।
तो आज इससे पूर्व कालों की चर्चाएं, आज का वेदमन्त्र तो
बहुत कुछ कह रहा है गौ रस का वर्णन कर रहा है, गौ रसो को पान करना चाहिए, प्राणी
को, वेद का मन्त्र जहाँ माता की महिमा का वर्णन कर रहा है, माता को वसुन्धरा के
रूप में परिणत कर रहा है, हे मां! तू वसुन्धरा है। तेरे में ही हम वशीभूत रहते है,
इसीलिए जैसे यह जननी माता है,उसके गर्भ से पृथक हुए,तो वह जो प्रभु आनन्दमयी माता
है,उसके गर्भ में प्रवेश हो गएं और वह जो संसार है यह उस चैतन्य वह माता का
गर्भाशय कहलाता है, इसके गर्भ में हम सब वशीभूत रहते है, और उससे नाना प्रकार की
सहायता लेते रहते है और जीवन का उपार्जन करते रहते है, उस मेरी प्यारी माता ने,
सृष्टि के प्रारम्भ में ही, इस मानव जीवन के लिए, नाना प्रकार के खाद्य और खनिज
पदार्थो का निर्णय किया और उसी खाद्य खनिज पदार्थों के द्वारा ही यह मानव अपने को
सौभाग्यशाली स्वीकार करता है। आपो ज्योति प्रभु ने कैसी अमूल्य वस्तु प्रदान की
है, जिससे मानव का जीवन संचालित हो रहा है, हे मानव! तू इसके गर्भ में रहता हुआ,
उस माता की अवहेलना न कर, यदि माता ने तेरी अवहेलना कर दी, तू अपंग बन जाएगा।
बुद्धि तुझे ऐसी महान दी है, कि इसके ऊपर तू मन्थन करता रह, चंचलता को त्याग करके
मानवीयता में गम्भीर क्षेत्र में, तू अपने को ले चल, जहाँ तुझे आनन्द और सुखद की
प्राप्ति उसी काल में होगी जहां माता की लोरियां तुझे प्राप्त हो जाएगी। जैसे माता
का पुत्र क्षुधा से पीड़ित हुआ, व्याकुल हो रहा है, रूदन कर रहा है, परन्तु माता अपनी लोरियों का पान करा देती है तो बालक श्यन
करने लगता है, इसी प्रकार हे मानव! तू संसार में रूदन करता रहता है, व्याकुल होता रहता है, परन्तु जब तक तुझे ये चैतन्य माता
की लोरियां प्राप्त नहीं होती, तब तक रूदन ही
करता रहता है। आज यह कुछ वेद के मन्त्रों का कुछ आशय है कि आज हम अपनी माता के
द्वार पर चले, जिस माता ने हमें, सर्वत्रतव प्रदान कर दिया है माता बालक की
अवहेलना नहीं करती, बाल्य वास्तव में इस आभा में रमण करके उसकी अवहेलना कर देता
है। यदि माता उसकी अवहेलना कर देती है। तो वह नहीं रह पाता, परन्तु उसका रूप
स्वरूप प्रतिद्वन्द बन जाता है। तो विचार-विनिमय क्या आज हम अपने प्यारे प्रभु के
द्वारा पर जो का प्रयास करें। इससे पूर्व शब्दों में, हम तुम्हें त्रेता काल की
विद्यालयों की चर्चाएं करते है, कि उस काल में किस प्रकार का विद्यालय और आचार्य
और शिष्य दोनों की प्रतिभा, किस प्रकार रही है। इसी प्रकार, साहित्य को जब हम
पृष्ठों को ले करके चलते है, तो उनके राजाओं को और गुरुओं का जो जीवन है,वह कितना
परिमार्जित कहलाता है क्योंकि आगे चल करके मानव के जीवन की, शारीरिक व्यवस्थाएं
बनती है, जबकि वह अपने जीवन में क्रियाकलाप में वह परिणत होता है। समाज के संसर्ग
में आता है।
तो महात्मा पुलस्त्य ऋषि महाराज अपने पुत्रों को ले करके और
उनका गृह में प्रवेश हुआ,हमने तुम्हें पुरातन काल में कहा है जब विद्यालय से,
ब्रह्मचारी गृह में पवेश करता है तो माता-पिता उसे ब्रह्म भोज की आभा में ले जाते
ह उनका विशेष अन्न विशेष उनका स्वागत करता है क्योंकि उसका विद्यालय से, गृह में
आने का उसके जीवन का परिवर्तन सा हुआ है। तो महात्मा पुलस्त्य ऋषि महाराज और उनके
पुत्र मणीचन्द्र और उनकी धर्मदेवी सुखमांजलि वह
उनका स्वागत करते रहे। और माता ने उन्हें कण्ठ से आरूढ़ किया और उन्होंने उन्हें
आशीर्वाद भी दिया। पंक्ति में माता ने भोज कराया, भोजन कराते हुए, माता जब पुत्र
को भोजन कराती है, तो गायत्री छन्दों के सुरों की ध्वनियां देती रहती है। क्योंकि
उससे वह बालक उन तरंगों में ओत-प्रोत हो जाता
है। जो माता उसे मन्त्र में त्याग देती है, और तपस्या की आभा देती है, उससे अन्नाद
में जो तरंगे पहुंचती है,उन तरंगों से ही मानव के जीवन का निर्माण होता है।
तो माता ने बडे
स्नेहयुक्त उन ब्रह्मचारियों को जिनका ओज और तेज महान था। तो माता अपनी स्थलियों
पर विद्यमान हो करके,यह उच्चारण करने लगी कि-हे
ब्रह्मचारियों! तुमने क्या-क्या अध्ययन किया है? क्योंकि माता तो विदुषी और
विद्वान होती है, जिन माताओं में अज्ञान होता है, वह माता अपने पुत्र से क्या
प्रश्न कर सकती है। परन्तु जो विदुषी होती है, जिनका अध्ययन माताओं का विचित्र
होता है, वह अपने ब्रह्मचारियों से भिन्न प्रकार के प्रश्न करती है। तो तीनों ने
अपने स्वरों में कहा-हे माता! हमने उस विद्या का
अध्ययन किया है, जिस विद्या का तुमने हमें उपदेश दिया। माता, हमने विज्ञान काण्ड को भी जाना है,पूर्ण रूप से तो नहीं
जाना,क्योंकि प्रभु तो अनन्त है,उसका ज्ञान विज्ञान भी अनन्त है,परन्तु जितना
हमारे शरीरों को,हमारे मनों को आवश्यकता हैं उतनी
विद्या का हमने अध्ययन किया है। परन्तु कर्म काण्ड को भी उतना ही जाना है। क्योंकि
तीनों ब्रह्मचारी ज्ञान काण्ड और कर्मकाण्ड और ज्ञान काण्ड में रत्त होते है। माता
ने कहा कि यह तो ब्रह्मचारियों! रूचियां होती है कि कोई कर्मकाण्ड में रूचि और कोई
विज्ञान में, और कोई ज्ञान में ब्रह्मचारियों ने कहा कि माता यथार्थ है, कि
हमारी जो प्रत्येक ब्रह्मचारी की जो एक धाराएं है, एक ही धारा विज्ञानमयी है एक ही
धाराएं ज्ञान विवेकयुक्त है। और एक ही धारा विज्ञान में कर्म काण्ड में ये
तीनों की भिन्न-भिन्न प्रकार की धाराएं हैं,माता
प्रसन्न हो गई। माता ने प्रसन्न हो करके कहा धन्य है पुत्रों! तो अपने कक्ष में
अध्ययन करते रहे, परन्तु रात्रि का जब समय हुआ, तो पति पत्नी स्थलियों पर विद्यमान
हो गएं महात्मा पुलस्त्य ऋषि महाराज को उपस्थित करते हुए उन्होंने सारे तथ्य बताए
पूज्य महानन्द जीः उन्हें प्रगट कराए कितना विशाल मानो
प्रभु का जगत मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ने वर्णन कराया मानो आधुनिक काल का वैज्ञानिक
यह कहता है, क्या तेरह लाख पृथ्वी एक सूर्य में समाहित, जब पृथ्वी का अनुमान
प्राप्त करने वाले है। क्या कितनी
पृथ्वियां है जो सूर्य की परिक्रमा कर रही है। आज जब वेदोक्त
मन्त्रों के ऊपर विचार विनिमय करना है, और शान्त मुद्रा से विचारता है तो उसे यह
प्रतीत होगा कि कितना प्रभु का मण्डल है कितना यह अमूल्य विज्ञानमयी जगत है। आज
मैं इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा यह बहुत भयंकर वन में चला गया हूँ। पूज्यपाद
गुरुदेव ने बहुत-सी व्याख्या कर चुके है, आज मैं तो केवल इतना उच्चारण करने आया
हूं मैं तो वन में चला गया हूँ मेरे प्रभु की चर्चाएं वर्षो तक ईश्वर की चर्चा
करता रहू। इतना विशाल वन है ये आज तो केवल मैं तुलनात्मक चर्चा कर रहा हूँ, क्या
मानव की क्या तुलना है क्या यह प्रारम्भ में आधुनिक काल का जो जगत है आधुनिक काल
में अपने को समाप्त करने के लिए तत्पर हो रहा है अरे, जब वर्षो के विज्ञान को
जाएगा, हो सकता है यह आज का प्राणी कल्पना भी नहीं कर सकता। आज मैं यह उच्चारण
करने के लिए आया हूँ, क्या मानव में विज्ञान होना चाहिए, और विज्ञान के साथ में
चरित्र होना चाहिए। राजा को अपने राष्ट्र को ऊँचा बनाना है, तो जितने भी शब्द
वाहिनी यन्त्र, जितने भी चित्रावली यन्त्र है। इनमें ऋषि मुनियों के चरित्र आने चाहिए, और जब इनमें
ऋषि-मुनियों के चरित्र, मेरी प्यारी माताओं के चरित्र आयेंगे माता मल्दालसा और
गार्गी इत्यादियों के चरित्र आयेंगे तो यह समाज मानो पुनः से चरित्र की आभा में आ
सकता है।
आधुनिक काल का
चित्रावली यन्त्रवेत्ता कहता है हमने कितना विकास किया है, परन्तु चलो भारद्वाज की
विज्ञानशाला में भारद्वाज की चित्रशाला में और भारद्वाज के यहाँ एक यन्त्र था,जो
पूज्यपाद गुरुदेव ने वर्णन कराया है, एक यन्त्र तो आधुनिक काल का वैज्ञानिक
प्रमाणिक कर सका है, क्या जैसे मानव एक स्थली पर विद्यमान है, उसके प्रस्थान करने
के पश्चात् उस मानव का चित्र ले लेता है। आधुनिक काल में यन्त्र का निर्माण हुआ,
परन्तु पुरातन काल में ढ़ाई घड़ी के पश्चात् भी उस मानव का चित्र लिया जाता था।
परन्तु रक्त का बिन्दु है, एक रक्त के बिन्दु में ऐसी चित्रावलियाँ थी, उस काल में
भारद्वाज की शाला में क्या एक रक्त का बिन्दु कही प्राप्त हो जाए। वह प्राणी संसार
में है अथवा नहीं है उसका निधन हो गया है चाहे सहस्रो वर्षों के ऊपर निधन क्यों न
हो गया हो परन्तु उस चित्रावली में उस यन्त्र में एक रक्त के बिन्दु से मानव का
साक्षात्कार चित्र आता था। जिस मानव का रक्त का बिन्दु है, अब तक विज्ञान उस आभा
पर नहीं पहुंच पाया, परन्तु देखो, उसके पश्चात् अग्र दण्डे तो एक विज्ञान है, एक यन्त्रावली है, उस यन्त्र
में जैसे मानव शब्दों का उच्चारण कर रहा है, शब्द जा रहे है, और उन शब्दों के साथ
में चित्र जाते है। परन्तु आज कोई विशेष
स्थान है, उस काल कहीं भी मानव शब्द उच्चारण कर रहा है, उसी शब्द में देखो,
उसको लेना चाहता है। पिच्चासी प्रकार से शब्दों के वाहिनी यन्त्रों
का निर्माण था। जिसमें मानव के चित्र द्यौ लोक को जाते प्रतीत होते थे। अन्तरिक्ष
लोकों में जाते प्रतीत होते थे, उसके पश्चात् भारद्वाज के यहाँ एक यन्त्र शाला ऐसी
थी क्या जो यन्त्र वायुमण्डल में गति कर रहा है, और नीचे यन्त्र में उसके चित्र आ
रहे है, वह जो तीन प्रकार की वायु है, जैसे मानव के शब्द है, रजोगुणी, सतोगुणी, तमोगुणी यह शब्द तो वायुमण्डल में ओत-प्रोत हो जाते है, और जब वह
ओत-प्रोत होते है। उस यन्त्र में वह छाया आ रही है, शब्दों की परन्तु यन्त्र की वह जो स्वतः ही वायु शब्दों का विभाजन
कर रही है। प्राणी मात्र के शब्दों का और शब्दों का आकार बन करके उन्हीं का
भारद्वाज की विज्ञानशाला में यन्त्र में रहा है। परन्तु आधुनिक काल के वैज्ञानिकों
को इतना भी प्रतीत नहीं है, परन्तु स्वप्नवत भी नहीं है, अभी क्या वायुमण्डल में
शब्दों का विभाजन हो रहा है। कुछ शब्द द्यौ लोक को जा रहे कुछ वायुमण्डल में
ओत-प्रोत हो रहे है कुछ द्यौ में छा रहे है। उन्हीं के कारण, अतिवृष्टि अनावृष्टि उत्पन्न होती है।
वह विज्ञान
पराकाष्ठा पर चला गया। परन्तु इस विज्ञान में, उस विज्ञान में इतना अन्तर्द्वन्द्व
था, क्या मानव उसमें चरित्र
था,चरित्र की आभा समाप्त होने जा रही है। इतना अन्तर्द्वन्द्व
है परन्तु यह भी कोई महापुरुष आयेगा,कितना ऊर्ध्वा गति में
आयेगा परन्तु वह चरित्र के ऊपर भी, विचार-विनिमय करेगा। ऐसा वाक् तो नहीं है, क्या
नहीं करेगा। परन्तु अवश्य
होगा। राष्ट्र में एक मानवता की और इन वाक्यों के ऊपर विज्ञान के ऊपर चिन्तन और
मनन होना चाहिए मननशील प्राणी ही राष्ट्र को, समाज को विज्ञान की और मानव को ऊँचा
बनाता है,
4 ०२-०२-१९८२-राजा रावण का राष्ट्र
राजा रावण के पुत्र
मैं जब त्रेताकाल
के साहित्य में जाने लगता हूँ तो हमें ऐसा प्रतीत होता है कि मानव, राष्ट्र और समाज को कितना चरित्र दे
सकता है। राजा रावण के राष्ट्र में एक महानता की उज्ज्वलता की धाराएँ परिणित होती
रही है,क्योंकि राजा रावण के यहाँ
चार राज कुमार हुए। सबसे जेठे पुत्र का नाम अहिरावण नाम से उच्चारण किया गया।
द्वितीय पुत्र का नाम मेघनाद जी कहते थे। और नारान्तक और अक्षयकुमार, ये चार पुत्र थे। परन्तु एक पुत्र
महाराजा कुम्भकरण के था,जिसका
नामोंकरण सुनेतकेतु कहलाता था। दो पुत्र विभीषण के थे जिनका नामोंकरण स्वाति और
त्रेतकेतु था। ये सातों राजकुमार विद्यालयों में जब शिक्षा अध्ययन करते रहते थे।
क्योंकि मुझे स्मरण है लंका में ऐसे ऐसे ऊँचे विश्वविद्यालय थे, यहाँ विज्ञान की उड़ान उड़ने वाले ऊँचे से
ऊँचा वैज्ञानिक रहता था। एक ऐसा भी विश्वविद्यालय था जिसमें आयुर्वेद हृदय
चिकित्सा, मानवीय चिकित्सा का निर्माण होता रहता था। जिस
विद्यालय में महात्मा भुंजू मुनि के
दोनों पुत्र अश्विनी कुमार शिक्षा देते रहते थे। और जो विज्ञान में, उड़ान उड़ने वाले विज्ञानशालाएँ
विश्वविद्यालयों में रहती कुम्भकरण जी उस विश्वविद्यालय के अध्यक्ष कहलाते थे।
क्योंकि त्रेता के काल में महाराजा कुम्भकरण से ऊँचा वैज्ञानिक नहीं था। जिसकी
विज्ञान में महानता रमण करती रही है।
विद्यालय का सूत्र
एक समय महाराजा
कुम्भकरण विश्वविद्यालय में शिक्षा दे रहे थे। राजा रावण के और अपने सर्वत्र पुत्र
वहाँ शिक्षा अध्ययन करते थे। एक समय,महाराजा कुम्भकरण जी से एक प्रश्न किया गया। तो वे प्रश्न अहिरामकेतु ने
किया ओर उन्होंने कहा प्रभु! ये जो हमारा विद्यालय है, इस
विद्यालय का सूत्र क्या है? तो बड़ा आश्चर्य का प्रश्न था,
ब्रह्मचारी, आचार्य से विद्यालय के सूत्र का
प्रश्न कर रहा है। तो उन्होंने ये कहा-भई! श्वानतकेतु महाराज भी जो उसी
विश्वविद्यालय में शिक्षा देते थे। श्वानतकेतु दद्दडीय गोत्रीय कहलाते थे।
श्वानतकेतु उनके द्वार पर आए,और कहा-हे ब्रह्मचारी! तुम ये
प्रश्न आध्यात्मिकवाद में चाहते हो,या विज्ञान में चाहते हो।
तो जब ऋषि ने ऐसा कहा तो ब्रह्मचारी ने कहा-मैं दोनों विषयों के सूत्र को जानना
चाहता हूँ? तो उन्होंने कहा कि इस विश्वविद्यालय का जो सूत्र
है वो विज्ञान हैं। परन्तु आध्यात्मिकवाद का एक ही सूत्र है जिसे नैतिकता कहते हैं।
नैतिकता के गर्भ में भी चरित्र की तरंगे रमण कर रही है और विज्ञान में भी एक ब्रह्मवर्चोसि गति कर रहा है तो ये दोनों
प्रश्न बड़े विचित्र थे। ब्रह्मवर्चोसि किसे कहते है और आध्यात्मिकवाद में
चारित्रिक अस्सुतम जो नैतिकता हैं वो क्या है? तो इसमें
विश्व-विद्यालयों के आचार्यों ने ब्रह्मचारियों को निर्णय कराया। उन्होंने कहा-कि
जो मानव नैतिकता में रहता है। नैतिकवादी जो प्राणी है,उससे आत्मा का उत्थान होता है। और जो विश्वविद्यालयों
में ब्र्रह्मवर्चोसि जो एकोकी जो ब्रह्मवर्चो है उसे विज्ञान कहते है। विज्ञान
कहते हैं, ब्रह्मवर्चोसि
कहते है जो एक-एक सूत्र ब्रह्म की तरंगों में पिरोया हुआ है और ब्रह्म की तरंगों
में पिरोए हुए होने के नाते उसे ब्रह्मवर्चोसि कहते हैं।
नैतिकता
तो दोनों वाद एक
ब्रह्मचारियों का विषय बन गया है। ब्रह्मचारियों ने कहा-महाराज! नैतिकता किसे कहते
है? और ब्रह्मवर्चोसि की
सूक्ष्म व्याख्या क्या है? तो विद्यालयों में गुरुजनों ने
कहा, कि नैतिकता उसे कहते है कि मानव अपने शरीर को निर्माण
सहित जानने वाला। जैसे मानव का शरीर है, ब्रह्मचारी से यह
प्रश्न किया जाए,जो विद्यालयों में अध्ययन कर रहा है चाहे वह
पुत्र है, या पुत्री है, परन्तु वह
अध्ययन कर रहा है। तो उससे यह प्रश्न किया जाए, कि तुम्हारा
यह शरीर क्या है? तो शारीरिक जितनी प्रतिक्रियाएँ है इनके
निर्णय होने का नाम यह नैतिकवाद कहलाता है, उसे नैतिकता कहते
हैं। मानव के नेत्रो का क्या कार्य है? चक्षुओं का देवता कौन
है? श्रोत्रों का देवता कौन है? घ्राणेन्द्रिय
का देवता कौन है? प्रत्येक इन्द्रियों के पूर्ण स्वरूप को और,
उप-स्वरूप को जानने का नाम नैतिकता कहलाता है।
जब मेरी प्यारी
माता अपनी लोरियों में बालक को अब्रत कराती है तो उस समय ये ज्ञान माता दे देती
है। जिस समय लंका में राजा रावण के यहाँ महारानी मंदोदरी बहुत बुद्धिमान थी। वेदों
का अध्ययन करती रहती थी। अपने गर्भस्थल में ही बालक को नैतिकता की शिक्षा देती
रहती थी। नैतिकता क्या है? माता
अपनी लोरियों का पान करा रही है बालक के श्रोत्रों में यह वाक् उच्चारण कर रही है,
हे बालक! हे गर्भस्थल में होने वाले बालक, ये जो तेरा क्षेत्र है संसार, यह प्रभु की एक प्रतिभा है। इसके ऊपर
चिन्तन करना रूप के ऊपर, शब्दों के ऊपर, शब्दों की कितनी ऊर्ध्वागति होती है। और रूप में क्या वस्तु विराजमान है।
कितनी विभक्त क्रिया है स्वरूप और नामों में परिणित हो रही है। तो वह माता अपनी
लोरियों का पान कराती हुई और वह उसे शिक्षा देती रहती थी तो सर्वत्र नैतिकवाद माता
के गर्भस्थल में और लोरियों का पान करने वाले बालक में माता भरण कर देती थी। तो
माता का कर्तव्य है कि उसके शृंगार और उसकी उज्ज्वलता उसी काल में हो सकी, जब उसके गर्भस्थल से ऊँचे और महान पुत्रों का जन्म होता। आहार और व्यवहार
की शिक्षा भी माता-पिता जैसा चलन करते है। वैसा उनका आहार और व्यवहार बन जाता है।
तो ये सातों
ब्रह्मचारी विश्वविद्यालय में जब भी परीक्षा होती तो कुछ विद्यार्थियों से प्रथम
आते,
कुछ से द्वितीय आते, इसी प्रकार उनकी शिक्षा
का क्रियाकलाप चलता रहता।,महाराजा कुम्भकरण की यह दशा थी,कि वो विज्ञान में रत्त रहते थे। वे एक समय
छह माह के लिए महर्षि भारद्वाज मुनि के
आश्रम को चले गए। महर्षि भारद्वाज मुनि के आश्रम में, ओर भी नाना ब्रह्मचारी थे। परन्तु एक ब्रह्मचारी ऐसा था,जो शिक्षा का अध्ययन करता हुआ हमारे यहाँ कई प्रकार की
ब्रह्मचर्य की श्रेणियाँ होती है। वो एक अद्वास श्रेणी का ब्रह्मचारी था। पुत्र
होते हुए भी उन्हें उस समय ब्रह्मवर्चोसि कहते थे। विश्वविद्यालय में नाम भी उनका
वर्चोसि ही कहलाता था। भारद्वाज मुनि भी उन्हें वर्चोसि कहते थे। भारद्वाज की
विज्ञानशाला में ब्रह्मचारिणी शबरी, ब्रह्मचारी सुकेता, ब्रह्मचारी रोहिणीकेतु और ये
वर्चोसि कुछ ब्रह्मचारी ऐसे थे जो विज्ञान में तल्लीन रहते है। विज्ञान की उड़ान
उड़ते रहते थे। विज्ञान क्या है? विज्ञान है कि मानव को
प्रत्येक वस्तु पर अनुशासन करना और उस अनुशासन में जो तरंगे उत्पन्न होती हैं। उन
तरंगों को उद्बुद्ध करके उनका यंत्रो में साकार रूप बना करके प्रत्यक्ष करना उसका
नाम विज्ञान कहलाता है। विज्ञान में वो रत्त रहते, एक समक्ष वर्चोसि
विश्वविद्यालय में भारद्वाज की विज्ञानशाला में निद्रा को जीतने वाले थे।
वैज्ञानिक महाराजा कुम्भकरण
मुझे स्मरण है
महाराजा कुम्भकरण का जो आहार था वो कितना प्रिय था। महाराजा कुम्भकरण का आहार गो
दुग्ध का आहार लेते, कुछ
वनस्पतियों का पान करते थे कुछ वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर, कुछ वृक्षों का पञ्चांग ले करके, वो अपनी बुद्धि को
वर्चोसि बनाते रहते थे। तो मेरे प्यारे महानन्द जी ने मुझे ऐसा प्रकट कराया,
वर्तमान का काल ऐसा स्वीकार करता है कि महाराजा कुम्भकरण मांस का
भक्षण करते थे,परन्तु यह बहुत अशुद्ध वाक् है क्योंकि वो एक
ऐसा विचित्र पुरुष था,जो गऊँओं
के चरणों को स्पर्श करके प्रातः कालीन,उसको
नमस्कार करते थे और नमस्कार करके उस गऊ के दुग्ध और घृत का पान करते थे, अन्नाद के द्वारा। तो महान पवित्र आहार
उनका रहता था। उनके द्वारा विज्ञान की आभाएँ नृत्त करती रहती थी। विज्ञान में वो
रत्त रहते थे। छह माह तक वो एक समय हिमालय
में अनुसंधान करते रहे। अनुसंधान करते रहे कि इन पर्वतों के गर्भ में क्या-क्या
वस्तु विद्यमान है? खनिज और खाद्य को विचार, उसका साकार रूप देते रहते। तो वे छह
माह तक हिमालय में वो प्रत्येक तत्त्व पर अनुसंधान करते रहते थे। छह माह तक वो विद्यालयों में जाते, लंका में विश्वविद्यालयों में शिक्षा देते रहते। विज्ञान, राजा रावण के काल में महाराजा कुम्भकरण से ऊर्ध्वा में वैज्ञानिक, कोई था ही नहीं।
तो एक समय, महाराजा कुम्भकरण ने अपने पुत्रों! से,
ब्रह्मचारियों से कहा कि कोई क्रियात्मक कर्म किया जाए। तो उन्होंने
सबसे प्रथम भारद्वाज की विज्ञानशाला से एक समय महर्षि भारद्वाज को निमन्त्रण दिया।
और महर्षि भारद्वाज, विश्वविद्यालय में आए। तो महाराजा
कुम्भकरण, रावण और विभीषण और तीनों ने आ करके भारद्वाज के
चरणों को स्पर्श किया और चरणों को स्पर्श करके कहा कि महाराज! ये हमारे सात
राजकुमार है राजकुमार कहलाते हैं इनमें विज्ञान होना चाहिए, ज्ञान
होना चाहिए। हम ये चाहते हैं कि राजकुमार विश्व को विजय करने वाले हो। भारद्वाज
मुनि ने कहा क्या तुम्हारे हृदयों में यह आकांक्षा है कि यह जो विश्व है, यह इनके अधीन रहना चाहिए? राजा रावण ने कहा-भगवन्!
ऐसा नहीं है, हम यह चाहते हैं कि विश्व में इनका नामोकरण हो
जाएं। इनका नाम हो जाए,किसी
विद्या में, यह बुद्धिमान
होने चाहिए।
भारद्वाज ने इन
सातों ब्रह्मचारियों को ज्ञान और विज्ञान की शिक्षा प्रदान की। छह छः माह तक भारद्वाज मुनि महाराज विश्वविद्यालयों
में प्रायः शिक्षा देते रहते थे और लंका में उनका यातायात बना रहता था। कजली वनों
में उनकी विज्ञानशाला थी महाराजा पनपेतु मुनि महाराज की कन्या थी,उसका नाम शबरी कहलाता था। वह शबरी उनके विश्वविद्यालय
में विज्ञान में पारायण कहलाती थी। ब्रह्मचारी सुकेता, ब्रह्मचारी रोहिणीकेतु, ब्रह्मचारी कवन्धी गारगेय, ब्रह्मचारी व्रेतकेतु ये
सर्वत्र ब्रह्मचारी अध्ययन करते रहते रहे, ये भारद्वाज मुनि
की विज्ञानशाला में। परन्तु विश्वविद्यालयों में, हमारे यहाँ
लंका जैसा विश्वविद्यालय, उस काल में नहीं था, जहाँ वेदों की शिक्षाएँ, एक-एक वेदमन्त्र के ऊपर
अनुसंधान होता रहता था।
राजा रावण के जो
द्वितीय पुत्र थे मेघकेतु कहते थे वह मेघकेतु एक वेदमन्त्र के ऊपर वो विश्व के
परमाणुवाद से विभाजित कराते रहते थे। उस परमाणुवाद के द्वारा वो यंत्रो का निर्माण
करते थे। वो अग्नेय अस्त्रो में ब्रह्मास्त्रों में, वरुणास्त्र नाना प्रकार के अस्त्रो शस्त्रो का निर्माण,
उस विश्वविद्यालय में होता रहता था। परन्तु संसार के जितने भी राजा थे, उनके यहाँ सब विश्व-विद्यालय में शिक्षा अध्ययन करने के लिए आते थे।
क्योंकि उस समय महाराजा अश्विनी कुमार, जो सुधन्वा नामक
वैद्यराज थे। जो आयुर्वेद में पारायण थे और अश्विनी कुमार जो मानव की चिकित्सा में,
एक महान चिकित्सक कहलाते थे। ये वो अश्विनी कुमार कहलाते थे,जिन्होंने महात्मा दधीचि के कण्ठ के ऊपरले भाग को
औषधियों में नियुक्त किया था और अश्व के मुख को उसके कण्ठ पर नियुक्त करके उससे
ब्रह्मविद्या की शिक्षा प्रदान की। यह वे अश्विनी कुमार थे जो मानव के कण्ठ को छः, छह
माह तक औषधियों में नियुक्त करके पुनः उसमें औषधियों से उसका समन्वय करके
वो ज्यों का त्यों बन जाता था। आयुर्वेद विज्ञान बहुत महानता में उड़ान उड़ता रहा है
उस काल में।
चन्द्रभानु यान
तो मैं लंका के
विश्वविद्यालयों की चर्चा करता रहा हूँ वहाँ
नाना ब्रह्मचारी भारद्वाज मुनि की संरक्षणता में, मुनि के चरणों में ओत-प्रोत हो करके नाना विज्ञान की
चर्चाएँ करते। क्योंकि भारद्वाज मुनि ने ही राजा रावण के पुत्र नारान्तक को चन्द्र
यात्री बनाया। वो चन्द्रमा की यात्रा की जो शिक्षा थी, वो
भारद्वाज मुनि ने प्रदान की थी। परन्तु इस विद्या को महाराजा कुम्भकरण भी जानते
थे। महाराजा कुम्भकरण ने एक यान का निर्माण किया था। उस काल में जिसका यान का नाम
चन्द्रभानु यान कहलाता था। एक यान था जिसका नाम गरुड़केतु यान था। एक यान था,
जिसको कागावृणितकेतु यान कहते थे। कागाव्रेणकेतु ऐसा यान था लंका
में, जिस पर विद्यमान हो करके, मानव
गति कर रहा है पृथ्वी से और परिक्रमा करता हुआ चन्द्रमा की बुद्ध मण्डलों में और
मंगल में। मंगल के यातायात बने हुए थे।
मंगल का वायुमण्डल
तो हमारे यहाँ
कितने बुद्धिमत्ता वैज्ञानिक हुए है जो ऋषि
मुनियों की शरण में जाकर के विद्या का अध्ययन करते रहे हैं,वो विद्या हमारे यहाँ, परम्परागतों से मानव के हृदयों में, ऋषि मुनियों के मस्तिष्कों में नृत्त करती रही। तो एक समय भारद्वाज मुनि
ने महाराजा कुम्भकरण की परीक्षा ली। उन्होंने कहा-हे कुम्भकरण! क्या तुम यानों के
सम्बन्ध में जानते हो? महाराज! आपकी महिमा से कुछ ही जानता
हूँ। तो जाओ, तुम मंगल में कैसा वायुमण्डल है।
तो महाराजा
कुम्भकरण अपने यान में विद्यमान हो करके पृथ्वी की उड़ान उड़ता है और उड़कर के मंगल
में पहुंचा। मंगल का जो वायुमण्डल है वो पृथ्वी जैसा ही है। जैसा पृथ्वी मण्डल पर
है, ऐसा ही प्राणी रहता है
परन्तु विज्ञान इस पृथ्वी से सदैव ऊर्ध्वा में रहता है। मेरे प्यारे महानन्द जी ने
आधुनिक काल के विज्ञान को भी मंगल मण्डल का विज्ञान ही सर्वोपरि कहा है। तो जब वे मंगल में पहुंचे,तो वहाँ के वैज्ञानिकों,से एक वहाँ का वैज्ञानिक उस काल में त्रिटीवन्तकेतु कहलाता
था। त्रिटितवन्तकेतु से उनकी वार्त्ता होती, वार्त्ता करके
और वो पृथ्वी पर पुनः भारद्वाज मुनि के आश्रम में आ पहुंचे। भारद्वाज मुनि ने
कहा-कि धन्य है, कि तुम्हारा विज्ञान महान है। इसी प्रकार
हमारे यहाँ विज्ञान सदैव महानता पर गति करता रहा है मानवीय मस्तिष्कों में,
तरंगवाद में क्योंकि एक ही सूत्र में सर्वत्र लोक लोकान्तर पिरोए
हुए से दृष्टिपात होते हैं क्योंकि एक ही सूत्र इसमें दृष्टिपात होता है।
तो राजा
रावण के यहाँ विश्वविद्यालयों में ब्रह्मचारी सूत्र की चर्चा करते रहते। ये सूत्र
क्या है। विश्वविद्यालय का सूत्र क्या है? उन्होंने नैतिकता और ब्रह्मवर्चोसि दो ही विवेचना प्रकट की। ब्रह्मवर्चोसि
अपनी मानवता को ऊँचा बनाता हुआ, विज्ञान में रमण करता है। और
एक नैतिकता में रमण करता हुआ माता से लेकर करके और अपने तक नैतिकता को प्रत्येक
इन्द्रियों का ज्ञान, धर्म के मर्म को जान करके परमात्मा के
धर्म में परिणित हो जाता है तो हम,अपने में बहुत ऊँचा बनना चाहते है। अपने
ज्ञान और विज्ञान को हम ऊर्ध्वा में गति और ऊर्ध्वा में ही दृष्टिपात करना चाहते
हैं।
इन्द्र
तो राजा रावण के यहाँ सभी ब्रह्मचारियों शिक्षा में पूर्णता
को प्राप्त हो गये। इनकी उड़ान भी ऊँची रहती है। महाराजा मेघनाद अपने वाहनों से वे त्रिपुरी में
जाते थे। हमारे यहाँ उस काल में एक राष्ट्रीय व्यवस्था इस प्रकार की थी कि एक राजा
है और भी राजा है, उनका एक
राजा इन्द्र कहलाता है। इन्द्र उसे कहते है, हमारे यहाँ
वैदिक साहित्य में इन्द्र नाम परमात्मा को भी कहते हैं, इन्द्र
वायु को भी कहते है और इन्द्र नाम आत्मा का भी कहलाया गया है| इन्द्र
दक्षणाय को भी कहते हैं और इन्द्र नाम का राजा भी होता है। त्रिपुरी में एक इन्द्र
राजा रहता है। जो सर्वत्र राजाओं का एक निर्वाचन किया हुआ, उसे इन्द्र कहते हैं। वह जो इन्द्र है
वह तपस्वी होता है। तपस्या के पश्चात वो इन्द्र बनता है।
राजाओं की
गोष्ठियाँ
तो वह राजा रावण
इत्यादि सब महाराजा इन्द्र से अपने वाहनों में विद्यमान हो इन्द्रपुरी में जाते और
इन्द्र से वार्त्ता करते। क्योंकि सर्वत्र राजाओं की गोष्ठियाँ होती रहती थी।
विचार-विनिमय होता रहता था। ज्ञान और विज्ञान की उड़ान उड़ी जाती थी,और मानवता की रक्षा करने के लिए उसमें कुछ निर्देश भी
प्रकट किए जाते थे। तो एक समय महाराजा इन्द्र से एक त्रुटि हुई, महाराजा इन्द्र एक घोषणा देने के पश्चात,
इन्द्र ने घोषणा दी और वह पूर्ण न हुई। वह घोषणा क्या थी? कि समाज में जो यह विज्ञान पनप रहा है। इस विज्ञान का सदुपयोग होना चाहिए।
परन्तु सदुपयोग होने से समाज का उद्धार होगा, समाज का कल्याण
होगा और राष्ट्र में नैतिकता आएगी। और विद्यालयों में ब्रह्मवर्चोसि पुरुष होते
रहेंगे। तो महाराजा इन्द्र के यहाँ एक
यंत्र का निर्माण हुआ था,उस
समय त्रिपुरी में,उनके यहाँ एक विरोचन नाम के वैज्ञानिक थे।
उस विरोचन वैज्ञानिक ने यंत्र का निर्माण किया और यंत्र से आक्रमण किया गया तो उससे बहुत से प्राणी समुद्रचर भी
समाप्त हो गए। समाप्त होने के पश्चात यह वार्त्ता भारद्वाज मुनि उस समय सर्वत्र राजाओं के,
उस काल के वो पुरोहित कहलाते थे, वो इन्द्र के
यहाँ भारद्वाज मुनि महाराज पुरोहित कहलाते थे। तो यह प्रतीक ब्रह्मचारी सुकेता को
हुआ। ब्रह्मचारी सुकेता ने भारद्वाज से कहा कि महाराज! महाराजा इन्द्र के यहाँ एक यन्त्र
समुद्र के तट पर वृणित हुआ, परन्तु उस यंत्र में बहुत से
प्राणियों का हृास हो गया है। विनाशता को, मृतक बन गए हैं।
तो उन्होंने राजाओं की एक सभा एकत्रित की, उसमें यह कहा गया
भई! इन्द्र ने जब ये घोषणा की, तो इन्द्र के यहाँ ऐसा क्यों
हुआ? तो ये घोषणा की गई राजाओं के यहाँ, कि ये राजा, इन्द्र के योग्य नही है। इन्द्र नहीं
रहना चाहिए, इसे तो इंद्र को ऐसा अपमानितता में प्रतीत हुआ
उन्हें, महाराजा इन्द्र ने कहा-कि भगवन्! ऐसा नहीं होना
चाहिए,भारद्वाज मुनि महाराज से
प्रार्थना की।
राजा का कर्तव्य
भारद्वाज मुनि ने
कहा कि निःस्वार्थ जो प्राणी होते है। जो तपे हुए होते हैं उनका यह कर्तव्य है कि
वह ऐसे राजा की अवहेलना करे, क्योंकि राजा की अवहेलना करना क्योंकि जो समाज में प्राण ले सकता है अपने
क्रियाकलाप के द्वारा, ये राजा का कर्तव्य नहीं है। राजा तो
केवल चरित्र दे सकता है। राजा मानवता दे सकता है। जो भी उसने अपने चरित्र के अपनी
जो तपस्या में अनुभव प्रकट किए उन्हें दे सकता है,परन्तु ये जो प्राण,
ये जो शरीर का त्यागना है,ये हमारा कर्तव्य नहीं है। ये राजाओं का कर्तव्य नहीं
है। राजा उस मानव को जीवन नहीं दे सकता है,
न मृत्यु दे सकता है। ये तो दार्शनिक वार्त्ता है परन्तु मानव उसको
अपने क्रियाकलाप दे सकता है। जो राजा क्रियाकलाप करेगा प्रजा उसका अनुसरण करेगी,
प्रजा उसके अनुसार बनती है जैसे माता-पिता जो भी गृह में क्रियाकलाप
करेंगे जैसा माता-पिता आहार होगा, ऐसी बाल्य, बालिका उस आहार को करेगी, जैसा भी उनका व्यवहार होगा,
सात्विक वातावरण होगा तो ब्रह्मचारी ब्रह्मचारीहिणयाँ सात्विक होंगी गृह में और यदि
दुष्ट व्यवहार होगा तो दुष्टवादी होंगे, प्राणों
की रक्षा में भक्षक बन जाएँगे ऐसे राजा के यहाँ होता है।
त्रिपुरी के राजा
मेघनाथ
तो महाराजा इन्द्र
को वहाँ से उसको कृत करना हुआ। जब कृत करने के पश्चात पुनः उन्होंने इन्द्र को
अपनाने की चेष्टा प्रकट की। भारद्वाज मुनि महाराज ने ये आज्ञा राजा रावण के
राष्ट्र को दी और राजा रावण के राष्ट्र में उस समय सात्विक वातावरण था। एक
मानव-मानव का भक्षक नहीं था। प्रजा में याग होते थे। प्रजा में सुगन्धि होती, विचार-विनिमय होते थे। विज्ञान
पराकाष्टा पर था, विज्ञान का दुरूपयोग उस काल में नहीं था।
परन्तु यही राजा रावण के द्वितीय पुत्र मेघकेतु ने इन्द्र की उस उपाधि को प्राप्त
किया। इन्द्र को विजय किया क्योंकि भारद्वाज मुनि की सहायता से वो त्रिपुरी के
स्वामी बने। त्रिपुरी के स्वामी कौन बने? राजा रावण के पुत्र, जिसको हमारे यहाँ मेघकेतु कहते हैं जिसको मेघनाद भी कहा
जाता है। तो इन्द्र को विजय भारद्वाज मुनि आज्ञा से, नारान्तक सोमतिति नामक राजा के यहाँ,
उसमें सात्विकता का प्रचार करते थे, वे
विज्ञान की शिक्षा देते थे। परन्तु प्रजा ने यह स्वीकार कर लिया कि राजा रावण के
पुत्र नारान्तक जो प्रचार करते हैं विज्ञान का, और
विद्यालयों में आते हैं इनको वहाँ का अधिराज इसलिए बनाया।
पातालपुरी के राजा
अहिरावण
तो राजा रावण के
राष्ट्र में इन सातों पुत्रों के विद्यालय त्यागने के पश्चात इतना व्यापिक राष्ट्र
बन गया कि इनके राष्ट्र में न सूर्यास्त होता था और न सूर्योदय होता था राजा रावण
के पुत्र जो अहिरावण नामों से उच्चारण, वो पातालपुरी के राजा थे। उन्होंने पातालपुरी को कैसे अपनाया? ये बड़ा विचित्र एक साहित्य तुम्हारे समीप उद्बुद्ध कर रहा हूँ। जो मुझे
स्मरण आ रहा है आज, एक समय पातालपुरी के एक राजा थे, राजा के मन्त्री थे सुकामकेतु। तो सुकामकेतु एक समय अहिरावण को अपने यहाँ
ले गए क्योंकि वो विश्वविद्यालय से ब्रह्मचर्य, तेजोमयी आभा
में रमण कर रहा था। विश्वविद्यालय में उनका प्रसार हुआ। और प्रसार होकर के
विवेचनाएँ हुई, वेदों की विवेचना करते रहे। विज्ञान की उड़ान
की चर्चा करते रहे, तो दो वर्षों तक वो पातालपुरी में रहे।
परन्तु पातालपुरी के जनसमूह के वो प्रिय बने और जनसमूह के प्रिय बनने के पश्चात
समाज में इन्द्र से और जो राजा थे उनसे यह उद्घोषणा कराई कि हम तो इनको अपना
अधिराज चाहते हैं। वो अधिराज ऐसे बन गए। तो उन्होंने संग्राम नहीं किया, क्योंकि उस समय संग्राम की प्रणाली महान तुच्छ मानी जाती थी। वह एक दूसरे
को प्रसन्नता में, एक दूसरे के चरित्र को जो दे सकता हो,
तो पातालपुरी का चरित्र भी बड़ा विचित्र था विज्ञानशालाओं का निर्माण
भी हुआ, विज्ञानमयी आभा में युक्त भी होने लगे।
तो इसी प्रकार वहाँ
राजा अहिरावण बने। सोमकेतु में जो हिमालय से परली आभा में राष्ट्र है वहाँ के राजा
नारान्तक बने और अक्षय कुमार स्वाणित नाम के एक राष्ट्र था उसके राजा बने। तो इसी
प्रकार क्योंकि यहाँ विभीषण इत्यादि ये अपने कर्मकाण्ड में रहते थे और कुम्भकरण
विज्ञान में रहते थे और लंका के अधिराज राजा रावण थे। इस प्रकार इनका साहित्य चला
आया। इनका का जो कुटुम्ब का जो परिचय दिया जाता है इनके यहाँ क्योंकि राजा रावण का
इतना वंशलज था, इनके जो
कुलपुरोहित थे,वो महर्षि भारद्वाज कहलाते थे। भारद्वाज मुनि
महाराज इनको प्रायः शिक्षा देते रहे। और उस शिक्षा का आभ्रूरत्त्वम् चलता रहा।
तो राजा रावण के
यहाँ एक पातालपुरी से दूरी पर एक राष्ट्र था,जिसका राजा शेषनाग था। शेष था, शेष कहते थे वो
नागवृत्ति गोत्र कहलाता था। तो शेष के यहाँ उनकी कन्या से संस्कार हुआ इसी प्रकार
सातों राजकुमारों के संस्कार भी हुए। परन्तु देखो, यह राष्ट्र इस प्रकार उद्बुद्ध होता रहा।
क्योंकि सम्पाति भी समुद्र के तट पर एक राजा थे। सम्पाति राजा थे, सम्पाति के विधाता का नाम गरुढ़,तो गरूड़ और सम्पाति दो विधाता थे। ये दो भई थे,जो स्वादित नामक एक राजा थे,उसके पुत्र कहलाते थे। सम्पाति को राष्ट्र दे करके,वे राजा तो समाप्त हो गए,परन्तु सम्पाति और गरूड़ जी दोनों विज्ञान में रत्त रहते
थे। क्योंकि सम्पाति भी वैज्ञानिक था और वह महाराजा जो गरूड़ जी थे,वो भी वैज्ञानिक थे।
एक समय वो सूर्यलोक
की उड़ान उड़ने लगे। जब सूर्यमण्डल की उड़ान उड़ने लगे, यानों में विद्यमान होकर के, तो वह
उस ताप को, अपने में शक्ति नहीं रखते थे, शक्ति के कारण वो पृथ्वी पर आ गए, वे पृथ्वी पर ही
ओत प्रोत रहे परन्तु सम्पाति उनका सर्वत्र कार्य करता रहा। तो महाराजा सम्पाति भी
समुद्र के तट पर सूक्ष्म सा एक राष्ट्र था उसके राजा थे।समुद्राणि तुम्हें प्रतीत
होगा मैं आज वह साहित्य आएगा क्योंकि हनुमान जी जब सीता के लिए गए तो सम्पाति के
उन्हें दर्शन हुए। मेरे पुत्र ने यह वर्णन कराया है, महानन्द
जी ने, कि उस काल को प्रकट करते कि आधुनिक जगत जो है सम्पाति
को और गरूड़ को पक्षी के रूप में स्वीकार करता है। परन्तु प्रायः पुत्र ऐसा नहीं
है। ये सब राजा थे और इनके क्रियाकलाप इनके चरित्र एक महानता में गति करते रहे उस
काल में।
नैतिकवाद
तो मानव को नैतिकता में महान रहना चाहिए। और ब्रह्मवर्चोसि
में ये मानव जीवन के दो ही सूत्र ही कहलाते हैं एक तो नैतिकता, हमारे इस मानव शरीर में जितना भी ज्ञान
है,जितना भी विज्ञान है, हमारी
इन्द्रियों से जो उदघृत होता है वो हमारा नैतिकवाद है। और उसके पश्चात जो विज्ञान
उससे उत्पन्न होता है विज्ञान की तरंगे आती है, उस विज्ञान
को जो लेकर के चलता है वो ब्रह्मवर्चोसि कहलाता है। तो यह प्रश्न विश्वविद्यालयों
में होते रहे हैं। हमारे यहाँ विश्वविद्यालयों में, शिक्षालयों
में, मानव को चरित्र की शिक्षा सबसे प्रथम होती है। क्योंकि
यदि चरित्र नहीं है, तो विद्यालय कुछ नहीं है। यदि
ब्रह्मचारी नहीं है विद्यालयों में, तो ब्रह्मवर्चोसि
विद्यालय नहीं बन सकते। इसी प्रकार हमारे यहाँ ज्ञान और विज्ञान ऊर्ध्वा, शिखर पर रहा है और रहता, रहता है क्योंकि मानव के
मस्तिकों में विज्ञान नृत्त करता रहा है।
तो राजा
रावण के यहाँ इतना विज्ञान विस्तार में बन गया था कि न सूर्य अस्त होता था और न उदय होता था। सदैव किसी न
किसी राष्ट्र में सूर्य का प्रकाश ही रहता। कहीं रात्रि है, किसी राष्ट्र में, तो किसी स्थली पर उनके यहाँ दिवस होता है। तो जब यहाँ रात्रि होती है तो
पातालपुरी में दिवस
होता है। जब पांतालपुरी में दिवस होता है तो यहाँ रात्रि होती है तो इसी प्रकार यह, सूर्य की गति चलती रहती है। सूर्य ये
पृथ्वी अपनी गति करती रहती है। सूर्य की आभा में दिवस और रात्रि, रात्रियों का निर्माण होता रहता है। उससे सम्वत्सर रहता है। उसी से
कृष्णपक्ष, शुक्लपक्ष बनते रहते है
.......शेष
अनुपलब्ध दिनांक-०२-०२-८२ तिबडा, मोदी नगर
5 ०३-०२-१९८२-परम्पराओं से विज्ञान
प्रभु मिलन की
आकांक्षा
तो मुझे
स्मरण है, राजा रावण के पुत्र मेघनाथ और नारान्तक ये तीनों अपने राष्ट्र से गमन करते हैं और
भ्रमण करके हुए हिमालय की कन्दराओं में आकार के अनुसंधान करने लगे। इन तीनों
वैज्ञानिकों को भारद्वाज मुनि भी उसी आसन पर आ गए और विचार-विनिमय में होने लगा।
परन्तु विचार क्या हो रहा था। तो तीनों वैज्ञानिक और भारद्वाज सहित इस कल्पना में
लग गए कि सूर्य की जो किरणें आती है,जो किरणें अंधकार को समाप्त कर देती हैं, रात्रि को
अपने गर्भ में धारण कर लेती है, हमें उन किरणों को जानना
हैं। तो किरणों के ऊपर उन्होंने एक विज्ञानशाला उनके समीप थी उस विज्ञानशाला में
अनुसंधान करने लगे। अनुसंधान करते हुए उन्होंने सूर्य की नाना प्रकार की किरणों को,
उसके प्रकाश को, उसमें जो शक्ति, विद्युत भण्डार है उसको उन्होंने यंत्रों में भरण कर लिया और यंत्रो में
भरण करने के पश्चात वैज्ञानिक उससे उड़ान उड़ते हैं।
पुष्पक विमान
तो भारद्वाज मुनि
उन्हें शिक्षा देते रहे। उनके चरणों में वे शिक्षा पाते रहे। तो उस समय महाराजा
मेघनाथ ने कुम्भकरण
इत्यादियों ने एक यंत्र का निर्माण भी किया उस काल में किया । और वह यंत्र
ऐसा था,जो सूर्य की किरणों का शक्ति भण्डार था,उसमें ओत प्रोत होकर के यान अंतरिक्ष में गति करने लगे।
तो उनका खनिज उन्होंने प्राप्त किया सूर्य से। पृथ्वी के खनिज से ऊर्ध्वा में जो
खनिज रमण करने वाला, सूर्य
के द्वार पर है। जिससे वो पृथ्वी के खनिज को, पृथ्वी के
परमाणु को खनिजों में परिणित कर देता है, उसका पिपाद बनाता है।
इसी प्रकार उस सूर्य की किरणों को ही क्यों नहीं अपने में आधारित किया जाए,
तो उन्होंने एक समय महाराजा गणेश, उनके समीप
आए और महाराजा गणेश की सहायता से उन्होनें पुष्प विमान का निर्माण किया। वह पुष्प
विमान अन्तरिक्ष में गति करता था और सूर्य की किरणों से उनमें शक्ति का भण्डार है उससे वो यान गति करता
था। पृथ्वी के खनिज को उन्होंने नहीं लिया, सूर्य से जो खनिज
उन्हें प्राप्त हुआ, जिस किरणों से वह पृथ्वी के गर्भ में धातु
पिपाद का निर्माण कर रहा था, उसी निर्माण को उन्हीं किरणों
को उन्होंने अपने में आकाशित किया और उससे वाहनों का निर्माण किया।
वैज्ञानिक कुम्भकरण
तो राजा रावण के यहाँ हिमालय में नाना प्रकार की अनुसंधान
शालाएँ रहीं। ये सब मानो जितना भी श्रेय रहा है वे कुम्भकरण जी को रहा है। क्योंकि
कुम्भकरण जी निन्द्रा से विजय प्राप्त करने वाले थे वो छह छः माह तक निन्द्रा नहीं लेते थे। छह छः माह तक वो विचारते ही रहते, अनुसंधान करते रहते। हिमालय में,
यंत्र शालाओं में विद्यमान हो करके, वे
अनुसंधानित रहे। वो जब विश्वविद्यालयों में, लंका में प्रवेश
किया करते थे। तो वो वैज्ञानिकों, ब्रह्मचरियों को शिक्षा
देते रहते थे। परन्तु राजा रावण के यहाँ उनके विधाता जो विभीषण थे,वो कर्मकाण्ड में बड़े पारायण थे, उनके द्वारा
पाण्डित्व था। वो कर्मकाण्ड में रत्त रहते थे। प्रभु का चिन्तन करते रहते, वो राष्ट्र के ऊपर ऊँची-ऊँची उड़ाने उड़ते रहते थे। वैज्ञानिक के समीप जाते,
वे सुधन्वा वैध के वैधराज के यहाँ नाना प्रकार की औषधियों के ऊपर वो प्रायः
विचार-विनिमय करते रहे।
तो वो महानता में परिणित होते रहे। तीनों विधाताओं
का कर्म और क्रियाकलाप एक महानता में परिणित होता रहा। जिस समय मैंने इससे पूर्व
काल में तुम्हें प्रकट कराया था कि मेघनाथ जी
ने इन्द्र को विजय किया और इन्द्र की त्रिपुरी में अपना शासन किया। त्रिपुरी में उस
समय शासन प्रणाली, सेवक
प्रणाली थी। सेवा करना ही समाज का कर्तव्य था। क्योंकि समाज को सुखद बनाना,
समाज में जहाँ अकर्तव्यवाद आ जाना,उसे कर्तव्य में लाना क्योंकि यही राष्ट्र का कर्तव्य होता
है। राष्ट्र का जो निर्माण हुआ है वो धर्म की रक्षा करने के लिए हुआ है।
तो राजा रावण के
यहाँ प्रायः ऐसा होता रहा। महाराजा इन्द्रजीत ने इन्द्र को विजय करने, त्रिपुरी में अपनी नियमावली को स्थापित
किया। उदघृत किया और उदघृत करने के पश्चात त्रिपुरी हमारे यहाँ उस काल में भगवान मनु के
काल से ले करके एक परम्परा, एक राष्ट्रीय व्यवस्था बनी हुई
होती है। राष्ट्रीय व्यवस्था ये है कि सर्वत्र राजाओं का एक राजा होता है जिसे
इन्द्र कहते हैं। वे सर्वत्र पृथ्वी के जितने राजा होते हैं उन राजाओं के ऊर्ध्वा
में उनकी नैतिकता इन राजाओं से महान होती है। वास्तव में जितने भी राष्ट्र होते है,उनका सर्वत्र,उनकी नैतिकता एक ही धारा में गति करती
रहती है। एक ही आभा में रमण करती रहती है परन्तु उनके ऊर्ध्वा में एक इन्द्र होता
है। हमारे यहाँ जैसे इन्द्र है ये इन्द्र क्योंकि लोकों में भी,जो इन्द्र लोकों का मण्डल है वो सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
त्रेताकालीन
विज्ञान
मुझे स्मरण आता
रहता है एक समय महाराजा इन्द्रजीत मेघनाथ ने
अपनी पत्नी सुलोचना को ले करके वे मंगल की यात्रा करते रहते थे। वे मंगल की यात्रा
करते रहे, क्योंकि यान से,
यातायात के साधन है तो साधन मानव के समीप रहने चाहिए। तो इस प्रकार
का विज्ञान और क्रियाकलाप त्रेता के काल में होता रहा है। महाराजा कुलीश गोत्र के
ये राजा थे। राजा रावण का सर्वत्र
संसार में उनका साम्राज्य छा गया। छाने के पश्चात........और वहाँ अपनी आभा को
प्रकट कराते रहे और जो राष्ट्र का क्रियाकर्म है, जो भी क्रियाकलाप होता रहा है उस क्रियाकलाप को ले करके में प्रत्येक
राष्ट्रों में अपना उपदेश देते थे। प्रजा को प्रजा का जो उस समय धर्म और कर्म था
वो किस नैतिक आभा पर था इसको श्रवण करो।
तो उस काल में प्रत्येक गृह
में याग होते थे। प्रत्येक गृह में सुगन्धि होती थी और सुगन्धि होने के पश्चात
वेदों की ध्वनियाँ होती थी। ब्राह्मणत्व, पाण्डित्व की दृष्टि से संसार की दृष्टिपात करता रहा। तो राजा के राष्ट्र
में राजकोश में इस प्रकार का एक विभाग था,जो केवल इसी के लिए,
कि वेद का पठन हो। वेद की परम्पराएँ हो, उनकी
रक्षा के लिए कोश में से भाग होता है। जिससे राजा के राष्ट्र में विवेक पुरुष हों,
बुद्धिमान हों। जिन बुद्धिमानों से राष्ट्र और समाज पवित्र बनते
हैं। तो ये राजा के कोश में ऐसी एक नियमावली बनी हुई। और वह भी वह कोश होता था,जो सात्विक कोश, कृषक का जो कोश रहता था क्योंकि ऋषि-मुनि विवेकी बनते, आहार और व्यवहार से। तो इस प्रकार का राष्ट्र का कर्म विधान युक्त चलता
रहा।
समय व्यतीत होता
रहा, एक समय महाराजा खरदुषण
रावण के समीप आए और उन्होंने-कहा-प्रभु! राष्ट्र की परम्परा बड़ी महानता में गति कर
रही है परन्तु कहीं-कहीं अकर्तव्यवाद हो जाता है। उसके लिए शासक की आवश्यकता है।
तो उनका नृत्त होता रहा, विचार-विनिमय होता रहा तो वे जाकर
के बुद्धियुक्त अपने वाकों को प्रकट करके और वहाँ उनको महान बनाते थे।
साधक राजा रावण
तो राष्ट्र चलता
रहा, मुझे स्मरण है राजा रावण
के राष्ट्र को इसी प्रकार २४२ वर्षों तक राज चलता रहा। २४२ वर्षों तक रावण का
राष्ट्र रहा। परन्तु उनकी आयु दीर्घ थी। राजा रावण की भी आयु दीर्घ थी। वो आयु के
ऊपर साधना करते रहते थे। राजा का ये कर्तव्य था, कि
प्रातःकाल अपने आसन को त्याग देना और अपनी क्रियाओं से निवृत्त होना,उसमें याग करना, ब्रह्मयाग करना देव पूजा करने के
पश्चात वह अपने ध्यान से अवृण हो करके और वे राष्ट्र के कार्यों में रत्त रहते थे।
महारानी मंदोदरी सदैव प्रभु का, राष्ट्र का, क्योंकि हमारे यहाँ एक नियमावली बनी हुई है परम्परागतों से। कि राजा जैसे न्यायालयों
में, विद्यमान होता है ऐसे ही राजलक्ष्मियाँ भी, न्यायालय में न्याय करती रहती। न्याय करती रही है क्योंकि हमारे यहाँ,
देवियों का न्याय देवियाँ करती थी और राजपुरुष, पुरुषों का न्याय राष्ट्र के द्वारा होता।
तो इससे समाज में
कुरीति नहीं आती,इससे समाज
में हिंसा नहीं आती,क्योंकि
देवियों की सुरक्षा करने के लिए,राजलक्ष्मियाँ है और पुरुषों की रक्षा करने के लिए, राजा
है। जो न्यायालय में न्याय कर रहें हैं। इसी प्रकार देवियाँ, उनके प्रिय क्रियाकलाप, उनकी जितनी भी कठिनाईयाँ है
उनमें जितना भी दोषारोपण है वो न्यायालय में, देवियाँ,
पुत्रियाँ अपना न्याय करती रहीं है। तो ये काल राजा रावण के यहाँ भी
होता रहा है। महारानी मंदोदरी अपने आसन पर न्याय करती थी। सुलोचना अपने आसन पर
न्याय करती रही,क्योंकि त्रिपुरी में जब
महाराजा मेघनाथ का साम्राज्य हो गया,तो उस समय मेघनाथ
जैसे प्रातः कालीन न्यायालय में रहते थे,उसी प्रकार उनकी पत्नी सुलोचना भी रहती थी, वे न्याय
करती रही हैं।
तो महारानी
सुलोचना के पुत्र हुआ था,जिस पुत्र का नाम शुकेनकेतु
कहते हैं । उसको शिक्षा देना, आचार और विचारों को महान बनाना, ये राजा के राष्ट्र
में एक नियमावली बन गई। राजा के राष्ट्र में एक नियमावली बनी हुई थी,उस काल में कि एक नियमावली यह बनी हुई थी, कि यहाँ वेद का अध्ययन करना,आयुर्वेद का अध्ययन करना,मेरी कन्याओं को बहुत अनिवार्य था। बहुत अनिवार्य, क्योंकि आयुर्वेद की विद्या जो माता अध्ययन करती है,वह अपनी सन्तानों को उत्तम जन्म दे सकती है क्योंकि
आयुर्वेद के जानने वाला,विद्यालयों
में आचार्य होता है,जो नस नाड़ियों के विज्ञान को जान करके
मानव की जानकारी करा देता है।
राजा रावण के यहाँ, महाराजा कुम्भकरण और मेघनाथ जी ने दोनों ने मिलान होकर के कहीं वेद में यह श्रवण कर
लिए कि दीपावली राग भी होता है, एक मेघावली राग होता है। एक मोहनी राग होता है। तो वह, उस गान में लगे हुए थे। एक समय उस गान की कृतिभा जब उनसे समाप्त हो गई, तो एक समय वे भ्रमण करते हुए, गाड़ीवान रेवक मुनि महाराज उस समय गान
विद्या में बड़े महान थे। वे रेवक मुनि के द्वार पर पहुँचे, महाराजा
मेघनाथ ने कहा-प्रभु! हमने वेद
मन्त्रों में श्रवण किया कि एक मेघा राग होता है, एक दीपावली दीपा राग होता है और एक मोहिनी राग होता है ये
क्या है?
तो उस समय महाराजा
गाड़ीवान रेवक की आयु उस समय ४८१ वर्ष की थीं वे ४८१ वर्ष के ब्रह्मचारी वो सब
रागों को जानते थे। सौ-सौ वर्षों तक उन्होंने एक-एक विषय पर अनुसन्धान किया। वे
प्राण और अपान का मिलान करके,स्वरों की ध्वनि को जानता है,उसकी ध्वनि में अग्नि प्रदीप्त हो करके दीपावली राग बन
जाता है। जो जल, जो उदान को
और समान को प्राण में दोनों में उनको पिरो देता है तीनों प्राणों का समावेश होकर
के जब वो गान गाता है तो उससे मेघा रागों का, मेघ उत्पन्न हो
जाता है। तो ये विधाएँ हमारे यहाँ, परम्परागतों से रही हैं।
इन विद्याओं के ऊपर बहुत अनुसंधान किया। परन्तु गान गा रहा है, गृह के दीपक प्रकाशित हो रहे है। गान गा रहा है,मेघ
उमड़ रहें है तो वृष्टि हो रही है। इस प्रकार की विद्याएँ इस विद्या को त्रेता के
काल में, रावण के काल में यंत्रो में इस परमाणु विद्या को
उन्होंने यंत्रों में भरण करने का प्रयास किया। प्रयास करके, यंत्रो को वायु में त्यागा वृष्टि हो गई। इसी प्रकार मानव अपने क्रिया कलापों में इस
विद्या को प्रत्यक्ष करता रहा है। जैसे मल्हार राग गाती है माता, मल्हार राग गा करके वृष्टि होने लगती है जैसे दीपावली राग गाता है,
गान गाता है तो दीपक प्रकाशित हो जाते है। इस प्रकार की विद्याएँ
जैसे परमाणु को विभाजन करने से अनन्त अग्नि का भण्डार उत्पन्न हो जाता है। इसी
प्रकार मानव की, वाणी में मानव की प्राणों के निदान करने में
वो शक्ति प्राप्त होती है।
तो मैं इस विद्या
का मैंने बहुत कुछ अध्ययन भी किया किसी काल में, इतना समय नहीं है आज जो मैं इसकी विवेचना ऊर्ध्वा गति में
कर सकूं। हमारे यहाँ, परम्परागतों से अपनी-अपनी आभा में मानव
नृत्त करता रहा है। विचार-विनिमय में क्या, राजा रावण के
यहाँ इस प्रकार की विधाएँ उनके विद्यालयों
में नृत्त करती रही। मुझे स्मरण है कि मेघों का राग, गाने
वाला मेघनाथ था। सुलोचना जब गान गाती थी
तो पुत्र महान बन जाते थे। मेरी पुत्रियों के शरीरों में मानव के शरीरों में, मस्तिष्कों में, ये
विद्याएँ सब नृत्त करती रहीं है। और ये विद्याएँ कहाँ से प्राप्त होती हैं?
कुछ विद्याएँ आयुर्वेद से प्राप्त होती है। कुछ विद्याएँ उपासना
काण्ड से प्राप्त होती है। ये विद्याएँ मानो अनुसंधान करने का एक विषय है।
मोहनी विद्या
तो परमपिता
परमात्मा की महिमा और उसका जो ज्ञान, विज्ञान जिन महापुरुषों ने जाना है, राजा रावण के
जेठे पुत्र अहिरावण वे तपस्या करते रहे, वे राष्ट्र ही नहीं
करते थे, राष्ट्र का पालन तो प्रियता में था,परन्तु वो प्रातः कालीन याग करते और याग से पूर्व वो
बह्मयाग करते थे। ब्रह्मयाग कहते हैं ब्रह्म के चिन्तन को, देवयाग कहते हैं अग्निहोत्र को, जहाँ देवता प्रसन्न होते हैं। तो जब वे अग्नि के ऊपर वेद मन्त्रों का
अध्ययन करने लगे,तो वे तप करने लगे तप करते-करते उनके द्वारा
एक मोहनी विद्या थी और वो मोहनी विद्या कैसी थी? वाणी को
उन्होंने शक्तिशाली बनाया,उन्होंने कई यंत्रों को भी जाना,
इससे यंत्र त्यागा और मानो मानव मूर्छित हो गया और इसको मोहनी
विद्या कहते थे। उसको कहीं भी ले जा सकते थे। तुम्हें प्रतीत होगा अहिरावण को यह
विद्या सिद्ध हो रही थी, वे उस विद्या में पारायण थे। अध्ययन
करते रहते थे ये विद्या, उन्होंने महर्षि दधीचि जी के आश्रम
में ग्रहण की थी। महात्मा दधीचि इस विद्या को जानते थे। ऋषि मुनि तो कोई ऐसा था ही
नहीं जो कोई-सी विद्या को न जानता हो। वो सर्वत्र विद्या में पारायण रहते थे। वे
उनके द्वारा ऐसी विद्या जैसे अन्तरिक्ष में कोई शब्द गति कर रहा है और शब्द के साथ
में चित्र, तो वह अपने यहाँ यंत्रों में उन चित्रों का दर्शन
करते थे। ये अहिरावण भी इस विद्या को जानते थे, इस विज्ञान
को जानते थे। वहाँ राजा अहिरावण,पातालपुरी
के राजा थे। पातालपुरी में उनके यहाँ विज्ञान भी, ज्ञान भी और दुग्ध देने वाला जो पशु है ये बहुत आज्ञा में
रहता है था, परन्तु वहाँ उनकी पूजा होती रहती थी,तो राष्ट्र का जो निर्माण, राष्ट्र की जो प्रतिभा है,तो राजाओं के ऊपर होती थी,राजा जिस प्रकार का आहार और व्यवहार,उनका
जो क्रियाकलाप होता है उसी के आधार पर समाज का निर्माण होता है।
राजा रावण का राष्ट्र
तो राजा रावण के
यहाँ महानता में, एक से एक
महान उनका पुत्र, एक से एक महान राजा परन्तु क्रियाकलाप
विचित्रता में चलता रहता। उनके राष्ट्र में प्रातः कालीन याग होना। प्रत्येक
राष्ट्र का जो ऊँचा कर्मचारी था उसकी राष्ट्रीयता में नियमावली बनी हुई थी कि राजा
के राष्ट्र में, उनके यहाँ याग होना चाहिए। जैसे
न्यायाकृतधीश होते हैं उनको याग करना है, जिससे समाज उनमें
शिक्षा लेते रहे और उनमें कर्तव्यवादी कर्म बनें रहे। और वह अपने कर्तव्य का पालन
करते रहे। जो मानव याज्ञिक होता है। जो प्रभु भक्त होता है वह इस समाज के वैभव को
अपने में संग्रहत नहीं करता,उसके हृदय में एक नैतिकता बनी
रहती है। उसके हृदय में नैतिकता बन करके वो न्याय देता समाजों में है। न्याय किसे
कहते हैं? न्याय ही चरित्र है, और
चरित्र ही न्याय है। इन दोनों को देता रहता है तो इसी प्रकार राजा के राष्ट्र में
इस प्रकार के क्रिया-कलाप होते रहें है।
सूर्य की किरणों के
द्वारा,उन सूर्य किरणों को
एकत्रित करना,उनके यंत्रों का निर्माण करना यंत्र अंतरिक्ष
में गति कर रहे हैं और शक्ति कहाँ से? सूर्य की किरणों से
प्राप्त होती है,खनिज विद्या भी पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार की विद्या भी
ऊर्ध्वा में रही हैं परन्तु उन्होंने ऐसी, ऐसी औषधि भी है
जिनकों एकत्रित करने से वाहन गति करते हैं। पृथ्वी में ऊर्ध्वा में गति करने वाली
है। अन्तरिक्ष में गति करने वाली हैं। तो ये विधाएँ, ये
विज्ञान परम्परागतों से ही, जहाँ ये राष्ट्रीयता में भ्रमण
करता रहा है और राष्ट्र उससे पनपता रहा है।
कर्तव्यवाद
तो प्रत्येक
स्थलियों पर कर्तव्यवाद ही ऊँचा कहलाता है। कर्तव्यवादी प्राणी ही ऊर्ध्वा में
उड़ान उड़ता है। तो मानव को उड़ान उड़नी चाहिए। मैं राजा रावण के राष्ट्र की ये चर्चा
कर रहा था। महारानी मंदोदरी राष्ट्र में महानता की उड़ान उड़ती रहती थी। वह अपने
न्यायालयों में कर्तव्य करती थी। और गृह के सात्विक वातावरण को देती है। वह
विद्यालयों में जाती और न्याय की चर्चाएँ,विश्वविद्यालयों
में, शिक्षा देने का भी उनका
नियम बना हुआ था। एक समय निर्धारित किया हुआ था। जिससे पुत्र पुत्रियाँ उनके अमृत
वचनों को पान करके, महानता को प्राप्त होते रहे। तो इस
प्रकार का नृत्त इस प्रकार का विचार राजाओं के राष्ट्र में होता रहा। तो हम अपनी नैतिकता को,
अपनी मानवता को अपने विद्यालयों को ऊँचा बनाते हुए और इस संसार सागर
से पार हो जाएँ।
हम प्रभु की याचना कर रहे थे
प्रत्येक मानव आनन्दयुक्त होना चाहता है। राजा अपनी प्रजा को आनन्द देना चाहता है।
प्रजा भी राष्ट्र को महान दृष्टिपात करना चाहती है। तो प्रत्येक मानव उसमें रमण
करता, उसके आनन्द में
आनन्दित रहता है।
दिनांक-०३-०२-८२-तिबडा, मोदी नगर
6
२२ १० १९६४ पुष्प ०५ त्रेताकाल के कुछ
ऐतिहासिक तथ्य
महर्षि बाल्मीकि
जैसा मुझे महानन्द
जी ने वर्णन किया था-महर्षि वाल्मीकि के जीवन की चर्चा| महर्षि वाल्मीकि त्रेता काल
में हुए, उनका जीवन भी
अग्रगण्य था। युवा अवस्था में उनका जीवन अग्ने था |
बाल्य अवस्था से युवा अवस्था तक इन्होंने
नाना प्रकार के प्राणियों को महा कष्ट भी दिया, नाना
प्राणियों को नष्ट कर उनका द्रव्य ले लेना और उसे अपने विधाता सम्बन्धियों को
अर्पित कर देना और स्वयं आनन्द से रहना महान उस रत्नाकर का कार्य था। बाल्यावस्था में उसका नाम रत्तनागिर या रत्तनाकर कह दो | एक समय
देव ऋषि नारद उनके आसन पर आए, और भी कुछ ऋषि थे। नारद मुनि को उसने कहा कि अरे, कौन
संन्यासी जाता है?
वह शान्त हो गएं और
बोले “क्यों भाई?” “महाराज! जो कुछ आपके द्वारा है, वह मुझे अर्पित कर दीजिए।“
नारद मुनि ने कहा
कि भाई! क्यों लेते हो?
“महाराज! मेरे पिता हैं, माता हैं और सम्बन्धित परिवार है उनके उदर की पूर्ति के लिए।“
नारद मुनि ने कहा “तो भाई! तुम
मनुष्यों को कष्ट क्यों देते हो,अपने अंगों से कुछ पुरुषार्थ करो |” उन्होंने कहा “नहीं महाराज! यह भी तो पुरुषार्थ है, मैं इसी पुरुषार्थ को किया करता हूँ,दूसरों को नष्ट करता हूँ, द्रव्य लेता हूँ, आनन्द पान करता
हूँ।“
ऋषि ने कहा तो
अच्छा,तुम एक कार्य करो, कि
अपने सम्बन्धियों से प्राप्त करके आओ, कि यदि
कोई मुझे नष्ट करने लगे, तो तुम मेरी सहायता करोगे या
नहीं।
वह वहाँ से बहतें हुए अपनी माता के द्वार पहुंचे और बोले-“माता! यदि मुझे कोई नष्ट करने लगे तो तुम मेरी सहायता
करोगी?” माता
ने कहा “कदापि नहीं,जो पाप कर्म करता है उसका कोई साथी नहीं होता संसार में।“ यही वाक्य पिता ने कहा, वही वाक्य विधाता सम्बन्धियों ने कहा| यह वाक्य जान वह
वहाँ से बहता हुआ ऋषि के द्वार आ पहुंचा।
ऋषि ने कहा कि “अरे, क्या रहा?”
प्रभु! उन्होंने
कहा है, कि तुम्हारा कोई साथी नहीं।“ देव ऋषि नारद मुनि बोले कि जब माता पिता तुम्हारे साथी
नही हैं ,तो तुम इतना पाप ही क्यों करते हो, यह पाप न करो।
उस बालक को वैराग्य की भावनाएं आने लगी और उसने कहा तो प्रभु! मैं क्या करूं? उन्होंने कहा कि तुम राम का पूजन करो,भगवान का चिन्तन करो, तुम्हारा उत्थान होता चला
जाएगा।
तो उस महान बालक ने परमात्मा
का चिन्तन करना प्रारम्भ कर दिया और यहाँ तक सुना जाता है कि राम रमेति शब्दार्थों
में उनके हृदय में वह अमूल्य प्रकाश हो गया,
वह अग्नि जागृत हो गई, उसे ज्ञान होने लगा, कि संसार का ज्ञान क्या है, विज्ञान क्या है, आत्मिक
विज्ञान क्या है, यह सब ज्ञान उसके द्वारा ओत-प्रोत होने
लगा।
तो अब बालक ऋषि
बनने लगा और आचार्यों ने उसका नाम ऋषि वाल्मीकि चुना- जो बाल्य अवस्था में कुकर्म करने वाला हो और आगे ऋषि बन
जाएं ,उसी का नाम वाल्मीकि कहलाता है। वह कितने महान
प्रकाण्ड,बुद्धिमान,ब्रह्माज्ञानी, तत्त्ववेत्ता कहलाने लगे, ऋषियों में उनकी चुनौति होने लगी।
महर्षि बाल्मीकि के आश्रम में माता सीता
यह त्रेताकाल का भी
समय था, जब भगवान राम रावण को नष्ट करके,अपनी संस्कृति का चक्र इस संसार में ओत-प्रोत करके अपनी अयोध्या में आ पहुंचे, माता सीता गर्भीणी थी और राम ने मर्यादा
कहो या कुछ भी उच्चारण कर सकते हो, राम ने
माता सीता को वन दे दिया। जब वन दे दिया, तो वह
बहती हुई ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में जा पहुंची। ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में आ करके
गर्भ से, एक बालक का जन्म
हुआ, बालक जन्म के पश्चात् बड़े आनन्द से ऋषि आश्रम में रहा
करता था।
मुनिवरों!ऋषि वाल्मीकि ने दशरथ से लेकर राम के जीवन चरित का निर्माण किया-
जीवन चरित का क्या, सब ही कुछ कर्म जो उन्होंने किया,उस सब का पोथी रूप
में निर्माण किया ,ऐसा सुना गया है-ऐसा
कुछ पान किया गया है |
ऋषि प्रेम से उस बालक को लव नाम से उच्चारण करने लगे, परन्तु कुछ समय के पश्चात् ऐसा कारण हुआ, कि
महर्षि सुरन्धित की एक कन्या थी, जिसका नाम
सुमित्रा था। वह ऋषि कन्या थी परंतु किसी कारण
वसवह गर्भवती रह गई,शब्रोनो से कुछ समय के पश्चात उसके बालक हुआ ,और उस बालक को कुशा
पर स्थिर कर बाल्मीकि आश्रम के निकट छोड़ अपने ऋषि स्थान पर चली गई।
देखो, जब सीता पवित्र जल पान करने के लिए गई, तो उसे यह बालक प्राप्त हो गया। माता सीता ने उस बालक
को अपने कंठ लगाया और एक लोरी उस बालक को
और एक लोरी अपने पुत्र को देनी लगी।
यह दो पुत्र सीता
के कहलाते है लव जो उनके गर्भ से उत्पन्न हुआ और कुश जो कुशा से मिला। वह सुमित्रा का पुत्र था
और सुमित्रा ऋषि कन्या थी,परंतु यह पुत्र कैसे हुआ, एक ब्रहित नाम
के ब्रह्मचारी सुरन्धित ऋषि के आश्रम में,आए और सुमित्रा से दृष्टिपात हुआ वह अग्रहि
हो गई, पिता से कहा भी
भगवन्! वह कन्या गायत्री का पाठ भी करती थी,
मनुष्य में दोष आ सकते हैं, इस
कन्या में भी किसी कारण वश दोष आ गया,वह कोई आश्चर्यजनक वाक्य नही,
दोनों बालक माता
सीता के कहलाए, यह दोनों
बालक वाल्मीकि की सेवा करते थे और महर्षि बाल्मीकि इन्हें अस्त्र शास्त्रों की, शिक्षा देते थे। कुछ समय के पश्चात् राम
को विदित हुआ, नाना संग्राम भी उन प्यारे पुत्रों के द्वारा
हुए, मुझे संक्षेप चर्चा करनी है, विस्तार से नहीं,
मुझे केवल चर्चा करनी है, प्रणाली की, हमारे
यहाँ एक रघुकुल प्रणाली मानी गई है, यहाँ सबसे पूर्व राजा सगर हुए, राजा सागर के सुखमन्जस हुए, सुखमन्जस के ब्रहूत हुए,
ब्रहूत के कददीप नाम के राजा हुए, कददीप के
भगीरथ हुए, भगीरथ के दिलीप हुए, दिलीप के
रघु हुए, रघु के अज हुए, अज के दशरथ हुए,
दशरथ के राम हुए राम के लव परन्तु लव कुश दोनों ही राम के माने जाते
हैं।
राम के पश्चात् यह लव कुश दोनों राजा बने, इनके सुधित नाम
का एक पुत्र हुआ, जो इनके
पश्चात् राजा बना, सुधित नाम के राजा के कृष्णि नाम के राजा
हुए और कृष्णि के शुभूष नाम के राजा हुए, शुभूष नाम के राजा
के किकरकेतु नाम का राजा हुआ और उसके पश्चात् यह प्रणाली समाप्त हो गई।
राजा रावण
बेटा! मुझे यह प्रणाली तो नहीं उच्चारण करनी थी, परन्तु कुछ प्रकरण आया, तो तुम्हारे
समक्ष निर्णय किया। तुम्हारा वह प्रश्न रहता चला जा रहा है, कि
रावण की नाभि में
अमृत का कुण्ड था।
पुलस्त्य नाम के
ऋषि थे, जो राजा महिदन्त के पुरोहित थे| पुलस्त्य ऋषि के पुत्र थे, मणिचन्द्र
ब्राह्मण और मनिचन्द्र के यहाँ वरुण
नाम का पुत्र हुआ। इस मणिचन्द्र के ओर भी दो पुत्र थे, एक का
नाम गुरुद था और एक का
नाम खरदूषण था उनके कुछ लक्षणें के अनुकूल व्याकरण से उनके नाम चुने। जब यह विद्यालयों में शिक्षा पाते थे,तो तीनों प्यारे पुत्र परमात्मा के आस्तिक थे और
परमात्मा का चिन्तन किया करते थे। वरुण महाराजा शिव की याचना किया करते थे। यह
सुशील था, वेदपाठी था,
महान विद्वान था, वैज्ञानिक भी था, भगवान शिव की याचना करते करते, अपनी
आत्मा का उत्थान किया, हृदय
इसका निर्मल हो गया, आयुर्वेद के सिद्धान्त से इस
वरुण ने जितना भी आयुर्वेद नाड़ी विज्ञान था, वह जाना।
मनुष्य के शरीर में जो यह नाभि चक्र है, इसमें
लगभग २ करोड़ नाड़ियों का समूह है जिसको हम नाभिचक्र कहते हैं। एक सुषुम्णा नाम की नाड़ी होती है,जो
मस्तिष्क से चलती है और उसका सम्बन्ध नाभि चक्र के अग्र भाग में होता है,जो मनुष्य अच्छे विचारों वाला होता है,परमात्मा का चिन्तन करने वाला होता है और
इस नाड़ी विज्ञान को जानने वाला होता है, वह अपनी
क्रियाओं से नाड़ी विज्ञान से,नाना औषधियों से,उस नाड़ी के विज्ञान को जानता
है,जिसको सुधित
नाम की नाड़ी कहते हैं,उसको
बोधित नाम की नाड़ी भी कहते हैं,जो ब्रह्मरन्ध्र से चलती है
और जिसका सम्बन्ध नाभि से रहता है। जब चन्द्रमा सम्पन्न कलाओं से पूर्णिमा के दिवस
परिपक्व होता है, तो वह जो सुधित नाम की नाड़ी
है जिसका मस्तिष्क से सम्बन्ध होता हुआ और नाभि चक्र से होता हुआ, यह नाड़ी
का सम्बन्ध चन्द्रमा से होता है, चन्द्रमा से जो कान्ति मिलती है, जो विशेषज्ञ प्राप्त
होता है,उसे वह नाड़ी
पान करती है, जो नाड़ी
विज्ञान को जाने वाले होते हैं, वह जानते
हैं, कि योग के द्वारा परमात्मा का चिन्तन करते हुए, चन्द्रमा से अमृत मिलता है, वह अमृत पकता है और नाभि से जो नाड़ियों
के मध्य में स्थान होता है, उस स्थान
में यह अमृत एकत्रित होता है।
अब इसमें क्या
विशेषता है? इससे हमें क्या
प्राप्त होता है?
उससे मानव का जीवन
बलिष्ठ होता है। निर्भ्रांत होता है और मृत्यु
से भी कुछ विजयी बन जाता है,उसे
यह ज्ञान हो जाता है, कि तेरी मृत्यु अधिक समय में
आवेगी,उसकी आयु अधिक हो जाती
है क्योंकि वह आनन्द रूपी अमृत नाभि स्थल में होता है।
पूज्य महानन्द जी “गुरु जी! ऐसा कहते
हैं, कि रावण के दस शीष थे, राम जब उन्हें नष्ट
करते, तो दस शीष द्वितीय उमड़ आते थे|”
पूज्यपाद गुरुदेव- यह तो केवल
उपहास है, इसका अभिप्राय यह
है, कि रावण को हमारे यहाँ दशानन कहते हैं, और क्यों कहते हैं?
क्योंकि यह जो दस दिशाएं हैं- पूर्व, पश्चिम, उत्तरायण,
दक्षिणायन और इनकी चारों स्थिति पृथ्वी और अन्तरिक्ष ये दस दिशाएं कहलाती
हैं इनके पूर्ण विज्ञान को जानते थे, वह ब्राह्मण था और महान, प्रकाण्ड
बुद्धिमान था।
तो नाड़ी विज्ञान के अनुकूल उन्होंने
उस अमृत को जाना,उस
अमृत से उसके हृदय में निर्मलता, निर्भयता, विचित्रता थी और सब विज्ञान को जानता था, परन्तु विज्ञान को जानने के पश्चात् अपने पिता के
सम्पर्क में आया।
पिता ने कहा भाई! अब तुम संस्कार करा लो,
परन्तु उन्होंने कहा कि महाराज! मेरी संस्कार कराने की इच्छा नहीं। राजा महिदन्त
चक्रवर्ती राजा थे, पातालपुरी
भी उन्हीं पर थी, रोहिणी नाम का राष्ट्र भी उन्हीं पर था, गान्धार इत्यादि जो राज्य थे,वे राजा महिदन्त के आधीन थे, इनका जो राजकोष था, वह लंका
में था, इन्होंने स्वर्ण की
लंका भी बनाई और महाराजा, शिव उनके सहायक रहते थे। उसके
पश्चात् कुछ ऐसा कारण बना,कि राजा कुबेर ने आ करके, राजा महिदन्त से लंका को अपना लिया और पातालपुरी को
कुधित रूष्टित नाम के राजा ने अपना लिया और भातिक नाम के राजा ने सोमधित राज्य को अपना लिया।
राजा महिदन्त के एक
कन्या थी, पुत्र कोई न था।
वह कन्या तत्त्व मुनि पुरोहित के द्वारा वेद-यज्ञ ज्ञान प्राप्त करती थी,बड़ी विदुषी थी। राजा महिदन्त पुरोहित के द्वार गएं और
कहा-महाराज! मेरी कन्या को आपने शिक्षा दी है, परन्तु
मैं यह ओर जानना चाहता हूँ, कि
मेरी कन्या कौन से गुणों वाली है, किस कुल में इसका संस्कार होना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह ब्राह्मणों के
गुण वाली है, ब्राह्मण कुल में इसका संस्कार कर दो।
अब राजा महिदन्त को
यह हुआ, कि ब्राह्मण का कुल जानना चाहिए, अब उन्होंने वही कुल देखा, वही बालक, जिसको वरुण कहते थे, उस बालक न कन्या के गुणों को पान किया, तो मग्न हो गएं और संस्कार करा लिया। जब संस्कार कराने
गएं, तो राजा महिदन्त ने सबका स्वागत किया ,परन्तु नाना सम्बन्धियों में से एक ने कहा, कि भाई! कुछ अर्पित नहीं किया? उस समय राजा महिदन्त ने कहा कि भाई! मैं क्या करूं, मेरे
द्वारा कुछ था नहीं, सूक्ष्म सा राज्य रह गया है, मेरा विशेष राज्य जो लंका में था, वह सब
कुबेर ने विजय कर लिया है। उस समय उस वरुण बालक ने प्रतिज्ञा की, लंका को विजय
करने के पश्चात् में अपनी पत्नी के द्वार पहुंचूंगा।
यह प्रतिज्ञा करने
के पश्चात्, उस महान बालक ने, ब्राह्मण तो था, नाना राज्यों में
भ्रमण किया और सब राजाओं से ब्राह्मण की दक्षिणा में सहायता पान करता था,,किसी से दस सहस्त्र सेना ले ली। इसी प्रकार सेना एकत्रित
की और लंका पर विजय पाने के लिए,राजा कुबेर
पर आक्रमण कर दिया और लंका को विजय कर
लिया। विजय करने के पश्चात् वह राजा महिदन्त के द्वार आए और कहा कि महाराज! यह है
आपका राज्य स्वीकार कीजिए। राजा महिदन्त बोले कि-भाई! यह राज्य मेरा नहीं,मैंने अपनी
कन्या के संस्कार में यह राज्य
तुम्हें अर्पित कर दिया, उस
समय मैं कुछ न दे सका था।
तो सब राजाओं का एक
समाज नियुक्त हुआ और उन्होंने कहा कि भाई! यह
नवीन राजा लंका का स्वामी बना है, दूसरे नाम की चुनौती दो, ब्रह्मण है, ऊँचा है, पुलस्त्य ऋषि महाराज का पौत्र है, तो सब राजाओं ने व्याकरण की दृष्टि से उसका नाम रावण
नियुक्त किया। रावण
शब्दार्थ ऊँचे और दानी का है, वीर का है, उसने कुबेर को नष्ट किया और लंका का
स्वामी बना। यह प्रभु का महान पुजारी था, राजा होने के
पश्चात राजसी गुण आने लगे। अन्त में इसमें तमोगुण आ गया और वही जो तुम जानते हो,जो सुना है वही कारण हुआ और अन्त में नष्ट हो गए।
तो रावण का इतिहास बड़ा सुन्दर है।क्योंकि वह वीर बालक था,उसके
द्वारा वीरता थी, उसने संसार में
राज्य को अपनाया,पातालपुरी
को लिया,गान्धार को लिया,सुधित नाम के
राज्य को लिया, रुधिर नाम के राज्य को लिया,नाना सब ही राज्यों को अपना कर आर्यावर्त
पर आक्रमण किया। यहाँ भी आकर केवल एक अयोध्या राज्य को छोड़ा था, राजा रावण इतना विस्तार कर चुका था।
राजा रावण के पुत्र
थे नारायन्तक,अहिरावण, मेघनाथ,
अक्षय कुमार इत्यादि, अहिरावण
पातालपुरी का राजा था और नारायन्तक, सुधित का राजा था और अक्षय कुमार के द्वारा रोहिणी नाम का राज्य था,
मेघनाथ गान्धार का राजा था और उसका कौन सम्बन्धित था ? खरदूषण| जो महान इस आर्यावर्त की
सीमा को दमन करता चला आ रहा था। मारीच इत्यादि ओर भी सम्बन्धित आततायी थे
पूज्य महानन्द जीः “गुरु देव! कुछ वर्णन कर दूं, कि आधुनिक काल मैं इन राज्यों को क्या कहते हैं?”
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! जैसी तुम्हारी इच्छा हो।“
पूज्य महानन्द जीः
भगवन! यह जो आपने पातालपुरी कहा है, जहाँ
अहिरावण राज्य करता था उसको आधुनिक काल में अमेरिका कहते हैं और सुधित नाम का
राज्य जहाँ नारायन्तक, राज्य करता था
उसको आधुनिक काल में रूस कहते हैं और जो रोहिणी नाम का राज्य था, जहाँ
अक्षय कुमार राज्य करता था, उसको चीन कहते हैं और
गान्धार इत्यादि जिनको आधुनिक काल में काबुल, बिलोच
जैसा कुछ कहते हैं परन्तु इसमें मुझे भी कुछ भ्रान्ति होती चली जा रही है।
पूज्य महानन्द जीः
अच्छा! धन्य हो!
पूज्यपाद गुरुदेवः
तो आधुनिक काल का प्रतीत नहीं क्या कहते हैं, तुम्हें
ज्ञान होगा, परन्तु मैंने कुछ इतिहास का चर्चा वर्णन की, इन राज्यों में सबमें एक संस्कृति थी,परन्तु कारण बना, इसमें
आततायी हो गए, अपने स्वार्थ में आ करके संस्कृति से असंस्कृति वाले बन गए। रावण के लिखे विज्ञान से,
परंतु इससे पूर्व के इतिहास से ज्ञान होता है, कि भगवान राम कितने पराक्रमी थे,इस महान आर्यावर्त को, अपने अयोध्या राष्ट्र को भी और इसके पश्चात आगे चलते गए
और सर्वत्र संसार में संस्कृति का प्रसार करके अहिरावण को नष्ट कर, हनुमान के पुत्र मकरध्वज को वहाँ का राज्य दिया।
पूज्य महानन्द जीः “गुरुदेव! ऐसा कहते हैं कि मकरध्वज का जन्म मछली से हुआ।“
पूज्यपाद गुरुदेवः
तुम इसको जानो। महानन्द जी! त्रेता काल को हमें दृष्टिपात करने का
सौभाग्य मिला। तुम्हें यह जान लेना
चाहिए कि सुग्रीव की कन्या रोहिणी थी और
उसका संस्कार हनुमान से हुआ था और केवल एक प्रथम बालक
उत्पन्न हुआ,उसके पश्चात् उस कन्या की मृत्यु हो गई और
मृत्यु के पश्चात् हनुमान ब्रह्मचारी रहा और यह बालक यहाँ से किसी कारण वश जब
खरदूषण आदि आततायियों का यहाँ आक्रमण हो रहा था, तो
उनके आँगन में आ
गया और वहाँ से यह बालक पातालपुरी चला गया और अहिरावण का द्वारपाल रहता था।
भगवान राम ने जब
अहिरावण को विजय किया, तो इस बालक से परिचय हुआ और
ज्ञात हुआ कि यह तो हनुमान का पुत्र है। अहिरावण को नष्ट करने के पश्चात, इसे पातालपुरी का राजा बनाया गया। किसको बनाया ? हनुमान के पुत्र मकरध्वज |
तुम्हें एक ज्ञान
और कराए देते हैं, कि जहाँ जो प्रभु ने रचाया है, वह वहीं जन्म लेता है, वैसी ही उसकी प्रकृति होती है। मछली के गर्भ से मछली ही
जन्म लेगी,उसका रूप किसी और रूप में हो जाएं यह द्वितीय बात है, परन्तु माता के गर्भ से बालक जन्म लेता है |मच्छली के गर्भ से बालक कदापि
भी जन्म न लेगा,क्यों नहीं जन्मता ? क्योंकि उसकी प्रकृति
में वह स्थान नहीं। मैंने कई काल में वर्णन किया, कि
माता के गर्भ स्थल में कमल होता है, कमल में बिन्दु जाता है वहाँ तब गर्भ स्थापित होता है और यह बालक बनता है
और जन्मता को प्राप्त होता है। जन्म पा करके यह मनुष्यता को प्राप्त होता है।
तुम्हारे यह मूर्खों वाले शब्द हैं ,जो न
मानने वाले हैं यह मूर्खों का समाज नहीं, बुद्धिमानों का समाज है। हमारा जो इतिहास है,उसकी परम्परा को जान लेना चाहिए।
तो हे मेरे भोले आचार्यजनो!
मेरे प्यारे महानन्द जी ने कहा था कि रावण को नाभि में अमृत का कुण्ड था परन्तु नाभि में अमृत स्थान होता है, अमृत प्राप्त होता है, मनुष्य ब्रह्मचर्य से सजा हुआ होता है।
राजा महिदन्त की
कन्या, जिसका संस्कार रावण के द्वारा हुआ, उसका नाम था मन्दोदरी।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु देव! मुझे बारम्बार का वह प्रश्न फिर स्मरण हो आया, कि कहते हैं यह तो ऋषि कन्या थी।?”
पूज्यपाद गुरुदेवः “अरे कैसे?”
पूज्य महानन्द जीः
भगवन! मैंने आपको इससे पूर्व भी वर्णन कराया था कि कहते हैं कि चार ऋषि तपस्या
करते थे और रावण ने ऋषियों पर कर लगा दिया, और उनसे
कर लेने लगा। कहते हैं ऋषियों के द्वारा कर था नहीं, ऋषियों ने अपना माँस दे दिया और राजा रावण ने ले जाकर इस
माँस को राजा जनक के यहाँ प्रस्तुत कर
दिया। अब वहाँ जब राजा जनक ने हल चलाया, तो सीता
का जन्म हुआ और यहाँ उन ऋषियों ने क्या किया कि एक समय उन्होंने खीर का सुन्दर
भोजन बनाया और भोजन बनाकर स्नान करने चले गएं और खीर के पात्र में सर्प जा पहुंचा। उन ऋषियों के आश्रम में एक मेंढ़की रहा करती थी।
पूज्यपद गुरुदेव-हास्य...अच्छा,अरे, मेंढ़की क्या होती है?”
पूज्य महानन्द जी – “भगवन! मेंढ़की अब रूह शुशची” |
पूज्यपद गुरुदेव-“अच्छा|”
पूज्य महानन्द जीः “तो उस मेंढ़की ने सोचा कि चारों ऋषि आएंगे और समाप्त हो जाएंगे इसलिए जब ऋषिजन स्नान ध्यान करने
के पश्चात् भोजन पाने के लिए खीर के समीप पहुँचे, तो
वह मेंढ़की उस खीर में पहुँच गई। ऋषियों ने कहा कि भाई! भोजन अपवित्र हो गया, उन्होंने भोजन को पात्र से पृथक किया, तो उसमें सर्प था। ऋषियों को ज्ञान हुआ कि मेंढ़की ने
हमारे प्राणों की रक्षा की है। तो गुरुदेव!
ऐसा सुना है कि उस मेंढ़की की कन्या उत्पन्न हो गई और उस कन्या का नाम मन्दोदरी था, उसके पश्चात् वह रावण को अर्पित कर दी थी, ऐसा सुना है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः
महानन्द जी! तुम ऐसी चर्चाएं क्यों किया करते हो, यह न मानने वाला वाक्य है, यह कैसे हो सकता है, कि बिना माता के गर्भ स्थल के कन्या का जन्म हो जाएं।
यह तो मान सकते हैं कि मेढ़की में वह भाव आ गएं हों और उनके प्राणों की रक्षा भी
हुई हो,परन्तु यह कैसे स्वीकार करें, कि बिना माता
के गर्भस्थल के उस कन्या का जन्म हुआ। यह परमात्मा का नियम नहीं कहता, वैदिक
सिद्धान्त नहीं कहता।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! ऐसा कहते हैं कि ऋषियों की इच्छा है, जब ऋषि परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं, तो वह जो चाहें सो करें।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “हां! यह वाक्य तुम्हारा यथार्थ है, परन्तु मैं तुमसे एक वाक्य जानना चाहता हूँ कि जो ऋषि
हो जाते हैं,वह परमात्मा के नियम से चलते हैं या नियम के
विरूद्ध”!
पूज्य महानन्द जीः “भगवन! वह नियम के अनुकूल चलतें हैं?”
पूज्यपाद गुरुदेवः ‘अच्छा, वे नियम के विपरीत तो नहीं
चलते?”
पूज्य महानन्द जीः “नहीं भगवन्!”
पूज्यपाद गुरुदेवः
जब नियम के विपरीत नहीं चलते, तो यह ऋषि नियम के विपरीत
कैसे चले कि बिना गर्भस्थल के कन्या का जन्म हुआ? यह कैसे माना जाएं? इसलिए यह वाक्य
न मानने वाला वाक्य है। ऋषिजन अपने जीवन का मन्थन करते हैं और मन्थन करते-करते परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं,परन्तु परमात्मा के नियम के विरुद्ध कोई भी कार्य नहीं
करते। यह नियम कहलाता है और ऋषिता कहलाती है।“
पूज्य महानन्द जीः “चलों
भगवन्! इस वाक्य से हमारी सन्तुष्टि हो गई, परन्तु
अब सीता का जन्म इसी प्रकार का है घड़े से जन्म हुआ।“
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य.... “हाँ यह वाक्य भी मैंने निर्णय कराया था, परन्तु
पुनः इसका प्रश्न करते रहो। महानन्द जी! इसका उत्तर पुनः काल में दिया था और यह
सुनो -
सीता राजा जनक की कन्या थी। एक समय राजा जनक के राष्ट्र में
अकाल पड़ गया, नाना ऋषियों को निमन्त्रण दिया गया, याज्ञवल्क्य, माता गार्गी, महर्षि
लोमश आदि ओर भी अन्य ऋषि
उनके आश्रम में आए । राजा जनक ने
उनसे कहा कि मेरी प्रजा अन्न के अभाव से दुखित है कुछ ऐसा यत्न करो, कि जिससे अकाल समाप्त हो जाएं। उन्होंने देखा गणित के अनुकूल देखा और कहा
कि भगवन्! आप दो गौ के बछड़े लीजिए, स्वर्ण का हल बनवाइए और अपनी वाटिका में जाकर हल चलाईए,ऐसा उनका विश्वास था। राजा जनक ने ऐसा ही किया। कारण होना था, राजा जनक ने ज्यों ही हल चलाया, वृष्टि
हुई और उधर राजा जनक के घर कन्या का जन्म हुआ।
राजा जनक को जब गृह से कन्या उत्पन्न होने का समाचार मिला, तो बड़े प्रसन्न
हुए कि मेरा बड़ा सौभाग्य है,आज ऐसे आनन्द
समय मेरी पुत्री का जन्म हुआ। उन्होंने ऋषि मुनियों से कहा कि महाराजा! अब तो आप
सब एकत्रित हो, मेरी कन्या का नामकरण संस्कार कीजिए।
ऋषि मुनियों ने कहा कि भाई! इसका
नामकरण संस्कार क्या, इसका नाम सीता
नियुक्त कर दो। व्याकरण की रीति से उन्होंने कहा कि “सी” नाम वृष्टि का
और “ता” नाम हल की फाली का हल चलाने से वृष्टि हुई है और वृष्टि होने से जन्म हुआ
है दोनों के मिलान से जन्म हुआ है इसलिए कन्या का नाम सीता नियुक्त कर दो, उस समय उसका नाम सीता नियुक्त कर दिया गया।
उच्चारण करने का भाव है कि हमें प्रत्येक वाक्य को विचार
लेना चाहिए, केवल मूर्खता से नहीं, वास्तविक रूप
से विचारते चले जाएं। अब तुम कहोगे कि यह वाक्य आप ही स्वीकार करते हैं, परन्तु मैं नहीं करता, ऋषि वाल्मीकि स्वीकार करते हैं और यह भी
स्वीकार न करो, कि हमें
त्रेता काल देखने का सौभाग्य मिला है। अब तुम्हारी यह सब भ्रान्तियाँ निवृत्त होती
चली गई हैं।
आज का हमारा वेद पाठ क्या कह रहा था? आज हम इतिहास में जा पहुँचे, दर्शनों की चर्चा
समाप्त कर दी, यह मुर्खानन्द
इतिहास को चर्चा चाहता था, परन्तु चलो, कोई बात नहीं।आज श्रंगकेतु संहिता का पाठ चल रहा था ,यह संहिता बड़ी सुंदर है, इसमें बड़ी
उदारता आती है, पवित्रता आती है |इसमें
जब वेदों का पाठ आएगा नाड़ी विज्ञान संबन्धित आएगा,तो किसी काल में प्रगट करेंगे आज नाड़ी विज्ञान का विषय नही
था यह तो महानन्द जी के प्रश्नों के अनुकूल कुछ उत्तर दिया |उच्चारण कर रहे थे महर्षि वाल्मीकि की चर्चा |
तो मानव को यह
विचार लेना चाहिए कि जो मनुष्य दुराचारी होता है, वह
संसार में ऋषि भी बन जाता है जैसे ऋषि वाल्मीकि । इसी प्रकार हमें आज
विचार लेना चाहिए, कि हम किसी न किसी काल में शुभ कर्म करें और वह कर्म करते चले जाएं, जिससे यह प्रकृति हमारी साथी बन जाएं और हमारे विचारों
के अनुकूल हमें फल देने वाली हो।हमारे प्रारम्भ के वाक्यों में कर्म का विषय चल रहा था हमें
परमात्मा के अनुकूल अपना जीवन बना लेना चाहिए,
परमात्मा की आज्ञा
में विचरण करना चाहिए और जब परमात्मा की आज्ञा में विचरण करेंगे तो हमें इच्छा के
अनुकूल फल प्राप्त होगा। । २२ अक्तूबर १९६४ सनातन धर्म, प्राईमरी स्कूल मोगा मण्डी, (पंजाब)
7-1-1962
अभी- अभी त्रेता के समय का
एक वाक्य हमारे कंठ आ गया है तो महानन्द जी ने बहुत पूर्व प्रश्न किया था
वर्णन तो बहुत विशाल है इसका वर्णन अन्यत्र कहीं बड़ा विशाल होगा। अब तो तुम्हें
केवल त्रेता के समय का वर्णन सुनाएं देते है। वह क्या है ?
वह मानव के जीवन को ऊंचा बनाने वाला है आज प्रायः महानन्द जी के कथनानुसार वह
अशुद्ध माना जाता है परन्तु
हम तो महर्षि वाल्मीकि जी के अनुकूल अपने कथन को प्रारम्भ कर रहे हैं| वह क्या है? महर्षि वाल्मीकि ने ऐसा कहा है कि जब राजा राम अपने महान
शिष्यगणों को लेकर, सुग्रीव
की सेना को लेकर समुद्र तट पर जा पंहुचे, वहाँ उनके दो बहुत
बड़े वैज्ञानिक थे जिनको नल और नील कहते थे, जो शिल्प विद्या
बहुत अच्छी प्रकार जानते थे,उन दोनों वैज्ञानिकों ने समुद्र
का शेष बाँधना प्रारम्भ किया,तो इसके पश्चात ऐसा कारण बना, जिससे रावण को विदित हो गया कि राम संग्राम करने को विराज रहा है, इस पर वह विचारने लगा कि मुझे क्या करना चाहिए। यह तो हमने तुमसे पूर्व
ही वर्णन किया था कि राजा रावण बहुत ही बुद्धिमान था,वह
चारों वेदों का ज्ञाता था, वह अपनी क्रियाओं को भली भांति
जानता था।
राजा रावण और विभीषण की भगवान राम के विषय में चर्चाएँ
तो! हमने कुछ ऐसा
सुना है, कि रावण ने अपने
विधाता विभीषण को कंठ किया और मन्त्री से कहा-“ जाओ, आज विभीषण को, मेरे समक्ष लाओ, उनसे कुछ वार्त्ता उच्चारण करूंगा”| तो उस समय वह
मन्त्री जी बहते हुए विभीषण के द्वार पर जा पंहुचे, उस समय
विभीषण ने कहा आज कैसा सौभाग्य है जो मेरे विधाता ने,जो
परमात्मा के बड़े विरोधी हैं, मुझे कंठ किया है| मैं तो परमात्मा का बड़ा प्रिय हूँ उस समय अपना सौभाग्य मनाते हुए राजा
रावण के समक्ष जा पंहुचे। राजा रावण ने कहा “आईए, विधाता!
विराजिए| तब विभीषण ने कहा मेरे योग्य क्या सेवा है? विधाता! आप तो परमात्मा के विरोधी हैं,आपने आज
परमात्मा के भक्त को अपने समक्ष बुलाया है, यह क्या बात है?
उस समय रावण ने कहा- नही-नही विधाता! मैं तुमसे कुछ
प्रार्थना कर रहा हूँ, मेरी एक इच्छा है, राम मुझसे संग्राम करने आ रहा है, पूर्व तो मैं यह जानना चाहता हूँ, कि तुम प्रिय परमात्मा के भक्त हो, नित्य प्रति
ओ३म् का जप किया करते हो,मैं यह जानना चाहता हूँ कि मैं राम
से विजय पा सकता हूँ या नहीं? उस समय विभीषण ने कहा था कि “हे भगवन! आप सात जन्म भी
धारण करेंगें, तब भी राम से विजय प्राप्त नहीं कर सकते।“
उस रावण ने कहा- यह
कैसे हो सकता है?
उस समय विभीषण ने
कहा- “विधाता! वह जो राम है,वह
बड़े वैज्ञानिक हैं,बड़े बलवान हैं”
रावण ने कहा- “अरे, हम भी तो वैज्ञानिक हैं”
उस समय विभीषण ने
कहा-“महाराज! आपके विज्ञान और उनके विज्ञान में कुछ भिन्नता है ।
“क्या भिन्नता है’? रावण ने कहा
हे विधाता! राम के
द्वारा दोनों ही पदार्थ हैं आत्मिक सत्ता भी है, वैज्ञानिक सत्ता भी दोनों सत्ताओं से वह तुम्हें विजय कर
सकता है।
उस समय रावण ने कहा
कि तो हमें क्या करना चाहिए?
उस समय विभीषण ने
कहा-मेरी इच्छा तों यह है, यह तो
पूर्व ही नियम है, कि जिस राजा के राज्य में दुराचार होता
है,या जो राजा किसी कन्या या देवी का हरण करता है,उस राजा का राज आज नही तो कल अवश्य समाप्त हो जाता है| भगवन! आपका तो विनाश होने वाला है,यह तो मुझे पूर्व ही विदित हो रहा है,यदि आप मेरी
याचना को स्वीकार करें,तो विधाता! माता सीता को ले जाईएं और
राम के चरणों को जाकर स्पर्श कीजिए। वे आपको अवश्य तथास्तु करेंगें।
उस समय जब रावण ने
अपने विधाता से यह वाक्य सुना, तब उसने क्रोध में आ कर कहा अरे! विधाता! तुम मेरे विधाता नही,शत्रु हो| क्या, मैं अपने
शत्रु के चरणों को स्पर्श करूं?
तो जब विनाश का समय आता है तब बुद्धि उसी प्रकार की बन जाती
है रावण ने अपने पदों की ठोकर से अपने विधाता को ठुकराना प्रारम्भ कर दिया ।
उस समय विभीषण ने
कहा- नहीं विधाता! “मैं आपके हित की बात कर रहा हूँ|”
उन्होंने कहा_“अरे, मैं हित की
बात नही चाहता,जाओ, तुम भी वही चले जाओ
जिसकी तुम बात कर रहे हो।“
भगवान राम की शरण में विभीषण
उस समय जब रावण ने उन्हें अपने राष्ट्र में न रहने दिया,तो वे बहते हुए समुद्र पार कर पर राम के समक्ष
जा पंहुचे। राम ने उनका सब परिचय लिया। विभीषण ने अपने जीवन की जो महान घटनांए थी,उन
सब की वर्णन किया और कहा- “महाराज! मैं आपकी शरण आया हूँ” तब राम ने अपनी शरण दे
दी।
तो वह वहाँ बड़े आनन्द पूर्वक रहने लगे। कुछ समय के
पश्चात राम ने विभीषण से कहा हे
विधाता! मैं एक वार्ता जानना चाहता हूँ, आप रावण के विधाता हैं| मैं रावण से संग्राम करने
जा रहा हूँ, “क्या मैं उससे विजय पा सकूंगा?”
उस समय उन्होंने
कहा- हे विधाता! हे राम! आप मेरी अनुमति लेते हैं,तो मेरी यह अनुमति है कि आप सात जन्म भी धारण करेंगें, तो भी रावण से विजय नहीं प्राप्त
कर सकेंगें
उस समय राम ने कहा-
“यह क्या है, क्यों विजय नही
पा सकूंगा? क्या विशेषता है उसमें?
उस समय विभीषण ने
कहा- हे राम! वास्तव में रावण के पुत्र नारायन्तक आदि बड़े बलवान हैं, इसके अतिरिक्त रावण भी बड़ा ज्ञानी बलवान
और वैज्ञानिक हैं, उसके पुत्रों में भी यही विशेषताएं है
राजा रावण का पुत्र नारायन्तक बड़ा वैज्ञानिक है,उसने विज्ञान
के महान यन्त्रों की खोज की है,वह तुम्हारा विनाश कर देगा|
इन सबको भी त्याग दिया जाएं, तो इसके पश्चात
रावण के गुरु शिव महाराज हैं जो कैलाशपति हैं।
शिव किसको कहते हैं? शिव तो परमात्मा को कहा जाता है| परन्तु यहाँ तो ऋषि वाल्मीकि के
कथनानुसार ऐसा उच्चारण किया जाता है, कि राजा शिव जिसका संस्कार राजा हिमाचल के द्वारा माता पार्वती के समक्ष
हुआ था, वह कैलाशपति थे। जिसकी प्रजा कैलाश के तुल्य हो और प्रजा
महान हो, उस समय राजा का नाम शिव होता है,जिस राजा के राष्ट्र में ज्ञान एवं विज्ञान से,आत्मिक बल से,वेदों
के स्वाध्याय से जिसकी प्रजा बहुत ऊँची हो,जिसके राष्ट्र में
देव कन्याएं और मानव बहुत उच्च भावना बाले हों अर्थात कैलाश पर्वत जैसी ऊँची भावना वाली प्रजा हो,तो उस राजा
के स्वामी को शिव कहा जाता है।
शिव तो परमात्मा को
कहते हैं, और सूर्य नाम शिव
का भी है, जो हम पूर्व ही उच्चारण कर चुके हैं| आज तो कोई प्रकरण नही चल रहा है, तो हमारे यहाँ
महान आचार्यों का एक विचार बना हुआ है, जो उनके गुण कर्मों
के अनुकूल है| तो राजा रावण के गुरु राजा शिव थे, जिनकी प्रजा बहुत ऊँची थी, बहुत वैज्ञानिक थीं| ऐसा राजा, जो रावण की सहायता करता हो, उस राजा की विजय क्यों नहीं होगी, हे राम! रावण के समक्ष चाहे जितने राम आ जाएँ तब भी आप
रावण को संग्राम में विजय नही पा सकोगे| उस समय राम ने कहा तो “हे विधाता! मुझे क्या करना चाहिए? मुझे जो विजय पानी ही है। उन्होंने कहा -भगवन! आप
अजयमेध यज्ञ कीजिए और यदि यज्ञ विधान द्वारा किया गया,तो
आपकी विजय अवश्य होगी| उस समय राम ने कहा-“ मैं अवश्य करूंगा” क्या शिव मुझसे प्रसन्न हो जाएंगें?
उस समय विभीषण ने
कहा- “विधाता! यदि आप अजयमेध यज्ञ करेंगें और शिव को निमन्त्रण के अनुकूल नियुक्त
करोगे, तो महान शिव अवश्य ही
आप सब के समक्ष आ जाएंगें। आप, अवश्य विजय पा जाएंगें।
विजय यज्ञ का ब्रह्मा राजा रावण
उस समय राम ने
विभीषण के आदेशानुसार वहाँ सब सामग्री जुटाना प्रारम्भ कर दिया, जब सब सामग्री,
घृत्त आदि वहाँ एकत्रित होने लगी,बुद्धिमानों
को आमन्त्रित किया गया| उस
समय विभीषण ने कहा कि –“हे राम! यदि यह सब सामग्री भी जुट जाएं, परन्तु जब तक यज्ञ का ब्रह्मा रावण नही बनेगा, तब
तक आपका यज्ञ सफल नही होगा |”
उस समय राम ने कहा
–विघाता! यह कैसे होगा, मेरा
शत्रु ,मेरे समक्ष आएगा ?
उन्होंने कहा-कि रावण
इतना ज्ञानी है वास्तव में तुम निमन्त्रण देने जाओगे,तो वह स्वयं आ जाएंगे और तुम्हारे यज्ञ
को अवश्य सफल करेंगें।
महर्षि वाल्मीकि जी ने ऐसा वर्णन किया है,कि विभीषण वहाँ से अपने स्थान पर चले गए।
वहाँ सब सामग्री जुट जाने के पश्चात राम और लक्ष्मण ने रावण को निमन्त्रण देने की
योजना बनाई। दोनों वहाँ से बहते हुए रावण के द्वार पर जा पंहुचे। रावण ने इससे
पूर्व राम को कदापि नही देखा था, इसीलिए रावण को उनकी कोई
पहचान न हो सकीं, इस समय रावण अपने न्यायालय में विराजमान
होकर न्याय कर रहा था| उस समय के न्याय को पाकर राम ने
लक्ष्मण से कहा-“ रावण तो बड़ा नीतिज्ञ है|” देखो, कैसा सुन्दर न्याय कर रहा है| धन्य है। विधाता को
निमन्त्रण दें,तो कैसे दें? उस समय वह
वहाँ कुछ समय शान्त विराजमान हो गए। न्यायालय में जब रावण का न्याय समाप्त हो गया, तब वे उनके समक्ष पंहुचे।
राम के आमन्त्रण पर रावण
का धर्माचरण
उस समय रावण ने
कहा- “कहिए भगवन्! किस प्रकार बहते हुए आए हैं, क्या याचना है?”
उन्होंने कहा-
“भगवन! हम एक अजयमेध यज्ञ कर रहे हैं, वेदों के अनुकूल आप हमारे यज्ञ को पूर्ण कीजिए|”
रावण ने कहा-“
तथास्तु” जैसी तुम्हारी इच्छा होगी, वैसा ही किया जाएगा।
उस समय राम ने कहा
भगवन! समुद्र तट पर यज्ञ हो रहा है,और हम आपको निमन्त्रिण कर चुके हैं, विधाता! हम कल नही आ सकेंगे, तृतीय समय में आप स्वयं वहाँ विराजमान
हो जाना।
उस समय रावण ने राम
की उस याचना को स्वीकार कर लिया। वहाँ से दोनों विधाता बहते हुए समुद्र तट पर आ
पंहुचें
अब हमने महर्षि वाल्मीकि के मुखारबिन्दु से ऐसा सुना है,और हमारे महर्षि लोमश मुनि महाराज ने ऐसा
देखा भी हैं कि जब राम और लक्ष्मण दोनों अपने स्थान पर पंहुच गएं,तो वहाँ उन्होंने यज्ञ की सब सामग्री घृत्त आदि एकत्रित किए और बड़ी सुन्दर यज्ञशाला बनाई, ऐसी सुंदर यज्ञशाला बनाई जिसका वर्णन
नही किया जा सकता।
ऐसा विदित होने लगा,जैसे ब्रह्मलोक से ब्रह्मा आ पंहुचा हो।
अब द्वितीय समय भी समाप्त हो गया तृतीय समय आ पंहुचा। अब रावण की वहाँ प्रतीक्षा
होने लगी, कुछ समय के पश्चात रावण भी अपने पुष्प विमान में
विद्यमान हो करके उस महान भूमि पर आ पंहुचे,जहाँ राम ने यज्ञशाला का निर्माण किया था। वह वहाँ आ
पंहुचे, तो उन दोनो विधाताओं
ने उनका बड़ा स्वागत किया और राम ने उन्हें अजयमेध यज्ञ का ब्रह्मा नियुक्त कर
दिया।
ब्रह्मा चुने जाने
के पश्चात,जब वहाँ यज्ञोपवीत
धारण किए जाने लगे,तों उस समय रावण ने उन सब का परिचय लिया।
उस समय उन्होंने कहा-भगवन! मुझे राम कहते हैं, मुझे लक्ष्मण
कहते हैं| जब उन्होने अपना
व्यक्तित्व उच्चारण किया,तो रावण बड़े आश्चर्य में रह गया ।
अरे, यह क्या हुआ| यह जो बड़ा
आश्चर्यजनक कार्य हुआ,उस समय उन्होंने कहा अरे, चलो, जब इन्होंने तुम्हें ब्रह्मा चुना है, तो तेरा कर्तव्य है कि विधि विधान से यज्ञ पूर्ण कराऊं। उस समय उन्होंने
कहा-“ धन्यवाद! अहां तुम्हारी धर्मपत्नी कहाँ हैं?”
उस समय राम ने कहा-“ विधाता! मेरी धर्मपत्नी तो आपके गृह,लंका में हैं| उस समय रावण ने कहा अरे,मैंने यज्ञ को विधान से नही
किया,तो मैं देवताओं का महापापी बन जाऊंगा। मुझे अजयमेध यज्ञ
करने का ब्रह्मा इन्होंने बनाया है| मुझे परमात्मा ने बुद्धि
दी है, मेरा कर्तव्य केवल एक ही है कि मैं सीता को लाऊं और
यज्ञ को विधान से पूर्ण करूँ |
यज्ञ के विधान के लिए सीता का यज्ञ में आगमन
महर्षि वाल्मीकि ने ऐसा कहा है कि वह वहाँ से अपने पुष्पविमान में
विद्यमान होकर के लंका में सीता के द्वार जा पंहुचे, और सीता से कहा-“ हे सीते! तेरा स्वामी यज्ञ रचा रहा है,समुद्र तट पर चलो।“ उस समय सीता ने कहा-“ हे रावण! आप नित्यप्रति मिथ्या
ही उच्चारण किया करते हो?”
“नहीं, सीते! मुझे तेरे स्वामी ने उस यज्ञ का
ब्रह्मा चुना हैं “
सीता ने जब इस आदेश
को पाया,तो प्रसन्न हो गई और
उसके पुष्पविमान में विद्यमान हो,उसी स्थान पर जा पंहुचे,जहाँ विशाल अजयमेध यज्ञ करने का विधान बनाया गया था|वहाँ
जाकर बड़े आनंद से सीता, राम के दक्षिण विभाग में विद्यमान हो
गई और रावण अपने दक्षिण विभाग में यज्ञ का ब्रह्मा बन गया। उसके पश्चात यज्ञ आरम्भ
होने लगा।
!जब तक विधान से
ऋत्विक नहीं चुने जाएंगे,चाहे कैसा भी यज्ञ हो,वह लाभदायक नही होगा |तो वहाँ आनंद पूर्वक ऋत्विक चुने गए |वहाँ अध्वर्यु आदि भी चुने गए |यज्ञोपवीत धारण किए
और यज्ञ आरंभ होने लगा |
तो हमने ऐसा सुना
हैं, कि महर्षि वाल्मीकि के अनुसार तथा महर्षि लोमश मनि के निर्णय अनुसार
उन्होंने यज्ञ को देखा था,
कि यह यज्ञ इसी प्रकार चलता रहा।
जिस समय यज्ञ की
पूर्णाहुति होने वाली थी,उस
समय सीता ने राम से कहा-“हे राम! आप यज्ञ तो रचा रहें हैं, परन्तु रावण के लिए आपके पास कुछ
दक्षिणा भी है या नहीं?”
तब राम ने सीता से
कहा-“हे सीते! मेरे पास क्या है,मैं उन्हें क्या दक्षिणा दूं?”
सीता ने कहा-
विधाता! यह तो बड़ा द्रव्यपति राजा है,इसके यहाँ तो स्वर्ण तक के गृह हैं, मणियों के ढेर
लगे रहते हैं। तो यह कार्य कैसे सम्पूर्ण होगा?
“तो मैं क्या करूं?”
तो उस समय सीता ने
क्या किया, उसके पास एक कौड़ी
जूड़ा था,वह उसने राम को दिया ओर कहा –“लीजिए,महाराज!आप ब्रह्मा रावण का स्वागत इससे कीजिए।“
तो सीता का यह कौड़ी जूड़ा राम
ने स्वीकार कर लिया।
अब यज्ञ चलता रहा, पूर्णाहुति होने के पश्चात वहाँ
यथाशक्ति स्वागत होने लगा। राम और सीता दोनों उस कौड़ी जुड़े को लेकर रावण के समक्ष
जा पंहुचे| रावण ने कहा-“हे राम! मुझे विदित होता है, जैसे यह कौड़ी जूड़ा सीता का हो|”उस समय सीता ने कहा-“विधाता!
यह कौड़ी जूड़ा मेरा क्या है, यह तो शुभ कार्य है। यह तो मेरे
पिता दशरथ ने किसी समय मेरे लिए आभूषण बनवाया था| आज यह आपके
इस शुभकार्य में आ गया। मेरा क्या है”, उस समय रावण ने कहा-“हे
सीते! मुझे तुम्हारी यह दक्षिणा स्वीकार है। परन्तु मैं किसी के शृंगार को भ्रष्ट
नही करना चाहता।“ जब रावण ने यह वाक्य कहा, तो प्रजा सन्न रह
गई और कहा अरे, रावण तो बड़ा बुद्धिमान हैं,उस समय वहाँ यज्ञ पूर्ण हो गया| पूर्ण होने के पश्चात रावण न कहा था-“
हे राम! विदित होता है, कि तुम्हारी मनोकामनाएं अवश्य पूरी
होंगी।“
आशीर्वाद देकर सीता
से कहा-“हे सीते! यदि तुम्हारी इच्छा हो,तो तुम अपने पति की सेवा करो| नही, तो मेरी लंका को चलो।“
धर्म और यज्ञ
उस समय सीता ने कहा- “हे विधाता! आज से तो तुम मेरे पिता
ब्रह्मा बन गएं हो। मुझे तो यहाँ भी ऐसा और वहाँ भी ऐसा। भगवन! मैं आपके द्वारा
चलूंगी।“
इसका नाम धर्म है,राम ने भी यह नही कहा कि
सीते! तुम कहाँ जा रही हो,तब वह रावण के साथ पुष्प विमान में विद्यमान हो गई। रावण ने
उस समय ऋग्वेद का मन्त्र उच्चारण करते हुए सीता से कहा था-“हे सीते! आज मुझे विदित होता है,कि अब मेरे विनाश का समय आ गया है,मेरी लंका नष्ट
भ्रष्ट होने वाली हैं
सीता ने कहा-“हे
विधाता! आप इतने व्याकुल क्यों हो रहे हैं?”उन्होंने कहा- हे सीते! मेरी जो महान प्रजा है, वह
समाप्त होने वाली हैं,जो महान शत्रु बना बैठा हैं, जिसने शत्रु को अपना लिया है और अपना कर उसको ब्रह्मा बना करके,उसकी आत्मिक ज्योति को खींच लिया। हे सीते! उसकी मनोकामना क्यों पूरी नहीं होगी। आज मुझे विदित होता है कि मुझे
यह यज्ञ पूर्ण नही करना था,यज्ञ पूर्ण
होने से मुझे विदित हो गया,
कि मेरी लंका में एक भी मानव नही रहेगा”। यह वाक्य उच्चारण करते हुए रावण बड़े शोक
से युक्त हो गया।
7-3-१९६३
यह त्रेताकाल का
समय हमारे कण्ठ आ गया है|
मही राष्ट्र का राजा महिदन्त था| वह महान चक्रव्रती राजा था
और चक्रवर्ती राजा होने के नाते,लंका भी उसके अधीन थी| एक समय पुलस्त्य ऋषि महाराज ने महाराज शिव से निवेदन करके लंका में एक
स्थान नियुक्त किया था| स्वर्ण का गृह था|जिसमें महाराज पुलस्त्य ऋषि विश्राम किया करते थे,कुछ समय के पश्चात ऐसा हुआ, कि जो जिस राष्ट्र का
राजा था, वह उस राष्ट्र का राजा चुना गया| लंका का स्वामी महाराजा कुबेर बन गया, और भी सब
राजाओं ने अपने राष्ट्रों को अपना लिया| राजा महिदन्त का
सूक्ष्म- सा राज्य रह गया।
विदुषी मंदोदरी
राजा महिदन्त के न
तो कोई पुत्र था और न कोई कन्या थी| कुछ समय के पश्चात ऐसा सुना गया कि राजा महिदन्त के एक कन्या उत्पन्न हुई| तो राजा महिदन्त ने बड़ा ही आनन्द मनाया| नाना वेदों
के पाठ कराए, जन्म संस्कार बड़े उत्सव से कराया| उसके पश्चात कन्या जब कुछ प्रबल हुई तो महाराज की धर्मपत्नी सुरेखा ने कहा-कि हे भगवन!
इस कन्या को तो गुरुकुल में जाना चाहिए,जिससे भगवन! यह विद्या
पाकर, परिपक्व हो जाएं|उस समय महाराजा
महिदन्त अपनी धर्म पत्नी की याचना को पाकर,उस कन्या को लेकर
कुल पुरोहित महर्षि तत्त्वमुनि महाराज के समक्ष नियुक्त किया। उस समय महाराजा
तत्त्व मुनि महराज दौ सौ
चौरासी वर्ष के आदित्य ब्रह्मचारी थे| वहाँ पंहुच कर,राजा ने और कन्या ने भी महर्षि के चरणों को स्पर्श किया | और राजा ने कहा भगवन! मेरी कन्या को यथार्थ विद्या दीजिए | जिससे भगवन!मेरी पुत्री हर प्रकार की विद्या में सफल हो जाए|
महर्षि बाल्मीकि ने इस संबंध में ऐसा वर्णन किया
है, कि राजा महिदन्त तो अपने
स्थान पर चले गएं और ऋषि ने उस कन्या को शिक्षा देनी प्रारम्भ कर दी| शिक्षा पाते-पाते वह कन्या बड़ी महान बनी| और विद्या
में बहुत ऊँची सफलता प्राप्त की| वह यज्ञ और कर्मकाण्ड में प्रकाण्ड हो गई, वह वेदों का हर समय स्वाध्याय करती थी| उस समय ऋषि
ने अपने मन में सोचा, कि यह कन्या तो क्षत्रिय की है, परन्तु इसके गुणों को देखते है, तो ब्राह्मण कुल
में जाने योग्य हैं |अब क्या करना चाहिए। ऋषिवर, यही नित्य प्रति विचारा करते थे।
आगे हमने सुना है
कि कुछ काल के पश्चात वह कन्या युवा हो गई| जैसे पूर्णिमा का चन्द्रमा परिपक्व होता हैं,वह
कन्या अपने ब्रह्मचर्य से परिपक्व थी| राजा अपनी धर्मपत्नी
के कथानानुसार वहाँ से बहते हुए ऋषि से जा कर प्रार्थना की,
कि भगवन! अब कन्या को गृह में ले जाना चाहते हैं| अब इसका
संस्कार भी करना चाहिए अब इसका संस्कार करना चाहिए, अब मुझे
नियुक्त कीजिए, कि मेरी कन्या कौन से गुणवाली है, किस वर्ण में इसका संस्कार करना चाहिए? अहा उस समय
ऋषि ने कहा -भई! तुम्हारी कन्या तो ऋषि कुल में जाने योग्य हैं, आगे तुम किसी के द्वारा इसका संस्कार करो, हमें कोई
आपत्ति नही| राजा वहाँ से उस ब्रह्मचारिणी कन्या को लेकर राज
गृह पंहुचे।
हमारे यहाँ यह
परिपाटी है, कि जब
ब्रह्मचारिणी या ब्रह्मचारी गुरुकुल से आए, तो माता पिता यजन
और ब्रह्मभोज कर उनका स्वागत करें| इसी प्रकार माता पिता ने
उस कन्या का यथाशक्ति स्वागत किया| स्वागत करने के पश्चात
हमने ऋषि वाल्मीकि के कथनानुसार ऐसा
सुना है कि पत्नी ने पति से कहा कि महाराज! अब तो हमारी कन्या युवा हो गई है, इसके संस्कार का कोई कार्य करो।
उस समय महाराज
नित्य प्रति वर के लिए भ्रमण करने लगे, भ्रमण करते करते पुलस्त्य ऋषि महाराज के पुत्र मणिचन्द्र के द्वार पर जा पंहुचे, मणिचन्द्र के एक पुत्र था,जो वाल्मीकि के
कथनानुसार अड़तालीस वर्ष का आदित्य ब्रह्मचारी था| वह पर्जन्य ब्रह्मचारी, वेदों का
महान, प्रकाण्ड पण्डित था |महाराज ने मणिचन्द्र ने निवेदन किया-“महाराज! मेरी कन्या को स्वीकार कीजिए, मैं तुम्हारे पुत्र से अपनी कन्या का संस्कार करना चाहता हूँ|”
रावण विवाह
उस समय मणिचन्द्र ने कहा- “महाराज! हमारे ऐसे सौभाग्य कहाँ हैं,जो इतनी तेजस्वी कन्या, हमारे कुल में आए| उस समय उस बालक वरुण ने और माता
पिता ने उसके संस्कार को स्वीकार कर लिया|उस समय राजा मग्न
होते हुए,अपने घर आ पंहुचे।
नक्षत्रों के
अनुकूल समय नियुक्त किया गया| कुछ समय के पश्चात वह दिवस आ गया| मणिचन्द्र अपने पुत्र वरुण से बोले कि पुत्र! आदि ब्राह्मण
जनों का समाज होना चाहिए,
जिस कन्या का, जिस पुत्री का, जिस
पुत्र का, वेद के विद्वानों में, नाना
विद्वत मण्डल में संस्कार होता हैं उसका कार्य हमेशा पूर्ण हुआ करता हैं|
उस समय नाना ऋषियों
को निमन्त्रण दिया गया,
निमन्त्रण के पश्चात विद्वत समाज वहाँ से नियुक्त हो, राजा
महिदन्त के समक्ष आ पंहुचा| राजा महिदन्त ने देखा कि बड़ा
विद्वत मण्डल है| राजा ने यथा शक्ति स्वागत किया| ऋषियों की परिपाटी के अनुकूल, ब्रह्मचारिणी अपने
पति का स्वयं सत्कार करने जा पंहुची| नाना मणियों से गुथी
हुई, पुष्पमालाएँ तथा नाना प्रकार की मेवाएँ,उस कन्या ने उनके समक्ष नियुक्त की| उन्होंने वह
स्वीकार कर लीं इस प्रकार राजा ने अपने सम्बन्धियों का यथाशक्ति स्वागत किया| स्वागत के पश्चात, यथा स्थान पर विराजमान किया गया|अहा, बड़े आनंद पूर्वक सांयकाल कन्या के संस्कार का समय हो गया|बड़े आनन्द से वहाँ संस्कार होने लगा| बुद्धिमानों के
वेदमन्त्र होने लगें, ब्रह्मचारी अपने वेद मन्त्रों का गान
गा रहा था,ब्रह्मचारिणी अपने वेदमन्त्र का गान गा रही थी| भिन्न-भिन्न स्थान पर वेदों के गान गाए जा रहे थे,बड़ी
आशानंदी आनन्द से वह संस्कार समाप्त हो गया।वेद की मर्यादा के अनुकूल उन्होने अपने–अपने
स्थान पर जा विश्राम किया
अगला दिवस आया,उस समय शरद वायु चल रही थी और उसके कारण उस बालक के सम्बन्धी स्नान नही कर रहे थे| उस बालक ने कहा“अरे, तुम स्नान क्यों नही कर रहे हो?”उन्होंने कहा-“
स्नान क्या करें,शरद वायु चल रही हैं”
तो उस समय बाल ब्रह्मचारी ने,जो वेदों का ज्ञाता था, विज्ञान की मर्यादा जानता था,उसने प्रयत्न किया और कहा“हे महान वायु देव! तुम हमारे कार्य में विध्न
डाल रहे हो,कुछ समय के लिए शान्त हो जाओ| उस समय उस ब्रह्मचारी के संकल्पों द्वारा,वायु कुछ
धीमी हो गई| सभी सम्बन्धियों ने स्नान किया |
“महानन्द! तुम यह प्रश्न करोगे, कि उसने वायु को कैसे शान्त कर दिया? उसने वह प्रयत्न किया,जिससे वायु का वेग शान्त हो
गया| अहा,वायु में कुछ मंडी हो गई,यह मन के संकल्प का प्रभाव था| यह तो, महान विद्या का विषय है| किसी दूसरे स्थान में इसका
उत्तर देंगें।“
पूज्य महानन्द जीः
“अभी दे दीजिए, भगवन!”
पूज्यपाद गुरुदेवः
“नही ,भई! किसी द्वितीय
स्थान में देंगें|”
पूज्य महानन्द जीः
“अच्छा भगवन्! जैसी आपकी इच्छा |”
पूज्यपाद गुरुदेवः
तो नाना सम्बन्धी स्नान कर अपने-अपने स्थानों पर नियुक्त हो गएं | इसके पश्चात द्वितीय समय आया,और वहाँ सब अपने अपने गृह को जाने लगे,उस समय राजा
महिदन्त ने यथाशक्ति सभी का स्वागत किया | जब कन्या जाने लगी, तो एक ने कहा अरे, भाई! यह
पुत्र इतना योग्य था,परन्तु राजा महिदन्त ने अच्छी प्रकार
स्वागत नही किया उस समय राजा महिदन्त व्याकुल होने लगे,उन्होंने
व्याकुल हो कर कहा-हे
सम्बन्धियों! मैं क्या करूं? मेरा तो यह काल ही ऐसा हैं,कोई समय था जब चक्रव्रती
राज्य था| अब तो जितना द्रव्य था, सब
लंका चला गया |महाराजा कुबेर उसका स्वामी बन गया हैं| उस समय इन वार्त्ताओं को स्वीकार कर सबने अपने अपने स्थान की ओर प्रस्थान
किया।
विद्या बल
उस बालक ने अपने
गृह पंहुच कर सोचा, कि मेरे
सम्बन्धी ने जो यह कहा है कि मेरी लंका को कुबेर ने विजय कर लिया है, तो आज मुझे कुबेर से लंका को विजय करना है|
बुद्धिमान सर्वत्र पूज्य होता हैं,पुलस्त्य ऋषि महाराज का
पौत्र था, इसीलिए वह जिस राष्ट्र में जाता था,वहाँ ही उसका स्वागत होता था|जो स्वागत में कुछ देता, तो ब्रह्मचारी उससे मांगते कि मुझे दस हजार सेना दो,जिससे मेरा काम बनें|इस प्रकार प्रत्येक राज्य से दस दस हजार
सेना एकत्र करके,उसने लंका पर हमला किया| और राजा कुबेर को जीत लिया| उस समय राजा कुबेर ने
कहा था कि“अरे, भाई! तुम मुझे क्यों विजय कर रहे हो?”उस समय उस महान ब्रह्मचारी ने कहा था“अरे, कुबेर!
मैं तेरे राष्ट्र में शान्ति नही देख रहा हूँ|”
जिस काल में, जिस राजा की प्रजा शान्त न हो,उस समय उस राजा को पद से गिरा देना धर्म हैं| और
उसके स्थान पर शान्तिदायक आत्मज्ञानी को जो प्रजा को यथार्थ सुख शान्ति देने वाला
हो, राजा बनाना चाहिए।
उस समय उस
ब्रह्मचारी ने राजा कुबेर को लंका से पृथक कर दिया| वह अपने राष्ट्र में जहाँ का था,वहाँ
ही जा पंहुचा|उस समय वह बालक वरुण राजा महिदन्त के सम्मुख जा
पंहुचा, और बोला
महाराज !मैंने आपकी लंका को विजय कर लिया है| आप अपनी लंका
को स्वीकार कीजिए। उस समय राजा महिदन्त ने कहा कि “हे ब्रह्मचारी! लंका को तुमने
विजय किया हैं,मुझे स्वीकार है|परन्तु
स्वीकार करके,मैंने यह लंका अपनी कन्या के दहेज में तुम्हें
अर्पण कर दी|”
तो वहाँ सब राजा
नियुक्त किए गएं और वहाँ राजा उस बालक को नियुक्त किया गया| उस समय राजाओं ने,
ऋषियों का समाज नियुक्त किया, और कहा कि भाई! यह वरुण बालक, लंका का स्वामी बना, इसका द्वितीय क्या नाम उच्चारण
करेंगे? यह तो ब्रह्मचारी पद का नाम है, उस समय ऋषियों,आचार्यों, आदि
ने उस बालक का नाम रावण नियुक्त कर दिया।
तो महाराजा!
महिदन्त की कन्या का संस्कार, उस बालक से हुआ, जो ब्राह्मण के गुणों वाला था| आगे चल करके,चाहे कैसा ही गुण उसमें बन जाएं।
बुद्धिमानों का कर्तव्य है, कि यथार्थ वाक्य को अवश्य ही ग्रहण कर
लेना चाहिए|
१२/१९६६
मुझे स्मरण है, जब राजा रावण का चुनाव हुआ, रावण से पूर्व लंका में महाराजा कुबेर राज्य करते थे।
कुबेर से पूर्व महाराजा महिदन्त राज्य करते और महिदन्त से पूर्व उनके पिता गौणुक
काम के राजा राज्य करते थे। गौणुक के जो पिता थे,उन्हें सुरगीत ऋषि कहा करते थे। यह सब चक्रवर्ती राजा
कहलाए गए हैं। तो लंका की प्रणाली बहुत विचित्र मानी गई है। यहाँ एक वाक्य और आया
है, कि जब महाराजा महिदन्त से महाराजा कुबेर ने इस
लंका को विजय कर लिया, तो महाराजा महिदन्त को लंका
से दूर कर दिया। वह अपने महिराष्ट्र
में आ गए,जो सूक्ष्म सा राज्य रह गया था। महाराजा महिदन्त
की कन्या मन्दोदरी का संस्कार महाराजा रावण से हुआ,
जिसका बाल्यकाल का नाम वरुण था। ब्राह्मण और वेदों का पण्डित होने के नाते रावण को
राजाओं ने सहायता दी और कुबेर को राज्य से पृथक् कर दिया और लंका का स्वामी रावण
बन गया। जब लंका का अधिपति बन गया,तो उस समय
सभी राजा महाराजाओं ने रावण का चुनाव किया और कहा कि भाई! यह ब्राह्मणकुल का बालक है और महाराजा पुलस्त्य ऋषि का पौत्र है,इसका
चुनाव किया जाएं, तो इसका क्या नाम उच्चारण करना चाहिए? सब राजाओं ने मिलकर इसका नाम रावण
नियुक्त किया। रावण नाम दानी का है। रावण नाम बुद्धिमान का है। यह अपशब्द नहीं,
व्याकरण की दृष्टि से,मानव समाज की दृष्टि से
रावण कहते हैं महादानी को। तो उसका नाम वरुण से रावण नियुक्त किया गया। उसने सबसे
पूर्व अपनी लंका में बहुत सुन्दर नियम बनाएं,
परन्तु आगे चल करके अपनी पद्धति को नष्ट करके, दुराचारी
बन गया, जिससे लंका का विनाश हो गया। राज्य का और राष्ट्र का विनाश उस
काल में होता है। जब राजा स्वयं अपनी मानवता पर दृष्टिपात न करके मुर्खो के जीवन
को दृष्टिपात करके राष्ट्र के नियम बनाता है। राष्ट्र का नियम बनता है
उच्चता से और दृढ़ता से। राजा को विचारना चाहिए कि प्रजा का, मानव समाज का, राष्ट्र
का किस में हित होता है।
१२-१९६६
राजा रावण से पूर्व
महाराजा कुबेर थे, महाराजा कुबेर से पूर्व महाराजा महिदन्त थे, महाराज महिदन्त से पूर्व महाराजा शिव
थे। लंका की प्रणाली बहुत पूर्व से चली आ रही थी, परन्तु राजा रावण जब राजा बन गएं, तो महाराजा रघु का जितना राज्य था,उस पर अपना अधिपथ्य जमा लिया। राजा दशरथ की इस पृथ्वी पर
सूक्ष्म सा अध्योध्या का राज्य रह गया था। वहाँ रावण का राज्य कहाँ नहीं था।मानो इन्द्रपुरी में उनका राज्य था, त्रिपुरी में उनका राज्य था,पातालपुरी में अहिरावण
राज्य करता था। इसी प्रकार इस पृथ्वी के एक एक अंग में राजा रावण का अधिपथ्य हो
गया था। इसलिए उस काल में माता कौशल्या जी के गर्भ से राम के जन्म की आवश्यकता
हुई। क्योकि माता कौशल्या यह जानती थी, कि तेरा पति ऐश्वर्य में आ गया है और राष्ट्र का उत्थान
होना चाहिए। वशिठ मुनि भी यही चाहते थे। माता अरुंधति भी यही चाहती थी,
क्योंकि रावण का राज सुन्दर नहीं था। रावण के राज्य में दुराचार की मात्रा अधिक थी, वहीं एक दूसरे का विचार नहीं किया जाता
था। जब रावण के राष्ट्र में चरित्रवाद की कोई वस्तु न रही, तो उसके पश्चात् जब भगवान राम
जैसे महान चरित्रवानों का जन्म हुआ,तो
उन्होंने सबसे प्रथम वशिष्ठ मुनि महाराज से यही कहा था, कि मैं अपनी संस्कृति को, अपनी मानवता को इस विश्व में प्रसारण करना चाहता हूं। उस
समय वशिष्ठ मुनि ने कहा था कि हे राम!
तुम कैसे कर सकते हो? क्योकि
रावण का राज्य इस पृथ्वी के आँगन-आँगन में
अधिपथ्य हो गया है, अब तुम
कैसे ऊँचा बना सकोगे? उस समय श्रीराम ने कहा कि महाराज! मुझे आज्ञा
दीजिए, मैं वास्तव में आप की अनुपम कृपा से, यह कार्य कर सकता हूं। तो ब्राह्मण गुरु ने, पवित्र गुरु ने, अपनी प्रतिभा और ओज भरी वाणी से उन अपंगों को, जिनको राजा दशरथ ने त्याग दिया था, जिन भीलों और द्रावड़ों का त्याग दिया था, भगवान राम ने उन्हीं को
अपनाया और अपना करके उनकी सेना बनाई। पवन पुत्र हनुमान जी को अपनाया। बाली को नष्ट
किया और बाली के यहाँ अपनी संस्कृति का प्रसार किया। मानो सुग्रीव को अपना करके रावण से संग्राम किया।9-11-१९६८
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