षोडशकलाएँ
माता जाबाला का पुत्र
सत्यकाम जब बारह वर्ष का ब्रह्मचारी हो गया,तो उस समय माता जाबाला ने कहा-हे ब्रह्मचारी!अब तुम सुयोग्य हो
गए हो और तुम्हारी जो परम्परा है तुम्हारे जो पिता थे,पड़पिता थे,महाबाबा थे,उनमें
कोई भी ऐसा नहीं था,जो ब्रह्मवेत्ता न हो, इसीलिए मेरी प्रबल इच्छा है, हे
ब्रह्मचारी! जाओं,तुम ब्रह्मवेत्ता बनने चले जाओ।
द्वितीय दिवस हुआ ,तो
सत्यकाम ने अपनी माता से कहा, हे मातेश्वरी! मैं आचार्य कुल में तो जा रहा हूँ,परन्तु
मेरा गोत्र क्या है? जब आचार्य मेरे से यह प्रश्न करेंगे-कि तुम्हारा गोत्र क्या
है?” तो मैं क्या उत्तर दे सकूंगा, इसीलिए मुझे निर्णय कराईए, कि मैं किस गोत्र से
हूँ,जिससे आचार्य मुझे स्वीकार कर ले,| क्योंकि माता जाबाला सत्य उच्चारण करने
वाली थी,सत्य और यथार्थता उसका आभूषण रहता था,माता जाबाला ने कहा हे बालक्! हे
ब्रह्मचारी! मैंने नाना पुरूषों की सेवाएं की है। मैं नहीं जानती,कि हे बालक! तेरा
गोत्र क्या है? तो सत्यकाम ने यह श्रवण किया और श्रवण करने के पश्चात,ब्रह्मचारी
ने वहाँ से प्रस्थान कर लिया,भ्रमण करते हुए,महर्षि गौतम आश्रम में प्रविष्ट हो
गएं। ,महर्षि गौतम ने उनका बड़ा सुन्दर स्वागत किया आओ, ब्रह्मचारी
क्योंकि एक ब्रह्मचारी जब गुरु के कुल में जाता है तो उसकी प्रतिष्ठा भी उसी
प्रकार हुआ करती है,सब ब्रह्मचारियों ने अध्ययन करके प्रस्थान किया,तो आचार्य गौतम
ने कहा अरे ब्रह्मचारी! तुम कौन हो? तुम्हारा नाम और गोत्र क्या है?
उस समय सत्यकाम ने
कहा हे भगवन! मेरा नाम जाबाला सत्यकाम है,जाबाला मेरी माता हैं,और मैं उसका पुत्र
सत्यकाम हूँ, मेरी माता ने यह कहा था मैं तेरे गोत्र को नहीं जानती, कि तुम्हारा
गोत्र क्या है? उस ब्रह्मचारी की सत्यवाणी को स्वीकार करने वाले आचार्य ने कहा हे
ब्रह्मचारी! तुम तो ब्राह्मण हो, क्योंकि ब्राह्मण ही सत्य उच्चारण करने वाला होता
है। उसे मान अपमान नहीं होता, संकीर्णता नहीं होती, जो सत्यवादी होता है, वही
ब्राह्मण कहलाया गया है। हे ब्रह्मचारी! तुम ब्राह्मण हो।
मेरे कुल में आ जाओ,
मैं तुम्हे शिक्षा प्रदान करूंगा, आचार्य गौतम ने उसको ब्राह्मण की संज्ञा प्रदान
कर दी, रात्रि काल में विश्राम करना ही था, अगला दिवस आया, तो आचार्य इस विचार में
थे, कि इस ब्रह्मचारी को तूने ब्राह्मण तो उच्चारण कर दिया है, परन्तु ब्राह्मण
है, अथवा नहीं है, इसके ऊपर भी तो विचार-विनिमय होना चाहिए।, जब
उन्होंने अपने शब्दों से मन्थन किया श्रवण किया,और विचार-विनिमय करके अन्त में यह
निर्णय हुआ, कि इसकी परीक्षा आगे ली जा सकेगी। ब्रह्मचारी तृतीय दिवस उनके समीप
आया चरणों में ओत-प्रोत हो करके बोले हे प्रभु! आप ने मुझे कोई सेवा नहीं दी है,
क्योंकि मैं भी तो आपका ही ब्रह्मचारी हूँ, आपका ही शिष्य हूँ, आपके द्वारा
ब्रह्मचर्य व्रत का धारण करने आया हूँ। हे प्रभु! मुझे कोई सेवा दीजिए, उस समय
उन्होंने कहा हे सत्यकाम! जाओं मेरे आश्रम में चार सौ गऊएं है, इन्हे ले जाओ, और
जब तक यह एक सहस्र नहीं हो जांए, तब तक मेरे आश्रम में प्रविष्ट नही होना।
यह आज्ञा उन्होंने
प्रदान कर दी, आज्ञा पाते ही उसी समय सत्यकाम ने चार सौ गऊओं को ले करके भयंकर वन
में प्रस्थान किया। भ्रमण करते हुए नित्य कर्म करते रहते थे, नित्यप्रति सांय काल
होता, प्रातः काल होते ही वह गऊँ स्थिर होती, वह संध्या मार्जन इत्यादियज्ञ कर्म
करने के लिए तत्पर होता था, यह कर्म उसका नित्यप्रति था ,उसके पश्चात जब समय
व्यतीत हो गया, भयंकर वन में दूरी चले गएं, कुछ काल के पश्चात एक समय प्रातःकाल
में, सांयकाल को ब्रह्मचारी, स्नान करके और संध्या मार्जन और तर्पण
करने के पश्चात अग्नि होत्र करने वाला था, गऊओं में से एक गऊ के बछडे ने कहा हे सत्यकाम! हे आचार्य पुत्र हे ब्रह्मचारी! हम
एक सहस्र हो गएं हैं, क्या अब गुरु गृह को,कुल को,स्थान को चलना चाहिए,ब्रह्मचारी
ने उस वार्त्ता को स्वीकार कर लिया।
ब्रह्मचारी से उस बछड़े
ने कहा-हे बालक! हे ब्रह्मचारी! मैं तुम्हें चार कलाओं का ज्ञान कराता हूँ। आज
मेरे से तुम चार कलाओं का ज्ञान स्मरण कर लो, उन्होंने, प्राचीदिक्, दक्षिणीदिक,
प्रतीचीदिक्और उदीची दिक् बेटा! इन चार
कलाओं का ज्ञान कराया, उन्होने कहा यह चार कलाएं हैं। तुम इन चार कलाओं के ऊपर
विचार-विनिमय करना प्रारम्भ कर दो, सत्यकाम ने अग्नि होत्र के पश्चात, रात्रि की
गोद में चला गया, निन्द्रा की गोद में चला गया, कहा जाता था ,कि जिज्ञासु को
निन्द्रा नही आती, जिज्ञासु तो अपनी आत्म जिज्ञासा में रमण करता रहता है। तो उसने मन्थन
करना प्रारम्भ कर दिया, कि प्राचीदिक तो पूर्व दशा को कहा जाता है, और प्रतीची
दिक् दक्षिण, उस अहा, पश्चिम दिशा को कहा जाता है। इत्यादि
नाना प्रकार का उन्होंने विश्लेषण करना प्रारम्भ कर दिया। सबसे प्रथम, वृख ने कहा है कि सबसे प्रथम कला का नाम प्राचीदिक माना गया है, इससे
सूर्य उदय होता है, सूर्य प्रातःकाल में उदय होने वाला पूर्व दशा के प्रकाश आता
है, इसी प्रकाश को जब मैं अपने में ग्रहण करता हूँ, इसी प्रकाश को मैं नेत्रों का
देवता बनाता हूँ, तो मेरे नेत्र आभाशाली बन जाते हैं, प्रकाशमय बन जाते हैं,
आनन्दवत को प्राप्त होने लगते हैं। उसके पश्चात उन्होंने विचारा क्या प्रतीचीदिक्
जिसको हम पश्चिम दिशा कहा जाता है, अहा, उससे अन्न का
प्रादुर्भाव होता है, अन्न को पान करते हैं, तो इन्द्रियों में शक्ति आती है,
प्रबलता आती है, यह अप्रत कला कहलाई जाती हैं। इसके पश्चात उन्होंने दक्षिण से
अप्रात होता है, दक्षिणाय में सूर्य भी उदय होता है, कही उत्तरायण में होता है,
कहीं दक्षिणायण में होता है, और मानव के दो ही मार्ग है, संसार में उत्तरायण और
दक्षिणायण दक्षिण आता और उत्तरायण जो माना गया है। आज मुझे इन मार्गो का, इन चारों
कलाओं का ज्ञान, इनका जो सम्बन्ध है, वह इन चारों कलाओं के ऊपर मन्थन का मैंने
सूक्ष्म परिचय दिया, उच्चारण करने का अभिप्रायः यह कि रात्रि समय मन्थन , विचार-विनिमय
करते ही प्रातःकाल के पश्चात द्वितीय आसन को प्रस्थान कर दिया। गऊओं को ले करके जब
उन्होंने प्रस्थान किया आगे चल करके वह सांयकाल हो गया, सांय काल होते ही, गऊँ
स्थिर हो गई।
गऊँ विराजमान हो गई,
ब्रह्मचारी ने स्नान किया, स्नान करने के पश्चात संध्या की उपासना की और मार्जन और
तर्पण करने के पश्चात अग्निहोत्र करने लगा, जब प्रथम आहुति प्रदान करने लगे तो कहा
जाता है,उस समय अग्नि देवता का जन्म हो गया अग्नि देवता ने कहा अरे ब्रह्मचारी!
मैं तुम्हे चार कलाओं का ज्ञान कराएं देता हूँ,
उन्होंने कहा-भगवन!
बहुत सुन्दर, उन्होंने कहा-पृथ्वी कला, अन्तरिक्ष कला, और द्यौ कला और समुद्र कला इन चारों कलाओं का ज्ञान तुम्हें होना चाहिए, उन्होंने कहा- सबसे प्रथम
पृथ्वी कला है, जो इन चारों कलाओं में और द्वितीय कला का नाम अन्तरिक्ष है, और
तृतीय कला का नाम समुद्र माना गया है, और चतुर्थ कला का नाम हमारे यहां द्यौ माना गया
है। इन चारों कलाओं के ऊपर विचार-विनिमय
करने का प्रयास करो, उस समय ब्रह्मचारी रात्रि की गोद में जा करके विचार-विनिमय
करना प्रारम्भ कर दिया, प्रारम्भ करते हुए उन्होंने विचारा कि मुझे आचार्य ने,
अग्नि देवता ने चारों कलाओं का ज्ञान कराया है। सबसे प्रथम पृथ्वी कला है, अहा,
यह जो पृथ्वी है अहा, इस पृथ्वी से नाना
प्रकार का खाद्य और खनिज पदार्थ उत्पन्न होता है, जितना भी खनिज है उसका सम्बन्ध पृथ्वी
से है, पृथ्वी के गर्भ से उत्पन्न हुआ करता है, और खाद्य भी उसी के द्वार से
उत्पन्न होता है, खाद्य और खनिज पदार्थो की उत्पति कहां से होगी ? पृथ्वी कला से
होती है। इस पृथ्वी के गर्भ में क्या नहीं है, यह तो माता वसुन्धरा है, यह अपने
में सबको बसाने वाली है, यह वसुन्धरा कैसी महान है, कैसी पवित्र है, यह सबका लालन
पालन करने वाली है। अहा, इसके गर्भ में कहीं स्वर्ण की धातु
उत्पन्न होती है, जो नाना प्रकार के रत्न उत्पन्न हुआ करते हैं, इसके गर्भ में सुन्दर-सुन्दर आभा उत्पन्न होती रहती है, जिससे राष्ट्र का कल्याण होता है। राष्ट्र भी द्रव्य
भी, इसी से उत्पन्न हुआ करता है।
आज हम पृथ्वी कला
पर अनुसन्धान करते रहे, इस पृथ्वी से नाना प्रकार के खनिजों का जन्म होता है, नाना
औषधियों का जन्म होता है, जिससे मानव के जीवन में एक सुन्दर आभा का जन्म होना
प्रारम्भ हो जाता है। हे माँ वसुन्धरा! तू वास्तव में हमारा कल्याण करने वाली है,
कल्याण में ही आनन्द में ही, तू अपने में धारण करने वाली है, तू हमें आनन्द प्रदान
करने वाली है, इसीलिए ब्रह्मचारी सत्यकाम
ने पृथ्वी के ऊपर अनुसन्धान करना प्रारम्भ कर दिया। उसके पश्चात अन्तरिक्ष कला ?अन्तरिक्ष
किसे कहा जाता है, जहाँ शब्दों की ओत-प्रोतता हो जाती है, नाना प्रकार के परमाणु
उसी में रमण कर जाते है। अन्तरिक्ष कहते हैं जिसमें सूक्ष्म परमाणु भ्रमण करते
रहते हैं वह सूक्ष्म परमाणुओं का जो भण्डार है वह अन्तरिक्ष कहलाया गया है वह
अन्तरिक्ष सूक्ष्मतम को अपने में अपनाने वाला है वह सब वस्तुओं को अपनाता हुआ अपने
में ग्रहण कर लेता है, अपने में शोषण कर लेता है, अपने में ही सर्वत्र ब्रह्माण्ड को अपने में समाहित कर लेता
है। वह अन्तरिक्ष कला आज पृथ्वी का और अन्तरिक्ष का एक महान सम्बन्ध होता है, उसके
पश्चात,द्यौ कहा जाता है ,द्यौ कहते हैं लोंको को, जिसमें लोक-लोकान्तरों की आभा
विराजमान रहती है, उसको द्यौ कहा जाता है, क्योंकि प्राण उसमें रमण करने वाला है।
एक दूसरा लोक लोकान्तर एक दूसरे से मिलान
करता रहता है, उनका मिलान नहीं हो पाता, मिलान करना तो चाहते हैं, परन्तु हो नही
पाता वह क्यों नहीं होता? द्यौ के कारण, वह जो द्यौ कला है, वह लोक-लोकान्तरों को
अपने-अपने आँगन में गमन कराती रहती है, अपने-अपने आँगन में भ्रमण करती रहती है, जिसमें नाना लोक-लोंकान्तरों
की आभा विराजमान रहती है। वह तेजो से युक्त रहने वाली है। इसी में एक महानता की
ज्योति उद्यत होती रहती है, उसी से द्यौ की आभा, लोक-लोकान्तरों में प्रदीप्त रहने
वाली है। एक समय महर्षि भारद्वाज मुनि से कहा था, सोमकेतु जी ने क्या महाराज! यह
द्यौ क्या है? द्यौ उसे कहा जाता है जो लोक-लोकान्तरों
को स्थिर किए हुए है, पृथ्वी के आँगन में
भ्रमण कला रहती है। उसी को द्यौ कहा जाता है।
द्यौ कला, पृथ्वी
कला, अन्तरिक्ष कला, द्यौ कला और समुद्र कला, कहा जाता है समुद्र क्या है? परमपिता
परमात्मा ने जब इस पृथ्वी का रचा, यह पृथ्वी जब जल के द्वारा से उत्पन्न हुई, तो इसकी
मेखला बना दी गई। जैसे यज्ञशाला में यज्ञवेत्ता, ब्रह्मवेत्ता,
ब्राह्मणवेत्ता यज्ञशाला मेंएक मेखला बनाता है, जल सिंचन करता है,
यज्ञमान के द्वारा इसी प्रकार पृथ्वी के आँगन में यह एक प्रकार की मेखला है।
समुद्र रूपी जो मेखला है, जो पृथ्वी से विष उगला जाता है, उसे समृद्र अपने में
शोषण कर लेता है, अपने में ग्रहण कर लेता है, इसीलिए हमारे यहाँ समुद्र कला को
विशेष माना गया है। पवित्रवत माना गया है, क्योंकि वह विष को अपने में शोषण करने
वाला है। मानव को जीवन प्रदान करने वाला है। इसको हमारे यहाँ समुद्र कला कहा जाता है, इसमें
नाना प्रकार की सृष्टि होती है, नाना प्रकार के प्राणी इसमें रमण करते रहते है,
विशाल से विशाल जलवत रहने वाला है। इसी से
सुन्दर-सुन्दर पर्जन्य होता है, पर्जन्य से सुन्दर वृष्टि होती है उसी से मेघों का
प्रादुर्भाव उत्पन्न होता है। यह मानव के जीवन को सिंचन करने वाली है इसीलिए से
पृथ्वी कला
अन्तरिक्ष कला और द्यौ कला और समुद्र कला ये चारों कलाओं के ऊपर मानव को
विचार-विनिमय करना चाहिए। इसके पश्चात मैं इसका सूक्ष्म परिचय दे रहा हूँ, विस्तार
प्रगट करने नहीं आया हूँ, वाक् उच्चारण करने का अभिप्रायः यह क्या महाराज सत्यकाम विचार-विनिमय करते रहे, वही प्रातः काल हो गया,
प्रातः काल होते ही गऊँओं को ले करके उन्होंने वहाँ से प्रस्थान कर दिया,गुरु के आसन
को जाने के लिए प्रस्थान कर लिया, भ्रमण करते हुए वहीं सांयकाल हो गया, सांयकाल होते ही उन्होंने
स्नान किया मार्जन किया ,तर्पण किया, संध्या और उपासना करने के पश्चात वह उसमें
आहुति प्रदान करने लगे, जब प्रथम आहुति प्रदान करने लगे, तो कहा जाता है
उस समय वायु देवता
का,आदित्य देवता का जन्म हो गया और आदित्य ने कहा हे ब्रह्मचारी! मैं तुम्हे चार
कलाओं का ज्ञान कराएं देता हूँ, उन्होंने कहा-भगवन! कृपा कीजिए उन्होंने कहा- सूर्य कला, चन्द्र कला, अग्नि कला और और विद्युत कला इन चारों
कलाओं के ऊपर अब तुम्हारा अनुसन्धान होना चाहिए ,इन चारों कलाओं के ऊपर
विचार-विनिमय करना प्रारम्भ कर दो, उस समयदेवता तो अन्तर्ध्यान हो गएं और
ब्रह्मचारी सत्यकाम रात्रि की गोद में, पुनः चला गया, उन्होंने विचारा क्या सबसे
प्रथमदेवता ने, मुझे सूर्य कला का वर्णन कराया है और चन्द्र कला और जहाँ अग्नि कला
आती है अग्नि वही पनपती है अग्नि के स्थान में तो
माना गया है जिसको वायु कहा जाता
है।
ब्रह्मचारी सत्यकाम
ने प्रारम्भ कर दिया,आज मैं सूर्य कला को जानना चाहता हूँ, सूर्य से नाना प्रकार
की किरणों का जन्म होता है, जब प्रातःकाल में सूर्य उदय होता है, तो सहत्राणि किरणें
इन्द्र बन करके आता है। इन्द्र जब सहस्र भगों वाला बन करके आता है, भग नाम किरणों को कहा जाता है, नाना प्रकार की किरणों
को ले करके वह संसार में आता है, संसार का प्रकाशक बनता हुआ ,नाना
प्रकार की वनस्पतियों को प्रकाश में जीवन प्रदान करता हुआ लोक-लोकान्तरों को
प्रकाशमान बनाता चला जाता है। यहाँ तब विषधर जो प्राणी होते हैं, उन को विष भी
प्रदान करते हैं, और उनके विष को अपनी किरणों को अपने में शोषण भी कर लेते हैं, यह
जो सूर्य कला है। वह महान कला कहलाई जाती है, नाना प्रकार की किरणों का सम्बन्ध
पृथ्वी से होता है, कही वायु से होता है, चन्द्र लोको से होता है। शनि लोको से
होता है, मंगल लोकों से होता है, नाना प्रकार के बुद्ध लोकों से भी इसका विशेष
सम्बन्ध रहता है। सत्यकाम ने सूर्य के ऊपर जो सूर्य कला है और यह हमारे जीवन का
प्रकाशक है। आत्मा और नेत्रों का जो समन्वय हो जाता है, और नेत्रों का समन्वय
सूर्य की किरणों से हो जाता है, उस समयनेत्रों का देवता सूर्य ही तो होता है।
इसीलिए आज हमें
सूर्य को अपना देववत स्वीकार करके अपने जीवन को उन्नत बनाना चाहिए, उसके पश्चात
उन्होंने विचारा चन्द्र कला, चन्द्रमा नाना प्रकार की आभा को ले करके
संसार में आता है, कलाओं से परिपक्व होता हुआ पूर्णिमा के दिवस संसार को अमृत
प्रदान करता चला जाता है, उस अमृत को पान करने वाला अद्भुत प्राणी अद्भुत बन जाता
है। महान बन जाता है, अमृतमयी बन जाता है, इसीलिए चन्द्रमा की पवित्र कान्ति और
चन्द्रमा को देवता स्वीकार करते हुए, वह अमृत प्रदान करता है, अमृत में उसका एक
आभा अपने मानव जीवन में उसका हूत करना चाहिए। हमारे यहाँ जिसको ईंगला, पिंगला,
सुषुम्णा कहते हैं, हमारे यहाँ आचार्यो ने जब त्रिवेणी के स्थान में
जहाँ तीनों नाड़ियों का जहाँ मिलान होता है, यहां से चन्द्रमा स्वर्णकेतु नाम की नाड़ी से उसका विशेष
सम्बन्ध होता है, उस नाड़ी को जानना ईगला, पिंगला, सुषुम्णा को जानना उसी से रस पान करता रहता है। आचार्य योगी बन जाता है।
पवित्रवत को प्राप्त हो जाता है। क्योंकि उसके अन्दर सिंचन किया जाता है।
क्या सूर्य चन्द्र
और विद्युत जिसको विद्युत कहा जाता है, विद्युत कला है, जो लोक-लोकान्तरों से
जिनका उपराम होता है, जल से भी उसका उपराम होता है, वहाँ जिस भी लोक में जाओगे,
वहीं तुम्हें विद्युत का प्रभाव प्राप्त होगा,विद्युत वह कला है, जिसको वैज्ञानिक
जन जान करके नाना प्रकार के यन्त्रों में परिणत हो जाते हैं। यहाँ चौरासी प्रकार
की आभा होती हैं विद्युत की चौरासी प्रकार
की जो आभा होती हैं, उन आभाओं में एक दूसरी आभा में जब वैज्ञानिक जानना प्रारम्भ
कर देता है। तो जब चौरासी प्रकार आभा को जो वैज्ञानिक जान लेता है, वह सहस्र लोकों
के विज्ञान का वेत्ता बन जाता है, आज हमें उस महान विद्युत का जानना है, जो
विद्युत हमारे सहयोगी कार्य कर रही है, राष्ट्र को प्रकाशमान बनाती है।जल को
गतिशील बनाती है, अग्नि को प्रदीप्त करने वाली है, सूर्य की किरणों का प्रादुर्भाव
करने वाली है, चन्द्रमा में कान्ति देने वाली है, नाना प्रकार के लोक-लोकान्तरों
को जो क्रियाशील बनाती है, उसी का नाम हमारें यहाँ विद्युत कहा गया है। आज हमें
विद्युत को जानना है।
विद्युत के पश्चात
अग्नि कला आती है, अग्नि कला उसे कहते हैं, जो तेजोमयी संसार में रमण करने वाली है
जो तेजोमयी उसका प्रकाश रहने वाला है इसीलिए हमें अग्नि कला को जानना चाहिए,
चिन्तन करते हुए ब्रह्मचारी सत्यकाम को वहीँ प्रातःकाल हो गया प्रातःकाल होते ही
उन्होंने वहाँ से गऊँओं को ले करके गुरु आश्रम को प्रस्थान कर दिया भ्रमण करते
हुए जब वहीं सांय काल हो गया था, सांयकाल
को गऊँ स्थिर हो गई। ब्रह्मचारी ने स्नान किया मार्जन किया, तर्पण किया, संध्या
उपासना करने के पश्चात जब अग्नि होत्र करने लगे, प्रथम आहुति दी तो कहा जाता है कि
वायु देवता का जन्म हो गया वायु देवता ने कहा अरे, सत्यकाम!
मैं चार कलाओं का ज्ञान करा देता हूँ। आज चार कलाओं का ज्ञान मेरे से श्रवण करो,
उन्होंने कहा-मन कला, चक्षु कला,
श्रोत्र कला और घ्राण कला इन चारों
कलाओं को जानने का तुम प्रयास करो, आज तुम महान जिज्ञासु बन जाओगे।
तो उन्होंने चारों
कलाओं के उपदेश को पान कर लिया, रात्रि काल में जब रात्रि की गोद में चला गया,
जाने के पश्चात ब्रह्मचारी ने चिन्तन करना प्रारम्भ कर दिया, सबसे प्रथम मन कला,मन
ही पाप पुण्य को दृष्टिपात करने वाला है, यह मन ही एक ऐसा सूत्र है, जिसको जान
करके इस मानव प्राण की आभा को जाना जाता है, आज हमें मानसिक मनन करना है। क्योंकि
मन कला एक ऐसी कला है, जो आत्मा का हूत कहलाया गया है,यह मन का जो प्रादुर्भाव
होता है, यह अन्न के द्वारा होता है, इसीलिए अन्न हमारा श्रेष्ठ होना चाहिए अन्न
से ही मन का जन्म होता है। इसीलिए मन कोइस पृथ्वी का प्रतीक माना गया है।
आज हम मन कला के
ऊपर अनुसन्धान करते रहें, मन ऐसा तीव्र गति से रमण करने वाला है, जैसे एक महानता की ज्योति में रमण करने वाला हो, मन
की प्रतिभा चार कला इसके आधीन रहने वाली है, मन के चार कला कौन-सी हैं, प्राचीदिक्,
और उदीचीदिक्, प्रतीचीदिक्, और दक्षिणीदिक् यह चार कलांए, मन से जिनका विशेष सम्बन्ध होता है, मन
विचार में रमण करने वाला है, श्रोत्रीय जो दिशाएं हैं, उनमें मन रमण करने वाला,
क्योंकि दिशाओं से मन का सम्बन्ध रहता है, जैसे दिशाओं में वायु रमण करता है,
विद्युत रमण करता है, इसी प्रकार मन भीतीव्र गति से रमण करने वाला है। यन्त्रवत
कहलाता है, अहा, यह मन इतना गतिवान है,
क्या यहमानव को कृत करता रहता है और सुयोग्य भी बना देता है, जहाँ मन कला है, मन
कला के पश्चातचक्षु कला, चक्षु कला हमारे यहाँ चक्षु नेत्रों का कहा जाता है। नेत्रों
को जानना चाहिए, आज नेत्र ही हमारे पाप
पुण्य का निर्णय कराते हैं नेत्रों से शुद्ध
को मानव दृष्टिपात इसीलिए मानव को विचारना है कि हमे नेत्रों को पवित्र बनाना है,
नेत्रों से कुदृष्टिपान नहीं करना है, नेत्रों से सुविचारों को लाना है, अहा,
नेत्रों से दृष्टिपात करता है, अमुक प्राणी बहुत सुन्दर है, बहुत
स्वभाव का पवित्र है, अमुक प्राणी बहुत ही उत्तम है। अमुक प्राणी दृष्टा में सदैव
परिणत होता रहता है, यह विचार मानव के मस्तिष्क में बारम्बार आते रहते हैं,
नेत्रों के कारण आते हैं, इसीलिए चक्षु कला को हमें पवित्र बनाना है, चक्षु कला
श्रोत्र कला श्रोंत्रो का सम्बन्ध इन मन की आभा इन पृथ्वियों में औरदिशाओं में
परिणत रहती है। इसी प्रकार हमारे जो श्रोत्र है, इनका सम्बन्ध इन दिशाओं से रहने
वाला है, आज हम दिशाओं में चक्षुओं को ,श्रोत्रों को रमण कराते रहें। श्रोत्र ही
हमारे श्रोत्र इन्द्रियाँ जो हैं, इनका सम्बन्ध दिशाओं से
होता है, पृथ्वीवत से होता ऊर्ध्वा ध्रुवा से होता रहता है, इसीलिए मानव को इन
श्रोत्रों को भी जानना चाहिए, इनके ऊपर अनुसन्धान करना है, इसके पश्चात घ्राण कला,
घ्राण से मन्द सुगन्ध का बोध होता है। मन्द सुगन्ध पृथ्वी से इसका सम्बन्ध रहता
है, जितने पार्थिव तत्त्व हैं, उनका सम्बन्ध घ्राण से होता है इसीलिए वैज्ञानिक पार्थिव
तत्त्वों से सम्बन्धित होता है।
यह जो षोडश कला
कहलाई जाती हैं। उनको मानव को जानना है, इन षोडश कलाओं को जानना है, हमारें यहाँ
इन षोडश कलाओं को जानने वाले भगवान कृष्ण कहलाए जाते थे, बारह कलाओं के ज्ञाता
भगवान राम थे, परन्तु उन कलाओं को जानना हमारे लिए बहुत अनिवार्य है, इन कलाओं को
जानना इन कलाओं को भगवान कृष्ण अच्छी
प्रकार जानते थे, अनुसन्धान करते रहते थे, एक समय कहा जाता है। भगवान कृष्ण जब इन
कलाओं पर अनुसन्धान कर रहे थे, एक समय उन्हें एक माह हो गया, निन्द्रा को पान किए,
परन्तु इन पर विचार-विनिमय चल रहा था, यह कलाएं क्या हैं? उनकी प्रतिभा क्या है?
उनका सम्बन्ध क्या है? उनके प्रायः
मस्तिष्क में होता रहता था।
सत्यकाम को
प्रातःकाल हो गया, प्रातःकाल होते ही गऊँओ को ले करके वह गुरु आश्रम के लिए
प्रस्थान किया, भ्रमण करते हुए वह आचार्य गौतम कुल में प्रविष्ट हो गएं। महाराजा
गौतम ने अहा,
सत्यकाम को दृष्टिपात करते ही गऊँ स्थिर हो गई, सत्यकाम ने उनके
चरणों को स्पर्श किया, सत्यकाम से कहा-हे ब्रह्मचारी! तुम्हारा मस्तिष्क, तुम्हारा
हृदय और तुम्हारी नेत्रों की आभा है, और तुम्हारे जो मुखारबिन्दु की आभा है, वह
मुझे निर्णय करा रही है, कि तुम ब्रह्मवेत्ता बन गएं हो, तुम महान बन गएं हो,
उन्होंने कहा-भगवन! यह तो आपकी अनुपम कृपा है। परन्तु आचार्य तो गुरुजन तो मेरे
आश्रम में आपकी आभा मेरे मस्तिष्क में ओत-प्रोत हो रही है।
हमारे यहाँ गुरु
शिष्य की जो महान परम्परा है, वह बड़ी विचित्र मानी गई है, महानता में सदैव परिणत
रही है। इसीलिए हमें आज गुरु शिष्य प्रणाली को ऊँचा बनाने में तत्पर रहना चाहिए।
जिससे हमारा राष्ट्रीय हमारी मानवता हमारे
में मानवता की प्रतिभा ओत-प्रोत हो, और ज्ञान और विज्ञान में हम पारंगत होते रहें,
जिससे हमारा ज्ञान और विज्ञान पराकाष्ठा पर जाता हुआ, हम अपने में सुशील, सुयोग्य
और आध्यात्मिक विज्ञानवेत्ता में हमारी गति होनी चाहिए।
हम परमपिता
परमात्मा की उपासना करते हुए,उस महान श्रोत्रीय देव की महिमा का गुणगान गाते हुए,
हम षोडश कलाओं को जानने वाले बनें। षोडश कलाएं जैसे हमारे यहाँ प्रतीचीदिक् और
दक्षिणीदिक्,
प्राचीदिक्, और उदीचीदिक्पृथ्वी कला, समुद्र कला, अन्तरिक्ष कला, द्यौ
कला, सूर्य कला, चन्द्र कला, विद्युत कला, अग्नि कला, मन
कला,
परमात्मा क्या है?
आत्मा क्या है? केवल जो वेद में ज्ञान होता है, ईश्वरीय उसके ऊपर चिन्तन करना उस
आभा को अपने में धारण करना क्रियात्मक अपने जीवन को बनाना , यह उनका सबसे परम
कर्तव्य रहा है, इसीलिए प्रत्येक मानव प्रत्येक, वेद कन्या प्रत्येक ऋषि मण्डल को
अपनी-अपनी आभा को जानना चाहिए। जिससे हम इस संसार सागर से पार हो जाएं।
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