1 १२ ०३ १९६२
महाभारत
काल के पश्चात् का समय
जीते रहो!
देखो! मुनिवरों! अभी अभी हमारा पर्ययण समय
समाप्त हुआ।
पूज्य महानन्द जीः “गुरुजी! आपका पर्ययण समय
समाप्त हो रहा है, परन्तु आज के वेद पाठ में एक वेदमन्त्र
अशुद्ध उच्चारण हुआ। हम आपसे अधिक वाक्य इसलिए उच्चारण नहीं किया करते, क्योंकि गुरुओं का आदर करना हमारा कर्त्तव्य है,
परन्तु एक मन्त्र की अशुद्धि होना भी तो आपने एक प्रकार का पाप ही कहा है।“
पूज्यपाद गुरुदेव- “बेटा!
ऐसा तो नहीं हो सकता।“
पूज्य महानन्द जीः “तो क्या गुरुजी! हमने
आपके समक्ष मिथ्या उच्चारण कर दिया।“
पूज्यपाद गुरुदेव- “बेटा!
यह अभिप्राय नहीं। तुमने जो कुछ कहा है,सत्य ही कहा है। तुम
उच्चारण करो, वह कौन सा मन्त्र था द्वितीय उच्चारण कर दें।“
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी!आपका दसवां
मन्त्र था।“
(मंत्र उच्चारण के पश्चात )
पूज्यपाद गुरुदेवः “तो महानन्द जी! यही
वेदमन्त्र था।“
पूज्य महानन्द जीः “हां भगवान! जैसे आपने मधु
विश्वान्त शब्दों का उच्चारण किया, यह पूर्व लुप्त हो गए थे।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा, चलो, कोई बात नहीं।“
पूज्य महानन्द जीः “भगवन्! बात तो बहुत है। हमसे यदि किसी स्थान पर अशुद्धि हो जाए, तो न प्रतीत क्या हो जाए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “चलो, महानन्द जी!इस वार्त्ता को त्याग देना चाहिए, आगे
का समय व्यतीत होता चला जा रहा है। उस अमूल्य समय को शांत कर देना चाहिए।“
पूज्य महानन्द जीः “कृपा कीजिए।“
आत्मा का भोजन
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! आज हम सभी
महानजनों से क्षमा चाहते हैं। आज एक वेदमन्त्र अशुद्ध उच्चारण हो गया। हमें इसमें
कोई विरोध नहीं। महानन्द जी ने जैसा कहा हमने वैसा स्वीकार कर लिया और उस मन्त्र
को द्वितीय उच्चारण कर दिया। तो अभी -अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ। हम वेदों
का पाठ कर रहे थे, और ऐसा प्रतीत होता था जैसे परमात्मा आज
हमें कोई विभूति प्रदान कर रहे हों। हम उस परमात्मा को ‘दुर्गे’ शब्दार्थो से पुकार रहे थे। आज के वेद पाठ में कई स्थानों में मग्नता आई,
और क्यों आई? क्योंकि आत्मा को भोजन मिलता है।
जैसे माता का प्रिय बालक माता के गुणगान गाता हुआ, मग्न हो
जाता है इसी प्रकार जब यह आत्मा उस परमपिता परमात्मा का अन्तःकरण से गुणगान गाती
है तो वास्तव में मग्नता उत्पन्न होती है, क्योंकि आत्मा को
भोजन प्राप्त होता है। आज हमें विचारना चाहिए, हम उसी स्थान
पर जावें, उसी योग्यता और महान् उसी ज्ञान को पावें, जिससे हमारी आत्मा में बल आवे, और आत्मा को भोजन
मिले। तो आज हम परमपिता परमात्मा की पूजा कर रहे थे।
आज के वेद पाठ में ‘दुर्गेवेति’ कहा जा रहा था। देखो, परमात्मा ‘दुर्गेवेति’ है जो हमारे दुर्गुणों को शांत करने
वाला है। हे माता! हम तेरे बालक हैं, हमें नाना प्रकार की
शिक्षा दे। हे माता! हम तेरे समक्ष आवें और तेरी उस वेदवाणी को धारण कर अन्तःकरण
को पवित्र बनाएं और अन्तःकरण में जों नाना प्रकार के हमारे जन्म जन्मान्तरों के
संस्कार, पाप और पुण्य दोनों ही जमे हुए हैं वह सब समाप्त हो
जावें। हमें ऐसी सत्ता को प्रदान कर।
माता दुर्गा
तो मुनिवरों! वह परमात्मा ‘दुर्गेवेति’ है और हमारे दुर्गुणों को समाप्त करने
वाला है। आत्मा परमात्मा का सम्बन्ध एक महान है जैसे माता और बालक का होता है।
वैसे ही परमात्मा दुर्गे है, आत्मा उसका बालक है, उसके आँगन में जाना चाहता है, परन्तु क्या करें,
मानव ने जो तुच्छ कर्म किए हैं, तो माता उसे
अपने आँगन में धारण नहीं करती है। क्यों नही करती है? क्योंकि
माता का बालक अयोग्य होता है, महान दुराचारी हो जाता है, तो उस समय वह बुद्धिमती माता उसे स्वीकार नहीं करती। जब तक हम उस माता के
अनुकूल जो उसने हमें शिक्षा दी है, अपने जीवन को बनाएंगे, तब तक वह माता हमें अपने आँगन में कदापि भी धारण नहीं करेगी, इसलिए हमें विचारना चाहिए। उस माता के आँगन में जाने के लिए सुन्दर योजना
बनानी चाहिए। जहाँ बेटा! संसार को मृत्यु से और नाना प्रकार के दुःखों से मुक्त हो
जाएंगे। यदि उस विधाता की गोद में चले जाएं तो हमारे अन्तःकरण में, हमारे हृदय में ज्ञान की अमृतधारा बह करके हम संसार को प्रकाशित करने वाले
बन जाएंगे। जैसे मुनिवरों! बालक को क्षुधा लगती है, माता
अपनी लोरियों में लगा लेती है, तो उस बालक के आनन्द का पार
नहीं रहता। इसी प्रकार हम माता दुर्गे के अनुकूल कर्त्तव्य करेंगे तो माता अपनी
महान् आनन्द रूपी लोरियों में लगा लेगी उस समय हमारे आनन्द का भी पार न रहेगा।
तो मुनिवरों! हम दुर्गे किसको उच्चारण कर रहे थे। दुर्गे माता है, संसार को उत्पन्न
करने वाली है। महान प्राण रूपी सत्ता इस शून्य प्रकृति को देने वाली है,
जिससे यह अपना कार्य करने वाली है। परमात्मा को माता और पिता दोनों
ही नाम से पुकारा गया है। तर्क के अनुकूल और जब दार्शनिक विषय आता है, तो यह विचार आता है, कि परमात्मा को हम माता और
पिता दोनों किस प्रकार मानें? इसका उत्तर यह है कि जो वह
माता है वह शून्य प्रकृति को सत्ता देने वाली है, और सत्ता
दे करके हमें जनने वाली है। वह जो माता की वाणी है, वह हमारे
अन्तःकरण को पवित्र बना देती है, दुर्गुणों को नष्ट कर देती
है, इसलिए परमात्मा को माता रूप से पुकारा जाता है। परमात्मा
को माता रूप तो कह दिया है, परन्तु पिता कैसे माना जाए?
बेटा! वह पालन करने वाला है और पालन करने के नाते परमात्मा को पिता
रूप से मान रहे हैं, परमात्मा हमारा पालन करता है। हमारे लिए
इस सृष्टि को प्रारम्भ कर देते हैं और उस परमात्मा के गर्भ में रहने के नाते वह
परमात्मा हमारा, माता और पिता दोनों ही है। जिस समय प्रलयकाल
आता है तो ये चार प्रकार की सृष्टि जो देखो, स्थावर है,
जंगम है, अण्डज है, उद्भिज
है, यह पृथ्वी में लय हो जाती है।और पृथ्वी जल मे लय
हो जाती है जल को बेटा! हिरणाक्ष
रूप से पुकारा गया है। यह महान जल अग्नि में लय हो जाता है, अग्नि
वायु में रमण करती है, वायु अन्तरिक्ष में रमण करती है,
अन्तरिक्ष तन्मात्राएं बन करके अम्बर में लय हो जाती है। यह सब लोक
लोकान्तर जो तुम्हें प्रतीत हो रहे है यह सब जड़ पदार्थ बन जाते है वास्तव मे तो अब
जड़ पदार्थ हैं, परन्तु उनमें जो प्रकाश तुम्हें दृष्टिगोचर आ
रहा है, वह इस प्रकार नहीं आएगा। आत्मा इन दोनों के मध्यम
में रहता है। यह प्रकृति शून्य रूप बन करके, सूक्ष्म से
सूक्ष्म परमाणु बन अन्तरिक्ष में रमण करते हैं और महान आत्मा परमात्मा के गर्भ में
चला जाता है। आत्मा परमात्मा के गर्भ में होने के नाते उसके पश्चात् जब आत्मा की
वाणी परमात्मा के समक्ष जाती है तो उस समय परमात्मा तन्मात्राओं से इस संसार को
पुनः से उत्पन्न कर देते हैं, और हम कर्म करने के लिए उद्यत
हो जाते है।
प्रलय काल की स्थिति
हमारे वेदाचार्यो ने अंगिरा मुनि आदि आचार्यो
ने ऐसा वर्णन किया है कि जिस समय प्रलयकाल आता है उस काल में सूर्य में प्रकाश
नहीं रहता, चन्द्रमा में कान्ति नही रहती,पृथ्वी मेन उपजाऊँ करने की सत्ता नही रहती , अग्नि
में उज्ज्वलता करने की सत्ता नहीं रहती, जल में उत्सवता नहीं
रहती, वायु में प्राण सत्ता नष्ट हो जाती है। जब समय आता है
तो परमात्मा के नियम के अनुकूल जैसे बेटा! पूर्वकाल में वर्णन कर चुके हैं मानव का
शरीर है, बाल्य अवस्था हैं, युवा है,
मध्यम है और वृद्ध अवस्था है| ऐसे ही सृष्टि
का काल आता है, और काल आ करके सृष्टि समाप्त हो जाती है, और सब परमात्मा के गर्भ में चले जाते हैं।
आज यदि कोई मानव यह कहता है कि यह सृष्टि
किसी ने नहीं बनाई, यह तो वैसे ही अनादि है। इसको न कोई
बनाने वाला है, और न नष्ट करने वाला है। तो उन व्यक्तियों ने
उस वेद की विद्या का स्वाध्याय नहीं किया। आत्मा को स्वतः ज्ञान होता है, परन्तु हमारे
कर्मो के वश, हमारे प्रकृति के आवेशों में आने के कारण हम उस
ज्ञान को भूल बैठे हैं। उस ज्ञान को प्रज्ज्वलित करने के लिए, हमें आध्यात्मिक परिश्रम की आवश्यकता है, तब आत्मा
का ज्ञान और प्रयत्न जो स्वाभाविक है वह प्रत्यक्ष हो जाएगा।
आज का हमारा आदेश प्रारम्भ हो रहा था, कि परमात्मा को ‘दुर्गेवती’
कहा जाता है। वह हमारे दुर्गुणों को समाप्त करने वाला है। परमात्मा को माता पिता
दोनों नामों से पुकारा जाता है। अब हम महानन्द जी से प्रार्थना करेगें कि वह कल के
आदेश के अनुकूल अपने प्रवचनों को प्रारम्भ करें।
पूज्य महानन्द जीः आप ही प्रारम्भ कर देते,
हम आपके समक्ष उच्चारण करते क्या सुन्दर लगेंगे।
पूज्यपाद गुरुदेवः नही बेटा! जैसा भी
तुम्हारा व्याख्यान हो, जैसा हमने तुमसे कल कहा था, उसी आदेश के अनुकूल अपने व्याख्यान को प्रारंभ करो जैसा कल तुमने कहा की
संसार में महाभारत के काल का समय कैसा,
उसके पश्चात् का समय कैसा?
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवान! जैसी आपकी
आज्ञा।“
महान-जनों!
आज हमारा बड़ा सौभाग्य है। गुरु जी से इस महान समाज में हमें कुछ प्रवचन देने का
अवसर मिला। हम गुरुजी से प्रार्थना करेंगे कि यदि हमसे किसी प्रकार की त्रुटियां
हो जाएं, तो उन्हें क्षमा कर दें और भी जो ऋषिजन समाज में
विराजमान हैं वे भी हमारा जो वाक्य अशु़द्ध हो जावे, उसे
क्षमा करें।
कल गुरुजी ने ऐसा कहा कि महाभारत के समय को
हमने पाया, परन्तु उसके पश्चात् के समय को नहीं पाया, जिसमें इतनी बड़ी अज्ञानता, जो तुम उच्चारण कर रहे
हो आई। तो गुरु जी ने उस
काल को नहीं देखा, परन्तु हमने गुरु जी की कृपा से उस योग्यता का
पाया। अपने उस अभ्यासी शरीर से सूक्ष्म, कारण और स्थूल तीन
शरीरों को जाना और जानने के कारण अब तक अपनी योग स्थितियों में धारण होते चले आए
हैं, उन्हीं का अभ्यास करते चले आए हैं। इस काल को जैसा हमने
देखा उसके अनुसार हम अपना व्याख्यान देंगे।
वेद विद्या की लुप्तता
गुरु जी! हम आपके समक्ष कुछ उच्चारण तो कर
नहीं सकते, क्योंकि आपका ज्ञान तो बहुत ही विलक्षण है। उसको
पाते-पाते हमारी आत्मा मुग्ध हो जाती है। आज हमारा आत्मा,परमात्मा
का प्रश्न नहीं, हमारा तो प्रश्न है कि वेद की विद्या संसार में
कैसे लुप्त हो जाती है। कैसे-कैसे इस काल में लुप्त होने लगी और कैसे इसका विकास
हुआ।
राजा जन्मेजय का यज्ञ
गुरु जी! महाभारत के काल के पश्चात् यह तो आपको प्रतीत ही है, कि जब राजा
परीक्षित के पुत्र जन्मेजय हुए और जिन्होंने एक सर्वस्व यज्ञ किया। जितनी उनके
द्वारा सम्पत्ति थी, सब यज्ञ में अर्पण कर दी। जब गरुदेव!
महाराज जन्मेजय ने यह निश्चय किया, कि जितनी मेरी सम्पत्ति
है, वह सब यज्ञ में अर्पण हो, तो वहाँ
कुछ ऐसा पाया गया, कि उस कार्य में आदि ब्राह्मणों को
निमन्त्रण देकर यजन किया गया। महर्षि जैमिनी
मुनि उस यज्ञ के ब्रह्मा बने और ब्रह्मा बन, उस यज्ञ को
पूर्ण कराया। पूर्ण कराकर ऐसा कार्य हुआ, कि आचार्य जी ने
भविष्य की वार्त्ता उच्चारण करते हुए कहा कि आपका यज्ञ सफल नहीं होगा। महाराजा
जन्मेजय यज्ञमाननी सहित विराजमान थे। वहाँ एक ब्राह्मण ने मग्नता मनाई, तो उनके हृदय में यह भावना प्रगट हुई, कि यह
ब्राह्मण तेरी मग्नता मना रहा है। उसने उस ब्राह्मण के कण्ठ से ऊपर के भाग को, अपने वज्र से अलग कर दिया। देखिए गुरुदेव! जब उसको यज्ञशाला में अर्पण कर
दिया, तो यज्ञ भ्रष्ट हो गया, जब यज्ञ
भ्रष्ट हो गया, तो वहाँ ब्राह्मणों ने त्याग किया, कि हम कदापि भी द्रव्य न लेगें, दान के पात्र नहीं
बनेंगे। जब महाराजा जन्मेजय ने यह वार्त्ता सुनी तो उन्हें ज्ञान हुआ, कि तेरे गुरु ने तुझे संकेत किया था,परन्तु तब भी
तूने ब्राह्मण के शीश को समाप्त कर दिया, अब तुझे क्या करना
चाहिए?
जातिवाद का प्रारम्भ
तो गुरु जी हमने ऐसा पाया है कि
ब्राह्मणों को द्रव्य दे करके, भूमि का दान दे करके, वहाँ से पृथक
कर दिया। वहाँ से गुरुदेव! जातिवाद प्रारम्भ हो गया। उसके पूर्व वर्ण व्यवस्था थी।
जो ब्राह्मण के कर्म करने वाले थे, वह ब्राह्मण बने रहे और
भगवन्! इसके पश्चात् जिन्होंने त्याग दिया, उन्हें त्यागी
रूपों से पुकारने लगे। अब यहाँ से जातिवाद का भेद बन गया।
संप्रदायवाद
इसके पश्चात् भगवन्! आगे काल चलता रहा। जब
अज्ञानता आई, तो ब्राह्मणों ने विद्या की सूक्ष्मता कर दी।
सूक्ष्मता के कारण क्षत्रियों में जो
वास्तविक शिक्षा थी, वह समाप्त होने लगी। वेद की विद्या
लुप्त होने लगी। आगे काल आया, जितने संन्यासी बने, परन्तु कोई यथार्थ संन्यासी बना, तो उसकी यथार्थ
विद्या को न मानना और अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर मनमानी वार्त्ता चलने लगी। जब
यहाँ नाना प्रकार की जातिवाद चलने लगा, तो जो जिस कार्य को
करता था, वह उसी नामों से नियुक्त होने लगा, और एक दूसरे से घृणा होने लगी।देखो, मनु महाराज ने
जो भी आदेश दिया, उन पर न चलना। राजाओं में नाना प्रकार की
त्रुटियाँ आ गई, दुराचार की भावनाएं आने लगीं। नाना देवियां
उनके स्थान में रहा करें। यहाँ देवियों की विद्या और जो उनकी प्रतिभा थी, वह समाप्त होने लगी। उसके पश्चात् यहाँ धर्म के विषय पर सम्प्रदाय चल गए।
जिससे घृणा की, उसी का सम्प्रदाय पृथक बन गया।
जब यहाँ सम्प्रदाय बनने लगे तो यहाँ एक वाममार्गी सम्प्रदाय चला। हमने जो
इनका दुराचार देखा, उस दुराचार को तो हम आपके समक्ष वर्णन
नहीं करेंगे, परन्तु वेद की विद्या उन्होंने नष्ट कर दी।
वेदों का कुछ भाष्य किया, परन्तु वह भाष्य भी अनुचित कर दिया, जिससे संसार में नास्तिकता दौड़ने लगी। कुछ महान व्यक्तियों ने ऐसा कहा, कि यह
परमात्मा कोई पदार्थ नहीं, और न परमात्मा की यह वेद विद्या
है। यह तो धूर्त हैं, यह तो महान दुराचारी और पिशाचरों ने
वेद की विद्या को प्रकाशित किया है, हम इस वेद की विद्या को
कदापि स्वीकार नहीं करेंगे । तो गुरुदेव! जब वाममार्गियों ने ऐसा किया, तो वेद की विद्या लुप्त होने लगी। वह सम्प्रदाय बड़ा दुराचारी था।
दुराचारी होने के कारण राष्ट्र में अज्ञानता आने लगी।
रूढ़ि से गौमेध यज्ञ
जब
यहाँ नाना प्रकार के सम्प्रद्राय चलने लगे तो यहाँ एक महावीर नाम के व्यक्ति आ
पहुँचे। उन्होंने अपनी दार्शनिक बुद्धि से कुछ विचारा कि यह तो बड़ा अनर्थ होने लगा
है। उस काल में क्या होता था? गुरुदेव! इन वाममार्गियों ने
ऐसा किया कि जब अजामेध यज्ञ करते, अजा कहते हैं बकरी को।
जैसा आपने पूर्व कहा है, अजामेध यज्ञ जब इन्होंने समझा नही
तो क्या किया कि यज्ञ में अजा को लेकर वेदमन्त्र का पाठ करें, “चक्षुनते शुन्धामि” जिस अंग का नाम आए, उस अंग की
आहुति देने लगे, और उसे अजामेध यज्ञ वर्णन करने लगे। जब गौ
मेध यज्ञ का वर्णन आता, तो वहाँ गौ माता की आहुति देकर, यज्ञशाला में अर्पण करने लगे। यहाँ ऐसा अधोगति का काल आया। दार्शनिक समाज
और वैज्ञानिक समाज तुच्छ होने लगे। वेद की विद्या लुप्त होने से सभी संसार अधोगति
को चला गया। गौ मेध यज्ञ को समझा नहीं, गौ कहते है, पृथ्वी को और पृथ्वी की विद्या को जानना ही गौ मेध यज्ञ है। उन्होंने
इसको समझा नहीं। उन्होंने केवल यही समझा, कि गौ मांस की
आहुति दो तब ही तुम्हारा यज्ञ सफल होगा।
अज्ञानता छा जाने के कारण, आगे चलकर अश्मेघ यज्ञ होने लगे। गुरुदेव! उन्होंने अश्वमेध का अभिप्राय, जो वेद में वर्णन किया है, कि जब राजा अश्वमेध यज्ञ
करता था, तो वह घोड़ा छोड़ता था और जो उस घोड़े को रोक लेता था,
राजा उसके साथ युद्ध करता था। उसके पश्चात् उसे अश्वमेध यज्ञ करने
का अधिकार था। गुरूदेव! हमने उन वाममार्गियां को देखा,जिन्होंने
देखो, ‘ प्राह गणे
ते अचते’देखो, इनके लिंग यज्ञते महान यज्ञ मानस्य, वहाँ
दुराचार, भ्रष्टाचार होने लगे। नास्तिकता आने लगी। परमात्मा
को शांत कर दिया, कि परमात्मा कोई पदार्थ नहीं।
भगवान महावीर
महावीर नाम के दार्शनिक ने दार्शनिकता से
विचारा और उन्होने कहा कि “अहिंसा परमोधर्मः” वह दार्शनिक तो बने, वेद के कुछ अंग को तो जाना ,परन्तु वेद की विद्या
को नहीं जाना और न जान करके, उन्होंने कहा कि “वेद की विद्या
सब निरर्थक है।“ यह कोई वेद की विद्या का वाक्य नहीं, और न
वेद कोई पदार्थ है। अहिंसा परमोधर्मः का तो कुछ पाठ किया, वेद
के कुछ अंग का प्रचार किया,परन्तु उन्होंने कहा “कि आत्मा
परमात्मा एक ही हैं। न कोई इस संसार को बनाने वाला है और न संसार किसी स्थान में
बनता है। यह तो ऐसे ही अनादि चला आ रहा है। यह आत्मा ही परमात्मा बन जाता है।“
महात्मा बुद्ध
भगवन्! आगे काल ऐसा चलता रहा। नाना प्रकार की
त्रुटियां आने लगीं। उसके पश्चात् परमात्मा ने कुछ विभूतियों को भेजा। आज से लगभग २५०० वर्ष का समय
हो गया जव यहाँ महात्मा बुद्ध का आगमन हुआ। उन्होने इस संसार का कुछ निर्माण किया। द्वितीय
राष्ट्रों में भ्रमण करके, उन्होंने कहा कि “अहिंसा परमोधर्मः।“| जब उनके समक्ष नाना वाममार्गी
शास्त्रार्थ करने के लिए आए, तो उन्होंने कहा कि भाई! तुम हमें वेद का प्रमाण देते हो, जिस वेद में ऐसा
प्रकरण हो, हम उस वेद को कदापि भी स्वीकार नहीं करेंगे जिसमें
पापाचार हो, हिंसा हो। उन्होंने क्या विचारा? उन्होंने वेद का स्वाध्याय करना समाप्त कर दिया। वास्तव में तो वह बड़े
ऊँचे थे, बड़े दार्शनिक बने। राजा थे, राजा
से संन्यास धारण किया, सर्वज्ञ साँसारिक ऐश्वर्य को त्याग
करके, ऐसे अगाध अन्धकार में आ कूदे। उन्होंने क्या किया?
बहुत से राष्ट्रों का निर्माण किया, वेद के
अंगों का पालन किया। जब महात्मा बुद्ध समाप्त हो गए, तो जो
उनके अनुयायी थे, उन्होंने महात्मा बुद्ध के विचारों को न
मान करके नाना प्रकार का दुराचार करना प्रारम्भ कर दिया।
महात्मा शंकरचार्य
जब दुराचार होने लगा तो भगवन्! आज से २२००
वर्ष या कुछ अधिक वर्ष हो गए जब महात्मा शंकराचार्य आ पधारे। जिस समय वह १२ वर्ष
के थे, अपनी माता से कहा-“मैं तो इस
संसार को जगाना चाहता हूँ। यह संसार मुझे अन्धकारमय प्रतीत हो रहा है|” महात्मा शङ्कराचार्य पूर्व जन्म के कुटली मुनि महाराज थे। उनकी आत्मा ने
यहाँ आकार जन्म धारण किया। परमात्मा के अनुकूल ऐसी- ऐसी महान् आत्मा, यौगिक आत्मा संसार में आती रहती हैं और आ करके धर्म का कुछ न कुछ पालन करा
ही देती हैं।देखो, उसकी माता ने कहा, “हे
बेटा! तुझे धन्य है, जो तूने ऐसे महान विचारों का संकल्प
किया है। इन विचारों को संसार के समक्ष नियुक्त करो, जिससे
यह संसार अन्धकार से पृथक हो जाए। तो हे गुरुदेव! उस महात्मा शंकराचार्य ने आ करके, इस संसार का निर्माण करना प्रारम्भ कर दिया। महात्मा बुद्ध और महात्मा
महावीर के मानने वाले जो अनुयायी थे उनसे शास्त्रार्थ किया। मूर्ति पूजा के विषय
में शास्त्रार्थ करते थे। उनका यह कथन था, कि मेरा यह नियम
है, कि मैं शास्त्रार्थ में हार जाऊँगा तो मैं मूर्ति पूजक
बन जाऊंगा और यदि नहीं हारा, तो तुम्हारी इन मूर्तियों को
नष्ट भ्रष्ट कर दूंगा। हे गुरुदेव! हमने महात्मा शंकराचार्य को देखा। वह
शास्त्रार्थ करते थे और आत्मा,परमात्मा के विषय में और जब
विपक्षी थकित हो जाते थे, तो अपने खांडे को लेकर, मूर्तियों पर आक्रमण करते थे। उनको, उनके स्थान से
पृथक कर दिया जाता था। महात्मा शंकराचार्य ने बहुत कुछ उपकार किया था। धर्म का
बहुत बड़ा कल्याण किया था। आत्मा परमात्मा को पृथक् मान करके,
उन्होंने और बौद्धमत के अनुयायियों को चकित कर दिया। एक समय अभाव में आ करके, उन्होंने वेदान्त का पाठ किया, और वेदान्त कही महान
ऊंची गहराई में जा करके, उन्होंने कहा कि भाई! आत्मा और
परमात्मा का भाव एक ही प्रतीत होता है। परन्तु फिर भी उन्होंने यह नही कहा, यहाँ भाव तो एक ही है। जैसे माता का बालक है, और
माता के गर्भ में रहता है, माता के समक्ष नहीं होता, न माता को ही दिखता और न संसार को दिखता, ऐसे ही हम
आत्मा जब मोक्ष में जाते हैं तो परमात्मा के गर्भ में चले जाते है परमात्मा के गुण
हममें प्रविष्ट हो जाते हैं उस समय हम अपने को परमात्मा मान लेवें तो कोई हानि
नहीं। परन्तु वास्तव में हम परमात्मा तो नही है। हम किसी को तभी पावेगें जब उनके
गुण में रमण करेंगे, उसके गुणों की वार्त्ता उच्चारण करेंगे, अन्यथा हम किसी प्रकार भी रमण नहीं करेंगे।
मंदिर निर्माण का सुझाव
गुरुदेव!
शंकराचार्य ने इन विचारों का कथन किया, तो आगें चल करके
उपनिषदों का स्वाध्याय करते हुए, ऐसा कहा कि आध्यात्मिक
विचारों को लेते हुए प्रतीत होता है कि आत्मा से बढ़कर भी कोई सत्ता अवश्य हैं। जब
महात्मा शंकराचार्य ने वेद की स्थापना की। वेद की विद्या को ऐसा जान लिया तो नाना
मत वालो से शास्त्रार्थ कर वेद की स्थापना की वेदांगों का मन्थन किया और उनका पालन
किया और एक महान समाज बना दिया। उन्होंने कहा कि देखों जैसे तुम जैनियों के और
इनके मन्दिरों और स्थानां में जाते हो इससे तो तुम एक कार्य करो, कि तुम अपने मन्दिर बनाओ और उन्हीं में एकांत स्थान में विराजमान हो करके
उस परमपिता परमात्मा को जानने का प्रयत्न करो, जो तुम्हारी
आत्मा के समक्ष बैठा हैं, तुम्हारा पालन कर रहा है तुम दूसरे
स्थानों में क्यों जा रहे हो। यथार्थ वाक्य था। सबने स्वीकार कर लिया।
ईसा मसीह
आगे चल करके भगवन्! यहाँ बहुत से मत आ गए।
उसके पश्चात भगवन्! देखो, ईसा मसीह नाम के आ कूदे। द्वितीय
राष्ट्र में उत्पन्न हुए, उन्होंने आ करके काशी स्थान में
आयुर्वेद की शिक्षा का पान किया। आयुर्वेद का स्वाध्याय करके, इस विद्या को जाना, कि नेत्रों की दृष्टि से मानव
के विज्ञान को जाना जाता हैं। भगवन्! काशी में एक विरडी नाम के आचार्य थें। उनसे
उन्होंने आयुर्वेद की शिक्षा पाई, और पा करके महान बने। इस
राष्ट्र से भगवन्! अपने राष्ट्र को चले गए। वहाँ जाकर उन्होंने अपनी विद्या का
प्रचार किया, और उन्होंने निराला मत उत्पन्न किया ,जिससे भगवन उनहोंने एक अच्छी
प्रकार तो समझा नहीं, और जाना नहीं,
परन्तु इसी में, उनका एक महान मत बन गया। उसके द्वारा क्या
विशेषता थी? आयुर्वेद की विद्या जो हमने अभी उच्चारण की, उस विद्या के जानने से और योगाभ्यास करने से इसके तत्त्वों को जानना,मानो नेत्रों की दृष्टि से, मानव के अवगुणों को शांत
करने की शक्ति आ जाती है। तो भगवन्! जब इसमें यह सत्ता आ गई,
तो वह बड़ा तपस्वी बना, और तपस्वी बन करके, उन्होंने वहाँ के व्यक्तियों को कुछ उद्धार किया। परन्तु भगवन उसको भी इस
संसार ने समाप्त कर दिया। उन्होंने भी एक समाज बनाया और उस समाज में यथार्थ शिक्षा
दे करके, वे भी चले गए। आगे उनके अनुयायियों ने उनका
दुरूपयोग करना प्रारम्भ कर दिया। हे भगवन्! उन्हें असली रूप में न छोड़ा।
मुहम्मद
भगवन्! आगे चल करके,
मुहम्मद नाम के एक यवन हुए। भगवन्! वास्तव में देखा जाता है तो वह यवन ही थे। जैसा
आपने वेद की विद्या में कहा है।यवनों को दैत्य खा जाता है और वह दैत्य प्रकृति के
थे एक छोटे से घर में जन्म ले करके,महान एक राजा बनने की अपेक्षा की,
राजा बने। अबुबक्र उनके एक मित्र थे, परन्तु
उनको अत्तुत बनाया, और बना करके मन्त्रियों से अपने नाना
पाखण्डोंसे शिष्य बनाए, शिष्य बना करके, संग्राम किया,
और अन्त में राष्ट्र पर उनका अधिकार हो गया। ज्ञानी काल था, विद्या
थी नहीं। जब भगवन्! राजा बन गए, तो उन्होंने आसवाती नाम के
वृक्ष में, एक पुस्तक बना करके अर्पण की और उसके पश्चात्
राष्ट्र के महान चुने हुए, व्यक्तियों का समाज एकत्रित किया, और कहा कि भाई! मुझ परमात्मा के दर्शन हुए हैं, और
परमात्मा ने मुझे एक पुस्तक दी है, जिसको मैं महान बनाना चाहता हूँ। आज मेंरे इस वाक्य को स्वीकार करो। उन्होंने
उस वृक्ष का वर्णन किया। उन व्यक्तियों ने उस वृक्ष को समाप्त कराया तो उन्होंने
देखा, कि उसमें वह पुस्तक वैसी ही थी। उन्हें विश्वास हो
गया। हे गुरुदेव! प्रहादी मनः वाचे वह उनकी विचारधारा, जो
पुस्तक में थी, वह प्रजा के समक्ष आ गई। उन्होंने सोचा कि
भाई! यह तो बड़ा सुन्दर है, और उन्होंने मुहम्मद की वार्त्ता
को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार देखों, यवन मत हो गया।
उन्होंने देखो, भगवन्!
द्वितीय राष्ट्र पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। कितना बड़ा संसार में अन्धकार
आया।वहाँ कैसा कारण हुआ देखो, एक माह के संग्राम के पश्चात, मुहम्मद ने युनान राष्ट्र पर विजय प्राप्त की। उस संग्राम में दिवस में
युद्ध करते, सायंकाल युद्ध करने वालों से कहा करते, अरे भाई! तुम रात्रि में भोजन किया करो, और दिवस में
यु़द्ध किया करो। दो समय रात्रि का भोजन किया करते थे। उन्होंने उसका एक सम्प्रदाय
बना लिया। गुरुदेव! बड़ा अच्छा वाक्य है, क्या उच्चारण करें, उसे वह रोजे कहा करते है। युद्ध का काल था, वह रोजे
प्रारम्भ हो गए।भगवन! कैसा काल आ गया, आपको तो बड़ा कष्ट हो
रहा होगा, क्योंकि आपने तो दार्शनिक समाज को देखा है, जिस दार्शनिक समाज में मानव का बहुत बड़ा विकास होता है। यह अज्ञानता की
बात कहाँ आपके आँगन में आ रही होगी, विषय बहुत लम्बा उच्चारण
कर दिया, अभी तो बहुत काल रह रहा है।
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! उच्चारण करते चले
जाओ।“
पूज्य महानन्द जीः तो हे गुरुदेव! वास्तव में
तो हमारा बड़ा सौभाग्य है, जो गुरु जी के प्रति कुछ उच्चारण
कर रहे हैं। गुरुदेव! देखिए आगे चलकर कैसा अज्ञान छाया। जब यवनों ने यहाँ आकर के
जिस राष्ट्र में आपकी और हमारी यह आकाशवाणी मृत्त मण्डल मे जा रही है और जिस स्थान
पर महाराजा युद्धिष्ठिर ने किसी काल में यजन किया था, आक्रमण
किया। भगवन्! हम एक वार्त्ता और उच्चारण करना चाहते है। जब यहाँ जैन मत आया और
नाना प्रकार की अज्ञानता फैली, तो भगवन्! जैनियों ने यहाँ जो
सतोयुग के काल के त्रेता के महान हमारे दार्शनिकों के वाक्य थे, ग्रन्थ थें, अग्नि में भस्म कर दिए। जब यह पुस्तकालय
भस्म हो गए, तो अब क्या करें, अज्ञानता
तो आनी थी। वेद किस प्रकार बच गए ? वेद किसी के गृहों में रह
गए, किन्हीं बुद्धिमानों के कण्ठ रह गए, उन्होंने वेद की विद्या का प्रसार किया। परन्तु यहाँ सब पुस्तकालय समाप्त
हो गए। अहा! वह विद्या कहाँ से लाएं जैसा हम आपसे प्रश्न किया करते हैं कि वह
प्रमाण अब क्यों नहीं मिलते? वह इसीलिए नहीं मिलते, क्योकि वह पुस्तकालय ही अब
समाप्त हो चुके हैं, जो हमारे पूर्व दार्शनिकों के वाक्य थे।
हे गुरुदेव! आगे चल करके यहाँ यवन आए और भी
नाना सम्प्रदाएं चले। जातिवाद का बहुत बड़ा विवाद चल गया। राष्ट्र में जो कार्य हो, वह जातिवाद से चलने लगा। वर्ण व्यवस्था की जो विद्या थी, वह लुप्त होने लगी। उसके पश्चात् गुरुदेव! आगे जो काल आया, देखो, यहाँ यवन आ गए जैसे मुहम्मद ने अपने जीवन में
ग्यारह संस्कार कराए। ऐसे ही इन विचारधारा वालों ने आ करके इस संसार को अधोगति में
पहुँचा दिया। हमारी जो माताएं थीं, भगिनियां थीं, वह बड़ी विदुषी थीं। महान सीता का आदर्श ,उनके समक्ष
था परन्तु विद्या लुप्त होने के नाते, माताओं की विद्या
समाप्त हो गई। महान पुस्तकालय, तो जैनियों के काल में समाप्त
हो चुके थे। यवनों का काल आया,तो उसको और समाप्त कर दिया गया, और अज्ञानता फैला दी। माताओं को बड़े बड़े कष्ट देकर तथा उनके साथ महान्
दुराचार कर इस संसार को अधोगति में पहुँचा दिया।
गोस्वामी तुलसीदास
जब यवनों ने महान विद्यालय समाप्त कर दिए, तो यहाँ गोस्वामी तुलसीदास जी आ गए। उन्होंने पुरुषार्थ किया और विद्या
का कुछ प्रसार किया। बिचारे इतने बुद्धिमान तो थे नहीं,
परन्तु काव्य उनका बहुत सुन्दर था। काव्य सुन्दर होने के नाते उनकी वार्त्ताओं को
स्वीकार कर लिया। धर्म का प्रचार होने लगा।
स्वामी दयानन्द
भगवन्! उसके पश्चात् अभी सौ वर्ष भी नहीं हुए
हैं एक दयानन्द नाम के आचार्य आ पहुंचे। जब उन्होंने संसार को इस प्रकार का देखा, तो क्या किया? गुरुदेव! हमने तो कुछ ऐसा अनुभव किया
है कि द्वापर काल में जो महर्षि अटूटी थे उनकी आत्मा ने आ करके दयानन्द के शरीर
में प्रवेश किया। यह संसार बड़ा अधोगति में चला जा रहा था।उन्होंने माता-पिता का
ऐश्वर्य त्याग दिया, और पूर्व ऋषियों का जो मार्ग था उसे अपनाया।
जैसे शंकराचार्य ने पूर्व महान आत्माओं के
कथन को अपनाया, ऐसे ही इस महान दयानन्द ने यहाँ आ करके संसार
में ज्ञान का प्रसार किया। वह नाना मूर्तिपूजकों के समक्ष पहुँचे, शास्त्रार्थ किया। जैसे शंकराचार्य के ऊपर बड़ी-बड़ी महान आपत्तियां आयी, इसी प्रकार दयानन्द के समक्ष आयी, परन्तु पूर्वजन्म
के ऋषि होने के नाते, इस संसार का उत्थान करने के लिए,परमात्मा के नियमों का पालन करने के लिए वह संसार में आए और वेद की विद्या
को खोजा और जहां भी वेद की विद्या मिली ग्रहण किया। ग्रहण करके, नाना पर्वतों में भ्रमण कर, उन्होंने वेद की विद्या
का प्रसार किया। उन्होंने उन शास्त्रों की वार्त्ताओं को अपनाया,जिन्हें हमारे जैमिनि मुनि ने, हमारे गुरु ब्रह्मा
आदि सबने अपनाया। स्वामी शंकराचार्य ने जिस मत को माना और जिस दार्शनिक विषय को
माना, वह उन्होंने मान करके, इस संसार
में प्रसार प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने बड़ी ऊची वेद की विद्या को समक्ष कर दिया ,परन्तु जो मानव समझ नहीं पाते, वे न समझें| परन्तु वह वेद की विद्या के एक बहुत ही ऊँचे महान माने गए हैं।
भगवन्! आधुनिक काल में तो उन्हें महर्षि नाम की उपाधि प्राप्त हो
गई है, क्योंकि आधुनिक काल में ऐसा महान व्यक्ति जब आ जाता है तो संसार को कुछ
देकर चला जाता है। आचार्य दयानन्द के सिद्धांत में बड़ी ऊँची वार्त्ता है, जिसको हर व्यक्ति को मानना चाहिए। देखो,
इस वेद की विद्या में कुछ लुप्तता हो गई है। इसकी कुछ संहिताएं नहीं
मिली हैं, जिनका अभी तक प्रसार नहीं हुआ है। कुछ ऐसा तो माना
है कि आचार्य दयानन्द ने चारों वेदों की संहिताओं को तो नियुक्त कर दिया है, परन्तु जब न मिलें, तो बिचारे कहाँ से लाते। उनका
तो जितना ज्ञान था उसका प्रसार कर गए। जैसे गुरु जी के द्वारा ज्ञान का समुद्र है ऐसे ही उनकी विद्या समुद्र थी
क्योंकि पूर्व अटूटी नाम के ऋषि थे, उन्हीं की आत्मा ने आ
करके, इस संसार का कल्याण करने के लिए जन्म लिया।
हे गुरुदेव! कलियुग का तो काल था ही। ईसा को
मानने वाले व्यक्ति से, जिनका यहाँ राज्य था, उनसे और यवनों इत्यादियों से शास्त्रार्थ किया। भगवन्! उनकी विद्या अब तक
चल रही है, परन्तु उनके अनुयायी, उनके
वाक्यों को न समझकर उनको अन्धकार में गिरा रहे हैं। तो यह है भगवन्! संसार का
अन्धकार, जो आता चला जा रहा है।
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा, महानन्द जी। यह कैसे उच्चारण कर दिया, कि आधुनिक काल
में अन्धकार गिरा रहे हैं, उनका और उच्चारण कीजिए।“
पूज्य महानन्द जीः भगवन्! वह यह है कि आचार्य
दयानन्द ने ऐसा कहा है, कि सत्य को मानने में किसी प्रकार की
कोई हानि नहीं| परन्तु आधुनिक काल में उनके मानने वाले कुछ
व्यक्ति ऐसे आ पहुँचे हैं, जिन्होंने सत्यता को स्वीकार करना
ही समाप्त कर दिया है। जब वह सत्यता को नहीं मानते, तो उनके
वाक्यों में या उनके बनाए हुए जो महान नियम हैं, उनको समाप्त
करना प्रारम्भ कर दिया है। यथार्थ को यथार्थ मानने में, किसी
को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं। उसको मान लेना चाहिए। संसार में बहुत-सी ऐसी
वार्त्ताएं हैं, जो बुद्धि का विषय नहीं, बुद्धि से परे का विषय है आज अनुसंधान करो, बुद्धि
से परे की वार्त्ताओं को विचारो, योगाभ्यास करो, आत्मा को परमात्मा के समक्ष पहुँचाओ। योग को जान करके, संसार को जानने वाले बनो। तो यह है भगवन्! जो आपने,
हमसे अनुरोध किया था। यहाँ महान आए, तुच्छ भी आए और इस संसार
को अधोगति को पहुँचा दिया।
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! तुम्हारे वाक्य तो
बड़े ऊँचे। हम तो यही मान बैठे, कि महानन्द जी तो कुछ जानते
ही नहीं। आज तो महानन्द जी ने अपने ज्ञान को पोथी ही ले ली। चलो, कोई बात नहीं यह तो संसार की गति है, चलती रहती है।
हमें तो परमात्मा की उपासना करनी चाहिए, संसार की त्रुटियों
पर दृष्टि नहीं पहुँचानी है। जिस कार्य के लिए हम आए हैं, वह
कार्य हम भी करके समाप्त हो जाएंगे। संसार की गति है, हमें
त्रुटियों पर नहीं जाना चाहिए। आध्यात्मिक विज्ञान तो बेटा! तब तक नहीं आएगा, जब तक राजा स्वयं
ही आध्यात्मिक,
वैज्ञानिक नहीं होगा। यदि राजा आध्यात्मिक विज्ञान को जानने वाला
होगा तो उसकी प्रजा भी उस विज्ञान को जानने वाली होगी। जिस राष्ट्र में राजा
आध्यात्मिक न होगा, उसका राष्ट्र सात जन्म में भी आत्मिक
उत्थान करने वाला न बनेगा। यह महाराजा उद्दालक मुनि
महाराज का एक आदेश है। याज्ञवल्क्य से राजा जनक ने एक प्रश्न किया कि भगवन्! मेरा
राष्ट्र स्वर्ग कैसे बन सकता है? तो महर्षि याज्ञवल्क्य ने
कहा, राजन्! जब तक तुम योगी नहीं बनोगे, ब्रह्मज्ञानी नहीं बनोगे तब तक तुम्हारे राष्ट्र की प्रजा कभी
ब्रह्मज्ञानी नहीं बनेगी। राजा जनक ने वही कार्य किया। बेटा! तुमने देखा होगा उनका
राष्ट्र, कितना स्वर्ग तुल्य था। उनके राष्ट्र में
आध्यात्मिक और भौतिक विज्ञान दो विज्ञान थे उनके राष्ट्र में दुराचार और और नाना
अज्ञानता न थी हमारा यह कथन नहीं कि हम भौतिक विज्ञान को न जानें, हमारा तो कथन है कि दोनों प्रकार की विद्याओं को जानो और जान करके अपने
राष्ट्र का कल्याण करो। अपने काल को ऊँचा बनाओ।
पूज्य महानन्द जीः “गुरुदेव! यह वाक्य आपका
सत्य है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “महानन्द जी! हम एक वाक्य
और उच्चारण करना चाहते हैं, कि जैसे अभी-अभी तुमने मुहम्मद
और ईसा का वर्णन किया, इन दोनों में कौन महान था।“
पूज्य महानन्द जीः “यदि यथार्थ माना जाएँ,तो इन दोनों में से कोई नहीं था।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “यह क्यों बेटा?”
पूज्य महानन्द जीः “गुरुदेव! वह यह है, कि अपने स्वार्थ के पीछे लग गए। मुहम्मद ने तो कई संस्कार किए और
स्वार्थी थे, और ईसा इतना महान था, वह
ब्रह्मचारी था परन्तु अपने स्वार्थ के अनुकूल होने के नाते उसको अधिक महान नहीं कह
सकते।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा महानन्द जी! जैसे
तुमने शंकर और दयानन्द का वर्णन किया, इनमें कौन महान था।?”
पूज्य महानन्द जीः “गुरुदेव! काल के अनुकूल
दोनों ऊँचे थे। उन्होंने राष्ट्र का और समाज का कल्याण किया।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा बेटा! जैसा तुमने
बुद्ध और महावीर को कहा, इन दोनों में कौन ऊँचा?”
पूज्य महानन्द जीः “भगवन्! दोनों ही ऊँचे थे, परन्तु अज्ञानता यह थी कि यह भी अपने स्वार्थ के बस हुए। संसार का तो
इन्होंने बहुत कुछ कल्याण किया, परन्तु अज्ञानता यह थी कि
इन्होंने वेद का प्रसार नहीं किया।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा चलो, यह तो समय की परिस्थिति है। जैसा समय, वैसा ही वहाँ
के व्यक्ति और वैसे ही उसका काल। इसमें व्याकुल होने का वाक्य नहीं, कि संसार अधोगति को चला गया।“ बेटा! यह कोई नवीन वाक्य नहीं। जो वाक्य
महाराजा कृष्ण ने कहा था वह वाक्य बेटा! यथार्थ था।
पूज्य महानन्द जीः “गुरुदेव! कल समय देंगे, तो ज्ञान के विषय में वर्णन करेंगे, कि आधुनिक काल
में कैसे-कैसे व्यक्तियों पर कैसे आरोप?”
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! कल नहीं, किसी और समय।“
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवान! जैसी आपकी
इच्छा।“
पूज्यपाद गुरुदेवः महाराजा कृष्ण ने कहा था
कि आगे जो काल आने वाला है, उस काल में महान् को महान नहीं
माना जाएगा, उन पर नाना प्रकार के आरोप। जहाँ तक आत्मा, परमात्मा का विषय है, महर्षि शंकराचार्य ने और
महर्षि दयानन्द दोनों ने ही जैसा मुझे महानन्द जी ने निर्णय दिया, महान् व्यक्तियों की विद्या तुम्हारे समक्ष नियुक्त कर दी। उनकी वार्त्ताओं
को मानना ही तुम्हारा गौरव है। अपने जीवन पर, अपनी विद्या पर
गौरव होना चाहिए। जब हमारी विद्या पूर्ण होगी, तभी हमारा
राष्ट्र ऊँचा बनेगा। वह विद्या कौन सी है? वह वेद की विद्या
है। जिस वेद की विद्या से भौतिक विज्ञान और आध्यात्मिक विज्ञान दोनों को जानकर
अपने समय का उत्थान किया करते हैं। तो यह आज का हमारा आदेश,
अब समाप्त हो गया है। “महानन्द जी! तुम्हें, बार बार धन्यवाद
है, आज तुमने उस काल का वर्णन किया, जिस
काल में अज्ञानता आई।
पूज्य महानन्द जीः “भगवन्! समय सूक्ष्म होने
के कारण पूर्ण तो न दे सके, त्रेता के समय में राजाओं की
वार्त्ता और आधुनिक राजाओं की वार्त्ता आती, तो आप चकित रह
जाते।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “चलो बेटा! ओर कोई समय
दिया जाएगा।“
पूज्य महानन्द जीः “गुरुदेव! कल का समय
दीजिए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “कल का समय, बेटा! ऐसा नहीं। कल तो हमारा कुछ आत्मा परमात्मा का विषय आ रहा है। और
आत्मा परमात्मा का भाव हमारे हृदय से हुआ करता है।“
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवन्! आपको जब कहा
करते हैं, तो आप समय दिया ही नहीं करते। आपको तो और समय
प्राप्त हो जाता है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य..... “अच्छा, तो बेटा! इसका अभिप्राय यह है,कि हमें इस समय ज्ञान
की प्रगति करा रहे हो”
पूज्य महानन्द जीः “हां भगवन्! जिस ज्ञान को
आप नहीं जानते, उसे हम ज्ञान करा दें,
तो क्या हानि है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “नहीं, कोई हानि नहीं। अच्छा, धन्यवाद।