Tuesday, August 28, 2018

1   १२ ०३ १९६२ 

 महाभारत काल के पश्चात् का समय

जीते रहो!
देखो! मुनिवरों! अभी अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ।
पूज्य महानन्द जीः “गुरुजी! आपका पर्ययण समय समाप्त हो रहा है, परन्तु आज के वेद पाठ में एक वेदमन्त्र अशुद्ध उच्चारण हुआ। हम आपसे अधिक वाक्य इसलिए उच्चारण नहीं किया करते, क्योंकि गुरुओं का आदर करना हमारा कर्त्तव्य है, परन्तु एक मन्त्र की अशुद्धि होना भी तो आपने एक प्रकार का पाप ही कहा है।“
पूज्यपाद गुरुदेव- “बेटा! ऐसा तो नहीं हो सकता।“
पूज्य महानन्द जीः “तो क्या गुरुजी! हमने आपके समक्ष मिथ्या उच्चारण कर दिया।“
पूज्यपाद गुरुदेव- “बेटा! यह अभिप्राय नहीं। तुमने जो कुछ कहा है,सत्य ही कहा है। तुम उच्चारण करो, वह कौन सा मन्त्र था द्वितीय उच्चारण कर दें।“
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी!आपका दसवां मन्त्र था।“
(मंत्र उच्चारण के पश्चात )
पूज्यपाद गुरुदेवः “तो महानन्द जी! यही वेदमन्त्र था।“
पूज्य महानन्द जीः “हां भगवान! जैसे आपने मधु विश्वान्त शब्दों का उच्चारण किया, यह पूर्व लुप्त हो गए थे।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा, चलो, कोई बात नहीं।“
पूज्य महानन्द जीः “भगवन्! बात तो बहुत  है। हमसे यदि किसी स्थान पर अशुद्धि हो जाए, तो न प्रतीत क्या हो जाए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “चलो, महानन्द जी!इस वार्त्ता को त्याग देना चाहिए, आगे का समय व्यतीत होता चला जा रहा है। उस अमूल्य समय को शांत कर देना चाहिए।“
पूज्य महानन्द जीः “कृपा कीजिए।“
आत्मा का भोजन
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! आज हम सभी महानजनों से क्षमा चाहते हैं। आज एक वेदमन्त्र अशुद्ध उच्चारण हो गया। हमें इसमें कोई विरोध नहीं। महानन्द जी ने जैसा कहा हमने वैसा स्वीकार कर लिया और उस मन्त्र को द्वितीय उच्चारण कर दिया। तो अभी -अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ। हम वेदों का पाठ कर रहे थे, और ऐसा प्रतीत होता था जैसे परमात्मा आज हमें कोई विभूति प्रदान कर रहे हों। हम उस परमात्मा को दुर्गे शब्दार्थो से पुकार रहे थे। आज के वेद पाठ में कई स्थानों में मग्नता आई, और क्यों आई? क्योंकि आत्मा को भोजन मिलता है। जैसे माता का प्रिय बालक माता के गुणगान गाता हुआ, मग्न हो जाता है इसी प्रकार जब यह आत्मा उस परमपिता परमात्मा का अन्तःकरण से गुणगान गाती है तो वास्तव में मग्नता उत्पन्न होती है, क्योंकि आत्मा को भोजन प्राप्त होता है। आज हमें विचारना चाहिए, हम उसी स्थान पर जावें, उसी योग्यता और महान् उसी ज्ञान को पावें, जिससे हमारी आत्मा में बल आवे, और आत्मा को भोजन मिले। तो आज हम परमपिता परमात्मा की पूजा कर रहे थे।
आज के वेद पाठ में दुर्गेवेति कहा जा रहा था। देखो, परमात्मा दुर्गेवेति है जो हमारे दुर्गुणों को शांत करने वाला है। हे माता! हम तेरे बालक हैं, हमें नाना प्रकार की शिक्षा दे। हे माता! हम तेरे समक्ष आवें और तेरी उस वेदवाणी को धारण कर अन्तःकरण को पवित्र बनाएं और अन्तःकरण में जों नाना प्रकार के हमारे जन्म जन्मान्तरों के संस्कार, पाप और पुण्य दोनों ही जमे हुए हैं वह सब समाप्त हो जावें। हमें ऐसी सत्ता को प्रदान कर।
माता दुर्गा
तो मुनिवरों! वह परमात्मा दुर्गेवेति है और हमारे दुर्गुणों को समाप्त करने वाला है। आत्मा परमात्मा का सम्बन्ध एक महान है जैसे माता और बालक का होता है। वैसे ही परमात्मा दुर्गे है, आत्मा उसका बालक है, उसके आँगन में जाना चाहता है, परन्तु क्या करें, मानव ने जो तुच्छ कर्म किए हैं, तो माता उसे अपने आँगन में धारण नहीं करती है। क्यों नही करती है? क्योंकि माता का बालक अयोग्य होता है, महान दुराचारी हो जाता है, तो उस समय वह बुद्धिमती माता उसे स्वीकार नहीं करती। जब तक हम उस माता के अनुकूल जो उसने हमें शिक्षा दी है, अपने जीवन को बनाएंगे, तब तक वह माता हमें अपने आँगन में कदापि भी धारण नहीं करेगी, इसलिए हमें विचारना चाहिए। उस माता के आँगन में जाने के लिए सुन्दर योजना बनानी चाहिए। जहाँ बेटा! संसार को मृत्यु से और नाना प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाएंगे। यदि उस विधाता की गोद में चले जाएं तो हमारे अन्तःकरण में, हमारे हृदय में ज्ञान की अमृतधारा बह करके हम संसार को प्रकाशित करने वाले बन जाएंगे। जैसे मुनिवरों! बालक को क्षुधा लगती है, माता अपनी लोरियों में लगा लेती है, तो उस बालक के आनन्द का पार नहीं रहता। इसी प्रकार हम माता दुर्गे के अनुकूल कर्त्तव्य करेंगे तो माता अपनी महान् आनन्द रूपी लोरियों में लगा लेगी उस समय हमारे आनन्द का भी पार न रहेगा।
तो मुनिवरों! हम दुर्गे किसको उच्चारण कर रहे थे। दुर्गे माता है, संसार को उत्पन्न करने वाली है। महान प्राण रूपी सत्ता इस शून्य प्रकृति को देने वाली है, जिससे यह अपना कार्य करने वाली है। परमात्मा को माता और पिता दोनों ही नाम से पुकारा गया है। तर्क के अनुकूल और जब दार्शनिक विषय आता है, तो यह विचार आता है, कि परमात्मा को हम माता और पिता दोनों किस प्रकार मानें? इसका उत्तर यह है कि जो वह माता है वह शून्य प्रकृति को सत्ता देने वाली है, और सत्ता दे करके हमें जनने वाली है। वह जो माता की वाणी है, वह हमारे अन्तःकरण को पवित्र बना देती है, दुर्गुणों को नष्ट कर देती है, इसलिए परमात्मा को माता रूप से पुकारा जाता है। परमात्मा को माता रूप तो कह दिया है, परन्तु पिता कैसे माना जाए? बेटा! वह पालन करने वाला है और पालन करने के नाते परमात्मा को पिता रूप से मान रहे हैं, परमात्मा हमारा पालन करता है। हमारे लिए इस सृष्टि को प्रारम्भ कर देते हैं और उस परमात्मा के गर्भ में रहने के नाते वह परमात्मा हमारा, माता और पिता दोनों ही है। जिस समय प्रलयकाल आता है तो ये चार प्रकार की सृष्टि जो देखो, स्थावर है, जंगम है, अण्डज है, उद्भिज है, यह पृथ्वी में लय हो जाती है।और पृथ्वी  जल मे लय  हो जाती है  जल को बेटा! हिरणाक्ष रूप से पुकारा गया है। यह महान जल अग्नि में लय हो जाता है, अग्नि वायु में रमण करती है, वायु अन्तरिक्ष में रमण करती है, अन्तरिक्ष तन्मात्राएं बन करके अम्बर में लय हो जाती है। यह सब लोक लोकान्तर जो तुम्हें प्रतीत हो रहे है यह सब जड़ पदार्थ बन जाते है वास्तव मे तो अब जड़ पदार्थ हैं, परन्तु उनमें जो प्रकाश तुम्हें दृष्टिगोचर आ रहा है, वह इस प्रकार नहीं आएगा। आत्मा इन दोनों के मध्यम में रहता है। यह प्रकृति शून्य रूप बन करके, सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणु बन अन्तरिक्ष में रमण करते हैं और महान आत्मा परमात्मा के गर्भ में चला जाता है। आत्मा परमात्मा के गर्भ में होने के नाते उसके पश्चात् जब आत्मा की वाणी परमात्मा के समक्ष जाती है तो उस समय परमात्मा तन्मात्राओं से इस संसार को पुनः से उत्पन्न कर देते हैं, और हम कर्म करने के लिए उद्यत हो जाते है।
प्रलय काल की स्थिति
हमारे वेदाचार्यो ने अंगिरा मुनि आदि आचार्यो ने ऐसा वर्णन किया है कि जिस समय प्रलयकाल आता है उस काल में सूर्य में प्रकाश नहीं रहता, चन्द्रमा में कान्ति नही रहती,पृथ्वी मेन उपजाऊँ करने की सत्ता नही रहती , अग्नि में उज्ज्वलता करने की सत्ता नहीं रहती, जल में उत्सवता नहीं रहती, वायु में प्राण सत्ता नष्ट हो जाती है। जब समय आता है तो परमात्मा के नियम के अनुकूल जैसे बेटा! पूर्वकाल में वर्णन कर चुके हैं मानव का शरीर है, बाल्य अवस्था हैं, युवा है, मध्यम है और वृद्ध अवस्था है| ऐसे ही सृष्टि का काल आता है, और काल आ करके सृष्टि समाप्त हो जाती है, और सब परमात्मा के गर्भ में चले जाते हैं।
आज यदि कोई मानव यह कहता है कि यह सृष्टि किसी ने नहीं बनाई, यह तो वैसे ही अनादि है। इसको न कोई बनाने वाला है, और न नष्ट करने वाला है। तो उन व्यक्तियों ने उस वेद की विद्या का स्वाध्याय नहीं किया। आत्मा को स्वतः ज्ञान होता है, परन्तु हमारे कर्मो के वश, हमारे प्रकृति के आवेशों में आने के कारण हम उस ज्ञान को भूल बैठे हैं। उस ज्ञान को प्रज्ज्वलित करने के लिए, हमें आध्यात्मिक परिश्रम की आवश्यकता है, तब आत्मा का ज्ञान और प्रयत्न जो स्वाभाविक है वह प्रत्यक्ष हो जाएगा।
आज का हमारा आदेश प्रारम्भ हो रहा था, कि परमात्मा को दुर्गेवती कहा जाता है। वह हमारे दुर्गुणों को समाप्त करने वाला है। परमात्मा को माता पिता दोनों नामों से पुकारा जाता है। अब हम महानन्द जी से प्रार्थना करेगें कि वह कल के आदेश के अनुकूल अपने प्रवचनों को प्रारम्भ करें।
पूज्य महानन्द जीः आप ही प्रारम्भ कर देते, हम आपके समक्ष उच्चारण करते क्या सुन्दर लगेंगे।
पूज्यपाद गुरुदेवः नही बेटा! जैसा भी तुम्हारा व्याख्यान हो, जैसा हमने तुमसे कल कहा था, उसी आदेश के अनुकूल अपने व्याख्यान को प्रारंभ करो जैसा कल तुमने कहा की संसार में महाभारत  के काल का समय कैसा, उसके पश्चात् का समय कैसा?
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवान! जैसी आपकी आज्ञा।“
 महान-जनों! आज हमारा बड़ा सौभाग्य है। गुरु जी से इस महान समाज में हमें कुछ प्रवचन देने का अवसर मिला। हम गुरुजी से प्रार्थना करेंगे कि यदि हमसे किसी प्रकार की त्रुटियां हो जाएं, तो उन्हें क्षमा कर दें और भी जो ऋषिजन समाज में विराजमान हैं वे भी हमारा जो वाक्य अशु़द्ध हो जावे, उसे क्षमा करें।
कल गुरुजी ने ऐसा कहा कि महाभारत के समय को हमने पाया, परन्तु उसके पश्चात् के समय को नहीं पाया, जिसमें इतनी बड़ी अज्ञानता, जो तुम उच्चारण कर रहे हो आई। तो गुरु जी ने उस काल को नहीं देखा, परन्तु हमने गुरु जी की कृपा से उस योग्यता का पाया। अपने उस अभ्यासी शरीर से सूक्ष्म, कारण और स्थूल तीन शरीरों को जाना और जानने के कारण अब तक अपनी योग स्थितियों में धारण होते चले आए हैं, उन्हीं का अभ्यास करते चले आए हैं। इस काल को जैसा हमने देखा उसके अनुसार हम अपना व्याख्यान देंगे।
वेद विद्या की लुप्तता
गुरु जी! हम आपके समक्ष कुछ उच्चारण तो कर नहीं सकते, क्योंकि आपका ज्ञान तो बहुत ही विलक्षण है। उसको पाते-पाते हमारी आत्मा मुग्ध हो जाती है। आज हमारा आत्मा,परमात्मा का प्रश्न नहीं, हमारा तो प्रश्न है कि वेद की विद्या संसार में कैसे लुप्त हो जाती है। कैसे-कैसे इस काल में लुप्त होने लगी और कैसे इसका विकास हुआ।
राजा जन्मेजय का यज्ञ
गुरु जी! महाभारत के काल के पश्चात् यह तो आपको प्रतीत ही है, कि जब राजा परीक्षित के पुत्र जन्मेजय हुए और जिन्होंने एक सर्वस्व यज्ञ किया। जितनी उनके द्वारा सम्पत्ति थी, सब यज्ञ में अर्पण कर दी। जब गरुदेव! महाराज जन्मेजय ने यह निश्चय किया, कि जितनी मेरी सम्पत्ति है, वह सब यज्ञ में अर्पण हो, तो वहाँ कुछ ऐसा पाया गया, कि उस कार्य में आदि ब्राह्मणों को निमन्त्रण  देकर यजन किया गया। महर्षि जैमिनी मुनि उस यज्ञ के ब्रह्मा बने और ब्रह्मा बन, उस यज्ञ को पूर्ण कराया। पूर्ण कराकर ऐसा कार्य हुआ, कि आचार्य जी ने भविष्य की वार्त्ता उच्चारण करते हुए कहा कि आपका यज्ञ सफल नहीं होगा। महाराजा जन्मेजय यज्ञमाननी सहित विराजमान थे। वहाँ एक ब्राह्मण ने मग्नता मनाई, तो उनके हृदय में यह भावना प्रगट हुई, कि यह ब्राह्मण तेरी मग्नता मना रहा है। उसने उस ब्राह्मण के कण्ठ से ऊपर के भाग को, अपने वज्र से अलग कर दिया। देखिए गुरुदेव! जब उसको यज्ञशाला में अर्पण कर दिया, तो यज्ञ भ्रष्ट हो गया, जब यज्ञ भ्रष्ट हो गया, तो वहाँ ब्राह्मणों ने त्याग किया, कि हम कदापि भी द्रव्य न लेगें, दान के पात्र नहीं बनेंगे। जब महाराजा जन्मेजय ने यह वार्त्ता सुनी तो उन्हें ज्ञान हुआ, कि तेरे गुरु ने तुझे संकेत किया था,परन्तु तब भी तूने ब्राह्मण के शीश को समाप्त कर दिया, अब तुझे क्या करना चाहिए?
जातिवाद का प्रारम्भ
 तो गुरु जी हमने ऐसा पाया है कि ब्राह्मणों को द्रव्य दे करके, भूमि का दान दे करके, वहाँ से पृथक कर दिया। वहाँ से गुरुदेव! जातिवाद प्रारम्भ हो गया। उसके पूर्व वर्ण व्यवस्था थी। जो ब्राह्मण के कर्म करने वाले थे, वह ब्राह्मण बने रहे और भगवन्! इसके पश्चात् जिन्होंने त्याग दिया, उन्हें त्यागी रूपों से पुकारने लगे। अब यहाँ से जातिवाद का भेद बन गया।
संप्रदायवाद
इसके पश्चात् भगवन्! आगे काल चलता रहा। जब अज्ञानता आई, तो ब्राह्मणों ने विद्या की सूक्ष्मता कर दी। सूक्ष्मता के  कारण क्षत्रियों में जो वास्तविक शिक्षा थी, वह समाप्त होने लगी। वेद की विद्या लुप्त होने लगी। आगे काल आया, जितने संन्यासी बने, परन्तु कोई यथार्थ संन्यासी बना, तो उसकी यथार्थ विद्या को न मानना और अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर मनमानी वार्त्ता चलने लगी। जब यहाँ नाना प्रकार की जातिवाद चलने लगा, तो जो जिस कार्य को करता था, वह उसी नामों से नियुक्त होने लगा, और एक दूसरे से घृणा होने लगी।देखो, मनु महाराज ने जो भी आदेश दिया, उन पर न चलना। राजाओं में नाना प्रकार की त्रुटियाँ आ गई, दुराचार की भावनाएं आने लगीं। नाना देवियां उनके स्थान में रहा करें। यहाँ देवियों की विद्या और जो उनकी प्रतिभा थी, वह समाप्त होने लगी। उसके पश्चात् यहाँ धर्म के विषय पर सम्प्रदाय चल गए। जिससे घृणा की, उसी का सम्प्रदाय पृथक बन गया।
जब यहाँ सम्प्रदाय बनने लगे  तो यहाँ एक वाममार्गी सम्प्रदाय चला। हमने जो इनका दुराचार देखा, उस दुराचार को तो हम आपके समक्ष वर्णन नहीं करेंगे, परन्तु वेद की विद्या उन्होंने नष्ट कर दी। वेदों का कुछ भाष्य किया, परन्तु वह भाष्य भी अनुचित कर दिया, जिससे संसार में नास्तिकता दौड़ने लगी। कुछ महान व्यक्तियों  ने ऐसा कहा, कि यह परमात्मा कोई पदार्थ नहीं, और न परमात्मा की यह वेद विद्या है। यह तो धूर्त हैं, यह तो महान दुराचारी और पिशाचरों ने वेद की विद्या को प्रकाशित किया है, हम इस वेद की विद्या को कदापि स्वीकार नहीं करेंगे । तो गुरुदेव! जब वाममार्गियों ने ऐसा किया, तो वेद की विद्या लुप्त होने लगी। वह सम्प्रदाय बड़ा दुराचारी था। दुराचारी होने के कारण राष्ट्र में अज्ञानता आने लगी।
रूढ़ि से गौमेध यज्ञ
 जब यहाँ नाना प्रकार के सम्प्रद्राय चलने लगे तो यहाँ एक महावीर नाम के व्यक्ति आ पहुँचे। उन्होंने अपनी दार्शनिक बुद्धि से कुछ विचारा कि यह तो बड़ा अनर्थ होने लगा है। उस काल में क्या होता था? गुरुदेव! इन वाममार्गियों ने ऐसा किया कि जब अजामेध यज्ञ करते, अजा कहते हैं बकरी को। जैसा आपने पूर्व कहा है, अजामेध यज्ञ जब इन्होंने समझा नही तो क्या किया कि यज्ञ में अजा को लेकर वेदमन्त्र का पाठ करें, “चक्षुनते शुन्धामि” जिस अंग का नाम आए, उस अंग की आहुति देने लगे, और उसे अजामेध यज्ञ वर्णन करने लगे। जब गौ मेध यज्ञ का वर्णन आता, तो वहाँ गौ माता की आहुति देकर, यज्ञशाला में अर्पण करने लगे। यहाँ ऐसा अधोगति का काल आया। दार्शनिक समाज और वैज्ञानिक समाज तुच्छ होने लगे। वेद की विद्या लुप्त होने से सभी संसार अधोगति को चला गया। गौ मेध यज्ञ को समझा नहीं, गौ कहते है, पृथ्वी को और पृथ्वी की विद्या को जानना ही गौ मेध यज्ञ है। उन्होंने इसको समझा नहीं। उन्होंने केवल यही समझा, कि गौ मांस की आहुति दो तब ही तुम्हारा यज्ञ सफल होगा।
अज्ञानता छा जाने के कारण, आगे चलकर अश्मेघ यज्ञ होने लगे। गुरुदेव! उन्होंने अश्वमेध का अभिप्राय, जो वेद में वर्णन किया है, कि जब राजा अश्वमेध यज्ञ करता था, तो वह घोड़ा छोड़ता था और जो उस घोड़े को रोक लेता था, राजा उसके साथ युद्ध करता था। उसके पश्चात् उसे अश्वमेध यज्ञ करने का अधिकार था। गुरूदेव! हमने उन वाममार्गियां को देखा,जिन्होंने  देखो, ‘ प्राह गणे ते अचतेदेखो, इनके लिंग यज्ञते महान  यज्ञ मानस्य, वहाँ दुराचार, भ्रष्टाचार होने लगे। नास्तिकता आने लगी। परमात्मा को शांत कर दिया, कि परमात्मा कोई पदार्थ नहीं।
भगवान महावीर
महावीर नाम के दार्शनिक ने दार्शनिकता से विचारा और उन्होने कहा कि “अहिंसा परमोधर्मः” वह दार्शनिक तो बने, वेद के कुछ अंग को तो जाना ,परन्तु वेद की विद्या को नहीं जाना और न जान करके, उन्होंने कहा कि “वेद की विद्या सब निरर्थक है।“ यह कोई वेद की विद्या का वाक्य नहीं, और न वेद कोई पदार्थ है। अहिंसा परमोधर्मः का तो कुछ पाठ किया, वेद के कुछ अंग का प्रचार किया,परन्तु उन्होंने कहा “कि आत्मा परमात्मा एक ही हैं। न कोई इस संसार को बनाने वाला है और न संसार किसी स्थान में बनता है। यह तो ऐसे ही अनादि चला आ रहा है। यह आत्मा ही परमात्मा बन जाता है।“
महात्मा बुद्ध  
भगवन्! आगे काल ऐसा चलता रहा। नाना प्रकार की त्रुटियां आने लगीं। उसके पश्चात् परमात्मा ने कुछ विभूतियों को भेजा। आज से लगभग २५०० वर्ष का समय हो गया जव यहाँ महात्मा बुद्ध का आगमन हुआ। उन्होने इस संसार का कुछ निर्माण किया। द्वितीय राष्ट्रों में भ्रमण करके, उन्होंने कहा कि अहिंसा परमोधर्मः।“| जब उनके समक्ष नाना वाममार्गी शास्त्रार्थ करने के लिए आए, तो उन्होंने कहा कि भाई! तुम हमें वेद का प्रमाण देते हो, जिस वेद में ऐसा प्रकरण हो, हम उस वेद को कदापि भी स्वीकार नहीं करेंगे जिसमें पापाचार हो, हिंसा हो। उन्होंने क्या विचारा? उन्होंने वेद का स्वाध्याय करना समाप्त कर दिया। वास्तव में तो वह बड़े ऊँचे थे, बड़े दार्शनिक बने। राजा थे, राजा से संन्यास धारण किया, सर्वज्ञ साँसारिक ऐश्वर्य को त्याग करके, ऐसे अगाध अन्धकार में आ कूदे। उन्होंने क्या किया? बहुत से राष्ट्रों का निर्माण किया, वेद के अंगों का पालन किया। जब महात्मा बुद्ध समाप्त हो गए, तो जो उनके अनुयायी थे, उन्होंने महात्मा बुद्ध के विचारों को न मान करके नाना प्रकार का दुराचार करना प्रारम्भ कर दिया।
महात्मा  शंकरचार्य
जब दुराचार होने लगा तो भगवन्! आज से २२०० वर्ष या कुछ अधिक वर्ष हो गए जब महात्मा शंकराचार्य आ पधारे। जिस समय वह १२ वर्ष के थे, अपनी माता से कहा-“मैं तो इस संसार को जगाना चाहता हूँ। यह संसार मुझे अन्धकारमय प्रतीत हो रहा है|” महात्मा शङ्कराचार्य पूर्व जन्म के कुटली मुनि महाराज थे। उनकी आत्मा ने यहाँ आकार जन्म धारण किया। परमात्मा के अनुकूल ऐसी- ऐसी महान् आत्मा, यौगिक आत्मा संसार में आती रहती हैं और आ करके धर्म का कुछ न कुछ पालन करा ही देती हैं।देखो, उसकी माता ने कहा, “हे बेटा! तुझे धन्य है, जो तूने ऐसे महान विचारों का संकल्प किया है। इन विचारों को संसार के समक्ष नियुक्त करो, जिससे यह संसार अन्धकार से पृथक हो जाए। तो हे गुरुदेव! उस महात्मा शंकराचार्य ने आ करके, इस संसार का निर्माण करना प्रारम्भ कर दिया। महात्मा बुद्ध और महात्मा महावीर के मानने वाले जो अनुयायी थे उनसे शास्त्रार्थ किया। मूर्ति पूजा के विषय में शास्त्रार्थ करते थे। उनका यह कथन था, कि मेरा यह नियम है, कि मैं शास्त्रार्थ में हार जाऊँगा तो मैं मूर्ति पूजक बन जाऊंगा और यदि नहीं हारा, तो तुम्हारी इन मूर्तियों को नष्ट भ्रष्ट कर दूंगा। हे गुरुदेव! हमने महात्मा शंकराचार्य को देखा। वह शास्त्रार्थ करते थे और आत्मा,परमात्मा के विषय में और जब विपक्षी थकित हो जाते थे, तो अपने खांडे को लेकर, मूर्तियों पर आक्रमण करते थे। उनको, उनके स्थान से पृथक कर दिया जाता था। महात्मा शंकराचार्य ने बहुत कुछ उपकार किया था। धर्म का बहुत बड़ा कल्याण किया था। आत्मा परमात्मा को पृथक् मान करके, उन्होंने और बौद्धमत के अनुयायियों को चकित कर दिया। एक समय अभाव में आ करके, उन्होंने वेदान्त का पाठ किया, और वेदान्त कही महान ऊंची गहराई में जा करके, उन्होंने कहा कि भाई! आत्मा और परमात्मा का भाव एक ही प्रतीत होता है। परन्तु फिर भी उन्होंने यह नही कहा, यहाँ भाव तो एक ही है। जैसे माता का बालक है, और माता के गर्भ में रहता है, माता के समक्ष नहीं होता, न माता को ही दिखता और न संसार को दिखता, ऐसे ही हम आत्मा जब मोक्ष में जाते हैं तो परमात्मा के गर्भ में चले जाते है परमात्मा के गुण हममें प्रविष्ट हो जाते हैं उस समय हम अपने को परमात्मा मान लेवें तो कोई हानि नहीं। परन्तु वास्तव में हम परमात्मा तो नही है। हम किसी को तभी पावेगें जब उनके गुण में रमण करेंगे, उसके गुणों की वार्त्ता उच्चारण करेंगे, अन्यथा हम किसी प्रकार भी रमण नहीं करेंगे।
मंदिर निर्माण का सुझाव
 गुरुदेव! शंकराचार्य ने इन विचारों का कथन किया, तो आगें चल करके उपनिषदों का स्वाध्याय करते हुए, ऐसा कहा कि आध्यात्मिक विचारों को लेते हुए प्रतीत होता है कि आत्मा से बढ़कर भी कोई सत्ता अवश्य हैं। जब महात्मा शंकराचार्य ने वेद की स्थापना की। वेद की विद्या को ऐसा जान लिया तो नाना मत वालो से शास्त्रार्थ कर वेद की स्थापना की वेदांगों का मन्थन किया और उनका पालन किया और एक महान समाज बना दिया। उन्होंने कहा कि देखों जैसे तुम जैनियों के और इनके मन्दिरों और स्थानां में जाते हो इससे तो तुम एक कार्य करो, कि तुम अपने मन्दिर बनाओ और उन्हीं में एकांत स्थान में विराजमान हो करके उस परमपिता परमात्मा को जानने का प्रयत्न करो, जो तुम्हारी आत्मा के समक्ष बैठा हैं, तुम्हारा पालन कर रहा है तुम दूसरे स्थानों में क्यों जा रहे हो। यथार्थ वाक्य था। सबने स्वीकार कर लिया।
ईसा मसीह
आगे चल करके भगवन्! यहाँ बहुत से मत आ गए। उसके पश्चात भगवन्! देखो, ईसा मसीह नाम के आ कूदे। द्वितीय राष्ट्र में उत्पन्न हुए, उन्होंने आ करके काशी स्थान में आयुर्वेद की शिक्षा का पान किया। आयुर्वेद का स्वाध्याय करके, इस विद्या को जाना, कि नेत्रों की दृष्टि से मानव के विज्ञान को जाना जाता हैं। भगवन्! काशी में एक विरडी नाम के आचार्य थें। उनसे उन्होंने आयुर्वेद की शिक्षा पाई, और पा करके महान बने। इस राष्ट्र से भगवन्! अपने राष्ट्र को चले गए। वहाँ जाकर उन्होंने अपनी विद्या का प्रचार किया, और उन्होंने निराला मत उत्पन्न किया ,जिससे भगवन उनहोंने एक  अच्छी प्रकार तो समझा नहीं, और जाना नहीं, परन्तु इसी में, उनका एक महान मत बन गया। उसके द्वारा क्या विशेषता थी? आयुर्वेद की विद्या जो हमने अभी उच्चारण की, उस विद्या के जानने से और योगाभ्यास करने से इसके तत्त्वों को जानना,मानो नेत्रों की दृष्टि से, मानव के अवगुणों को शांत करने की शक्ति आ जाती है। तो भगवन्! जब इसमें यह सत्ता आ गई, तो वह बड़ा तपस्वी बना, और तपस्वी बन करके, उन्होंने वहाँ के व्यक्तियों को कुछ उद्धार किया। परन्तु भगवन उसको भी इस संसार ने समाप्त कर दिया। उन्होंने भी एक समाज बनाया और उस समाज में यथार्थ शिक्षा दे करके, वे भी चले गए। आगे उनके अनुयायियों ने उनका दुरूपयोग करना प्रारम्भ कर दिया। हे भगवन्! उन्हें असली रूप में न छोड़ा।
मुहम्मद
भगवन्! आगे चल करके, मुहम्मद नाम के एक यवन हुए। भगवन्! वास्तव में देखा जाता है तो वह यवन ही थे। जैसा आपने वेद की विद्या में कहा है।यवनों को दैत्य खा जाता है और वह दैत्य प्रकृति के थे  एक छोटे से घर में जन्म ले करके,महान  एक राजा बनने की अपेक्षा की, राजा बने। अबुबक्र उनके एक मित्र थे, परन्तु उनको अत्तुत बनाया, और बना करके मन्त्रियों से अपने नाना पाखण्डोंसे  शिष्य बनाए, शिष्य बना करके, संग्राम किया, और अन्त में राष्ट्र पर उनका अधिकार हो गया। ज्ञानी काल था, विद्या थी नहीं। जब भगवन्! राजा बन गए, तो उन्होंने आसवाती नाम के वृक्ष में, एक पुस्तक बना करके अर्पण की और उसके पश्चात् राष्ट्र के महान चुने हुए, व्यक्तियों का समाज एकत्रित किया, और कहा कि भाई! मुझ परमात्मा के दर्शन हुए हैं, और परमात्मा ने मुझे एक पुस्तक दी  है, जिसको मैं महान बनाना चाहता हूँ। आज मेंरे इस वाक्य को स्वीकार करो। उन्होंने उस वृक्ष का वर्णन किया। उन व्यक्तियों ने उस वृक्ष को समाप्त कराया तो उन्होंने देखा, कि उसमें वह पुस्तक वैसी ही थी। उन्हें विश्वास हो गया। हे गुरुदेव! प्रहादी मनः वाचे वह उनकी विचारधारा, जो पुस्तक में थी, वह प्रजा के समक्ष आ गई। उन्होंने सोचा कि भाई! यह तो बड़ा सुन्दर है, और उन्होंने मुहम्मद की वार्त्ता को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार देखों, यवन मत हो गया।
उन्होंने देखो, भगवन्! द्वितीय राष्ट्र पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। कितना बड़ा संसार में अन्धकार आया।वहाँ कैसा कारण हुआ देखो,  एक माह के संग्राम के पश्चात, मुहम्मद ने युनान राष्ट्र पर विजय प्राप्त की। उस संग्राम में दिवस में युद्ध करते, सायंकाल युद्ध करने वालों से कहा करते, अरे भाई! तुम रात्रि में भोजन किया करो, और दिवस में यु़द्ध किया करो। दो समय रात्रि का भोजन किया करते थे। उन्होंने उसका एक सम्प्रदाय बना लिया। गुरुदेव! बड़ा अच्छा वाक्य है, क्या उच्चारण करें, उसे वह रोजे कहा करते है। युद्ध का काल था, वह रोजे प्रारम्भ हो गए।भगवन! कैसा काल आ गया, आपको तो बड़ा कष्ट हो रहा होगा, क्योंकि आपने तो दार्शनिक समाज को देखा है, जिस दार्शनिक समाज में मानव का बहुत बड़ा विकास होता है। यह अज्ञानता की बात कहाँ आपके आँगन में आ रही होगी, विषय बहुत लम्बा उच्चारण कर दिया, अभी तो बहुत काल रह रहा है।
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! उच्चारण करते चले जाओ।“
पूज्य महानन्द जीः तो हे गुरुदेव! वास्तव में तो हमारा बड़ा सौभाग्य है, जो गुरु जी के प्रति कुछ उच्चारण कर रहे हैं। गुरुदेव! देखिए आगे चलकर कैसा अज्ञान छाया। जब यवनों ने यहाँ आकर के जिस राष्ट्र में आपकी और हमारी यह आकाशवाणी मृत्त मण्डल मे जा रही है और जिस स्थान पर महाराजा युद्धिष्ठिर ने किसी काल में यजन किया था, आक्रमण किया। भगवन्! हम एक वार्त्ता और उच्चारण करना चाहते है। जब यहाँ जैन मत आया और नाना प्रकार की अज्ञानता फैली, तो भगवन्! जैनियों ने यहाँ जो सतोयुग के काल के त्रेता के महान हमारे दार्शनिकों के वाक्य थे, ग्रन्थ थें, अग्नि में भस्म कर दिए। जब यह पुस्तकालय भस्म हो गए, तो अब क्या करें, अज्ञानता तो आनी थी। वेद किस प्रकार बच गए ? वेद किसी के गृहों में रह गए, किन्हीं बुद्धिमानों के कण्ठ रह गए, उन्होंने वेद की विद्या का प्रसार किया। परन्तु यहाँ सब पुस्तकालय समाप्त हो गए। अहा! वह विद्या कहाँ से लाएं जैसा हम आपसे प्रश्न किया करते हैं कि वह प्रमाण अब क्यों  नहीं मिलते? वह इसीलिए नहीं मिलते, क्योकि वह पुस्तकालय ही अब समाप्त हो चुके हैं, जो हमारे पूर्व दार्शनिकों के वाक्य थे।
हे गुरुदेव! आगे चल करके यहाँ यवन आए और भी नाना सम्प्रदाएं चले। जातिवाद का बहुत बड़ा विवाद चल गया। राष्ट्र में जो कार्य हो, वह जातिवाद से चलने लगा। वर्ण व्यवस्था की जो विद्या थी, वह लुप्त होने लगी। उसके पश्चात् गुरुदेव! आगे जो काल आया, देखो, यहाँ यवन आ गए जैसे मुहम्मद ने अपने जीवन में ग्यारह संस्कार कराए। ऐसे ही इन विचारधारा वालों ने आ करके इस संसार को अधोगति में पहुँचा दिया। हमारी जो माताएं थीं, भगिनियां थीं, वह बड़ी विदुषी थीं। महान सीता का आदर्श ,उनके समक्ष था परन्तु विद्या लुप्त होने के नाते, माताओं की विद्या समाप्त हो गई। महान पुस्तकालय, तो जैनियों के काल में समाप्त हो चुके थे। यवनों का काल आया,तो उसको और समाप्त कर दिया गया, और अज्ञानता फैला दी। माताओं को बड़े बड़े कष्ट देकर तथा उनके साथ महान् दुराचार कर इस संसार को अधोगति में पहुँचा दिया।
गोस्वामी तुलसीदास
जब यवनों ने महान विद्यालय समाप्त कर दिए, तो यहाँ गोस्वामी तुलसीदास जी आ गए। उन्होंने पुरुषार्थ किया और विद्या का कुछ प्रसार किया। बिचारे इतने बुद्धिमान तो थे नहीं, परन्तु काव्य उनका बहुत सुन्दर था। काव्य सुन्दर होने के नाते उनकी वार्त्ताओं को स्वीकार कर लिया। धर्म का प्रचार होने लगा।
स्वामी दयानन्द
भगवन्! उसके पश्चात् अभी सौ वर्ष भी नहीं हुए हैं एक दयानन्द नाम के आचार्य आ पहुंचे। जब उन्होंने संसार को इस प्रकार का देखा, तो क्या किया? गुरुदेव! हमने तो कुछ ऐसा अनुभव किया है कि द्वापर काल में जो महर्षि अटूटी थे उनकी आत्मा ने आ करके दयानन्द के शरीर में प्रवेश किया। यह संसार बड़ा अधोगति में चला जा रहा था।उन्होंने माता-पिता का ऐश्वर्य त्याग दिया, और पूर्व ऋषियों का जो मार्ग था उसे अपनाया।
जैसे शंकराचार्य ने पूर्व महान आत्माओं के कथन को अपनाया, ऐसे ही इस महान दयानन्द ने यहाँ आ करके संसार में ज्ञान का प्रसार किया। वह नाना मूर्तिपूजकों के समक्ष पहुँचे, शास्त्रार्थ किया। जैसे शंकराचार्य के ऊपर बड़ी-बड़ी महान आपत्तियां आयी, इसी प्रकार दयानन्द के समक्ष आयी, परन्तु पूर्वजन्म के ऋषि होने के नाते, इस संसार का उत्थान करने के लिए,परमात्मा के नियमों का पालन करने के लिए वह संसार में आए और वेद की विद्या को खोजा और जहां भी वेद की विद्या मिली ग्रहण किया। ग्रहण करके, नाना पर्वतों में भ्रमण कर, उन्होंने वेद की विद्या का प्रसार किया। उन्होंने उन शास्त्रों की वार्त्ताओं को अपनाया,जिन्हें हमारे जैमिनि मुनि ने, हमारे गुरु ब्रह्मा आदि सबने अपनाया। स्वामी शंकराचार्य ने जिस मत को माना और जिस दार्शनिक विषय को माना, वह उन्होंने मान करके, इस संसार में प्रसार प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने बड़ी ऊची वेद की विद्या को समक्ष कर दिया ,परन्तु जो मानव समझ नहीं पाते, वे न समझें| परन्तु वह वेद की विद्या के एक बहुत ही ऊँचे महान माने गए हैं।
भगवन्! आधुनिक काल में तो उन्हें महर्षि नाम की उपाधि प्राप्त हो गई है, क्योंकि आधुनिक काल में ऐसा महान व्यक्ति जब आ जाता है तो संसार को कुछ देकर चला जाता है। आचार्य दयानन्द के सिद्धांत में बड़ी ऊँची वार्त्ता है, जिसको हर व्यक्ति को मानना चाहिए। देखो, इस वेद की विद्या में कुछ लुप्तता हो गई है। इसकी कुछ संहिताएं नहीं मिली हैं, जिनका अभी तक प्रसार नहीं हुआ है। कुछ ऐसा तो माना है कि आचार्य दयानन्द ने चारों वेदों की संहिताओं को तो नियुक्त कर दिया है, परन्तु जब न मिलें, तो बिचारे कहाँ से लाते। उनका तो जितना ज्ञान था उसका प्रसार कर गए। जैसे गुरु जी के द्वारा ज्ञान का समुद्र है ऐसे ही उनकी विद्या समुद्र थी क्योंकि पूर्व अटूटी नाम के ऋषि थे, उन्हीं की आत्मा ने आ करके, इस संसार का कल्याण करने के लिए जन्म लिया।
हे गुरुदेव! कलियुग का तो काल था ही। ईसा को मानने वाले व्यक्ति से, जिनका यहाँ राज्य था, उनसे और यवनों इत्यादियों से शास्त्रार्थ किया। भगवन्! उनकी विद्या अब तक चल रही है, परन्तु उनके अनुयायी, उनके वाक्यों को न समझकर उनको अन्धकार में गिरा रहे हैं। तो यह है भगवन्! संसार का अन्धकार, जो आता चला जा रहा है।
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा, महानन्द जी। यह कैसे उच्चारण कर दिया, कि आधुनिक काल में अन्धकार गिरा रहे हैं, उनका और उच्चारण कीजिए।“
पूज्य महानन्द जीः भगवन्! वह यह है कि आचार्य दयानन्द ने ऐसा कहा है, कि सत्य को मानने में किसी प्रकार की कोई हानि नहीं| परन्तु आधुनिक काल में उनके मानने वाले कुछ व्यक्ति ऐसे आ पहुँचे हैं, जिन्होंने सत्यता को स्वीकार करना ही समाप्त कर दिया है। जब वह सत्यता को नहीं मानते, तो उनके वाक्यों में या उनके बनाए हुए जो महान नियम हैं, उनको समाप्त करना प्रारम्भ कर दिया है। यथार्थ को यथार्थ मानने में, किसी को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं। उसको मान लेना चाहिए। संसार में बहुत-सी ऐसी वार्त्ताएं हैं, जो बुद्धि का विषय नहीं, बुद्धि से परे का विषय है आज अनुसंधान करो, बुद्धि से परे की वार्त्ताओं को विचारो, योगाभ्यास करो, आत्मा को परमात्मा के समक्ष पहुँचाओ। योग को जान करके, संसार को जानने वाले बनो। तो यह है भगवन्! जो आपने, हमसे अनुरोध किया था। यहाँ महान आए, तुच्छ भी आए और इस संसार को अधोगति को पहुँचा दिया।
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! तुम्हारे वाक्य तो बड़े ऊँचे। हम तो यही मान बैठे, कि महानन्द जी तो कुछ जानते ही नहीं। आज तो महानन्द जी ने अपने ज्ञान को पोथी ही ले ली। चलो, कोई बात नहीं यह तो संसार की गति है, चलती रहती है। हमें तो परमात्मा की उपासना करनी चाहिए, संसार की त्रुटियों पर दृष्टि नहीं पहुँचानी है। जिस कार्य के लिए हम आए हैं, वह कार्य हम भी करके समाप्त हो जाएंगे। संसार की गति है, हमें त्रुटियों पर नहीं जाना चाहिए। आध्यात्मिक विज्ञान तो बेटा! तब तक नहीं आएगा, जब तक राजा स्वयं ही आध्यात्मिक, वैज्ञानिक नहीं होगा। यदि राजा आध्यात्मिक विज्ञान को जानने वाला होगा तो उसकी प्रजा भी उस विज्ञान को जानने वाली होगी। जिस राष्ट्र में राजा आध्यात्मिक न होगा, उसका राष्ट्र सात जन्म में भी आत्मिक उत्थान करने वाला न बनेगा। यह महाराजा उद्दालक मुनि महाराज का एक आदेश है। याज्ञवल्क्य से राजा जनक ने एक प्रश्न किया कि भगवन्! मेरा राष्ट्र स्वर्ग कैसे बन सकता है? तो महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा, राजन्! जब तक तुम योगी नहीं बनोगे, ब्रह्मज्ञानी नहीं बनोगे तब तक तुम्हारे राष्ट्र की प्रजा कभी ब्रह्मज्ञानी नहीं बनेगी। राजा जनक ने वही कार्य किया। बेटा! तुमने देखा होगा उनका राष्ट्र, कितना स्वर्ग तुल्य था। उनके राष्ट्र में आध्यात्मिक और भौतिक विज्ञान दो विज्ञान थे उनके राष्ट्र में दुराचार और और नाना अज्ञानता न थी हमारा यह कथन नहीं कि हम भौतिक विज्ञान को न जानें, हमारा तो कथन है कि दोनों प्रकार की विद्याओं को जानो और जान करके अपने राष्ट्र का कल्याण करो। अपने काल को ऊँचा बनाओ।
पूज्य महानन्द जीः “गुरुदेव! यह वाक्य आपका सत्य है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “महानन्द जी! हम एक वाक्य और उच्चारण करना चाहते हैं, कि जैसे अभी-अभी तुमने मुहम्मद और ईसा का वर्णन किया, इन दोनों में कौन महान था।“
पूज्य महानन्द जीः “यदि यथार्थ माना जाएँ,तो इन दोनों में से कोई नहीं था।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “यह क्यों बेटा?”
पूज्य महानन्द जीः “गुरुदेव! वह यह है, कि अपने स्वार्थ के पीछे लग गए। मुहम्मद ने तो कई संस्कार किए और स्वार्थी थे, और ईसा इतना महान था, वह ब्रह्मचारी था परन्तु अपने स्वार्थ के अनुकूल होने के नाते उसको अधिक महान नहीं कह सकते।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा महानन्द जी! जैसे तुमने शंकर और दयानन्द का वर्णन किया, इनमें कौन महान था।?”
पूज्य महानन्द जीः “गुरुदेव! काल के अनुकूल दोनों ऊँचे थे। उन्होंने राष्ट्र का और समाज का कल्याण किया।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा बेटा! जैसा तुमने बुद्ध और महावीर को कहा, इन दोनों में कौन ऊँचा?”
पूज्य महानन्द जीः “भगवन्! दोनों ही ऊँचे थे, परन्तु अज्ञानता यह थी कि यह भी अपने स्वार्थ के बस हुए। संसार का तो इन्होंने बहुत कुछ कल्याण किया, परन्तु अज्ञानता यह थी कि इन्होंने वेद का प्रसार नहीं किया।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा चलो, यह तो समय की परिस्थिति है। जैसा समय, वैसा ही वहाँ के व्यक्ति और वैसे ही उसका काल। इसमें व्याकुल होने का वाक्य नहीं, कि संसार अधोगति को चला गया।“ बेटा! यह कोई नवीन वाक्य नहीं। जो वाक्य महाराजा कृष्ण ने कहा था वह वाक्य बेटा! यथार्थ था।
पूज्य महानन्द जीः “गुरुदेव! कल समय देंगे, तो ज्ञान के विषय में वर्णन करेंगे, कि आधुनिक काल में कैसे-कैसे व्यक्तियों पर कैसे आरोप?”
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! कल नहीं, किसी और समय।“
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवान! जैसी आपकी इच्छा।“
पूज्यपाद गुरुदेवः महाराजा कृष्ण ने कहा था कि आगे जो काल आने वाला है, उस काल में महान् को महान नहीं माना जाएगा, उन पर नाना प्रकार के आरोप। जहाँ तक आत्मा, परमात्मा का विषय है, महर्षि शंकराचार्य ने और महर्षि दयानन्द दोनों ने ही जैसा मुझे महानन्द जी ने निर्णय दिया, महान् व्यक्तियों की विद्या तुम्हारे समक्ष नियुक्त कर दी। उनकी वार्त्ताओं को मानना ही तुम्हारा गौरव है। अपने जीवन पर, अपनी विद्या पर गौरव होना चाहिए। जब हमारी विद्या पूर्ण होगी, तभी हमारा राष्ट्र ऊँचा बनेगा। वह विद्या कौन सी है? वह वेद की विद्या है। जिस वेद की विद्या से भौतिक विज्ञान और आध्यात्मिक विज्ञान दोनों को जानकर अपने समय का उत्थान किया करते हैं। तो यह आज का हमारा आदेश, अब समाप्त हो गया है। “महानन्द जी! तुम्हें, बार बार धन्यवाद है, आज तुमने उस काल का वर्णन किया, जिस काल में अज्ञानता आई।
पूज्य महानन्द जीः “भगवन्! समय सूक्ष्म होने के कारण पूर्ण तो न दे सके, त्रेता के समय में राजाओं की वार्त्ता और आधुनिक राजाओं की वार्त्ता आती, तो आप चकित रह जाते।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “चलो बेटा! ओर कोई समय दिया जाएगा।“
पूज्य महानन्द जीः “गुरुदेव! कल का समय दीजिए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “कल का समय, बेटा! ऐसा नहीं। कल तो हमारा कुछ आत्मा परमात्मा का विषय आ रहा है। और आत्मा परमात्मा का भाव हमारे हृदय से हुआ करता है।“
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवन्! आपको जब कहा करते हैं, तो आप समय दिया ही नहीं करते। आपको तो और समय प्राप्त हो जाता है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य..... “अच्छा, तो बेटा! इसका अभिप्राय यह है,कि हमें इस समय ज्ञान की प्रगति करा रहे हो”
पूज्य महानन्द जीः “हां भगवन्! जिस ज्ञान को आप नहीं जानते, उसे हम ज्ञान करा दें, तो क्या हानि है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “नहीं, कोई हानि नहीं। अच्छा, धन्यवाद।

Friday, August 24, 2018


1   ०९ ०३ १९७२ कर्मों की गति

जीते रहो !
देखो, मुनिवरों! अभी -अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ | हमारा वेद पाठ प्रारम्भ हो रहा था |  आज के प्रथम वेदमन्त्रों में परमात्मा की पूर्णता का वर्णन आ रहा था। परमात्मा इतना महान् और अलौकिक है कि मानव उसका पार नहीं पाता। वह मानव के हृदय में बैठा हुआ, अपनी यमपुरी को रचा रहा है। परमात्मा यमपुरी को क्यों रचा रहा है? उसका क्या मन्तव्य है?
बेटा,! परमात्मा का मन्तव्य तो कोई नहीं केवल अपना कार्य पूर्ण कर रहा है। पूर्णता का मन्तव्य ले लो या कुछ उच्चारण कर दो, परन्तु हमने तो यही जाना है, कि परमात्मा हमारे हृदय में यमपुरी रचा रहा है। मुनिवरों! जो भी हम कर्म करते हैं, जैसा हमारा कर्म है, हमारे कर्मों का फल देने वाला है। जो परमात्मा हमारे पाप पुण्य कर्मों का फल देने वाला हो, न्याय करने वाला हो उसको बेटा! यम रूप से पुकारा जाता है।
यम
मुनिवरों! यम नाम तो वायु का भी है। वायु को यम क्यों कहते हैं? यम वायु कैसी होती है? बेटा! जब यह आत्मा इस सर्वांग शरीर को त्याग कर अन्तरिक्ष में जाता है, तो यह अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा, उस यम नाम की वायु में रमण करता है। उस काल में बेटा! हम वायु को भी यम कहा करते हैं। परन्तु वास्तव में यहाँ परमात्मा का ही वर्णन आ रहा था, क्योंकि परमात्मा यम रूप धारण करके हमारे पाप पुण्य कर्मों का फल देने वाला है।
कर्म भोग की अनिवार्यता
आज हमारे हृदय में वह कौन सा स्थान है, जहाँ परमात्मा यह न्याय कर रहा है? आज हम विचारते हैं और यह उच्चारण करते हैं कि कोई स्थान नहीं, वह तो न्याय है। द्वितीय प्रश्न आता है कि जब कोई स्थान नहीं, तो परमात्मा न्याय कैसे करता है। आज यह एक बड़ा दार्शनिक विषय बन जाता है। आज मानव को विचारना चाहिए कि वह परमात्मा विभु है, तो वह कौन सा विभु है, जहाँ हमारे पाप पुण्य, कर्मों का फल दे रहा है? आज हमें वेदों के अनुकूल प्रतीत होता है कि वह परमात्मा हमारी आत्मा के समक्ष बैठा हुआ है। जो भी मानव कर्म करता है, उसके संस्कार, उसके अन्तःकरण में नियुक्त हो जाते हैं। जब मानव तुच्छ कर्म करने के लिए चलता है तो उस समय मानव को संकेत मिलता है, कि अरे मानव! यह कुमार्ग है,, इस पर न जा। मानव उस कर्म को कर लेता है, तो बेटा! वही कर्म परमात्मा उसके अन्तःकरण में नियुक्त कर देता है। जो बेटा! हमने किया है वह अन्तःकरण में विराजमान हो गया है, और वह हमें भोगना अनिवार्य है। उसको भोगे बिना हमारा कार्य न चलेगा।
महानन्द जी ने आज हमें एक संकेत किया है, और कई स्थानों में कहा है कि बहुत से मानव ऐसे हैं, जिन्होंने तपस्या करके तुच्छ कर्मों को समाप्त कर दिया है। परन्तु यह नहीं ,यह वाक्य तुम्हारा विचित्र है। यह भी देखो, मानने वाला वाक्य बन जाता है। जैसा मानव ने कर्म किया है, उन्हें भोग करके, उसका अन्तःकरण शुद्ध बनेगा। जैसे आज प्रकाश हो रहा है, परन्तु वह प्रकाश उस काल तक रहेगा, जब तक उसमें प्रकाश देने वाले पदार्थ हैं। दीपक जल रहा है, परन्तु उसी स्थान तक प्रकाश देता रहेगा, जब तक उसमें वह पदार्थ है। जब वह पदार्थ न होंगे, तो वह अपना प्रकाश देना समाप्त कर देगा। इसी प्रकार बेटा! हमारा अन्तःकरण है। जब तक अन्तःकरण में संस्कार हैं जब तक हम भोगते रहेंगे।
आज परमात्मा से जिज्ञासु कहता है कि हे परमात्मन्! मेरा हृदय प्रकाश दे रहा है, अब मैं इसमें कोई पदार्थ नियुक्त नहीं करूंगा, जिससे यह प्रकाश देता है। तो मुनिवरों! तब तक उस अन्तःकरण रूपी महान दीपक में कोई पदार्थ नहीं पड़ेगा,तो प्रकाश कदापि नही देगा भोगना भी नही पड़ेगा, जब इसमें नियुक्त करता है, तो भोगना भी अनिवार्य है। यह कैसा सुन्दर वाक्य हमारे समक्ष आ पहुँचा है। महानन्द जी ने हमसे एक स्थान में प्रश्न किया, कि सृष्टि के प्रारम्भ में मानव की आकृति ऐसी थी, जैसे भालू की।
मुनिवरों! आज का वेदमन्त्र तो यह कह रहा था, कि जब महान् सृष्टि प्रारम्भ होती है, तो उस समय जो विमुक्त आत्माएं होती हैं, जिन्हें पूर्वकाल का ज्ञान रहता है, वह आत्मा आ करके परमात्मा के नियमों के अनुकूल अपने महान शरीर को धारण कर लेती है| उनसे यह महान संसार बन जाता है। संसार की गति इस प्रकार की हो जाती है। यह व्याख्या हम अधिक न देंगे।यह विषय तो हमारा कल का है, अब तो हमारा यह वाक्य चल रहा था, कि मानव जैसा कर्म करता है, वैसा उसे भोगना अनिवार्य है। अन्तःकरण में उसके संस्कार नियुक्त रहते हैं परन्तु प्रतीत नहीं कि मानव का अन्तःकरण किस काल में जाग जाए, किस काल में समाप्त हो जाए। आज मानव को विचारना चाहिए कि हमने जो कर्म किया है, वह हमें भोगना अनिवार्य हैं इसलिए हमें शुभ कर्म करना चाहिए| जैसे बेटा! याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने राजा जनक से कहा था, “हे जनक! यह मन तो शान्त रहता ही नहीं, यह तो कार्य करता ही रहता है, इसलिए तुम मन को शुद्ध बनाओ| जिससे तुम्हारा जीवन महत्वदायक बन जाएगा।“
शुभकर्मो से मन की स्थिरता
तो मुनिवरों! महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने कहा था, कि मन में अच्छे संकल्प नियुक्त करो, मन अच्छे कार्यों में लग जाएगा। जब यह मन शुभ- अशुभ कार्य करता ही रहेगा, तो इसे शुभ कार्यों में लगा दो। जब शुभ कार्यों में लग जाएगा, तो मन स्थिर हो जाता है| अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। जन्म जन्मान्तरों के संस्कार अन्तःकरण को शुद्ध कर, उस प्रभु से सम्बन्ध करा सकते हैं, जो परमात्मा विभु है जो पाप पुण्य कर्मों का फल देने वाला होता है। उस स्थान में, हम परमपिता परमात्मा से सम्बन्ध कर सकेंगे, अन्यथा हमारे द्वारा परमात्मा से सम्बन्ध करने का कोई भी द्वितीय साधन नहीं। केवल एक ही साधन है कि आज मानव को अपने अन्तःकरण को पवित्र बनाना चाहिए। यह निश्चय है कि जैसा भी मानव कर्म करता है, वैसा ही भोगता है।
मुनिवरों! देखो! महाराजा कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, अरे अर्जुन! तुम किस काल की वार्त्ता उच्चारण कर रहे हो, यह तुम्हारे योग्य नहीं। यह काल तो तुम्हारे संग्राम करने का है। यह आत्मा तो समाप्त नहीं होती, तू कौन-सी अज्ञानता में आ रहा है। जब यह आत्मा समाप्त ही नहीं होती, तो तू किसको नष्ट करेगा, सब आत्माएं विभु हैं। यह न जन्म लेती हैं न मृत्यु को प्राप्त होती है। यह आदेश पा करके अर्जुन ने प्रश्न किया, तो भगवन्! मैं यह जानना चाहता हूँ कि जब यह आत्मा समाप्त ही नहीं होती, तो इसे अज्ञानता में क्यों लगा रहे हो?उस समय योगेश्वर कृष्ण ने कहा “अरे ,अर्जुन !मानव का जैसा समय होता है वैसा उसे भोगना पड़ता है | समय के अनुकूल कर्म करना भी अनिवार्य है|अपने कर्तव्य को पहचाना |”
तो देखो! आज मानव का कर्त्तव्य है कि समय के अनुकूल कार्य करे। शुभ वातावरण आए, शुभ वातावरण को भोगो। यदि समय अशुभ आ जाए, तो वहाँ भी शुद्ध भोगने की चेष्टा होनी चाहिए जैसा हमारा धर्म कहता है। उसके अनुकूल अपने जीवन को अवश्य ऊँचा बना लेना चाहिए।तो यह है बेटा!हमारा आज का आदेश जो प्रारंभ हो रहा था
गुरुदेव का पूर्व कर्म
 महानन्द जी का कई समय का प्रश्न आज हमारे कण्ठ आ गया है। हम इनके प्रश्नों का उत्तर देने का अवश्य प्रयत्न करेंगे। जैसा भी हमारे समक्ष हुआ है। उसका उत्तर देने का अवश्य प्रयत्न करेंगे। आज कर्मों के विषय में ही इनका प्रश्न है। यह कर्म बड़ा प्रबल है। मुनिवरों! देखो, आज कर्म गति इतनी महान मानी गई है कि जो कर्म हमने लाखों वर्ष पूर्व किया, आज हम उसको भोग रहे हैं। हमारे कर्मों का भोग है। प्रत्येक मानव का भोग होता है,और वह  अपने कर्मों को अवश्य भोगा करता है।
मुनिवरों! हमारे वेद मन्त्र का क्या मन्तव्य था? वेद गान कह रहा था कि मानव को अपने जीवन का विकास करना चाहिए। आध्यात्मिक विद्या पर अपनी दृष्टि पहुँचानी चाहिए। आध्यात्मिक विद्या क्या है? आध्यात्मिक विज्ञान क्या है? जिन्होंने आध्यात्मिक विद्या का अनुभव किया है उनका अनुभव लो परन्तु आज आध्यात्मिक विद्या  का उत्थान करो।
आज मुनिवरों! महानन्द जी से नाना प्रकार का संकेत मिल रहा है, आधुनिक काल में बड़े बड़े यन्त्र बन रहे हैं। भौतिक विज्ञान बहुत प्रबल हो रहा है। आध्यात्मिक विज्ञान समाप्त होता जा रहा है। भौतिक विज्ञान की प्रबलता से कोई महान लाभ नहीं। इसका तो केवल संसार को विनाश को प्राप्त कराना है और कोई मन्तव्य नहीं।
महाराजा अंबरीक
मुनिवरों! देखो, आज तो कोई भी यन्त्र स्थिर नहीं है। आज वह हमारे द्वापर का क्या वाक्य है? बेटा! जिस समय महाराजा अम्बरीक, जो द्वितीय राष्ट्र के राजा थे, परन्तु वह भी महाभारत का संग्राम देखने आ पहुँचे। उस समय उन्होंने महाराज कृष्ण से सम्बन्ध स्थापित किया। महाराजा कृष्ण ने पूछा, “भगवन्! आप कहाँ को विराज रहे हैं?” उस समय अम्बरीक ने कहा, “मैं तो महाभारत का संग्राम देखना चाहता हूँ।
“तुम संग्राम देखना ही चाहते हो या संग्राम भी करोगे?
महाराज! “मैं संग्राम भी अवश्य करूंगा, यदि अवसर मिल गया।“
“तो तुम्हारा अवसर कौन-सा है?
“जिस पक्ष में हानि होगी,वही मेरा पक्ष होगा| और वही मेरा अवसर होगा।“
“अरे, तुम्हारे द्वारा क्या प्रमाण है, कि तुम हानि वाले पक्ष में संग्राम करोगे?”
महाराज! मैंने अपने जीवन में और मेरे एक वैज्ञानिक ने भी तीन यन्त्रों की खोज की है। एक यन्त्र ऐसा है कि एक यन्त्र के प्रहार से, दोनों पक्षों की सेना समाप्त कर, वह यन्त्र मेरे समक्ष वापस आ जाएगा।
उस समय महाराजा कृष्ण ने अर्जुन से कहा –“अरे भाई! यह तो संग्राम न होने देगा। हमें क्या करना चाहिए?” उस समय मुनिवरों! महाराजा कृष्ण ने बड़े नीतिज्ञ होने के नाते कहा, जब तुम इतने बड़े बलवान हो, इतने बड़े वैज्ञानिक हो, तो तुम दान कितना दे सकते हो?”
उस समय उसने कहा- “जितना भी आप आज्ञा करेंगे, वह ही मैं दान के लिए उद्यत हो जाऊंगा।“ महाराजा कृष्ण ने कहा “तो भाई, हमें दान देना है, तो अपने सिर का दान दे दो।“
 उस समय अम्बरीक ने कहा, “वास्तव में मैंने अपने कण्ठ से ऊपर का भाग आपको दान दे दिया, परन्तु में संग्राम देखना चाहता हूँ।“ उस समय, देखो, योगेश्वर कृष्ण ने कहा, “अच्छा, तुम संग्राम को देखो, परन्तु तुम्हारा जो कण्ठ है, वह हमारा हो चुका है। अब तुम्हारे भुज समाप्त हो चुके हैं, इनसे कार्य करना अब तुम्हारा कर्त्तव्य नहीं।“
उस समय महाराजा अम्बरीक ने “तथास्तु” कह करके कहा, “महाराज! मैं आपको अपने कण्ठ से ऊपर का भाग दान दे चुका हूँ।“ तब महाराजा कृष्ण ने उसके लिए एक ऊँचा स्थान बनवाया, जिस पर विराजमान होकर, वह महाभारत का संग्राम देख सके।
मुनिवरों! हम यह क्यों उच्चारण कर रहे थे। तात्पर्य यह था कि ऐसे विज्ञान बढ़ने से विनाश ही होता है। मानव का या राष्ट्र का कैसे उत्थान होता है, यह हमारे समक्ष बहुत-सी वार्त्ता आ जाती है। क्या करें, बेटा! उस काल को देखा है ,उस  काल के अनुकूल व्याख्यान हमारे कण्ठ आ जाते हैं। मानव का विकास उस काल में होता है, जिस काल में मानव का जीवन ऊँचा होता है।
समुद्र मंथन का स्वरूप
मुनिवरों! देखो, हमारे यहाँ वेदों में एक अलंकार आता है, और वह यह है कि देव और दैत्यों ने समुद्र का मन्थन किया। मन्थन के पश्चात् चौदह रत्न निकले। मुनिवरों! यह देव और दैत्य कौन थे जिन्होंने समुद्र मन्थन किया? महानन्द जी ने एक समय प्रश्न किया था, कि परमात्मा ने कच्छप बन करके समुद्र मन्थन किया था, यह वाक्य सत्य है? वास्तव में तो यह  अलंकार ही है। मुनिवरों! परमात्मा को भी कच्छप रूप से पुकारा जाता है, क्योंकि वह सर्वांग  संसार को अपनी पीठ पर धारण कर रहा है। पृथ्वी भी उसके आसरे है। लोक लोकान्तर भी उसी के आसरे है, यह सब ही उसकी पीठ पर स्थिर हो रहे हैं। यदि वह स्थिर न करे तो यह संसार क्षण भर भी नहीं रह सकता बेटा!।
तो मुनिवरों! इसका क्या अभिप्राय है, समुद्र मन्थन कैसे किया गया? मुनिवरों! जब सृष्टि प्रारम्भ हुई प्रारम्भ होते ही , समुद्रों का मन्थन किया। मुनिवरों! जब हिरण्याक्ष दैत्य आए, पृथ्वी को अपने में धारण कर लिया, तो बेटा! यहाँ देवता आ पहुँचे और उन दैत्यों से संग्राम किया और हिरण्याक्ष को नष्ट करके कुछ अन्तरिक्ष में पहुँचा दिया, कुछ मृत्युलोक में पहुँचा दिया, और कुछ लोक लोकान्तरों में पहुँचा दिया। यह देखो, समुद्र मन्थन है| बेटा! मानव जब अपने संकल्पों को प्रदीप्त करता है, और उसमें से रत्नों की खोज करता है, तो वह भी समुद्र मन्थन है। मानव के द्वारा कौन से रत्न हैं, जिनकी खोज करनी चाहिए?
मुनिवरों! देखो, कल हम उच्चारण कर रहे थे कि महाराज कृष्ण षोडश कलाओं को जानने वाले थे। मानव के हृदय में पाँच प्राण होते हैं, पाँच कर्म इन्द्रियाँ, पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ और एक मन यह सब सोलह कला होती हैं। योगेश्वर कृष्ण ने इन सबके विषय को जाना और मन को स्थिर करके उन रत्नों की खोज की, जो परमात्मा ने, सृष्टि के प्रारम्भ में, समुद्र मन्थन करके महान विकास कर दिया। प्रश्न आता है कि वे रत्न थे या न थे। यदि नहीं थे तो कहाँ से आए? तो बेटा! इससे प्रतीत होता है कि जब परमात्मा इस शून्य प्रकृति को अपनी प्राण रूपी सत्ता देता है, तो यह महत् निकलने लगती है। यह अपना प्रकाश देने लगती है। उस समय धीरे- धीरे यह संसार रच जाता है। बेटा! परमात्मा ने अपना महत् देकर चौदह रत्न इस पृथ्वी से निकाले। यह है बेटा! परमात्मा का मन्थन। समुद्र कहते हैं प्रकृति को, जिसका कोई पार नहीं। यह मन्थन किसके लिए किया?
 बेटा! देखो, जैसे माता का बालक है। गौ दूध देती है, माता दुग्ध की क्रिया बनाती है। क्रिया बना करके उस दुग्ध का मन्थन करके उसमें से घृत निकाल लेती है। वह माता किसके लिए घृत निकाल लेती है? वह जो उसका परिवार उसके द्वारा है। वह उस घृत को अपने बालक को अर्पण कर देती है ऐसे ही बेटा! परमात्मा इस महान् प्रकृति का मन्थन अपने, बालक आत्मा के लिए करता है।
तो मुनिवरों! आज हम व्याख्यान देते-देते बहुत दूर पहुँच गए हैं। व्याख्यान क्या देना था,और कहाँ पहुँच गए। यह तो कोई हमारा विषय ही नहीं था। महानन्द जी दुबारा कहेंगे कि आपका कल हुआ ही नहीं। अभ- अभी कहने वाले हैं, हमें अभी-अभी उनका उत्तर देना है। व्याख्यान तो बड़ा विशाल बन गया है, क्या करें समय इतना नहीं।
तो मुनिवरों! अभी अभी हमारा व्याख्यान चल रहा था कि परमात्मा ने अपने महान बालक आत्मा के लिए समुद्र का मन्थन किया, चौदह रत्न निकाले जो मानव के लिए महत्त्वदायक हैं। मुनिवारों ! ऐसा कहते है ,महानन्द जी ने एक समय ऐसा भी कहा, कि उन रत्नों में से परमात्मा ने श्यामकर्ण घोड़े को निकाला, महान धेनु को निकाला, यह सत्य है?
मुनिवरों! देखो, श्याम कर्ण बेटा! श्याम कर्णोति ब्रजते मानो देखो, इसमें जितने तत्त्व हैं सब महान प्रकृति से आए हैं, जैसे सूर्य है, चन्द्रमा है, कामधेनु है, अग्नि है, वरुण है, ये सब प्रकृति के मन्थन से आए हैं।मुनिवरों! देखो,यह क्या है ? धेनु माता को भी कहते हैं, धेनु गौ को भी कहते हैं। बेटा! हम पृथ्वी को गौ कहा करते हैं। परमात्मा ने इसको मन्थन करके स्थिर किया। श्यामकर्ण मन को भी कहते हैं, श्यामकर्ण अग्नि को भी कहते हैं। यहाँ कई रूपरेखा मानी गई हैं। श्यामकर्ण बेटा! सूर्य को भी कहते हैं।
 मुनिवरों! देखो, परमात्मा ने इन सबको निकाला। देखो, माता धेनु को उत्पन्न किया, जिससे संसार की उत्पत्ति होती है। परमात्मा ने चौदह रत्नों को निकाला, जिसका शेष व्याख्यान अब कल उच्चारण किया जाएगा। आज तो समय इतना आज्ञा नहीं दे रहा है। व्याख्यान बड़ा विचित्र बन गया है।
अभी-अभी हमारा क्या आदेश चल रहा था ?हम कर्मों के विश्लेषण में व्याख्यान दे रहे थे, कि मानव जैसा कर्म करता है, वैसा ही भोगा करता है। परन्तु परमात्मा ने जब इतने विशाल समुद्र को हमारे लिए मन्थन किया है, तो आज हमारा कर्त्तव्य है कि हम परमात्मा के मन्थन किए हुए संसार रूपी समुद्र से पार हो जाएं और पार होकर परमात्मा की गोद में चले जाएं, यही हमारा कर्त्तव्य है।
अहा! हमारा क्या आदेश चल रहा था। मुनिवरों! आज तो हम तुम्हें एक सूक्ष्म- सी वार्त्ता उच्चारण कर देवें जैसा महानन्द जी का आदेश था।
पूज्य महानन्द जीः “कृपा कीजिए, भगवन्!।“
मुनिवरों! आज हमारा कर्मों के सम्बन्ध में व्याख्यान चल रहा था। बहुत ही विशाल व्याख्यान दे रहे थे। आज हम तुम्हें यह वार्त्ता उच्चारण कर देवें, जो कार्य किसी काल में हुआ, परन्तु उसकी रूपरेखा पश्चात् में निर्णय देंगे।
मुनिवरों! यह सतोयुग के काल का समय है । हमारे गुरु ब्रह्मा वेद के प्रकाण्ड पण्डित और विद्या के भण्डार थे। मुनिवरों! देखो, उनका महान् शिष्य मण्डल भी था, उनके एक पुत्र महा सृष्टु मुनि महाराज थे। मुनिवरों! एक समय महा सृष्टू मुनि महाराज अपनी तुम्बा नाम की धर्मपत्नी के साथ एक स्थान पर विराजमान थे। उन दोनों के हृदय में एक भावना उत्पन्न हुई, कि हमारे कोई पुत्र होना चाहिए| परन्तु पुत्र तेजस्वी हो। हमारे पिता ब्रह्मा ने कहा है कि तुम दोनों को जितने समय की अवधि दी है, ब्रह्मचर्य का पालन करो और तपस्या करो। दोनों एकान्त स्थान में वेदों को विचारते रहते थे। उन्होंने अपने पिता को कण्ठ किया। उनके पिता ब्रह्मा उनके समक्ष आ पहुँचे। उस समय दोनों ने निवेदन किया “महाराज! अब हम एक पुत्र चाहते हैं| उस समय उन्होंने आज्ञा दी कि तुम अवश्य पुत्र उत्पन्न करो।
पूज्यपाद गुरुदेव की शाप कथा
मुनिवरों! उस समय हमने सुना है कि उनके आदेशानुकूल महासृष्टु मुनि महाराज ने यज्ञाति यजन्ते यज्ञ किया, भजन किया, वेदों का स्वाध्याय किया और उसी के अनुकूल गर्भस्थल की स्थापना की। आगे बेटा! यह संसार चलता रहा। कुछ समय के पश्चात् तुम्बा नाम की धर्मपत्नी से पुत्र उत्पन्न हुआ। उस बालक का जन्म संस्कार के पश्चात् नामकरण संस्कार किया| सृष्टु मुनि महाराज ने अपने बालक का नाम कुत्री मुनि नियुक्त कर दिया।
 बाल्यकाल से ही पति और पत्नी दोनों उसे इतने ऊँचे वातावरण में शिक्षा दिया करते थे, कि वह वेदों का प्रकाण्ड विद्वान बन गया। बेटा! देखो, जब वह २५ वर्ष का आदित्य ब्रह्मचरी बन गया, उस समय उसने अपने माता पिता से निवेदन किया कि मुझे आज्ञा दो, मेरी इच्छा है कि मैं इस समय देखो, ब्रह्मवर्चो अस्ति ब्राजनोति देतम योगस्ते शुभः योगा भावनाय यस्तम् परमपिता परमात्मा की उपासना करना चाहता हूँ जिससे मेरे जीवन का विकास हो। मैं उस आध्यात्मिक विज्ञान को खोजना चाहता हूँ, जिसको हमारे गुरु ब्रह्मा आदि सब आचार्य खोजते चले आए हैं।
कुत्री मुनि की ज्ञान पिपासा
उस समय बेटा!जब उनके माता पिता ने उसके अन्तः करण की यह वार्त्ता सुनी तो वह प्रसन्न हो गए, और प्रसन्न हो करके आज्ञा दी, बेटा! तुम्हें धन्य है। हमारे कैसे सौभाग्य है, जो ऐसा पुत्र उत्पन्न हुआ, जो अपनी मृत्यु को विजय पाने की सोच रहा है। पुत्र! जैसी तुम्हारी इच्छा है, वैसा कार्य करो और उसके अनुकूल अपने जीवन को ऊँचा बनाओ।
उस समय वह बालक माता पिता की आज्ञा पा करके, बहते हुए वह करुड़ मुनि महाराज के समक्ष जा पहुँचे। करुड़ मुनि महाराज ने उनका बड़ा ऊँचा सत्कार किया और कहा, “आनन्द हो ब्रह्मचारी जी!”,उस समय उसने कहा- “महाराज! आनन्द है, क्या तुम्हारे पिता भी आनन्द हैं। उसने कहा-“ विशेष आनन्द है।“ जब सब आनन्दपूर्वक वार्त्ता कह सुनाई तब बालक वहाँ से बहते हुए अगले स्थान पर जा पहुँचे|जहाँ बेटा! महर्षि सुदक्षमुनि महाराज, त्वकेतु मुनि महाराज और अमरेती मुनि महाराज विराजमान थे। ऋषियों के मध्य में जाकर, उनके चरणों को स्पर्श किया और स्पर्श करते हुए आनन्द पूर्वक वार्त्ता उच्चारण की। ऋषियों ने भी जान लिया, कि यह तो सृष्टु मुनि महाराज का बालक है, ब्रह्मचारी है और ऋषि बनने के लिए जा रहा है। मुनिवरों! वहाँ से आज्ञा लेकर अगले स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ कार्तिक मुनि महाराज रहा करते थे। जहाँ बेटा! अम्बेतु ऋषि, अकेतु मुनि महाराज, अंगिरा आदि आचार्य वहाँ विराजमान थे। अकेतु मुनि महाराज ने उनका बड़ा ऊँचा सत्कार किया।
मुनिवरों! वह काल कितना ऊँचा था, जिस समय बुद्धिमानों का इतना सत्कार होता था। बुद्धिमान होने के नाते, जिस ऋषि के स्थान पर जाते थे, ऋषि उनका ऊँचा सत्कार किया करते थे। वहाँ से आज्ञा लेकर बहते हुए  अगले स्थान पर जहाँ, देखो, कपिल मुनि महाराज, मधेतु ऋषि महाराज, गंगकेतु ऋषि, प्राची मुनि महाराज और द्रुगनी और क्रणवन्ती ऋषि महाराज और भी आदि- आदि ऋषि विराजमान थे। लोमश मुनि भी विराजमान थे। दार्शनिक विषय हो रहा था । उस दार्शनिक समाज में जाकर उन्होंने सबको नमस्कार किया। आनन्दपूर्वक सबने उनका सत्कार किया। महर्षि लोमश ने कहा, “कहिए, भगवन्! आप कहाँ से विराज रहे ह?। उस समय उन्होंने कहा, “मैं तो भगवन्! आप ऋषियों के दर्शन करने के लिए आ रहा हूँ। दर्शन कर आनन्दित हो जाऊंगा।“ तब लोमश मुनि ने कहा, “अरे, तुम कहाँ जा रहे हो? यहाँ तो दार्शनिक विषय हो रहा है। यह तो बड़ा गूढ़ विषय है। वह दार्शनिक समाज में विराजमान हो गए। नारद मुनि महाराज भी वहाँ थे।
उस समय दार्शनिक समाज में यह निर्णय किया जा रहा था, कि जब एक कल्प समाप्त हो जाता है, उसके पश्चात् ब्रह्मा का एक दिवस माना जाता है। यह इस प्रकार क्यों है? ब्रह्मा किस पदार्थ का नाम है? ब्रह्मा कोई मानव है, या ब्रह्मा कोई बुद्धिमान है| या ब्रह्मा परमात्मा को कहते हैं। लोमश मुनि ने निर्णय किया  कि वह जो ब्रह्मा का दिवस है, वह ब्रह्मा की आयु है, वह सौ कल्प के पश्चात मानी गई है। ब्रह्मा की जितनी आयु है, इतनी आयु तक यह परमात्मा के गर्भ में आनन्द लेता रहता है। बेटा! इसका विषय तो कल उच्चारण करेंगे, आज समय नहीं।
देखो, यह ऋषि बालक, उस दार्शनिक समाज से आज्ञा पा कर बहते हुए शौनक ऋषि महाराज के समक्ष आ पहुँचे। शौनक मुनि ने उस ऋषि बालक का बड़ा ऊँचा सत्कार किया।
तो बेटा! जब तक उस ऋषि बालक के हृदय में कोई प्रेरणा न हुई, वह बहते रहे और अन्त में सोमभाव ऋषि के द्वार जा पहुँचे। वहाँ पहुँच कर प्रेरणा हुई, कि जिस मन्तव्य के लिए मैं भ्रमण कर रहा हूँ अभी तक वह पूर्ण नहीं हुआ। मुझे ज्ञात ही नहीं रहा,मुझे तो कोई गुरु धारण करना चाहिए| गुरु बना करके अपने जीवन को ऊँचा बनाना चाहिए।
उस समय देखो, शम्भु मुनि महाराज से कहा, “महाराज! आप मार्ग में रहते है। आपका बड़ा ऊँचा स्थान है। यहाँ कोई ऐसा ऋषि है जो गुरु योग्य है? जो हमें ऊँचा मार्ग दिखा देवे। उस समय उन्होंने कहा, “ऐसा ऋषि तो है, परन्तु हमें तो ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे आप जिज्ञासु नहीं हैं।“ उस समय बालक ने कहा “महाराज! मैं तो बड़ा जिज्ञासु हूँ। आप मुझे निर्णय तो करें।“ उन्होंने कहा, यहाँ से चले जाओ, और देखो, ब्रह्मा के शिष्य रहते हैं, जिनको श्रगी ऋषि कहते हैं उनके स्थान पर चले जाओ। वह तुम्हारा सत्कार करेंगे और वह तुम्हें ऊंचे पद पर पहुंचा देंगे । उस समय ऋषि बालक ने कहा कि उनमें क्या विशेषता है? वह इस योग्य क्यों हैं? उस समय कहा, हमने तो ऐसा सुना है कि आज ८४ वर्ष हो गए हैं उन्होंने मिथ्या उच्चारण नहीं किया है, सत्यवादी हैं। द्वितीय वाक्य यह है कि उन्होंने अपनी आत्मा का परमात्मा से मेल करा दिया है। वह गुरु के योग्य हैं, उन्हें गुरु क्यों नहीं बनाते?
श्रगी ऋषि द्वारा कुत्री मुनि की शिक्षा
बेटा! यह वार्त्ता उस बालक के आँगन में आ गई। वह वहाँ से बहता हुआ इस आत्मा के समक्ष जा पहुँचा। उसका बड़ा ऊँचा सत्कार हुआ, उपहार में बड़े पदार्थ दिए। वह ब्रह्मचारी था, ब्रह्मचारी का सत्कार करना,प्रत्येक मानव का कर्त्तव्य है। ऋषि ने बेटा! उनका सत्कार किया। सत्कार के पश्चात् वह बालक प्रसन्न हो गया, और मन में उन्हें गुरु चुन लिया। इस आत्मा ने भी गुरु के नाते उस बालक को शिक्षा देनी प्रारम्भ कर दी। शिक्षा देने लगे, योगाभ्यास की निधि पर निधि देने लगे। यह तो न प्रतीत मानव का कैसा तुच्छ समय आ करके मानव को नष्ट भ्रष्ट कर देता है। उस समय वह बालक किसी कार्य में अधूरा था। बालक ने कहा, “हे भगवन्! अब मुझे आज्ञा दीजिए, मैं तपस्या करने के लिए तत्पर हो रहा हूँ। मैंने बहुत योगाभ्यास किया है आज मैं उस महानता को पाना चाहता हूँ जिस महानता से हमारे आदि ऋषियों ने महान विज्ञान को पाया है,आज मैं वहीं जाना चाहता हूँ। उस समय देखो, इस आत्मा ने कहा, “अरे बालक! अभी तू इस योग्य नहीं हुआ है, जों तू इतनी पूर्ण निधि पर पहुँच जाएगा।“
उस समय बेटा! वह गुरु की आज्ञा को नष्ट करके बहते हुए। कजली वन में जा करके समाधि में लय हो गए। योगाभ्यास के नाते, केवल आयु के अधीन न रहकर, ऐसा सुना है कि बेटा! उन्होंने २५० वर्ष की समाधि की। बेटा! गणना के अनुकूल वह २५० वर्ष की समाधि के पश्चात् भी तपस्या करता रहा । तपस्या करते- करते उसे २५० वर्ष से भी कुछ अधिक वर्ष हो गए। जब अधिक वर्ष हो चुके, तो मुनिवरों! यहाँ यह निधि मानी जाती है। जब योग में महान इस प्रकार आरूढ़ हो जाता है तो उस समय बेटा! समाधि जाग्रत करने के लिए, ऋषिवर नियुक्त रहते हैं। वहाँ देखो, आदि गुरु ब्रह्मा ने अपने पुत्र सृष्टु मुनि महाराज को नियुक्त किया, कि जाओ, वह बालक अपनी तपस्या में आरूढ़ हो रहा है। बेटा! उन्होंने अपने योगबल से उस बालक की तपस्या को जाना। बेटा! उसके अन्तःकरण में वह जाग्रत थी उसके योग की स्थिति शुद्ध हो गई।
महान तपस्वी कुत्री मुनि को अभिमान
उस समय क्या करें, बेटा! उस बालक को अभिमान हो गया कि मैंने सभी पदार्थों को विजय कर लिया। वह वहाँ से बहते हुए संकेतु ऋषि महाराज के समक्ष पहुँचे। संकेतु ऋषि ने कहा “कहिए, आपकी तपस्या में क्या सफलता हुई? आपने तो बड़ा ही योगरूढ़ किया है।“ उस समय उन्होंने का देखो, मेरे गुरु ने तो ऐसा कहा था कि तू पूर्ण निधि पर पहुँचने के योग्य नहीं, परन्तु मुझे तो आज प्रतीत होता है, जैसे मैंने अपने गुरु ब्रह्मा के पद को और अपने गुरु के पद को, क्या मैंने तो तीनों लोकों को विजय कर लिया है। उस समय जब बालक को यह अभिमान हो गया, तो अन्य ऋषियों के समक्ष पहुँचे। बेटा! सृष्टि मुनि के समक्ष पहुँचे। सृष्टु मुनि ने कहा “अरे, बालक क्या रहा तुम्हारी तपस्या में? मुनिवरों! उस समय उसने पिता को पिता न जानकर अभिमान में कहा, “हे पिता तूने क्या तपस्या की है, आज जो मैंने की है” आज मैंने तीनों लोकों को विजय कर लिया है, तीनों लोकों का स्वामी बन चुका।
तो मुनिवरों! जब बालक को यह अभिमान छा गया। आगे चलते गए। आदि- आदि ऋषियों से सम्बन्ध किया और सभी ऋषियों से यह अहंकारदायक वाक्य कहा और उन्हें ठुकरा देता था। मुनिवरों! वह इतना महान तुच्छ  बन गया, कि उसका किया हुआ परिश्रम, सब समाप्त हो गया। अन्त में बहते हुए वह विभाण्डक ऋषि के द्वार जा पहुँचे। उनसे भी वही अहंकारदायक वाक्य कहे। उस समय बेटा! विभाण्डक ऋषि ने कहा “अरे, तुम्हारे गुरु कौन हैं?
उन्होंने कहा मेरे गुरु श्रृंगी ऋषि  हैं। मुझे उनकी शिक्षा है। उस समय उन्होने  कहा “अरे, तुम्हारे गुरु तो बड़े ब्राह्मण हैं, वह तो सत्यवादी हैं| उनसे यह अहंकारमय वाक्य उच्चारण न कर देना। यदि तुमने उच्चारण किया, तो हमें प्रतीत है,जैसे  तुम्हें मृत्यु दण्ड प्राप्त हो जाएगा।“ उस समय उस बालक ने कहा “अरे नहीं, क्या उच्चारण कर रहे हो? उन्हें अपने पदों से ठुकराने लगे।
कुत्री मुनि को गुरु द्वारा  श्राप
अन्त में मुनिवरों! यह स्वयं ब्रह्मणे इस  आत्मा के समक्ष आ पहुँचे। उन्होंने प्रश्न किया “अरे, कहो बालक! तुम्हारी तपस्या में क्या प्रबलता हुई? उसने उत्तर दिया, कि मैंने तो तीनों लोकों को विजय कर लिया है। अन्तरिक्ष, द्यौ लोक, मृत्त लोक और अपने गुरु पद को प्राप्त कर लिया है। आप तो यही कहते थे कि क्या तपस्या कर पाओगे। “भगवन्! मैंने तीनों लोकों को विजय कर लिया है।“ अच्छा क्या करें, बेटा! जब न पता कौन- कौन से कर्मों का जब भोग आता है तो मानव की बुद्धि उसी प्रकार हो जाती है। बेटा! उस बालक की यह भावना पाकर और योग द्वारा उसके अन्तःकरण को जान करके, कि उसकी मृत्यु निकट आ गई है, उसी के अनुकूल उन्होंने अपने मुखारविन्द से यह कहा कि “अरे, तुच्छ ऋषि के बालक! तुझे इतना बड़ा अभिमान, जा मृत्यु को प्राप्त हो जा।“
उस समय बेटा! वह बालक मृत्यु को प्राप्त हो गया। बेटा! तुम यह प्रश्न करोगे, कि क्या परमात्मा के नियम के प्रतिकूल मृत्युदण्ड मिल जाता है? इसका उत्तर यह है कि जब समय आ जाता है, तो समय के अनुकूल ही ऐसा वाक्य कहा जाता है।
आदि ब्रह्मा जी द्वारा श्रगी ऋषि जी को श्राप
जब मृत्यु दण्ड प्राप्त हो गया, तो त्राहिमाम त्राहिमाम मच गई। ऋषियों में हाहाकार मच गया। अरे, यह क्या हुआ, ऋषि का बालक, ऐसा तपस्वी, मृत्यु को प्राप्त हो गया। उस समय ब्रह्मा आचार्य, ऋषि मण्डल को ले करके क्रोध में छाए  हुए वहाँ आ पहुँचे और कहा, “अरे तुच्छ बालक! तूने एक ऋषि के बालक को नष्ट कर दिया। जब तुम इतने बुद्धिमान थे, तो तुमने उसको यथार्थ शिक्षा क्यों न दी? शिक्षा देकर उसको ऊंचे मार्ग पर चलाते, परन्तु तुमने मृत्यु का दण्ड दे दिया।अब तुम्हें भी इन कर्मों का फल भोगना पड़ेगा। जन्म जन्मान्तरों की वार्त्ता तो यह है कि तुम सूक्ष्म शरीर द्वारा, जैसे ओर भी लोक हैं, उन सबमें जन्म पाते हुए, सतोयुग, त्रेता और द्वापर सब ही काल को देखो, परन्तु जिस समय कलियुग के ५५०० वर्ष व्यतीत हो जाएंगे, उस समय तुम्हारा एक अज्ञान गृह में जन्म होगा। वह तुच्छ जन्म हो करके, जितनी भी तुम्हारी यह ज्ञान निधि है, यह तुम्हारे समक्ष न रहेगी, वह समाप्त हो जाएगी, शरीर में अज्ञानता छा जाएगी। आकृति बहुत ही तुच्छ बन जाएगी ,परन्तु एक महान अवस्था आ करके जिसको हमारे योगियों ने देखो, समाधि अवस्था कहा है जिसको वहकड़ी वाणी भी कहते हैं, जिसको प्राण अवस्था भी कहते हैं, शरीर की ऐसी गति बन करके, उस शरीर से आत्मा का उत्थान हो करके, अन्तरिक्ष मण्डल में, जहाँ सूक्ष्म शरीर वाली महान् आत्माओं के सत्संग के द्वारा ,उस शरीर द्वारा तुम्हारी आकाशवाणी मृत मण्डल में पहुँचेगी। वह काल इतना तुच्छ होगा कि उस काल में कोई तुम्हें तुच्छ कहेगा, कोई पाखण्डी कहेगा, कोई किसी प्रकार से पुकारेगा, तुम्हें यह कर्म भोगना पड़ेगा।
श्राप कौन और किसको देता है?
तो आज मुनिवरों! तुम्हें प्रतीत हो गया होगा कि आज वह काल है, जिस काल में हम लाखों वर्ष पूर्व किए हुए कर्मों को भोग रहे हैं। बेटा! तुम्हें ज्ञात हो गया होगा, कि वह हमारा किया हुआ कर्म है, जो बेटा! एक ऋषि बालक को दण्ड देकर मृत्यु को प्राप्त कराके आज हम इस अवस्था को पा रहे हैं।
बेटा! तुम यह प्रश्न करोगे कि महान आत्मा श्राप नहीं देती। गुरु ब्रह्मा ने श्राप दिया तो गुरु ब्रह्मा भी महान पाप के भागी बन गए। मुनिवरों! देखो, उसका उत्तर यह है कि मानव का श्राप क्या है? वह तो कर्मों के  वशीभूत होना है, और कर्मों में बन्धना है, किसी प्रकार भी बन्ध जाओ। ऐसा वेदों के वाक्य है, ऐसा हमारे आचार्यों ने कहा है। श्राप वह देता है, जिसकी महान आत्मा होती है परन्तु वह देता किसको है? वह उसके अन्तःकरण को जान लेता है। किसी अज्ञानी को श्राप देता है तो उस ज्ञानी का आत्मिक बल सूक्ष्म बन जाता है। जो बेटा! ज्ञानी सब कुछ जानता हुआ, जिस कार्य को कर देता है, उसको बेटा! अच्छी प्रकार दण्ड देना चाहिए। उसमें कोई हानि नहीं होती, क्योंकि वह तो दण्ड देना है। हमारे गुरु जी ने हमें दण्ड दिया।
उस समय गुरुजी ने यह भी कहा था कि उस काल में तुम्हें गुरु भी प्राप्त न होगा। उस समय गुरु से निवेदन किया और कहा, “भगवन्! हमारा कल्याण कैसे होगा? जब हम अपने सूर्य मण्डलों को त्यागकर मृत्त मण्डल में जन्म पाएंगे और जन्म धारण करके हमें महान कोई योगाभ्यासी अमृती गुरु प्राप्त न होगा तो जीवन कैसे बनेगा? तो उस समय गुरु ने प्रसन्न होकर कहा, जाओ! जब तुम्हारे उस शरीर की पचास वर्ष की अवस्था होगी उस समय तुम्हें कोई ब्राह्मणी आत्मा प्राप्त हो जाएगी।
बेटा! कई समय से तुम्हारा प्रश्न चल रहा था। आज तुम्हें उसका उत्तर मिल गया। आज हम लाखों वर्ष पूर्व किए हुए, कर्मों को भोग रहे हैं और भोगते रहेंगे, जब तक अवधि है। यह है बेटा! आज का हमारा व्याख्यान। आज के व्याख्यानों का अभिप्राय है, कि मानव को शुभ कार्य करने चाहिए, जिससे मानव ऊँचा बने, और मानव का विकास हो| मुनिवरों! देखो, क्या करें, हमने तो विचारा भी बहुत, परन्तु गुरु का अपमान न सह सके, वह उल्टा ही पड़ गया, हमें भोगना पड़ गया। समय की प्रबलता, मानव पर जब समय कठिन आता है तो शुभ कार्य भी अशुभ बन जाता है, उसकी रूपरेखा ही अशुभ बन जाती है। क्या करें बेटा! संसार की गति को। गुरु का अपमान, कि गुरु को जीत लिया, हम सह न सके और उसको मृत्यु दण्ड दे दिया। उसकी उल्टी रूपरेखा बन करके, लाखों वर्षों का किया हुआ कर्म, आज भोगा जा रहा है। यह परमात्मा की कैसी विचित्रता है, जिसमें ऐसे- ऐसे कर्मों के फल भी मानव को भोगने पड़ते हैं।
तो यह आज का आदेश समाप्त हो गया,कल अवसर मिलेगा तो बेटा!कल द्वितीय वाक्य उच्चारण करेंगे  महानन्द जी, जैसा तुमने कहा, हमें किसी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं, कि मृत्त मण्डल में कोई पाखण्डी उच्चारण कर रहा, कोई कुछ कह रहा है, हमें कोई मंतव्य नही, जब गुरु ने हमें ऐसा जन्म दिया तो वह  भोगना ही पड़ेगा। उसके अनुकूल परमात्मा से याचना करना, हमारा कर्त्तव्य है। हमारे यह व्याख्यान चलते हैं, और चलते रहेंगे। परमात्मा की निधि है। आज हम इसको विचारते रहें, और इस निधि का इसी प्रकार प्रसार करते रहें जब तक परमात्मा ने, हमारे गुरु ने, अवधि दी है।
अब हमारा यह आदेश समाप्त हो गया है, कल अवसर मिलेगा, तो कल दार्शनिक विषय पर व्याख्यान देंगे।
पूज्य महानन्द जीः “धन्य हो भगवन्!”
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! अब हमारा वेद पाठ प्रारम्भ होगा, इसके पश्चात् हमारी वार्त्ता समाप्त हो जाएगी। (वेद पाठ)

Thursday, August 23, 2018


1   ०८ ०३ १९६२ कृष्ण और शुक्लपक्ष की व्याख्या

जीते रहो
देखो, मुनिवरों! अभी अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ| हम तुम्हारे समक्ष वेदों का मनोहर गान गा रहे थे। आज हम उन वेद मन्त्रों का पाठ कर रहे थे, जिसमें महान परमात्मा की निधि छिपी हुई है। आज हम उस परमात्मा का गुण गा रहे थे, जिस विधाता ने इस संसार को उत्पन्न किया है, और हमें इस महानता पर पहुँचा दिया है। आज मानव को उस परमात्मा के समक्ष पहुँचना चाहिए, जिसके लिए हम संसार में आए हैं। यदि हम परमात्मा के समक्ष पहुँचने का प्रयत्न न करेंगे, तो हमारा जीवन किसी प्रकर ऊँचा नहीं बनेगा।
आज हमारे वेदपाठ में “कृष्ण नरो” बडे सुन्दर शब्द आ रहे थे। देखो! कृष्ण कहते हैं अन्धकार को। मुनिवरों! हमारे यहाँ दो पक्ष माने गए हैं, एक कृष्णपक्ष, अन्धकार का पक्ष और शुक्लपक्ष, प्रकाश का पक्ष। इसी प्रकार मानव के समक्ष दो समस्याएं होती हैं। एक महान अन्धकार की रहती है और दूसरी उज्ज्वल रहने की रहती है। आज इस पर विचार करना चाहिए और उसी के अनुकूल अपना जीवन बनाना चाहिए। बेटा! जिस काल में मानव के समक्ष नाना आपत्तियाँ, नाना अज्ञान आ जाते हैं, तो वह उस मानव का कृष्ण पक्ष कहा जाता है।
आपत्ति काल में दृढ़ता
आज का हमारा वेदपाठ कह रहा था, कि मानव को आपत्ति काल में दृढ़ रहना चाहिए, और जिस काल में प्रकाशित हो जाओ, उस काल में दृढ़ रहना चाहिए। यदि आपत्तिकाल में अपनी मर्यादा को समाप्त कर दिया या जीवनचर्या को समाप्त कर दिया, तो मानव में कोई विशेषता न रहेगी। इसलिए मुनिवरों! जब नाना प्रकार की अपत्तियाँ, नाना प्रकार का अज्ञान आ जाए, तो हमें किसी प्रकार अशान्त नहीं होना चाहिए। अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ रहते हुए शान्ति से इस संसार सागर से पार होते चले जाएं। मुनिवरों! जब तक हम इस महानता पर नहीं पहुँचेंगे, तब तक हमारा जीवन किसी प्रकार ऊँचा नहीं बनेगा
जब मानव अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ रहता है तो एक समय वह आता है कि मानव परिपूर्ण हो जाता है और अपनी समस्याओं को पूर्ण कर लेता है। अपने जीवन को उच्च बना लेता है| महान शुक्लपक्ष हमारे सम्मुख आ जाता है। जिस प्रकार मुनिवरों! कृष्णपक्ष का चंद्रमा अपने कर्तव्य पर  दृढ़ रहता हुआ शुक्ल पक्ष मे  पूर्णिमा का चन्द्रमा परिपक्व हो जाता है और पूर्ण हो करके संसार में व्यापक हुआ करता है और अपने प्रकाश से उस महान अहिल्या रूपी रात्रि का भोग किया करता है और उस महानता को पहुँच जाता है जो वास्तविक है।
मुनिवरों! आज हमें उस पर विचार करना चाहिए, हमें अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ रहना चाहिए। जब तक हम अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ नहीं रहेंगे, तब तक हम जीवन को कदापि भी ऊँचा नहीं बना पाएंगे, न राष्ट्र को और न किसी मानव को ऊँचा बना पाएगे।
देखो, बेटा! परमात्मा को भी कृष्ण कहते हैं, जो “कृष्णो वेदो रूद्र ते” जिसने यह काल बनाया है, जो कालों का भी काल माना गया है। बेटा! कृष्ण नाम तो योगियों का भी कहा जाता है, जो योगी षोडश कलाओं को जानने वाले है।परंतु बेटा ! यहाँ तो हम पक्षी का वर्णन कर रहे थे|
 आज हमें महानन्द जी से संकेत मिलता है कि आधुनिक समय तो अशान्ति में जा रहा है। राष्ट्र भी अशान्त है, राजा भी अशान्त है, प्रत्येक मानव, प्रत्येक  देवकन्या अशान्त है। जहाँ अशान्ति रहती है, वहाँ मानव का उत्थान किसी प्रकार नहीं हुआ करता। जिस काल में मानव को आत्मिक शान्ति मिल जाती है, उस काल में मानव उच्च हो जाता है| उसका उत्थान हो जाता है, अन्यथा बेटा! कदापि नहीं।
पूज्य महानन्द जीः “आत्मिक शान्ति के लिए साधन क्या है?”
पूज्यपाद  गुरुदेव –“बेटा! ज्ञान का मार्ग ही ऐसा है, जिसको ग्रहण करने से आत्मिक शान्ति मिलती है।“
पूज्य महानन्द जीः “वह ज्ञान क्या पदार्थ है, और कहाँ से आता है?”
पूज्यपाद  गुरुदेव –“अरे, ज्ञान, वेद की विद्या कहाँ से आती है? बेटा! वेद की विद्या हमें परमात्मा ने प्रकाशित की है।“
पूज्य महानन्द जीः “परमात्मा ने यह प्रकाश किस लिए प्रकाशित किया?”
पूज्यपाद  गुरुदेव- बेटा! अपने पुत्र आत्मा के लिए, उस विधाता ने वेद की विद्या को प्रकाशित किया, जिसको पाकर मानव अपने जीवन को ऊँचा बना लेता है। उस स्थिति को प्राप्त कर लेता है, जो वास्तविक है। उस स्थिति को प्राप्त कर परमात्मा में रमण करने वाला बन जाता है।
मुनिवरों! एक समय ज्ञान के विशेषण में बालक नचिकेता ने यमाचार्य से कहा था “भगवन्! आप मुझे उस विद्या को ग्रहण कराओ, जिस विद्या को पा करके, इस संसार सागर से पार हो जाऊं। मुनिवरों! उस समय आचार्य ने कहा “हे बेटा, नचिकेता! तुम इस विद्या को प्राप्त न करो। संसार के नाना प्रकार के सुखों को ले लो, जिनमें तुम्हें आनन्द मिलेगा। इस विद्या को लेकर क्या करोगे? उस समय उस महान् आठ वर्षीय ब्रह्मचारी नचिकेता बालक ने कहा था “हे ऋषिवर! हे गुरुदेव! आप मुझे उस विद्या का निर्देश करा रहे हो, उन पदार्थों को दे रहे हो, जो पदार्थ नष्ट होने वाले हैं। विधाता!मुझे तो वह विद्या दो, जो कदापि नष्ट नहीं होती।
तो मुनिवरों! आज मानव को इस विद्या को ग्रहण करना है, जिससे संसार सागर से पार हो जाएं। यह संसार रूपी सागर परमात्मा का बनाया हुआ है, आज इससे हमें पार होना है, जब तक हम इस संसार से पार न होंगे, तब तक हमारा जीवन कदापि ऊँचा नहीं बनेगा। आज मानव नाना प्रकार की भ्रान्तियों में घिरा हुआ बैठा है, दूसरों को हानि पहुँचाने का प्रयत्न करता है, जो मानव दूसरों को हानि पहुँचाता है उसकी स्वयं हानि हो जाती है, हानि का पुतला बन करके संसार में नष्ट भ्रष्ट हो जाता है।
 आज मानव अपने स्वार्थ के वशीभूत हो, दूसरों की निन्दा में लगा रहता है, दूसरों की त्रुटियों को ग्रहण करता है। अरे मानव! आज तू दूसरों की त्रुटियों को ग्रहण क्यों कर रहा है? अरे, इनकी अच्छाईयों को ग्रहण कर, तुम्हारे द्वार अच्छाइयों का ढेर लग जाएगा, तुम अच्छाईयों के पुतले बन जाओगे।
यह है बेटा! हमारा आज का व्याख्यान, जो प्रारम्भ हो रहा था। हम उच्चारण कर रहे थे कि कृष्ण कहते हैं अन्धकार को। कृष्ण पक्ष आता है तो चन्द्रमा धीरे- धीरे समाप्त होने लगता है| और आगे चलकर एक समय आता है, कि बेटा! चन्द्रमा का एक अंकुर भी नहीं रहता, अन्धकार में लय हो जाता है। परन्तु देखो, अमावस्या के पश्चात् द्वितीया आती है, उस समय चन्द्रमा धीरे धीरे बढ़ता है और धीरे धीरे उन्नत हो करके, अपना जीवन महान् बना लेता है  और एक समय वह आता है जब वह पूर्ण परिपक्व हो जाता है। अन्धकार प्रकाश में लय हो जाता है, शुक्ल पक्ष हो जाता है। इसी प्रकार मानव को अपने धर्म पर दृढ़ रहना चाहिए और मर्यादा में चलना चाहिए। आपत्ति आने पर भी उसे सहना चाहिए। सहन करते रहे, तो उसके उज्ज्वल होने का समय अवश्य आ जाएगा।

भगवान राम की मर्यादा

मुनिवरों! हम उस काल को देख चुके हैं, जिस काल में राजा, महाराजाओं पर महान् आपत्तियाँ आती थीं। उन आपत्तियों को सहन करने के कारण उनका प्रकाश आज तक संसार में चला आ रहा है। महाराज राम के द्वारा कितनी आपत्तियाँ आई, परन्तु वह उन सबमें दृढ़ रहे और अन्त में बेटा! रावण तक को विजय किया। धर्म पारायण वह कैसे थे, कि जब लंका से चलने लगे, तो उस समय लंका का स्वामी विभीषण को नियुक्त किया। विभीषण ने चलते समय राम को कुछ उपहार देना चाहा। उस समय राम ने लक्ष्मण से कहा,” हे विधाता! यह मुझे कुछ उपहार देना चाहते हैं। तुम्हारी क्या इच्छा है”। उस समय लक्ष्मण ने कहा, “हे राम! आप चाहें तो ग्रहण कर लीजिए। परन्तु न मर्यादा यह कहती है और न राजधर्म यह कहता है कि जिसको आपने दान में दे दिया हो और उस दान से आप कुछ लेवें, यह आपके योग्य कदापि नही” राम ने लक्ष्मण के कथनानुसार उस उपहार को विभीषण के अर्पण कर दिया और कहा, यह न मर्यादा कहती है न धर्म ही कहता है। मैंने विजय करके तुम्हें इसका राजा बनाया है। अपने राज्य का पालन करो। यह ही तुम्हारा सबसे विशेष कर्त्तव्य है।
 तो मुनिवरों! राजा राम ने मर्यादा में बन्ध करके ऐसा किया। आज मानव को विचारना चाहिए कि जब मानव मर्यादा में दृढ़ रहता है, तब उसका उत्थान अवश्य हो जाता है| परन्तु जब मर्यादा तोड़ देता है, तो उसके विनाश का समय आ जाता है।
मुनिवरों! व्याख्यान देते देते कहाँ पहुँच गए। बेटा! देखो! शुक्लपक्ष का वर्णन कर रहे थे। हमें सोचना चाहिए, यदि हम शुक्लपक्ष का वर्णन कर रहे थे,तो हमें सोचना चाहिए कि हम शुक्ल पक्ष तुल्य हो जाएं, हमारे हृदय में प्रकाश हो जाए या देखो,विद्या का, लक्ष्मी का प्रकाश हमारे गृह में हो जाए, तो हमें अभिमान में नहीं आना है, हमें दृढ़ रहना चाहिए और उस आपत्तिकाल को भी विचारना चाहिए जो हम पर आ चुका था। जो इस महान अन्धकार में आ जाता है, इस माया में लिप्त हो जाता है, वह अपने जीवन को नष्ट कर देता है। अन्त में उस मानव की सब सम्पत्ति समाप्त हो जाती है। जो मानव मर्यादा में बन्ध कर अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ रहता है उसका जीवन परम्परा से बना रहता है और अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है।
तो मुनिवरों! आज हमें विचारना चाहिए। क्या करें बेटा! महानन्द जी के कथनानुसार व्याकुल होना पड़ता है। इन्होंने कहा है महाराजा शिव के पुत्र गणेश को आज के संसार ने हाथी का सिर नियुक्त किया है। यह कितना अज्ञान युक्त है अरे, यह संसार कितने अन्धकार में पहुँच गया है। इससे तो प्रतीत होता है कि संसार स्वार्थ में बंधा जा रहा है। अरे, निस्वार्थ होकर ही धर्म की मर्यादा नियुक्त होती है। जब स्वार्थ आ जाता है तो उस समय धर्म, मर्यादा समाप्त हो जाती है।

यज्ञशेष से स्वर्णिम नेवला

मुनिवरों! देखो! त्रेता काल में जिस समय रघु राज्य किया करते थे, एक समय वृष्टि न हुई। अकाल पड़ गया, पृथ्वी विष उगलने लगी। सब व्याकुल हो गए। उस समय बेटा! महर्षि उदांग ऋषि ने नाना सामग्री, नाना साकल्य एकत्रित करना प्रारम्भ कर दिया। ऐसा सुना जाता है कि उन्होंने वह साकल्य लगभग पन्द्रह दिवस एकत्रित किया। उस साकल्य से उन्होंने उस महान् वन में एक विशाल यज्ञ किया। यज्ञ करते ही देवता प्रसन्न हो गए और फलस्वरूप उस समय वृष्टि प्रारम्भ हो गई।
मुनिवरों! यज्ञ के स्थान पर एक नेवला रहता था। उस नेवले ने यज्ञ शेष में जाकर स्नान किया। उस यज्ञ शेष से केवल आधे शरीर का स्नान हुआ। सुना जाता है उसका यह आधा शरीर स्वर्ण बन गया। ऐसा सुना जाता है कि उसके पश्चात् वह नेवला ऐसे ही चलता रहा और प्रतीक्षा करने लगा कि किसी अन्य स्थान में ऐसा यज्ञ हो, कि जिसके यज्ञ शेष में स्नान करने से, शेष आधा शरीर भी स्वर्ण का ही हो जाए। नेवला उसी प्रकार चलता रहा, धीरे धीरे द्वापर आ गया।
द्वापर काल में, मुनिवरों! देखो! महाराजा युधिष्ठिर ने इन्द्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ किया। इस यज्ञ में सब राज्य सम्पत्ति लगा दी गई। ऐसा सुन्दर यज्ञ था कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उस समय वह नेवला भी उस यज्ञशाला में जा पहुँचा और यज्ञ शेष में स्नान जा किया| किन्तु उसका शरीर स्वर्ण का न हुआ। नेवला व्याकुल होने लगा। उस समय महाराजा युधिष्ठिर ने नेवले से कहा, अरे, नेवले! तुम शोक युक्त क्यों हो रहे हो? उस समय नेवले ने कहा, मैं शोकयुक्त इसलिए हो रहा हूँ, क्योंकि देखो, महाराज! एक समय उदांग ऋषि महाराज ने यज्ञ किया था, जो सूक्ष्म सा यज्ञ था,परन्तु यज्ञ के होने से वृष्टि हो गई थी, और यज्ञ के यज्ञशेष में स्नान करने से आधे शरीर का ही स्नान हुआ, परन्तु वह स्वर्ण का बन गया। हे महाराज! आपने इतना बड़ा यज्ञ किया है, मैंने इस यज्ञशेष में भी स्नान किया परन्तु मेरा शेष आधा शरीर स्वर्ण का न हुआ। इसका क्या कारण है? उस यज्ञ में क्या विशेषता थी? मैं इसलिए व्याकुल हो रहा हूँ। यह कैसा यज्ञ जिससे मेरा आधा शरीर स्वर्ण का न बना?
यह सुनकर महाराजा युधिष्ठिर व्याकुल होने लगे। उनकी व्याकुलता देखकर नेवले ने महाराजा युधिष्ठिर से कहा, “हे महाराजा! आप क्यों व्याकुल हो रहे हो?” महाराजा युधिष्ठिर ने कहा मैं इसलिए व्याकुल हो रहा हूँ कि मैंने इतना महान यज्ञ किया परन्तु इसका कोई महत्व नहीं, क्योंकि आपका आधा शरीर सोने का होने से रह गया। यह यज्ञ तो न होने के तुल्य है। उस समय महाराजा कृष्ण ने, जो षोडश कलाओं को जानने वाले योगी थे, कहा “अरे नेवले! शान्त रहो!” आगे तो वह समय आ रहा है जब इतना भी नहीं रहेगा। आगे अन्धकार का काल आ रहा है जब संसार में नाना प्रकार की अज्ञानता छा जाएगी। मानव के जीवन का कोई विकास न होगा। उस समय तुम्हारा यह आधा शरीर जो स्वर्ण का हो गया है, यह भी इस प्रकार का न रहेगा। आगे तो ऐसा समय आने वाला है कि शुभ कार्यों के लिए भी नाना प्रकार के सम्प्रदाय चल जाएंगे।
मुनिवरों! महाराज कृष्ण ने जो कुछ कहा वह होकर रहा। क्या करें, बेटा! महानन्द जी के कथनानुसार, जैसा इन्होंने कई स्थानों पर वर्णन किया है, आधुनिक काल में तो कोई अपने को ब्रह्म माने बैठा है, कोई कहता है कर्म करने की आवश्यकता नहीं। कोई अपने को कृष्ण की आत्मा कह रहा है, कोई अपने को मोक्ष आत्मा कह रहा है। परन्तु यह वाक्य संसार को भ्रम में डाल रहा है। आज मानव को प्रकाश में पहुँचना है और अपने जीवन का कुछ महत्व संसार को देना है। हमारे शरीरों से तो क्या, बुद्धिमानों से संसार को कुछ मिलेगा। बुद्धिमान वह होता है जिसके रोम रोम से सब इन्द्रियों से अमृत की धारा बहती हो। उस धारा को जो मानव ग्रहण करता है, वह अमृत तुल्य हो जाता है। बेटा! वह कौन सी धारा है? वह वेद की धारा है। जब वेद का ज्ञान मानव के समक्ष रहता है, उस काल में वह संसार अन्धकार में नहीं जाया करता है।
 भगवान कृष्ण की सोलह हजार गोपियों का रहस्य
महानन्द जी के कथनानुसार आज का मानव कह रहा है कि महाराजा! कृष्ण के तो सोलह हजार रानियाँ थीं। मुनिवरो! मानव ने इस रहस्य को समझा नहीं, कि वह सोलह हजार गोपियाँ जिनके साथ महाराजा कृष्ण विहार किया करते थे, वे क्या थीं? ऐसा कहा जाता है कि महाराजा! कृष्ण सोलह हजार वेद की ऋचाएँ जानते थे, और उनके साथ विनोद किया करते थे। एकान्त स्थान में विराजमान हो करके वेद की विद्या को अच्छी प्रकार विचारा करते थे। उन गोपिकाओं, ऋचाओं से बेटा! विनोद किया करते थे, निससे उन्होंने संसार के ज्ञान-विज्ञान को जाना। मुनिवरों! कहाँ तक यह वार्त्ता उच्चारण करें।
आज तो हमारा केवल यही व्याख्यान प्रारम्भ हो रहा है, कि महाराजा! कृष्ण ने नेवले से कहा था, हे नेवेले! यह जो हमारा ज्ञान है, आगे चलकर लुप्त हो जाएगा, कुछ काल आगे चलकर फिर अन्त हो जाएगा। जिस काल में दोनों प्रकार का विज्ञान होता है, उस काल का वास्तव में उत्थान हो जाता है। बेटा! दो प्रकार का विज्ञान कौन-सा है? आध्यात्मिक विज्ञान और भौतिक विज्ञान । जब यह दोनों विज्ञान साथ -साथ चलते हैं, तो बेटा! वह युग महान कहा जाता है। उस काल में मानव का उत्थान होता है, उस काल में मानव सब वार्त्ताओं का जानने वाला होता है।
सोलह कलाधारी भगवान कृष्ण
मुनिवरों! नेवले ने महाराजा कृष्ण से प्रश्न किया, हे महाराज! ऐसा सुना जाता है कि आप षोडश कलाओं के ज्ञाता हैं। आप इन षोडश कलाओं को कैसे जानते हैं? उस समय, मुनिवरों! महाराजा कृष्ण ने षोडश कलाओं का वर्णन किया कि प्रत्येक मानव षोडश कलाओं का बना हुआ है, जो इन कलाओं को जान लेता है, वह सोलह कलाधारी हो जाता है।
देखो, मुनिवरों! मानव के हृदय में मानव के शरीर में बेटा!पाँच ज्ञान- इन्द्रियाँ हैं, पाँच कर्म- इन्द्रियाँ होती हैं, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार होते हैं और देखो, “मधुवाता” होता है इन सबको मिलाकर सोलह कलाएं होती हैं। जो इन्हें जान लेता है, वह बेटा! महान योगी बन जाता है। महाराजा कृष्ण प्रत्येक इन्द्रिय के विषय को अच्छी प्रकार जानते थे। जानने के नाते उन्हें सोलह कलाधारी कहा जाता था।
मुनिवरों! आज हमें विचारना चाहिए, कि वेद की विद्या क्या है? वेद की विद्या से मानव का उत्थान कैसे होता है? महानन्द जी के कथनानुसार आज का मानव बड़े अन्धकार में चला जा रहा है। आज मानव का विकास उसी स्थान में होगा जब वेद का प्रसार होगा, वेद की विद्या मानव के समक्ष होगी। आध्यात्मिक विद्या और भौतिक विद्या जब दोनों मानव के समक्ष होंगी, तो मानव का वास्तविक उत्थान हो जाएगा। जिस काल में दोनों का प्रचार और ज्ञान होता है, उस काल को राम राज्य कहा जाता है।
कल महानन्द जी ने प्रश्न किया कि हमारे, आपके वाक्य मृत मण्डल में क्यों जाते हैं? यह क्या दशा है जो इस प्रकार आपत्ति काल भोगना पड़ा है? परन्तु आज भी हम इसका उत्तर न दे सके और व्याख्यान देते- देते बहुत दूर चले गए। हम उच्चारण कर रहे थे, कि मानव को अपने कार्यों में दृढ़ रहना चाहिए। जो मानव जैसा करता है, वैसा ही भोगता है। बहुत पूर्व काल में हमने जो कर्म किए हैं, आज उन्हीं का फल भोगना पड़ रहा है। इसमें कुछ भी असत्य और न इसमें कोई भ्रान्ति है।
पूज्य महानन्द जीः आपके व्याख्यान तो यथार्थ होते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु भगवन्! आधुनिक काल में ऐसे व्यक्ति हैं, जो नाना प्रकार की विद्याओं को अच्छी प्रकार जानते नहीं और न वेदों का स्वाध्याय ही करते हैं। उनके हृदय में नाना प्रकार की भ्रान्तियाँ, नाना प्रकार की अशुद्धियाँ रहती हैं इसलिए उनका निर्णय करना आपका कर्त्तव्य है।
पूज्यपाद गुरुदेव –“महानन्द जी! जिसके द्वारा यथार्थता न हो, जो यथार्थ कार्यों को भी यथार्थ न मान रहा हो, बेटा! वह मानव कदापि नहीं मानेगा। वह तो अन्धकार में पहुँचा हुआ है।“
पूज्य महानन्द जीः गुरुजी! आपने किसी स्थान पर कहा था कि आत्मा परमात्मा भिन्न भिन्न पदार्थ हैं, परन्तु आधुनिक काल में कुछ व्यक्तियों का सिद्धान्त, कि आत्मा परमात्मा एक ही है। सबसे पूर्व तो यह ही भ्रान्ति का वाक्य है। महर्षि व्यास ने भी ऐसा ही माना है परन्तु आप इसको इस प्रकार क्यों मान रहे हो? हम आपके वाक्यों को सत्य क्यों मान लें?
पूज्यपाद गुरुदेव –हमारे वाक्यों को सत्य न मानो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं, परन्तु हम तो वही व्याख्यान उच्चारण करेंगे, जो हमें सत्य प्रतीत देते हैं, और वेदों के अनुकूल हैं। महानन्द जी! महर्षि व्यास ने ऐसा कदापि नहीं कहा, बेटा! जैसा महाराजा कृष्ण ने नेवले से कहा था कि आगे वह काल आ रहा है जब संसार में नाना प्रकार की अज्ञानता छा जाएगी, तो हो सकता है आधुनिक काल में ऐसा मान लिया हो, यह हम नहीं कह सकते। यह हमारा सिद्धान्त नहीं, आदि- आदि ऋषियों ने ऐसा ही वर्णन किया है। महाराजा कृष्ण के द्वापर काल तक तो हमने देखा है कि सब दार्शनिकों ने और सब ऋषियों ने आत्मा परमात्मा को पृथक पृथक ही माना है। आपत्तिकाल होने के नाते हमें प्रतीत नहीं, इस कलियुग में क्या हुआ, क्या न हुआ। इसमें आत्मा परमात्मा को एक मान लिया, या न माना| यह बेटा! अपने -अपने मार्ग हैं। इनसे हमें कोई अभ्रिपाय नहीं, हमें तो बेटा! परमात्मा की, उस विद्या से अभ्रिपाय है, जो परमात्मा ने हम बालकों के लिए दी है। यह विद्या है वेद, जिसको पाने से मानव का विकास होता है। बेटा! हम यह नहीं कहते और न किसी काल में कहा है कि हमारे व्याख्यान सत्य हैं। हमने तो यह कहा है कि जो तुम्हें यथार्थ प्रतीत हो उसे ग्रहण कर लो और जो यथार्थ न लगे उसे त्याग दो। इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं और न किसी बुद्धिमान को होनी चाहिए। हमने तो जैसा पाया है और जैसी हमारी विद्या है उसके अनुकूल नित्यप्रति व्याख्यान देते रहते हैं।
पूज्य महानन्द जीः गुरु जी! यह तो सत्य है, परन्तु आप तो वार्त्ता को दूर ले जाते हैं। हमने जो आपसे प्रश्न किया था, उसका आपने कोई उत्तर नहीं दिया।आप तो एक ही वार्त्ता बहुत ऊँचे और आगे ले जाते हैं। आपको तो समय व्यतीत करना है।
पूज्यपाद गुरुदेवः (हास्य के साथ) देखो, भाई! यह कैसे मूर्खों वाले प्रश्न कर रहा है
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवन्! कृपा कीजिए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! अभी- अभी हमारा एक महान वाक्य चल रहा था, वह मध्य में ही रह गया। महानन्द जी के प्रश्नों का उत्तर तो हम कल देंगे। हम उच्चारण कर रहे थे कि महाराज कृष्ण ने नेवले से कहा कि यह संसार तो अधोगति को जा रहा है। इस संसार की गति को न देखो, आज तुम शान्त होकर, उस महान गान को गाओ, जिससे तुम्हारा वास्तविक विकास हो। मुनिवरों! आज मानव यह ही मान बैठा है, कि वास्तव में नेवले का शरीर स्वर्ण का हो गया था। बेटा! उसका शरीर स्वर्ण का नहीं हुआ था। यह तो एक वैज्ञानिक वार्त्ता है। नेवले ने कहा था कि जब मैंने महान उस यज्ञशेष को पाया तो जहाँ तक उसका अंश पहुँचा,वहाँ तक मेरा हृदय इतना पवित्र बन गया, कि मैं उसका वर्णन नहीं कर सकता। महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ शेष को भी मैंने ग्रहण किया, परन्तु इसमें मुझे कोई आनन्द नहीं आया।
 युग-काल का निर्धारण
उस समय मुनिवरों! महाराजा कृष्ण ने नेवले से कहा था, हे नेवले! तुम कैसी वार्त्ता उच्चारण कर रहे हो? तुम्हारा वाक्य महान है परन्तु अगला काल तो और व्याकुल होने को आ रहा है। उस समय नेवले ने कहा, हे योगेश्वर! आप तो षोडश कलाओं के ज्ञाता हैं, यह सतोयुग क्या पदार्थ है?
उस समय महाराजा कृष्ण ने कहा था, सतोयुग उस काल को कहते हैं जिस काल में वेद की विद्या होती है। प्रत्येक मानव निर्द्वन्द्व रहता है, राग, द्वेष किसी से नहीं रहता। जिस काल में धर्म के चारों चरण हों उसे सतोयुग कहते हैं। जिस काल में धर्म का एक पद समाप्त हो जाता है उसको हम त्रेता कहा करते हैं। जिस काल में अग्नि प्रचण्ड हो, परन्तु कुछ सूक्ष्म हो। इसके पश्चात द्वापर आ जाता है जिस काल में देव और दैत्यों की संख्या एक तुल्य हो जाती है, धर्म के दो चरण शेष रह जाते हैं, उसे द्वापर कहते हैं। जिस काल में धर्म की मर्यादा वृद्ध होने लगती है, जैसे मानव का बाल्य काल, युवा और मध्यम और उसके पश्चात् वृद्धपन आता है, जिसमें आवरण ही शेष रह जाते हैं, इसी प्रकार यह कलियुग है। जिसमें मर्यादा का केवल एक पद ही रह जाता है और अधर्म की मर्यादा बहुत अधिक होती है। रावण के पुत्र नारायन्तक ने भी इसकी ऐसी ही व्याख्या की है। जिस काल में भौतिकता से ही कार्य होने लगता है,कालों से ही सब कार्य होने लगता है  उस काल को कलियुग कहते हैं।
राजा रावण के अपूर्ण कार्य
यह नहीं कि सतोयुग, त्रेता और द्वापर में कलों से कार्य नहीं होता था। रावण के राष्ट्र में इतना बड़ा विज्ञान था, कि रावण का पुत्र नारायन्तक अपने यन्त्रों द्वारा चन्द्रलोक तक पहुँच गए थे। राजा रावण इतना बड़ा वैज्ञानिक था, जिसका कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता। मुनिवरों! जब राजा रावण समाप्त होने लगा और जब उसके अन्तिम श्वास चल रहे थे, तो राजा राम से कहा, “हे राम! अब तो मैं मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ, परन्तु मेरे दो चार ऐसे कार्य थे, जिनको मैं करने वाला था। एक तो यह था कि अग्नि में जो धुआं उठता है यह न रहे। दूसरा यह था, कि चन्द्रमा में आने जाने का मार्ग बना दूं और तीसरा यह था कि काल को अपने वश में कर लूं |परन्तु यह भी मेरे वश में न हो सका। चौथा यह था कि पृथ्वी के नीचे अतल और वितल लोक हैं उनको जानूं। जल में जो नाना दोष हैं, इन्हें भी यन्त्रों द्वारा खत्म करना चाहता था, परन्तु न कर सका, अब तो मेरा अन्तिम समय आ गया। भगवन्! मैंने चन्द्र लोक को अच्छी प्रकार पाया है। मेरे राष्ट्र में यातायात बड़ा अच्छा है। विमान आदि भी अधिक हैं। मेरे राष्ट्र में वैज्ञानिक यन्त्र भी आपने देखे होंगे, अब तो सब समाप्त हो गए हैं।“ उस समय राम ने कहा,” भाई! अब तो आपका अन्तिम समय होने वाला है, यह कोई भी कार्य आपका पूर्ण न हो सकेंगा।“
मुनिवरों! आधुनिक काल का विज्ञान उतनी गहराई तक नहीं पहुँचा है, जैसे हमें महानन्द जी के वाक्यों से प्रतीत होता है। उन दिनों भौतिक विज्ञान इतना प्रबल था कि सब कार्य यन्त्रों द्वारा होता था। यदि हम उसी को बेटा! कलियुग मान लें तो यह वाक्य कदापि सत्य नहीं बैठता। यथार्थ यह है कि कलियुग नाम अज्ञान का है। जिस काल में अज्ञान होता है, उस काल को कलियुग  कहा जाता है। जिस प्रकार मानव की चार अवस्थाएं होती हैं,बाल्यावस्था, युवावस्था, मध्यम अवस्था और वृद्धावस्था, वृद्धावस्था में मानव की बुद्धि नहीं रहती, वह क्लेशों में घिर जाता है, नाना प्रकार की अशांति उसके हृदय में छा जाती है, जिस प्रकार मानव की परमात्मा ने ये चार अवस्थाएं बनाई हैं, इसी प्रकार परमात्मा ने सृष्टि के ये चार गुण बनाए हैं। इनको चतुर्युगी कहते हैं। यह इसी प्रकार परिक्रमा करती रहती है, जैसे मानव की अवस्थाएं। सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा ने इन सबकी अवधि नियुक्त की है।
मुनिवरों! अभी -अभी हमारा आदेश क्या चल रहा था? उस समय नेवले ने कहा, “भगवन्! यह वाक्य तो आपका यथार्थ हो गया, परन्तु एक वार्त्ता और जानना चाहते हैं कि जब इस काल का नाम कलियुग है तो आपके काल को क्या कहा जाए, जब दुर्योधन इन पाण्डवों को नष्ट करना चाहता था? उस समय महाराजा कृष्ण ने कहा, “हे नेवले! तुम्हारा यह वाक्य सत्य है परन्तु इसका तो यहाँ समाधान हो जाता है कि द्वापर के काल में देव और दैत्य दोनों तुल्य माने गए हैं, इसी प्रकार यहाँ आधी प्रजा एक दूसरे को नष्ट भ्रष्ट करने वाली तथा आधी परोपकार करने वाली हैं|” उस समय नेवले ने कहा, “महाराज! यदि आप दुर्योधन को दैत्य मानेंगे तो आपका वाक्य कदापि सत्य नहीं होगा।“ महाराज कृष्ण ने कहा “अरे, नेवले! हम दुर्योधन को दैत्य नहीं मान रहे,परन्तु वह दैत्य इसलिए माना जा रहा है क्योंकि वह हमारी वार्त्ताओं को स्वीकार नहीं करता और अपने विधाताओं को नष्ट भ्रष्ट करना चाहता है। जो दूसरों को नष्ट करता है उसको दैत्य कहा जाता है,उसे धर्मात्मा कदापि नहीं कहा जाता है।“
मुनिवरों! इन प्रश्नों को करने के पश्चात् नेवला अपने स्थान को जाने लगा। उस समय महाराजा कृष्ण ने कहा, हे महान नेवले! हे महान् ऋषि! आप अपने स्थान में जाकर परमात्मा का चिन्तन करो और यह चिन्तन न करो कि महाराजा युधिष्ठिर ने यज्ञ, कुछ न किया। अब इतना तो हो रहा है आगे वह काल आने वाला है जब यह सब कुछ भी न होगा। इन शान्तिदायक वार्त्ताओं को पा करके नेवला अपने स्थान पर चला गया। उस समय महाराजा युधिष्ठिर ने महाराज कृष्ण से कहा, “मैंने यह यज्ञ कुछ नहीं किया। भगवन्! नेवला यहाँ से अशान्ति को प्राप्त होकर गया है।“ उस समय महाराजा कृष्ण ने कहा,” हे महाराजा युधिष्ठिर! यह सब कुछ यथार्थ है,जो तुमने यह उच्चारण किया| परन्तु वह काल उनके साथ था, आज का काल हमारे साथ है। आधुनिक समय की नीति तो यह है कि जैसा समय आए, वैसा करो| उसी में मानव का विकास है।“ जब महाराजा कृष्ण ने ऐसा कहा तो महाराजा युधिष्ठिर शान्त हो गए।
तो मुनिवरों! जैसा हम कल व्याख्यान दे रहे थे, कि देव ऋषि नारद ने और भी आदि ऋषियों ने जो कुछ कहा वह यथार्थ ही कहा है। बहुत से मनुष्य तो कहते हैं कि भविष्य की वार्त्ता कही नहीं जा  सकती, परन्तु ऋषियों ने भविष्य की वार्त्ता कैसे दी है? मुनिवरों! यह उन योगियों का अनुमान था, अनुमान मिथ्या भी हो सकता है। उन्होंने जो कुछ कहा है काल और मर्यादा के अनुकूल कहा है। परमात्मा ने जो काल, जो मर्यादा बनाई है, वह एक रस रहने वाली है। मानव की मर्यादा बदलने वाली है। मुनिवरों! उनका कोई न कोई वाक्य नष्ट हो सकता है। परन्तु मानव अपने अनुमान उच्चारण किया करता है।
मुनिवरों! महाराजा कृष्ण ने कलियुग की जो व्याख्या की है, वास्तव में वह  यथार्थ है| परन्तु यह वाक्य निश्चय नहीं, कि उस काल में सब अज्ञानी रहते हैं। उस काल में बुद्धिमान भी रहते हैं, दार्शनिक भी रहते हैं। हर काल में हर प्रकार के मनुष्य रहते हैं। यह अवश्य हो जाता है, कि किसी काल में धर्मात्मा अधिक बढ़ जाते हैं, तो किसी काल में दैत्य। तो मुनिवरों! देखो, यह है आज का हमारा आदेश। हम प्रारम्भ कर रहे थे, कि मानव के दो पक्ष हैं, कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष। एक अन्धकार का, दूसरा प्रकाश का | एक आपत्तिकाल है ,दूसरा उज्ज्वल होने का। एक पुण्य उदय होने का, दूसरा पाप उदय होने का। पाप और पुण्य बेटा! हमारे अन्तःकरण में नियुक्त रहते हैं। जब मानव का पुण्य उदय होता है, तो मानव का विकास होता चला जाता है| जब मानव के समक्ष पाप आता है, तो वह अधोगति में चला जाता है। कर्मो के अनुकूल भोगना अनिवार्य हो जाता है।
मुनिवरों! कल हम जैसा महानन्द जी ने प्रश्न किया है, कर्मो के विषय में व्याख्यान देंगे, कि मानव कैसे- कैसे कर्म करके, कहाँ का कहाँ भोगता फिरता है। अब हमारा यह व्याख्यान समाप्त हो गया है |आज के हमारे व्याख्यानों का अभिप्राय है कि हर काल में हर प्रकार के व्यक्ति रहते हैं। हर काल में देव और दैत्य रहते हैं। कोई भी काल हो मानव को दृढ़ रहने की आवश्यकता है। अब हमारा व्याख्यान समाप्त हो गया | कल समय मिलेगा तो द्वितीय व्याख्यान प्रारम्भ करेंगे। अब हमारा वेद पाठ होगा। इसके पश्चात् हमारी वार्त्ता समाप्त हो जाएगी। (वेद पाठ)। रात्रि २ बजे बी.सी. पार्क, सरोजनी नगर