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०८ ०३ १९६२ कृष्ण और
शुक्लपक्ष की व्याख्या
जीते रहो
देखो, मुनिवरों! अभी
अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ| हम तुम्हारे समक्ष वेदों
का मनोहर गान गा रहे थे। आज हम उन वेद मन्त्रों का पाठ कर रहे थे, जिसमें महान परमात्मा की निधि छिपी हुई है। आज हम उस परमात्मा का गुण गा
रहे थे, जिस विधाता ने इस संसार को उत्पन्न किया है, और हमें इस महानता पर पहुँचा दिया है। आज मानव को उस परमात्मा के समक्ष
पहुँचना चाहिए, जिसके लिए हम संसार में आए हैं। यदि हम
परमात्मा के समक्ष पहुँचने का प्रयत्न न करेंगे, तो हमारा
जीवन किसी प्रकर ऊँचा नहीं बनेगा।
आज हमारे वेदपाठ में “कृष्ण नरो” बडे सुन्दर
शब्द आ रहे थे। देखो! कृष्ण कहते हैं अन्धकार को। मुनिवरों! हमारे यहाँ दो पक्ष
माने गए हैं, एक कृष्णपक्ष, अन्धकार का
पक्ष और शुक्लपक्ष, प्रकाश का पक्ष। इसी प्रकार मानव के समक्ष
दो समस्याएं होती हैं। एक महान अन्धकार की रहती है और दूसरी उज्ज्वल रहने की रहती
है। आज इस पर विचार करना चाहिए और उसी के अनुकूल अपना जीवन बनाना चाहिए। बेटा! जिस
काल में मानव के समक्ष नाना आपत्तियाँ, नाना अज्ञान आ जाते
हैं, तो वह उस मानव का कृष्ण पक्ष कहा जाता है।
आपत्ति काल में दृढ़ता
आज का हमारा वेदपाठ कह रहा था, कि मानव को आपत्ति काल में दृढ़ रहना चाहिए, और जिस
काल में प्रकाशित हो जाओ, उस काल में दृढ़ रहना चाहिए। यदि
आपत्तिकाल में अपनी मर्यादा को समाप्त कर दिया या जीवनचर्या को समाप्त कर दिया, तो मानव में कोई विशेषता न रहेगी। इसलिए मुनिवरों! जब नाना प्रकार की
अपत्तियाँ, नाना प्रकार का अज्ञान आ जाए, तो हमें किसी प्रकार अशान्त नहीं होना चाहिए। अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ रहते
हुए शान्ति से इस संसार सागर से पार होते चले जाएं। मुनिवरों! जब तक हम इस महानता
पर नहीं पहुँचेंगे, तब तक हमारा जीवन किसी प्रकार ऊँचा नहीं
बनेगा
जब मानव अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ रहता है तो एक
समय वह आता है कि मानव परिपूर्ण हो जाता है और अपनी समस्याओं को पूर्ण कर लेता है।
अपने जीवन को उच्च बना लेता है| महान शुक्लपक्ष हमारे सम्मुख
आ जाता है। जिस प्रकार मुनिवरों! कृष्णपक्ष का चंद्रमा अपने कर्तव्य पर दृढ़ रहता हुआ शुक्ल पक्ष मे पूर्णिमा का चन्द्रमा परिपक्व हो जाता है और
पूर्ण हो करके संसार में व्यापक हुआ करता है और अपने प्रकाश से उस महान अहिल्या
रूपी रात्रि का भोग किया करता है और उस महानता को पहुँच जाता है जो वास्तविक है।
मुनिवरों! आज हमें उस पर विचार करना चाहिए, हमें अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ रहना चाहिए। जब तक हम अपने कर्त्तव्य पर दृढ़
नहीं रहेंगे, तब तक हम जीवन को कदापि भी ऊँचा नहीं बना
पाएंगे, न राष्ट्र को और न किसी मानव को ऊँचा बना पाएगे।
देखो, बेटा! परमात्मा
को भी कृष्ण कहते हैं, जो “कृष्णो वेदो रूद्र ते” जिसने यह
काल बनाया है, जो कालों का भी काल माना गया है। बेटा! कृष्ण
नाम तो योगियों का भी कहा जाता है, जो योगी षोडश कलाओं को
जानने वाले है।परंतु बेटा ! यहाँ तो हम पक्षी का वर्णन कर रहे थे|
आज
हमें महानन्द जी से संकेत मिलता है कि आधुनिक समय तो अशान्ति में जा रहा है।
राष्ट्र भी अशान्त है, राजा भी अशान्त है, प्रत्येक मानव, प्रत्येक देवकन्या अशान्त है। जहाँ अशान्ति रहती है, वहाँ मानव का उत्थान किसी प्रकार नहीं हुआ करता। जिस काल में मानव को
आत्मिक शान्ति मिल जाती है, उस काल में मानव उच्च हो जाता है|
उसका उत्थान हो जाता है, अन्यथा बेटा! कदापि
नहीं।
पूज्य महानन्द जीः “आत्मिक शान्ति के लिए साधन
क्या है?”
पूज्यपाद
गुरुदेव –“बेटा! ज्ञान का मार्ग ही ऐसा है, जिसको
ग्रहण करने से आत्मिक शान्ति मिलती है।“
पूज्य महानन्द जीः “वह ज्ञान क्या पदार्थ है, और कहाँ से आता है?”
पूज्यपाद
गुरुदेव –“अरे, ज्ञान, वेद की
विद्या कहाँ से आती है? बेटा! वेद की विद्या हमें परमात्मा
ने प्रकाशित की है।“
पूज्य महानन्द जीः “परमात्मा ने यह प्रकाश
किस लिए प्रकाशित किया?”
पूज्यपाद
गुरुदेव- बेटा! अपने पुत्र आत्मा के लिए, उस विधाता
ने वेद की विद्या को प्रकाशित किया, जिसको पाकर मानव अपने
जीवन को ऊँचा बना लेता है। उस स्थिति को प्राप्त कर लेता है,
जो वास्तविक है। उस स्थिति को प्राप्त कर परमात्मा में रमण करने वाला बन जाता है।
मुनिवरों! एक समय ज्ञान के विशेषण में बालक
नचिकेता ने यमाचार्य से कहा था “भगवन्! आप मुझे उस विद्या को ग्रहण कराओ, जिस विद्या को पा करके, इस संसार सागर से पार हो
जाऊं। मुनिवरों! उस समय आचार्य ने कहा “हे बेटा, नचिकेता!
तुम इस विद्या को प्राप्त न करो। संसार के नाना प्रकार के सुखों को ले लो, जिनमें तुम्हें आनन्द मिलेगा। इस विद्या को लेकर क्या करोगे? उस समय उस महान् आठ वर्षीय ब्रह्मचारी नचिकेता बालक ने कहा था “हे ऋषिवर!
हे गुरुदेव! आप मुझे उस विद्या का निर्देश करा रहे हो, उन
पदार्थों को दे रहे हो, जो पदार्थ नष्ट होने वाले हैं।
विधाता!मुझे तो वह विद्या दो, जो कदापि नष्ट नहीं होती।
तो मुनिवरों! आज मानव को इस विद्या को ग्रहण
करना है, जिससे संसार सागर से पार हो जाएं। यह संसार रूपी
सागर परमात्मा का बनाया हुआ है, आज इससे हमें पार होना है,
जब तक हम इस संसार से पार न होंगे, तब तक
हमारा जीवन कदापि ऊँचा नहीं बनेगा। आज मानव नाना प्रकार की भ्रान्तियों में घिरा
हुआ बैठा है, दूसरों को हानि पहुँचाने का प्रयत्न करता है, जो मानव दूसरों को हानि पहुँचाता है उसकी स्वयं हानि हो जाती है, हानि का पुतला बन करके संसार में नष्ट भ्रष्ट हो जाता है।
आज
मानव अपने स्वार्थ के वशीभूत हो, दूसरों की निन्दा में लगा
रहता है, दूसरों की त्रुटियों को ग्रहण करता है। अरे मानव!
आज तू दूसरों की त्रुटियों को ग्रहण क्यों कर रहा है? अरे,
इनकी अच्छाईयों को ग्रहण कर, तुम्हारे द्वार
अच्छाइयों का ढेर लग जाएगा, तुम अच्छाईयों के पुतले बन
जाओगे।
यह है बेटा! हमारा आज का व्याख्यान, जो प्रारम्भ हो रहा था। हम उच्चारण कर रहे थे कि कृष्ण कहते हैं अन्धकार
को। कृष्ण पक्ष आता है तो चन्द्रमा धीरे- धीरे समाप्त होने लगता है| और आगे चलकर एक समय आता है, कि बेटा! चन्द्रमा का
एक अंकुर भी नहीं रहता, अन्धकार में लय हो जाता है। परन्तु
देखो, अमावस्या के पश्चात् द्वितीया आती है, उस समय चन्द्रमा धीरे धीरे बढ़ता है और धीरे धीरे उन्नत हो करके, अपना जीवन महान् बना लेता है और
एक समय वह आता है जब वह पूर्ण परिपक्व हो जाता है। अन्धकार प्रकाश में लय हो जाता
है, शुक्ल पक्ष हो जाता है। इसी प्रकार मानव को अपने धर्म पर
दृढ़ रहना चाहिए और मर्यादा में चलना चाहिए। आपत्ति आने पर भी उसे सहना चाहिए। सहन
करते रहे, तो उसके उज्ज्वल होने का समय अवश्य आ जाएगा।
भगवान राम की मर्यादा
मुनिवरों! हम उस काल को देख चुके हैं, जिस काल में राजा, महाराजाओं पर महान् आपत्तियाँ
आती थीं। उन आपत्तियों को सहन करने के कारण उनका प्रकाश आज तक संसार में चला आ रहा
है। महाराज राम के द्वारा कितनी आपत्तियाँ आई, परन्तु वह उन
सबमें दृढ़ रहे और अन्त में बेटा! रावण तक को विजय किया। धर्म पारायण वह कैसे थे, कि जब लंका से चलने लगे, तो उस समय लंका का स्वामी
विभीषण को नियुक्त किया। विभीषण ने चलते समय राम को कुछ उपहार देना चाहा। उस समय
राम ने लक्ष्मण से कहा,” हे विधाता! यह मुझे कुछ उपहार देना
चाहते हैं। तुम्हारी क्या इच्छा है”। उस समय लक्ष्मण ने कहा, “हे राम! आप चाहें तो ग्रहण कर लीजिए। परन्तु न मर्यादा यह कहती है और न
राजधर्म यह कहता है कि जिसको आपने दान में दे दिया हो और उस दान से आप कुछ लेवें, यह आपके योग्य कदापि नही” राम ने लक्ष्मण के कथनानुसार उस उपहार को
विभीषण के अर्पण कर दिया और कहा, यह न मर्यादा कहती है न
धर्म ही कहता है। मैंने विजय करके तुम्हें इसका राजा बनाया है। अपने राज्य का पालन
करो। यह ही तुम्हारा सबसे विशेष कर्त्तव्य है।
तो
मुनिवरों! राजा राम ने मर्यादा में बन्ध करके ऐसा किया। आज मानव को विचारना चाहिए
कि जब मानव मर्यादा में दृढ़ रहता है, तब उसका उत्थान अवश्य हो
जाता है| परन्तु जब मर्यादा तोड़ देता है, तो उसके विनाश का समय आ जाता है।
मुनिवरों! व्याख्यान देते देते कहाँ पहुँच
गए। बेटा! देखो! शुक्लपक्ष का वर्णन कर रहे थे। हमें सोचना चाहिए, यदि हम शुक्लपक्ष का वर्णन कर रहे थे,तो हमें सोचना
चाहिए कि हम शुक्ल पक्ष तुल्य हो जाएं, हमारे हृदय में प्रकाश
हो जाए या देखो,विद्या का, लक्ष्मी का
प्रकाश हमारे गृह में हो जाए, तो हमें अभिमान में नहीं आना
है, हमें दृढ़ रहना चाहिए और उस आपत्तिकाल को भी विचारना
चाहिए जो हम पर आ चुका था। जो इस महान अन्धकार में आ जाता है, इस माया में लिप्त हो जाता है, वह अपने जीवन को नष्ट
कर देता है। अन्त में उस मानव की सब सम्पत्ति समाप्त हो जाती है। जो मानव मर्यादा
में बन्ध कर अपने कर्त्तव्य पर दृढ़ रहता है उसका जीवन परम्परा से बना रहता है और
अन्त में मोक्ष प्राप्त करता है।
तो मुनिवरों! आज हमें विचारना चाहिए। क्या
करें बेटा! महानन्द जी के कथनानुसार व्याकुल होना पड़ता है। इन्होंने कहा है
महाराजा शिव के पुत्र गणेश को आज के संसार ने हाथी का सिर नियुक्त किया है। यह
कितना अज्ञान युक्त है अरे, यह संसार कितने अन्धकार में
पहुँच गया है। इससे तो प्रतीत होता है कि संसार स्वार्थ में बंधा जा रहा है। अरे,
निस्वार्थ होकर ही धर्म की मर्यादा नियुक्त होती है। जब स्वार्थ आ
जाता है तो उस समय धर्म, मर्यादा समाप्त हो जाती है।
यज्ञशेष से स्वर्णिम
नेवला
मुनिवरों! देखो! त्रेता काल में जिस समय रघु
राज्य किया करते थे, एक समय वृष्टि न हुई। अकाल पड़ गया,
पृथ्वी विष उगलने लगी। सब व्याकुल हो गए। उस समय बेटा! महर्षि उदांग
ऋषि ने नाना सामग्री, नाना साकल्य एकत्रित करना प्रारम्भ कर
दिया। ऐसा सुना जाता है कि उन्होंने वह साकल्य लगभग पन्द्रह दिवस एकत्रित किया। उस
साकल्य से उन्होंने उस महान् वन में एक विशाल यज्ञ किया। यज्ञ करते ही देवता
प्रसन्न हो गए और फलस्वरूप उस समय वृष्टि प्रारम्भ हो गई।
मुनिवरों! यज्ञ के स्थान पर एक नेवला रहता
था। उस नेवले ने यज्ञ शेष में जाकर स्नान किया। उस यज्ञ शेष से केवल आधे शरीर का
स्नान हुआ। सुना जाता है उसका यह आधा शरीर स्वर्ण बन गया। ऐसा सुना जाता है कि
उसके पश्चात् वह नेवला ऐसे ही चलता रहा और प्रतीक्षा करने लगा कि किसी अन्य स्थान
में ऐसा यज्ञ हो, कि जिसके यज्ञ शेष में स्नान करने से, शेष आधा शरीर भी स्वर्ण का ही हो जाए। नेवला उसी प्रकार चलता रहा,
धीरे धीरे द्वापर आ गया।
द्वापर काल में, मुनिवरों!
देखो! महाराजा युधिष्ठिर ने इन्द्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ किया। इस यज्ञ में सब
राज्य सम्पत्ति लगा दी गई। ऐसा सुन्दर यज्ञ था कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
उस समय वह नेवला भी उस यज्ञशाला में जा पहुँचा और यज्ञ शेष में स्नान जा किया| किन्तु उसका शरीर स्वर्ण का न हुआ। नेवला व्याकुल होने लगा। उस समय
महाराजा युधिष्ठिर ने नेवले से कहा, अरे, नेवले! तुम शोक युक्त क्यों हो रहे हो? उस समय
नेवले ने कहा, मैं शोकयुक्त इसलिए हो रहा हूँ, क्योंकि देखो, महाराज! एक समय उदांग ऋषि महाराज ने
यज्ञ किया था, जो सूक्ष्म सा यज्ञ था,परन्तु
यज्ञ के होने से वृष्टि हो गई थी, और यज्ञ के यज्ञशेष में
स्नान करने से आधे शरीर का ही स्नान हुआ, परन्तु वह स्वर्ण
का बन गया। हे महाराज! आपने इतना बड़ा यज्ञ किया है, मैंने इस
यज्ञशेष में भी स्नान किया परन्तु मेरा शेष आधा शरीर स्वर्ण का न हुआ। इसका क्या कारण
है? उस यज्ञ में क्या विशेषता थी? मैं
इसलिए व्याकुल हो रहा हूँ। यह कैसा यज्ञ जिससे मेरा आधा शरीर स्वर्ण का न बना?
यह सुनकर महाराजा युधिष्ठिर व्याकुल होने
लगे। उनकी व्याकुलता देखकर नेवले ने महाराजा युधिष्ठिर से कहा, “हे महाराजा! आप क्यों व्याकुल हो रहे हो?” महाराजा
युधिष्ठिर ने कहा मैं इसलिए व्याकुल हो रहा हूँ कि मैंने इतना महान यज्ञ किया
परन्तु इसका कोई महत्व नहीं, क्योंकि आपका आधा शरीर सोने का
होने से रह गया। यह यज्ञ तो न होने के तुल्य है। उस समय महाराजा कृष्ण ने, जो षोडश कलाओं को जानने वाले योगी थे, कहा “अरे
नेवले! शान्त रहो!” आगे तो वह समय आ रहा है जब इतना भी नहीं रहेगा। आगे अन्धकार का
काल आ रहा है जब संसार में नाना प्रकार की अज्ञानता छा जाएगी। मानव के जीवन का कोई
विकास न होगा। उस समय तुम्हारा यह आधा शरीर जो स्वर्ण का हो गया है, यह भी इस प्रकार का न रहेगा। आगे तो ऐसा समय आने वाला है कि शुभ कार्यों
के लिए भी नाना प्रकार के सम्प्रदाय चल जाएंगे।
मुनिवरों! महाराज कृष्ण ने जो कुछ कहा वह
होकर रहा। क्या करें, बेटा! महानन्द जी के कथनानुसार,
जैसा इन्होंने कई स्थानों पर वर्णन किया है, आधुनिक
काल में तो कोई अपने को ब्रह्म माने बैठा है, कोई कहता है
कर्म करने की आवश्यकता नहीं। कोई अपने को कृष्ण की आत्मा कह रहा है, कोई अपने को मोक्ष आत्मा कह रहा है। परन्तु यह वाक्य संसार को भ्रम में
डाल रहा है। आज मानव को प्रकाश में पहुँचना है और अपने जीवन का कुछ महत्व संसार को
देना है। हमारे शरीरों से तो क्या, बुद्धिमानों से संसार को
कुछ मिलेगा। बुद्धिमान वह होता है जिसके रोम रोम से सब इन्द्रियों से अमृत की धारा
बहती हो। उस धारा को जो मानव ग्रहण करता है, वह अमृत तुल्य
हो जाता है। बेटा! वह कौन सी धारा है? वह वेद की धारा है। जब
वेद का ज्ञान मानव के समक्ष रहता है, उस काल में वह संसार
अन्धकार में नहीं जाया करता है।
भगवान कृष्ण की सोलह हजार गोपियों
का रहस्य
महानन्द जी के कथनानुसार आज का मानव कह रहा
है कि महाराजा! कृष्ण के तो सोलह हजार रानियाँ थीं। मुनिवरो! मानव ने इस रहस्य को
समझा नहीं, कि वह सोलह हजार गोपियाँ जिनके साथ महाराजा कृष्ण
विहार किया करते थे, वे क्या थीं? ऐसा
कहा जाता है कि महाराजा! कृष्ण सोलह हजार वेद की ऋचाएँ जानते थे, और उनके साथ विनोद किया करते थे। एकान्त स्थान में विराजमान हो करके वेद
की विद्या को अच्छी प्रकार विचारा करते थे। उन गोपिकाओं, ऋचाओं
से बेटा! विनोद किया करते थे, निससे उन्होंने संसार के ज्ञान-विज्ञान
को जाना। मुनिवरों! कहाँ तक यह वार्त्ता उच्चारण करें।
आज तो हमारा केवल यही व्याख्यान प्रारम्भ हो
रहा है, कि महाराजा! कृष्ण ने नेवले से कहा था, हे नेवेले! यह जो हमारा ज्ञान है, आगे चलकर लुप्त हो
जाएगा, कुछ काल आगे चलकर फिर अन्त हो जाएगा। जिस काल में
दोनों प्रकार का विज्ञान होता है, उस काल का वास्तव में
उत्थान हो जाता है। बेटा! दो प्रकार का विज्ञान कौन-सा है? आध्यात्मिक
विज्ञान और भौतिक विज्ञान । जब यह दोनों विज्ञान साथ -साथ चलते हैं, तो बेटा! वह युग महान कहा जाता है। उस काल में मानव का उत्थान होता है,
उस काल में मानव सब वार्त्ताओं का जानने वाला होता है।
सोलह कलाधारी भगवान कृष्ण
मुनिवरों! नेवले ने महाराजा कृष्ण से प्रश्न
किया, हे महाराज! ऐसा सुना जाता है कि आप षोडश कलाओं के
ज्ञाता हैं। आप इन षोडश कलाओं को कैसे जानते हैं? उस समय,
मुनिवरों! महाराजा कृष्ण ने षोडश कलाओं का वर्णन किया कि प्रत्येक
मानव षोडश कलाओं का बना हुआ है, जो इन कलाओं को जान लेता है, वह सोलह कलाधारी हो जाता है।
देखो, मुनिवरों! मानव
के हृदय में मानव के शरीर में बेटा!पाँच ज्ञान- इन्द्रियाँ हैं, पाँच कर्म- इन्द्रियाँ होती हैं, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार होते हैं
और देखो, “मधुवाता” होता है इन सबको मिलाकर सोलह कलाएं होती
हैं। जो इन्हें जान लेता है, वह बेटा! महान योगी बन जाता है।
महाराजा कृष्ण प्रत्येक इन्द्रिय के विषय को अच्छी प्रकार जानते थे। जानने के नाते
उन्हें सोलह कलाधारी कहा जाता था।
मुनिवरों! आज हमें विचारना चाहिए, कि वेद की विद्या क्या है? वेद की विद्या से मानव
का उत्थान कैसे होता है? महानन्द जी के कथनानुसार आज का मानव
बड़े अन्धकार में चला जा रहा है। आज मानव का विकास उसी स्थान में होगा जब वेद का
प्रसार होगा, वेद की विद्या मानव के समक्ष होगी। आध्यात्मिक
विद्या और भौतिक विद्या जब दोनों मानव के समक्ष होंगी, तो
मानव का वास्तविक उत्थान हो जाएगा। जिस काल में दोनों का प्रचार और ज्ञान होता है, उस काल को राम राज्य कहा जाता है।
कल महानन्द जी ने प्रश्न किया कि हमारे,
आपके वाक्य मृत मण्डल में क्यों जाते हैं? यह
क्या दशा है जो इस प्रकार आपत्ति काल भोगना पड़ा है? परन्तु
आज भी हम इसका उत्तर न दे सके और व्याख्यान देते- देते बहुत दूर चले गए। हम उच्चारण
कर रहे थे, कि मानव को अपने कार्यों में दृढ़ रहना चाहिए। जो
मानव जैसा करता है, वैसा ही भोगता है। बहुत पूर्व काल में
हमने जो कर्म किए हैं, आज उन्हीं का फल भोगना पड़ रहा है।
इसमें कुछ भी असत्य और न इसमें कोई भ्रान्ति है।
पूज्य महानन्द जीः आपके व्याख्यान तो यथार्थ
होते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु भगवन्! आधुनिक काल
में ऐसे व्यक्ति हैं, जो नाना प्रकार की विद्याओं को अच्छी
प्रकार जानते नहीं और न वेदों का स्वाध्याय ही करते हैं। उनके हृदय में नाना
प्रकार की भ्रान्तियाँ, नाना प्रकार की अशुद्धियाँ रहती हैं इसलिए
उनका निर्णय करना आपका कर्त्तव्य है।
पूज्यपाद गुरुदेव –“महानन्द जी! जिसके द्वारा
यथार्थता न हो, जो यथार्थ कार्यों को भी यथार्थ न मान रहा हो, बेटा! वह मानव कदापि नहीं मानेगा। वह तो अन्धकार में पहुँचा हुआ है।“
पूज्य महानन्द जीः गुरुजी! आपने किसी स्थान पर
कहा था कि आत्मा परमात्मा भिन्न भिन्न पदार्थ हैं, परन्तु
आधुनिक काल में कुछ व्यक्तियों का सिद्धान्त, कि आत्मा
परमात्मा एक ही है। सबसे पूर्व तो यह ही भ्रान्ति का वाक्य है। महर्षि व्यास ने भी
ऐसा ही माना है परन्तु आप इसको इस प्रकार क्यों मान रहे हो? हम
आपके वाक्यों को सत्य क्यों मान लें?
पूज्यपाद गुरुदेव –हमारे वाक्यों को सत्य न
मानो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं, परन्तु हम तो वही व्याख्यान
उच्चारण करेंगे, जो हमें सत्य प्रतीत देते हैं, और वेदों के अनुकूल हैं। महानन्द जी! महर्षि व्यास ने ऐसा कदापि नहीं कहा, बेटा! जैसा महाराजा कृष्ण ने नेवले से कहा था कि आगे वह काल आ रहा है जब
संसार में नाना प्रकार की अज्ञानता छा जाएगी, तो हो सकता है
आधुनिक काल में ऐसा मान लिया हो, यह हम नहीं कह सकते। यह
हमारा सिद्धान्त नहीं, आदि- आदि ऋषियों ने ऐसा ही वर्णन किया
है। महाराजा कृष्ण के द्वापर काल तक तो हमने देखा है कि सब दार्शनिकों ने और सब
ऋषियों ने आत्मा परमात्मा को पृथक पृथक ही माना है। आपत्तिकाल होने के नाते हमें
प्रतीत नहीं, इस कलियुग में क्या हुआ,
क्या न हुआ। इसमें आत्मा परमात्मा को एक मान लिया, या न माना| यह बेटा! अपने -अपने मार्ग हैं। इनसे हमें कोई अभ्रिपाय नहीं, हमें तो बेटा! परमात्मा की, उस विद्या से अभ्रिपाय
है, जो परमात्मा ने हम बालकों के लिए दी है। यह विद्या है
वेद, जिसको पाने से मानव का विकास होता है। बेटा! हम यह नहीं
कहते और न किसी काल में कहा है कि हमारे व्याख्यान सत्य हैं। हमने तो यह कहा है कि
जो तुम्हें यथार्थ प्रतीत हो उसे ग्रहण कर लो और जो यथार्थ न लगे उसे त्याग दो।
इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं और न किसी बुद्धिमान को होनी चाहिए। हमने तो जैसा पाया
है और जैसी हमारी विद्या है उसके अनुकूल नित्यप्रति व्याख्यान देते रहते हैं।
पूज्य महानन्द जीः गुरु जी! यह तो सत्य है, परन्तु आप तो वार्त्ता को दूर ले जाते हैं। हमने जो आपसे प्रश्न किया था, उसका आपने कोई उत्तर नहीं दिया।आप तो एक ही वार्त्ता बहुत ऊँचे और आगे ले
जाते हैं। आपको तो समय व्यतीत करना है।
पूज्यपाद गुरुदेवः (हास्य के साथ) देखो,
भाई! यह कैसे मूर्खों वाले प्रश्न कर रहा है
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवन्! कृपा कीजिए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! अभी- अभी हमारा
एक महान वाक्य चल रहा था, वह मध्य में ही रह गया। महानन्द जी
के प्रश्नों का उत्तर तो हम कल देंगे। हम उच्चारण कर रहे थे कि महाराज कृष्ण ने
नेवले से कहा कि यह संसार तो अधोगति को जा रहा है। इस संसार की गति को न देखो,
आज तुम शान्त होकर, उस महान गान को गाओ, जिससे तुम्हारा वास्तविक विकास हो। मुनिवरों! आज मानव यह ही मान बैठा है, कि वास्तव में नेवले का शरीर स्वर्ण का हो गया था। बेटा! उसका शरीर
स्वर्ण का नहीं हुआ था। यह तो एक वैज्ञानिक वार्त्ता है। नेवले ने कहा था कि जब
मैंने महान उस यज्ञशेष को पाया तो जहाँ तक उसका अंश पहुँचा,वहाँ
तक मेरा हृदय इतना पवित्र बन गया, कि मैं उसका वर्णन नहीं कर
सकता। महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ शेष को भी मैंने ग्रहण किया,
परन्तु इसमें मुझे कोई आनन्द नहीं आया।
युग-काल का निर्धारण
उस समय मुनिवरों! महाराजा कृष्ण ने नेवले से
कहा था, हे नेवले! तुम कैसी वार्त्ता उच्चारण कर रहे हो?
तुम्हारा वाक्य महान है परन्तु अगला काल तो और व्याकुल होने को आ
रहा है। उस समय नेवले ने कहा, हे योगेश्वर! आप तो षोडश कलाओं
के ज्ञाता हैं, यह सतोयुग क्या पदार्थ है?
उस समय महाराजा कृष्ण ने कहा था, सतोयुग उस काल को कहते हैं जिस काल में वेद की विद्या होती है। प्रत्येक
मानव निर्द्वन्द्व रहता है, राग, द्वेष
किसी से नहीं रहता। जिस काल में धर्म के चारों चरण हों उसे सतोयुग कहते हैं। जिस
काल में धर्म का एक पद समाप्त हो जाता है उसको हम त्रेता कहा करते हैं। जिस काल
में अग्नि प्रचण्ड हो, परन्तु कुछ सूक्ष्म हो। इसके पश्चात
द्वापर आ जाता है जिस काल में देव और दैत्यों की संख्या एक तुल्य हो जाती है, धर्म के दो चरण शेष रह जाते हैं, उसे द्वापर कहते
हैं। जिस काल में धर्म की मर्यादा वृद्ध होने लगती है, जैसे
मानव का बाल्य काल, युवा और मध्यम और उसके पश्चात् वृद्धपन
आता है, जिसमें आवरण ही शेष रह जाते हैं, इसी प्रकार यह कलियुग है। जिसमें मर्यादा का केवल एक पद ही रह जाता है और
अधर्म की मर्यादा बहुत अधिक होती है। रावण के पुत्र नारायन्तक ने भी इसकी ऐसी ही
व्याख्या की है। जिस काल में भौतिकता से ही कार्य होने लगता है,कालों से ही सब कार्य होने लगता है उस काल को कलियुग कहते हैं।
राजा रावण के अपूर्ण कार्य
यह नहीं कि सतोयुग, त्रेता
और द्वापर में कलों से कार्य नहीं होता था। रावण के राष्ट्र में इतना बड़ा विज्ञान
था, कि रावण का पुत्र नारायन्तक अपने यन्त्रों द्वारा
चन्द्रलोक तक पहुँच गए थे। राजा रावण इतना बड़ा वैज्ञानिक था,
जिसका कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता। मुनिवरों! जब राजा रावण समाप्त होने लगा और
जब उसके अन्तिम श्वास चल रहे थे, तो राजा राम से कहा,
“हे राम! अब तो मैं मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ, परन्तु मेरे दो चार ऐसे कार्य थे, जिनको मैं करने
वाला था। एक तो यह था कि अग्नि में जो धुआं उठता है यह न रहे। दूसरा यह था, कि चन्द्रमा में आने जाने का मार्ग बना दूं और तीसरा यह था कि काल को
अपने वश में कर लूं |परन्तु यह भी मेरे वश में न हो सका।
चौथा यह था कि पृथ्वी के नीचे अतल और वितल लोक हैं उनको जानूं। जल में जो नाना दोष
हैं, इन्हें भी यन्त्रों द्वारा खत्म करना चाहता था, परन्तु न कर सका, अब तो मेरा अन्तिम समय आ गया।
भगवन्! मैंने चन्द्र लोक को अच्छी प्रकार पाया है। मेरे राष्ट्र में यातायात बड़ा
अच्छा है। विमान आदि भी अधिक हैं। मेरे राष्ट्र में वैज्ञानिक यन्त्र भी आपने देखे
होंगे, अब तो सब समाप्त हो गए हैं।“ उस समय राम ने कहा,”
भाई! अब तो आपका अन्तिम समय होने वाला है, यह
कोई भी कार्य आपका पूर्ण न हो सकेंगा।“
मुनिवरों! आधुनिक काल का विज्ञान उतनी गहराई
तक नहीं पहुँचा है, जैसे हमें महानन्द जी के वाक्यों से
प्रतीत होता है। उन दिनों भौतिक विज्ञान इतना प्रबल था कि सब कार्य यन्त्रों
द्वारा होता था। यदि हम उसी को बेटा! कलियुग मान लें तो यह वाक्य कदापि सत्य नहीं
बैठता। यथार्थ यह है कि कलियुग नाम अज्ञान का है। जिस काल में अज्ञान होता है, उस काल को कलियुग कहा जाता है।
जिस प्रकार मानव की चार अवस्थाएं होती हैं,बाल्यावस्था,
युवावस्था, मध्यम अवस्था और वृद्धावस्था,
वृद्धावस्था में मानव की बुद्धि नहीं रहती, वह
क्लेशों में घिर जाता है, नाना प्रकार की अशांति उसके हृदय
में छा जाती है, जिस प्रकार मानव की परमात्मा ने ये चार
अवस्थाएं बनाई हैं, इसी प्रकार परमात्मा ने सृष्टि के ये चार
गुण बनाए हैं। इनको चतुर्युगी कहते हैं। यह इसी प्रकार परिक्रमा करती रहती है, जैसे मानव की अवस्थाएं। सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा ने इन सबकी अवधि
नियुक्त की है।
मुनिवरों! अभी -अभी हमारा आदेश क्या चल रहा
था? उस समय नेवले ने कहा, “भगवन्! यह
वाक्य तो आपका यथार्थ हो गया, परन्तु एक वार्त्ता और जानना चाहते
हैं कि जब इस काल का नाम कलियुग है तो आपके काल को क्या कहा जाए, जब दुर्योधन इन पाण्डवों को नष्ट करना चाहता था? उस
समय महाराजा कृष्ण ने कहा, “हे नेवले! तुम्हारा यह वाक्य
सत्य है परन्तु इसका तो यहाँ समाधान हो जाता है कि द्वापर के काल में देव और दैत्य
दोनों तुल्य माने गए हैं, इसी प्रकार यहाँ आधी प्रजा एक
दूसरे को नष्ट भ्रष्ट करने वाली तथा आधी परोपकार करने वाली हैं|” उस समय नेवले ने कहा, “महाराज! यदि आप दुर्योधन को
दैत्य मानेंगे तो आपका वाक्य कदापि सत्य नहीं होगा।“ महाराज कृष्ण ने कहा “अरे, नेवले! हम दुर्योधन को दैत्य नहीं मान रहे,परन्तु
वह दैत्य इसलिए माना जा रहा है क्योंकि वह हमारी वार्त्ताओं को स्वीकार नहीं करता
और अपने विधाताओं को नष्ट भ्रष्ट करना चाहता है। जो दूसरों को नष्ट करता है उसको
दैत्य कहा जाता है,उसे धर्मात्मा कदापि नहीं कहा जाता है।“
मुनिवरों! इन प्रश्नों को करने के पश्चात्
नेवला अपने स्थान को जाने लगा। उस समय महाराजा कृष्ण ने कहा, हे महान नेवले! हे महान् ऋषि! आप अपने स्थान में जाकर परमात्मा का चिन्तन
करो और यह चिन्तन न करो कि महाराजा युधिष्ठिर ने यज्ञ, कुछ न
किया। अब इतना तो हो रहा है आगे वह काल आने वाला है जब यह सब कुछ भी न होगा। इन
शान्तिदायक वार्त्ताओं को पा करके नेवला अपने स्थान पर चला गया। उस समय महाराजा युधिष्ठिर
ने महाराज कृष्ण से कहा, “मैंने यह यज्ञ कुछ नहीं किया।
भगवन्! नेवला यहाँ से अशान्ति को प्राप्त होकर गया है।“ उस समय महाराजा कृष्ण ने
कहा,” हे महाराजा युधिष्ठिर! यह सब कुछ यथार्थ है,जो तुमने यह उच्चारण किया| परन्तु वह काल उनके साथ
था, आज का काल हमारे साथ है। आधुनिक समय की नीति तो यह है कि
जैसा समय आए, वैसा करो| उसी में मानव
का विकास है।“ जब महाराजा कृष्ण ने ऐसा कहा तो महाराजा युधिष्ठिर शान्त हो गए।
तो मुनिवरों! जैसा हम कल व्याख्यान दे रहे थे, कि देव ऋषि नारद ने और भी आदि ऋषियों ने जो कुछ कहा वह यथार्थ ही कहा है।
बहुत से मनुष्य तो कहते हैं कि भविष्य की वार्त्ता कही नहीं जा सकती, परन्तु ऋषियों ने
भविष्य की वार्त्ता कैसे दी है? मुनिवरों! यह उन योगियों का
अनुमान था, अनुमान मिथ्या भी हो सकता है। उन्होंने जो कुछ
कहा है काल और मर्यादा के अनुकूल कहा है। परमात्मा ने जो काल, जो मर्यादा बनाई है, वह एक रस रहने वाली है। मानव की
मर्यादा बदलने वाली है। मुनिवरों! उनका कोई न कोई वाक्य नष्ट हो सकता है। परन्तु
मानव अपने अनुमान उच्चारण किया करता है।
मुनिवरों! महाराजा कृष्ण ने कलियुग की जो
व्याख्या की है, वास्तव में वह यथार्थ है| परन्तु यह
वाक्य निश्चय नहीं, कि उस काल में सब अज्ञानी रहते हैं। उस
काल में बुद्धिमान भी रहते हैं, दार्शनिक भी रहते हैं। हर
काल में हर प्रकार के मनुष्य रहते हैं। यह अवश्य हो जाता है,
कि किसी काल में धर्मात्मा अधिक बढ़ जाते हैं, तो किसी काल
में दैत्य। तो मुनिवरों! देखो, यह है आज का हमारा आदेश। हम
प्रारम्भ कर रहे थे, कि मानव के दो पक्ष हैं, कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष। एक अन्धकार का, दूसरा
प्रकाश का | एक आपत्तिकाल है ,दूसरा
उज्ज्वल होने का। एक पुण्य उदय होने का, दूसरा पाप उदय होने
का। पाप और पुण्य बेटा! हमारे अन्तःकरण में नियुक्त रहते हैं। जब मानव का पुण्य
उदय होता है, तो मानव का विकास होता चला जाता है| जब मानव के समक्ष पाप आता है, तो वह अधोगति में चला
जाता है। कर्मो के अनुकूल भोगना अनिवार्य हो जाता है।
मुनिवरों! कल हम जैसा महानन्द जी ने प्रश्न
किया है, कर्मो के विषय में व्याख्यान देंगे, कि मानव कैसे- कैसे कर्म करके, कहाँ का कहाँ भोगता फिरता है। अब हमारा यह व्याख्यान समाप्त हो गया है |आज के हमारे व्याख्यानों का अभिप्राय है कि हर काल में हर प्रकार के
व्यक्ति रहते हैं। हर काल में देव और दैत्य रहते हैं। कोई भी काल हो मानव को दृढ़
रहने की आवश्यकता है। अब हमारा व्याख्यान समाप्त हो गया | कल
समय मिलेगा तो द्वितीय व्याख्यान प्रारम्भ करेंगे। अब हमारा वेद पाठ होगा। इसके
पश्चात् हमारी वार्त्ता समाप्त हो जाएगी। (वेद पाठ)। रात्रि २ बजे बी.सी. पार्क,
सरोजनी नगर
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