Saturday, August 18, 2018


भगवान राम का विजय याग

जीते रहो,
देखो, मुनिवरों! अभी अभी हमारो पर्ययण समय समाप्त हुआ । हम तुम्हारे समक्ष वेदो का मनोहर गान गा रहे थे। ये  भी तुम्हें प्रतीत हो गया होगा, कि जिन वेद मन्त्रों का, अभी-अभी तुम्हारे समक्ष हमने पाठ किया, उन वेद मन्त्रों में कितनी निधि हैं, इनमें परमात्मा का कितना ज्ञान-विज्ञान छिपा हुआ है, जिस परमात्मा ने बेटा! हमारे लिए पौने दो अरब वर्ष पूर्व सब योजना नियुक्त की, उन योजनाओं को पाना तो बेटा! दूर, उन का उच्चारण करना भी हमारी बुद्धि से परे है । उस विधाता ने इतना महान, अलौकिक इस संसार को बनाया है कि इसका हम वर्णन भी नही कर सकतें
मुनिवरों! वेदमन्त्र में तो ऐसा कहा जा रहा था ,कि मानव जीवन को उच्च बनाने के लिए बहुत ऊँची योजनाओं की आवश्यकता है, आज मानव यह न मान बैठे कि हमारी कोई योजना नही है। बेटा! मानव के लिए सत्य असत्य को जानना ही मानव का सबसे बड़ा धर्म है।
अरे, मानव यह भी विचारों, कि परमात्मा के नियम, वे यौगिक नियम बुद्धि से परे माने जाते हैं।इसीलिए हे मानव! तू यह न मान बैठ, कि जो तेरी बुद्धि में नही आया वह असत्य है,कदापि नहीं, इसके लिए तुम अनुभव करो। योगाभ्यास करो। जीवन को उच्चा बनाओ, आत्मारूपी दर्पण पर आए नाना प्रकार के मलों को अच्छी तरह नष्ट करो। उसके पश्चात तुम्हें सब कुछ अनुभव हो जाएगा,फिर तुम सभी कुछ जान जाओगे, इसलिए बेटा! मानव का यह सबसे बड़ा कर्म देखो, परम तत्व  माना जाता है, सत्ता को विचारने के लिए, मुनिवरों! अपने को विचारा जाता है, कि मैं भी सत्य हूँ या नहीं? अरे, जब तक हम स्वयं सत्य नहीं बनेंगें, तब तक हम किसी सत्ता का, किसी प्रकार का निर्णय नही कर सकतें।

यज्ञ विधान और विज्ञान

आज मुनिवरों! देखो, संसार में इस प्रकार के बहुत से वाक्य हैं जो हमारी बुद्धि से पृथक हैं पृथक होते हुए भी वे हैं अवश्य और उनका अस्तित्व भी है। आज हमारे वेद पाठ में दो प्रकार के यज्ञों का वर्णन आ रहा था कि एक यज्ञ आत्मिक होता है और दूसरा भौतिक। अहा, भौतिक यज्ञ कैसे करें, इस पूजा को कैसे कल्याणकारी बनाएं यह ही मानव का विचारणीय विषय हैं हमारे आदि ब्रह्मा ने एक वाक्य कहा था कि बेटा! तुम संसार में जा तो रहे हो पर संसार की स्थिति तो जानो। वहाँ जाकर अपने उच्च विधान से कार्य करोगे तो तुम्हारा विधान उच्च रहेगा। अन्यथा तुम्हारा विधान सब सूक्ष्म बन जाएगा यदि प्रजा या एक दूसरे प्राणी को ऊँचा बनाना है तो पूर्व स्वयं ऊँचे बनो। यज्ञ करना है और यज्ञ द्वारा प्रजा को लाभ पंहुचाना चाहते हो, तो सबसे पूर्व यज्ञ को विधान से रचाओ। उन सब क्रियाओं से रचाओं, जो हमारे महर्षियों ने वर्णन की हैं और वेदों के अनुकूल हैं बिना विधान यज्ञ करने से यज्ञ ने करने के लिए बराबर होता है ।
मुनिवरों! एक समय हमारे महानन्द मुनि ने प्रश्न किया था कि यज्ञ की कितनी प्रकार की परिपाटी होती है और यज्ञ का कैसा विधान होता है आज वेद का वही प्रकरण आ गया है जो महानन्द जी ने अब से बहुत पूर्व प्रश्न किया  था तो मुनिवरों! आज का वेद पाठ यही उत्तर दे रहा है कि यदि यज्ञ रचाओं तो उसकी क्रियाओं को पूर्व ही जानकारी करों। सूक्ष्म यज्ञ रचाओ या विशाल यज्ञ, उसके लिए पहले से ही उच्च विधान बनाने की आवश्यकता है उसके लिए सुन्दर तथा महान योजना बनाओ। जिससे देखो, तुम्हारे लिए सभी प्रकार के देवता लाभदायक हो जिन्हें तुम आह्वान करके हव्य पदार्थ अर्पण करना चाहते हो, देखो, इससे हमारा वाक्य केवल यह नही कि आज हम हव्य से ही इस सुविधा को बनाएँ,ऊँची भावनाएं बनाओ, और ऊँची भावनाओं से देवताओं का अच्छी प्रकार पूजन करना चाहिए क्योंकि हम जब तक किसी ऊँचे व्यक्ति के लिए या ऊँचे देवताओं के लिए सुन्दर कार्य नही करते तब तक वह देवता हमें न कोई महत्व, न वाणी, न प्रकाश न प्राण ही प्रदान करेंगें।
 इसीलिए मुनिवरों! यह आज का वेदपाठ कह रहा था कि यज्ञ करो, तो विधान से करो और चुन कर करो। उद्गाता चुनो, अध्वर्यु चुनो, ब्रह्मा चुनो और महान यज्ञमान चुनो। मुनिवरों! यज्ञमान के विधान में ऐसा कहा गया है कि हमारे महर्षियों ने, आदि ब्रह्मा ने तथा महर्षि तत्त्वकेतु मुनि महाराज ने ऐसा कहा है कि यज्ञमान की धर्मपत्नी के बिना यज्ञ सफल नही होता। ऐसा ही बेटा! राजा रावण ने, राजा राम के यज्ञ कराते समय कहा था कि जब तक तुम्हारी धर्म पत्नी न होगी तब तक यज्ञ की क्रिया अच्छी प्रकार न होगी और हे राम! तुम्हारा यज्ञ कदापि सफल नही होगा, तो मुनिवरों! आज कैसे महानन्द जी प्रश्न कर रहे हैं कि उन्होंने यज्ञ किस प्रकार किया और कैसे किया ।
मुनिवरों! उसका कुछ सूक्ष्म-सा रूप, हम तुम्हारे समक्ष आज वर्णन कर रहें है कि यज्ञ, जो होना चाहिए वह विधान के अनुकूल ही होना चाहिए, जिससे मानव का जीवन ऊँचा बने। यह जो मानव का शरीर है यह भी एक प्रकार का यज्ञ है मानो देखो, आज तुम इस शरीर रूपी यज्ञ के लिए नाना प्रकार की अशुद्ध आहुतियां देते रहो, अशुद्ध भोजन देते रहो तो यह तुम्हारा शरीर रूपी यज्ञ नष्ट हो जाएगा और तुम्हारा जीवन भी नष्ट हो जाएगा, यदि तुम शरीर को अच्छा पदार्थ नही दोगे तो यह तुम्हें कदापि अच्छी बुद्धि नही देगा। तो मुनिवरों! जो तुम यज्ञ करो, उसमें संकल्प भी महान ऊँचे होने चाहिएं। जैसे परमात्मा ने हमारे शरीर को विधान से बनाया है इसमें वायु भी है, अग्नि भी है, अन्तरिक्ष भी है इनमें बेटा! जल भी है, पृथ्वी भी है, सब कुछ है| ये सब एक साथ कार्य करते हैं यदि मुनिवरों! एक भी विधान परमात्मा पृथक कर दे तो हमारे शरीर का बेटा! हरि ओ३म् तत्सत हो जाएगा, तो मुनिवरों! यह हमारा आज का आदेश था कि यज्ञ करो, तो विधान से करो देव यज्ञ करने की मनोइच्छा है तो प्रत्येक मानव, प्रत्येक देव कन्या को विधान से करना चाहिए।
मुनिवरों! अभी- अभी त्रेता के समय का  एक वाक्य हमारे कंठ आ गया है तो महानन्द जी ने बहुत पूर्व प्रश्न किया था वर्णन तो बहुत विशाल है इसका वर्णन अन्यत्र कहीं बड़ा विशाल होगा। अब तो तुम्हें केवल त्रेता के समय का वर्णन सुनाएं देते है। वह क्या है ? वह मानव के जीवन को ऊंचा बनाने वाला है आज प्रायः मानो महानन्द जी के कथनानुसार वह अशुद्ध माना जाता है परन्तु हम तो महर्षि बाल्मीकि जी के अनुकूल अपने कथन को प्रारम्भ कर रहे हैं| मुनिवरों! वह क्या है? महर्षि बाल्मीकि ने ऐसा कहा है कि बेटा! जब राजा राम अपने महान शिष्यगणों को लेकर, सुग्रीव की सेना को लेकर समुद्र तट पर जा पंहुचे, वहाँ उनके दो बहुत बड़े वैज्ञानिक थे जिनको बेटा! नल और नील कहते थे, जो देखो, शिल्प विद्या बहुत अच्छी प्रकार जानते थे, उन दोनों वैज्ञानिकों ने समुद्र का शेष बाँधना प्रारम्भ किया,तो मुनिवरों! इसके पश्चात ऐसा कारण बना, जिससे रावण को विदित हो गया कि राम संग्राम करने को विराज रहा है, इस पर वह विचारने लगा कि मुझे क्या करना चाहिए। बेटा! यह तो हमने तुमसे पूर्व ही वर्णन किया था कि राजा रावण बहुत ही बुद्धिमान था,वह चारों वेदों का ज्ञाता था, वह अपनी क्रियाओं को भली भांति जानता था।
राजा रावण और विभीषण की भगवान राम के विषय  में चर्चाएँ
तो मुनिवरों! हमने कुछ ऐसा सुना है, कि रावण ने अपने विधाता विभीषण को कंठ किया और मन्त्री से कहा- जाओ, आज विभीषण को, मेरे समक्ष लाओ, उनसे कुछ वार्त्ता उच्चारण करूंगा”| तो उस समय बेटा! वह मन्त्री जी बहते हुए विभीषण के द्वार पर जा पंहुचे, उस समय विभीषण ने कहा आज कैसा सौभाग्य है ,जो मेरे विधाता ने, जो परमात्मा के बड़े विरोधी हैं, मुझे कंठ किया है| मैं तो परमात्मा का बड़ा प्रिय हूँ उस समय अपना सौभाग्य मनाते हुए राजा रावण के समक्ष जा पंहुचे। राजा रावण ने कहा “आईए, विधाता! विराजिए| तब विभीषण ने कहा मेरे योग्य क्या सेवा है? विधाता! आप तो परमात्मा के विरोधी हैं, आपने आज परमात्मा के भक्त को अपने समक्ष बुलाया है, यह क्या बात है?
उस समय रावण ने कहा- नही-नही विधाता! मैं तुमसे कुछ प्रार्थना कर रहा हूँ, मेरी एक इच्छा है आज राम मुझसे संग्राम करने आ रहा है, पूर्व तो मैं यह जानना चाहता हूँ, कि तुम प्रिय परमात्मा के भक्त हो, नित्य प्रति ओ३म् का जप किया करते हो, मैं यह जानना चाहता हूँ कि मैं राम से विजय पा सकता हूँ या नहीं? उस समय बेटा! विभीषण ने कहा था कि “हे भगवन! आप सात जन्म भी धारण करेंगें, तब भी राम से विजय प्राप्त नहीं कर सकते।“
उस रावण ने कहा- यह कैसे हो सकता है?
उस समय विभीषण ने कहा- “विधाता! वह जो राम है, वह बड़े वैज्ञानिक हैं, बड़े बलवान हैं”
रावण ने कहा- “अरे, हम भी तो वैज्ञानिक हैं”
उस समय विभीषण ने कहा-“महाराज! आपके विज्ञान और उनके विज्ञान में कुछ भिन्नता है ।
“क्या भिन्नता है’?
हे विधाता! राम के द्वारा दोनों ही पदार्थ हैं देखो, आत्मिक सत्ता भी है, वैज्ञानिक सत्ता भी दोनों सत्ताओं से वह तुम्हें विजय कर सकता है।
उस समय रावण ने कहा कि तो हमें क्या करना चाहिए?
उस समय विभीषण ने कहा-मेरी इच्छा तों यह है देखो यह तो पूर्व हरी नियम है, कि जिस राजा के राज्य में दुराचार होता है या जो राजा किसी कन्या या देवी का हरण करता है उस राजा का राज आज नही तो कल अवश्य समाप्त हो जाता है| भगवन! आपका तो विनाश होने वाला है, यह तो मुझे पूर्व ही विदित हो रहा है, यदि आप मेरी याचना को स्वीकार करें, तो विधाता! माता सीता को ले जाईएं और राम के चरणों को जाकर स्पर्श कीजिए। वे आपको अवश्य तथास्तु करेंगें।
उस समय जब रावण ने अपने विधाता से यह वाक्य सुना, तब उसने क्रोध में आ कर कहा अरे! विधाता! तुम मेरे विधाता नही, शत्रु हो| क्या, मैं अपने शत्रु के चरणों को स्पर्श करूं?
उस समय बेटा! देखो, जब विनाश का समय आता है तब बुद्धि उसी प्रकार की बन जाती है बेटा! रावण ने अपने पदों की ठोकर से अपने विधाता को ठुकराना प्रारम्भ कर दिया ।
उस समय विभीषण ने कहा- नहीं विधाता! “मैं आपके हित की बात कर रहा हूँ|”
उन्होंने कहा_ “अरे, मैं हित की बात नही चाहता, जाओ, तुम भी वही चले जाओ जिसकी तुम बात कर रहे हो।“
भगवान राम की शरण में विभीषण  
मुनिवरों! देखो! उस समय जब रावण ने उन्हें अपने राष्ट्र में न रहने दिया, तब वह बहते हुए  समुद्र पार कर पर राम के समक्ष जा पंहुचे। राम ने उनका सब परिचय लिया। विभीषण ने अपने जीवन की जो महान घटनांए थी, उन सब की वर्णन किया और कहा- “महाराज! मैं आपकी शरण आया हूँ” तब राम ने अपनी शरण दे दी।
 बेटा! वह वहाँ बड़े आनन्द पूर्वक रहने लगे। कुछ समय के पश्चात राम ने विभीषण से कहा हे विधाता! मैं एक वार्ता जानना चाहता हूँ, आप रावण के विधाता हैं| मैं रावण से संग्राम करने जा रहा हूँ, “क्या मैं उससे विजय पा सकूंगा?”
उस समय उन्होंने कहा- हे विधाता! हे राम! आप मेरी अनुमति लेते हैं, तो मेरी यह अनुमति है कि आप सात जन्म भी धारण करेंगें, तो भी रावण से विजय न प्राप्त कर सकेंगें
उस समय राम ने कहा- “यह क्या है, क्यों विजय नही पा सकूंगा? क्या विशेषता है उसमें?
उस समय विभीषण ने कहा- हे राम! वास्तव में रावण के पुत्र नारायन्तक आदि बड़े बलवान हैं, इसके अतिरिक्त रावण भी बड़ा ज्ञानी और बलवान तथा वैज्ञानिक हैं, उसके पुत्रों! में भी यही विशेषताएं है राजा रावण का पुत्र नारायन्तक बड़ा वैज्ञानिक है, उसने विज्ञान के महान यन्त्रों की खोज की है, वह तुम्हारा विनाश कर देगा| इन सबको भी त्याग दिया जाएं, तो इसके पश्चात रावण के गुरु शिव महाराज हैं जो कैलाशपति हैं।
 शिव
बेटा! शिव किसको कहते हैं? शिव तो परमात्मा को कहा जाता है| परन्तु यहाँ तो बेटा! ऋषि बाल्मीकि के कथनानुसार ऐसा उच्चारण किया जाता है, कि राजा शिव जिसका संस्कार राजा हिमाचल के द्वारा माता पार्वती के समक्ष हुआ था, वह कैलाशपति थे। जिसकी प्रजा कैलाश के तुल्य हो और प्रजा महान हो, मुनिवरों! उस समय राजा का नाम शिव होता है जिस राजा के राष्ट्र में ज्ञान एवं विज्ञान से, आत्मिक बल से, वेदों के स्वाध्याय से जिसकी प्रजा बहुत ऊँची हो, जिसके राष्ट्र में देव कन्याएं और मानव बहुत उच्च भावना बाले हों अर्थात कैलाश पर्वत जैसी ऊँची भावना वाली प्रजा हो, बेटा! उस राजा के स्वामी को शिव कहा जाता है।
मुनिवरों! शिव तो परमात्मा को कहते हैं, और सूर्य नाम शिव का भी है, जो हम पूर्व ही उच्चारण कर चुके हैं| आज तो कोई प्रकरण नही चल रहा है, तो मुनिवरों! हमारे यहाँ महान आचार्यों का एक विचार बना हुआ है, जो मुनिवरों! उनके गुण कर्मों के अनुकूल है| तो देखो, मुनिवरों! राजा रावण के गुरु राजा शिव थे, जिनकी प्रजा बहुत ऊँची थी, बहुत वैज्ञानिक थीं| ऐसा राजा, जो रावण की सहायता करता हो, उस राजा की विजय क्यों नहीं होगी हे राम! रावण के समक्ष चाहे जितने राम आ जाएँ तब भी आप रावण को संग्राम में विजय नही पा सकोगे| उस समय राम ने कहा तो “हे विधाता! मुझे क्या करना चाहिए? मुझे जो विजय पानी ही है। उन्होंने कहा -भगवन! आप अजयमेध यज्ञ कीजिए और यदि यज्ञ विधान द्वारा किया गया, तो आपकी विजय अवश्य होगी| उस समय राम ने कहा-“ मैं अवश्य करूंगा” क्या शिव मुझसे प्रसन्न हो जाएंगें?
उस समय बेटा! विभीषण ने कहा- “विधाता! यदि आप अजयमेध यज्ञ करेंगें और शिव को निमन्त्रण के अनुकूल नियुक्त करोगे, तो महान शिव अवश्य ही आप सब के समक्ष आ जाएंगें। आप, अवश्य विजय पा जाएंगें।
 विजय यज्ञ का ब्रह्मा राजा रावण
उस समय बेटा! राम ने विभीषण के आदेशानुसार वहाँ सब सामग्री जुटाना प्रारम्भ कर दिया, जब सब सामग्री, घृत्त आदि वहाँ एकत्रित होने लगा, बुद्धिमानों को आमन्त्रित किया गया| उस समय विभीषण ने कहा कि –“हे राम! यदि यह सब सामग्री भी जुट जाएं, परन्तु जब तक यज्ञ का ब्रह्मा रावण नही बनेगा, तब तक आपका यज्ञ सफल नही होगा |”
उस समय राम ने कहा –विघाता! यह कैसे होगा, मेरा शत्रु ,मेरे समक्ष आएगा ?
उन्होंने कहा-कि देखो, रावण इतना ज्ञानी है वास्तव में तुम निमन्त्रण देने जाओगे, तो वह स्वयं आ जाएंगे और तुम्हारे यज्ञ को अवश्य सफल करेंगें।
मुनिवरों! महर्षि बाल्मीकि जी ने यह ऐसा वर्णन किया है, कि विभीषण वहाँ से अपने स्थान पर चले गए। वहाँ सब सामग्री जुट जाने के पश्चात बेटा! राम और लक्ष्मण ने रावण को निमन्त्रण देने की योजना बनाई। दोनों वहाँ से बहते हुए रावण के द्वार पर जा पंहुचे। रावण ने बेटा! इससे पूर्व राम को कदापि नही देखा था, इसीलिए बेटा! रावण को उनकी कोई पहचान न हो सकीं, इस समय रावण अपने न्यायालय में विराजमान होकर न्याय कर रहा था| उस समय के न्याय को पाकर राम ने लक्ष्मण से कहा-“ रावण तो बड़ा नीतिज्ञ है|” देखो, कैसा सुन्दर न्याय कर रहा है| धन्य है। विधाता को निमन्त्रण दें, तो कैसे दें? उस समय वह वहाँ कुछ समय शान्त विराजमान हो गए। न्यायालय में जब रावण का न्याय समाप्त हो गया, तब वे उनके समक्ष पंहुचे।

राम के आमन्त्रण पर रावण का धर्माचरण

उस समय रावण ने कहा- “कहिए भगवन्! किस प्रकार बहते हुए आए हैं, क्या याचना है?”
उन्होंने कहा- “भगवन! हम एक अजयमेध यज्ञ कर रहे हैं, वेदों के अनुकूल आप हमारे यज्ञ को पूर्ण कीजिए|”
रावण ने कहा-“ तथास्तु” जैसी तुम्हारी इच्छा होगी, वैसा ही किया जाएगा।
उस समय राम ने कहा भगवन! समुद्र तट पर यज्ञ हो रहा है, और हम आपको निमन्त्रिण कर चुके हैं ,हे विधाता! हम कल नही आ सकेंगे, तृतीय समय में आप स्वयं वहाँ विराजमान हो जाना।
उस समय बेटा! रावण ने देखो, राम की उस याचना को स्वीकार कर लिया। वहाँ से दोनों विधाता! बहते हुए समुद्र तट पर आ पंहुचें
मुनिवरों! अब हमने महर्षि बाल्मीकि के मुखारबिन्दु से ऐसा सुना है, और हमारे महर्षि लोमश मुनि महाराज ने ऐसा देखा भी हैं कि जब राम और लक्ष्मण दोनों अपने स्थान पर पंहुच गएं, तो वहाँ उन्होंने यज्ञ की सब सामग्री घृत्त आदि एकत्रित किया और बड़ी सुन्दर यज्ञशाला बनाई, ऐसी सुंदर यज्ञशाला बनाई जिसका वर्णन नही किया जा सकता।
मुनिवरों! ऐसा विदित होने लगा, जैसे ब्रह्मलोक से ब्रह्मा आ पंहुचा हो। अब देखो, द्वितीय समय भी समाप्त हो गया तृतीय समय आ पंहुचा। अब रावण की वहाँ प्रतीक्षा होने लगी, कुछ समय के पश्चात बेटा! रावण भी अपने पुष्प विमान में विद्यमान हो करके उस महान भूमि पर आ पंहुचे जहाँ राम ने यज्ञशाला का निर्माण किया था। मुनिवरों! वह वहाँ आ पंहुचे, तो उन दोनो विधाताओं ने उनका बड़ा स्वागत किया और बेटा! राम ने उन्हें अजयमेध यज्ञ का ब्रह्मा नियुक्त कर दिया।
मुनिवरों! ब्रह्मा चुने जाने के पश्चात, जब वहाँ यज्ञोपवीत धारण किए जाने लगे, तों उस समय रावण ने उन सब का परिचय लिया। उस समय उन्होंने कहा-भगवन! हमें राम कहते हैं, हमें लक्ष्मण कहते हैं| जब उन्होने अपना व्यक्तित्व उच्चारण किया,तो रावण बड़े आश्चर्य में रह गया । अरे, यह क्या हुआ| यह जो बड़ा आश्चर्यजनक कार्य हुआ, उस समय उन्होंने कहा अरे, चलो, जब इन्होंने तुम्हें ब्रह्मा चुना है, तो तेरा कर्तव्य है कि विधि विधान से यज्ञ पूर्ण कराऊं। उस समय उन्होंने कहा-“ धन्यवाद! अहां तुम्हारी धर्मपत्नी कहाँ हैं?”
उस समय कहा-“ विधाता! मेरी धर्मपत्नी तो आपके गृह, लंका में हैं| उस समय मुनिवरों! रावण ने कहा अरे, मैंने यज्ञ को विधान से नही किया, तो मैं देवताओं का महापापी बन जाऊंगा। मुझे अजयमेध यज्ञ करने का ब्रह्मा इन्होंने बनाया है| मुझे परमात्मा ने बुद्धि दी है, मेरा कर्तव्य केवल एक ही है कि देखो मैं सीता को लाऊं और यज्ञ को विधान से पूर्ण करूँ |
यज्ञ के विधान के लिए सीता का यज्ञ में आगमन  
महर्षि बाल्मीकि ने ऐसा कहा है कि वह वहाँ से अपने पुष्पविमान में विद्यमान होकर के लंका में सीता के द्वार जा पंहुचे, और सीता से कहा-“ हे सीते! तेरा स्वामी यज्ञ रचा रहा है, समुद्र तट पर चलो।“ उस समय सीता ने कहा-“ हे रावण! आप नित्यप्रति मिथ्या ही उच्चारण किया करते हो?”
“नहीं, सीते! मुझे तेरे स्वामी ने उस यज्ञ का ब्रह्मा चुना हैं “
सीता ने जब इस आदेश को पाया, तो प्रसन्न हो गई और उसके पुष्पविमान में विद्यमान हो, उसी स्थान पर जा पंहुचे, जहाँ विशाल अजयमेध यज्ञ करने का विधान बनाया गया था| वहाँ जाकर बड़े आनंद से सीता, राम के दक्षिण विभाग में विद्यमान हो गई और रावण अपने दक्षिण विभाग में यज्ञ का ब्रह्मा बन गया। उसके पश्चात यज्ञ आरम्भ होने लगा।
मुनिवरों!जब तक विधान से ऋत्विक नहीं चुने जाएंगे चाहे कैसा भी यज्ञ हो वह लाभदायक नही होगा |तो वहाँ आनंद पूर्वक ऋत्विक चुने गए |वहाँ देखो,अध्वर्यु आदि भी चुने गए |यज्ञोपवीत धारण किए और यज्ञ आरंभ होने लगा |
तो मुनिवरों! हमने ऐसा सुना हैं, कि महर्षि बाल्मीकि के अनुसार तथा महर्षि लोमश मनि के निर्णय अनुसार उन्होंने यज्ञ को देखा था, कि यह यज्ञ इसी प्रकार चलता रहा।
मुनिवरों! जिस समय यज्ञ की पूर्णाहुति होने वाली थी, उस समय सीता ने राम से कहा- “हे राम! आप यज्ञ को रच रहें हैं, परन्तु रावण के लिए आपके पास कुछ दक्षिणा भी है या नहीं?”
तब राम ने सीता से कहा- “हे सीते! मेरे पास क्या है, मैं उन्हें क्या दक्षिणा दूं?”
सीता ने कहा- विधाता! यह तो बड़ा द्रव्यपति राजा है, इसके यहाँ तो स्वर्ण तक के गृह हैं, मणियों के ढेर लगे रहते हैं। तो यह कार्य कैसे सम्पूर्ण होगा?
“तो मैं क्या करूं?”
तो उस समय बेटा! देखो, सीता ने क्या किया, उसके पास एक कौड़ी जूड़ा था, वह उसने राम को दिया ओर कहा –लीजिए महाराज!आप ब्रह्मा रावण का स्वागत इससे कीजिए।“
देखो, बेटा! सीता का यह कौड़ी जूड़ा राम ने स्वीकार कर लिया।
अब मुनिवरों! देखो, यज्ञ चलता रहा, पूर्णाहुति होने के पश्चात वहाँ बेटा! यथाशक्ति स्वागत होने लगा। राम और सीता दोनों उस कौड़ी जुड़े को लेकर रावण के समक्ष जा पंहुचे| रावण ने कहा- “हे राम! मुझे विदित होता है, जैसे यह कौड़ी जूड़ा सीता का हो|” उस समय सीता ने कहा- “विधाता! यह कौड़ी जूड़ा मेरा क्या है, यह तो शुभ कार्य है। यह तो मेरे पिता दशरथ ने किसी समय मेरे लिए आभूषण बनवाया था| आज यह आपके इस शुभकार्य में आ गया। मेरा क्या है”, उस समय रावण ने कहा- “हे सीते! मुझे तुम्हारी यह दक्षिणा स्वीकार है। परन्तु मैं किसी के शृंगार को भ्रष्ट नही करना चाहता।“ जब मुनिवरों! रावण ने यह वाक्य कहा, तो प्रजा सन्न रह गई और कहा अरे, रावण तो बड़ा बुद्धिमान हैं उस समय बेटा! वहाँ यज्ञ पूर्ण हो गया| पूर्ण होने के पश्चात रावण न कहा था-“ हे राम! विदित होता है, कि तुम्हारी मनोकामनाएं अवश्य पूरी होंगी।“
आशीर्वाद देकर सीता से कहा-“हे सीते! यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो तुम अपने पति की सेवा करो| नही, तो मेरी लंका को चलो।“
धर्म और यज्ञ
उस समय सीता ने कहा- “हे विधाता! आज से तो तुम मेरे पिता ब्रह्मा बन गएं हो। मुझे तो यहाँ भी ऐसा और वहाँ भी ऐसा। भगवन! मैं आपके द्वारा चलूंगी।“
मुनिवरों! इसका नाम धर्म है, राम ने भी यह नही कहा कि सीते! तुम कहाँ जा रही हो, तब वह बेटा! रावण के साथ पुष्प विमान में विद्यमान हो गई। रावण ने उस समय ऋग्वेद का मन्त्र उच्चारण करते हुए सीता से कहा था- हे सीते! आज मुझे विदित होता है, कि अब मेरे विनाश का समय आ गया है, मेरी लंका नष्ट भ्रष्ट होने वाली हैं
सीता ने कहा- “हे विधाता! आप इतने व्याकुल क्यों हो रहे हैं?” उन्होंने कहा- हे सीते! मेरी जो महान प्रजा है, वह समाप्त होने वाली हैं, जो देखो, महान शत्रु बना बैठा हैं, जिसने शत्रु को अपना लिया है और अपना कर उसको ब्रह्मा बना करके, उसकी आत्मिक ज्योति को खींच लिया। हे सीते! उसकी मनोकामना क्या पूरी नहीं होगी। आज मुझे विदित होता है कि मुझे यह यज्ञ पूर्ण नही करना था यज्ञ पूर्ण होने से मुझे विदित हो गया, कि मेरी लंका में एक भी मानव नही रहेगा”। यह वाक्य उच्चारण करते हुए रावण बड़े शोक से युक्त हो गया।
यह है बेटा! आज का हमारा आदेश। हम उच्चारण कर रहे थे, कि मानव को अगर दूसरे को लाभ पंहुचाना है, दूसरों की उन्नति पर पंहुचाना है, तो उस यज्ञ को, उस महान कार्य को विधान से करो। वेद मन्त्रों को जानो और उनको जानकर उनके अनुकूल आचरण करो। महान यज्ञ को रचाओ। शुभ कार्य करो। यदि यज्ञ विधान से नही किया गया है तो वह कदापि सम्पूर्ण नही होगा। तो मुनिवरों! यह हमारा केवल नवीन मत नही हैं, यह तो उनका मत है, जिन्होंने बेटा! यज्ञ को सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न किया।
अरे, देखो, यह तो तुम्हारी बुद्धि में आने वाला वाक्य हैं कि परमात्मा ने जब सृष्टि प्रारम्भ की, तो आत्मा के अनुरोध से की, यदि परमात्मा विधान से इस सृष्टि को न बनाता, तो यह संसार इस प्रकार नही चल सकता था| जैसा आज चल रहा है| परमात्मा ने इस सृष्टि रूपी यज्ञ को उत्पन्न किया।
 आज हम मनुष्य रूपी यज्ञ को उत्पन्न करें, आज हम भौतिक यज्ञ करें। देवताओं को सुगन्धित हव्य पंहुचाएं। देवताओं को पौष्टिक पदार्थ प्रदान करें । यह हमारा कर्तव्य है। आज हम विशेष यज्ञ के ऊपर ही प्रकाश दे रहे हैं। हमारा वेद पाठ यही कह रहा है कि यज्ञ को पूर्ण करो, और पूर्ण विधान से करो। धर्म से करो, अधर्म से मत करो। दुर्भावना से न करो।
देखो, जिस पद के तुम अधिकारी हो या तुम्हें चुना गया है, वह चाहे तुम्हारे लिए हानिकारक हैं, परन्तु तुम्हारा कर्तव्य है कि उसका पूर्ण रूपेण पालन करो, उसको हानि न पंहुचाओ। यदि हानि पंहुचाओगे तो तुम्हें कोई भी लाभ प्राप्त न होगा।
पूज्य महानन्द जीः “धन्य हो भगवन!”
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! अभी अभी हम व्याख्यान दे रहे थे कि देखो, कल हमारा दार्शनिक विषय चल रहा था और कल भी दार्शनिक विषय चलेगा। दार्शनिक विषय यह चलेगा कि देखो, कल यह वर्णन करेंगें कि वास्तव में बृहस्पति लोक की क्या स्थिति होती है, आज तो हमारी केवल व्यवहार की वार्त्ता चल रही थी, कि मानव को कार्य करने से पूर्व उसका महान विधान बना लेना चाहिए जैसा राजा रावण ने बनाया| चाहे आपत्ति आएँ, चाहे जीवन समाप्त हो जाएं, परन्तु उसका साकल्य पूर्ण बनाओ| जिस पद के अधिकारी हो, उसे पूर्ण करो| ऊँचे कर्तव्य से करो। जीवन की योजना को ऊँचा बनाओ। शरीर रूपी यज्ञ को भी जानते रहो, शरीर रूपी यज्ञ में जो महान यज्ञमान यह आत्मा है, जो आत्मा को प्रेरणा दे रहा है, वह संसार रूपी यज्ञ को उत्पन्न करने वाला है, उसका यज्ञमान बना बैठा हुआ है आत्मा, आज आत्मा को जानो। आत्मा को पहचानो| परन्तु आत्मा तभी जानी जाएगी जब तुम शुद्ध रूप से यज्ञ रचाओगे| ऊँचे कर्म करोगे, तभी तुम्हारी आत्मा बलवान होगी। जैसे राजा राम ने शुभ कर्म किए, जिससे उनकी आत्मा बलवान हो गई और देखो, महान रावण को सहज ही विजय कर लिया।
अहा! कैसा सुन्दर वेद पाठ था। कैसा सुन्दर आदेश था महर्षि बाल्मीकि मुनि महाराज ने भी क्या महान वाक्य कहे और राजा रावण ने भी सुन्दर वाक्यों से वर्णन किया।
क्या करें बेटा! ज्ञान तो बड़ा ही विशाल है| ज्ञान-वन में पंहुचने पर तो विदित ही नही होता, कि कितना बड़ा है यह, मुनिवरों! वेदों का तो ज्ञान ही विशाल है| आज वेदों पर दृष्टि पंहुचाई जाती है, तो इसका बहुत ही उच्च प्रकरण आता है|
देखो, कल के व्याख्यान में हम तुम्हें बृहस्पति का वर्णन करेंगें। तब तुम्हें विदित होगा, कि वेदों में कितनी निधि है और मानव कहाँ का कहाँ जा सकता  है क्या मानव की स्थिति होती है, यह जो एक सूक्ष्म सी वार्त्ता है, जो तुम्हारे समक्ष उच्चारण की। देखो, हमारा दार्शनिक विषय किसी- किसी स्थान पर आता है बेटा! अब हमारे आदेश समाप्त होने वाले हैं क्योंकि समय भी समाप्त हो गया है।
पूज्य महानन्द जी -“अच्छा धन्यवाद,गुरु जी!वह जो हमने आपसे प्रश्न किया था उसका अभी तक आपने हमे कोई भी उत्तर नही दिया|”
पूज्यपाद गुरुदेव –कल ही प्रश्नों का उत्तर दे देंगे बेटा !”
पूज्य महानन्द जी -“अच्छा धन्यवाद!”
पूज्यपाद गुरुदेव-तो मुनिवरों !अभी -अभी हम महानन्द जी के प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे |अभी यज्ञ का प्रकरण आ रहा था |कल हमारा अश्वमेध यज्ञ का प्रकरण है ,अश्वमेध यज्ञ का वर्णन करेंगे और कुछ लोकों की वार्ता और दार्शनिक विषय होगा |अब हमारा वेदपाठ होगा|इसके पश्चात हमारी वार्ता समाप्त हो जाएगी |”धन्यवाद!


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