Monday, August 20, 2018


वर्ण व्यवस्था

1   ०७ ०३ १९६२

जीते रहो! देखो, मुनिवरों! अभी अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ| हम तुम्हारे समक्ष पूर्व की भांति, कुछ मनोहर वेद- मन्त्रों का गुणगान गाते चले जा रहे थे, ये भी तुम्हें प्रतीत हो गया होगा, कि जिन वेद मन्त्रों का अभी -अभी तुम्हारे समक्ष पाठ किया, जैसा हम पूर्व स्थान में उच्चारण कर चुके हैं| कि वेदों का पाठ कई प्रकार से उच्चारण किया जाता है| जैसे माला पाठ होता हैं, घन पाठ होता हैं जटा पाठ होता हैं और विसर्ग पाठ होता है उदात्त और अनुदात्त का विलग और दोनो की सन्धि करके भी पाठ किया जाता हैं| जटा पाठ तो हम नित्य प्रति किया करते हैं परन्तु धन पाठ ऐसी मनोहर शैली से किया जाता हैं बेटा कि मार्ग के सिंह तक आकर उस गान को सुना करते हैं| अहा, किसी स्थान पर अवसर मिलेगा, तो उच्चारण करेंगें| वास्तव में तो कर्मों के अनुकूल वेदों का उच्चारण उस प्रकार नही किया जाता, जिस प्रकार वेदों का स्वाध्याय किया और जो वास्तविक हमारी धुन थी| उस ध्वनि से हम वेदों का पाठ कदापि नही कर सकते |परन्तु वेदों ने, हमारे विद्वानों ने और हमारे आदि आचार्यों ने भी ऐसा कहा है कि न करने से कुछ उच्चारण करना भी विशेष माना गया हैं|” जैसा भी काल आए उसके अनुकूल ही वाणी से उच्चारण होना अनिवार्य हो जाता हैं
बेटा! देखो, वेदों का गान गाते समय अमृत की धारा बह रही थी, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे परमात्मा हमें कुछ देन दे रहे हों, बेटा! वेद ईश्वरीय ज्ञान होने के नाते, जो प्रकाश है, वह ईश्वर की देन हैं| आज जब हम ईश्वर का गुणगान गाते है तो हृदय मुग्ध हो जाता हैं, क्योंकि आत्मा उस परमात्मा का बालक है| जैसे बेटा! योग्य माता का बालक, माता की प्रशंसा करता हुआ, मुग्ध हो जाता हैं और प्रशंसा करता ही रहता है| इसी प्रकार वेदों का ज्ञान जो ईश्वरीय ज्ञान है और आत्मा का भोजन है, को गाते गाते आत्मा मुग्ध हो जाता है, अन्तःकरण पवित्र होने के लिए चला जाता हैं| न जाने मानव के हृदय में कहाँ से ज्योति जाग्रत होने के लिए प्रविष्ट हो जाती हैं|
महाराजा शिव पुत्र गणेश
अहा! हमारा यह विषय नही था, जो आज प्रारम्भ होने लगा आज| गणेभ्योः देखो, गणपति के नाम का कई स्थानों पर वर्णन आया| गणपति बेटा! परमात्मा को कहा जाता हैं| जो सर्वगणों में गणपति माना जाता हैं जो संसार में गणना के तुल्य है, उस विधाता को देखो, बेटा! गणेशायते कहते हैं|
मुनिवरों! गणेश मानव को भी कहते है| महाराजा शिव, जिनका राज्य हिमाचल में हुआ, उस माता पार्वती का पुत्र भी गणेश था| उससे पूर्व बेटा! गणेश उपाधि मानी जाती थी| परन्तु वेद गान में कहा “गणपति भ्रानचते विश्वायते रूपायणम” वास्तव में गणेश उसको कहते हैं जो गणेति हो, गणेति करने वाला हो, जो महान देखो अयुक्त रहने वाला हो| जिसको न राग हो, न द्वेष हो| जिसकी घ्राण शक्ति अधिक हो| जो सब गन्ध व सुगन्ध को अपने में धारण करने वाला हो, उसको गणेभ्योः कहते हैं |परमात्मा सबसे बड़ा गणपति माना गया हैं| परमात्मा संसार की सुगन्ध को अपने में धारण करता रहता हैं|
 एक समय माता पार्वती ने अपने स्वामी से कहा- हे महाराज! हमारा जो यह बालक हैं। जिसको हम गणेश कहते हैं यह हमारे गर्भस्थल से उत्पन्न हुआ है, इसकी घ्राण शक्ति बहुत अधिक हैं| घ्राण शक्ति अधिक होने के नाते यह तो ऐसा है जैसे इसमें परमात्मा के विशेष गुण हो यह तो बहुत संस्कारों वाला हैं| इसको हमने कदापि युवावस्था तथा रजोगुण में नही देखा, सम्प्रति इसमें तीनो गुणों का भास होता हैं या नही?इसका क्या कारण है ?
बेटा! हमने उस त्रेता काल को देखा है, जिस काल में महाराजा शिव और पार्वती थी| उस काल में मुनिवरों! माता पार्वती अपने सत्संगों में अपने पुत्र गणेश की प्रशंसा अवश्य किया करती थी।
आज हमारे वाक्यों को अभिप्रायः क्या है, वह यह कि जैसे देखो, यह गणेभ्योः वह परमात्मा महान गन्ध सुगन्ध को धारण करने वाला है, ऐसा ही प्रत्येक मानव को बनना चाहिए| यदि कोई मानव कटुवचन भी उच्चारण कर जाएं, उसको सहन कर लेना चाहिए और सहन करके उस पर मनन करना चाहिए| मुनिवरों! आचार्यों ने ऐसा कहा है, कि जो मानव दूसरों को हानि पंहुचाने का प्रयत्न करता है, वह स्वयं हानि का पुतला बन करके नष्ट भ्रष्ट हो जाता है| वेद का गान भी ऐसा ही कह रहा था| परन्तु वेदों का व्याख्यान कहाँ तक देवें। वेदों में तो विशाल ज्ञान का भण्डार भरा पड़ा हैं बहुत काल हुआ जब वेदों का स्वाध्याय किया था, इसीलिए आज भी वह हमारे सामने निधि है|
आज महानन्द जी के कथनानुसार तो संसार बहुत अधोगति की और चला गया हैं| आज मानव को विचार लगा लेना चाहिए, कि हमें किस प्रकार का बनना हैं, हमारा जीवन कितना अलौकिक है, और हमारे महान आचार्यों ने कैसे अलौकिक जीवन को माना है
मुनिवरों! देखो, महाराज शिव ने एक समय अपने पुत्र गणेश से कहा- “हे पुत्र गणेश! तुम अपने अन्तःकरण की भावनाओं का उच्चारण करो| यह क्या विशेषता है, जो हम तुम्हें रजोगुणी नही देख पा रहे हैं?
उस समय उन्होंने कहा- हे भगवन! जब मैंने संसार में जन्म धारण किया है, तो संसार में ही रहना हैं आप जैसे बुद्धिमान माता पिता मिले है, फिर भी यह मन देखो, नाना प्रकार की तुच्छताओं में निवास करता है और अच्छी भावनाएं भी सोचता हैं| हे भगवन! इसीलिए हम यही विचारते हैं कि मन से अच्छी वार्त्ता ही करें| जब मन से अच्छी वार्त्ता विचारते रहते है तब भगवन! देखो,उसके रजोगुण आने का कोई कारण ही नही बनता| भगवन!देखो जन्म धारण करते ही जिह्वा पर ओ३म् की रेखा खींची जाती हैं, उस रेखा में हमें बांध दिया और वह रेखा हमारे समक्ष है।
मन –रसना तत्व
इस रसना का सम्बन्ध मन से है इसीलिए यदि ओ३म् शान्त हो जाएगा तो हमारा जीवन ही शान्त हो जाएगा| ओ३म् हमारा सबसे मुख्य जीवन माना गया हैं| इसका भगवन! वेदों में बड़ा महत्व है|हे भगवन! जब नामकरण संस्कार होता  हैं उस समय माता पिता कहा करते हैं कतमो असि कहाँ  से आए हो? उस समय हम कहते हैं कर्मों का भोग भोगने के लिए आए हैं बाल्यावस्था में उसे ज्ञान तो नही रहता, परन्तु उसे उच्चारण का कुछ ध्यान तो रहता ही है| उस काल में शब्द ध्वनि बन जाती हैं, ध्वनि बन करके हम कर्मों का भोग भोगने के लिए आए हैं| इसीलिए आज हम भगवन! रजोगुणी होकर क्या करेंगें? रजोगुणी होकर भी हमें संसार में जीवन पूरा करना है और सतोगुणी रह करके भी | भगवन! रजोगुण में रहेंगें, तो जीवन हमारा अधोगति में चला जाएगा और पार्थिव बनता चला जाएगा |यदि हम अग्नि तुल्य सतोगुणी बनेगे, तो जीवन ऊपर की और जाएगा| अन्त में देखो, सूर्य मण्डल में होते हुए बृहस्पति लोक में क्या, मोक्ष तक को प्राप्त हो जाएंगें| इसीलिए भगवन! हमें आज उन गुणों की आवश्यकता नहीं , जिन्हें आप उच्चारण कर रहे हैं|
पूज्य महानन्द जीः- “गुरुदेव! हमने तो ऐसा सुना है कि गणेश की घ्राण शक्ति बहुत अधिक थी, और ऐसा भी सुनते हैं कि उस बालक का सिर हाथी का था आप तो केवल उसकी विशेषता ही उच्चारण कर रहे हैं|”
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य.. “और बेटा! क्या उच्चारण करें, जो तुम उच्चारण करो, वह हम भी उच्चारण कर दिया करें।“
पूज्य महानन्द जीः- “गुरुजी! हमने तो ऐसा सुना है कि गणेश जी को तो हाथी का एक विशाल स्तम्भ माना जाता हैं”
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य “तो महानन्द जी यह वार्त्ता तुम्हारे हृदय में आती हैं?”
पूज्य महानन्द जीः”गुरु जी ! आप, हमारी वार्त्ता क्यों ले रहे हो,हमारे हृदय में आए न आए, आप अपना निर्णय कीजिए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा, महानन्द जी! हमारा तो निर्णय यह है कि मानव के हाथी का सूंड नही होती। अब तुम उच्चारण करो
पूज्य महानन्द जीः-“गुरु जी ! हमारा विश्वास है कि विज्ञान के अनुकूल मानव के कण्ठ के ऊपरी भाग को पृथक करके दूसरा शीश लगाया जा सकता हैं
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! यह सत्य है परन्तु यह भी तो विचारो, कि कहाँ एक मानव का सिर और कहाँ एक हतंग का शीश| कितना विशाल बन जाएगा |यह तो बेटा ! तुम्हारे विचारने की बात है , यदि तुम ऐसा ही मानते हो, कि गणेश जी के हतंग की सूण्ड थी, तो बेटा! यह न मानने वाला वाक्य हो जाएगा क्योंकि मानव के कण्ठ का और हतंग के कण्ठ का कोई सम्बन्ध नही| इसीलिए बेटा! हम तुम्हारी वार्त्ताओं को कदापि नही स्वीकार  करेंगे ।
पूज्य महानन्द जीः तो गुरुदेव! यदि आप हमारी वार्त्ताओं को स्वीकार नही करेंगें, तो क्या यह हुआ ही नही था।
पूज्यपाद गुरुदेवः अरे, देखो, भाई, इसका यह अभिप्रायः नही, जैसा तुम उच्चारण कर रहे हो| यहाँ ऐसी तुच्छ समाज नही? अरे, किन्हीं अज्ञानियों में जाकर इस व्याख्यान को देना| तुम्हारी वार्त्ता अवश्य स्वीकार हो जाएगी| तुम यहाँ यह वार्त्ता क्यों उच्चारण कर रहे हो, किसी मूर्ख सभा में यह वार्त्ता कह देना| हमें कोई आपत्ति नही |तुम्हारी सत्यवार्ताओं के ग्रहण करने  में हमें किसी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं और न किसी बुद्धिमान को होनी ही चाहिए। परन्तु तुम्हारा यह वाक्य न मानने वाला हैं, हम तुम्हारे वाक्यों को अवश्य स्वीकार कर भी लेते, यदि हमने बेटा! वह काल न देखा होता।
 पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवन्! आप ही कुछ कृपा कीजिए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! अभी अभी महानन्द जी कुछ प्रश्न कर रहे थे, परन्तु इनके कैसे प्रश्न हो जाते हैं, इनके ऐसे मूर्खता वाले प्रश्न से सभा के सब कार्य भंग हो जाते हैं| हमारी विचारधारा भी ऐसी ही रह जाती है| और उसमें सब कार्य समाप्त हो जाता हैं| यह मूर्खानन्द ऐसे- ऐसे प्रश्न कहाँ से लाता हैं|
मुनिवरों! अभी -अभी हम प्रारम्भ कर रहे थे, कि मनुष्य को गणेश की भांति बनना चाहिए|देखो , जैसे गणेश अपने में गन्ध और सुगन्ध को धारण करने वाला होता हैं| इसी प्रकार प्रत्येक मानव प्रत्येक देव कन्याओं को बनना चाहिए, क्योंकि उसी से जीवन का विकास होता है  यदि मानव जीवन पा करके अपने जीवन का विकास नही किया, तो मानव का जीवन, न होने का तुल्य माना जाता हैं बेटा !यह हमारा व्याख्यान था| आज हम व्याख्यान देते -देते कहाँ पहुँच गए
 ब्राह्मण का अभिप्राय
 आज हमारे वेद पाठ में “ब्राह्मण”शब्द की बड़ी ऊँची व्याख्या आई है| देखो, ब्राह्मण किसको कहा जाता हैं| कल महानन्द जी का एक प्रश्न था, वर्ण व्यवस्था जाति से होती है या गुण कर्मों से?  यह जातिवाद का शब्द कहाँ से ले आएँ? चलो, कोई बात नही| हम इसका समाधान करेंगें। जैसा हमने सुना है और जैसा हमने पूर्व काल में देखा है, और जैसा आचार्य जनों से सुना है और जैसा वेदों के स्वाध्याय से हमने अनुभव किया है, उसके अनुकूल अवश्य उच्चारण करेंगें।
           देखो,हमारे स्वाम्भु मुनि महाराज ने और भी आदि आचार्यों ने वर्णन किया है किमानव को मानव समाज के चार विभाग कर देने चाहिएं, वह चार विभाग कौन से होते हैं? जैसे मानव के शरीर के चार विभाग होते हैं इसी प्रकार हमारे समाज के भी चार विभाग माने जाते है परमपिता परमात्मा ने जैसे हमारे शरीर में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और महान शूद्र नियुक्त किए हैं, ऐसे ही यह प्रजा भी चार भागों में नियुक्त की गई हैं जिससे हमारे राष्ट्र का कार्य, राष्ट्र की उन्नति हो| एक दूसरे को कुदृष्टि से ने देखे,, परन्तु अपने अपने कर्तव्य पर दृढ़ रहें।देखो, हमारे शरीर में कण्ठ के ऊपर वाले भाग का नाम ब्राह्मण है| ब्राह्मण में तीव्र बुद्धि होती है, वह वेदों का ज्ञाता होता हैं| ऐसे ही हमारे कंठ से ऊपर वाले भाग में सब सत्ता होती हैं क्या देखो,वाक्य पाने की दृष्टि से देखने की, रसना से कुछ आहार करने की, तथा रस लेने की, और वाक्य उच्चारण करने की और भी बेटा,त्यागी और तपस्वी सभी कुछ माना गया है |
मुनिवरों! जिसमें इतने गुण हों,उसे ब्राह्मण कहा जाता हैं| ब्राह्मण उसी को कहा जाता हैं जैसा अभी-अभी वर्णन किया जा रहा था कि ब्राह्मण उसी को कहा जाता है जिसमें बुद्धि और महान इतना त्यागी हो जैसी बेटा!हमारी रसना, जो नाना प्रकार के आहारों को धारण करती है अन्न तथा अन्य सुन्दर पदार्थ मुख में आते ही, न जाने कहाँ चले जाते हैं और इस त्यागी वाणी के द्वारा कुछ नहीं रहता| जो बेटा!ऐसा बुद्धिमान ब्राह्मण हो, जिसने वेदों की विद्या को अच्छी प्रकार निगला हो, स्वाध्याय किया हो| और निगल कर दूसरों को देने वाला हो, उसको ब्राह्मण की उपाधि दी जाती हैं
ब्राह्मण त्यागी हो, तो कैसा जैसे बेटा!हेमन्त ऋतु आ रही है| शरद वायु चल रही है| सर्व शरीर वस्त्रों से ढ़का रहता हैं| परन्तु यह मुखारबिन्दु ऐसे ही रहता है तो ऐसा बेटा!ब्राह्मण, जो इतना बड़ा तपस्वी हो, कि वह विद्या में अपना सब कुछ भूला हो,जो ऐसे गुणों वालो को बेटा!ब्राह्मण कहा जाता है
इसके पश्चात क्षत्रिय आ जाता है, क्षत्रिय उसको कहते है जो बेटा!सबकी रक्षा करने वाला हो| ब्राह्मण पर कोई आक्रमण करें, तो बेटा! क्षत्रिय सुनते ही उसकी रक्षा करें| हमारे शरीर में बेटा ! यह भुज क्षत्रिय माने गएं है। भुजों में प्राकृतिक बल होता है,और अपने बल से सब की रक्षा करते हैइसी प्रकार क्षत्रिय सब की रक्षा कर राष्ट्र का कल्याण किया करते हैं| विद्या का प्रसार हो जाता हैं |राष्ट्र के वैश्य जन भी महान बन जाते हैं| यह देखो,बेटा!क्षत्रिय है| हमारे आदि आचार्यों ने स्वाम्भु मुनि ने इन भुजाओं को क्षत्रिय के तुल्य माना हैं
जातिवाद का वास्तविक स्वरूप
इसके पश्चात मुनिवरों! हमारा उदर आता हैं जहाँ जठारग्नि विराज रही है मानो देखो , यह एक बड़ा रहस्य है |सब पदार्थ जो रसना में मुख द्वारा धारण किएं जाते हैं ,उदर में स्थित हो जाते हैं| जठाराग्नि उन पदार्थों को पचा देती है| पचा करके, जो जिसकी सत्ता है, जिसका पदार्थ हैं, वह उसको प्राप्त हो जाता है |बेटा! बरतने का कार्य वैश्य का होता हैं बेटा! राष्ट्र में किसी प्रकार की आपत्ति आ जाएं, राजा पर किसी प्रकार की आपत्ति हो, क्षत्रिय पर किसी प्रकार की आपत्ति हो, ब्राह्मण को दान देने वाला,यह सबको ही देता रहता हैं| जो ऐसे गुणों वाला होता हैं बेटा !उसे वैश्य की उपाधि प्राप्त हो जाती हैं
यहाँ बेटा! शूद्र किसको कहते हैं| महान ,जो न तो व्यापार ही कर सके, न कृषि ही अच्छी प्रकार कर सके, जिसमें बुद्धि न हो| मुनिवरों! देखो, जो हमारे शरीर में पद है, वे तीन वर्णों की अच्छी प्रकार सेवा करते है| यह तो बेटा ! परमात्मा की रचना है|  अब मानव की रचना सुनो।
हमारे स्वाम्भु मुनि आचार्य ने,हमारे गुरु ब्रह्मा आदि ने, इस सम्बन्ध में क्या ,एक वर्णन किया हैएक समय में देखो , सतोयुग में कपिल मुनि महाराज, मार्कण्डेय ऋषि महाराज और भृगु ऋषि महाराज आदि ऋषियों का एक दार्शनिक समाज विराजमान हुआ, और नियुक्त किया गया कि हमें चारों वर्णों का प्रकरण लेना हैं, तो किस प्रकार लेना चाहिए और उनकी वर्ण व्यवस्था कैसे व्यक्त करें?उस समय स्वाम्भु मनु महाराज ने, आदि ब्रह्मा ने निवेदन किया- हे ब्रह्म देव गुरुदेव! हम तो यह जानने आए हैं कि संसार में राष्ट्र का निर्माण कैसे किया जाएं, यह तो सतोयुग है,सब ही सत्यवादी हैं| न किसी को रोग हैं, न शोक हैं, न द्वेष है| परन्तु आगे तो ऐसा समय नही रहना है| हे भगवन! आप हमें बताईए, राष्ट्र का निर्माण कैसे हो? आपकी कृपा होगी।
गुण ,कर्मों  से वर्ण व्यवस्था
उस समय मुनिवरों! गुरु ब्रह्मा ने ऐसा कहा- कि वास्तव में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र जो होने चाहिए, वह गुण कर्मों के अनुकुल होने चाहिए| तभी राष्ट्र का निर्माण हो सकता है ,राजा को महान बनाने के लिए अनिवार्य है कि वह राष्ट्र में धर्म, मर्यादा बाँध कर गुण कर्मों के अनुकूल वर्ण व्यवस्था स्थापित कर, राष्ट्र पालन भली प्रकार करें।
तो मुनिवरों! देखो,उस समय कोई भी जातिवाद न था और न किसी प्रकार का विशेषण था, यह तो स्वाम्भु मुनि आदि आचार्यों ने, मार्कण्डेय ऋषि महाराज आदि ऋषियों ने, दार्शनिक समाज में विराजकर, इस समाज का, राष्ट्र का निर्माण किया था मानो देखो, यह वर्ण व्यवस्था हमारे आदि ऋषियों ने वर्णन की है , दार्शनिक समाज में यह प्रश्न भी आया कि भई! वर्ण व्यवस्था तो नियुक्त कर दी परन्तु प्रजा की यह जानकारी कैसे करें, कि कौन ब्राह्मण है? कौन शूद्र हैं? कौन वैश्य हैं? कौन क्षत्रिय हैं ? उस समय मुनिवरों! आदि ऋषियों ने एक विशेष प्रणाली चलायी, जो आज तक हमें कण्ठ हैं, वह कार्यतो  हमने पूर्व समय में  किया भी था,यह क्या है ? बेटा ! हमारे आदि ऋषि ब्राह्मण जन उन गुणों को जानने वाले बन गए | भिन्न- भिन्न स्थान पर, बुद्धिमान आचार्यों के विद्यालय थे, जिन्हें देखो, गुरुकुल कहते थे| जहाँ बालक जाता था, गुरु के कुल में जाने पर, गुरु जानकारी करा देता था, कि अरे, यह बालक तो ब्राह्मण के गुण वाला है, अथवा यह वैश्य के गुण वाला है अथवा क्षत्रिय गुण वाला है या शूद्र बनने वाला हैं।
इस प्रकार माता पिता अपने बालक को पूर्व ही वर्ण में बांध देते थे तो मुनिवारों ! यह विद्वानों, बुद्धिमानों का कर्तव्य है  यह बेटा !ब्राह्मणों का कर्तव्य है, यह आत्मज्ञानियों का कर्तव्य हैं, जिसकाल में आत्मज्ञानी होते हैं, उस काल में बेटा! वर्ण व्यवस्था ऊँची बन जाती हैं| मुनिवरों! हमने भी ऐसा किया और ऋषि वशिष्ठ मुनि महाराज का तो कर्तव्य ही यह था कि वह राम के राज्य में जितने भी अवर्ण रहते, उनको विद्या के अनूकुल जानकारी करा देते थे| मनिवरों!इतनी विद्या होनी चाहिए जिससे मानव की जानकारी कर सकें।
गुरुकुलों मे वर्ण निर्धारण
बेटा! हमारे आदि आचार्यों ने तो ऐसा कहा है कि एक ब्राह्मण का बालक, एक क्षत्रिय का बालक, एक शूद्र का बालक, एक वैश्य का बालक, जब चारों बालक गुरुकुल में जाते हैं, तो गुरु उनकी जानकारी लेते है- कि अरे,यह कौन -कौन से गुण बाला बालक हैं| जिसमें ब्राह्मण के गुण हो, ब्राह्मण के कुल में नियुक्त किया जाता था| वैश्य गुणों वाले को, वैश्य कुल में नियुक्त करते थे और जो शूद्र गुण वाला होता जिसमें बुद्धि न होती थी और जो न वेद विद्या पढ़ पाता था और न ही धनुर्वेद को ही सीखता था, उसको मुनिवरों! शूद्र की उपाधि दी जाती थी ऐसा आदि आचार्यों ने बेटा!  नियुक्त किया था| उसी के अनूकूल हम यह उच्चारण कर रहे हैं| जिस वर्णव्यवस्था को हमने बहुत पूर्व काल में देखा , आज वह तुम्हारे समक्ष नियुक्त कर रहे है| ऐसे ही शूद्र का बालक मानो,  गुरु के कुल में जाने से यदि वह बुद्धिमान हो, वेदों का स्वाध्याय करने वाला हो, ब्राह्मण के कर्म काण्ड को जानने वाला हो जाता था, तो उस बालक को ब्राह्मण कुल में नियुक्त कर देते थे|परंतु आज नहीं, हम तो इस संसार को लाखों वर्षों से देखते चले आ रहे हैं |परन्तु यह उस काल की वार्त्ता है, जिस काल में राम राज्य की स्थापना हो रही थी|
जिस काल में बेटा! बुद्धिमान अपने कर्तव्य पर दृढ़ रहते है, उस काल का ही नाम बेटा! राम राज्य कहा जाता है| राम राज्य वैसे नही आता, राम राज्य की व्याख्या बहुत ही विशाल है| मुनिवरों! राम के समय को देखा जाता है, तो हमारी बुद्धियों में नाना प्रकार के संकल्प- विकल्प आ जाते  है राम तो बेटा !विराजमान रहते थे| परन्तु वशिष्ठ मुनि महाराज जो कुल पुरोहित माने जाते हैं उनकी उपाधियां ब्रह्मा आदि मानी गई हैं
बेटा! जिस काल में कर्मों के अनुकूल वर्ण व्यवस्था होती है, जिस राजा के राष्ट्र में इस प्रकार की प्रजा होती हैं उसको बेटा ! हमारे यहाँ राम राज्य कहा जाता हैं कहाँ  तक वार्ता उच्चारण करें बेटा !व्याख्यान बहुत विशाल है कहाँ तक इस आदेश को देवें,देखी हुई वार्ता उच्चारण करने लगे तो बेटा समय के समय समाप्त हो जाते है
वेद विद्या के अधिकारी
अभी- अभी हम उच्चारण कर रहे थे, कि हमारे यहाँ कर्मों के अनुकूल वर्ण व्यवस्था मानी गई हैं, और वेद में  भी ऐसा ही माना है |वेद में कहा है कि मेरी विद्या पाने का सभी को अधिकार हैं| परन्तु उसको ही अधिकार है ,जिसकी क्रिया भी, उसके अनुकूल हो| जो उस पर न चलने वाला हो, उसको मेरी वेद विद्या पाने का कोई अधिकार नही हैं| मुनिवरों! जो चलने वाला हो, वह कोई भी हो, किसी भी कुल में जन्मा हो, परन्तु वह इसके योग्य है| और उसी को अधिकारी माना गया हैं|
पूज्य महानन्द जीः “गुरुदेव! जब मानव की वर्ण व्यवस्था इस प्रकार मानी जाती है, तो देवकन्याओं की वर्ण व्यवस्था किस प्रकार मानी गई हैं?” इसका भी आपने कुछ निश्चय किया होगा।
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! हमारा निश्चय किया हुआ नही ,यह तुम्हें भ्रान्ति हैं| यह तो हमारे आदि ऋषियों का निश्चय किया हुआ हैं|”
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! हमें तो कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है, जैसे आपका ही निश्चय किया हुआ हैं”
पूज्यपाद गुरुदेव जीः “अरे, क्यों?”
पूज्य महानन्द जीः वह इसीलिए कि हे भगवन! आधुनिक काल में हम यह देख रहे हैं कि जातिवाद माना जा रहा है, आज हम सूक्ष्म शरीर के द्वारा लाक्षागृह पर विचरण कर रहे थे, तो ऐसा देखा, आप कर्मों के अनुकूल क्यों मान रहे हैं?
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य बेटा ! यह तो हमारे दार्शनिक जन पूर्व कह चुके है। कहाँ तक उन वाक्यों को दुहराएं तुम्हारे समक्ष| एक समय महर्षि नारद मुनि, उद्दालक मुनि महाराज, पापड़ी मुनि महाराज, शौनक मुनि महाराज, स्वाम्भु मुनि महाराज, कोपात्री जी, महर्षि कपिल मुनि महाराज आदि ऋषियों का एक समाज विराजमान था| वहाँ वर्णन होने लगा कि सतोयुग क्या हैं? त्रेता क्या हैं ?द्वापर क्या हैं? और कलियुग क्या हैं?
कलियुग
जब तीनों कालों का वर्णन हो चुका और कलियुग की वर्णन होने लगा, तो मुनिवरों! देवर्षि नारद मग्न होने लगे| महर्षि पापड़ी मुनि महाराज ने कहा कि आप मग्न क्यों हो रहे हो? तब देवर्षि नारद मुनि महाराज ने कहा था-  जिस समय द्वापर समाप्त हो जाएगा ,उस समय इतना बड़ा अज्ञान हो जाएगा, कि जिसकी जैसी बुद्धि होगी, उसी के अनुसार धर्म की मर्यादा चलने लगेगी |अहा, तब दार्शनिक समाज ने नारद मुनि से प्रश्न किया कि भगवन! ऐसा क्यों होगा? उन्होंने कहा था कि जिस काल में अज्ञानता आ जाती हैं ,जिस काल में धर्म की मर्यादा समाप्त हो जाती हैं, उसी काल का नाम कलियुग माना गया हैं| जैसे मानव की बाल अवस्था, युवा अवस्था, मध्यम अवस्था, वृद्ध अवस्था ये चार अवस्थाएं हैं इसी प्रकार यह सतोयुग, त्रेता ,द्वापर और कलियुग है| जब मानव की वृद्ध अवस्था हो जाती हैं उस समय बुद्धि समाप्त हो जाती है, अज्ञानता छाने लगती हैं| तो उसमें वह निधि नही रहती, जो बाल्यकाल में रहती हैं| जिस काल में जो निधि समाप्त हो जाती हैं, उस काल में,वैसे अज्ञान के मत चल जाते हैं| जब देवर्षि नारद ने यह कहा तो बेटा! वहाँ यह नियुक्त किया गया, कि आगे कलियुग का काल आएगा| उस काल में नाना प्रकार के मतों में चल कर महान देखो,वेद के अनुयायी तो बनेंगें, परन्तु वेद के वाक्यों को न मान कर ,अपनी जठारग्नि की पूर्ति के ही प्रयत्न  किए जाएंगें ,यह बेटा ! आज नहीं  वह देवर्षि नारद ने बहुत समय हुआ, इन वाक्यों का निर्णय किया था| दार्शनिक समाज का यह प्रश्न, कि सतोयुग किसे कहते हैं? कलियुग किसे कहते हैं?इसका वर्णन तो कल करेंगें, यह जो केवल संकेत करने के लिए कहा ,यह तो बहुत पूर्व काल में निश्चय किया गया था| परंतु आधुनिक काल में जातिवाद चल रहा है, तो बेटा!चलने दो इसमें हमारा क्या प्रयोजन है, इसमें हमें किसी प्रकार की आपत्ति नही हैं, बेटा! हम तो उस वाक्य को उच्चारण करेंगे,जो हमारे आदि ऋषियों ने नियुक्त किया है |यदि बेटा! हम तुम्हारी अज्ञानता भरी वार्त्ताओं को मान लेवें, तो बेटा ! हमारी आत्मा की हानि हो जाएगी| वेद वाक्यों की हानि हो जाएगी, मर्यादा समाप्त हो जाएगी |इसीलिए बेटा! हम तुम्हारे वाक्य कदापि श्रवण नही करेंगें|
कन्याएँ और वर्णव्यवस्था
मुनिवरों! देखो, अभी-अभी हमारा व्याख्यान प्रारम्भ हो रहा था, महानन्द जी ने प्रश्न किया, कि देव कन्याओं की वर्ण व्यवस्था किस प्रकार की मानी जाती हैं| मुनिवरों! हमारे यहाँ ऐसा माना जाता है, कि जिसमें ब्राह्मणों के गुण हो, वही कन्या ब्राह्मण कुल में जाने योग्य है|जिसमें क्षत्रियों के गुण हो, वह कन्या क्षत्रिय कुल में जाने योग्य है| जिसमें वैश्य के गुण हो ,वह वैश्य कुल में जाने योग्य है| जिसमें बुद्धि न ,उसको शुद्र संगत नियुक्त कर दें| तो मुनिवरों!यह कैसे की जाती हैं? हमने तो उस काल को देखा हैं, आदि ऋषियों से भी सुना हैं, हमारे गुरुदेव ने भी नियुक्त किया हैं, और कहा है कि आदि ऋषि ऐसी जानकारी करते हैं| बेटा! ब्राह्मणी के गुण, जिस कन्या के होते हैं, वह इतनी बुद्धिमती होती हैं कि अन्य कन्याओं के भी वर्ण विभाग उसी प्रकार कर देती हैं| जैसे मुनिवरों!देखो,आचार्य, ब्राह्मण और ऋषिवर कर देते हैं, ऐसा ही बेटा! पूर्व ऋषि पत्नियों ने भी किया हैं| जैसे महानन्द जी तुमने माता अनूसूया जी को देखा होगा |
पूज्य महानन्द जीः “हां हां कृपा कीजिए”
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! अनुसूया सब क्रियाओं को जान करके, कन्याओं की वर्णव्यवस्था को बनाया करती थी| ऐसा तुमने देखा  भी होगा और सुना भी होगा जैसा हमारे आदि आचार्यों ने कहा,आज तुम्हारे  समक्ष नियुक्त कर रहे है मुनिवरों! देखो , जो कन्या ब्राह्मण के गुण वाली हो, उसको ब्राह्मण के कुल में नियुक्त किया जाता है| जिससे मर्यादा समाप्त न हो| जिसमें क्षत्रिय के कुल वाले गुण हों, बलवान हो, महान, ब्रह्मचर्य  करने वाली हो, पति को प्रेरणा देने वाली हो, कि भगवन! राष्ट्र का उत्थान करो, अपने अस्त्र शस्त्रों से वर्णों  की सेवा करो| तो मुनिवरों! उसको क्षत्रिय कहा गया हैं।
बेटा! आगे चल कर वैश्य का कुल आता है, जो कन्या व्यापार में साथ देने वाली हो ,जो नाना प्रकार की विवर्णता चलाने वाली हो उसी को बेटा! यहाँ वैश्य कहा जाता हैं
इसी प्रकार बेटा! जो तीनों में से कोई भी कार्य न कर सके, उस कन्या को बेटा !शूद्र कुल में नियुक्त किया जाता हैं
पूज्य महानन्द जीः “गुरुजी!हमारा वही प्रश्न दुबारा आ चुका हैं, इसका आपने कोई प्रमाण नही दिया, कि किस कुल की कन्या, किस वर्ण में नियुक्त कर देवें, जैसे क्षत्रिय की कन्या में ब्राह्मण के गुण होंवें, तो क्या वह ब्राह्मण के योग्य हैं?”
पूज्यपाद गुरुदेवः “हां क्यों  नही|”
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवन्! चाहे शूद्र की हो|”
पूज्यपाद गुरुदेवः “हां क्यों नही, चाहे किसी की ही हो, यदि उसमें ब्राह्मण के गुण है, तो वह अवश्य  उसके योग्य हैं|”
पूज्य महानन्द जीः “तो गुरुजी! इसका कोई यथार्थ प्रमाण हो, तो दीजिए कृपा करके।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! बहुत प्रमाण हैं”
पूज्य महानन्द जीः “तो एक सूक्ष्म- सा दे दीजिए, कृपा होगी।“
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा सुनो, महानन्द जी ने अभी- अभी एक प्रश्न किया, कि हमारे द्वारा क्या प्रमाण हैं, कि किसी कुल की कन्या का किसी ओर कुल में संस्कार किया गया हो, वास्तव में बहुत से प्रमाण हैं| परन्तु एक ऐसा प्रमाण दिए देते हैं, जो सभी के आँगन में आ जाएं, और उसको भली भांति अपने हृदय में धारण कर लें|
कन्या कुल का परिवर्तन
 मुनिवरों! यह त्रेता काल का समय हमारे कण्ठ आ गया है| मुनिवरों! मही राष्ट्र का राजा महिदन्त था| वह महान चक्रव्रती राजा था और चक्रवर्ती राजा होने के नाते, लंका भी उसके अधीन थी| एक समय पुलस्त्य ऋषि महाराज ने महाराज शिव से निवेदन करके लंका में एक स्थान नियुक्त किया था| स्वर्ण का गृह था|जिसमें महाराज पुलस्त्य ऋषि विश्रान किया करते थे, कुछ समय के पश्चात ऐसा हुआ, कि जो जिस राष्ट्र का राजा था, वह उस राष्ट्र का राजा चुना गया| लंका का स्वामी महाराजा कुबेर बन गया, और भी सब राजाओं ने अपने राष्ट्रों को अपना लिया| राजा महिदन्त का सूक्ष्म- सा राज्य रह गया।
विदुषी मंदोदरी
राजा महिदन्त के न तो कोई पुत्र था और न कोई कन्या थी| कुछ समय के पश्चात ऐसा सुना गया कि राजा महिदन्त के एक कन्या उत्पन्न हुई| तो राजा महिदन्त ने बड़ा ही आनन्द मनाया| नाना वेदों के पाठ कराए, जन्म संस्कार बड़े उत्सव से कराया| उसके पश्चात बेटा! कन्या जब कुछ प्रबल हुई तो महाराज की धर्मपत्नी सुरेखा ने कहा- कि हे भगवन! इस कन्या को तो गुरुकुल में जाना चाहिए, जिससे भगवन! यह विद्या पाकर, परिपक्व हो जाएं|उस समय महाराजा महिदन्त अपनी धर्म पत्नी की याचना को पाकर, उस कन्या को लेकर कुल पुरोहित महर्षि तत्त्वमुनि महाराज के समक्ष नियुक्त किया। बेटा! उस समय महाराजा तत्त्व मुनि महराज दौ सौ चौरासी वर्ष के आदित्य ब्रह्मचारी थे| वहाँ पंहुच कर, राजा ने और कन्या ने भी महर्षि के चरणों को स्पर्श किया | और राजा ने कहा भगवन! मेरी कन्या को यथार्थ विद्या दीजिए | जिससे भगवन!मेरी पुत्री हर प्रकार की विद्या में सफल हो जाए|
 महर्षि बाल्मीकि ने इस संबंध में ऐसा वर्णन किया है, कि राजा महिदन्त तो अपने स्थान पर चले गएं और ऋषि ने उस कन्या को शिक्षा देनी प्रारम्भ कर दी| शिक्षा पाते- पाते वह कन्या बड़ी महान बनी| और विद्या में बहुत ऊँची सफलता प्राप्त की| वह  यज्ञ और कर्मकाण्ड में प्रकाण्ड हो गई, वह वेदों का हर समय स्वाध्याय करती थी| उस समय ऋषि ने अपने मन में सोचा, कि यह कन्या तो क्षत्रिय की है, परन्तु इसके गुणों को देखते है, तो ब्राह्मण कुल में जाने योग्य हैं |अब क्या करना चाहिए। ऋषिवर, यही नित्य प्रति विचारा करते थे।
मुनिवरों! आगे हमने सुना है कि कुछ काल के पश्चात वह कन्या युवा हो गई| जैसे पूर्णिमा का चन्द्रमा परिपक्व होता हैं, वह कन्या अपने ब्रह्मचर्य से परिपक्व थी| राजा अपनी धर्मपत्नी के कथानानुसार वहाँ से बहते हुए ऋषि से जा कर प्रार्थना की, कि भगवन! अब कन्या को गृह में ले जाना चाहते हैं| अब इसका संस्कार भी करना चाहिए अब इसका संस्कार करना चाहिए, अब मुझे नियुक्त कीजिए, कि मेरी कन्या कौन से गुणवाली है, किस वर्ण में इसका संस्कार करना चाहिए? अहा उस समय ऋषि ने कहा -भई! तुम्हारी कन्या तो ऋषि कुल में जाने योग्य हैं, आगे तुम किसी के द्वारा इसका संस्कार करो, हमें कोई आपत्ति नही| राजा वहाँ से उस ब्रह्मचारिणी कन्या को लेकर राज गृह पंहुचे।
मुनिवरों! हमारे यहाँ यह परिपाटी है, कि जब ब्रह्मचारिणी या ब्रह्मचारी गुरुकुल से आए, तो माता पिता यजन और ब्रह्मभोज कर उनका स्वागत करें|मुनिवरों! इसी प्रकार माता पिता ने उस कन्या का यथाशक्ति स्वागत किया| स्वागत करने के पश्चात हमने ऋषि बाल्मीकि के कथनानुसार ऐसा सुना है कि पत्नी ने पति से कहा कि महाराज! अब तो हमारी कन्या युवा हो गई है, इसके संस्कार का कोई कार्य करो।
उस समय बेटा! महाराज नित्य प्रति वर के लिए भ्रमण करने लगे, भ्रमण करते करते पुलस्त्य ऋषि महाराज के पुत्र मनिचन्द्र के द्वार पर जा पंहुचे, मनिचन्द्र के एक पुत्र था, जो बाल्मीकि के कथनानुसार अड़तालीस वर्ष का आदित्य ब्रह्मचारी था| वह पर्जन्य ब्रह्मचारी, वेदों का महान, प्रकाण्ड पण्डित था |महाराज ने मनिचन्द ने निवेदन किया- “महाराज! मेरी कन्या को स्वीकार कीजिए, मैं तुम्हारे पुत्र से अपनी कन्या का संस्कार करना चाहता हूँ|”
रावण विवाह
उस समय मनिचन्द ने कहा- “महाराज! हमारे ऐसे सौभाग्य कहाँ हैं, जो इतनी तेजस्वी कन्या, हमारे कुल में आए| उस समय बेटा! उस बालक वरुण ने और माता पिता ने उसके संस्कार को स्वीकार कर लिया|उस समय राजा मग्न होते हुए, अपने घर आ पंहुचे।
नक्षत्रों के अनुकूल समय नियुक्त किया गया| कुछ समय के पश्चात वह दिवस आ गया| मनिचन्द अपने पुत्र वरुण से बोले कि पुत्र! आदि ब्राह्मण जनों का समाज होना चाहिए, जिस कन्या का, जिस पुत्री का, जिस पुत्र का, वेद के विद्वानों में, नाना विद्वत मण्डल में संस्कार होता हैं उसका कार्य हमेशा पूर्ण हुआ करता हैं|
उस समय बेटा!नाना ऋषियों को निमन्त्रण दिया गया, निमन्त्रण के पश्चात विद्वत समाज वहाँ से नियुक्त हो, राजा महिदन्त के समक्ष आ पंहुचा| राजा महिदन्त ने देखा कि बड़ा विद्वत मण्डल है| राजा ने यथा शक्ति स्वागत किया| ऋषियों की परिपाटी के अनुकूल, ब्रह्मचारिणी अपने पति का स्वयं सत्कार करने जा पंहुची| नाना मणियों से गुथी हुई, पुष्पमालाएँ तथा नाना प्रकार की मेवाएँ, उस कन्या ने उनके समक्ष नियुक्त की| उन्होंने वह स्वीकार कर लीं इस प्रकार बेटा! राजा ने अपने सम्बन्धियों का यथाशक्ति स्वागत किया| स्वागत के पश्चात, यथा स्थान पर विराजमान किया गया|अहा, बड़े आनंद पूर्वक  सांयकाल कन्या के संस्कार का समय हो गया|बड़े आनन्द से वहाँ संस्कार होने लगा| बुद्धिमानों के वेदमन्त्र होने लगें, ब्रह्मचारी अपने वेद मन्त्रों का गान गा रहा था, ब्रह्मचारिणी अपने वेदमन्त्र का गान गा रही थी| भिन्न- भिन्न स्थान पर वेदों के गान गाए जा रहे थे,बड़ी आशानंदी आनन्द से बेटा  वह संस्कार समाप्त हो गया।वेद की मर्यादा के अनुकूल उन्होने अपने –अपने स्थान पर जा विश्राम किया
अगला दिवस आया, उस समय शरद वायु चल रही थी, और उसके कारण उस बालक के सम्बन्धी स्नान नही कर रहे थे| उस बालक ने कहा “अरे, तुम स्नान क्यों नही कर रहे हो?” उन्होंने कहा-“ स्नान क्या करें, शरद वायु चल रही हैं”
तो मुनिवरों! उस समय  बाल ब्रह्मचारी ने, जो वेदों का ज्ञाता था, जो विज्ञान की मर्यादा जानता था, उसने प्रयत्न किया और कहा “हे महान वायु देव! तुम हमारे कार्य में विध्न डाल रहे हो, कुछ समय के लिए शान्त हो जाओ| उस समय उस ब्रह्मचारी के संकल्पों द्वारा, वायु कुछ धीमी हो गई| सभी सम्बन्धियों ने स्नान किया |
“महानन्द, बेटा! तुम यह प्रश्न करोगे, कि उसने वायु को कैसे शान्त कर दिया? बेटा! उसने वह प्रयत्न किया, जिससे वायु का वेग शान्त हो गया| अहा, देखो,वायु में कुछ मंडी हो गई, यह मन के संकल्प का प्रभाव था| यह तो, महान विद्या का विषय है| किसी दूसरे स्थान में इसका उत्तर देंगें।“
पूज्य महानन्द जीः “अभी दे दीजिए, भगवन!”
पूज्यपाद गुरुदेवः “नही ,भई! किसी द्वितीय स्थान में देंगें|”
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवन्! जैसी आपकी इच्छा |”
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! नाना सम्बन्धी स्नान कर अपने -अपने स्थानों पर नियुक्त हो गएं | इसके पश्चात द्वितीय समय आया, और वहाँ सब अपने अपने गृह को जाने लगे, उस समय राजा महिदन्त ने यथाशक्ति सभी का स्वागत किया | जब कन्या जाने लगी, तो एक ने कहा अरे, भाई! देखो, यह पुत्र इतना योग्य था, परन्तु राजा महिदन्त ने अच्छी प्रकार स्वागत नही किया उस समय राजा महिदन्त  व्याकुल होने लगे, उन्होंने व्याकुल हो कर कहा हे सम्बन्धियों! मैं क्या करूं? मेरा तो यह काल ही ऐसा हैं, कोई समय था जब चक्रव्रती राज्य था| अब तो जितना द्रव्य था, सब लंका चला गया |महाराजा कुबेर उसका स्वामी बन गया हैं| उस समय इन वार्त्ताओं को स्वीकार कर सबने अपने अपने स्थान की ओर प्रस्थान किया।
विद्या बल
उस बालक ने अपने गृह पंहुच कर सोचा, कि मेरे सम्बन्धी ने जो यह कहा है कि मेरी लंका को कुबेर ने विजय कर लिया है, तो आज मुझे कुबेर से लंका को विजय करना है| बुद्धिमान सर्वत्र पूज्य होता हैं, पुलस्त्य ऋषि महाराज का पौत्र था, इसीलिए वह जिस राष्ट्र में जाता था, वहाँ ही उसका स्वागत होता था|जो स्वागत में कुछ देता, तो ब्रह्मचारी उससे मांगते कि मुझे दस हजार सेना दो, जिससे मेरा काम बनें|
 इस प्रकार प्रत्येक राज्य से दस दस हजार सेना एकत्र करके
, उसने लंका पर हमला किया| और राजा कुबेर को जीत लिया| उस समय राजा कुबेर ने कहा था कि “अरे, भाई! तुम मुझे क्यों विजय कर रहे हो?” उस समय उस महान ब्रह्मचारी ने कहा था “अरे, कुबेर! मैं तेरे राष्ट्र में शान्ति नही देख रहा हूँ|”
जिस काल में, जिस राजा की प्रजा शान्त न हो, उस समय उस राजा को पद से गिरा देना धर्म हैं| और उसके स्थान पर शान्तिदायक आत्मज्ञानी को जो प्रजा को यथार्थ सुख शान्ति देने वाला हो, राजा बनाना चाहिए।
उस समय उस ब्रह्मचारी ने राजा कुबेर को लंका से पृथक कर दिया| वह अपने राष्ट्र में जहाँ का था, वहाँ ही जा पंहुचा|उस समय  वह बालक वरुण राजा महिदन्त के सम्मुख जा पंहुचा, और  बोला महाराज !मैंने आपकी लंका को विजय कर लिया है| आप अपनी लंका को स्वीकार कीजिए। उस समय राजा महिदन्त ने कहा कि “हे ब्रह्मचारी! लंका को तुमने विजय किया हैं,मुझे स्वीकार है|परन्तु स्वीकार करके, मैंने यह लंका अपनी कन्या के दहेज में तुम्हें अर्पण कर दी|”
तो मुनिवरों! वहाँ सब राजा नियुक्त किए गएं और वहाँ राजा उस बालक को नियुक्त किया गया| उस समय राजाओं ने, ऋषियों का समाज नियुक्त किया, और कहा कि भाई! यह वरुण बालक, लंका का स्वामी बना, इसका द्वितीय क्या नाम उच्चारण करेंगे? यह तो ब्रह्मचारी पद का नाम है, उस समय ऋषियों, आचार्यों, आदि ने उस बालक का नाम रावण नियुक्त कर दिया।
तो मुनिवरों! यह है हमारा वाक्य, तुम्हें प्रतीत हो गया होगा, कि महाराजा! महिदन्त की कन्या का संस्कार, उस बालक से हुआ, जो ब्राह्मण के गुणों वाला था| आगे चल करके, चाहे कैसा ही गुण उसमें बन जाएं। यह है बेटा! तुम्हारे समक्ष प्रमाण| समय मिलेगा, तो किसी द्वितीय स्थान में और भी प्रमण देंगें| इसके भिन्न- भिन्न प्रमाण हैं| अब तो बेटा!हमारा व्याख्यान समाप्त होने वाला हैं
तो मुनिवरों! यह आज का हमारा व्याख्यान वर्ण व्यवस्था के ऊपर था, जो हमारे आर्य ऋषियों ने माना है| बुद्धिमानों का कर्तव्य है, कि यथार्थ वाक्य को अवश्य ही ग्रहण कर लेना चाहिए| अब हमारा व्याख्यान समाप्त हो गया| कल जैसा समय मिलेगा, उसके अनुसार व्याख्यान देंगें|
पूज्य महानन्द जीः “कल तो भगवन! आप वह व्याख्यान देंगें, जिसकी आपसे प्रार्थना की थी।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “हां, कल का कल देखा जाएगा”।अच्छा

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