Saturday, September 29, 2018


1   ०४ ०४ १९६२ माता निर्माता भवति

जीते रहो,
देखो, मुनिवरों! अभी-अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ|हम तुम्हारे समक्ष वेदों का मनोहर गान गा रहे थे। वास्तव में जब वेदों को गान गाया करते है, तो ऐसी मनोइच्छा होती है, कि गान गाते ही चले जाएं। यह ऐसा मनोहर पाठ है, जिससे मानव के हृदय में एक महानता आ जाती है, और एक ज्योति प्रविष्ट होकर हृदय को आनन्दित कर देती है।
जीव की उच्चता
आज हम उस महान प्रभु का गुणगान कर रहे थे जो विधाता हमारे जीवन का हर समय साथी बना रहता है और वह बना ही रहेगा। उस प्रभु की लीला आज हमें प्रत्यक्ष हो रही है और मानव के लिए विचारणीय है कि जब तक वह अपने जीवन को उच्च नहीं बनाएगा, तब तक वह दूसरे मानव को कदापि नहीं जान जाएगा। जैसे वेद का कथन है कि हे मानव! जब तक तू अपने को नहीं जानेगा, और जब तक अपने महत्व और मानवता को भली प्रकार नहीं समझेगा, तब तक वह मानवता की कोई जानकारी नहीं कर सकता। क्योंकि मानव जीवन मनोहर होता है ,परन्तु मनोहर जीवन बनाने के लिए मानव को सुन्दर योजना बनाने कि आवश्यकता है और जो मानव सुन्दर योजना नही बनाता, उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है।

जैसा कि हम कल के व्याख्यान में कह रहे थे कि मानव को हर पकार से ऊँचा बनना चाहिए। जैसे, हमारे आज के वेद-गान में माताओं के सम्बन्ध में बहुत सुन्दर रूप से कहा है कि जो माता अपने पुत्रों को योग्य बना देती है, आत्मा को माता के गर्भाशय में जो महानता और शिक्षा प्राप्त हो जाती है वह सर्वांग जीवन भर में मानव प्राप्त नही कर सकता।
दूसरे को जानने का सूत्र
 महानन्द जी से हमें प्रतीत होता है,कि आज का समाज कैसा बनता चला जा रहा है| आज का समाज ऐसा बनता चला जा रहा है कि मानव में आस्था का अंकुर न रहा, परन्तु अपने में बहुत उच्चता जान के अपने को बहुत ऊँचा मानने लगा है। आज का समाज या मानव तो ऐसा बन रहा है| परन्तु हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं, हमें तो अपना कार्य करना है। जिस परमात्मा की आज्ञा का पालन करना हमारा कर्त्तव्य है, हमें संसार की त्रुटियों पर दृष्टि नहीं रखनी। यदि आज हम महानन्द जी के कथनानुसार, महानन्द जी के आदेशानुकूल, यदि संसार की त्रुटियों पर दृष्टि रखते हुए मानव बनाएँ रखें,  तो वह स्वयं त्रुटिदायक बन जाता है | ऐसा वेदमन्त्र, आदि ऋषि और विद्वानों ने कहा है। परन्तु आज मानव की समस्या हमारे सामने आती है कि दूसरों की त्रुटि को न देखेंगे, तो संसार की जानकारी कैसे हो जाएगी। उसका उत्तर यह है कि जो किसी मानव की संसार में जानकारी करना चाहता है तो पूर्व “आत्मनाहम” अपनी जानकारी करे, इसके पश्चात् जिसकी जानकारी मानव चाहता है, स्वयं हो जाती है। वेदमन्त्र तो यह कहता है कि जो मानव दूसरों को जानना चाहता है, वह अपने को जान ले। अपने को क्या? मानव को क्या? संसार को जान जाओगे।
यह जो परमात्मा ने हमारा शरीर बनाया है ऐसा बनाया है- जैसे यह ब्रह्माण्ड है। इसमें सभी तत्त्व है, सभी पदार्थ है। सूक्ष्म महाभूत भी है, देखो ,वह अग्नि भी है, स्वर्ण जैसा हमारा यह शरीर है, यह हमारा दूसरा पिंड भी इसी प्रकार बनाया है प्रभु ने। जब हम अपने पिंड को अच्छी प्रकार जान लेते है तो यह जो परमात्मा का बनाया हुआ ब्रह्माण्ड हमें प्रतीत हो रहा है। बेटा! हमारे समक्ष एक,मन ऐसा पदार्थ है, जो केवल इसकी जानकारी कर लेता है, अन्तःकरण को शुद्ध बना लें, तो यह महान अन्तःकरण ऐसा है कि यह जो ब्रह्माण्ड प्रतीत हो रहा है, यह सब हमारे अन्तःकरण में समा जाएगा।
यह क्यों समा जाएगा? मुनिवरों!इतना ब्रह्माण्ड तो ऐसा है,ऐसे ही हमारे अन्तःकरण में यह नाना संसार के दर्पण खीचने वाला, दर्पण आकर्षकण करने वाला मन है। अन्तःकरण में सबका दर्पण अर्पण कर देता है और देखो, यह जो सर्वांग ब्रह्माण्ड प्रतीत हो रहा है बेटा!यह सब हमारे अन्तःकरण में विराजमान हो जाएगा।
      तो मुनिवरों! जब जब मानव अपने अन्तःकरण को पवित्र बना लेता है और मन की जानकारी कर लेता है, मन को अच्छी प्रकार जान लेता है तो वह इस संसार के मानव की त्रुटि नहीं देखता, वह संसार की त्रुटियों का समूह बनाता है, जो अपने ज्ञान के द्वारा देख लेता है, वह अपने अन्तःकरण में देख लेता है कि यह मानव क्या करता चला जा रहा है, तो मुनिवरों! वेदमन्त्र में कहा है कि जो मानव दूसरों को जाना चाहता है या दूसरों की क्रियाओं,अनुमति को जानना चाहता है, वह अपने को जान ले, उसकी स्वयं पहचान हो जाएगी। परन्तु बेटा !जिस मानव ने अपने को नहीं जाना, भली प्रकार नहीं पहचाना और वह संसार की वार्त्ता करता चला जा रहा है, बेटा!उसकी वह वार्त्ता न होने के तुल्य है।
याचना
 अच्छा, आज का हमारा वेद-पाठ क्या कह रहा था? हम व्याख्यान करते हुए कहाँ जा पहुंचे? आज हम प्रभु से एक मनोहर रूप को पाने जा रहे ,और हम क्या पाना चाहते थे? हम विधाता से आज के वेद-पाठ में प्रार्थना कर रहे थे, कि विधाता! हमारे हृदय में, हमारे मस्तिष्क में हमारी जो बुद्धि है उसमें आप कुछ ऐसे सुज्ञान को प्रविष्ट करें, जो भगवन्! कभी समाप्त न हो| और उस ज्ञान को प्राप्त करके हम इस संसार से पार हो जाएं। हे भगवन्!हम महान अधोगति मेन कदापि न जाएँ |हे !आप तो हमारे दाता है, हमारी माता है। हमारी दो प्रकार की माता होती है, एक जननी माता जो भौतिक माता होती है, एक माता आप हैं। हे भगवन्! जब हम इस लौकिक माता को त्याग देते है, और आपको माता बना लेते है, आप हमारी दूसरी माता बन जाते हैं, उस समय भगवन्! हम प्रयत्न करते है, तो एक काल ऐसा आता है जब माता की गोद सदृश, आपकी गोद में पहुंच कर, जो आनन्द प्राप्त करते ,कि जैसे हमने सर्व ब्रह्माण्ड को विजय कर लिया हो। और माता, एक जननी माता है, जो गर्भाशय में धारण करती है, जो अपने गर्भ में धारण कर,हमारा पालन करती है, और हमें जन्म देकर इस संसार क्षेत्र में नियुक्त कर देती है| कि हे बेटा ! अब तुम इस संसार में कर्म करो।
माता
तो मुनिवरों! यह हमारी दो माता हैं। वास्तव में तो हमारी तीन माता हैं। एक पृथ्वी माता है, एक जननी माता है और तीसरी प्रभु माता है। मुनिवरों! देखो! वह जो प्रभु माता है, जब हम उस माता के आँगन में या माता की ज्ञान-भरी लोरियों में लग जाते है तो वह इतनी मनोहर लोरियों को देती है, कि हमें वह परमानंद और माता के  उस आँगन में जाकर हमें संसार की कोई इच्छा नही रहती। परन्तु जब हम जननी माता के गर्भ में होते  है और  उससे जन्म पाकर पृथक् हो जाते है, तो कभी क्षुधा की इच्छा होती है तो कभी कोई अन्य। परन्तु वह माता, वेद ऐसा कहता है, कि यदि जननी माता चाहे, तो गर्भाशय में पुत्र को मोक्षद्वार पर ले जा सकती है। परन्तु वह कौन-सी शिक्षा है, वह कौन-सी महानता है? मुनिवरों! वेद में कहा है “माता सुमति र्भूयश्चय” वेद ऐसा कह रहा है, कि माता वह पदार्थ है, जो कि अपने गर्भ में बालक को गायत्री का जाप स्मरण करा देती है। परन्तु वह कैसे कराती है| मुनिवरों! हमारे समक्ष तो बहुत से इतिहास के वाक्य हैं, जो प्रकट करते हैं, कि माता हमें यदि चाहे तो उस स्थान में पहुंचा दे। परन्तु देखो, मुनिवरों! आज का मानव वह दृष्टि पाने में असमर्थ है।
हमें महानन्द जी से प्रतीत हो रहा है, कि आज का मानव अपने लिए गड्ढा ढूंढ रहा है। वास्तव में वह उस गड्ढे में चला जा रहा है। हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है, कि संसार सद्गति को नही जा रहा, परन्तु उस गड्ढे की ओर अग्रसर हो रहा है ,जो अधोगति का है। महानन्द जी किसी काल में ऐसा व्याख्यान दे देते है जो यह भाव प्रकट करता है। परन्तु हमारा जो आज का आदेश था वह क्या था , कि यदि माता हमें चाहे, तो उस स्थान में पहुंचा देती है। मुनिवरों! यह इतिहास तो आपने सुना होगा, जो वार्त्ताएं,उस काल की वार्त्ताओं को आपके समक्ष प्रकट कर रही है।
द्वापर काल
मुनिवरों! देखो, महर्षि पारा मुनि को उनकी धर्मपत्नी उरेखा  ने कहा था कि हे पतिदेव! अब मेरे गर्भ स्थापन हो गया है और अब मेरी यह इच्छा है कि मैं जिस बालक को जन्म दूँ, उसे गर्भाशय में  ऐसी शिक्षा दूं, कि जिससे वह बालक संसार में अमर हो जाए और हम उस माता उरेखा को देखे, एतदर्थ उसने क्या किया, महर्षि पारा की आज्ञानुसार माता ने नित्यप्रति यज्ञ किया, उस महान प्रभु देव की याचना की और हर समय यह धारणा रहती थी कि हे प्रभु! हे महान माता! मेरा यह गर्भस्थ बालक आपके अर्पण है, और तेरा स्मरण करने वाला हो, यह बालक मेरा नहीं, इदन्नमम यह आपका है  आप इसको उच्च बनाएं।
तो मुनिवरों!जो माता गर्भ के स्थापन्न होते ही जिस माता कि यह धारणा होती है कि इदन्नमम प्रभु यह आपका है और आपके ही अर्पण है
तो मुनिवरों ! उस माता के कुछ समय पश्चात् ऐसा इष्ट बालक उत्पन्न हुआ और ऐसा इष्ट बालक जिन्हें महर्षि व्यास की महानता का पद प्राप्त हुआ। जब तक विश्व रहेगा, महर्षि व्यास का नाम भी रहेगा। यह सब माता की महानता है, यह सब माता का दिया हुआ है। माता जिस समय संसार में आती है उस समय माता की योनि बनती है, जब माता का शरीर बनाया जाता है उस समय प्रभु, गर्भाशय में अपना उपदेश देता है कि हे माता, तुझे  मैंने देवकन्या की योनि प्रदान की है, तू संसार में जा और ऐसा महान बालक उत्पन्न कर जो मेरी बनाई हुई सृष्टि को पवित्र कर दे, जो मेरी बनाई हुई सृष्टि में स्वर्ग की रचना के तुल्य सुन्दर बना देवे|और जो मानव उसके सम्पर्क में आए, वही महान् बनता चला जाए।
तो मुनिवरों! यह माता, वह जो माता प्रभु है, जो माताओं की भी माता है देखिए यह हमारी माताओं को शिक्षा दिया करती है, परन्तु आज का मानव तो कहाँ जा रहा है। देखो, एक ऐसा काल था जिसमें एक समय महान दार्शनिक भी विराजमान थे, जिसमें देवर्षि नारद मुनि, महर्षि कुक्कुट महाराज, सुनिक मुनि, महाराज वशिष्ठ मुनि, महर्षि विश्वामित्र, महर्षि पापड़ी मुनि जी इन सबका दार्शनिक समाज नियुक्त हो रहा था और उस दार्शनिक समाज में यह वार्त्ता हुई। देखो, कैसा तीनों युगों का वर्णन कर रहे है। सतयुग त्रेता, द्वापर।
कलियुग
और जब कलियुग का समय आया, तो देवर्षि महर्षि नारद मगन होकर गाने लगे। उस समय दार्शनिकों ने कहा अरे, भाई! तुम गान क्यों गा रहे हो? वह बोले कि कलियुग काल ऐसा आएगा, कि जिसमें रसना और उपस्थ इन्दियां रहेंगी और सब इन्द्रियां ठप्प हो जाएगी व शेष इन्द्रियों के विषय समाप्त हो जाएंगे। यह शब्द देवर्षि नारद जी ने कहें, यह कैसा दार्शनिक समाज था? परंतु यह क्यों आगे ऐसा काल आएगा,ऐसा आज कल का काल आएगा कि वे दोनों इसी प्रकार के बन जाएंगे
   देखो, मुनिवरों! हमें आज यह विचार करना है जो महानन्द जी ने कहा है और जो देवर्षि नारद ने कहा था, वह महानन्द जी से प्रतीत हो रहा हे। प्रत्येक काल में हर प्रकार के मनुष्य होते है परन्तु किसी में अधिक हैं, किसी स्थान में सूक्ष्म। परन्तु कलियुग का ऐसा समय है, जिसमें अधिक से अधिक बन जाते है। इसको कलियुग इसलिए कि यह कलोंका बना है | दार्शनिक समाज ने तो ऐसा कहा है कि हे नारद !इस काल को कलियुग इसलिए नहीं कहते, इसका तात्पर्य ही ओर है। उन्होंने कहा कि क्या तात्पर्य है? पापड़ी मुनि महाराज ने यह निर्णय दिया कि कलियुग उस काल का नाम है जिस काल में कलों से काम करना आरम्भ हो जाएगा उस काल को कलियुग कहते है। परन्तु महानन्द तो कहेंगे कि यह तो कई स्थानों में आया है कि कलों से कार्य है और कलों से कार्य हो रहा है और होता रहेगा| पूर्व युग में भी होता था ,आज भी हो रहा हैपरन्तु देखो, प्रगतिशील हो रहा है।
हमारा आज व्याख्यान क्या चल रहा था? हम प्रारम्भ कर रहे थे कि वह माता यथार्थ है, जो हमें ऐसा अच्छा बना देती है और उस योग्य हो जाते हैं। हम व्याख्यान देते-देते बहुत दूर पहुंच गए। हम कह रहे थे कि संसार क्या बन गया? देखो, माता की यह विशेषता होती है कि हमें उच्चता को पहुंचा देती है। मुनिवरों! देखो, हमने द्वापर के काल को देखा और कैसा देखा मुनिवरों!देखो, हम तो बहुत कुछ उच्चारण करने वाले थे |
पितामह की भीष्म प्रतिज्ञा
    मुनिवरों! वह हमारा कल का आदेश था। हम माताओं की विशेषता कह रहे थे, कि महाराजा  शान्तनु का संस्कार मच्छोदरी से हआ।अच्छा, जब उनका मच्छोदरी से संस्कार हुआ, कौडिल ब्रह्मचारी जिसको गंगेशील कहते थे, वह गंगेशील महाराज कहाँ जा पहुंचे? मुनिवरों! वह मच्छोदरी के पिता के समक्ष जा पहुंचे। उनसे कहा भगवन्! आप अपनी कन्या को मेरे पिता को अर्पण कर दीजिए। मेरे पिता तुम्हारी कन्या से  विवाह  करना चाहते हैं। उस समय उन्होंने यह कहा कि कौडिल ब्रह्मचारी, तुम्हारे पिता संस्कार तो कर सकते है, परन्तु देखो, मेरी कन्या की जो सन्तान होगी, वह राज्य की अधिकारी नहीं होगी, इसलिए इस कन्या को हम कदापि नहीं देंगे। उस समय कौडिल ब्रह्मचारी ने कहा महाराज! मैं आज प्रतिज्ञा कर रहा हूँ कि मैं संस्कार नहीं कराऊंगा और राज्य को कदापि नहीं भोगूंगा। उस समय उसने कहा-महाराज! आप नहीं भोगेंगे, तो आपकी जो सन्तान उत्पन्न होगी? ब्रह्मचारी ने कहा महाराज! आप भी मेरे पिता हैं वह भी मेरे पिता हैं। मैं सर्वांग जीवन ब्रह्मचारी रहूँगा, संस्कार नहीं कराऊंगा। उस समय मुनिवरों! कौडिल ब्रह्मचारी ने यह नियम बना लिया, यह प्रतिज्ञा कर ली उस गंगेशील ने, कि संस्कार नहीं कराऊंगा और न राज्य का अधिकारी बनूंगा, जो तुम्हारी कन्या की सन्तान होंगी,वही राज्य की स्वामी बनेगी।
तो कुछ समय पश्चात् हमने सुना है देखो, उसने अपनी महान कन्या का संस्कार महाराज शान्तनु के साथ कर दिया। वह कन्या बड़ी सुन्दर तथा महान थी।मुनिवरों !देखो, कुछ समय के पश्चात् हमें यह ज्ञात हुआ कि उस महान मच्छोदरी के दो बालक उत्पन्न हुए जो विचित्र थे। हाँ, जब यह दो विचित्र वीर्य बालक उत्पन्न हो गएं, तो कुछ समय पश्चात् महाराज शान्तनु की मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय राजा शान्तनु ने अपने तीनों पुत्रों को बुलाकर कहा हे पुत्रों! जो तुमने प्रतिज्ञा की है, उसे भंग न करना, अब मेरे अन्तिम सांस चल रहे हैं, जैसी तुम्हारी माता गंगोत्री ने कहा, “जीवन भर ब्रह्मचारी रहना, मेरा गर्भाशय तभी ऊँचा बनेगा, मेरा राष्ट्र भी तभी ऊँचा बनेगा, मेरा राष्ट्र भी तभी अच्छा बनेगा।“ तो आज मेरी भी यही इच्छा है। सब पुत्रों को शिक्षा दे करके तब राजा ने अपनी पत्नी मच्छोदरी से कहा “हे पत्नी! इस समय मेरा मृत्यु काल है, और मैं मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ। यह तेरा राष्ट्र है, और ये तेरे पुत्र है। इस राष्ट्र में जितनी प्रजा है, वह सब तेरे पुत्र समान है। तो मुनिवरों! यह उच्चारण करके राजा शांतनु मृत्यु को प्राप्त हुए, तो बड़े आनन्द पूर्वक उनका संस्कार किया गया।
मनसा पाप का निवारण
  तब उस कौडिल ब्रह्मचारी ने विचित्र वीर्य, दोनों को राष्ट्र का स्वामी बना दिया और वे राज्य का पालन करने लगे। उसके पश्चात् एक ऐसा काल आया, जब उस मधुस्थल में यह कौडिल ब्रह्मचारी, माता मच्छोदरी को नित्यप्रति शास्त्रोक्त शिक्षा दिया करते थे, तो उस समय उन दोनों पुत्रों के मन में पाप आया, कि यह हमारी माता कैसी है, यह कौडिल ब्रह्मचारी इसके समक्ष रहा करता है। जब उनके मन में यह पाप आया तो एक रात्रि के समय वह गुप्त स्थान में विराजमान हो करके, उस शास्त्रोक्त वार्त्ताओं को सुनने लगे। उस रात्रि के समय ऐसा हुआ कि माता मच्छोदरी उस वार्त्ता को सुनते सुनते निद्रा में लीन हो गई और उस निद्रा में उनका पग अपने आसन से नीचे आ गया। उस समय  बालक ब्रह्मचारी ने सोचा, ऐसे  तो माता को रात भर बड़ा कष्ट रहेगा और यदि तुमने भुजाओं को खींच कर ठीक किया तो यह बड़ा भारी पाप होगा| तो सोचने लगे कि क्या करना चाहिए। तो देखिए  मुनिवरों! उस ब्रह्मचारी ने अपने मस्तिष्क से माता के भुजा को खींचकर यथा स्थान नियुक्त किया। दोनों पुत्र चकित हो गए और उन्होंने कहा, हम तो बड़े पापी हैं। रात समाप्त होने पर कौडिल ब्रह्मचारी के चरणों से लिपट गए और पूछा, भगवन्! जिससे मनसा पाप हो जाए तो उसे क्या करना चाहिए? तौ कौडिल ब्रह्मचारी ने कहा यह वेदोक्त वाणी है कि यदि मानव से मनसा पाप हो जाएं तो उसे अपने को अग्नि में दहन करना चाहिए, उसमें पाप सहित अपने को समाप्त कर दें। तो उस समय उन्होंने प्रकट किया कि हमसे मनसा पाप हो गया है और हम अग्नि में प्रविष्ट होने जा रहे हैं। उस समय कौडिल ब्रह्मचारी ने उपदेश दिया कि अरे, राष्ट्र पुत्रो! यह तुम्हारा कर्तव्य नहीं, अग्नि भी दो प्रकार की होती है एक भौतिक और दूसरी ज्ञानाग्नि। तुम अग्नि में क्यों प्रविष्ट हो रहे हो, अपनी ज्ञान रूपी अग्नि में अपने मनसा पाप को भस्म कर दो। जब यह ज्ञानाग्नि तुम्हारे समक्ष आएगी तो उसको स्पर्श करते ही और ज्ञानाग्नि में डुबकी लगाने पर देखोगे कि तुम पवित्र हो गए हो। मनसा पाप उससे भस्म होकर समाप्त हो जाएगा, बुद्धि द्वारा तुम उस ज्ञानाग्नि को धारण करो।
विचित्र वीर्य
  तो उन दोनों ने ब्रह्मचारी की बातों को स्वीकार कर लिया। राष्ट्र का पालन करने लगे। यह विचित्र बालक हैं, कुछ समय पश्चात् ,विचित्र वीर्य तो युद्ध में समाप्त हो गए। उनके दोनों पुत्रों में एक का नाम पाण्डु था और दूसरा धृतराष्ट्र, धृतराष्ट्र नाम का बालक जो जन्मान्ध था। यह तो मानव का भोग होता है, क्योंकि माताओं की मधुर आकृति होती है।उसकी बालको की आकृति ,
यह कैसा महान काल था द्वापर का, जिसमें ऐसे ऐसे महान बुद्धिमान राष्ट्र में कौडिल ब्रह्मचारी जैसे विद्वान जो ज्ञानाग्नि द्वारा अग्नि दहन से रोककर मानसाग्नि की आस्था पर पहुंचाने वाले। उस समय कौडिल ब्रह्मचारी ने कहा था कि यदि ज्ञानाग्नि हमारे हृदय में प्रवष्टि हो जाए और उस ज्ञानोदय में यदि मानव, मानव को देखो, तो अज्ञानता का कारण नहीं बनता। अज्ञान का कारण तब होता है, जब मानव सब कुछ भूल जाता है और ज्ञानाग्नि, अज्ञान के अन्धकार में विलीन हो जाती है। यह आज का हमारा आदेश है, कि मानव को अपना विचार करना चाहिए, कि वह कहाँ है। अब इस विषय में महानन्द जी के कुछ प्रश्न होंगे। उनके प्रश्नों का उत्तर भी दिया जाएगा।
आधुनिक काल की भ्रांतियो का निवारण
पूज्य महानन्द जीः गुरुजी! आपने जो अभी अभी आदेश दिया ,वह तो बहुत सुन्दर था, हमारे अन्तःकरण को धोने वाला था। परन्तु हम एक यह वार्त्ता स्वीकार नही कर सकते अप सब बात पुनरुक्ति और रूपान्तरण कर रहे है जैसे इस रूपान्तरण में हमने तो यह सुना है जैसे आपने कहा की महर्षि पारा मुनि के वाक्य भी नियुक्त कर दिए ,मच्छोदरी को व्यास जी की माता कहा है, और दूसरा वाक्य आपने सब कुछ सत्य कहा है, आधुनिक काल के अनुकूल भी, गंगेशील ने जो भी प्रतिज्ञा की, वह भी सत्य है। आपकी एक और बात हमें मिथ्या प्रतीत हो रही है, और वह  यह है कि आपने  तो कहा  है कि विचित्रवीर्य तो युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुए और दूसरी बात यह है कि विचित्रवीर्य के दो बालक हुए जो आपने अभी कहा ,परन्तु हमने तो ऐसा सुना है कि भगवन्! विचित्र वीर्य दोनों को, जो मानसिक पाप हो गया था वह जंगल में जा करके अग्नि में भस्म हो गए थे। जब कोई सन्तान न हुई तो माता मच्छोदरी ने अपने पुत्र व्यास को नियुक्त किया और कहा कि हमारा तो राष्ट्र ही समाप्त हो रहा है। राज्य को भोगने वाला कोई नहीं, तुम किसी प्रकार से कोई प्रयत्न करो। व्यास मुनि ने कहा कि जो तुम्हारे दोनों पुत्रों की धर्मपत्नी है, वे नग्न होकर, मेरे समक्ष आ जाएं तो उनके संतान उत्पन्न हो सकती है। तो गुरुदेव हमने ऐसा सुना है, जब दोनों नग्न होकर व्यास मुनि के समक्ष गई, तो उनकी दृष्टि की ज्योति से एक एक बालक उत्पन्न हुआ। और आपने उसका रूपान्तर क्यों कर दिया?
अरे, इस मुर्ख की वार्त्ता को भी स्वीकार करो। महानन्द जी! पूर्व तो आपका यह वाक्य ही व्यर्थ है। और देखो, तुम्हारे व्याख्यान के अनुकूल, क्या परमात्मा की कोई मर्यादा नियम आदि हैं कि नहीं? क्या किसी की नेत्र ज्योति से सन्तान उत्पन्न हो सकती है? इस प्रकार तो किसी शास्त्रों में नहीं लिखा मिलता।यह  तो बेटा! अवश्य किसी मूर्ख समाज की उपज है, और ऐसी वार्त्ता वहीं चल सकती है। यदि तुम कहो, कि हम गुरुदेव जी के स्थान में या इस समाज में , इस युक्ति को नियुक्त करके या अपनी इच्छा से कार्य चलाएं तो तुम्हारा यह वाक्य यहाँ कोई स्वीकार नहीं करेगा। और बुद्धिमानों ने ऐसा भिन्न भिन्न स्थानों में कहा है कि सत्य को ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, जैसा जो शब्द हो, उसको उसी प्रकार जानना विद्वानों को श्रेय हैं| ऐसा वेद में भी कहा हैं महर्षि व्यास मुनि तो जीवनभर ब्रह्मचारी रहे, निद्रा जीतने वाले, आगे चलकर उनका संस्कार हुआ था, उनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ था। वास्तव में वह गृहस्थ आश्रम, प्रवृष्टि का संस्कार है वह गृहस्थ में प्रविष्ट हुए थे, ऐसा तो हमने सुना है, परन्तु यह हमने कभी नहीं सुना। ऐसा हमने इस काल में कभी नहीं देखा, क्योंकि जिस राजा का राष्ट्र समाप्त होता चला जा रहा हो, तो ऐसा पाया गया है पर यहाँ  तो ऐसा हुआ ही नहीं।
हमारा व्याख्यान चल रहा था कि उनके दो बालक उत्पन्न हुए, परन्तु देखो, वह कौडिल ब्रह्मचारी, जिसको गंगेशील कहते हैं, वह बड़े महान थे। उन बालकों को, उन पुत्रों को अपनी शिक्षा देने लगे। और जो राष्ट्र पुरोहित होता था,उसको इस आचार्य पद पर नियुक्त कर दिया जाता था, और व्यास मुनि राष्ट्र पुरोहित हुए। पारा मुनि ने भी इन दोनों बालकों को शिक्षा दी।
माता कुंती
आगे कैसा काल आ रहा और वह क्या उच्च काल था, कि माता जिस प्रकार सन्तान को बनाना चाहे, बना सकती है। यह उदाहरण उस वैदिक काल का है। मुनिवरों! राजा कुन्तेश्वर राजा थे और उनके केवल एक कन्या थी जिसका नाम कुन्ती था।
पूज्य महानन्द जीः गुरु जी! यह तो आप कल ही उच्चारण कर रहे थे। यह तो आपकी तुकबन्दी हो गई और देखो, आपने कुन्त राजा की पुत्री का नाम भी कुन्ती उच्चारण कर दिया।
पूज्यपाद गुरुदेवः अरे बेटा! यह तो कोई वाक्य नहीं।गुरु जी ने कल भी कहा य मच्छोदरीनाम बताया था  अच्छा महानन्द जी, विनोद की बातें तो फिर होंगी। इस समय कृपा कीजिए अच्छा मुनिवरों! हम कह रहे थे कि माता ब्रह्मस्नेह तो उनकी वह कन्या महान सुशील थी। इस प्रकार मधुर माता की तदनुरूप सुशील कन्या थी। उनकी इच्छा हुई कि इसको इस प्रकार की शिक्षा दी जाए जिससे यह ज्ञानवान और सुयोग्य हो, क्योंकि बिना ज्ञान कोई सुयोग्य नहीं बन सकता। तब कुन्त राजा ने खोज की और भृगु ऋषि के पास पहुंचे और पूछा  कि वृद्ध महान  आत्माओं से वह कोई शिक्षा पा सकते हैं। उस समय राष्ट्र में महान बन था और उस भयंकर वन में करूड़ नाम  के ब्रह्मचारी रहा करते थे। ऐसा सुना जाता है कि इतनी अवस्था होने से पर्जन्य नाम के ब्रह्मचारी आदित्य नाम से कहे जाते थे। वृद्ध राजा ने सोचा मेरी कन्या यहाँ हर प्रकार से शिक्षा पा सकती है। उस समय उनकी आयु २८४ वर्ष की थी। ऋषि से निवेदन किया और अपनी इच्छा को बताया कि मैं अपनी कन्या को आपके आश्रम में नियुक्त करना चाहता हूँ। ऋषि ने आज्ञा दी, हमें स्वीकार है और वह कन्या उस आश्रम में रहने लगी। ऋषि ने बाल्यावस्था से व्याकरण का पूर्ण ज्ञान दिया और बाद में सब विद्याओं से सम्पन्न हो गई और फिर यौवन को प्राप्त हुई और बहुत तेजस्वी ब्रह्मचारिणी सब विद्याओं में पारंगत हो गई।
उस समय कुछ ऐसा कारण हुआ कि वहाँ श्वेतमुनि आ पहुंचे। श्वेत नाम के ब्रह्मचारी ने सोचा ,वह उस समय युवा थे, महान तेजस्वी थे। यह माया मानव को दुर्भाग्य से कहाँ की कहाँ पहुंचा देती है, और कहाँ तक इसको तुच्छ बना देती है। उस महान ब्रह्मचारी ने उस महर्षि के आश्रम में, जब उस युवा, सुशील कन्या को देखा  तो उनके  मन में तीव्र गति पैदा हुई और उनके मन की जो आकृति थी उस अवस्था में, जब उस कन्या ने, उस तेजस्वी ब्रह्मचारी बालक को देखा, तो उस काल में ऋतुमति थी, उन दोनों ने एक दूसरे को देखा जब कुछ काल पश्चात् ब्रह्मचारी ने पुनः कन्या को देखा तो अनुभव हुआ कि उनसे ऋषि भूमि में कितना बड़ा मानसिक पाप हुआ है। उस समय उसने ऐसा नियम बनाया कि मार्ग में जा रहा हूँ और बारह वर्ष कोई अन्न का भक्षण नहीं करूंगा, तब यह पाप शांत होगा। क्योंकि यह महान पाप मेरे जो अन्तःकरण में विराजमान हो गया है, आगे जन्मों में न जाने किन किन योनियों में प्रविष्ट होना पड़ेगा। इसलिए मेरा कर्त्तव्य है कि मुझे उपवास करना चाहिए और पर्वतों में भ्रमण करना चाहिए। वास्तव में उस पाप की उनहोंने  जो अन्तःकरण द्वारा हो गया था, उसकी क्षमा मांग ली और पर्वतों आदि का भ्रमण, उपवास रख कर आरम्भ कर दिया।
जब उस ब्रह्मचारिणी को ज्ञात हुआ कि तुमने महान पाप किया है तो सोचने लगी, क्या करना चाहिए। अज्ञान के कारण मन से पाप निकल गया था, सो अपने गुरु से सब बताया और उनसे पूछा कि भगवन्! अब मैं क्या करूं? तो गुरु ने कहा कि मैं क्या कर सकता हूँ, अब ऐसा करो, कि जब बालक उत्पन्न हो, तो उसको ऐसी शिक्षा दो, कि वह योग्य बने। ऐसा प्रयत्न करना चाहिए।
उस कन्या ने गुरु आदेशानुसार जब गर्भ मे बालक था तभी से सूर्यका जाप करना आरम्भ कर दिया और याचन  आरम्भ की, कि यह बालक महान, बलवान, योग्य, विद्वान हो। तो उस कन्या के हृदय में यह भावना उत्पन्न हुई कि जैसे सूर्य इन तीनों लोकों में अपने तप और प्रकाश से उज्ज्वल है, वैसा ही यह बालक हो।
तो मुनिवरो, उस कन्या के कुछ समय पश्चात् बालक उत्पन्न हुआ, और गुरु जी को बताया कि अब जब पिता के गृह में जाऊंगी, तो बड़ा पाप होगा। अब मुझे क्या करना चाहिए। गुरु जी ने कहा-तो अच्छा पुत्री! तुम कुशा का आसन बनाओ,और उस पर पुत्र को प्रविष्ट करके, गंगा में तिलांजलि दे दो। उस समय उस महान देवी ने उस बालक को कुशा आसन लगा, प्रविष्ट कर गंगा में तिलांजलि दे दी और कहा हे गंगा! यह बालक तेरा है, मेरा नहीं। वह बालक बहते बहते उसी श्वेत मुनि के आश्रम के पास, जो गंगा के किनारे था, देखा गया, उसके शिष्य मण्डल ने कुशा से उस बालक को निकाल कर अपने गुरु श्वेत नाम के थे उनके पास गए। तो उस ब्रह्मचारी के आगे उसी ब्रह्मचारी द्वारा ,उस बालक ने शिक्षा पाई।
आगे बेटा! हमारा व्याख्यान था कि उस माता ने सूर्य के तप से तथा प्रार्थना से जो बालक को तेजस्वी तथा बलवान बनान की योजना थी, उसे गंगा में प्रविष्ट कर, गुरु की आज्ञानुसार गंगा में त्याग दिया। भगवान से प्रार्थना की और तब गुरु ने आदेश दिया कि अब तुम एक वर्ष पर्यन्त कोई अन्न भक्षण के रहित भगवान से प्रार्थना करो, जिससे इस पाप से क्षमा पाओगी।
 तो उस देवी ने एक वर्ष पर्यन्त वनस्पति आदि का आहार किया और अन्न को त्याग कर गायत्री का जाप तथा वादन किया। उससे उसका पाप क्षमा हो गया। यह है हमारा आज का आदेश, जिस पर मुनिवरों! आपको विचार करना चाहिए कि हमारी दो माताएं तो ये  हुई। वास्तव में माताएं तीन है। जननी माता यदि चाहे तो बालक को गर्भाशय से ही शिक्षा देकर, मोक्ष द्वार तक पहुंचा सकती है। जैसे व्यास मुनि की माता जी ने उनको कैसा महान बना दिया, कैसा परिपक्व बनाया,अन्तः काल तक वेदों का पाठ, शास्त्रों और गायत्री का पाठ करते रहे।यह है हमारा आज का आदेश, हमारे व्याख्यान का अभिप्राय यह कि जैसा वाक्य है उसको वैसा मान लेने में हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! यह तो आपने और भी भ्रांतिजनक बात कह दी, उच्चारण कर दिया। हमने ऐसा सुना है, कि ऋषि के स्थान पर जब वह कन्या रहा करती थी, तो दुर्वासा मुनि ने इनको भय दिया। सूर्य का जाप तो विनोद है। क्यों, अभी तो आपको जाना नहीं, और विनोद की बात तो कल होनी थी, गुरु जी! हमारे प्रश्नों का उत्तर दीजिए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अरे अब समय नहीं।“
पूज्य महानन्द जीः “जैसी आपकी आज्ञा।“
पूज्यपाद गुरुदेवः मुनिवरो! महानन्द जी प्रश्न कर रहे थे और अब समय नहीं, कल हमारा जो वाक्य होगा उसमें पूर्ण रूप से वर्णन होगा, और कुछ हमारा दार्शनिक विषय होगा,अब हमारा व्याख्यान समाप्त होगा और क्योंकि  महानन्द जी की इच्छा आज भी पूर्ण नहीं होगी।
पूज्य महानन्द जीः वह, जैसे भगवन्! तुम्हारी इच्छा, वही करोगे।
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! मधुपाठ करेंगे और कल ऐसा करेंगे, कि प्रारम्भ में मधुपाठ कर देंगे तुम्हारे समक्ष
पूज्य महानन्द जीः अच्छा भगवन्! जैसी आपकी इच्छा। हम तो प्रार्थना ही कर सकते हैं, प्रार्थना को स्वीकार करना न करना,यह तो आपका ही कर्त्तव्य है|परन्तु आप सब वार्त्ता समाप्त कर देते हैं।
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा मुनिवरों! अब हमारा आदेश समाप्त हुआ। कल हमारा आदेश इससे आगे उच्चारण होगा। अब वेदों का पाठ होगा और इसके पश्चात् वार्त्ता समाप्त होगी। वेद पाठ लोधी रोड, नई दिल्ली

Wednesday, September 26, 2018


1   ०३ ०४ १९६२ सायं मानव उत्थान की दिशा

जीते रहो!
 देखो, मुनिवरों! अभी-अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ| हम तुम्हारे समक्ष वेदों का मनोहर वेद मन्त्रों का गान गा रहे थे| आज का वेद पाठ बड़ा ही सुन्दर था| आज हमारी इच्छा हो रही थी, कि सारे समय में वेद का गान गाते ही रहें| परन्तु महानन्द ही के अनेक अनुरोध और प्रार्थनाओं के अनुकूल व्याख्यान का रूप प्रदान कर रहे हैं
आज के वेद पाठ में बड़ी सुन्दर वार्त्ता का उपदेश किया गया है| समय के अभाव होने के नाते aur आपत्ति काल होने के नाते, वेद-पाठ का प्रसार पूर्व काल के अुनसार कर नही पाते| ऐसा भी प्रतीत होता है, कि यह समय भी नही रहेगा।
उस महान विधाता दया के सागर महान आत्मा ने हमें कैसा अनुपम ज्ञान दिया है| हमें इससे पूर्ण रूप से सन्तुष्टि है|क्योंकि एक समय आएगा कि यह प्रकाश भी नहीं रहेगा।यह प्रकाश जब समाप्त होगा जब इसमें प्रकाश वाला पदार्थ  नहीं रहेगा|
आज मानव को यह विचार लेना चाहिए,कि इस प्रकाश के अन्त होने पर प्रकाश की सदा के लिए समाप्ति नही होती|अरे, प्रकाश का रूपान्तर हुआ करता है| वैसे ही मुनिवरों! वेदवाणी के भी विभिन्न रूपान्तर होते हैं | यहाँ इस समय भी रूपान्तर के साथ ही वेद-पाठ किया जा सका है| मुनिवरों! एक समय वह आएगा,कि जब यह वेद-पाठ का रूपान्तर और अधिक सूक्ष्म हो जाएगा| रूपान्तर ही रूपान्तर रह जाएगा।
मुनिवरों! आज मानव को विचारना चाहिए, कि यह जो प्रकाशमय सृष्टि का चक्र चल रहा हैं, इसमें प्रकाश वरुण और शीतलता आदि सभी कुछ हैं| हे मानव! यह न मान बैठ, कि यह प्रकाश ऐसे ही चलता रहेगा| नहीं, नहीं एक समय वह आएगा, कि यह दृष्टि से भी दूर का पदार्थ बन जाएगा| यह कौन –सा पदार्थ बन जाएगा ?
सत्यज्ञान की उपासना
मुनिवरों!देखो, परमात्मा ने जो प्रकाशमयी हरी भरी सृष्टि की रचना की है, यह भी समय आने पर नही रहेगी| मानव को दूरदर्शी होना चाहिए,मानव को विचारना चाहिए  कि जब अपने जीवन का और इस सृष्टि का रूपान्तर हो जाएगा, तब हम क्या कर सकेंगे? इसीलिए रूपान्तर होने से पूर्व हम उस ज्ञान को प्राप्त कर लें, उस महत्व दायक पदार्थ को प्राप्त करलें कि हमारे समक्ष वह भावी परिवर्तन महत्त्वहीन हो जाए, वह ऐसी कौन-सी महत्ता हैं?
मुनिवरों! जब यह आत्मा इस शरीर रूपी क्षेत्र में आ करके, उच्च कर्म करता हुआ, प्रकाश का संचय करता हुआ, कर्मों का फल भोगकर समाप्त कर लेता हैं, तब यह आत्मा परमानन्द को प्राप्त हो जाता हैं| मुनिवरों! उस समय आत्मा का भौतिक पदार्थों से अलग होकर परमपिता परमात्मा की गोद में पंहुच कर परमानन्द लाभ करने वाले के रूप में रूपान्तर हो जाता हैं| यह रूपान्तर तुम्हारी स्थूल भौतिक दृष्टि से तुम्हें प्रतीत नहीं हो पाता।
यह प्रत्यक्ष क्यों नही होता?इसका क्या कारण है ?बेटा! हमने कई कालों में कहा है और कई स्थानों में कहा है कि यह आत्मा परमात्मा के समक्ष, जब यत्न करके, उस परमात्मा को जान करके इस स्वर्गीय सृष्टि का जानने वाला बन जाता है| उस समय जीव, परमात्मा का जानने वाला बनकर परमपिता परमात्मा को पा लेता है| उस परमात्मा को बिना जाने यह कुछ भी नही जान पाता| यह आदेश कई बार उच्चारण कर चुके हैं|आज इस विषय के व्याख्यान का समय तो नही था |
आज तो प्रभु प्रशंसा के साथ, बड़ा मधुर आदेश चल रहा था| आज कल्याण करने वाले शिव की याचना कर रहे थे| यह शिव संसार की रचना करके हर पदार्थ को जीव के लिए देता हैं |वह संसार की रचना और प्रलय करता हैं| वह विधाता सबका कल्याणकारी हैं।
कल भी हम व्याख्यान दे रहे थे, कि प्रभु को जानों, प्रभु को कैसे जानें? देखो, मानव को अपने जीवन के विभाग बना लेने चाहिए|क्योंकि भौतिक दृष्टि से भी विचार करें, तो भी जीवन के समय का विभाजन होना आवश्यक हैं।
नम्रता
आज के वेद-पाठ में अनेक स्थलों में नमः शब्द का पाठ आया है, विचार कर देखना चाहिए, कि नमः की व्याख्या क्या हैं? नमः किसके लिए किया जाता हैं? नमः क्या पदार्थ हैं।
मुनिवरों! सबसे पहले मानव में अपने धर्म पालन में नम्रता होनी चाहिए| अपने जीवन मे नम्रता होनी चाहिए| अपने धर्म पर पूरी-पूरी आस्था होनी चाहिए। ऐसे मानव में नम्रता आती जाएगी| नही तो, मानव में नम्रता नही आ सकेगी| शुद्ध ज्ञान के साथ नम्रता आएगी| ज्ञान न होगा, तो नम्रता कभी भी न आ सकेगी|हृदय में नम्रता का अंकुर पैदा होने पर, जीवन मधुर बन जाता हैं| उस समय उज्ज्वल मनोहरता के कारण जीवन सुन्दर बन जाता है।
मुनिवरों! एक समय महाराज राम में ऐसी नम्रता ने स्थान बनाया, कि वे माता पिता के आदेश को पाकर वन को गएं| उनमें धर्म की आस्था थी, वे धर्म के मर्म को जानने थे।
धर्म का लक्ष्य
एक समय जब वे लक्ष्मण के साथ विचार रहे थे, तब निषाद उनसे मिलने के लिए आए| निषाद ने रामचन्द्र जी से प्रश्न किया, कि महाराज! आपका तो राजतिलक होने जा रहा था, आपने वन में जाना क्यों स्वीकार कर लिया?
तब उस समय महान योगी महाराज राम ने कहा था हे निषाद! यह मेरा धर्म है, यह मेरा कर्तव्य है कि मेरे माता पिता ने जो आज्ञा दी हैं, मुझको उसका पालन करना चाहिए| आज भी उन माता पिता के आदेशों का पालन कर रहा हूँ।
मुनिवरों! ऐसी अवस्था उस काल में उत्पन्न होती है?कि जो मानव इस प्रकार का राज्य तक का त्याग कर बैठता है, ऐसी अवस्था तब ही आती है कि तब मानव में ज्ञान, नम्रता और धर्म में आस्था होती हैं| धर्म में आस्था न होने पर मानव कभी भी मानवता पर नही पंहुच सकता |मानवता के न होने पर जीवन अधूरा ही रहेगा।
मुनिवरों! देखो, एक समय महान योगी रामचन्द्र जी से वन में शबरी मिलने आई, शबरी ने महाराजा राम से प्रश्न किया कि महाराज! धर्म की क्या महत्ता है? और धर्म क्या पदार्थ है?
मुनिवरों! उस समय महाराज राम ने शबरी को केवल एक ही उपदेश दिया था, कि शबरी! तेरा और मेरा कर्तव्य एक माना गया है| अर्थात हमारे हृदय में धर्म की आस्था हो, अन्तःकरण और वाणी में नम्रता हो, यही धर्म का सबसे बड़ा लक्ष्य माना गया हैं, मानव चाहे कितना ही वेदों का परिपक्व पण्डित हो, नम्रता के अभाव में सब व्यर्थ है| इसीलिए नम्रता मानव के धार्मिक बनने का सबसे बड़ा साधन हैं।
महाराजा राम ने लक्ष्मण तथा हनुमान जी को ऐसा ही उपदेश दिया था | उन्होंने कहा था कि भाई! देखो जब तक धर्म की आस्था के साथ अन्तःकरण को छूने वाले कार्य पूर्ण नम्रता के साथ नही करेंगे, तब तक हमारे धर्म का कोई महत्व नही हैं| हम धर्म को केवल वाणी से मानें परन्तु हमारा हृदय अधूरा बना बैठा हों |हमारे हृदय में वह महत्त्व न आए, तो हमारी मानवता व्यर्थ हैं| ऐसी मानवता का कोई महत्व नही|
मुनिवरों! आज के हमारे आदेश का अभिप्रायः यही है कि मानव नम्रतापूर्वक धर्म के प्रति ऊँची आस्था रखकर धर्म के लिए कर्तव्यपालन में दृढ़ हो जाए, उस समय मानव में एक विशेष महत्वपूर्ण ज्ञान का प्रकाश होता हैं| ज्ञान के प्रकाश के होने के पर मानव के मन में धर्म के लिए आस्था और दृढ़ हो जाती हैं उस समय मानव में धर्म की विवेक बुद्धि का प्रकाश हो जाता हैं| अर्थात धर्म का बड़ा विवेकी बन जाता हैं।     
    मुनिवरों! महाराजा राम बहुत बड़े राजनीतिज्ञ और धर्म-नीतिज्ञ थे| जिस समय महाराज राम ने रावण को समाप्त कर दिया था, अर्थात उसके प्रभुत्व कोसमाप्त कर दिया था उस समय महाराजा राम के समक्ष विभीषण ने उपस्थित होकर नाना प्रकार के द्रव्यों को उपहार के रूप में प्रस्तुत किए| उस समय महाराजा राम ने अपने मन्त्रियों से कहा था कि “हे मन्त्रियों! विभीषण के द्वारा दिए गए,महाद्रव्यों के उपहारों को स्वीकार करूं न कि न करूं।“
मुनिवरों! उस समय मन्त्रियों ने कहा कि “हे राजन! हे राम! जो आपने दान कर दिया है, वह तो दान ही हैं| दान दी हुई सम्पति में से ही उपहार रूप में वापस लेना आपका कर्तव्य नही है| ऐसा महाराजा हनुमान आदि मन्त्रियों ने राम से कहा।
अहा,मुनिवरों! कैसा सुन्दर आदेश है| इसके विपरीत आज मानव कहाँ पंहुच रहा है? आज का मानव तब तक एक दूसरे का आदर नही करेगा, एक दूसरे के अन्तःकरण की भावनाओं और सत्ता को आदर नही देगा, नही जानेगा, तब तक धर्म का कोई महत्व नही| जब तक मानव की दृष्टि में धर्म का अस्तित्व नही, तब तक मानव एक दूसरे का आदर कदापि नही करेगा।
सबके प्रति आदर भाव
मुनिवरों! आज हमें आदर करना चाहिए| किसका आदर करें और किसका आदर न करें?
मुनिवरों! इस विषय में तो हमारा वेद आदेश देता हैं, कि संसार में सब ही का आदर करो| ऐसी दशा में प्रश्न होता हैं, कि क्या ततोगुणी मनुष्य का भी आदर करें?इस विषय में वेद का मत है तमोगुणी व्यक्ति का भी आदर करो। यदि तमोगुणी का आदर नही करोगे, तो उस तमोगुणी गुणी व्यक्ति में सतोगुण तो कदापि आ ही नही सकेगा।
मुनिवरों! देखो, मानव को आस्तिक बनाने के लिए, उसको तमोगुणी से सतोगुणी बनाने के लिए उसका आदर करना अर्थात उससे आदर पूर्वक व्यवहार करना अत्यावश्यक है| क्योंकि सत्कारपूर्वक व्यवहार से ही उसके अन्तःकरण में सतोगुण के प्रति और आस्तिकता के प्रति प्रेम उत्पन्न हो सकेगा। अन्यथा, नही| तमोगुणी व्यक्ति को भी हमारे मधुर व्यवहार से उसके अन्तःकरण में ऐसी प्रेरणा मिले या उत्पन्न हो कि “तुझको भी लोगो से ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि जैसा तेरे साथ किया जा रहा हैं” इसके विपरीत यदि तमोगुणी व्यक्ति से हम तमोगुण वाला ही व्यवहार करें, तो उस तमोगुण मानव में या उसके अन्तःकरण में सात जन्मों तक भी सतोगुण का अंकुर उत्पन्न न हो सकेगा| इसीलिए वेद कहता हैं कि वेद का आदेश है कि हे मानव! तू नम्रता के साथ सबका आदर कर।
परन्तु इसके साथ वेद ने यह भी आदेश दिया है कि जब तक मनुष्य समय के अनुकूल व्यवहार नही करेगा तब तक मानव का कोई महत्व नही हैं।
इस पर आज का  मानव कहेगा कि वेद ये दो प्रकार की वार्त्ताएं क्यों कर रहा हैं?
मुनिवरों! देखो, हमारे यहाँ दो प्रकार की आस्थाएँ या विषय है, दो प्रकार की नीतियां है एक आध्यात्मिक धर्म नीति है तो दूसरी राजनीति हैं
मुनिवरों! हमको तो धर्म के आध्यात्मिक विषय पर जाना चाहिए, क्योंकि यदि हम आस्तिकता को सतोगुण को प्रसारित करना चाहते हैं, तो हमें सबकी आत्माओं के स्वभाव को ध्यान में रखकर, सभी के साथ अर्थात तमोगुणी के साथ भी नम्रता और आदर के साथ व्यवहार करना आवश्यक हैं| तभी हम अपनी आत्माओं को उच्च बना सकेंगे, तभी हम आध्यात्मिक विज्ञानी बन सकेगें, अन्यथा हम आध्यात्मिक विज्ञान को कदापि तथा किसी प्रकार का भी नही पा सकेंगे|
इस पर आज का मानव कहेगा, कि वह जो महाराजा  कृष्ण ने महाभारत युद्ध के आरम्भ में अर्जुन को कहा था कि “हे अर्जुन! आज कठिन समय उपस्थित है, इस समय तेरा परम कर्तव्य है, कि तू संग्राम करके शत्रुओं का नाश कर| समय के अनुकूल तेरा यही धर्म हैं|” इत्यादि
गायत्री जप की अनिवार्यता
मुनिवरों! धर्म में पूरी-पूरी आस्था रखते हुए, कभी भी मनुष्य को अपने कर्तव्य से विमुख नही होना चाहिए।
मुनिवरों! धर्मशील मर्यादा पुरूषोत्तम राम के जीवन को देखो, जब लंका में राम रावण युद्ध चल रहा था तब भी राम नित्य प्रातः एक सहस्र गायत्री का जप करके ही युद्ध स्थल में उतरा करते थे, राम जब तक एक सहस्र गायत्री का जप समाप्त नही कर लेते थे, तब तब वे संग्राम भूमि में उपस्थित नही होते थे| महाराज राम के चरित्र की तथा इतिहास की इस बहुत सुन्दर वार्त्ता का कथन महर्षि बाल्मीकि ने हमारे समक्ष किया था।
मुनिवरों! महर्षि वाल्मीकि द्वारा महाराजा रामचन्द्र जी का इतिहास तो एक महान वन के तुल्य हैं, इस महान चरित्र का वर्णन तो किसी अन्य स्थान एवं अन्य समय पर करेंगे ।
वर्तमान प्रकाश की अवधि  
मुनिवरों! हमारे समक्ष विचार करने के लिए प्रश्न उपस्थित है, कि जो आज हमें प्रकाश मिल रहा है, वह प्रकाश कब तक रहेगा?
इसका उत्तर यह है, कि जब तक प्रकाश करने वाले पदार्थ, प्रकाशक वस्तु में रहेंगे| जैसे मुनिवरों! प्रकाश देने वाले सूर्य में प्रकाशदाता सविता सत्ता है, यही सविता सत्ता प्रकाश देने वाला पदार्थ है, जब यह सविता सत्ता परमात्मा में रमण कर जाएगी, तब सूर्य का प्रकाश समाप्त हो जाएगा।
इसी प्रकार से प्रकाश दाता, आत्मा जब तक अन्तःकरण के साथ है, तभी तक अन्तःकरण में प्रकाश हैं और तब ही तक अन्तःकरण में संस्कार जम रहे हैं| अर्थात संचित होकर वर्तमान में रहते हैं|मुनिवरों! आत्मा के सहयोग तक ही हमारे प्राण भी कार्य कर रहे है और हमारे चक्षु भी तभी तक कार्य कर रहे हैं| अर्थात जब यह प्रकाश वाला आत्मा, हमारे शरीर में अलग हो जाएगा, उस समय ये सब ही निकम्में हो जाएंगे और हो जाते हैं।
मुनिवरों! आज  के हमारे व्याख्यान का अभिप्राय यह है, कि मानव को अपनी वास्तविक मानवता पर चलना चाहिए, यह कितना सुन्दर एवं प्रबल मानव के लिए परमात्मा का आदेश हैं| परमात्मा का मानवों को वेद में उपदेश है कि हे मानवों! तुम एक दूसरे से प्रीति करो, परस्पर प्रेम पूर्वक व्यवहार करो, भौतिक विज्ञान और आध्यात्मिक विज्ञान को जानकर, अपने जीवन को उच्च बनाओ| स्वयं प्रकाशवान होकर, अपने जीवन को उच्च बनाकर प्रकाश वाले कर्म करो।
संसार की अनित्यता
मुनिवरों! आज का मानव तो विचार रहा है, कि अभी तो प्रकाश हो रहा है, परमात्मा ने कर्म के लिए बहुत समय दिया हैं ,परन्तु हे मानव! ऐसा मत सोच, पता नही मानव का यह जीवन कब समाप्त हो जाए, इस शरीर को त्याग कर आत्मा कब कूच कर दे, इसीलिए हेमानव! कल पर कार्य मत छोड़, यह मत सोच हम कल कर लेंगे| अहा, इस कल ही कल में मानव जीवन समाप्त हो जाएगा,हे मानव! फिर किसके प्रकाश में कार्य करेगा?
मुनिवरों! आज मानव को विचारना चाहिए,कि परमात्मा ने हमें प्रकाश के पाने का अवसर दिया है| उस प्रकाश में हमें क्या कर्म करने चाहिए यदि हम कर्तव्य कर्म नही करेंगे, तो हमारा जीवन व्यर्थ जो जाएगा अहा,मुनिवरों!भगवान की ओर से जीव के लिए कितना मधुर आदेश हैं, इस सुन्दर संसार में धर्म की तथा राजनीति की मर्यादा बाँध करके परलोक सिधारें।
बेटा! इसीलिए आज हमारा भी आदेश है,हमसे भी जितना लाभ प्राप्त कर सकते हो, उतना लाभ प्राप्त कर लो| क्योंकि महाराजा राम और महाराज कृष्ण आदि की तरह हम सबको भी इस संसार से एक न एक दिन चल ही देना है|हमारा भी समय निकट आ रहा है, प्रलयकाल में जैसे सूर्य समाप्त हो जाता है, वैसे ही हमारा भी अन्त हो जाना हैं| इसीलिए बेटा! जितने तुम्हारे प्रश्न हो, कितनी तुम्हारी जिज्ञासाएं हो, सब पूर्ण करो| जीवन का समय सूक्ष्म रह गया है,उस ही सूक्ष्म समय में समाप्त हो जाएगा, यह आत्मा अपने लोक को चला जाएगा यह आत्मा उस स्थान पर पहुँच जाएगा,जहाँ से यह आया था।
पूज्य महानन्द जीः “धन्य हो भगवन!।
पूज्यपाद गुरुदेवः मुनिवरों! अभी-अभी हम महानन्द जी के प्रश्नों का उत्तर अपनी शक्ति के अनुसार देंगें।
पूज्य महानन्द जीः गुरु-जी अभी-अभी आपने कहा था कि जैसे महाराजा राम और महाराजा कृष्ण आदि समाप्त हो गएं, वैसे हम सब भी समाप्त हो जाएंगें? तो क्या आप भी और हम भी समाप्त हो जाएंगें? हास्य
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! तुम तो समाप्त हुए बैठे हो, हास्य तुम्हारी वार्त्ता ही क्या है, हास्य तुम्हारा तो कोई उच्चारण करना ही नही हैं| हास्य
पूज्य महानन्द जीः अच्छा भगवन्! तो गुरु जी हमें आपने कल द्वापर के समय का कुछ आदेश दिया और महाराज गंगशील ब्रह्मचारी के विषय में कहा था।
परन्तु आज हम अपने सूक्ष्म शरीर के द्वारा जब लाक्षागृह पर विचरण कर रहे थे तब हमने सुना था कि गंगशील की माता तो वह गंगा नदी थी, तो आज भी पर्वतों में निकल कर मृत्युलोक पर बह रही हैं| और इसी गंगा नदी का महाराज शान्तनु के साथ विवाह संस्कार हुआ था| इसने देव कन्या स्वरूप धारण किया था| संस्कार के समय महाराजा शान्तनु से यह वचन हुआ था कि जो भी मेरे पुत्र होगा,उसकाआहार मैं स्वयं कर जाया करूंगी।
 पूज्यपाद गुरुदेव-अच्छा
पूज्य महानन्द जीः दूसरा प्रश्न यह है कि एक समय महाराज इन्द्र ने गणों और आठ गन्धर्वों को शाप दे दिया था कि वे ही आठ गन्धर्व थे, जो माता गंगा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे| परन्तु आपने तो इन सबकी रूप रेखा ही बदल दी हैं, आपकी रूप रेखा समझ में नही आ रही हैं, क्योंकि आधुनिक महाभारत में भी हमारे कथनानुसार परम्परा अंकित हैं| अब हम यह जानना चाहते है, कि हम आपके व्याख्यानों को स्वीकार करें या आधुनिक काल के महाभारत की वार्त्ताओं को स्वीकार करें।
पूज्यपाद गुरुदेवः  महानन्द जी! इसमें तो कोई उलझन की वार्त्ता नही है, क्योंकि जो तुम्हें सत्य प्रतीत होता हो, उसी को स्वीकार कर लो, हमारी तो इसमें कोई हानि नही हैं।
परन्तु बेटा! तुम्हारे उच्चारण के अनुसार हम एक वार्त्ता जानना चाहते है, कि तुमने एक बार कहा था कि ब्रह्मा जी की कृपा से यह गंगा पहले ब्रह्मलोक में बहती थी,उस समय गन्धर्वों को श्राप दे दिया गया था| तब इन गन्धर्वों ने ब्रह्मा की पुत्री गंगा से याचना की थी, कि हे माता! आप मृत्यु लोक में चलें, क्योंकि वहाँ हम तेरे गर्भ से जन्म धारण करेंगे,तुम स्वयं आहार करके, हमारा उद्धार करते रहना| ऐसा ही तो कभी तुम्हारा व्याख्यान था
पूज्य महानन्द जीः हां हां
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा बेटा! इसका संक्षेप में उत्तर यह है, कि परमात्मा की कृपा से पर्वतों से गंगा झरने के रूप में निकल कर, अन्य नदी नदों आदि से मिलकर ,वैश्यों तथा कृषकों की खेती को जीवन प्रदान करती हुई, कीट पतंगों, पशु पक्षियों एवं मानवों आदि को अपने अमृतरूपी जल से सन्तुष्ट करती हुई, जीवन दान करती हुई बहती हैं |आस्तिक लोग इस अनुपम रचना के द्वारा परमात्मा के चिन्तन की ओर लग जाता हैं| परमात्मा में रमने लगता है|
गंगा का कन्या रूप
बेटा! मानव का एक सिद्धान्त होना चाहिए, कि सत्य को सत्य मानने में या उसके उच्चारण करने में कोई आपत्ति नही होनी चाहिए, बेटा! यह गंगा तो जल की तरह बह रही हैं, यह तो सर्वथा जड़ है, चेतना शून्य है, ज्ञान शून्य हैं, जल कहीं कन्या रूप में आता हैं, क्या यह हो सकता है, बेटा! यह तो हो सकता है कि कोई कन्या गंगा नदी में किसी स्थान पर गिर कर बह गई हो,और उसको किसी ने निकाल कर गंगा नाम रख दिया हो।
बेटा! परन्तु जल वाली गंगा नदी देव कन्या बन गई हो, हम तुम्हारे ऐसे वाक्यों को कभी भी मानने को तैयार नही| क्योंकि ये परमात्मा की बनाई हुई प्रकृति के सर्वथा विरूद्ध हैं।
यह भी हो सकता है कि गंगा नामक देव कन्या कभी गंगा में गिर गई हो उसकी राजा शान्तनु ने रक्षा कर दी हो, परन्तु तुम्हारी कल्पना को हम कभी नही मानेंगे| क्योंकि यह प्राकृतिक नियम के विरूद्ध हैं।
बेटा! आपने जो यह कहा कि यह ब्रह्मा की पुत्री है,इत्यादि यह वाक्य तो सत्य हैं, क्योंकि जो जहाँ से उत्पन्न होती है, वह उसी की पुत्री होती हैं| परन्तु आज के मानव ने इस वार्त्ता को अच्छी प्रकार से विचारा नही, और न अच्छी प्रकार से समझा ही| मानव अपने अज्ञान के कारण कुछ का कुछ समझ बैठा हैं।
जीवात्मा ही गंगा
इसका व्याख्यान यह है, कि बेटा! हमारे शरीर में नौ द्वार है, वे ही गन्धर्व हैं| मुनिवरों! मूलाधार चक्र से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक गंगा, यमुना, सरस्वती ये तीन नदियां बह रही है| बेटा! जिनको तुम आकाश गंगा, मुत्यु लोक की गंगा, पाताल गंगा  कहते हो,तीनों गंगाएं हमारे इस शरीर में है| गंगा ही नौ द्वारों में रमण कर रही हैं, इनको स्वच्छ करती रहती हैं, ऐसी कौन-सी गंगा हैं, जो ब्रह्मा की पुत्री हैं।
मुनिवरों! देखो, गंगा नाम आत्मा का है,क्योंकि इन नौ द्वारों वाले शरीर को पवित्र कर रहा हैं|बेटा! यदि यह महान आत्मा इस नौ द्वारों वाले शरीर में न होता, तो इन नौ द्वारों का कुछ भी न बन सकता था| इसी के द्वार शरीर पवित्र होता हैं।
जैसे लोग लौकिक गंगा में स्नान करके स्वच्छ हो जाते हैं, अपने शरीरों को पवित्र कर लेते हैं उसी प्रकार से ब्रह्मा की पुत्री रूपी गंगा के द्वारा, यह नौ द्वारों का शरीर पवित्र होता रहता है| परमात्मा का तथा आत्मा का सम्बन्ध पिता पुत्र का हैं| बेटा! वह ध्यान देने वाला विषय हैं, कि जब आत्मा इस शरीर को त्याग कर चल देता हैं, तब इस निष्प्राण शरीर को लोग अपवित्र मानते हैं| इसमें आत्मा के निवास तक ही इसको पवित्र माना जाता हैं |अतः पवित्र करने वाली गंगा आत्मा ही हैं
गंगा का आलंकारिक स्वरूप
बेटा!देखो, गंगा का एक आध्यात्मिक योगाभ्यासियों का आलंकारिक वर्णन भी हैं, जिसको मानव ने समझा नही।
इस मानव शरीर में तीन नाड़िया हैं, इडा, पिंगला, सुषुम्ना या गंगा, यमुना, सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हैं जब मानव योगाभ्यासी बन कर मूलाधार में ध्यान करके रमण करता है तब उसको मृत्यु लोक की गंगा का ज्ञान होता है इसके पश्चात जब आत्मा नाभिचक्र में और हृदय चक्र में ध्यानावस्था में पंहुचता हैं, तब उसे आकाश गंगा का ज्ञान होता है, जब योगाभ्यासी आत्मा समाधि अवस्था में घ्राणेन्द्रिय चक्र में ध्यान लगाता हैं तब वह त्रिवेणी में पंहुच जाता हैं| या त्रिवेणी का साक्षात्कार करता है,
 बेटा!इससे आगे चलकर आत्मा जब ब्रह्मरन्ध्र में पंहुच जाता है, तब उस योगी आत्मा को ब्रह्मलोक की गंगा का ज्ञान होता हैं।
परन्तु मानव ने इस रूप रेखा को ठीक प्रकार से जाना तो है नही, इसीलिए मानव स्थूल अर्थों की कल्पना द्वारा स्थापित करके भटक रहा हैं| भौतिक नदी गंगा को ही, आज का मानव मुक्ति का साधन अपनी अज्ञानता से समझ बैठा हैं| इस गंगा से तो केवल भौतिक शरीर ही स्वच्छ किया जा सकता हैं, या प्यासे को उसके स्वच्छ जल से सन्तुष्ट किया जा सकता हैं|
मानव का अन्तःकरण तो ज्ञान पूर्वक कर्तव्य, कर्म करने से ही पवित्र होगा|
बेटा!अब रही बात, कि राजा शान्तनु के समक्ष, यह भौतिक नदी गंगा,देव कन्या का शरीर धारण करके प्रस्तुत हो गई, तो बेटा! यह वार्त्ता तो किसी अज्ञानियों के समाज में कहना, वहाँ तुम्हारी वार्त्ता स्वीकार कर लेंगे| इसमें हमें कोई आपत्ति नही, बेटा!परन्तु यहाँ तो तुम्हारा व्याख्यान चलेगा नही, हास्य
पूज्य महानन्द जीः धन्य हो भगवन!
गंगा माँ का वास्तविक स्वरूप
पूज्यपाद गुरुदेवः मुनिवरों! हमने तो द्वापर काल में यह देखा था, कि राजा गंगेश्वर की गंगा नाम की पुत्री थी| इस गंगा से महाराजा शान्तनु का विवाह संस्कार हुआ था| इसके सात पुत्र उत्पन्न होकर समाप्त हो गएं थे| इसके पश्चात इनके गंगशील नाम का आठवां पुत्र उत्पन्न हुआ |वह पुत्र दीर्घायु हुआ| इसके समय समय पर ब्रह्मचारी पर्जन्य, कौडिली ब्रह्मचारी, देवव्रत और भीष्म पितामह तथा गांगेय आदि नाम प्रसिद्ध हुए।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! इस विषय में तो हमारे बहुत से प्रश्न समाधान के लिए शेष हैं”
पूज्यपाद गुरुदेवः “हां तो बेटा! समय मिलेगा, तो उनके उत्तर देते रहेंगे|”
पूज्य महानन्द जीः “गुरुजी !इसके पश्चात यह गंगा समाप्त हो गई, तो इन महाराजा शान्तनु का संस्कार मच्छोदरी के साथ हुआ |”हास्य  अच्छा, तो गुरुजी तो यह मच्छोदरी किसकी पुत्री थी? हास्य
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! किसकी उच्चारण करें?”
पूज्य महानन्द जीः महर्षि व्यास जी ने तो इसके विषय में लिखा है कि यह नौका चलाने वाले मल्लाह की कन्या थी,अच्छा भगवन्! तो यह कन्या उस मल्लाह के यहाँ कहाँ से आई?
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! इस कन्या ने उस मल्लाह के गृह में जन्म लिया था|”
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा तो गुरुजी! इस विषय में तो हमने बहुत ही अनोखी वार्त्ता सुनी हैं|”
पूज्यपाद गुरुदेवः “वह क्या है ?”
पूज्य महानन्द जीः हमने सुना हैं, कि महर्षि पारा की यह पुत्री थी
पूज्यपाद गुरुदेवः हूँ
पूज्य महानन्द जीः महर्षि पारा का ब्रह्मचर्य मछली के गर्भ में चला गया था, उस मछली से ही इस मच्छोदरी का जन्म हुआ| हास्य
पूज्यपाद गुरुदेवः तो महानन्द जी! तुम तुकबन्दी लगा रहे हो, यदि  जिसका नाम मच्छोदरी हो, तो  क्या उसने मछली से जन्म लिया है, यह मूर्खों वाले प्रश्न कहाँ से आएं, हमारी समझ में तुम्हारे ये प्रश्न नही आ रहे हैं| महानन्द जी! तुम तो सब कुछ जानते हुए भी, कुछ नही जानते| हास्य
महानन्द जी के प्रश्न करने का कारण
पूज्यपाद गुरुदेवः गुरु जी क्या करें, ये हमारे और तुम्हारे वाक्य, मृत मण्डल में जा रहे हैं, और हमारे व्याख्यानों को सभी पा रहे हैं, इसमें कोई भ्रान्ति नही |भगवन! आपसे प्रश्न करना, हमारा कर्तव्य हैं| यदि आपसे प्रश्न नही करेंगे, तो किसके समक्ष प्रश्न करेंगे|
पूज्यपाद गुरुदेवः हूँ, तो सुना बेटा!
पूज्य महानन्द जीः इसके विषय में ऐसा सुना  है कि जब महर्षि पारा मुनि को विवेक हुआ,
पूज्यपाद गुरुदेवः हूँ
पूज्य महानन्द जीः और अपनी पत्नी उच्चांगना से कहा कि हे धर्म देवी! मुझे आज्ञा दो , मैं इस समय मार्ग में तपस्या करने के लिए जा रहा हूँ|उस समय महाराज शान्तनु भी वहाँ विराजमान थे| धर्मदेवी ने एक वाक्य कहा कि भगवन! आप जा तो रहे हैं, परन्तु यदि मुझे पुत्र की इच्छा हुई, तो मुझे पुत्र को तो अवश्य उत्पन्न करना है
मुनिवरों! तो उस समय महर्षि पारा मुनि ने यह कहा कि तुम कागा को मेरे समक्ष नियुक्त कर देना मैं उनको अपनी मन्मन्ता धारण करूंगा| ऐसा कहकर पारा मुनि प्रस्थान कर गएं| वन में जाकर अखंड  तपस्या करने लगे| इसके पश्चात उनकी धर्म पत्नी में पुत्र की इच्छा से काम शक्ति उत्पन्न हुई, तब उन्होंने उस समय कागा नामक दूत को अपने सन्देश के साथ, महर्षि पारा मुनि के पास भेजा| उस समय पारा मुनि ने अपनी गुप्त इन्द्रिय का मन्थन करके अपने ब्रह्मचर्य को किसी यन्त्र में स्थापित करके, कागा को दे दिया|कागा वहाँ से लेकर, जब गंगा के स्थान पर पंहुचे, वहाँ बहुत से व्यक्ति अपने अपने वाक्य उच्चारण कर रहे थे, वहाँ कागा को उनके वाक्यों को सुनने की इच्छा हुई, ऐसी परिस्थिति कुछ असावधानी के कारण हुई,कि वह यन्त्र गंगा में गिर कर मछली के मुखारबिन्दु में चला गया| तो देखो, महर्षि पारा मुनि का महान ब्रह्मचर्य था, वह व्यर्थ नही जाता, तब उस मछली के गर्भस्थापन हो गया, उस मछली को किसी मछली पकड़ने वाले ने पकड़ लिया उस मछली-मार  ने उस मछली को पकड़ कर उसके दो भाग कर दिए, मछली के गर्भ में कन्या विराजमान थी| तब उसने उस कन्या को निकाल लिया|
दूसरी और  कागा महर्षि की धर्मपत्नी के पास पंहुचे, तब पत्नी ने कहा कि कहो, भाई कागा| तो उन्होंने कहा कि मुझको तो सर्मपण कर दिया था| परन्तु मध्य में ही समाप्त हो गया|
तब ऋषि पत्नी ने शाप दे दिया|
उधर उस मछुए ने उस कन्या को किसी मल्लाह राज को समर्पण कर दी| मल्लाह लोग इसको मच्छोदरी कहने लगे| इसके पश्चात वह कन्या चन्द्रमा के तुल्य बढ़ने लगी| शीघ्र ही पूर्ण चन्द्रमा के तुल्य, पूर्ण यौवन और पूर्ण सौन्दर्य को प्राप्त हो गई| भगवन! कुछ काल के पश्चात ,महर्षि पारा मुनि गंगा को पार करने के लिए वहाँ  पंहुचे,जहां वह मच्छोदरी सुशोभित हो रही थी| महर्षि तुरन्त ही गंगा नदी पार करना चाहते थे, परन्तु उस समय मच्छोदरी के पलक पिता ने कहा कि मै तो भोजन कर नियुक्त हो गया हूँ यदि ऋषि को तुरंत ही गंगा पार नही किया तो ऋषि क्रोधित हो जाएंगे इस कारण से मेरी इच्छा है कि तुम नौका द्वारा ऋषि को गंगा पर करा आओ|,
गुरुजी ऐसा सुना है, कि उस समय वह मल्लाह की कन्या ऋषि के समक्ष पंहुची, उस कन्या का पा करके ऋषि का मन वासनामय हो गया, उसका हृदय चंचल गति को प्राप्त हो गया| उस मच्छोदरी से ऋषि ने अपनी इच्छा प्रकट की, तब मच्छोदरी ने उत्तर दिया कि महाराज! यह जो बड़ा पाप है, सूर्य उदय हुआ है, सूर्य का प्रकाश संसार में फैला हुआ हैं ,और वरुण हमारे समक्ष है|हम क्या करे?
तो गुरुदेव ऐसा सुना जाता हैं ,कि उस समय महर्षि पारा ने गंगा में जल लेकर ऊपर को उछाल दिया, मानो इन्द्र बरसने लगा और वहाँ, उन्होंने अपनी काम शक्ति को पूर्ण किया| तो भगवन! हमने तो ऊपर कहे अनुसार सुना है| आपने तो इसकी रूप रेखा को भिन्न कर दिया, तो वास्तव में हम क्या मानें?
गुरुदेव !हमने सुना है,कि उससे मच्छोदरी के गर्भ की स्थापना हो गई, उस कुमारी कन्या मच्छोदरी के गर्भ से महर्षि व्यास उत्पन्न हुए, तो गुरुजी इस वार्त्ता में कहाँ तक यथार्थता है? कहाँ तक सत्य है? हास्य
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! जो तुम उच्चारण कर रहे हो, उस सबको हम मान लेते, यदि हम स्वयं द्वापर काल को नही देखते, तब हम तुम्हारे सभी वाक्य स्वीकार कर लेते, परन्तु आज कैसे करें? असत्य और निराधार वार्त्ता पर विश्वास नही होता, प्रकृति के नियम के विरूद्ध वार्त्ता को हृदय स्वीकार नही करता, इसकी तो रूप रेखा इसप्रकार हैं
महर्षि व्यास का जन्म
 बेटा! महर्षि पारा मुनि के अपनी धर्म पत्नी से दो पुत्र थे| महर्षि व्यास और धुन्धु ऋषि| तो बेटा! जैसी यह वार्ता तुमने सुनाई है, यह सब किसी धूर्त मानव की बनाई हुई वार्त्ता हैं|
बेटा! तुम जानते ही हो कि मछली का गर्भाशय कैसा होता हैं,और माता का जैसा गर्भाशय होगा, वैसी ही उसके सन्तान होगी। अर्थात मानव स्त्री के गर्भाशय से मानव और मछली के गर्भाशय से मछली ऐसा परमात्मा का प्राकृतिक नियम हैं| इसमें कहीं भी अपवाद तक नही मिलता |यह तो बेटा! तुम जानते ही हो
पूज्य महानन्द जीः  हाँ,गुरुजी इसमें यह है कि योगीजन अपने योग  की शक्ति से परमात्मा के नियम के विरूद्ध भी कर सकते हैं| इसीलिए सम्भव है, कि ऊपर की घटना भी उसी रूप में घटी हो।
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा , बेटा! हमने तुम्हें एक वाक्य निर्णय कराया था, कि जो जिसके निकट पंहुच जाता हैं ,वह उसके विरूद्ध कोई कार्य नही करता
बेटा! जैसे कोई मूर्ख व्यक्ति किसी राजा के राष्ट्र में पंहुच जाए और वह वहाँ भाग्यवश राज्य का मन्त्री बन जाएं ,तो वह राजा के विरूद्ध कोई कार्य नही करेगा| इसी प्रकार तो व्यक्ति परमात्मा के निकट पंहुच जाता हैं, परमात्मा के ज्ञान को जानने वाला बन जाता है, वह परमात्मा के नियम के विरूद्ध कोई कार्य नही करेगा| बेटा! यह भी जान लो कि महर्षि पारा मुनि ऐसे व्यक्ति नही थे, कि वे परमात्मा के नियम के विरूद्ध कोई कार्य करते, यह तो हो सकता है कि मानव के हृदय की गति अति चंचल हो जाए, परन्तु ऐसे महान ऋषि तुरन्त ही उस पर अपना नियन्त्रण कर लेते हैं|
मछली के गर्भ से मानव कन्या का जन्म होना तो सर्वथा ही नियम विरूद्ध हैं| इसको तो कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी स्वीकार नही करेगा| क्योंकि परमात्मा के बनाए  नियम तो अटल है, सत्य है, तीनों कालों में एक से  हैं| परमात्मा की चलाई, परम्परा को कोई भी तोड़ नही सकता| चाहे महर्षि हो, चाहे योगी हो, चाहे मुनि हो|कोई भी मानव परमात्मा के नियम से दूर नही भागेगा वह तो परमात्मा के नियम में ही चलता रहेगा

बेटा! तुम्हें हमने प्रमाण दिया था, कि जैसे मानव को शीत लगने लगे  और वह अग्नि के समक्ष चला जाए तो ज्यों -ज्यों उसमें अग्नि के परमाणु प्रवेश करते जाएंगें, त्यों त्यों उसका शीत दूर हो जाएगा। ऐसे ही  देखो,जो मानव उस परमात्मा के गुणों को जान लेता है ओर ज्यों –ज्यों शनैः शनैः परमात्मा के  गुण उसमें प्रविष्ट होते जाते हैं| त्यों त्यों वह परमात्मा के नियमों में  घिर कर कर्तव्य करने लगता हैं|
बेटा! योगियों का तो ऐसा सुन्दर सिद्धान्त है, आज हमको उसे मान लेना चाहिए, इससे हमारा भी जीवन बनेगा और उसी में हमारा महत्व हैं
बेटा! महर्षि पारा मुनि के दो पुत्र थे| जो कि उनकी धर्म पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, एक महर्षि व्यास मुनि महाराज और दूसरे धुन्धु ऋषि महाराज
मुनिवरों! देखो,मच्छोदरी के दो बालक थे|  जोकि मच्छोदरी के साथ शान्तनु का विवाह संस्कार होने के पश्चात हुए थे।
मुनिवरों! यह है तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर, बेटा! हमने ऐसा देखा और सुना था
यदि कोई ऋषियों पर इस प्रकार का लांछन आरोपित करता है, तो यह उसकी बुद्धिमत्ता नही|
इस पर तुम यह कहोगे, कि ऐसे वाक्य तो महर्षि व्यास ने स्वयं कहे हैं|
वास्तव में महर्षि व्यास ने तो यह कहा कि गंगेश्वर राजा की पुत्री गंगा थी| उसकी मृत्यु के पश्चात महाराजा शान्तनु ने मल्लाह की, अत्यन्त सुन्दरी कन्या मच्छोदरी से विवाह संस्कार किया| बेटा! हमने तो ऐसा देखा और सुना हैं| अब रही वार्त्ता आधुनिक समय की,बेटा! यह तो तुम मूर्खों वाली वार्त्ता हमारे समक्ष नियुक्त करने लगे हो, अब बताओं तो हम तुम्हारी ऐसी वार्त्ताओं का, कहाँ तक निर्णय करते रहेंगें।
पूज्य महानन्द जीः धन्य हो भगवन!
पूज्यपाद गुरुदेवः मुनिवरों! आज हम अपने व्याख्यान में महानन्द जी के प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे, मानव को ऐसा विचारवान होना चाहिए कि मानव को सच मानने में कोई किसी प्रकार की आपत्ति नही होनी चाहिए, जो सत्य का वाक्य हो, उसको स्वीकार करने में, न बेटा!तुम्हारी हानि हैं, और न हमारी हानि हैं|
बेटा! तुम्हारे प्रश्न तो होते ही रहेंगे, कल इससे आगे के द्वापर काल का वर्णन करने की हमारी इच्छा है, कल तुम्हारे जो प्रश्न होंगे, उनका निर्णय करते रहेंगे।
पूज्य महानन्द जीः गुरुजी! प्रश्न तो इस काल में बहुत हैं
पूज्यपाद गुरुदेवः और क्या हैं?
पूज्य महानन्द जीः गुरुजी एक यह है, अच्छा कल ही उच्चारण कर देंगे, कि जो कुन्तेश्वरी थी, उसने भी पांचों पुत्र सब देवताओं से उत्पन्न किए थे।
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा बेटा! कल इस विषय पर व्याख्यान हो जाएगा, अब तो हमारा व्याख्यान समाप्त हो जाना चाहिए| क्योंकि आज हमारा इतना व्याख्यान होना था| बेटा! कल इसका विश्लेषण में व्याख्यान दे देंगें| बेटा! तुम्हारे प्रश्न तो चलते ही रहेंगे, और हमें भी उनका निर्णय करना हमारा कर्तव्य हैं|
कल हम अपना दार्शनिक विषय तथा द्वापर के समय का कोई व्याख्यान तुम्हारे समक्ष नियुक्त करेंगे| हमारा यह व्याख्यान समाप्त हो रहा है| अब वेदों का पाठ होगा,इसके पश्चात हमारी वार्त्ता समाप्त हो जाएगी।
मुनिवरों! मानव को बुद्धिपूर्वक एवं महत्वपूर्ण विचार करने चाहिए, इस प्रकार से मानव के जीवन की रूप रेखा बदल कर महान बन जाती है, मानव को सुन्दर रूप रेखा बनानी चाहिए| यही मानव का कर्तव्य हैं|
महानन्द जी का तो कल यह प्रश्न था, कि मधु शान्ति पाठ हो जाएं, परन्तु मधु शान्ति पाठ आज नही करेंगे कल या किसी द्वितीय स्थान में ही देखेंगे, क्योंकि मधु शान्ति पाठ बहुत अधिक हैं| अब हमारा वेदों का पाठ होगा
पूज्य महानन्द जीः भगवन! आप तो हमारी इच्छा किसी काल में भी पूर्ण नही किया करते
पूज्यपाद गुरुदेवः अरे, देखा जाएगा, कल
पूज्य महानन्द जीः अच्छा भगवन्!

Monday, September 10, 2018


1   3 ०४ १९६२   ब्राह्मण का स्वरूप

जीते, रहो!
 देखो, मुनिवरों! अभी-अभी हमारा पर्ययन समय समाप्त हुआ, हम तुम्हारे समक्ष वेदों का मनोहर पाठ कर रहे थे |आज के वेद पाठ में कई प्रकार का विवरण आया, आज हम पूर्व मन्त्रों में उस विधाता का गान गा रहे थे, जिस विधाता ने हमारे जीवन के लिए हमें ऊँचे कर्म करने के लिए संसार रूपी क्षेत्र को उत्पन्न किया हैं|आज हम उस विधाता के गुणगान कहाँ तक गाएं, वह विधाता मनोहर और अलौकिक है, बड़े-बड़े महान आचार्य योगीजन उस विधाता के गुणगान करते करते समाप्त हो गएं।
कैसा अदभुत संसार है यह? किसने  रचा हैं इसको? किसने उस विधाता से याचना की, “कि आप इस संसार को उत्पन्न करो।“
सृष्टि उत्पत्ति का कारण
आज हमें वेद मन्त्रों से यह प्रतीत होता हैं, कि यह आत्मा ही उस प्रभु से याचना करने गया था | उस प्रभु ने अपने बालक की याचना को पाकर इस संसार रूपी क्षेत्र को उत्पन्न किया, फिर उसने एक एक तत्त्व में ऐसे ऐसे गुण उत्पन्न किए, कि जिनका वर्णन नही किया जाता|बेटा! पृथ्वी को ही देखो, इसमें नाना गुण हैं इसमें नित्यप्रति कहाँ से इतने तत्त्व आ पंहुचे हैं? स्थावर, वृक्ष योनियों में ही देखो, प्रत्येक वृक्ष अपना अपना रस, अपने अपने  गुण इस पृथ्वी से ही ले रहा हैं, यह कैसा अलौकिक तत्त्व हैं? इस पृथ्वी में ऐसे गुण कहाँ से आ गए हैं? जिन गुणों की मानव को आवश्यकता है, उन गुणों को प्रेरित करने की शक्ति तथा सत्ता किसने प्रदान की हैं?
बेटा! इससे बड़ा आश्चर्य होता है  कि उस विधाता ने अपनी रचना से इस महान प्रकृति को प्राण रूपी सत्ता दी, इसी को सामान्य प्राण कहते हैं| मानव के कल्याणार्थ, शून्य प्रकृति को प्राण सत्ता देकर, इसको गतिशील बना कर आत्मा को कर्म करने का अवसर दिया|
बेटा! हमने उस काल को देखा  है, जिस काल में मुनिवरों! यहाँ महर्षि पापड़ी मुनि महाराज, अंगिरा मुनि महाराज,महर्षि करूण मुनि, कपिल मुनि आचार्य और वशिष्ठ मुनि जैसे आचार्य थे, जिस काल में सब महान माताएं तथा देव कन्याएं अपने एकान्त स्थलों में विराजमान हो कर, यही सोचा करती थी, कि यह संसार क्षेत्र क्या हैं किसने हमें इतना उच्च कर्म करने का अवसर प्रदान किया हैं?
आज हमें भी तो यही विचारना है, कि हम ज्ञानी विज्ञानी कैसे बनें? परमात्मा के ज्ञान विज्ञान को कैसे जानें? बेटा! हमारे आदि आचार्यों ने तथा अन्य माता अरूणा जैसी धर्म लक्ष्मियों ने, इस संसार के तत्त्वों  को परमात्मा के महत्वों को, प्रकृति के तत्त्वों एवं गुणों के द्वारा जाना, बेटा! हमें प्रतीत होता हैं, कि आज इस सृष्टि में उस परमात्मा की ज्योति ही व्यापक हैं, उसी की ज्याति से यह संसार प्रकाशित हो रहा हैं।
वेद विद्या
अहा, कैसा महान संसार है? कैसा आश्चर्यजनक है? बेटा! उस परमात्मा की विद्या को पाकर हम सुशील बन जाते हैं, वह विद्या कहाँ से आई? किसने  विद्या प्रदान की, जिससे मानव का उत्थान हो जाता हैं| यदि बेटा !आज हम यह मान लें, कि यह विद्या प्रकृति से आई, तो बेटा! प्रकृति तो जड़ हैं, ज्ञान शून्य है, यह तो मानव को शून्यता तक पंहुचाने वाली हैं|
अहा,तो विद्या कहाँ से आई हैं? जो मानव का विकास कर देती हैं, प्रलय काल में यह विद्या किस स्थान पर थी, जिस  काल में यह संसार समाप्त हुआ, उस समय यह वेद की विद्या कहाँ थी?
आज मानव इसके विश्लेषण पर विचार लगाता हैं और कई प्रकार से सोचता हैं, वेदानुयायी महान आचार्यों की सम्मति पर दृष्टि डालते हैं, तो प्रतीत होता है कि परमात्मा इतना पूर्ण ज्ञानी हैं, कि वही जीवात्मा को ज्ञान प्रेरित कर देता हैं,जीवात्मा उस प्रभु के ज्ञान को पाकर, उसकी वेदवाणी को पाकर, यह जीवात्मा बेटा! अनेक प्रकार से ज्ञानी और विज्ञानी बन जाता हैं, उस ज्ञान विज्ञान की सहायता से ही आज भी हम अपने जीवन को बहुत उच्च और सफल बनाया करते हैं।
प्रलय काल में वेद ज्ञान
प्रश्न होता हैं, कि यह अदभुत वेद ज्ञान, प्रलय काल में कहाँ रहता हैं?
 प्रलय  काल में यह आत्मा परमात्मा के गर्भ में रहता है, यह वेद ज्ञान परमात्मा के स्थानों में रहता है जैसे बेटा! बालक का स्थूल शरीर माता के गर्भ में रहते हुए मानव को दृष्टिगोचर नही होता, परन्तु जब गर्भ से पृथक हो जाता है  तक उसके च़क्षु भी हैं, भुजाएं भी हैं, पद भी हैं, त्वचा भी है,सब इन्द्रियां भी हैं, ये सब उत्पन्न होने पर, प्रत्यक्ष होते है| इसी प्रकार बेटा! ये सब विद्याएं प्रलय  काल में परमात्मा के गर्भ में चली जाती हैं| परमात्मा पूर्व नियम के अनुकूल, परमात्मा में ही निवास करती हैं।
एक समय हमारे आदि आचार्यों ने दार्शनिक समाज में कहा था, कि आत्मा का ज्ञान तो प्राकृतिक है, आत्मा का ज्ञान तो स्वाभाविक है, मुनिवरों! यह वाक्य यथार्थ हैं| आत्मा  की दो महान सताएं स्वाभाविक हैं| वे है एक ज्ञान है, दूसरा प्रयत्न है |मुनिवरों! आज हम आत्मा की सत्ता को इस प्रकार मान लें, कि यह कहाँ से आती है? तो बेटा! हमें उस सत्ता के जगाने के लिए, इस महान स्थूल प्रकृति में आ करके, किसी से वह ज्ञान लेना पड़ता हैं, किसी से उसके लिए प्रार्थना करनी पड़ती हैं, जिससे इस आत्मा को ज्ञान होता हैं| वह अज्ञानान्धकार से पृथक होता हैं|
जीव के लिए वेद ज्ञान का महत्त्व
मुनिवरों! देखो, जैसे भौतिक विज्ञान के खोजने के लिए हमें प्रकृति के नाना तत्त्वों की आवश्यकता पड़ती हैं तब हम उस ज्ञान विज्ञान को खोज पाते हैं | इसी प्रकार आत्मा का जो ज्ञान स्वाभाविक हैं, उसको जगाने के लिए वेद विद्या का प्रसार करना, वेद विद्या को ग्रहण करना पडेगा| जब वेद विद्या की सन्धि आत्मा में पंहुच जाती हैं, उस समय बेटा  उस परमात्मा के दिए हुए, वैदिक ज्ञान से एक महान सम्बन्ध हो जाने पर मानव जीवन पूर्ण-विकास को प्राप्त हो जाता हैं।
मुनिवरों! आज के हमारे वेद-पाठ में परमात्मा के दिए, इसी उपदेश का वर्णन था परमात्मा ने हमें वह ज्ञान दिया है कि जिसे पाकर हम उसके उपासक बन जाते हैं, पवित्र बन जाते हैं, उस अमृत को पाकर हम भी वास्तव में अमृत ही बन जाते हैं| तब वहाँ अमृत-आत्मा आनन्द ही आनन्द भोगता रहता हैं।
बेटा! वेद की विद्या पाकर हम सुशील बन जाते हैं, सुशील बन कर ही हम दार्शनिक समाजों में जा कर, वहाँ नाना प्रकार के प्रश्न कर सकते हैं, और हम उन प्रश्नों के उत्तर भी उन ऋषियों और दार्शनिकों से पाने वाले बन जाते हैं
सृष्टि की उत्पत्ति का रहस्य
मुनिवरों! हमारे कर्म करने के लिए संसार रूपी क्षेत्र को उत्पन्न करने वाले विधाता से याचना करते हुए हम कर्म करने के लिए उद्यत हो रहे हैं| हमारे आदि आचार्यों ने मानव जीवन की विकासशीलता का अनके स्थानों पर वर्णन किया। इसी को कल हम अपने व्याख्यान में कह चुके हैं।
महामुनि नारद ने अपने जीवन का पूर्ण विकास किया था| नारद मुनि की विशेषता थी, कि उन्होंने  अपनी तपस्या एवं पुरूषार्थ के बल से सूर्य-मण्डल में पंहुचे तथा वहाँ के राजा  विष्णु को इस पृथ्वी पर खींच लिया |नारद मुनि ने अपनी तपस्या एवं पुरूषार्थ के प्रभाव से महाराजा विष्णु का अभिमान नष्ट कर दिया |बेटा! जो भी मानव अभिमानव से कार्य करता है, उसका एक न एक दिन पतन अवश्य होता हैं|वह पार्थिव रूप जड़ता को प्रपट हो जाता है | आज हमें इसका ध्यान रखना चाहिए, हमें अपनी तपस्या और पुरूषार्थ के  द्वारा सफलता मिलने पर भी थोड़ा-सा भी अभिमान नही करना चाहिए।
हमारे वेद मन्त्रों में अनेक स्थानो पर वर्णन आ रहा है कि यह महान संसार, उस परमात्मा को पाने के लिए बनाया हैं| इसीलिए हमको बहुत अधिक महत्ता की आवश्यकता हैं।
ब्राह्मण
मुनिवरों! देखो, ‘ब्राह्मण वर्चति’ इत्यादि आज के वेद पाठ में नाना प्रकार के ब्राह्मणें को वर्णन आ रहा था|ब्राह्मण किसको कहते हैं? संसार में ब्राह्मण की क्या विशेषता है ?बेटा!ब्राह्मण कहते है ज्ञानी को | प्रत्येक जीवन-यात्री को, प्रत्येक देव कन्या को ज्ञान देकर, अमृत तुल्य बना देने में सहायता करने वाले को ब्राह्मण कहते हैं| उसी को बेटा! यहाँ  ब्राह्मण उपाधि की जाती हैं।
बेटा! देखो, ब्राह्मण तो सूर्य को भी कहते हैं, ब्राह्मण नाम परमात्मा का भी है,देखो, सूर्य को ब्राह्मण क्यों कहते हैं? सूर्य प्रातःकाल आते हैं, तीनों लोकों को तपायमान कर देते हैं |ये तीनों लोक उसके महान प्रताप से, तेज से प्रकाशमान हो उठते हैं|देखो,बेटा! इसी प्रकार ब्राह्मण उसी को कहते हैं, जो प्रकाश देने वाला हो|बेटा! प्रकाश भी कई प्रकार के हाते हैं| एक ‘अनुमनत’ प्रकाश होता हैं| जो परमात्मा की महामाया से पृथक होता है| प्राकृतिक ज्ञान मधुमान होता हैं, बेटा! यह ज्ञान वेदों के व्याख्यानों से प्राप्त होता है |
आत्मा का प्रकाश भी परमात्मा का दिया हुआ है|देखो, परमात्मा हमारी आत्मा में बैठा हमें प्रकाशित कर रहा है| उसी को बेटा! ब्राह्मणों का ब्राह्मण कहा जाता हैं|अहा, ब्राह्मण उसी को कहते हैं, जो प्रकाशमान होता हैं।
बेटा! जैसे हमारे शरीरों में मल, विक्षेप तथा आवरण है| इन तीनों को अपनी विद्या से समाप्त करने वाले को ही हमारे आचार्यों ने ब्राह्मण माना हैं| जो राष्ट्र को ऊँचा बनाने वाला हो, एक साधारण व्यक्ति का भी उत्थान करने वाला हो और जो वेदों के ज्ञान का भण्डार हो, उसी को ब्राह्मण रूप से पुकारा जाता है| मुनिवरों! इसका वर्णन तो हम अपने पूर्व के व्याख्यानों में कर चुके हैं।आज तो इस विषय पर संक्षेप में व्याख्यान कर चुके है कल तुमने ऐसा प्रश्न भी किया था |
बेटा! अभी-अभी हम उच्चारण कर रहे थे, कि ‘ब्राह्मण वर्चति’इत्यादि |देखो, जो ब्राह्मण सब गुणों वाला बन जाता है, उसी को तेजस्वी ब्राह्मण कहा जाता हैं|
एक समय नारद मुनि ने दार्शनिकों का समाज में कहा था कि यदि ब्राह्मण को परायश मान लिया जाएं तो क्या हानि हैं, तब आदि ऋषियों में से अंगिरा ऋषि ने कहा था कि अरे, देवर्षि नारद!हम यह नही मान सकते| यदि हम ब्राह्मण को “परायश” मान लेवें, तो उसमें नाना प्रकार की हानि हो जाएगी, राष्ट्र अन्धकार में चला जाएगा, ऐसा मानने से हम परमात्मा के बनाए हुए नियमों को व्यर्थ करने का दुस्साहस और पाप करेंगे| समाज तुच्छ बन जाएगा, राष्ट्र की समस्त प्रजा और यह संसार तुच्छता को प्राप्त कर,अधोगति को पंहुच जाएगा
हे नारद! हमें तो उस व्यवस्था को पाना है, कि जिसमें हम हर प्रकार से योगी बनकर, महान बन कर अपने ब्राह्मणों को महान ज्ञान देते चलें। जिससे तुच्छता का प्रसार न हो सके| तुच्छता के प्रसार से तो यह संसार अधोगति को प्राप्त हो जाएगा।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! आज आपका कुछ विश्वास परमन्तु रूपायनं अस्तु हास्य
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! हो जाता है कोई ऐसी बात नही, क्योंकि नित्य भूमि अमृति विषयं और दूषण के काल में शब्द विभु बन जाता हैं|
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी आप ऐसा न कीजिए,इससे महत्व समाप्त हो जाएगा।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “चलो, बेटा! कोई बात नही।“
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा, कृपा कीजिए।“
प्रवचनों में पुनरुक्ति
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! अभी-अभी महानन्द जी अपने  प्रश्न के समय में कह रहे थे, कि हम किसी-काल में किसी वार्ता  को द्वितीय बार उच्चारण कर देते हैं, इसका मुख्य कारण यह है, कि हम आपत्तिकाल में है। इसीलिए बिना इच्छा के भी यह हो ही जाता हैं, आपत्तिकाल वश इस पर नियन्त्रण नही हो पाता, अन्यथा हमारे द्वारा किसी वार्त्ता के बार-बार प्रकाश होने का कोई कारण नही
देखो, हमने पूर्व काल में बहुत-सी निधियों को पाया, वह आज सूक्ष्म होती जा रही है, उन निधियों से अब हमारा कोई प्रयोजन सिद्ध नही हो पा रहा हैं, अब तो केवल वह महान शब्द रूप में, अन्तरिक्ष में विराजमान है, अन्तरिक्ष को वह शब्द शुद्ध बना रहा हैं|
अहा,देखो, आज हमारे वेद-पाठ में कई स्थानों पर तेजस्वी ब्राह्मण का वर्णन आ रहा था,वह तेजस्वी ब्राह्मण सबका कल्याण करने वाला होता है, प्रजा को उच्च बनाने वाला होता है, प्रजा में किसी प्रकार के  अज्ञान को छाने नही देता, जिस काल में ऐसे ब्राह्मणों की संख्या अधिक  होती है, उस काल में अज्ञान आता ही नही, मुनिवरों! देखो, ऐसे महान ब्राह्मण जो राजाओं को समय पर चेतावनी देने वाले हो, अजयमेघ यज्ञ को कराने वाले हों
अजयमेघ यज्ञ वा अजामेध यज्ञ
बेटा! अजयमेघ यज्ञ किसको कहते हैं? अजय शब्द के माता, पृथ्वी, यज्ञ, राष्ट्र और प्रजा अर्थ होते हैं। मेघ शब्द के यज्ञ और राजा अर्थ होते हैं|अजाएसएचबीडी के बकरी तथा वेदी अर्थ होते है , ब्राह्मणजन वेदी को सजाया करते हैं ,यज्ञ को पूर्ण समारोह के साथ करते हैं।
राजा अपनी धर्मपत्नी के साथ राष्ट्र का उत्थान करने में सदा लगा रहे, राष्ट्र के उत्थान के लिए राजा अपनी धर्मपत्नी के साथ अजयमेघ करता रहे, यह उसका परम कर्तव्य हैं।
अजा नाम पृथ्वी का है जिस काल में वैज्ञानिकजन एकान्त स्थान में विराजमान होकर, पृथ्वी के तत्त्वों को विचारते हैं, नाना प्रकार के अनुसन्धान करके, उस भौतिक विज्ञान को पाते हैं| तब मुनिवरों!  उसको अजा मेघ यज्ञ कहते हैं।
मुनिवरों! देखो, “गौमेध यज्ञ भी होता हैं| गौ नाम से पृथ्वी और इन्द्रियां दोनों को लिया जाता है| इन्द्रियों के द्वारा विषयों का तथा पदार्थों के गुणों का ज्ञान होता है| पृथ्वी का मुख्य गुण गन्ध है, आज गन्ध को जानना है, गन्ध कहाँ से आती हैं, किस स्थान से प्रकट होती है और कौन-कौन से तत्त्वों  से मिलकर बनती है,मुनिवरों!  इसका जानना ही, गौमेध यज्ञ कहलाता  हैं
आज हमारे वेद-पाठ में अजय मेघ यज्ञ का वर्णन आ रहा था,आज हमें अजय मेघ यज्ञ करने का संकेत मिला|अजय के नाना अर्थ हैं|  इसीलिए आज हमें विचार कर निश्चय करना चाहिए, कि प्रसंग के अनुसार जिस शब्द के, जिस अर्थ की आवश्यकता हो, उसी का ग्रहण आवश्यक है| उसी का प्रयोग अनिवार्य है| अन्य अर्थ का नही, उसी से मानव का विकास होगा| उसी से मानव  का आत्मा उच्च बनेगा, अन्यथा नही।
   बेटा! अभी-अभी प्रसंग चल रहा था, कि राजाओं का क्या उद्देश्य है? राजाओं को कैसा यज्ञ करना चाहिए?अर्थात उनको अजयमेघ यज्ञ अथवा अजामेघ यज्ञ करना चाहिए| तो  देखो, बेटा! अजा नाम प्रजा का है, मेघ नाम राजा का है, दोनों का सम्बन्ध करके यज्ञ किया जाएं| उसी यज्ञ को यहाँ अजामेघ यज्ञ कहा जाता है| बेटा!देखो, जैसे महाराजा राम ने, त्रेता के काल में किया था, राजा रावण ने उस यज्ञ का ब्रह्मा बन करके, यज्ञ को पूर्ण किया।
बेटा!देखो, मेध नाम आत्मा का भी है, अजा नाम इसकी प्रजा का है| आत्मा का सम्बन्धी, आत्मा का परिवार है|बेटा! देखो, अन्तःकरण चित, बुद्धि, और अहंकार यह सब आत्मा के ही परिवार हैं| ये ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेन्द्रियां भी आत्मा के ही परिवार है|  इस महान परिवार को कौन चलाने वाला है? जब आत्मा को और उसके परिवार को  भली प्रकार से जान जाते हैं,तब हम स्वतः ही उस महान राजा को जान लेते हैं, उस मेघ को जान लेते हैं| तब हम आत्म तत्त्व के जानकार बन जाते हैं| इसी प्रकार जो राजा अजामेघ यज्ञ  करने वाले  होते हैं, वे  प्रजा के भावों को जान लेते हैं| साथ में राष्ट्र के ब्राह्मणों की परीक्षा हो जाती हैं, कि मेरे राष्ट्र में कैसे-कैसे बुद्धिमान ब्राह्मण हैं|
सतयुग की यज्ञ-वार्ता
मुनिवरों! इस समय सतोयुग के काल की एक वार्त्ता हमारे कण्ठ आ गई हम उसका उच्चारण करेंगें। उसके पश्चात हमारी यह वार्त्ता समाप्त हो जाएगी
मुनिवरों!इस समय सतयुग के काल की एक वार्ता हमारे कंठ आ गई हम उसका उच्चारण करेंगे उसके पश्चात हमारी वार्ता समाप्त हो जाएगी
मुनिवरों! सतयुग में अटुल मुनि महाराज महीयस राजा के महान  पुरोहित थे| एक समय राजा अपने राज- स्थान में विराजमान थे| न्यायालय में प्रजा का न्याय कर रहे थे|बेटा! उस समय उनके हृदय में विचार आया, कि हमें अजय मेघ यज्ञ करना चाहिए|
अजामेघ यज्ञ किसके लिए करना चाहिए, प्रजा के लिय करना चाहिए| जिससे हमारी प्रजा महान बनें,  जिसमें हमारी प्रजा में, सदाचार हो| प्रजा के ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि हो| हमारे राष्ट्र में वेदों का प्रसार हो, प्रत्येक गृह में यज्ञ  हों,यज्ञन से हमारे राष्ट्र का वातावरण सुगन्धिदायक हो, यज्ञन से राष्ट्र सुगन्धिदायक बनेगा।
बेटा! राजा के मन में इस विचार के आने के पश्चात, राजा ने अपने मन में संकल्प-विकल्पों द्वारा बड़ा अनुसन्धान किया इस विचार को लेकर राजा अपने गुरु पुरोहित के समक्ष आ पंहुचे| अटुल मुनि महाराज ने राजा का बड़ा स्वागत करके कहा “प्रिय, आनन्द हो|”
राजा ने उत्तर में कहा- “विशेष आनन्द हैं”
अच्छा धन्यवाद, कैसे आगमन हुआ?
उन्होंने कहा भगवन! हम इसीलिए आए हैं, कि इस काल में हमारी एक अजयमेघ यज्ञ करने की इच्छा हैं जिससे हमारी प्रजा श्रेष्ठ बने, हमारी प्रजा में महत्ता आए|
अजयमेध वा अजा मेध यज्ञ का अधिकारी
मुनिवरों! राजा की इन वार्त्ताओं को सुनकर अटुल मुनि महाराज ने बहुत प्रसन्न होकर कहा, कि तुम्हारी इस वार्त्ता को सुनकर तथा आपकी निष्ठा एवं योग्यता को देखकर हमें निश्चय हो गया कि तुम “अजामेघ यज्ञ” करने में अवश्य सफल हो जाओगे| परन्तु वेद विद्या कहती है और परम्परा भी यही बतलाती हैं कि “अजय- मेघ यज्ञ करने का उसी राजा को अधिकार है, कि जिसकी प्रजा में एक दूसरे को कोई ऋणी न हो, हमको पता नही है, कि तुम्हारी प्रजा में क्या सभी ऋण मुक्त हैं| पहले आप इसका अनुसन्धान कीजिए।
अच्छा!देखो,मुनिवारों!इन वाक्यों को पा करके राजा अपने कर्तव्य पर विचारणे लगे |
बेटा! राजा ने गुरुदेव के आज्ञा पा करके कहा कि मैं राज्य मे भ्रमण करके देखूंगा कि मेरी प्रजा में एक दूसरे का ऋणी तो नही हैं| बेटा! राजा वहाँ से चलकर अपने राष्ट्र में पंहुचे| विचार करते –करते प्रजा में भ्रमण करके देखा , कि प्रत्येक गृह में नित्य प्रातःकाल यज्ञ हो रहे थे |राष्ट्र में एक दूसरे का कोई ऋणी नही था |प्रजा सब प्रकार कुशल से है | प्रजा में बड़ा आनन्द छा रहा हैं,मुनिवरों! देखो, पिता की सेवा करने वाले पुत्र है। उनको योग्य बनाने के लिए माता पिता भी कुशल है| राजा ने देखो, कि उसके द्वारा बनाएं गएं नियम राष्ट्र में बड़े आनन्द से चल रहे हैं देखो, क्षत्रिय लोग आक्रामकराष्ट्रों पर उत्तर में प्रहार करके राष्ट्र की रक्षा कर रहे हैं|
राजा अपने राष्ट्र की ऐसी स्थिति और कुशलता को देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ चलकर राजपुरोहित, गुरु के समक्ष जा पंहुचे |गुरु से कहा कि भगवन! मेरे राज्य में तो बहुत कुशल हैं| मेरे राष्ट्र में कोई किसी का ऋणी नही हैं| मेरा राष्ट्र सब प्रकार से महान हैं|
यज्ञ में पत्नी की अनुमति
उस समय राजा की इन वार्त्ताओं का पाकर ऋषिवर, बड़े प्रसन्न होकर बोले कि भाई! अजयमेघ यज्ञ करो| परन्तु यज्ञ करने से पूर्व तुम अपनी धर्मपत्नी से अनुमति ले कर आओ, वह तुम्हें अनुमति दे, तो अवश्य या करो अन्यथा तुम्हें कोई अधिकार नही हैं
उस समय बेटा! राजा वहाँ से चलकर राजगृह में जा पंहुचे| राजा के पंहुचते ही पत्नी ने चरणों को स्पर्श किया| नमस्कार करके, राजा का बड़ा स्वागत किया |आसन पर विराजमान हो करके, धर्म-पत्नी ने कहा-कहिए भगवन! आपका मन कैसे भ्रमित हो रहा है? इसका क्या कारण है| आज हमको प्रतीत हो रहा है कि आपको किसी प्रकार का शोक हैं या किसी प्रकार की विशेष अशान्ति हैं
उस समय राजा ने कहा कि हे धर्म-पत्नी! मेरे मन में कोई शोक नही हैं| मेरा मन इसीलिए भ्रमित  है कि मैं अजयमेघ यज्ञ करने जा रहा हूँ| राजगुरु पुरोहित ने कहा है कि तुम अपनी धर्मपत्नी से अनुमति ले कर यज्ञ करो तो तुम्हारी क्या इच्छा हैं?
अहा,उस समय बेटा!  वह धर्मपत्नी बड़ी मग्न हो गई|देखो,बेटा! उसके हृदय के कपाट खुल गएं|बेटा! हृदय में ज्योति जागने लगी| धर्मपत्नी ने कहा भगवन! अच्छा,मेरे ऐसे भाग्य कहाँ है कि भगवन! आप यज्ञमान बनकर  अजय-मेघ यज्ञ रचावें, देवताओं को हम कुछ देवें| जिससे हमारे राष्ट्र का उत्थान होवें| यह तो भगवन! बहुत सुन्दर विचार हैं|
मुनिवरों! देखो, धर्मपत्नी से अनुमति लेकर राजा ने वहाँ से चलकर ऋषिवर के समक्ष जाकर कहा भगवन! मेरी धर्मपत्नी बड़ी प्रसन्न है| उसका वाक्य है कि हमारे ऐसे सौभाग्य कहाँ? उसका हृदय मुग्ध होने लगा| ऐसा प्रतीत होने लगा, कि उसके हृदय में धर्म की अग्नि प्रज्जवलित हो रही हो|
सुंदर यज्ञ-वेदी
बेटा! उस समय ऋषिवर ने इन वाक्यों को पाकर के  नाना ब्राह्मणों  को निमन्त्रण देकर, वहाँ एक विशाल यज्ञ रचाया| वहाँ बड़ी सुन्दर यज्ञशाला रचाई गई| यज्ञशाला के रचने से मानो,वहाँ अक्षय आनन्द छा गया| नाना प्रकार की चित्रकारियों से वह यज्ञशाला रचाई गई| सब देवताओं के स्थान बनाए गए।अहा, वेदी वही होती हैं, जिसे बेटा! ब्राह्मण बुद्धिमता के  साथ वेद के अनुकूल रचाता हैं|अहा, उस समय बेटा! महर्षि जी से राजा ने प्रश्न किया, कि भगवन! यह यज्ञशाला क्यों रचाई जाती हैं? इसका क्या कारण है कि इतनी चित्रकारी की जाती हैं? बेटा! तब ऋषि ने उत्तर दिया कि देखो, जैसे परमात्मा ने इस संसार रूपी यज्ञ को उत्पन्न किया है| उसको इतनी चित्रकारियों से सजाया है ऐसे ही देखो,हम छोटे से वैज्ञानिक है| परमात्मा के बालक हैं| परमात्मा जैसे यज्ञ तो नही रचा सकते|  उसके बालक जैसा यज्ञ रचा सकते हैं| हम तो उनका सूक्ष्क-सा रूप ले रहे हैं कि जो चित्रकारियों से इस यज्ञशाला को रचाया है| मुनिवरों! देखो, ऋषिवर ने जब यह उत्तर दिया तो राजा बड़ा मग्न हो गए | मग्न होकर कहा -धन्यवाद|बेटा!उसके बाद वहाँ से नाना प्रकार की सामग्री एकत्रित हो गई| सब साकल्य एकत्रित हो गया| प्रजा को निमन्त्रण दिया गया| मुनिवरों! देखो,यज्ञमान, यज्ञमान की धर्म-पत्नी यज्ञशाला में विराजमान हो गएं| देखो,वहाँ शुनि मुनि महाराज, पापड़ी, मुनि महाराज दोनों उस यज्ञ के उद्गाता बने| अटुल मुनि महाराज, उस यज्ञ के अध्वर्यु बने,तत्त्वमुनि महाराज उस यज्ञ के ब्रह्मा बनें |इसके अनन्तर यज्ञ आरम्भ हो गया| बेटा! ब्रह्मा के ऊपर यज्ञ का भार होता है, ब्रह्मा ने विधिपूर्वक यज्ञोपवीत धारण करा कर, समुद्र की क्रिया आरम्भ की| जब वहाँ समुद्र की क्रिया हो रही थी, उस समय पापड़ी ऋषि महाराज आ पंहुचे।
अधिकारी से यज्ञ
बेटा! उस काल में वह शोलक ऋषि आदि ऋषियों का एक दार्शनिक समाज विराजमान था| दार्शनिक समाज में पापड़ी ऋषि को नियुक्त किया गया, कि जाओ, परीक्षा करो, कि वह कैसे बुद्धिमान है? राजा अजयमेघ यज्ञ के अधिकारी है या नही, यदि नही है तो यज्ञ में कहना चाहिए, कि तुम अजयमेघ यज्ञ के अधिकारी नही हो| तो मुनिवरों!उस समय बेटा!महर्षि पापड़ी मुनि महाराज उस दार्शनिक समाज से वहाँ जा पंहुचे|
यज्ञ में कर्मकांड का महत्त्व
जिस समय तत्त्व मुनि जी, उस यज्ञ के ब्रह्मा, जल सिंचन करा रहे थे, उस समय पापड़ी ऋषि ने प्रश्न किया कि महाराज! यह जल सिंचन क्यों हो रहा हैं?यह क्या क्रिया हैं? और क्या पदार्थ हैं जो इस प्रकार किया जा रहा है?
अहा,बेटा!उस समय ऋषिवर ने उत्तर देते हुए कहा कि यह महान समुद्र हैं, जैसे परमात्मा ने इस महान संसार को उत्पन्न किया है उसके मध्य में पृथ्वी बनी हुई हैं, ऐसे ही यह वेदी नाम की पृथ्वी है|देखो वेदी नाम पृथ्वी का है इसके आस पास ही यह समुद्र बना हुआ है, उस परमात्मा द्वारा उत्पन्न आकर्षण शक्ति उसकी महान विद्युत के आधार पर यह पृथ्वी स्थित हैं|
इसलिए आज देखो, हम यज्ञमान देवताओं का साकल्य बनाने के लिए,उन समुद्रों के विश्लेषणात्मक दृष्टि से उनके स्वरूप को समझकर, उसके गुणों से लाभ उठाते हुए, वेद के अनुकूल इस वेदी का कर्मकाण्ड कर रहे हैं| मुनिवरों! तब ऋषि जी बड़े आनन्द के साथ विराजमान हो गएं| यज्ञ आरम्भ होने लगा| महर्षि पापड़ी ने सोचा कि ब्रह्मा तो वास्तव में योग्य हैं| तब उन्होंने ब्रह्मा से प्रश्न किया,कि भगवन! यज्ञ क्यों रचाया गया हैं? आपका क्या कर्तव्य हैं ?
यज्ञ में ब्रह्मा का कर्तव्य
उस समय ब्रह्मा ने कहा कि मेरा कर्तव्य है, कि मैं यह देखूँ कि यज्ञ कोई उद्गाता वेदमन्त्र तो अशुद्ध उच्चारण न कर देवे,यदि यज्ञशाला में वेदमन्त्र अशुद्ध उच्चारण हो गया, तो बड़ा पाप होगा|वह पाप क्या हो जाएगा? क्योंकि जिस वेदवाणी के द्वारा, हम जिन देवताओं का आह्वान करके उनका स्वागत कर रहे हैं यदि वही वेदवाणी अशुद्ध होगी, तो देवता हमारे समक्ष क्यों आयेंगें? जैसे लोक में, जब बुद्धिमान व्यक्ति हमारे समक्ष आते हैं,और हम बुद्धिपूर्वक उनका स्वागत नही करते हैं, हम मूढ़ बुद्धि से स्वागत करते हैं, तो वे बुद्धिमान हमारे समक्ष आना त्याग देते हैं, ऐसे ही वेद मन्त्रों के यज्ञवेदी पर अशुद्ध उच्चारण से देवता हमारी उपेक्षा कर देंगें|और तब यह सब कर्म काण्ड निष्फल हो जाएगा। इसी प्रकार मुनिवरों! वेद मन्त्रों के यज्ञ वेदी पर अशुद्ध उच्चारण का अभिप्रायः है|
जिन देवताओं को साकल्य देना हैं, हम उन्ही देवताओं का शुद्ध मन्त्र पाठ के द्वारा आह्वान कर रहे हैं, उन्हीं की याचना कर रहे हैं, यदि मन्त्रोंच्चारण अशुद्ध हुआ तो देवता, हव्य पदार्थों को कभी भी स्वीकार नही करेंगें| परिणाम यह होगा, कि वे हमारे संसार का कदापि कल्याण नही करेंगें।
मुनिवरों! महर्षि पापड़ी जी इन वार्त्ताओं को पाकर बड़े मग्न हो गएं, उन्होंने आनन्द में मग्न होकर कहा कि अहो भाग्य है, कि जहाँ ऐसे ब्रह्मा हों, तथा जहाँ इतनी विद्वता के साथ वेदों के मन्त्रों का पाठ या उच्चारण शुद्ध होता है|
यज्ञ में उद्गताओं का कर्तव्य
मुनिवरों! इसके पश्चात पापड़ी ऋषि उद्गाताओं के समीप पंहुच कर बोलेहे उद्गाताओं! तुम जो वेदों का पाठ कर रहे हो, इसका क्या अभिप्राय है? यह क्यों कर रहे हों?
उद्गाताओं ने उत्तर दिया कि भगवन! यह हमारा कर्तव्य है कि वेदों के मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण पूर्वक पाठ करके वेदों की विद्याओं का प्रसार करें, हमारी आत्मा का उत्थान हो और हम देवताओं में रमण करें| वेद मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण के साथ यज्ञन करते हुए, साकल्य तथा हव्य पदार्थों को देवताओं के समक्ष प्रस्तुत करके देवताओं से प्रार्थना कर रहे हैं, किहे देवताओं!आईए, हमारे साकल्य को,इन हव्य पदार्थों को ग्रहण करो, भगवन! हमारे लिए प्रत्येक प्रकार से कल्याणकारी बनो।
मुनिवरों! देखो, तब ऋषिवर ने सोचा कि भाई! यह भी बड़ी बुद्धिमत्ता का कार्य है
यज्ञ में अध्वर्यु का कर्तव्य
इसके पश्चात पापड़ी ऋषि महाराज अध्वर्यु के समक्ष पंहुचकर बोले कि हे भगवन! नाना प्रकार की सामग्री एकत्रित करके यज्ञन करते हुए देवताओं का साकल्य दे रहे हैं, वह क्यों दे रहे हो? इसका क्या अभिप्रायः है
यज्ञ में सामाग्री की शुद्धता का महत्व
उन्होंने उत्तर दिया कि यह मेरा कर्तव्य है, कि मैं शुद्ध रूप से देवताओं को शुद्ध सामग्री दूँ, जिससे कि देवताओं का आहार शुद्ध हो, यदि देवताओं का आहार शुद्ध होगा, तो हमें देवताओं से श्रेष्ठ प्राण सत्ता मिलेगी।
मुनिवरों!देखो,आज हमें वह महत्ता प्राप्त करनी चाहिए, जिससे हमारा जीवन, राष्ट्र का जीवन, संसार के मानव का जीवन, उच्च बने और विद्या का प्रसार हो|वेदों के अनुकूल बनी सामग्री की आहुतियां देने से देवता उसको स्वीकार करते हैं |
यज्ञ में भावना युक्त आहुतियों का प्रभाव
मुनिवरों! इन वार्त्ताओं को पाकर ऋषिवर यज्ञमान के समक्ष जा पंहुचे, और बोले कि हे यज्ञमान! तुम तो आहुतियां दे रहे हो, इनका क्या अभिप्रायः हैं?
बेटा ! राजा ने कैसा उत्तर दिया?राजा ने कहा- हे ऋषिवर! हम आहुति देने के साथ-साथ प्रार्थना कर रहे हैं, कि हे प्रभु! आपने हमारे राष्ट्र को तथा इस हमारे संसार को उत्पन्न किया हैं, हे विधाता! हे देवताओं! हमारे राष्ट्र में शुद्ध ज्ञान प्रकाश हो, सदभावनाओं वाले व्यक्ति हो, जिससे हमारे राष्ट्र में घृत्त-दाता पशुओं की हानि न हो| हे भगवन! यदि हमारे राष्ट्र में गोओं की हानि हो जाएगी, तो मेरा राष्ट्र आज नही तो कल, अवश्य नष्ट हो जाएगा| हे विधाता! हे देवताओं! मैं यह सदभावना पूर्वक आहुति दे रहा हूँ, कि हमारे राष्ट्र में पशुओं की वृद्धि हो, तथा मेरा राष्ट्र प्रत्येक प्रकार से विशाल हो।
यज्ञमान-पत्नी का कर्तव्य
मुनिवरों! यज्ञमान से इस प्रकार वार्त्ता सुनकर ऋषिवर यज्ञमान धर्मपत्नी के समक्ष पंहुच कर, कहा कि हे धर्मदेवी! तुम्हारी आहुति देने का क्या मन्तव्य हैं? उस समय धर्मदेवी ने कहा कि ऋषिवर! आप तो बड़े बुद्धिमान हैं, आप ऐसे वाक्य क्यों उच्चारण कर रहे हैं? तो कि आपके योग्य नही है, तब ऋषिवर ने कहा कि आप भी अपना कुछ विचार तो उच्चारण कीजिए| उस समय धर्म देवी ने कहा कि हे विधाता! मैं मन के इस संकल्प के साथ आहुति देती हुई, याचना कर रही हूँ, कि हे देव! हे परमात्मन! हम शुभ कार्य करते रहें,और मेरे स्वामी के राष्ट्र में शुभ कार्य होते रहें, अशुभ कार्य न हों| मेरे स्वामी के राष्ट्र में, कोई मानव, कोई देवकन्या दुराचारी न हो| हे भगवन! हे ऋषिवर! जिसके राष्ट्र में देवकन्याएं व पुरूष दुराचारी हो जाते हैं, उस राजा का राज्य आज नही तो कल, अवश्य समाप्त हो जाएगा| हे भगवन! मेरी यह प्रार्थना है, कि प्रत्येक देव कन्या,प्रत्येक मानव उच्च विचार वाला, महान सदाचारी हो, जिससे मेरे स्वामी का राष्ट्र, एक विशाल राष्ट्र बनें और ऐसे धर्म के कार्य, प्रत्येक स्थानों में होते रहे,जिससे राष्ट्र में बुद्धिमानों का प्रसार हो, बिना वेद के प्रचार के, राष्ट्र के मानवों में कभी सात्विक बुद्धि नही आती हैं।
मुनिवरों! जब ऋषिवर ने इन वाक्यों को पाया, तो ऋषि चकित हो गए, ऋषि जी ने कहा कि यह तो वास्तव में अजयमेघ यज्ञ करने के अधिकारी हैं|
ऋत्विजों का कर्तव्य
इसके पश्चात ऋषि आहुतियां देते हुए, ऋत्विजों के समक्ष पंहुचे| ऋषि ने ऋत्विजों से प्रार्थना की कि भगवन! आप लोग जो ये आहुतियां दे रहे हैं, इसका क्या अभिप्रायः है? उस समय ऋत्विजों के वाक्यों को पा करके ऋत्विजों ने कहा कि भगवन! हम याचना कर रहे हैं, कि हे विधाता!हमारे जो दुर्गुण एवं दुर्गन्धियां हैं, उनको समाप्त करके, हमारे में सुगन्धि प्रविष्ट करें,अहा जब हमारा जीवन सुगन्धिदायक बनेगा, तब हमारा जीवन महान बनेगा| हम राष्ट्र के तथा संसार के हितैषी बनेंगें, हे विधाता! हम हर प्रकार से हितैषी बनकर संसार को सुख पंहुचा कर, देवताओं के समक्ष पंहुचे।
मुनिवरों! ऋषिवर इन वाक्यों को पाकर शान्त हो गए
मुनिवरों! यह तो यथार्थ वाक्य है बेटा !आगे इसमे एक अलंकार स्मरण आ रहा है|
यज्ञ में  समिधा और सामग्री के महत्त्व का आलंकारिक वर्णन
मुनिवरों!यह तो यथार्थ में यज्ञ का वर्णन था आगे  आलंकारिक वर्णन आता है
मुनिवरों! ऋषि जी महती समिधाओं के समक्ष  पहुंचे और समिधाओं से कहा कि  हे समिधाओं! यह क्या हो रहा है? तुम अग्नि में प्रविष्ट हो रही हो, और अग्नि तुम्हें नष्ट कर रही हैं| तुम अग्नि का आहार बन रही हो, इससे तुम्हारा क्या मन्तव्य हैं?
बेटा! देखो, उस समय समिधाओं ने कहा कि हे विधाता! संसार में वही मानव सुख पाता है,जो किसी का बन जाता हैं| देखो, ऋषि जब भी बनता है, जब गुरु की शरण में चला जाता हैं| गुरु उसके दुर्गणों को नष्ट कर देते हैं, अग्नि विद्या को धारण करा देते हैं| तभी वह ऋषि बनता हैं| इसी प्रकार विधाता!हम अग्नि रूप गुरु के समक्ष जाकर, अपने पार्थिव परमाणुओं को समाप्त करके, अपने सूक्ष्म रूप को धारण करके, सूर्य मण्डल तक पंहुच कर देवताओं की शरण में चली जाती हैं|देखो, महान आदित्य हमको धारण करके, आहार करके,मुनिवरों! धीमी धीमी किरणों के द्वारा, समुद्रों में पंहुचा देते हैं| समुद्रों से मेघ के रूप को धारण करके वृष्टि द्वारा पृथ्वी पर आ जाती हैं ,देखो,पृथ्वी पर स्थावर सृष्टि के रूप में उत्पन्न होकर हम संसार का कल्याण करती हैं।
मुनिवरों!देखो, ऋषि ने उनके युक्ति युक्त उत्तर से सन्तुष्ट होकर सामग्री के समक्ष पंहुचे, उन्होंने सामग्री से प्रश्न किया,कि तुम यह क्या कर रही हो? तुम अग्नि के समक्ष जाकर, उसमें क्यों भस्म हो रही हो? इससे तुम्हारा क्या अभिप्रायः है, तुम्हें इसमें क्या लाभ प्रतीत होता हैं?
उस समय  उस महती सामग्री ने कहा था कि हे विधाता! नाना प्रकार की वस्तुओं को एकत्रित करके हमको बनाया गया हैं, इसके अनन्तर हमको अग्नि के अर्पण कर दिया जाता हैं,अग्नि हमको भस्म कर देती है| हमारा सूक्ष्म रूप बनकर अन्तरिक्ष में,आदित्य में पंहुच जाता है|जब हम आदित्य में रमण करती है, तब आदित्य हमें बल देता हैं,मुनिवरों!देखो, उस बल से किरणें उत्पन्न होती हैं, जो समुद्रों में जाती हैं समुद्रों से जल का उत्थान होता है, जल से मेध बन जाते है। मेघों से वृष्टि होती हैं, वृष्टि से पृथ्वी पर नाना प्रकार की समिधाएं तथा नाना प्रकार की सामग्रियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
संसार में उसी का जीवन ऊंच्च है  जो किसी का हो जाता हैं, जो किसी का नही होता, वह संसार में अधूरा बना बैठा रहता है देखो, जब तक ज्ञान रूपी अग्नि में आत्मा ने स्नान नही किया, अपने दोषों को भस्म नही किया, तब तक आत्मा परमात्मा के विमुख ही रहता हैं| भगवन! इसी प्रकार जब तक हम अपने रूप को अग्नि में भस्म न कर देंगें, तब तक हमारा यथार्थ रूप देवताओं के समक्ष नही आएगा तथाजब तक हम संसार का कोई उपकार न कर सकेंगे। यदि हम उपकार न कर सके, तो हमारा जीवन निष्फल है।
 तो मुनिवरों!  देखो ,यह है हमारा, आज का आदेश, जो हो रहा था|मुनिवरों! देखो, यह कैसा सुन्दर वाक्य आज हमारे वेद पाठ में आया, इस पर सतोयुग की कैसी सुन्दरवार्त्ता हमारे कण्ठ आ गई। आज हमारे आदेशों का अभिप्रायः क्या है?
योग्य ब्राह्मण कैसे हो
  १यथार्थ विद्या को खोजी हो ?२ सबकी परीक्षा करने वालें हों?३ राजाओं को उपयुक्त प्रकार की कल्याणमयी शिक्षा देने वाले हों?
बेटा! यह है आज का हमारा आदेश, अब हमारा आदेश समाप्त हो गया।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! आपने जैसा रूप ब्राह्मणों का वर्णन किया, वैसा आधुनिक समय में नही रहा हैं| जब हम अपने सूक्ष्म शरीर के द्वारा लाक्षागृह पर विचरण कर रहे थे तब  हमने सुना कि आधुनिक समय में तो ब्राह्मण जातिवाद बन गया हैं, गुण कर्मों के अनुकूल ब्राह्मणदि नही रहा हैं|”
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! समय मिलेगा, तो कल तुम्हें उच्चारण कर देंगें| वास्तव में तो इस विषय का व्याख्यान तो हमने पूर्व समय में उच्चारण कर दिया था।“
पूज्य महानन्द जीः “जो आपने इससे पूर्व उच्चारण कर दिया, तो क्या द्वितीय बार उच्चारण नही कर सकते।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “नही बेटा! इसमें हमारी कुछ हानि नही हैं”
पूज्य महानन्द जीः “तो कृपा कीजिए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा बेटा! कल देखा जाएगा।“
पूज्य महानन्द जीः “कल तो भगवन! आपका होता ही नही, क्योंकि कल जो आपने अपने आपत्तिकाल को कहा था,वही भी नही हुआ| जैसे रावण कल ही कल में मृत्यु को प्राप्त हो गया, वैसे ही हमें प्रतीत होता हैं कि कल ही कल में आप भी मृत्यु को प्राप्त को हो जाएंगें।
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य- “अच्छा, महानन्द जी! वह तो तुम आनन्द की वार्त्ता उच्चारण कर रहे हो”
पूज्य महानन्द जीः हास्य “गुरु जी!प्रतीत ही ऐसा हो रहा हैं, क्योंकि रावण भी कल ही कल में समाप्त हो गया था।“
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य तो “बेटा! जैसा कल समय आएगा, वैसा उच्चारण करेंगे| तुम तो आनन्द की वार्त्ता उच्चारण कर रहे हो”
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवन्! तो कल आएगा,तो आप उच्चारण कर ही देंगे, क्योंकि कल की वार्त्ता तो आपने पूर्ण कर दी, आज की कल ओर कर देंगें।“
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य “अरे, तो भाई! कल आएगा तभी तो।“
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवन्!”
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! अभी-अभी महानन्द जी कुछ आनंदित वार्त्ता उच्चारण कर रहे थे,किसी-किसी स्थान में, हम उनकी वार्त्ताओं से बड़े प्रसन्न हो जाते हैं| अच्छा भगवन्! बेटा! कल तुम्हें वर्ण व्यवस्था पर उच्चारण कर देंगें।“
पूज्य महानन्द जीः “यह तो भगवन! आपकी इच्छा है”
पूज्यपाद गुरुदेवः “हां, बेटा! कल समय मिलेगा, तो अवश्य उच्चारण कर देंगें”
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवन्!इसमें हमारा कोई विरोध नही हैं”
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा तो बेटा! अवश्य निर्णय कल करेंगे”
पूज्य महानन्द जीः “भगवन! क्योंकि हम आधुनिक काल में भी पाते रहते हैं, कि वर्ण व्यवस्था व्यक्तिगत मानी गई है या कुछ रूपरेखा भिन्न होती है| आपका जो  पूर्व काल था, उसमें कैसी वर्ण व्यवस्था थी? आधुनिक काल की वार्त्ता तो हमने उच्चारण कर दी, कि अब कैसे ब्राह्मण माने गए हैं?”
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा कल का कल देखा जाएगा, कल ही उच्चारण कर देंगे, अब तो समय समाप्त हो गया हैं| तो मुनिवरों! कल महानन्द जी के प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करेंगे, अब हमारा वेद पाठ होगा इसके पश्चात हमारी वार्त्ता समाप्त हो जाएगी।