1
०३ ०४ १९६२
सायं मानव उत्थान की दिशा
जीते रहो!
देखो,
मुनिवरों! अभी-अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ| हम तुम्हारे समक्ष वेदों का मनोहर वेद मन्त्रों का गान गा रहे थे| आज का वेद पाठ बड़ा ही सुन्दर था| आज हमारी इच्छा हो
रही थी, कि सारे समय में वेद का गान गाते ही रहें| परन्तु महानन्द ही के अनेक अनुरोध और प्रार्थनाओं के अनुकूल व्याख्यान का
रूप प्रदान कर रहे हैं
आज के वेद पाठ में बड़ी सुन्दर वार्त्ता का
उपदेश किया गया है| समय के अभाव होने के नाते aur आपत्ति काल होने के नाते, वेद-पाठ का प्रसार पूर्व
काल के अुनसार कर नही पाते| ऐसा भी प्रतीत होता है, कि यह समय भी नही रहेगा।
उस महान विधाता दया के सागर महान आत्मा ने
हमें कैसा अनुपम ज्ञान दिया है| हमें इससे पूर्ण रूप से
सन्तुष्टि है|क्योंकि एक समय आएगा कि यह प्रकाश भी नहीं
रहेगा।यह प्रकाश जब समाप्त होगा जब इसमें प्रकाश वाला पदार्थ नहीं रहेगा|
आज मानव को यह विचार लेना चाहिए,कि इस प्रकाश के अन्त होने पर प्रकाश की सदा के लिए समाप्ति नही होती|अरे, प्रकाश का रूपान्तर हुआ करता है| वैसे ही मुनिवरों! वेदवाणी के भी विभिन्न रूपान्तर होते हैं | यहाँ इस समय भी रूपान्तर के साथ ही वेद-पाठ किया जा सका है| मुनिवरों! एक समय वह आएगा,कि जब यह वेद-पाठ का
रूपान्तर और अधिक सूक्ष्म हो जाएगा| रूपान्तर ही रूपान्तर रह
जाएगा।
मुनिवरों! आज मानव को विचारना चाहिए, कि यह जो प्रकाशमय सृष्टि का चक्र चल रहा हैं,
इसमें प्रकाश वरुण और शीतलता आदि सभी कुछ हैं| हे मानव! यह न
मान बैठ, कि यह प्रकाश ऐसे ही चलता रहेगा| नहीं, नहीं एक समय वह आएगा,
कि यह दृष्टि से भी दूर का पदार्थ बन जाएगा| यह कौन –सा
पदार्थ बन जाएगा ?
सत्यज्ञान की उपासना
मुनिवरों!देखो,
परमात्मा ने जो प्रकाशमयी हरी भरी सृष्टि की रचना की है, यह
भी समय आने पर नही रहेगी| मानव को दूरदर्शी होना चाहिए,मानव को विचारना चाहिए कि जब अपने
जीवन का और इस सृष्टि का रूपान्तर हो जाएगा, तब हम क्या कर
सकेंगे? इसीलिए रूपान्तर होने से पूर्व हम उस ज्ञान को
प्राप्त कर लें, उस महत्व दायक पदार्थ को प्राप्त करलें कि
हमारे समक्ष वह भावी परिवर्तन महत्त्वहीन हो जाए, वह ऐसी कौन-सी
महत्ता हैं?
मुनिवरों! जब यह आत्मा इस शरीर रूपी क्षेत्र
में आ करके, उच्च कर्म करता हुआ,
प्रकाश का संचय करता हुआ, कर्मों का फल भोगकर समाप्त कर लेता
हैं, तब यह आत्मा परमानन्द को प्राप्त हो जाता हैं| मुनिवरों! उस समय आत्मा का भौतिक पदार्थों से अलग होकर परमपिता परमात्मा
की गोद में पंहुच कर परमानन्द लाभ करने वाले के रूप में रूपान्तर हो जाता हैं| यह रूपान्तर तुम्हारी स्थूल भौतिक दृष्टि से तुम्हें प्रतीत नहीं हो
पाता।
यह प्रत्यक्ष क्यों नही होता?इसका क्या कारण है ?बेटा! हमने कई कालों में कहा है और
कई स्थानों में कहा है कि यह आत्मा परमात्मा के समक्ष, जब
यत्न करके, उस परमात्मा को जान करके इस स्वर्गीय सृष्टि का
जानने वाला बन जाता है| उस समय जीव,
परमात्मा का जानने वाला बनकर परमपिता परमात्मा को पा लेता है| उस परमात्मा को बिना जाने यह कुछ भी नही जान पाता|
यह आदेश कई बार उच्चारण कर चुके हैं|आज इस विषय के व्याख्यान
का समय तो नही था |
आज तो प्रभु प्रशंसा के साथ, बड़ा मधुर आदेश चल रहा था| आज कल्याण करने वाले शिव
की याचना कर रहे थे| यह शिव संसार की रचना करके हर पदार्थ को
जीव के लिए देता हैं |वह संसार की रचना और प्रलय करता हैं| वह विधाता सबका कल्याणकारी हैं।
कल भी हम व्याख्यान दे रहे थे, कि प्रभु को जानों, प्रभु को कैसे जानें? देखो, मानव को अपने जीवन के विभाग बना लेने चाहिए|क्योंकि भौतिक दृष्टि से भी विचार करें, तो भी जीवन
के समय का विभाजन होना आवश्यक हैं।
नम्रता
आज के वेद-पाठ में अनेक स्थलों में नमः शब्द
का पाठ आया है, विचार कर देखना चाहिए,
कि नमः की व्याख्या क्या हैं? नमः किसके लिए किया जाता हैं? नमः क्या पदार्थ हैं।
मुनिवरों! सबसे पहले मानव में अपने धर्म पालन
में नम्रता होनी चाहिए| अपने जीवन मे नम्रता होनी चाहिए| अपने धर्म पर पूरी-पूरी आस्था होनी चाहिए। ऐसे मानव
में नम्रता आती जाएगी| नही तो, मानव
में नम्रता नही आ सकेगी| शुद्ध ज्ञान के साथ नम्रता आएगी| ज्ञान न होगा, तो नम्रता कभी भी न आ सकेगी|हृदय में नम्रता का अंकुर पैदा होने पर, जीवन मधुर
बन जाता हैं| उस समय उज्ज्वल मनोहरता के कारण जीवन सुन्दर बन
जाता है।
मुनिवरों! एक समय महाराज राम में ऐसी नम्रता
ने स्थान बनाया, कि वे माता पिता के आदेश को पाकर वन को गएं| उनमें धर्म की आस्था थी, वे धर्म के मर्म को जानने
थे।
धर्म का लक्ष्य
एक समय जब वे लक्ष्मण के साथ विचार रहे थे, तब निषाद उनसे मिलने के लिए आए| निषाद ने रामचन्द्र
जी से प्रश्न किया, कि महाराज! आपका तो राजतिलक होने जा रहा
था, आपने वन में जाना क्यों स्वीकार कर लिया?
तब उस समय महान योगी महाराज राम ने कहा था हे
निषाद! यह मेरा धर्म है, यह मेरा कर्तव्य है कि मेरे माता
पिता ने जो आज्ञा दी हैं, मुझको उसका पालन करना चाहिए| आज भी उन माता पिता के आदेशों का पालन कर रहा हूँ।
मुनिवरों! ऐसी अवस्था उस काल में उत्पन्न
होती है?कि जो मानव इस प्रकार का राज्य तक का त्याग कर बैठता
है, ऐसी अवस्था तब ही आती है कि तब मानव में ज्ञान, नम्रता और धर्म में आस्था होती हैं| धर्म में आस्था
न होने पर मानव कभी भी मानवता पर नही पंहुच सकता |मानवता के
न होने पर जीवन अधूरा ही रहेगा।
मुनिवरों! देखो, एक समय
महान योगी रामचन्द्र जी से वन में शबरी मिलने आई, शबरी ने
महाराजा राम से प्रश्न किया कि महाराज! धर्म की क्या महत्ता है? और धर्म क्या पदार्थ है?
मुनिवरों! उस समय महाराज राम ने शबरी को केवल
एक ही उपदेश दिया था, कि शबरी! तेरा और मेरा कर्तव्य एक माना
गया है| अर्थात हमारे हृदय में धर्म की आस्था हो, अन्तःकरण और वाणी में नम्रता हो, यही धर्म का सबसे
बड़ा लक्ष्य माना गया हैं, मानव चाहे कितना ही वेदों का
परिपक्व पण्डित हो, नम्रता के अभाव में सब व्यर्थ है| इसीलिए नम्रता मानव के धार्मिक बनने का सबसे बड़ा साधन हैं।
महाराजा राम ने लक्ष्मण तथा हनुमान जी को ऐसा
ही उपदेश दिया था | उन्होंने कहा था कि भाई! देखो जब तक धर्म
की आस्था के साथ अन्तःकरण को छूने वाले कार्य पूर्ण नम्रता के साथ नही करेंगे, तब तक हमारे धर्म का कोई महत्व नही हैं| हम धर्म को
केवल वाणी से मानें परन्तु हमारा हृदय अधूरा बना बैठा हों |हमारे
हृदय में वह महत्त्व न आए, तो हमारी मानवता व्यर्थ हैं| ऐसी मानवता का कोई महत्व नही|
मुनिवरों! आज के हमारे आदेश का अभिप्रायः यही
है कि मानव नम्रतापूर्वक धर्म के प्रति ऊँची आस्था रखकर धर्म के लिए कर्तव्यपालन
में दृढ़ हो जाए, उस समय मानव में एक विशेष महत्वपूर्ण ज्ञान
का प्रकाश होता हैं| ज्ञान के प्रकाश के होने के पर मानव के
मन में धर्म के लिए आस्था और दृढ़ हो जाती हैं उस समय मानव में धर्म की विवेक
बुद्धि का प्रकाश हो जाता हैं| अर्थात धर्म का बड़ा विवेकी बन
जाता हैं।
मुनिवरों!
महाराजा राम बहुत बड़े राजनीतिज्ञ और धर्म-नीतिज्ञ थे| जिस
समय महाराज राम ने रावण को समाप्त कर दिया था, अर्थात उसके
प्रभुत्व कोसमाप्त कर दिया था उस समय महाराजा राम के समक्ष विभीषण ने उपस्थित होकर
नाना प्रकार के द्रव्यों को उपहार के रूप में प्रस्तुत किए|
उस समय महाराजा राम ने अपने मन्त्रियों से कहा था कि “हे मन्त्रियों! विभीषण के
द्वारा दिए गए,महाद्रव्यों के उपहारों को स्वीकार करूं न कि
न करूं।“
मुनिवरों! उस समय मन्त्रियों ने कहा कि “हे
राजन! हे राम! जो आपने दान कर दिया है, वह तो दान ही हैं| दान दी हुई सम्पति में से ही उपहार रूप में वापस लेना आपका कर्तव्य नही है| ऐसा महाराजा हनुमान आदि मन्त्रियों ने राम से कहा।
अहा,मुनिवरों! कैसा
सुन्दर आदेश है| इसके विपरीत आज मानव कहाँ पंहुच रहा है? आज का मानव तब तक एक दूसरे का आदर नही करेगा, एक
दूसरे के अन्तःकरण की भावनाओं और सत्ता को आदर नही देगा, नही
जानेगा, तब तक धर्म का कोई महत्व नही|
जब तक मानव की दृष्टि में धर्म का अस्तित्व नही, तब तक मानव
एक दूसरे का आदर कदापि नही करेगा।
सबके प्रति आदर भाव
मुनिवरों! आज हमें आदर करना चाहिए| किसका आदर करें और किसका आदर न करें?
मुनिवरों! इस विषय में तो हमारा वेद आदेश
देता हैं, कि संसार में सब ही का आदर करो| ऐसी दशा में प्रश्न होता हैं, कि क्या ततोगुणी
मनुष्य का भी आदर करें?इस विषय में वेद का मत है तमोगुणी
व्यक्ति का भी आदर करो। यदि तमोगुणी का आदर नही करोगे, तो उस
तमोगुणी गुणी व्यक्ति में सतोगुण तो कदापि आ ही नही सकेगा।
मुनिवरों! देखो, मानव
को आस्तिक बनाने के लिए, उसको तमोगुणी से सतोगुणी बनाने के
लिए उसका आदर करना अर्थात उससे आदर पूर्वक व्यवहार करना अत्यावश्यक है| क्योंकि सत्कारपूर्वक व्यवहार से ही उसके अन्तःकरण में सतोगुण के प्रति
और आस्तिकता के प्रति प्रेम उत्पन्न हो सकेगा। अन्यथा, नही| तमोगुणी व्यक्ति को भी हमारे मधुर व्यवहार से उसके अन्तःकरण में ऐसी प्रेरणा
मिले या उत्पन्न हो कि “तुझको भी लोगो से ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि जैसा तेरे साथ
किया जा रहा हैं” इसके विपरीत यदि तमोगुणी व्यक्ति से हम तमोगुण वाला ही व्यवहार
करें, तो उस तमोगुण मानव में या उसके अन्तःकरण में सात
जन्मों तक भी सतोगुण का अंकुर उत्पन्न न हो सकेगा| इसीलिए
वेद कहता हैं कि वेद का आदेश है कि हे मानव! तू नम्रता के साथ सबका आदर कर।
परन्तु इसके साथ वेद ने यह भी आदेश दिया है
कि जब तक मनुष्य समय के अनुकूल व्यवहार नही करेगा तब तक मानव का कोई महत्व नही
हैं।
इस पर आज का मानव कहेगा कि वेद ये दो प्रकार की वार्त्ताएं
क्यों कर रहा हैं?
मुनिवरों! देखो, हमारे
यहाँ दो प्रकार की आस्थाएँ या विषय है, दो प्रकार की नीतियां
है एक आध्यात्मिक धर्म नीति है तो दूसरी राजनीति हैं
मुनिवरों! हमको तो धर्म के आध्यात्मिक विषय
पर जाना चाहिए, क्योंकि यदि हम आस्तिकता को सतोगुण को
प्रसारित करना चाहते हैं, तो हमें सबकी आत्माओं के स्वभाव को
ध्यान में रखकर, सभी के साथ अर्थात तमोगुणी के साथ भी नम्रता
और आदर के साथ व्यवहार करना आवश्यक हैं| तभी हम अपनी आत्माओं
को उच्च बना सकेंगे, तभी हम आध्यात्मिक विज्ञानी बन सकेगें, अन्यथा हम आध्यात्मिक विज्ञान को कदापि तथा किसी प्रकार का भी नही पा
सकेंगे|
इस पर आज का मानव कहेगा, कि वह जो महाराजा कृष्ण ने
महाभारत युद्ध के आरम्भ में अर्जुन को कहा था कि “हे अर्जुन! आज कठिन समय उपस्थित
है, इस समय तेरा परम कर्तव्य है, कि तू
संग्राम करके शत्रुओं का नाश कर| समय के अनुकूल तेरा यही
धर्म हैं|” इत्यादि
गायत्री जप की अनिवार्यता
मुनिवरों! धर्म में पूरी-पूरी आस्था रखते हुए, कभी भी मनुष्य को अपने कर्तव्य से विमुख नही होना चाहिए।
मुनिवरों! धर्मशील मर्यादा पुरूषोत्तम राम के
जीवन को देखो, जब लंका में राम रावण युद्ध चल रहा था तब भी
राम नित्य प्रातः एक सहस्र गायत्री का जप करके ही युद्ध स्थल में उतरा करते थे, राम जब तक एक सहस्र गायत्री का जप समाप्त नही कर लेते थे, तब तब वे संग्राम भूमि में उपस्थित नही होते थे|
महाराज राम के चरित्र की तथा इतिहास की इस बहुत सुन्दर वार्त्ता का कथन महर्षि
बाल्मीकि ने हमारे समक्ष किया था।
मुनिवरों! महर्षि वाल्मीकि द्वारा महाराजा
रामचन्द्र जी का इतिहास तो एक महान वन के तुल्य हैं, इस महान
चरित्र का वर्णन तो किसी अन्य स्थान एवं अन्य समय पर करेंगे ।
वर्तमान प्रकाश की अवधि
मुनिवरों! हमारे समक्ष विचार करने के लिए
प्रश्न उपस्थित है, कि जो आज हमें प्रकाश मिल रहा है, वह प्रकाश कब तक रहेगा?
इसका उत्तर यह है, कि
जब तक प्रकाश करने वाले पदार्थ, प्रकाशक वस्तु में रहेंगे| जैसे मुनिवरों! प्रकाश देने वाले सूर्य में प्रकाशदाता सविता सत्ता है,
यही सविता सत्ता प्रकाश देने वाला पदार्थ है,
जब यह सविता सत्ता परमात्मा में रमण कर जाएगी, तब सूर्य का
प्रकाश समाप्त हो जाएगा।
इसी प्रकार से प्रकाश दाता, आत्मा जब तक अन्तःकरण के साथ है, तभी तक अन्तःकरण
में प्रकाश हैं और तब ही तक अन्तःकरण में संस्कार जम रहे हैं| अर्थात संचित होकर वर्तमान में रहते हैं|मुनिवरों!
आत्मा के सहयोग तक ही हमारे प्राण भी कार्य कर रहे है और हमारे चक्षु भी तभी तक
कार्य कर रहे हैं| अर्थात जब यह प्रकाश वाला आत्मा, हमारे शरीर में अलग हो जाएगा, उस समय ये सब ही
निकम्में हो जाएंगे और हो जाते हैं।
मुनिवरों! आज के हमारे व्याख्यान का अभिप्राय यह है, कि मानव को अपनी वास्तविक मानवता पर चलना चाहिए, यह
कितना सुन्दर एवं प्रबल मानव के लिए परमात्मा का आदेश हैं|
परमात्मा का मानवों को वेद में उपदेश है कि हे मानवों! तुम एक दूसरे से प्रीति करो, परस्पर प्रेम पूर्वक व्यवहार करो, भौतिक विज्ञान और
आध्यात्मिक विज्ञान को जानकर, अपने जीवन को उच्च बनाओ| स्वयं प्रकाशवान होकर, अपने जीवन को उच्च बनाकर
प्रकाश वाले कर्म करो।
संसार की अनित्यता
मुनिवरों! आज का मानव तो विचार रहा है, कि अभी तो प्रकाश हो रहा है, परमात्मा ने कर्म के
लिए बहुत समय दिया हैं ,परन्तु हे मानव! ऐसा मत सोच, पता नही मानव का यह जीवन कब समाप्त हो जाए, इस शरीर
को त्याग कर आत्मा कब कूच कर दे, इसीलिए हेमानव! कल पर कार्य
मत छोड़, यह मत सोच हम कल कर लेंगे|
अहा, इस कल ही कल में मानव जीवन समाप्त हो जाएगा,हे मानव! फिर किसके प्रकाश में कार्य करेगा?
मुनिवरों! आज मानव को विचारना चाहिए,कि परमात्मा ने हमें प्रकाश के पाने का अवसर दिया है| उस प्रकाश में हमें क्या कर्म करने चाहिए यदि हम कर्तव्य कर्म नही करेंगे, तो हमारा जीवन व्यर्थ जो जाएगा अहा,मुनिवरों!भगवान
की ओर से जीव के लिए कितना मधुर आदेश हैं, इस सुन्दर संसार
में धर्म की तथा राजनीति की मर्यादा बाँध करके परलोक सिधारें।
बेटा! इसीलिए आज हमारा भी आदेश है,हमसे भी जितना लाभ प्राप्त कर सकते हो, उतना लाभ प्राप्त कर लो| क्योंकि महाराजा राम और
महाराज कृष्ण आदि की तरह हम सबको भी इस संसार से एक न एक दिन चल ही देना है|हमारा भी समय निकट आ रहा है, प्रलयकाल में जैसे
सूर्य समाप्त हो जाता है, वैसे ही हमारा भी अन्त हो जाना हैं| इसीलिए बेटा! जितने तुम्हारे प्रश्न हो, कितनी
तुम्हारी जिज्ञासाएं हो, सब पूर्ण करो|
जीवन का समय सूक्ष्म रह गया है,उस ही सूक्ष्म समय में समाप्त
हो जाएगा, यह आत्मा अपने लोक को चला जाएगा यह आत्मा उस स्थान
पर पहुँच जाएगा,जहाँ से यह आया था।
पूज्य महानन्द जीः “धन्य हो भगवन!।“
पूज्यपाद गुरुदेवः मुनिवरों! अभी-अभी हम
महानन्द जी के प्रश्नों का उत्तर अपनी शक्ति के अनुसार देंगें।
पूज्य महानन्द जीः गुरु-जी अभी-अभी आपने कहा
था कि जैसे महाराजा राम और महाराजा कृष्ण आदि समाप्त हो गएं,
वैसे हम सब भी समाप्त हो जाएंगें? तो क्या आप भी और हम भी
समाप्त हो जाएंगें? हास्य
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! तुम तो समाप्त हुए
बैठे हो, हास्य तुम्हारी वार्त्ता ही क्या है, हास्य तुम्हारा तो कोई उच्चारण करना ही नही हैं|
हास्य
पूज्य महानन्द जीः अच्छा भगवन्! तो गुरु जी
हमें आपने कल द्वापर के समय का कुछ आदेश दिया और महाराज गंगशील ब्रह्मचारी के विषय
में कहा था।
परन्तु आज हम अपने सूक्ष्म शरीर के द्वारा जब लाक्षागृह पर विचरण कर रहे
थे तब हमने सुना था कि गंगशील की माता तो वह गंगा नदी थी, तो आज भी पर्वतों में निकल कर मृत्युलोक पर बह रही हैं| और इसी गंगा नदी का महाराज शान्तनु के साथ विवाह संस्कार हुआ था| इसने देव कन्या स्वरूप धारण किया था| संस्कार के
समय महाराजा शान्तनु से यह वचन हुआ था कि जो भी मेरे पुत्र होगा,उसकाआहार मैं स्वयं कर जाया करूंगी।
पूज्यपाद गुरुदेव-अच्छा
पूज्य महानन्द जीः दूसरा प्रश्न यह है कि एक
समय महाराज इन्द्र ने गणों और आठ गन्धर्वों को शाप दे दिया था कि वे ही आठ गन्धर्व
थे, जो माता गंगा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे| परन्तु आपने तो इन सबकी रूप रेखा ही बदल दी हैं,
आपकी रूप रेखा समझ में नही आ रही हैं, क्योंकि आधुनिक
महाभारत में भी हमारे कथनानुसार परम्परा अंकित हैं| अब हम यह
जानना चाहते है, कि हम आपके व्याख्यानों को स्वीकार करें या
आधुनिक काल के महाभारत की वार्त्ताओं को स्वीकार करें।
पूज्यपाद गुरुदेवः महानन्द जी! इसमें तो कोई उलझन की वार्त्ता नही
है, क्योंकि जो तुम्हें सत्य प्रतीत होता हो, उसी को स्वीकार कर लो, हमारी तो इसमें कोई हानि नही
हैं।
परन्तु बेटा! तुम्हारे उच्चारण के अनुसार हम
एक वार्त्ता जानना चाहते है, कि तुमने एक बार कहा था कि
ब्रह्मा जी की कृपा से यह गंगा पहले ब्रह्मलोक में बहती थी,उस
समय गन्धर्वों को श्राप दे दिया गया था| तब इन गन्धर्वों ने
ब्रह्मा की पुत्री गंगा से याचना की थी, कि हे माता! आप
मृत्यु लोक में चलें, क्योंकि वहाँ हम तेरे गर्भ से जन्म
धारण करेंगे,तुम स्वयं आहार करके,
हमारा उद्धार करते रहना| ऐसा ही तो कभी तुम्हारा व्याख्यान था
पूज्य महानन्द जीः हां हां
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा बेटा! इसका संक्षेप
में उत्तर यह है, कि परमात्मा की कृपा से पर्वतों से गंगा
झरने के रूप में निकल कर, अन्य नदी नदों आदि से मिलकर ,वैश्यों तथा कृषकों की खेती को जीवन प्रदान करती हुई, कीट पतंगों, पशु पक्षियों एवं मानवों आदि को अपने
अमृतरूपी जल से सन्तुष्ट करती हुई, जीवन दान करती हुई बहती
हैं |आस्तिक लोग इस अनुपम रचना के द्वारा परमात्मा के चिन्तन
की ओर लग जाता हैं| परमात्मा में रमने लगता है|
गंगा का कन्या रूप
बेटा! मानव का एक सिद्धान्त होना चाहिए, कि सत्य को सत्य मानने में या उसके उच्चारण करने में कोई आपत्ति नही होनी
चाहिए, बेटा! यह गंगा तो जल की तरह बह रही हैं, यह तो सर्वथा जड़ है, चेतना शून्य है, ज्ञान शून्य हैं, जल कहीं कन्या रूप में आता हैं, क्या यह हो सकता है, बेटा! यह तो हो सकता है कि कोई
कन्या गंगा नदी में किसी स्थान पर गिर कर बह गई हो,और उसको
किसी ने निकाल कर गंगा नाम रख दिया हो।
बेटा! परन्तु जल वाली गंगा नदी देव कन्या बन
गई हो, हम तुम्हारे ऐसे वाक्यों को कभी भी मानने को तैयार
नही| क्योंकि ये परमात्मा की बनाई हुई प्रकृति के सर्वथा
विरूद्ध हैं।
यह भी हो सकता है कि गंगा नामक देव कन्या कभी
गंगा में गिर गई हो उसकी राजा शान्तनु ने रक्षा कर दी हो,
परन्तु तुम्हारी कल्पना को हम कभी नही मानेंगे| क्योंकि यह
प्राकृतिक नियम के विरूद्ध हैं।
बेटा! आपने जो यह कहा कि यह ब्रह्मा की
पुत्री है,इत्यादि यह वाक्य तो सत्य हैं, क्योंकि जो जहाँ से उत्पन्न होती है, वह उसी की
पुत्री होती हैं| परन्तु आज के मानव ने इस वार्त्ता को अच्छी
प्रकार से विचारा नही, और न अच्छी प्रकार से समझा ही| मानव अपने अज्ञान के कारण कुछ का कुछ समझ बैठा हैं।
जीवात्मा ही गंगा
इसका व्याख्यान यह है,
कि बेटा! हमारे शरीर में नौ द्वार है, वे ही गन्धर्व हैं| मुनिवरों! मूलाधार चक्र से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक गंगा, यमुना, सरस्वती ये तीन नदियां बह रही है| बेटा! जिनको तुम आकाश गंगा, मुत्यु लोक की गंगा,
पाताल गंगा कहते हो,तीनों गंगाएं हमारे इस शरीर में है| गंगा ही नौ
द्वारों में रमण कर रही हैं, इनको स्वच्छ करती रहती हैं, ऐसी कौन-सी गंगा हैं, जो ब्रह्मा की पुत्री हैं।
मुनिवरों! देखो, गंगा
नाम आत्मा का है,क्योंकि इन नौ द्वारों वाले शरीर को पवित्र
कर रहा हैं|बेटा! यदि यह महान आत्मा इस नौ द्वारों वाले शरीर
में न होता, तो इन नौ द्वारों का कुछ भी न बन सकता था| इसी के द्वार शरीर पवित्र होता हैं।
जैसे लोग लौकिक गंगा में स्नान करके स्वच्छ
हो जाते हैं, अपने शरीरों को पवित्र कर लेते हैं उसी प्रकार
से ब्रह्मा की पुत्री रूपी गंगा के द्वारा, यह नौ द्वारों का
शरीर पवित्र होता रहता है| परमात्मा का तथा आत्मा का सम्बन्ध
पिता पुत्र का हैं| बेटा! वह ध्यान देने वाला विषय हैं, कि जब आत्मा इस शरीर को त्याग कर चल देता हैं, तब
इस निष्प्राण शरीर को लोग अपवित्र मानते हैं| इसमें आत्मा के
निवास तक ही इसको पवित्र माना जाता हैं |अतः पवित्र करने
वाली गंगा आत्मा ही हैं
गंगा का आलंकारिक स्वरूप
बेटा!देखो, गंगा का एक
आध्यात्मिक योगाभ्यासियों का आलंकारिक वर्णन भी हैं, जिसको
मानव ने समझा नही।
इस मानव शरीर में तीन नाड़िया हैं, इडा, पिंगला, सुषुम्ना या
गंगा, यमुना, सरस्वती के नाम से
प्रसिद्ध हैं जब मानव योगाभ्यासी बन कर मूलाधार में ध्यान करके रमण करता है तब
उसको मृत्यु लोक की गंगा का ज्ञान होता है इसके पश्चात जब आत्मा नाभिचक्र में और
हृदय चक्र में ध्यानावस्था में पंहुचता हैं, तब उसे आकाश
गंगा का ज्ञान होता है, जब योगाभ्यासी आत्मा समाधि अवस्था में
घ्राणेन्द्रिय चक्र में ध्यान लगाता हैं तब वह त्रिवेणी में पंहुच जाता हैं| या त्रिवेणी का साक्षात्कार करता है,
बेटा!इससे
आगे चलकर आत्मा जब ब्रह्मरन्ध्र में पंहुच जाता है, तब उस
योगी आत्मा को ब्रह्मलोक की गंगा का ज्ञान होता हैं।
परन्तु मानव ने इस रूप रेखा को ठीक प्रकार से
जाना तो है नही, इसीलिए मानव स्थूल अर्थों की कल्पना द्वारा
स्थापित करके भटक रहा हैं| भौतिक नदी गंगा को ही, आज का मानव मुक्ति का साधन अपनी अज्ञानता से समझ बैठा हैं| इस गंगा से तो केवल भौतिक शरीर ही स्वच्छ किया जा सकता हैं, या प्यासे को उसके स्वच्छ जल से सन्तुष्ट किया जा सकता हैं|
मानव का अन्तःकरण तो ज्ञान पूर्वक कर्तव्य, कर्म करने से ही पवित्र होगा|
बेटा!अब रही बात, कि
राजा शान्तनु के समक्ष, यह भौतिक नदी गंगा,देव कन्या का शरीर धारण करके प्रस्तुत हो गई, तो
बेटा! यह वार्त्ता तो किसी अज्ञानियों के समाज में कहना, वहाँ
तुम्हारी वार्त्ता स्वीकार कर लेंगे| इसमें हमें कोई आपत्ति
नही, बेटा!परन्तु यहाँ तो तुम्हारा व्याख्यान चलेगा नही, हास्य
पूज्य महानन्द जीः धन्य हो भगवन!
गंगा माँ का वास्तविक स्वरूप
पूज्यपाद गुरुदेवः मुनिवरों! हमने तो द्वापर
काल में यह देखा था, कि राजा गंगेश्वर की गंगा नाम की पुत्री
थी| इस गंगा से महाराजा शान्तनु का विवाह संस्कार हुआ था| इसके सात पुत्र उत्पन्न होकर समाप्त हो गएं थे|
इसके पश्चात इनके गंगशील नाम का आठवां पुत्र उत्पन्न हुआ |वह
पुत्र दीर्घायु हुआ| इसके समय समय पर ब्रह्मचारी पर्जन्य, कौडिली ब्रह्मचारी, देवव्रत और भीष्म पितामह तथा
गांगेय आदि नाम प्रसिद्ध हुए।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! इस विषय में तो
हमारे बहुत से प्रश्न समाधान के लिए शेष हैं”
पूज्यपाद गुरुदेवः “हां तो बेटा! समय मिलेगा, तो उनके उत्तर देते रहेंगे|”
पूज्य महानन्द जीः “गुरुजी !इसके पश्चात यह
गंगा समाप्त हो गई, तो इन महाराजा शान्तनु का संस्कार
मच्छोदरी के साथ हुआ |”हास्य अच्छा, तो गुरुजी तो यह
मच्छोदरी किसकी पुत्री थी? हास्य
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! किसकी उच्चारण करें?”
पूज्य महानन्द जीः महर्षि व्यास जी ने तो
इसके विषय में लिखा है कि यह नौका चलाने वाले मल्लाह की कन्या थी,अच्छा भगवन्! तो यह कन्या उस मल्लाह के यहाँ कहाँ से आई?
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! इस कन्या ने उस
मल्लाह के गृह में जन्म लिया था|”
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा तो गुरुजी! इस विषय
में तो हमने बहुत ही अनोखी वार्त्ता सुनी हैं|”
पूज्यपाद गुरुदेवः “वह क्या है ?”
पूज्य महानन्द जीः हमने सुना हैं, कि महर्षि पारा की यह पुत्री थी
पूज्यपाद गुरुदेवः हूँ
पूज्य महानन्द जीः महर्षि पारा का ब्रह्मचर्य
मछली के गर्भ में चला गया था, उस मछली से ही इस मच्छोदरी का
जन्म हुआ| हास्य
पूज्यपाद गुरुदेवः तो महानन्द जी! तुम
तुकबन्दी लगा रहे हो, यदि जिसका नाम मच्छोदरी हो, तो
क्या उसने मछली से जन्म लिया है, यह मूर्खों वाले प्रश्न कहाँ से आएं, हमारी समझ में
तुम्हारे ये प्रश्न नही आ रहे हैं| महानन्द जी! तुम तो सब कुछ
जानते हुए भी, कुछ नही जानते| हास्य
महानन्द जी के प्रश्न करने का कारण
पूज्यपाद गुरुदेवः गुरु जी क्या करें, ये हमारे और तुम्हारे वाक्य, मृत मण्डल में जा रहे
हैं, और हमारे व्याख्यानों को सभी पा रहे हैं, इसमें कोई भ्रान्ति नही |भगवन! आपसे प्रश्न करना, हमारा कर्तव्य हैं| यदि आपसे प्रश्न नही करेंगे, तो किसके समक्ष प्रश्न करेंगे|
पूज्यपाद गुरुदेवः हूँ,
तो सुना बेटा!
पूज्य महानन्द जीः इसके विषय में ऐसा सुना है कि जब महर्षि पारा मुनि को विवेक हुआ,
पूज्यपाद गुरुदेवः हूँ
पूज्य महानन्द जीः और अपनी पत्नी उच्चांगना
से कहा कि हे धर्म देवी! मुझे आज्ञा दो , मैं इस समय मार्ग
में तपस्या करने के लिए जा रहा हूँ|उस समय महाराज शान्तनु भी
वहाँ विराजमान थे| धर्मदेवी ने एक वाक्य कहा कि भगवन! आप जा
तो रहे हैं, परन्तु यदि मुझे पुत्र की इच्छा हुई, तो मुझे पुत्र को तो अवश्य उत्पन्न करना है
मुनिवरों! तो उस समय महर्षि पारा मुनि ने यह
कहा कि तुम कागा को मेरे समक्ष नियुक्त कर देना मैं उनको अपनी मन्मन्ता धारण
करूंगा| ऐसा कहकर पारा मुनि प्रस्थान कर गएं| वन में जाकर अखंड तपस्या करने
लगे| इसके पश्चात उनकी धर्म पत्नी में पुत्र की इच्छा से काम
शक्ति उत्पन्न हुई, तब उन्होंने उस समय कागा नामक दूत को
अपने सन्देश के साथ, महर्षि पारा मुनि के पास भेजा| उस समय पारा मुनि ने अपनी गुप्त इन्द्रिय का मन्थन करके अपने ब्रह्मचर्य
को किसी यन्त्र में स्थापित करके, कागा को दे दिया|कागा वहाँ से लेकर, जब गंगा के स्थान पर पंहुचे, वहाँ बहुत से व्यक्ति अपने अपने वाक्य उच्चारण कर रहे थे, वहाँ कागा को उनके वाक्यों को सुनने की इच्छा हुई,
ऐसी परिस्थिति कुछ असावधानी के कारण हुई,कि वह यन्त्र गंगा
में गिर कर मछली के मुखारबिन्दु में चला गया| तो देखो,
महर्षि पारा मुनि का महान ब्रह्मचर्य था, वह
व्यर्थ नही जाता, तब उस मछली के गर्भस्थापन हो गया, उस मछली को किसी मछली पकड़ने वाले ने पकड़ लिया उस मछली-मार ने उस मछली को पकड़ कर उसके दो भाग कर दिए, मछली के गर्भ में कन्या विराजमान थी| तब उसने उस
कन्या को निकाल लिया|
दूसरी और कागा महर्षि की धर्मपत्नी के पास पंहुचे, तब पत्नी ने कहा कि कहो, भाई कागा| तो उन्होंने कहा कि मुझको तो सर्मपण कर दिया था| परन्तु
मध्य में ही समाप्त हो गया|
तब ऋषि पत्नी ने शाप दे दिया|
उधर उस मछुए ने उस कन्या को किसी मल्लाह राज
को समर्पण कर दी| मल्लाह लोग इसको मच्छोदरी कहने लगे| इसके पश्चात वह कन्या चन्द्रमा के तुल्य बढ़ने लगी|
शीघ्र ही पूर्ण चन्द्रमा के तुल्य, पूर्ण यौवन और पूर्ण
सौन्दर्य को प्राप्त हो गई| भगवन! कुछ काल के पश्चात ,महर्षि पारा मुनि गंगा को पार करने के लिए वहाँ पंहुचे,जहां वह मच्छोदरी सुशोभित
हो रही थी| महर्षि तुरन्त ही गंगा नदी पार करना चाहते थे, परन्तु उस समय मच्छोदरी के पलक पिता ने कहा कि मै तो भोजन कर नियुक्त हो
गया हूँ यदि ऋषि को तुरंत ही गंगा पार नही किया तो ऋषि क्रोधित हो जाएंगे इस कारण
से मेरी इच्छा है कि तुम नौका द्वारा ऋषि को गंगा पर करा आओ|,
गुरुजी ऐसा सुना है, कि
उस समय वह मल्लाह की कन्या ऋषि के समक्ष पंहुची, उस कन्या का
पा करके ऋषि का मन वासनामय हो गया, उसका हृदय चंचल गति को
प्राप्त हो गया| उस मच्छोदरी से ऋषि ने अपनी इच्छा प्रकट की, तब मच्छोदरी ने उत्तर दिया कि महाराज! यह जो बड़ा पाप है, सूर्य उदय हुआ है, सूर्य का प्रकाश संसार में फैला
हुआ हैं ,और वरुण हमारे समक्ष है|हम
क्या करे?
तो गुरुदेव ऐसा सुना जाता हैं ,कि उस समय महर्षि पारा ने गंगा में जल लेकर ऊपर को उछाल दिया, मानो इन्द्र बरसने लगा और वहाँ, उन्होंने अपनी काम
शक्ति को पूर्ण किया| तो भगवन! हमने तो ऊपर कहे अनुसार सुना
है| आपने तो इसकी रूप रेखा को भिन्न कर दिया, तो वास्तव में हम क्या मानें?
गुरुदेव !हमने सुना है,कि
उससे मच्छोदरी के गर्भ की स्थापना हो गई, उस कुमारी कन्या मच्छोदरी
के गर्भ से महर्षि व्यास उत्पन्न हुए, तो गुरुजी इस वार्त्ता
में कहाँ तक यथार्थता है? कहाँ तक सत्य है? हास्य
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! जो तुम उच्चारण कर
रहे हो, उस सबको हम मान लेते, यदि हम
स्वयं द्वापर काल को नही देखते, तब हम तुम्हारे सभी वाक्य स्वीकार
कर लेते, परन्तु आज कैसे करें? असत्य
और निराधार वार्त्ता पर विश्वास नही होता, प्रकृति के नियम
के विरूद्ध वार्त्ता को हृदय स्वीकार नही करता, इसकी तो रूप
रेखा इसप्रकार हैं
महर्षि व्यास का जन्म
बेटा!
महर्षि पारा मुनि के अपनी धर्म पत्नी से दो पुत्र थे| महर्षि
व्यास और धुन्धु ऋषि| तो बेटा! जैसी यह वार्ता तुमने सुनाई
है, यह सब किसी धूर्त मानव की बनाई हुई वार्त्ता हैं|
बेटा! तुम जानते ही हो कि मछली का गर्भाशय
कैसा होता हैं,और माता का जैसा गर्भाशय होगा, वैसी ही उसके सन्तान होगी। अर्थात मानव स्त्री के गर्भाशय से मानव और
मछली के गर्भाशय से मछली ऐसा परमात्मा का प्राकृतिक नियम हैं| इसमें कहीं भी अपवाद तक नही मिलता |यह तो बेटा! तुम
जानते ही हो
पूज्य महानन्द जीः हाँ,गुरुजी इसमें यह है कि
योगीजन अपने योग की शक्ति से परमात्मा के
नियम के विरूद्ध भी कर सकते हैं| इसीलिए सम्भव है, कि ऊपर की घटना भी उसी रूप में घटी हो।
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा , बेटा! हमने तुम्हें एक वाक्य निर्णय कराया था, कि जो जिसके निकट पंहुच जाता हैं ,वह उसके विरूद्ध
कोई कार्य नही करता
बेटा! जैसे कोई मूर्ख व्यक्ति किसी राजा के
राष्ट्र में पंहुच जाए और वह वहाँ भाग्यवश राज्य का मन्त्री बन जाएं ,तो वह राजा के विरूद्ध कोई कार्य नही करेगा| इसी
प्रकार तो व्यक्ति परमात्मा के निकट पंहुच जाता हैं,
परमात्मा के ज्ञान को जानने वाला बन जाता है, वह परमात्मा के
नियम के विरूद्ध कोई कार्य नही करेगा| बेटा! यह भी जान लो कि
महर्षि पारा मुनि ऐसे व्यक्ति नही थे, कि वे परमात्मा के
नियम के विरूद्ध कोई कार्य करते, यह तो हो सकता है कि मानव
के हृदय की गति अति चंचल हो जाए, परन्तु ऐसे महान ऋषि तुरन्त
ही उस पर अपना नियन्त्रण कर लेते हैं|
मछली के गर्भ से मानव कन्या का जन्म होना तो
सर्वथा ही नियम विरूद्ध हैं| इसको तो कोई भी बुद्धिमान
व्यक्ति कभी भी स्वीकार नही करेगा| क्योंकि परमात्मा के बनाए
नियम तो अटल है,
सत्य है, तीनों कालों में एक से हैं| परमात्मा की चलाई, परम्परा को कोई भी तोड़ नही सकता| चाहे महर्षि हो, चाहे योगी हो, चाहे मुनि हो|कोई
भी मानव परमात्मा के नियम से दूर नही भागेगा वह तो परमात्मा के नियम में ही चलता
रहेगा
बेटा! तुम्हें हमने प्रमाण दिया था, कि जैसे मानव को शीत लगने लगे और
वह अग्नि के समक्ष चला जाए तो ज्यों -ज्यों उसमें अग्नि के परमाणु प्रवेश करते
जाएंगें, त्यों त्यों उसका शीत दूर हो जाएगा। ऐसे ही देखो,जो मानव उस परमात्मा
के गुणों को जान लेता है ओर ज्यों –ज्यों शनैः शनैः परमात्मा के गुण उसमें प्रविष्ट होते जाते हैं| त्यों त्यों वह परमात्मा के नियमों में घिर कर कर्तव्य करने लगता हैं|
बेटा! योगियों का तो ऐसा सुन्दर सिद्धान्त है, आज हमको उसे मान लेना चाहिए, इससे हमारा भी जीवन
बनेगा और उसी में हमारा महत्व हैं
बेटा! महर्षि पारा मुनि के दो पुत्र थे| जो कि उनकी धर्म पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे,
एक महर्षि व्यास मुनि महाराज और दूसरे धुन्धु ऋषि महाराज
मुनिवरों! देखो,मच्छोदरी
के दो बालक थे| जोकि
मच्छोदरी के साथ शान्तनु का विवाह संस्कार होने के पश्चात हुए थे।
मुनिवरों! यह है तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर, बेटा! हमने ऐसा देखा और सुना था
यदि कोई ऋषियों पर इस प्रकार का लांछन आरोपित
करता है, तो यह उसकी बुद्धिमत्ता नही|
इस पर तुम यह कहोगे, कि
ऐसे वाक्य तो महर्षि व्यास ने स्वयं कहे हैं|
वास्तव में महर्षि व्यास ने तो यह कहा कि
गंगेश्वर राजा की पुत्री गंगा थी| उसकी मृत्यु के पश्चात
महाराजा शान्तनु ने मल्लाह की, अत्यन्त सुन्दरी कन्या
मच्छोदरी से विवाह संस्कार किया| बेटा! हमने तो ऐसा देखा और
सुना हैं| अब रही वार्त्ता आधुनिक समय की,बेटा! यह तो तुम मूर्खों वाली वार्त्ता हमारे समक्ष नियुक्त करने लगे हो, अब बताओं तो हम तुम्हारी ऐसी वार्त्ताओं का, कहाँ
तक निर्णय करते रहेंगें।
पूज्य महानन्द जीः धन्य हो भगवन!
पूज्यपाद गुरुदेवः मुनिवरों! आज हम अपने
व्याख्यान में महानन्द जी के प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे,
मानव को ऐसा विचारवान होना चाहिए कि मानव को सच मानने में कोई किसी प्रकार की आपत्ति
नही होनी चाहिए, जो सत्य का वाक्य हो,
उसको स्वीकार करने में, न बेटा!तुम्हारी हानि हैं, और न हमारी हानि हैं|
बेटा! तुम्हारे प्रश्न तो होते ही रहेंगे, कल इससे आगे के द्वापर काल का वर्णन करने की हमारी इच्छा है, कल तुम्हारे जो प्रश्न होंगे, उनका निर्णय करते
रहेंगे।
पूज्य महानन्द जीः गुरुजी! प्रश्न तो इस काल
में बहुत हैं
पूज्यपाद गुरुदेवः और क्या हैं?
पूज्य महानन्द जीः गुरुजी एक यह है, अच्छा कल ही उच्चारण कर देंगे, कि जो कुन्तेश्वरी
थी, उसने भी पांचों पुत्र सब देवताओं से उत्पन्न किए थे।
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा बेटा! कल इस विषय पर
व्याख्यान हो जाएगा, अब तो हमारा व्याख्यान समाप्त हो जाना
चाहिए| क्योंकि आज हमारा इतना व्याख्यान होना था| बेटा! कल इसका विश्लेषण में व्याख्यान दे देंगें|
बेटा! तुम्हारे प्रश्न तो चलते ही रहेंगे, और हमें भी उनका
निर्णय करना हमारा कर्तव्य हैं|
कल हम अपना दार्शनिक विषय तथा द्वापर के समय
का कोई व्याख्यान तुम्हारे समक्ष नियुक्त करेंगे| हमारा यह
व्याख्यान समाप्त हो रहा है| अब वेदों का पाठ होगा,इसके पश्चात हमारी वार्त्ता समाप्त हो जाएगी।
मुनिवरों! मानव को बुद्धिपूर्वक एवं
महत्वपूर्ण विचार करने चाहिए, इस प्रकार से मानव के जीवन की रूप
रेखा बदल कर महान बन जाती है, मानव को सुन्दर रूप रेखा बनानी
चाहिए| यही मानव का कर्तव्य हैं|
महानन्द जी का तो कल यह प्रश्न था, कि मधु शान्ति पाठ हो जाएं, परन्तु मधु शान्ति पाठ
आज नही करेंगे कल या किसी द्वितीय स्थान में ही देखेंगे, क्योंकि
मधु शान्ति पाठ बहुत अधिक हैं| अब हमारा वेदों का पाठ होगा
पूज्य महानन्द जीः भगवन! आप तो हमारी इच्छा
किसी काल में भी पूर्ण नही किया करते
पूज्यपाद गुरुदेवः अरे, देखा जाएगा, कल
पूज्य महानन्द जीः अच्छा भगवन्!
No comments:
Post a Comment