Monday, September 10, 2018


1   3 ०४ १९६२   ब्राह्मण का स्वरूप

जीते, रहो!
 देखो, मुनिवरों! अभी-अभी हमारा पर्ययन समय समाप्त हुआ, हम तुम्हारे समक्ष वेदों का मनोहर पाठ कर रहे थे |आज के वेद पाठ में कई प्रकार का विवरण आया, आज हम पूर्व मन्त्रों में उस विधाता का गान गा रहे थे, जिस विधाता ने हमारे जीवन के लिए हमें ऊँचे कर्म करने के लिए संसार रूपी क्षेत्र को उत्पन्न किया हैं|आज हम उस विधाता के गुणगान कहाँ तक गाएं, वह विधाता मनोहर और अलौकिक है, बड़े-बड़े महान आचार्य योगीजन उस विधाता के गुणगान करते करते समाप्त हो गएं।
कैसा अदभुत संसार है यह? किसने  रचा हैं इसको? किसने उस विधाता से याचना की, “कि आप इस संसार को उत्पन्न करो।“
सृष्टि उत्पत्ति का कारण
आज हमें वेद मन्त्रों से यह प्रतीत होता हैं, कि यह आत्मा ही उस प्रभु से याचना करने गया था | उस प्रभु ने अपने बालक की याचना को पाकर इस संसार रूपी क्षेत्र को उत्पन्न किया, फिर उसने एक एक तत्त्व में ऐसे ऐसे गुण उत्पन्न किए, कि जिनका वर्णन नही किया जाता|बेटा! पृथ्वी को ही देखो, इसमें नाना गुण हैं इसमें नित्यप्रति कहाँ से इतने तत्त्व आ पंहुचे हैं? स्थावर, वृक्ष योनियों में ही देखो, प्रत्येक वृक्ष अपना अपना रस, अपने अपने  गुण इस पृथ्वी से ही ले रहा हैं, यह कैसा अलौकिक तत्त्व हैं? इस पृथ्वी में ऐसे गुण कहाँ से आ गए हैं? जिन गुणों की मानव को आवश्यकता है, उन गुणों को प्रेरित करने की शक्ति तथा सत्ता किसने प्रदान की हैं?
बेटा! इससे बड़ा आश्चर्य होता है  कि उस विधाता ने अपनी रचना से इस महान प्रकृति को प्राण रूपी सत्ता दी, इसी को सामान्य प्राण कहते हैं| मानव के कल्याणार्थ, शून्य प्रकृति को प्राण सत्ता देकर, इसको गतिशील बना कर आत्मा को कर्म करने का अवसर दिया|
बेटा! हमने उस काल को देखा  है, जिस काल में मुनिवरों! यहाँ महर्षि पापड़ी मुनि महाराज, अंगिरा मुनि महाराज,महर्षि करूण मुनि, कपिल मुनि आचार्य और वशिष्ठ मुनि जैसे आचार्य थे, जिस काल में सब महान माताएं तथा देव कन्याएं अपने एकान्त स्थलों में विराजमान हो कर, यही सोचा करती थी, कि यह संसार क्षेत्र क्या हैं किसने हमें इतना उच्च कर्म करने का अवसर प्रदान किया हैं?
आज हमें भी तो यही विचारना है, कि हम ज्ञानी विज्ञानी कैसे बनें? परमात्मा के ज्ञान विज्ञान को कैसे जानें? बेटा! हमारे आदि आचार्यों ने तथा अन्य माता अरूणा जैसी धर्म लक्ष्मियों ने, इस संसार के तत्त्वों  को परमात्मा के महत्वों को, प्रकृति के तत्त्वों एवं गुणों के द्वारा जाना, बेटा! हमें प्रतीत होता हैं, कि आज इस सृष्टि में उस परमात्मा की ज्योति ही व्यापक हैं, उसी की ज्याति से यह संसार प्रकाशित हो रहा हैं।
वेद विद्या
अहा, कैसा महान संसार है? कैसा आश्चर्यजनक है? बेटा! उस परमात्मा की विद्या को पाकर हम सुशील बन जाते हैं, वह विद्या कहाँ से आई? किसने  विद्या प्रदान की, जिससे मानव का उत्थान हो जाता हैं| यदि बेटा !आज हम यह मान लें, कि यह विद्या प्रकृति से आई, तो बेटा! प्रकृति तो जड़ हैं, ज्ञान शून्य है, यह तो मानव को शून्यता तक पंहुचाने वाली हैं|
अहा,तो विद्या कहाँ से आई हैं? जो मानव का विकास कर देती हैं, प्रलय काल में यह विद्या किस स्थान पर थी, जिस  काल में यह संसार समाप्त हुआ, उस समय यह वेद की विद्या कहाँ थी?
आज मानव इसके विश्लेषण पर विचार लगाता हैं और कई प्रकार से सोचता हैं, वेदानुयायी महान आचार्यों की सम्मति पर दृष्टि डालते हैं, तो प्रतीत होता है कि परमात्मा इतना पूर्ण ज्ञानी हैं, कि वही जीवात्मा को ज्ञान प्रेरित कर देता हैं,जीवात्मा उस प्रभु के ज्ञान को पाकर, उसकी वेदवाणी को पाकर, यह जीवात्मा बेटा! अनेक प्रकार से ज्ञानी और विज्ञानी बन जाता हैं, उस ज्ञान विज्ञान की सहायता से ही आज भी हम अपने जीवन को बहुत उच्च और सफल बनाया करते हैं।
प्रलय काल में वेद ज्ञान
प्रश्न होता हैं, कि यह अदभुत वेद ज्ञान, प्रलय काल में कहाँ रहता हैं?
 प्रलय  काल में यह आत्मा परमात्मा के गर्भ में रहता है, यह वेद ज्ञान परमात्मा के स्थानों में रहता है जैसे बेटा! बालक का स्थूल शरीर माता के गर्भ में रहते हुए मानव को दृष्टिगोचर नही होता, परन्तु जब गर्भ से पृथक हो जाता है  तक उसके च़क्षु भी हैं, भुजाएं भी हैं, पद भी हैं, त्वचा भी है,सब इन्द्रियां भी हैं, ये सब उत्पन्न होने पर, प्रत्यक्ष होते है| इसी प्रकार बेटा! ये सब विद्याएं प्रलय  काल में परमात्मा के गर्भ में चली जाती हैं| परमात्मा पूर्व नियम के अनुकूल, परमात्मा में ही निवास करती हैं।
एक समय हमारे आदि आचार्यों ने दार्शनिक समाज में कहा था, कि आत्मा का ज्ञान तो प्राकृतिक है, आत्मा का ज्ञान तो स्वाभाविक है, मुनिवरों! यह वाक्य यथार्थ हैं| आत्मा  की दो महान सताएं स्वाभाविक हैं| वे है एक ज्ञान है, दूसरा प्रयत्न है |मुनिवरों! आज हम आत्मा की सत्ता को इस प्रकार मान लें, कि यह कहाँ से आती है? तो बेटा! हमें उस सत्ता के जगाने के लिए, इस महान स्थूल प्रकृति में आ करके, किसी से वह ज्ञान लेना पड़ता हैं, किसी से उसके लिए प्रार्थना करनी पड़ती हैं, जिससे इस आत्मा को ज्ञान होता हैं| वह अज्ञानान्धकार से पृथक होता हैं|
जीव के लिए वेद ज्ञान का महत्त्व
मुनिवरों! देखो, जैसे भौतिक विज्ञान के खोजने के लिए हमें प्रकृति के नाना तत्त्वों की आवश्यकता पड़ती हैं तब हम उस ज्ञान विज्ञान को खोज पाते हैं | इसी प्रकार आत्मा का जो ज्ञान स्वाभाविक हैं, उसको जगाने के लिए वेद विद्या का प्रसार करना, वेद विद्या को ग्रहण करना पडेगा| जब वेद विद्या की सन्धि आत्मा में पंहुच जाती हैं, उस समय बेटा  उस परमात्मा के दिए हुए, वैदिक ज्ञान से एक महान सम्बन्ध हो जाने पर मानव जीवन पूर्ण-विकास को प्राप्त हो जाता हैं।
मुनिवरों! आज के हमारे वेद-पाठ में परमात्मा के दिए, इसी उपदेश का वर्णन था परमात्मा ने हमें वह ज्ञान दिया है कि जिसे पाकर हम उसके उपासक बन जाते हैं, पवित्र बन जाते हैं, उस अमृत को पाकर हम भी वास्तव में अमृत ही बन जाते हैं| तब वहाँ अमृत-आत्मा आनन्द ही आनन्द भोगता रहता हैं।
बेटा! वेद की विद्या पाकर हम सुशील बन जाते हैं, सुशील बन कर ही हम दार्शनिक समाजों में जा कर, वहाँ नाना प्रकार के प्रश्न कर सकते हैं, और हम उन प्रश्नों के उत्तर भी उन ऋषियों और दार्शनिकों से पाने वाले बन जाते हैं
सृष्टि की उत्पत्ति का रहस्य
मुनिवरों! हमारे कर्म करने के लिए संसार रूपी क्षेत्र को उत्पन्न करने वाले विधाता से याचना करते हुए हम कर्म करने के लिए उद्यत हो रहे हैं| हमारे आदि आचार्यों ने मानव जीवन की विकासशीलता का अनके स्थानों पर वर्णन किया। इसी को कल हम अपने व्याख्यान में कह चुके हैं।
महामुनि नारद ने अपने जीवन का पूर्ण विकास किया था| नारद मुनि की विशेषता थी, कि उन्होंने  अपनी तपस्या एवं पुरूषार्थ के बल से सूर्य-मण्डल में पंहुचे तथा वहाँ के राजा  विष्णु को इस पृथ्वी पर खींच लिया |नारद मुनि ने अपनी तपस्या एवं पुरूषार्थ के प्रभाव से महाराजा विष्णु का अभिमान नष्ट कर दिया |बेटा! जो भी मानव अभिमानव से कार्य करता है, उसका एक न एक दिन पतन अवश्य होता हैं|वह पार्थिव रूप जड़ता को प्रपट हो जाता है | आज हमें इसका ध्यान रखना चाहिए, हमें अपनी तपस्या और पुरूषार्थ के  द्वारा सफलता मिलने पर भी थोड़ा-सा भी अभिमान नही करना चाहिए।
हमारे वेद मन्त्रों में अनेक स्थानो पर वर्णन आ रहा है कि यह महान संसार, उस परमात्मा को पाने के लिए बनाया हैं| इसीलिए हमको बहुत अधिक महत्ता की आवश्यकता हैं।
ब्राह्मण
मुनिवरों! देखो, ‘ब्राह्मण वर्चति’ इत्यादि आज के वेद पाठ में नाना प्रकार के ब्राह्मणें को वर्णन आ रहा था|ब्राह्मण किसको कहते हैं? संसार में ब्राह्मण की क्या विशेषता है ?बेटा!ब्राह्मण कहते है ज्ञानी को | प्रत्येक जीवन-यात्री को, प्रत्येक देव कन्या को ज्ञान देकर, अमृत तुल्य बना देने में सहायता करने वाले को ब्राह्मण कहते हैं| उसी को बेटा! यहाँ  ब्राह्मण उपाधि की जाती हैं।
बेटा! देखो, ब्राह्मण तो सूर्य को भी कहते हैं, ब्राह्मण नाम परमात्मा का भी है,देखो, सूर्य को ब्राह्मण क्यों कहते हैं? सूर्य प्रातःकाल आते हैं, तीनों लोकों को तपायमान कर देते हैं |ये तीनों लोक उसके महान प्रताप से, तेज से प्रकाशमान हो उठते हैं|देखो,बेटा! इसी प्रकार ब्राह्मण उसी को कहते हैं, जो प्रकाश देने वाला हो|बेटा! प्रकाश भी कई प्रकार के हाते हैं| एक ‘अनुमनत’ प्रकाश होता हैं| जो परमात्मा की महामाया से पृथक होता है| प्राकृतिक ज्ञान मधुमान होता हैं, बेटा! यह ज्ञान वेदों के व्याख्यानों से प्राप्त होता है |
आत्मा का प्रकाश भी परमात्मा का दिया हुआ है|देखो, परमात्मा हमारी आत्मा में बैठा हमें प्रकाशित कर रहा है| उसी को बेटा! ब्राह्मणों का ब्राह्मण कहा जाता हैं|अहा, ब्राह्मण उसी को कहते हैं, जो प्रकाशमान होता हैं।
बेटा! जैसे हमारे शरीरों में मल, विक्षेप तथा आवरण है| इन तीनों को अपनी विद्या से समाप्त करने वाले को ही हमारे आचार्यों ने ब्राह्मण माना हैं| जो राष्ट्र को ऊँचा बनाने वाला हो, एक साधारण व्यक्ति का भी उत्थान करने वाला हो और जो वेदों के ज्ञान का भण्डार हो, उसी को ब्राह्मण रूप से पुकारा जाता है| मुनिवरों! इसका वर्णन तो हम अपने पूर्व के व्याख्यानों में कर चुके हैं।आज तो इस विषय पर संक्षेप में व्याख्यान कर चुके है कल तुमने ऐसा प्रश्न भी किया था |
बेटा! अभी-अभी हम उच्चारण कर रहे थे, कि ‘ब्राह्मण वर्चति’इत्यादि |देखो, जो ब्राह्मण सब गुणों वाला बन जाता है, उसी को तेजस्वी ब्राह्मण कहा जाता हैं|
एक समय नारद मुनि ने दार्शनिकों का समाज में कहा था कि यदि ब्राह्मण को परायश मान लिया जाएं तो क्या हानि हैं, तब आदि ऋषियों में से अंगिरा ऋषि ने कहा था कि अरे, देवर्षि नारद!हम यह नही मान सकते| यदि हम ब्राह्मण को “परायश” मान लेवें, तो उसमें नाना प्रकार की हानि हो जाएगी, राष्ट्र अन्धकार में चला जाएगा, ऐसा मानने से हम परमात्मा के बनाए हुए नियमों को व्यर्थ करने का दुस्साहस और पाप करेंगे| समाज तुच्छ बन जाएगा, राष्ट्र की समस्त प्रजा और यह संसार तुच्छता को प्राप्त कर,अधोगति को पंहुच जाएगा
हे नारद! हमें तो उस व्यवस्था को पाना है, कि जिसमें हम हर प्रकार से योगी बनकर, महान बन कर अपने ब्राह्मणों को महान ज्ञान देते चलें। जिससे तुच्छता का प्रसार न हो सके| तुच्छता के प्रसार से तो यह संसार अधोगति को प्राप्त हो जाएगा।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! आज आपका कुछ विश्वास परमन्तु रूपायनं अस्तु हास्य
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! हो जाता है कोई ऐसी बात नही, क्योंकि नित्य भूमि अमृति विषयं और दूषण के काल में शब्द विभु बन जाता हैं|
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी आप ऐसा न कीजिए,इससे महत्व समाप्त हो जाएगा।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “चलो, बेटा! कोई बात नही।“
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा, कृपा कीजिए।“
प्रवचनों में पुनरुक्ति
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! अभी-अभी महानन्द जी अपने  प्रश्न के समय में कह रहे थे, कि हम किसी-काल में किसी वार्ता  को द्वितीय बार उच्चारण कर देते हैं, इसका मुख्य कारण यह है, कि हम आपत्तिकाल में है। इसीलिए बिना इच्छा के भी यह हो ही जाता हैं, आपत्तिकाल वश इस पर नियन्त्रण नही हो पाता, अन्यथा हमारे द्वारा किसी वार्त्ता के बार-बार प्रकाश होने का कोई कारण नही
देखो, हमने पूर्व काल में बहुत-सी निधियों को पाया, वह आज सूक्ष्म होती जा रही है, उन निधियों से अब हमारा कोई प्रयोजन सिद्ध नही हो पा रहा हैं, अब तो केवल वह महान शब्द रूप में, अन्तरिक्ष में विराजमान है, अन्तरिक्ष को वह शब्द शुद्ध बना रहा हैं|
अहा,देखो, आज हमारे वेद-पाठ में कई स्थानों पर तेजस्वी ब्राह्मण का वर्णन आ रहा था,वह तेजस्वी ब्राह्मण सबका कल्याण करने वाला होता है, प्रजा को उच्च बनाने वाला होता है, प्रजा में किसी प्रकार के  अज्ञान को छाने नही देता, जिस काल में ऐसे ब्राह्मणों की संख्या अधिक  होती है, उस काल में अज्ञान आता ही नही, मुनिवरों! देखो, ऐसे महान ब्राह्मण जो राजाओं को समय पर चेतावनी देने वाले हो, अजयमेघ यज्ञ को कराने वाले हों
अजयमेघ यज्ञ वा अजामेध यज्ञ
बेटा! अजयमेघ यज्ञ किसको कहते हैं? अजय शब्द के माता, पृथ्वी, यज्ञ, राष्ट्र और प्रजा अर्थ होते हैं। मेघ शब्द के यज्ञ और राजा अर्थ होते हैं|अजाएसएचबीडी के बकरी तथा वेदी अर्थ होते है , ब्राह्मणजन वेदी को सजाया करते हैं ,यज्ञ को पूर्ण समारोह के साथ करते हैं।
राजा अपनी धर्मपत्नी के साथ राष्ट्र का उत्थान करने में सदा लगा रहे, राष्ट्र के उत्थान के लिए राजा अपनी धर्मपत्नी के साथ अजयमेघ करता रहे, यह उसका परम कर्तव्य हैं।
अजा नाम पृथ्वी का है जिस काल में वैज्ञानिकजन एकान्त स्थान में विराजमान होकर, पृथ्वी के तत्त्वों को विचारते हैं, नाना प्रकार के अनुसन्धान करके, उस भौतिक विज्ञान को पाते हैं| तब मुनिवरों!  उसको अजा मेघ यज्ञ कहते हैं।
मुनिवरों! देखो, “गौमेध यज्ञ भी होता हैं| गौ नाम से पृथ्वी और इन्द्रियां दोनों को लिया जाता है| इन्द्रियों के द्वारा विषयों का तथा पदार्थों के गुणों का ज्ञान होता है| पृथ्वी का मुख्य गुण गन्ध है, आज गन्ध को जानना है, गन्ध कहाँ से आती हैं, किस स्थान से प्रकट होती है और कौन-कौन से तत्त्वों  से मिलकर बनती है,मुनिवरों!  इसका जानना ही, गौमेध यज्ञ कहलाता  हैं
आज हमारे वेद-पाठ में अजय मेघ यज्ञ का वर्णन आ रहा था,आज हमें अजय मेघ यज्ञ करने का संकेत मिला|अजय के नाना अर्थ हैं|  इसीलिए आज हमें विचार कर निश्चय करना चाहिए, कि प्रसंग के अनुसार जिस शब्द के, जिस अर्थ की आवश्यकता हो, उसी का ग्रहण आवश्यक है| उसी का प्रयोग अनिवार्य है| अन्य अर्थ का नही, उसी से मानव का विकास होगा| उसी से मानव  का आत्मा उच्च बनेगा, अन्यथा नही।
   बेटा! अभी-अभी प्रसंग चल रहा था, कि राजाओं का क्या उद्देश्य है? राजाओं को कैसा यज्ञ करना चाहिए?अर्थात उनको अजयमेघ यज्ञ अथवा अजामेघ यज्ञ करना चाहिए| तो  देखो, बेटा! अजा नाम प्रजा का है, मेघ नाम राजा का है, दोनों का सम्बन्ध करके यज्ञ किया जाएं| उसी यज्ञ को यहाँ अजामेघ यज्ञ कहा जाता है| बेटा!देखो, जैसे महाराजा राम ने, त्रेता के काल में किया था, राजा रावण ने उस यज्ञ का ब्रह्मा बन करके, यज्ञ को पूर्ण किया।
बेटा!देखो, मेध नाम आत्मा का भी है, अजा नाम इसकी प्रजा का है| आत्मा का सम्बन्धी, आत्मा का परिवार है|बेटा! देखो, अन्तःकरण चित, बुद्धि, और अहंकार यह सब आत्मा के ही परिवार हैं| ये ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेन्द्रियां भी आत्मा के ही परिवार है|  इस महान परिवार को कौन चलाने वाला है? जब आत्मा को और उसके परिवार को  भली प्रकार से जान जाते हैं,तब हम स्वतः ही उस महान राजा को जान लेते हैं, उस मेघ को जान लेते हैं| तब हम आत्म तत्त्व के जानकार बन जाते हैं| इसी प्रकार जो राजा अजामेघ यज्ञ  करने वाले  होते हैं, वे  प्रजा के भावों को जान लेते हैं| साथ में राष्ट्र के ब्राह्मणों की परीक्षा हो जाती हैं, कि मेरे राष्ट्र में कैसे-कैसे बुद्धिमान ब्राह्मण हैं|
सतयुग की यज्ञ-वार्ता
मुनिवरों! इस समय सतोयुग के काल की एक वार्त्ता हमारे कण्ठ आ गई हम उसका उच्चारण करेंगें। उसके पश्चात हमारी यह वार्त्ता समाप्त हो जाएगी
मुनिवरों!इस समय सतयुग के काल की एक वार्ता हमारे कंठ आ गई हम उसका उच्चारण करेंगे उसके पश्चात हमारी वार्ता समाप्त हो जाएगी
मुनिवरों! सतयुग में अटुल मुनि महाराज महीयस राजा के महान  पुरोहित थे| एक समय राजा अपने राज- स्थान में विराजमान थे| न्यायालय में प्रजा का न्याय कर रहे थे|बेटा! उस समय उनके हृदय में विचार आया, कि हमें अजय मेघ यज्ञ करना चाहिए|
अजामेघ यज्ञ किसके लिए करना चाहिए, प्रजा के लिय करना चाहिए| जिससे हमारी प्रजा महान बनें,  जिसमें हमारी प्रजा में, सदाचार हो| प्रजा के ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि हो| हमारे राष्ट्र में वेदों का प्रसार हो, प्रत्येक गृह में यज्ञ  हों,यज्ञन से हमारे राष्ट्र का वातावरण सुगन्धिदायक हो, यज्ञन से राष्ट्र सुगन्धिदायक बनेगा।
बेटा! राजा के मन में इस विचार के आने के पश्चात, राजा ने अपने मन में संकल्प-विकल्पों द्वारा बड़ा अनुसन्धान किया इस विचार को लेकर राजा अपने गुरु पुरोहित के समक्ष आ पंहुचे| अटुल मुनि महाराज ने राजा का बड़ा स्वागत करके कहा “प्रिय, आनन्द हो|”
राजा ने उत्तर में कहा- “विशेष आनन्द हैं”
अच्छा धन्यवाद, कैसे आगमन हुआ?
उन्होंने कहा भगवन! हम इसीलिए आए हैं, कि इस काल में हमारी एक अजयमेघ यज्ञ करने की इच्छा हैं जिससे हमारी प्रजा श्रेष्ठ बने, हमारी प्रजा में महत्ता आए|
अजयमेध वा अजा मेध यज्ञ का अधिकारी
मुनिवरों! राजा की इन वार्त्ताओं को सुनकर अटुल मुनि महाराज ने बहुत प्रसन्न होकर कहा, कि तुम्हारी इस वार्त्ता को सुनकर तथा आपकी निष्ठा एवं योग्यता को देखकर हमें निश्चय हो गया कि तुम “अजामेघ यज्ञ” करने में अवश्य सफल हो जाओगे| परन्तु वेद विद्या कहती है और परम्परा भी यही बतलाती हैं कि “अजय- मेघ यज्ञ करने का उसी राजा को अधिकार है, कि जिसकी प्रजा में एक दूसरे को कोई ऋणी न हो, हमको पता नही है, कि तुम्हारी प्रजा में क्या सभी ऋण मुक्त हैं| पहले आप इसका अनुसन्धान कीजिए।
अच्छा!देखो,मुनिवारों!इन वाक्यों को पा करके राजा अपने कर्तव्य पर विचारणे लगे |
बेटा! राजा ने गुरुदेव के आज्ञा पा करके कहा कि मैं राज्य मे भ्रमण करके देखूंगा कि मेरी प्रजा में एक दूसरे का ऋणी तो नही हैं| बेटा! राजा वहाँ से चलकर अपने राष्ट्र में पंहुचे| विचार करते –करते प्रजा में भ्रमण करके देखा , कि प्रत्येक गृह में नित्य प्रातःकाल यज्ञ हो रहे थे |राष्ट्र में एक दूसरे का कोई ऋणी नही था |प्रजा सब प्रकार कुशल से है | प्रजा में बड़ा आनन्द छा रहा हैं,मुनिवरों! देखो, पिता की सेवा करने वाले पुत्र है। उनको योग्य बनाने के लिए माता पिता भी कुशल है| राजा ने देखो, कि उसके द्वारा बनाएं गएं नियम राष्ट्र में बड़े आनन्द से चल रहे हैं देखो, क्षत्रिय लोग आक्रामकराष्ट्रों पर उत्तर में प्रहार करके राष्ट्र की रक्षा कर रहे हैं|
राजा अपने राष्ट्र की ऐसी स्थिति और कुशलता को देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ चलकर राजपुरोहित, गुरु के समक्ष जा पंहुचे |गुरु से कहा कि भगवन! मेरे राज्य में तो बहुत कुशल हैं| मेरे राष्ट्र में कोई किसी का ऋणी नही हैं| मेरा राष्ट्र सब प्रकार से महान हैं|
यज्ञ में पत्नी की अनुमति
उस समय राजा की इन वार्त्ताओं का पाकर ऋषिवर, बड़े प्रसन्न होकर बोले कि भाई! अजयमेघ यज्ञ करो| परन्तु यज्ञ करने से पूर्व तुम अपनी धर्मपत्नी से अनुमति ले कर आओ, वह तुम्हें अनुमति दे, तो अवश्य या करो अन्यथा तुम्हें कोई अधिकार नही हैं
उस समय बेटा! राजा वहाँ से चलकर राजगृह में जा पंहुचे| राजा के पंहुचते ही पत्नी ने चरणों को स्पर्श किया| नमस्कार करके, राजा का बड़ा स्वागत किया |आसन पर विराजमान हो करके, धर्म-पत्नी ने कहा-कहिए भगवन! आपका मन कैसे भ्रमित हो रहा है? इसका क्या कारण है| आज हमको प्रतीत हो रहा है कि आपको किसी प्रकार का शोक हैं या किसी प्रकार की विशेष अशान्ति हैं
उस समय राजा ने कहा कि हे धर्म-पत्नी! मेरे मन में कोई शोक नही हैं| मेरा मन इसीलिए भ्रमित  है कि मैं अजयमेघ यज्ञ करने जा रहा हूँ| राजगुरु पुरोहित ने कहा है कि तुम अपनी धर्मपत्नी से अनुमति ले कर यज्ञ करो तो तुम्हारी क्या इच्छा हैं?
अहा,उस समय बेटा!  वह धर्मपत्नी बड़ी मग्न हो गई|देखो,बेटा! उसके हृदय के कपाट खुल गएं|बेटा! हृदय में ज्योति जागने लगी| धर्मपत्नी ने कहा भगवन! अच्छा,मेरे ऐसे भाग्य कहाँ है कि भगवन! आप यज्ञमान बनकर  अजय-मेघ यज्ञ रचावें, देवताओं को हम कुछ देवें| जिससे हमारे राष्ट्र का उत्थान होवें| यह तो भगवन! बहुत सुन्दर विचार हैं|
मुनिवरों! देखो, धर्मपत्नी से अनुमति लेकर राजा ने वहाँ से चलकर ऋषिवर के समक्ष जाकर कहा भगवन! मेरी धर्मपत्नी बड़ी प्रसन्न है| उसका वाक्य है कि हमारे ऐसे सौभाग्य कहाँ? उसका हृदय मुग्ध होने लगा| ऐसा प्रतीत होने लगा, कि उसके हृदय में धर्म की अग्नि प्रज्जवलित हो रही हो|
सुंदर यज्ञ-वेदी
बेटा! उस समय ऋषिवर ने इन वाक्यों को पाकर के  नाना ब्राह्मणों  को निमन्त्रण देकर, वहाँ एक विशाल यज्ञ रचाया| वहाँ बड़ी सुन्दर यज्ञशाला रचाई गई| यज्ञशाला के रचने से मानो,वहाँ अक्षय आनन्द छा गया| नाना प्रकार की चित्रकारियों से वह यज्ञशाला रचाई गई| सब देवताओं के स्थान बनाए गए।अहा, वेदी वही होती हैं, जिसे बेटा! ब्राह्मण बुद्धिमता के  साथ वेद के अनुकूल रचाता हैं|अहा, उस समय बेटा! महर्षि जी से राजा ने प्रश्न किया, कि भगवन! यह यज्ञशाला क्यों रचाई जाती हैं? इसका क्या कारण है कि इतनी चित्रकारी की जाती हैं? बेटा! तब ऋषि ने उत्तर दिया कि देखो, जैसे परमात्मा ने इस संसार रूपी यज्ञ को उत्पन्न किया है| उसको इतनी चित्रकारियों से सजाया है ऐसे ही देखो,हम छोटे से वैज्ञानिक है| परमात्मा के बालक हैं| परमात्मा जैसे यज्ञ तो नही रचा सकते|  उसके बालक जैसा यज्ञ रचा सकते हैं| हम तो उनका सूक्ष्क-सा रूप ले रहे हैं कि जो चित्रकारियों से इस यज्ञशाला को रचाया है| मुनिवरों! देखो, ऋषिवर ने जब यह उत्तर दिया तो राजा बड़ा मग्न हो गए | मग्न होकर कहा -धन्यवाद|बेटा!उसके बाद वहाँ से नाना प्रकार की सामग्री एकत्रित हो गई| सब साकल्य एकत्रित हो गया| प्रजा को निमन्त्रण दिया गया| मुनिवरों! देखो,यज्ञमान, यज्ञमान की धर्म-पत्नी यज्ञशाला में विराजमान हो गएं| देखो,वहाँ शुनि मुनि महाराज, पापड़ी, मुनि महाराज दोनों उस यज्ञ के उद्गाता बने| अटुल मुनि महाराज, उस यज्ञ के अध्वर्यु बने,तत्त्वमुनि महाराज उस यज्ञ के ब्रह्मा बनें |इसके अनन्तर यज्ञ आरम्भ हो गया| बेटा! ब्रह्मा के ऊपर यज्ञ का भार होता है, ब्रह्मा ने विधिपूर्वक यज्ञोपवीत धारण करा कर, समुद्र की क्रिया आरम्भ की| जब वहाँ समुद्र की क्रिया हो रही थी, उस समय पापड़ी ऋषि महाराज आ पंहुचे।
अधिकारी से यज्ञ
बेटा! उस काल में वह शोलक ऋषि आदि ऋषियों का एक दार्शनिक समाज विराजमान था| दार्शनिक समाज में पापड़ी ऋषि को नियुक्त किया गया, कि जाओ, परीक्षा करो, कि वह कैसे बुद्धिमान है? राजा अजयमेघ यज्ञ के अधिकारी है या नही, यदि नही है तो यज्ञ में कहना चाहिए, कि तुम अजयमेघ यज्ञ के अधिकारी नही हो| तो मुनिवरों!उस समय बेटा!महर्षि पापड़ी मुनि महाराज उस दार्शनिक समाज से वहाँ जा पंहुचे|
यज्ञ में कर्मकांड का महत्त्व
जिस समय तत्त्व मुनि जी, उस यज्ञ के ब्रह्मा, जल सिंचन करा रहे थे, उस समय पापड़ी ऋषि ने प्रश्न किया कि महाराज! यह जल सिंचन क्यों हो रहा हैं?यह क्या क्रिया हैं? और क्या पदार्थ हैं जो इस प्रकार किया जा रहा है?
अहा,बेटा!उस समय ऋषिवर ने उत्तर देते हुए कहा कि यह महान समुद्र हैं, जैसे परमात्मा ने इस महान संसार को उत्पन्न किया है उसके मध्य में पृथ्वी बनी हुई हैं, ऐसे ही यह वेदी नाम की पृथ्वी है|देखो वेदी नाम पृथ्वी का है इसके आस पास ही यह समुद्र बना हुआ है, उस परमात्मा द्वारा उत्पन्न आकर्षण शक्ति उसकी महान विद्युत के आधार पर यह पृथ्वी स्थित हैं|
इसलिए आज देखो, हम यज्ञमान देवताओं का साकल्य बनाने के लिए,उन समुद्रों के विश्लेषणात्मक दृष्टि से उनके स्वरूप को समझकर, उसके गुणों से लाभ उठाते हुए, वेद के अनुकूल इस वेदी का कर्मकाण्ड कर रहे हैं| मुनिवरों! तब ऋषि जी बड़े आनन्द के साथ विराजमान हो गएं| यज्ञ आरम्भ होने लगा| महर्षि पापड़ी ने सोचा कि ब्रह्मा तो वास्तव में योग्य हैं| तब उन्होंने ब्रह्मा से प्रश्न किया,कि भगवन! यज्ञ क्यों रचाया गया हैं? आपका क्या कर्तव्य हैं ?
यज्ञ में ब्रह्मा का कर्तव्य
उस समय ब्रह्मा ने कहा कि मेरा कर्तव्य है, कि मैं यह देखूँ कि यज्ञ कोई उद्गाता वेदमन्त्र तो अशुद्ध उच्चारण न कर देवे,यदि यज्ञशाला में वेदमन्त्र अशुद्ध उच्चारण हो गया, तो बड़ा पाप होगा|वह पाप क्या हो जाएगा? क्योंकि जिस वेदवाणी के द्वारा, हम जिन देवताओं का आह्वान करके उनका स्वागत कर रहे हैं यदि वही वेदवाणी अशुद्ध होगी, तो देवता हमारे समक्ष क्यों आयेंगें? जैसे लोक में, जब बुद्धिमान व्यक्ति हमारे समक्ष आते हैं,और हम बुद्धिपूर्वक उनका स्वागत नही करते हैं, हम मूढ़ बुद्धि से स्वागत करते हैं, तो वे बुद्धिमान हमारे समक्ष आना त्याग देते हैं, ऐसे ही वेद मन्त्रों के यज्ञवेदी पर अशुद्ध उच्चारण से देवता हमारी उपेक्षा कर देंगें|और तब यह सब कर्म काण्ड निष्फल हो जाएगा। इसी प्रकार मुनिवरों! वेद मन्त्रों के यज्ञ वेदी पर अशुद्ध उच्चारण का अभिप्रायः है|
जिन देवताओं को साकल्य देना हैं, हम उन्ही देवताओं का शुद्ध मन्त्र पाठ के द्वारा आह्वान कर रहे हैं, उन्हीं की याचना कर रहे हैं, यदि मन्त्रोंच्चारण अशुद्ध हुआ तो देवता, हव्य पदार्थों को कभी भी स्वीकार नही करेंगें| परिणाम यह होगा, कि वे हमारे संसार का कदापि कल्याण नही करेंगें।
मुनिवरों! महर्षि पापड़ी जी इन वार्त्ताओं को पाकर बड़े मग्न हो गएं, उन्होंने आनन्द में मग्न होकर कहा कि अहो भाग्य है, कि जहाँ ऐसे ब्रह्मा हों, तथा जहाँ इतनी विद्वता के साथ वेदों के मन्त्रों का पाठ या उच्चारण शुद्ध होता है|
यज्ञ में उद्गताओं का कर्तव्य
मुनिवरों! इसके पश्चात पापड़ी ऋषि उद्गाताओं के समीप पंहुच कर बोलेहे उद्गाताओं! तुम जो वेदों का पाठ कर रहे हो, इसका क्या अभिप्राय है? यह क्यों कर रहे हों?
उद्गाताओं ने उत्तर दिया कि भगवन! यह हमारा कर्तव्य है कि वेदों के मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण पूर्वक पाठ करके वेदों की विद्याओं का प्रसार करें, हमारी आत्मा का उत्थान हो और हम देवताओं में रमण करें| वेद मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण के साथ यज्ञन करते हुए, साकल्य तथा हव्य पदार्थों को देवताओं के समक्ष प्रस्तुत करके देवताओं से प्रार्थना कर रहे हैं, किहे देवताओं!आईए, हमारे साकल्य को,इन हव्य पदार्थों को ग्रहण करो, भगवन! हमारे लिए प्रत्येक प्रकार से कल्याणकारी बनो।
मुनिवरों! देखो, तब ऋषिवर ने सोचा कि भाई! यह भी बड़ी बुद्धिमत्ता का कार्य है
यज्ञ में अध्वर्यु का कर्तव्य
इसके पश्चात पापड़ी ऋषि महाराज अध्वर्यु के समक्ष पंहुचकर बोले कि हे भगवन! नाना प्रकार की सामग्री एकत्रित करके यज्ञन करते हुए देवताओं का साकल्य दे रहे हैं, वह क्यों दे रहे हो? इसका क्या अभिप्रायः है
यज्ञ में सामाग्री की शुद्धता का महत्व
उन्होंने उत्तर दिया कि यह मेरा कर्तव्य है, कि मैं शुद्ध रूप से देवताओं को शुद्ध सामग्री दूँ, जिससे कि देवताओं का आहार शुद्ध हो, यदि देवताओं का आहार शुद्ध होगा, तो हमें देवताओं से श्रेष्ठ प्राण सत्ता मिलेगी।
मुनिवरों!देखो,आज हमें वह महत्ता प्राप्त करनी चाहिए, जिससे हमारा जीवन, राष्ट्र का जीवन, संसार के मानव का जीवन, उच्च बने और विद्या का प्रसार हो|वेदों के अनुकूल बनी सामग्री की आहुतियां देने से देवता उसको स्वीकार करते हैं |
यज्ञ में भावना युक्त आहुतियों का प्रभाव
मुनिवरों! इन वार्त्ताओं को पाकर ऋषिवर यज्ञमान के समक्ष जा पंहुचे, और बोले कि हे यज्ञमान! तुम तो आहुतियां दे रहे हो, इनका क्या अभिप्रायः हैं?
बेटा ! राजा ने कैसा उत्तर दिया?राजा ने कहा- हे ऋषिवर! हम आहुति देने के साथ-साथ प्रार्थना कर रहे हैं, कि हे प्रभु! आपने हमारे राष्ट्र को तथा इस हमारे संसार को उत्पन्न किया हैं, हे विधाता! हे देवताओं! हमारे राष्ट्र में शुद्ध ज्ञान प्रकाश हो, सदभावनाओं वाले व्यक्ति हो, जिससे हमारे राष्ट्र में घृत्त-दाता पशुओं की हानि न हो| हे भगवन! यदि हमारे राष्ट्र में गोओं की हानि हो जाएगी, तो मेरा राष्ट्र आज नही तो कल, अवश्य नष्ट हो जाएगा| हे विधाता! हे देवताओं! मैं यह सदभावना पूर्वक आहुति दे रहा हूँ, कि हमारे राष्ट्र में पशुओं की वृद्धि हो, तथा मेरा राष्ट्र प्रत्येक प्रकार से विशाल हो।
यज्ञमान-पत्नी का कर्तव्य
मुनिवरों! यज्ञमान से इस प्रकार वार्त्ता सुनकर ऋषिवर यज्ञमान धर्मपत्नी के समक्ष पंहुच कर, कहा कि हे धर्मदेवी! तुम्हारी आहुति देने का क्या मन्तव्य हैं? उस समय धर्मदेवी ने कहा कि ऋषिवर! आप तो बड़े बुद्धिमान हैं, आप ऐसे वाक्य क्यों उच्चारण कर रहे हैं? तो कि आपके योग्य नही है, तब ऋषिवर ने कहा कि आप भी अपना कुछ विचार तो उच्चारण कीजिए| उस समय धर्म देवी ने कहा कि हे विधाता! मैं मन के इस संकल्प के साथ आहुति देती हुई, याचना कर रही हूँ, कि हे देव! हे परमात्मन! हम शुभ कार्य करते रहें,और मेरे स्वामी के राष्ट्र में शुभ कार्य होते रहें, अशुभ कार्य न हों| मेरे स्वामी के राष्ट्र में, कोई मानव, कोई देवकन्या दुराचारी न हो| हे भगवन! हे ऋषिवर! जिसके राष्ट्र में देवकन्याएं व पुरूष दुराचारी हो जाते हैं, उस राजा का राज्य आज नही तो कल, अवश्य समाप्त हो जाएगा| हे भगवन! मेरी यह प्रार्थना है, कि प्रत्येक देव कन्या,प्रत्येक मानव उच्च विचार वाला, महान सदाचारी हो, जिससे मेरे स्वामी का राष्ट्र, एक विशाल राष्ट्र बनें और ऐसे धर्म के कार्य, प्रत्येक स्थानों में होते रहे,जिससे राष्ट्र में बुद्धिमानों का प्रसार हो, बिना वेद के प्रचार के, राष्ट्र के मानवों में कभी सात्विक बुद्धि नही आती हैं।
मुनिवरों! जब ऋषिवर ने इन वाक्यों को पाया, तो ऋषि चकित हो गए, ऋषि जी ने कहा कि यह तो वास्तव में अजयमेघ यज्ञ करने के अधिकारी हैं|
ऋत्विजों का कर्तव्य
इसके पश्चात ऋषि आहुतियां देते हुए, ऋत्विजों के समक्ष पंहुचे| ऋषि ने ऋत्विजों से प्रार्थना की कि भगवन! आप लोग जो ये आहुतियां दे रहे हैं, इसका क्या अभिप्रायः है? उस समय ऋत्विजों के वाक्यों को पा करके ऋत्विजों ने कहा कि भगवन! हम याचना कर रहे हैं, कि हे विधाता!हमारे जो दुर्गुण एवं दुर्गन्धियां हैं, उनको समाप्त करके, हमारे में सुगन्धि प्रविष्ट करें,अहा जब हमारा जीवन सुगन्धिदायक बनेगा, तब हमारा जीवन महान बनेगा| हम राष्ट्र के तथा संसार के हितैषी बनेंगें, हे विधाता! हम हर प्रकार से हितैषी बनकर संसार को सुख पंहुचा कर, देवताओं के समक्ष पंहुचे।
मुनिवरों! ऋषिवर इन वाक्यों को पाकर शान्त हो गए
मुनिवरों! यह तो यथार्थ वाक्य है बेटा !आगे इसमे एक अलंकार स्मरण आ रहा है|
यज्ञ में  समिधा और सामग्री के महत्त्व का आलंकारिक वर्णन
मुनिवरों!यह तो यथार्थ में यज्ञ का वर्णन था आगे  आलंकारिक वर्णन आता है
मुनिवरों! ऋषि जी महती समिधाओं के समक्ष  पहुंचे और समिधाओं से कहा कि  हे समिधाओं! यह क्या हो रहा है? तुम अग्नि में प्रविष्ट हो रही हो, और अग्नि तुम्हें नष्ट कर रही हैं| तुम अग्नि का आहार बन रही हो, इससे तुम्हारा क्या मन्तव्य हैं?
बेटा! देखो, उस समय समिधाओं ने कहा कि हे विधाता! संसार में वही मानव सुख पाता है,जो किसी का बन जाता हैं| देखो, ऋषि जब भी बनता है, जब गुरु की शरण में चला जाता हैं| गुरु उसके दुर्गणों को नष्ट कर देते हैं, अग्नि विद्या को धारण करा देते हैं| तभी वह ऋषि बनता हैं| इसी प्रकार विधाता!हम अग्नि रूप गुरु के समक्ष जाकर, अपने पार्थिव परमाणुओं को समाप्त करके, अपने सूक्ष्म रूप को धारण करके, सूर्य मण्डल तक पंहुच कर देवताओं की शरण में चली जाती हैं|देखो, महान आदित्य हमको धारण करके, आहार करके,मुनिवरों! धीमी धीमी किरणों के द्वारा, समुद्रों में पंहुचा देते हैं| समुद्रों से मेघ के रूप को धारण करके वृष्टि द्वारा पृथ्वी पर आ जाती हैं ,देखो,पृथ्वी पर स्थावर सृष्टि के रूप में उत्पन्न होकर हम संसार का कल्याण करती हैं।
मुनिवरों!देखो, ऋषि ने उनके युक्ति युक्त उत्तर से सन्तुष्ट होकर सामग्री के समक्ष पंहुचे, उन्होंने सामग्री से प्रश्न किया,कि तुम यह क्या कर रही हो? तुम अग्नि के समक्ष जाकर, उसमें क्यों भस्म हो रही हो? इससे तुम्हारा क्या अभिप्रायः है, तुम्हें इसमें क्या लाभ प्रतीत होता हैं?
उस समय  उस महती सामग्री ने कहा था कि हे विधाता! नाना प्रकार की वस्तुओं को एकत्रित करके हमको बनाया गया हैं, इसके अनन्तर हमको अग्नि के अर्पण कर दिया जाता हैं,अग्नि हमको भस्म कर देती है| हमारा सूक्ष्म रूप बनकर अन्तरिक्ष में,आदित्य में पंहुच जाता है|जब हम आदित्य में रमण करती है, तब आदित्य हमें बल देता हैं,मुनिवरों!देखो, उस बल से किरणें उत्पन्न होती हैं, जो समुद्रों में जाती हैं समुद्रों से जल का उत्थान होता है, जल से मेध बन जाते है। मेघों से वृष्टि होती हैं, वृष्टि से पृथ्वी पर नाना प्रकार की समिधाएं तथा नाना प्रकार की सामग्रियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
संसार में उसी का जीवन ऊंच्च है  जो किसी का हो जाता हैं, जो किसी का नही होता, वह संसार में अधूरा बना बैठा रहता है देखो, जब तक ज्ञान रूपी अग्नि में आत्मा ने स्नान नही किया, अपने दोषों को भस्म नही किया, तब तक आत्मा परमात्मा के विमुख ही रहता हैं| भगवन! इसी प्रकार जब तक हम अपने रूप को अग्नि में भस्म न कर देंगें, तब तक हमारा यथार्थ रूप देवताओं के समक्ष नही आएगा तथाजब तक हम संसार का कोई उपकार न कर सकेंगे। यदि हम उपकार न कर सके, तो हमारा जीवन निष्फल है।
 तो मुनिवरों!  देखो ,यह है हमारा, आज का आदेश, जो हो रहा था|मुनिवरों! देखो, यह कैसा सुन्दर वाक्य आज हमारे वेद पाठ में आया, इस पर सतोयुग की कैसी सुन्दरवार्त्ता हमारे कण्ठ आ गई। आज हमारे आदेशों का अभिप्रायः क्या है?
योग्य ब्राह्मण कैसे हो
  १यथार्थ विद्या को खोजी हो ?२ सबकी परीक्षा करने वालें हों?३ राजाओं को उपयुक्त प्रकार की कल्याणमयी शिक्षा देने वाले हों?
बेटा! यह है आज का हमारा आदेश, अब हमारा आदेश समाप्त हो गया।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! आपने जैसा रूप ब्राह्मणों का वर्णन किया, वैसा आधुनिक समय में नही रहा हैं| जब हम अपने सूक्ष्म शरीर के द्वारा लाक्षागृह पर विचरण कर रहे थे तब  हमने सुना कि आधुनिक समय में तो ब्राह्मण जातिवाद बन गया हैं, गुण कर्मों के अनुकूल ब्राह्मणदि नही रहा हैं|”
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! समय मिलेगा, तो कल तुम्हें उच्चारण कर देंगें| वास्तव में तो इस विषय का व्याख्यान तो हमने पूर्व समय में उच्चारण कर दिया था।“
पूज्य महानन्द जीः “जो आपने इससे पूर्व उच्चारण कर दिया, तो क्या द्वितीय बार उच्चारण नही कर सकते।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “नही बेटा! इसमें हमारी कुछ हानि नही हैं”
पूज्य महानन्द जीः “तो कृपा कीजिए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा बेटा! कल देखा जाएगा।“
पूज्य महानन्द जीः “कल तो भगवन! आपका होता ही नही, क्योंकि कल जो आपने अपने आपत्तिकाल को कहा था,वही भी नही हुआ| जैसे रावण कल ही कल में मृत्यु को प्राप्त हो गया, वैसे ही हमें प्रतीत होता हैं कि कल ही कल में आप भी मृत्यु को प्राप्त को हो जाएंगें।
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य- “अच्छा, महानन्द जी! वह तो तुम आनन्द की वार्त्ता उच्चारण कर रहे हो”
पूज्य महानन्द जीः हास्य “गुरु जी!प्रतीत ही ऐसा हो रहा हैं, क्योंकि रावण भी कल ही कल में समाप्त हो गया था।“
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य तो “बेटा! जैसा कल समय आएगा, वैसा उच्चारण करेंगे| तुम तो आनन्द की वार्त्ता उच्चारण कर रहे हो”
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवन्! तो कल आएगा,तो आप उच्चारण कर ही देंगे, क्योंकि कल की वार्त्ता तो आपने पूर्ण कर दी, आज की कल ओर कर देंगें।“
पूज्यपाद गुरुदेवः हास्य “अरे, तो भाई! कल आएगा तभी तो।“
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवन्!”
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! अभी-अभी महानन्द जी कुछ आनंदित वार्त्ता उच्चारण कर रहे थे,किसी-किसी स्थान में, हम उनकी वार्त्ताओं से बड़े प्रसन्न हो जाते हैं| अच्छा भगवन्! बेटा! कल तुम्हें वर्ण व्यवस्था पर उच्चारण कर देंगें।“
पूज्य महानन्द जीः “यह तो भगवन! आपकी इच्छा है”
पूज्यपाद गुरुदेवः “हां, बेटा! कल समय मिलेगा, तो अवश्य उच्चारण कर देंगें”
पूज्य महानन्द जीः “अच्छा भगवन्!इसमें हमारा कोई विरोध नही हैं”
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा तो बेटा! अवश्य निर्णय कल करेंगे”
पूज्य महानन्द जीः “भगवन! क्योंकि हम आधुनिक काल में भी पाते रहते हैं, कि वर्ण व्यवस्था व्यक्तिगत मानी गई है या कुछ रूपरेखा भिन्न होती है| आपका जो  पूर्व काल था, उसमें कैसी वर्ण व्यवस्था थी? आधुनिक काल की वार्त्ता तो हमने उच्चारण कर दी, कि अब कैसे ब्राह्मण माने गए हैं?”
पूज्यपाद गुरुदेवः “अच्छा कल का कल देखा जाएगा, कल ही उच्चारण कर देंगे, अब तो समय समाप्त हो गया हैं| तो मुनिवरों! कल महानन्द जी के प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करेंगे, अब हमारा वेद पाठ होगा इसके पश्चात हमारी वार्त्ता समाप्त हो जाएगी।

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