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०२ ०४ १९६२ प्रलयकाल में सृष्टि और परमात्मा का स्वरूप
जीते रहो,
देखो, मुनिवरों! अभी अभी
हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ। हम तुम्हारे समक्ष उन वेद मन्त्रों का पाठ कर रहे थे, जिनका पाठ, हमारे महर्षि अंगिरा मुनि आचार्य ने सात
स्वरों में किया था। हम पूर्व की भांति, वेदों का पाठ अच्छी
प्रकार से नहीं कर सकते। परन्तु हमारे गुरु ब्रह्मा जी ने बहुत पूर्व काल में कहा
था, वेद पाठ न करने से कुछ करना भी सुन्दर होता है। इसलिए आज
उसी आज्ञा के आधार पर वेदों का गान गा रहे थे। महान प्रभु हमारी वाणियों की भी
वाणी है। हमारी वाणी में माधुर्य उसी का दिया हुआ है। वह महान प्रभु इस संसार को
चला रहा है। हमारे जीवन की नाना योजनाएं बना रहा है। आज के मन्त्रों में उस प्रभु
की महत्ता का वर्णन किया गया है। आज के वेद मन्त्रों में जो प्रभु का गुणगान किया
गया है, हम तो उसका भी पूर्ण रूप से व्याख्यान करने में
असमर्थ हैं, हम जो कुछ व्याख्यान करते हैं, उसकी रूपरेखा परमात्मा के दिए उपदेश, वेद मन्त्रों,
से ही लेकर कुछ व्याख्यान कर पाते हैं।
क्या प्रभु से जीव की
याचना करना उचित है
महानन्द जी के संकेतों पर आज हम पूर्व
मंन्त्रों में उस विधाता से, जिसने इस संसार को हमारे लिए
उत्पन्न किया है, और इन सबको चला रहा है, अपने गायन में याचना कर रहे थे, इच्छा कर रहे थे।
ऐसा
कहा जाता है कि मांगना तो कायरों का कार्य है, परन्तु जिस
विधाता ने इस संसार को हम सबके लिए उत्पन्न किया है, आज हमें
उससे मांगने में, किसी की अभिलाषा करने में या इच्छा करने
में हमारी कोई किसी प्रकार की हानि नहीं होगी।
याचना करने से हानि किस काल में होती है?
हानि उस काल में होती है, जब मानव अपने को
भुलाकर अपनेपन को नष्ट कर देता है। अर्थात् भोग विलास में मग्न होकर अर्थात् भोग
विलास की सामग्री की ही, भोग विलास के लिए याचना करता है|
तब याचना में हानि ही हानि उठानी पड़ती है। और जब मानव मानव के रक्त्
का अभिलाषी होकर, परमात्मा से याचना करता है तब उसकी हानि ही
हानि होती है। परन्तु जो विधाता हमें सब प्रकार का महत्व देने वाला है, प्रेरणा देने वाला है, जो वाणियों का भी वाणी बना
बैठा है, जो हमारी आत्मा के समक्ष बैठा है, आज हम उस प्रभु से माँगे तो उसमें हमारा कोई दोष नहीं, क्योंकि वह विधाता तो इतना बड़ा दानी है, यदि हम न
भी मांगेंगे तब भी वह विधाता हमारे कल्याण के लिए सभी पदार्थ प्रदान कर रहा है।
वह
विधाता कितना बड़ा दानी है? उसी विधाता के महत्व प्रदान करने
से ही, प्रत्येक मानव, प्रत्येक
देवकन्या संसार क्षेत्र में आकर अपना अपना कार्य किया करते है। प्रत्येक जीव उसी
के आश्रय में अपना जीवन चला रहा है।
प्रलयकाल में प्रभु
महानन्द जी का कल का एक प्रश्न हमारे समक्ष
है। अर्थात् जब प्रलयकाल आ जाता है तब संसार में समस्त पदार्थ परमाणु रूप में बदल
कर परमाणु अन्तरिक्ष में रमण करते हैं? आरम्भ सृष्टि में
अव्यक्त प्रकृति को दिया हुआ महत्तत्व परमात्मा में रमण कर जाता हैं, यह महान व सामान्य प्राण परमात्मा में रमण कर जाते है, तब वह विधाता किस स्थान में रहता है?और कहाँ रहता है
और प्रभु की उस काल में क्या गति हो जाती
है?
अब तो यह मान बैठे है कि परमात्मा लोक
लोकान्तरों को चला रहा है, वह सर्व व्यापक है, हमारे में भी रमण कर रहा है, वह सर्व संसार को चला
रहा है। पर जब प्रलयकाल आता है तब परमात्मा स्वयं कहाँ और किस स्थिति में होते है?
अब हमारे समक्ष यह दार्शनिक विषय आ जाता है।
अहा! आदि दार्शनिकों ने तो इसके सम्बन्ध में
बहुत ही कुछ कहा है। आज उन दार्शनिकों का विचार तुम्हारे समक्ष नियुक्त करेंगे
जैसा कि हमने पाया है और जैसा दार्शनिकों ने निर्णय दिया है।
त्रेताकाल में एक समय हमारे आदि दार्शनिक वशिष्ठ
मुनि महाराज, महाराज विश्वामित्र, आचार्य
धुन्ध महर्षि कपिल मुनि महाराजा, कुण्डल ऋषि महाराज, महर्षि गौतम, समीक मुनि महाराज, विभाण्डक मुनि महाराज, लोमश मुनि महाराज, अत्रि मुनि महाराज और अत्रि मुनि महाराज की धर्मपत्नी अनुग्रहा आदि
महर्षियों का समाज एक स्थान पर नियुक्त हो गया।
बेटा!उस दार्शनिक समाज की स्थिति का वर्णन
करते हुए हमारी वाणी थकित हो रही है। उस दार्शनिक समाज में अत्रि मुनि ने महाराज
आदि ऋषियों के समक्ष प्रश्न किया गया, कि भाई! प्रलयकाल में
परमात्मा की क्या गति होती है? क्या दशा होती थी? जब प्रकृति सूक्ष्म होकर परमात्मा में रमण कर जाती है तब परमात्मा की क्या
स्थिति होती है?
प्रलयकाल में
परमात्मा की गति
उस समय अत्रि मुनि महाराज, विभाण्डक मुनि, आचार्य लोमश मुनि महाराज, शमीक मुनि महाराज आदि महर्षियों ने कहा कि जब यह महान प्रकृति शून्य रूप
होकर, अव्यक्त रूप होकर, माता और पिता
रूप परमात्मा के गर्भ में रमण कर जाती है।तब व्यापक परमात्मा उसको गर्भ मे धरण
करके वह पूर्ववत ही रमणकरता रहता है|
मुनिवारों! जैसे माता अपने गर्भस्थल में पुत्र को धारण करती
है, वैसे ही वह माताओं की माता दुर्गा सारी प्रकृति और सारे
जीवों को अपनि गर्भ में धारण करके, प्रकृति को आश्रय दे करके,
विश्राम दे करके फिर से उसकी शिथिलता का, उसकी
निर्बलता का हरण करके, उसमें कार्य करने की शक्ति को स्थापित
कर देती है ।
मुनिवरों! देखो, प्रश्न
होता है, कि जब यह महान एवं विशाल प्रकृति परमात्मा के गर्भ
से चली जाती है, तब वह परमात्मा इस संसार को कैसे प्रकृति से
बनाता है?
मुनिवरों! जैसे मानव जीवन की अवधि है, ऐसे ही परमात्मा के बनाए ब्रह्माण्ड की अवधि है। जैसे माता के गर्भस्थल
की अवधि है, वैसे ही माता दुर्गा, वह
परमात्मा दुर्गा के गर्भ की अवधि है। परमात्मा के नियमों के अनुसार यह संसार बनता
है। उसी के नियमों के अनुसार यह महान प्रकृति और ये सारे जीव उस माता दुर्गा के
विशाल गर्भ में समा जाते है।
अहा मुनिवरों! हमारे दार्शनिक इसी निश्चय पर
पहुंचे है। यही उनका वाक्य है। मानव को इसको मानना अनिवार्य है, आवश्यक है।
मुनिवरों! परमात्मा के नियम के आधार पर यह
संसार बनता है, अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति होती है और माता
दुर्गा के नियमों के अनुसार यह आत्मा जैसे-जैसे कर्म कर्म करता है, जैसी-जैसी इच्छा करता है, वैसे-वैसे ही जन्म लेता
रहता है, अपने शुभ और अशुभ कर्मों का फल भोगता रहता है।
जीव द्वारा परमात्मा की उपासना क्यों ?
मुनिवरों! प्रश्न होता है, कि जब संसार परमात्मा के नियमों के अनुसार बनता बिगड़ता रहता ही है और जीव
अपने कर्मानुसार फल पाता ही रहता है, तो यह आत्मा परमात्मा
के अनुरोध अर्थात् उसकी स्तुति, प्रार्थना और उपासना करे या
न करे? करे तो क्यों करे?
माता के गर्भ में जीव
की स्थिति
मुनिवरों! जब माता के गर्भ में यह जीवात्मा मन के साथ निवास करता है, जैसा कि हम पूर्व
भी कह चुके है, उस समय यह आत्मा न तो व्याकुल होता है| बेटा! और न श्वास लेता है, न यह अपने मुखारविन्द से परमपिता परमात्मा की स्तुति आदि का उच्चारण कर
पाता है। न कुछ कार्य ही कर पाता है परन्तु तब भी यह आत्मा मन सहित परमात्मा से
सम्बन्ध करता है। परमात्मा से प्रार्थना में कहता है कि”हे प्रभु! मैं इस अन्धकार
से पृथक् होना चाहता हूँ, मुझको इस अन्धकार से पृथक करो।“
मुनिवरों! उस समय यह आत्मा अन्धकार में रहता
है। उस समय जीव को कर्म करने का अवसर प्राप्त नहीं होता है, कर्म
करने की सुविधाएं नहीं मिलती, उस समय शून्य प्रकृति में रहता
है। उस समय मुनिवरों! यह आत्मा प्रभु से याचना करता है।
“हे विधाता! इस अन्धकार में मुझको कर्म करने
का अवसर नहीं मिल रहा है। मुझे उस तेज को दो, प्रकाश को दो
जिससे संसार क्षेत्र में आ करके, मैं कर्म करने के लिए उद्यत
हो जाऊं। हे विधाता! मेरे लिए उस महानता को उत्पन्न करो, जिससे
मैं संसार क्षेत्र में आकर, उसे करने के लिए नियुक्त हो
जाऊं।“
तो मुनिवरों! माता के गर्भ में रहती हुई
आत्मा जैसे अन्धकार से पृथक् करने के लिए परमपिता से प्रार्थना करती है, वैसे ही प्रलयकाल के अन्धकार में मग्न आत्माएं ,परमपिता
परमात्मा से पुनः पुनः याचना करती हैं। उस समय परमात्मा नियम के अनुसार ही संसार
को उत्पन्न कर देते हैं।
मुनिवरों! यह तो अनिवार्य है कि आत्मा को
परमात्मा से अनुरोध अवश्य ही करना पड़ता है। परन्तु करता क्यों है? इसका संसार में आकर क्या कार्य है?
संसार में आत्मा के
आने का उद्देश्य
मुनिवरों! गर्भस्थ जीव परमात्मा से अपने
अनुरोध में कहता है कि प्रभु! मेरे जो कर्म शेष रह गए हैं उन शिष्ट कर्मों के द्वारा अपनी आत्मा को महान बनाने का यत्न
करूंगा और आपके आँगन में रमण करने के लिए आऊंगा अर्थात् मुक्ति लाभ करके आपके
परमानन्द का लाभ कर सकूंगा। हे मुनिवरों! इस संसार में आत्मा के आने का यही
एकमात्र उद्देश्य है। इसीलिए परमपिता परमात्मा जीव को संसार में उत्पन्न करते हैं।
मुनिवरों! परन्तु यह आत्मा संसार में जन्म लेकर
कामनाओं में, वासनाओं में और विषयों में ऐसा फंस जाता है, कि यह प्रकृति का दास बन जाता है। प्रकृति इसको आदेश देती है। यह प्रकृति
की ओर झुक जाता है। देखो, प्रकृति में रमण करके ऐसा भटक जाता
है, कि अपने वचनों को भुला बैठता है। अपने महत्व को भुला
बैठता है। अर्थात् सब कुछ नष्ट कर देता है।
मुनिवरों! हमारे महान दार्शनिकों ने कहा है
कि माता गर्भस्थल में जैसे बालक को धारण करती है वैसे ही परमात्मा प्रलयकाल में इन
असंख्य जीवों को और सारी प्रकृति को, अर्थात् इन दोनों को
अपने गर्भ में स्थापित करता है।
सृष्टि का उद्देश्य
मुनिवरों! देखो, वह
प्रभु इस संसार का आधार है। इस प्रकृति और आत्मा का आधार है। आज हमें यह पक्का
निश्चय कर लेना चाहिए कि “यह जो संसार बनाया है, यह जो संसार
बना है, परमात्मा ने इसको बनाया है और क्यों बनाया है?
कर्म करने के लिए बनाया है। आज हमें इसमें कर्म करना चाहिए। अपने
जीवन को व्यर्थ नहीं खो देना चाहिए।“
मुनिवरों! हमारे मनु आदि आचार्यों ने,
ब्रह्मा आदि ऋषियों ने और हमारे गुरु ब्रह्मा ने भी ऐसा ही कहा है
कि महान संसार की रचना गणित विद्या के समान नियमानुसार है, विलक्षण
है।
आत्मा के ब्रह्म बनने की अवधि
मुनिवरों! एक समय महर्षि नारद मुनि ने कपिल
मुनि महाराज से प्रश्न किया था कि “महाराज! हम यह जानना चाहते है कि ब्रह्मा की यह
सृष्टि की अवधि क्या है? ब्रह्मा की जो अहोरात्रि है, यह क्या पदार्थ है? यह अहोरात्र और और कल्प ऐसे
क्यों है? इनका यह रूप क्यों निर्धारित किया गया है? उस सभा में महर्षि प्राधी मुनि महाराज, मार्कण्डेय
महाराज, महर्षि भृगु मुनि महाराज आदि ऋषिगण विराजमान थे। उस
समय कपिल मुनि आदि आचार्यों ने यह निर्णय किया था कि इस ब्रह्म अवधि के द्वारा
आत्मा पर ब्रह्म को प लेता है यह आत्मा ब्रह्म बन जाता है |तात्पर्य
यह है की इस अवधि में आत्मा ब्रह्म बन सकता है। आत्मा के ब्रह्म बनने की अवधि है।
इसलिए इस सृष्टिकाल की अवधि का नाम ब्रह्म दिन हुआ। प्रश्न होता है, कि यह ब्रह्म अवधि कितने वर्षों की होती है?
ब्रह्म की शतायु की
अवधि
मुनिवरों! यह तो तुमने जान ही लिया होगा कि
एक चतुर्युगी में तैतालिस लाख बीस सहस्त्र (4320000वर्ष) वर्ष होते हैं। इक्हत्तर
(७१) चतुर्युगियों का एक मन्वन्तर होता है। ऐसे चौदह (१४)
मन्वन्तरों का सृष्टिकाल या ब्रह्म दिन होता है। तो चौदह मन्वन्तरों
के पश्चात् एक प्रलयकाल हो जाता है। इस प्रलयकाल को ब्रह्म की रत्रि कहते है। एक
सृष्टिकाल और एक प्रलयकाल को मिलाकर ब्रह्म का अहोरात्र कहलाता है। अर्थात् दो
सहस्त्र चतुर्युगियों का ब्रह्मा का अहोरात्र बनता है। मुनिवरों !देखो,ऐसे ऐसे 360 अहोरात्र का, ब्रह्म का एक वर्ष हो जाता
है| ऐसे-ऐसे ब्रह्मा के सौ वर्ष व्यतीत होते है, तो ब्रह्म की शतायु हो जाती है।
मुनिवरों! देखो, आदि
ऋषियों ने और दार्शनिकों ने निर्णय किया है। इस पर दार्शनिकों ने कहा कि यह क्या
है? ऐसा क्यों माना है? ऐसा कौन-सा ब्रह्मा
है? ऐसा इसका कौन-सा शरीर है? जो ऐसा
माना गया है।
मुनिवरों!जैसे परमात्मा की बनाई हुई सृष्टि
का नियम है, माता के गर्भस्थल में जीव के आने का नियम है,
चन्द्रमा की कान्ति का नियम है, ऐसे ही ब्रह्मा
की आयु का भी समय नियुक्त किया गया है।
मुक्ति से लौटने का
काल
मुनिवरों! यह कैसे कहा है? जब इतना समय व्यतीत हो जाता है, जब यह जीव ब्रह्म बन
करके परब्रह्म में रमण करता है, उस परमानन्द में आनन्द करता
रहता है और उसकी पूर्ण आयु व्यतीत हो जाती
है, तब बेटा! वह मुक्त आत्मा ब्रह्म पद से नीचे इस संसार में
द्वितीय बार आ जाती हैं।
अब यह प्रश्न उठता है कि जब यह आत्मा अपने को
जानकर, परमात्मा को जानकर,उसकी गोद में
पहुंचकर, परब्रह्म को पा करके ब्रह्म बन जाता है तब उस
ब्रह्म को इस संसार क्षेत्र में आने की क्या आवश्यकता है? यह
क्यों आता है? इससे तो महानन्द जी का वाक्य ही सत्य हो
जाएगा। महानन्द जी ने एक समय कहा था कि जब जीव को मुक्ति से लौटना पड़ता है, तो हमें यह प्रयत्न कदापि न करना चाहिए।
मोक्ष का महत्व
हमने आदि दार्शनिकों के आधार पर एक समय यह
उत्तर दिया था कि एक तो इस संसार का सुख क्षण-भंगुर है। इसके समक्ष मुक्ति का सुख
कितन महान, कितना विशाल और कितना विस्तृत है। उस परमानन्द के
सामने यह सांसारिक सुख कदापि महत्व नहीं पा सकता है। मानव के जीवन का उद्देश्य तो
एक मात्र यही है कि वह परमानन्द को पाता रहे। परमानन्द को पाकर, उसी में ब्रह्म की पूर्णायु रमण करता रहे। इस महान दुःखों के सागर रूपी
संसार के दुःखों में न पड़े।
परमात्मा के विशेष गुण
मुनिवरों! आदि आचार्यों ऋषियों ने इसमें एक
विशेषता बताई है |परमात्मा में अनंत गुणों में से चार गुण
विशेष रूप से हैं
१, सृष्टि को उत्पन्न
करता है। २, सृष्टि
की प्रलय करता है। ४ हमारे पाप-पुण्यों के कर्मों का फल देता है।४, संसार का पालन करता है।
ऊपर कहे गुणों वाला परमात्मा होता है। उसी को
परमात्मा कहते हैं।
जीव के मुख्य गुण
इसके समक्ष आत्मा में दो ही गुण मुख्य रूप से ऋषियों ने माने है।
क्योंकि ये दो गुण ही रह जाते हैं। अर्थात जीवात्मा में- ज्ञान और प्रयत्न।
क्योंकि ये दोनों गुण जीवात्मा में नित्य
रहते है। ये किसी भी काल समापत नहीं होते। यह जीव ज्ञान के द्वारा तो प्रभु को जान
लेता है, प्रयत्न के द्वारा उसमें रमण करता रहता है, आनन्द ही आनन्द भोगता रहता है। परन्तु प्रयत्न से आनन्द भोगा जाता है। जीव
में ये दोनों गुण कभी समाप्त नहीं होते, चाहे जीव परमात्मा
को पा करके ब्रह्म बन जाए। ये दो गुण तो आत्मा के स्वाभाविक हैं। ये गुण कदापि भी
नहीं जाते।
मुनिवरों!
देखो, अनेक मानवों को मिष्ठान्न प्रिय है। यदि किसी
मिष्ठान्न प्रिय मानव के लिए बहुत अधिक मिष्ठान्न का आयोजन कर दिया जाए, तो वह लम्बे समय तक मिष्ठान्न खाते-खाते उकता जाता है। उससे उसका हृदय
घृणा करने लग जाता है। इसी प्रकार जब आत्मा परमात्मा में अत्यधिक लम्बे समय तक रमण
करता करता ऊब जाता है तब संसार में आने की, पुनः जन्म धारण करने
की इच्छा प्रबल हो जाती है। तब यह परमात्मा की कृपा से संसार में पुनः जन्म धारण
करता है। इस विषय में हमारा ही नहीं ,अपितु महर्षि अत्रि
मुनि महाराज, महर्षि कोपात्री जी, महर्षि
कपिल मुनि महाराज, महर्षि नारद मुनि महाराज, वशिष्ठ मुनि मुनि महाराज, महर्षि विश्वामित्र महाराज, आदि दार्शनिक सभी आचार्यों का यही मन्तव्य है।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! हमें तो ऐसा
प्रतीत हो रहा है कि जैसे आप ही ऐसा मान रहे हों”।
पूज्यपाद गुरुदेवः “हाँ बेटा! तुम्हें तो ऐसा
ही प्रतीत होगा।“ अरे भाई! हम तो तुम्हें सभी प्रमाण दे रहे हैं। इसमें तो किसी
अन्य युक्ति या तर्क की आवश्यकता ही नहीं। यह तो केवल तर्क का विषय नहीं है,
यह तो विश्वास, युक्तियों और प्रमाण का विषय
है, यह तो वेद का विषय है। वेद का स्वाध्याय करोगे, तो तुम्हें स्वतः ही ज्ञान हो जाएगा।
यदि महानन्द जी! तुम यह कहो, कि आधुनिक काल में तो आत्मा-परमात्मा को एक मानते हैं। मुक्ति से लौटना
नहीं मानते, तो बेटा ! हम इसमें क्या कर सकते हैं, बेटा ! हमारे आदि आचार्यों ने जैसा माना है ,जो
माना है ,हम तो उसी के आधार पर उच्चारण कर रहे हैं। हम तो
उससे पृथक् कदापि उच्चारण नहीं करेंगे।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! आप तो अन्य
आचार्यों की कही-कही वार्त्ताओं का उच्चारण कर रहे हैं। आपने भी कुछ पाया है, या नही संसार में। या सुनी हुई वार्त्ताओं का उच्चारण कर रहे हो?” हास्य....
पूज्यपाद गुरुदेवः ‘महानन्द
जी! हम कैसे उच्चारण करें, कि बेटा ! हमने पाया, यह तो एक मधुर वाक्य हो जाता है। इसमें तो कुछ संकोच होता ही है।“
पूज्य महानन्द जीः “इसमें संकोच की क्या बात
है गुरु जी, जिस वस्तु के विषय में, जो
कुछ भी प्रत्यक्ष करके जाना या पाया,उसके निर्णय करने में
आपकी क्या हानि?”
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! इसमें कोई हानि
नहीं।“ चलो, इसका भी निर्णय किए देते हैं।
मुनिवरों!
गहरी दृष्टि से, उच्च विचार करने से और परम्परा के अनुसार
ऐसा प्रश्न होता है, कि परमात्मा ने इस अदभुत संसार को कैसे
बनाया? मुनिवरों! इस विषय में हमारा निर्णय यही है, कि वह अद्भुत संसार परमात्मा का खेल सिद्ध नहीं होता। परमात्मा खेल क्यों
रचाए? परमात्मा तो पूर्ण है, परमात्मा
को खेल रचाने की क्या आवश्यकता ? खेल कौन रचाता हैं ,जिस मानव का मन चंचल होता है खेल वह रचाया करता है। पर परमात्मा तो पूर्ण
है, सर्वज्ञ है, पूर्ण काम है, निर्द्वन्द है। वह इतना अपार है, कि उसका तो पार ही
पाना सर्वथा असम्भव है। उसकी अपारता का वर्णन ही नहीं किया जा सकता है, ऐसा हमारा ही निश्चय नहीं है। यह तो आदि आचार्यों ने गहरी दृष्टि से
निर्णय किया है।
बेटा! परमात्मा विशेष नियम के अनुसार जीवों के
कल्याण के लिए संसार को बनाता है। संसार की रचना पर और उसके नियमों पर विचार करने
से यह सिद्ध हो जाता है।
मुनिवरों!
हम व्याख्यान देते -देते ब्रह्मा आदि शब्दों पर जा पहुंचे। अर्थात् इसको ब्रह्मा
क्यों कहते है? ब्रह्मा की अवधि इस प्रकार क्यों मानी गई है?
यह अहोरात्र इस प्रकार क्यों माना गया है? ये
ऐसे क्यों माने गए हैं?
यह सृष्टि उस ब्रह्म पद प्राप्त जीव के कारण
ब्रह्म का दिवस कहलाती है। इसी प्रकार प्रलय काल ब्रह्म रात्रि कहलाती है। जैसे
मानव की शत वर्ष की आयु होती है वैसे ही इन ब्रह्म दिवस और ब्रह्म रात्रि की गणना
करके एक महाकल्प ब्रह्म की शत वर्ष की आयु निर्धारित की गई है।
मुनिवरों! यह सब जीवात्मा के जीवन के आधार पर
ही निश्चित किया गया है। आचार्यों ने यह निर्णय दिया है। हमें किस सत्ता के आधार
पर रहना चाहिए? देखो, हमें उस परमात्मा
को सत्ता का आधार मानकर चलना चाहिए, जिससे समाज में अज्ञान न
फैले, जीवन की ऊँची योजन बनाने की आवश्यकता है।
माता कैसी हो
मुनिवरों! आज के वेद पाठ में माताओं के विषय
में बड़ा सुन्दर वर्णन आ रहा था यह एक मधु एवं सूक्ष्म उपदेश है। देखो! माता
प्रकृति को कहते हैं। यह सारी प्रकृति और जीव उस माता दुर्गा अर्थात प्रभु के गर्भ
स्थल में रहते है जैसे माताओं की माता दुर्गा हमारे जीवन को उच्च बनाती है, वैसे ही हमारी जननी माता भी हमारे जीवन को उच्च बनाने वाली है। वास्तव
में जननी माता वह ही हो सकती है, जो परमात्मा के समान अपने
पुत्रों का कल्याण करके उच्च पद पर पहुंचाने वाली हो, जो
संसार सागर में ऊँची प्रेरणा देने वाली हो वह माता कैसी हो?जो
गर्भ स्थल मे ही वर्तमान आत्मा को ऊँची शिक्षा प्रदान करने वाली हो। ऐसा हमने
द्वापर युग में पाया था, प्रत्यक्ष किया था।
मुनिवरों! इस विषय में महानन्द जी ने नाना
प्रश्न किए, इनके समाधान में हमारी द्वापर की एक देखी हुई
घटना है।
माता गंगोत्री का जीवन
द्वापर में महाराजा गंगेतु राजा की गंगोत्री नामक सुन्दरी कन्या थी। उसका विवाह
संस्कार राजा शान्तनु के साथ हुआ था। वे आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। राजा
शान्तनु के गंगोत्री से सातपुत्र उत्पन्न होकर सबके सब समाप्त होते गए |महाराजा शांतनु को बड़ी चिंता हुई क्योंकि उनके राष्ट्र को संभालने वाला
कोई न रहा कुछ कालके पश्चात बड़ा सुन्दर आठवां बालक उत्पन्न हुआ। मुनिवरों!
बाल्यावस्था में ब्राह्मणों ने उसका नाम गंगशील नियुक्त किया। गंगशील बाल्यावस्था
से ही बड़ा चतुर, बड़ा तेजस्वी था।
राजा शान्तनु के कुल पुरोहित एवं राष्ट्र
पुरोहित महर्षि पारामुनि के गृह पर बालक मुनि से शिक्षा पाने लगा। बालक की तीव्र बुद्धि
और उसके शील से पारामुनि बहुत प्रसन्न थे।
पारा मुनि गंगशील को कौडली ब्रह्मचारी कहने लगें, यह नाम
उन्होंने इसलिए रखा था, कि वे आत्मा के विषय में अत्यधिक
परिश्रम किया करते थे। ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करते थे।
ब्रह्मचर्य का महत्व
कुछ समय पश्चात् माता गंगोत्री का स्वर्गवास
होने लगा। मृत्यु के समय राजा शान्तनु और कौडली ब्रह्मचारी उपस्थित थे। माता ने
पुत्र से कहा कि “इस समय मेरे अन्तिम सांस चल रहे है। मेरा जीवन समाप्त होने वाला
है। परलोक को जाने वाली हूँ,” मेरा आदेश है कि “जब तक तू
जीवित रहे, तू अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करना, जिससे कि तुझे मृत्यु छू भी न सके।“ अपनी इच्छानुसार शरीर को त्यागने वाला
बनना। तूने मेरे गर्भ से जन्म धारण किया है। मेरा गर्भाशय तभी उज्ज्वल होगा, जब तू महान ब्रह्मचारी बन करके, अपने जीवन को हर
प्रकार से उच्च बनाएंगा।“
आज देखो, यदि हम अपने
जीवन को, अपने समाज को, अपने राष्ट्र
को उच्च बनाना चाहते है, तो हमारी माताओं को भी गंगोत्री
माता के समान बनना होगा। आज की माताओं को भी गंगोत्री के समान गर्भ से ही अपने
पुत्रों एवं पुत्रियों को ब्रह्मचर्य की शिक्षा देने वाली होनी चाहिए।
अहा! ब्रह्मचर्य वह पदार्थ है, जिसको पा करके, जिसका पालन करके जीव ब्रह्म बन जाता
है। इसी से परब्रह्म को पा लेता है। मुनिवरों! उस महाकल्प पर्यन्त मुक्तावस्था में उस परमपिता की गोद में
पहुंचकर परमानन्द का लाभ करता है।
“जो लोग ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते, उनकी दशा तो ऐसी होती है कि जैसी एक बार महर्षि वशिष्ठ मुनि महाराज ने
महाराजा राम से एक कीड़े को दिखाते हुए कहा था, कि जो
ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते वे इस प्रकार कीड़े की योनि में जन्म लेते है। यह तीन
जन्मों से कीड़ा बनता आ रहा है,इत्यादि”
आज भी जो ब्रह्मचर्य से हीन मानव है, वे भी इसी प्रकार कीड़े की योनि में चक्कर काटते है,
और चक्कर काटेंगे।
तो मुनिवरों! माता गंगोत्री ने अपने एकमात्र
पुत्र भीष्म से कहा कि “तू ब्रह्मचर्य से हीन होकर, संसार का
कीड़ा न बनना। तू राष्ट्र का सूर्य के समान महा तेजस्वी मानव बन, जैसे सूर्य प्रातः काल उदय होकर तीन लोक में अपने प्रकाश से छा जाता है,
तीनों लोकों को तपायमान करता है, महान रात्रि
को अन्धकार को समाप्त करके अपने दिव्य
प्रकाश से मानव के जीवन को उच्च बना देता है| इसी प्रकार
पुत्र! तू भी महान् तेजस्वी बन।“
“यदि
तूने मेरे गर्भ से जन्म धारण किया है, तो तू भी ऐसा महान बन, कि जिससे यह अपना सारा राष्ट्र उच्च बने, महान्
बने। राष्ट्र तेरा नहीं है , यह परमात्मा का दिया हुआ है। हे
पुत्र! यदि तूने इस शरीर को और इस राष्ट्र को दूषित कर दिया,
तो तेरा जीवन न होने के तुल्य है।“मुनिवरों ! परमात्मा ने जो यह शरीर दिया है,यह ऐसा रोगी या दोषी बनाने के लिए
नहीं दिया है। परमात्मा ने जैसा यह स्वच्छ शरीर दिया है,
वैसा ही स्वच्छ और स्वस्थ परमात्मा को प्रदान कर दो, नहीं, तो मानव जीवन का कोई महत्व नहीं है इस संसार में।
आज
हमको माता गंगोत्री के ये वाक्य कण्ठ आ गए, जिसको हमने
उच्चारण कर दिया। आज का हमारा यह मुख्य
आदेश है। यदि हमको अपने जीवन को उच्च बनाना है, तो
ब्रह्मचर्य की पूर्ण रक्षा करनी चाहिए। परमात्मा ने ब्रह्मचर्य के रूपी में ऐसा
महान पदार्थ दिया है, कि इसको पा करके मानव सब कुछ पा लेता
है। मुनिवरों! देखो, ब्रह्मचर्य को पा करके सारे विज्ञान को
पा लेता है, प्रभु को पा लेता है। प्रकृति के कण-कण को जानने
वाला, यह जीव बन जाता है।मुनिवरों! देखो, जब तक हम इस महान ब्रह्मचर्य को नही जानेंगे, तब तक
इस महान प्रभु को, आध्यात्मिक और भौतिक विज्ञान दोनों को ही
न जान सकेंगे।दोनों में किसी भी प्रकार से गति नही कर सकेंगे।
मुनिवरों ! आज का हमारा यह आदेश है, अर्थात् माता गंगोत्री ने मृत्युकाल में ऐसा कहा है कि” हे पुत्र! तू हर
प्रकार से ब्रह्मचारी बन। अपने जीवन को सूर्य के तेज के तुल्य बना|”
मुनिवरों ! उसने अपने पतिदेव से कहा कि “हे
पतिदेव! मेरा मृत्युकाल आ रहा,मेरे कुछ ही सांस रह रहे हैं
मै इस समय परलोक में जा रही हूँ,हे भगवन! आप मेरे स्वामी है। यह मेरा एक बालक है।
परमात्मा की दया से न जाने कहाँ, कहाँ से और कैसे हम तीनों
का सम्बन्ध बन गया है,और यह मिलाप हो गया है। आप राजा बन गए, मैं आपकी धर्मदेवी बन गई। हम तीनों के मेल का, सम्बन्ध
होने का इतना ही काल परमात्मा ने दिया था। अब मुझे आज्ञा दीजिए मैं परलोक को जा रही हूँ।“
राजा और राज्य के लिए
ब्रह्मचर्य का महत्व
अच्छा भगवन्! मेरा एक आदेश है। वास्तव में तो
पत्नी अपने पति को क्या आदेश दे, पर शुभ आदेश देने में कोई
किसी प्रकार की हानि नहीं है। उस समय मुनिवरों! देखो, उसने
मृत्यु काल में यह कहा था कि “हे पतिदेव! यदि आपको संसार की
इच्छा जागृत हो जाएं, तो आप द्वितीय संस्कार करा लेना।
परन्तु यदि आपने संस्कार न कराया और कुविचार आपके बन गए और आपने राष्ट्र के किसी
व्यक्ति को, किसी भी देव कन्या को, किसी
भी मधुमती को, किसी भी प्रकार से भ्रष्ट कर दिया, तो भगवन्! यह राज आज नहीं, तो कल अवश्य नष्ट हो
जाएगा।
पूर्व संस्कारों के कारण राजा पद
तो मुनिवरों! उस महान माता गंगोत्री ने अपने
पतिदेव से कहा कि “आप भ्रष्ट न हो जाना। भगवन! यदि आप अपने मार्ग से भ्रष्ट हुए, तो इस राष्ट की मृत्यु हो जाएगी, राष्ट्र समाप्त हो
जाएगा। हे विधाता !आपको परमात्मा ने पूर्व जन्म के उच्च कर्मों के आधार पर इतने
बड़े समाज का, आज राजा बनाया हुआ है। प्रजा ने।
आपको राजा के पद पर चुना है, तो आप भी प्रजा को भ्रष्ट न करना। भगवन्! यदि आपके भ्रष्टाचार के कारण
प्रजा में भ्रष्टाचार फैल गया, तो आपका यह राज पद नहीं रहेगा,
आपका राज पद दूषित हो जाएगा।“
भगवन्!
मृत्यु समय मेरा केवल यही आदेश है। आपके समक्ष यही अनुरोध है। आप मेरे इस अनुरोध
को अवश्य स्वीकार करें।
‘भगवन्! परमात्मा की कृपा से जनता ने आपके
चरित्र को स्वच्छ निर्मल समझकर, आपको राजा के पद के लिए चुना
है, आपको राजाधिराज बनाया है। यदि आप अन्तिम काल में राज्य
को त्यागना चाहें, तो जैसा परमात्मा ने स्वच्छ और निर्मल
राज्य दिया है, वैसा ही परमात्मा के समक्ष अर्पण कर देना है।“
“हे
भगवन्! यदि आपने अपने रहते-रहते अपने राष्ट्र को अपनी चरित्र दोष से दूषित कर दिया,
परमात्मा को दूषित राज्य अर्पण किया, स्वयं
चरित्र से दूषित हो गए, तो आप राजा नहीं रहेंगे, आप कीड़े के तुल्य बन जाएंगे।“
तो मुनिवरों! देखो, यह
उन महान् देवियों का आदेश है। पर आज उन माताओं को कहाँ से लाएं? इस काल में उन्हें कहाँ से खोजें जो अपने पतियों को इतना सुन्दर आदेश देने
वाली हों।
मुनिवरों! आज हमारा यह आदेश चल रहा है कि
मानव को परमात्मा ने जो स्वच्छ पदार्थ, कर्म करने के लिए दिए
हैं, परमात्मा ने जैसा स्वच्छ, निर्मल जीवन दिया है, हमारा परम
धर्म है कि परमात्मा को वैसा ही स्वच्छ एव निर्मल जीवन और पदार्थ अर्पण कर दें।
तभी हमारी मानवता है, मानवता की सफलता है। अन्यथा इस मानवता
की कोई विशेषता नहीं है, कोई महत्व नहीं है”।
मुनिवरों! माता गंगोत्री ने ऐसा आदेश देकर, नमस्कार करके अपने प्राणों को त्याग दिया। मुनिवरों!राजा शान्तनु ने बड़े
आनन्द पूर्वक नाना उत्तम सामग्री संचित करके, नाना
ब्राह्मणों के द्वारा विधिपूर्वक यज्ञ कुण्ड में अपनी धर्म पत्नी का अन्त्येष्टि
संस्कार, वेद मन्त्रों के पाठ करके किया। उस विद्वान ब्रह्मचारी ने भी अपनी माता के अन्त्येष्टि
संस्कार में वेद मन्त्रों का पाठ किया।
राजा शान्तनु
राजा शान्तनु बड़े आनन्द से जीवन व्यतीत करने
लगे। राजा शान्तनु के जीवन की शेष विशेषताएं कल उच्चारण करेंगे। कल महानन्द जी के
शेष प्रश्नों का समाधान भी करेंगे। क्योंकि आज समय नहीं रहा है।
मुनिवरों!
हम अपने व्याख्यान में द्वापर युग का प्रमाण देकर आदेश दे रहे थे। परमात्मा की
कृपा से उन महान ब्रह्मचारियों ने,
उन महान आचार्यों ने और उन महान देवियों ने ऐसी उच्च शिक्षा देकर
राज्य को उच्च बनाया था।
मुनिवरों! यदि राज्य को उच्च बनाना है,
और संसार को उच्च बनाना है, संस्कृति का
प्रचार करना है, तो शिष्टाचार को उच्च बनाना होगा। विद्या का
प्रचार और प्रसार करना है तो शिष्टाचार को उच्च बनाना होगा। जिस काल में
ब्रह्मचारी होते है, वही काल सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
अखंड ब्रह्मचर्य का शरीर पर अलौकिक प्रभाव
देखो, उस महान
ब्रह्मचारी ने कैसा सुन्दर आदेश माता से पाया। बेटा! वही कौडली ब्रह्मचारी आगे चलकर
के भीष्म नाम से पुकारे गए, आगे वे ही पितामह भीष्म बन गए।
बेटा! कैसा सुन्दर यह ब्रह्मचारी था। अरे, जिस समय महाभारत
संग्राम में अर्जुन शस्त्रों का प्रहार उनके शरीर पर करते थे तो बेटा! भीष्म के
शरीर से शस्त्र उछल जाते थे, शस्त्र भी दूर भागते थे, उनकी त्वचा में
प्रवेश नहीं कर पाते थे। कैसा था वह ब्रह्मचारी?
मुनिवरों! देखो, उस समय
अर्जुन ने एक वाक्य कहा भी कि “हे भगवन्! हे पितामह! आपने कौन-सा पदार्थ पाया, कि जिससे मेरे अस्त्र-शस्त्र भी आप पर आघात क्यों नही कर पाते?
ब्रह्मचर्य से मृत्युञ्जय बनना
उस समय भीष्म पितामह ने कहा था कि “हे पुत्र! हे
बालक! मैंने माता के आदेश द्वारा उस अवस्था को पाया है,
जिससे मैं मृत्यु विजयी बन गया हूँ। मैं चाहूँगा तो मेरी मृत्यु होगी, अन्यथा मेरी मृत्यु कदापि नहीं होगी।“
तो मुनिवरों! ब्रह्मचर्य को पाने में इतना
महत्व हैं, जो ब्रह्मचर्य को पाता है,
वह परमात्मा को पा लेता है और परमात्मा को पा करके बेटा! सृष्टि के कण-कण को जानने
वाला मानव बन जाता है। वह मानव भौतिक विज्ञान और आध्यात्मिक विज्ञान दोनों को पाने
वाला बन जाता है।
यह है आज का हमारा आदेश। बेटा! अब हमारा
व्याख्यान समाप्त हो गया। कल समय मिलेगा तो और व्याख्यान देंगे। अब हमारा वेदों का
पाठ होगा। इसके पश्चात् वार्त्ता समाप्त हो जाएगी।
पूज्य महानन्द जीः धन्यवाद भगवन्! “गुरु जी!
आपने हमारे प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “बेटा! कल दे देंगे।“
पूज्य महानन्द जीः हाँ वह कल तो आपका आता ही
रहता है, और आता रहेगा। क्योंकि आपने एक काल में ऐसा कहा था
कि रावण जब मृत्यु शैय्या पर आ गया भगवन्! तो तब राम ने उससे राजनीतिक वार्त्ताओं
को पाया था।
रावण
ने राम से कहा कि “भाई! मैंने कल ही कल में कुछ कार्य करने थे, वे कल ही में समाप्त हो गए।“ ऐसा ही हमें प्रतीत होता है, भगवन्! आप भी कल ही कल में समाप्त हो जाएंगे। हास्य.....
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा, हास्य.....। अच्छा महानन्द जी! धन्यवाद। कोई बात नहीं हैं, अच्छा बेटा! चलो, कल हो जाएगा।
पूज्य महानन्द जीः “हाँ, कोई बात नहीं भगवन्!”
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! अभी-अभी
महानन्द जी कैसा सुन्दर आदेश वर्णन कर रहे थे, कि जिसमें
कितनी मनमन्ता आ रही थी। हृदय भी मनमन्ता मना रहा था। महानन्द जी के कैसे सुंदर आदेश
हैं, चलो, कल महानन्द जी के प्रश्नों
का विधिपूर्वक उत्तर दिया जाएगा।अब हमारा
आदेश समाप्त हो गया कल हमारा आदेश वर्णन किया जाएगा |
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! कल हमारी एक
इच्छा ओर है, कि कल आप मधु शान्ति पाठ करें।
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा बेटा! तो कल का कल
देखा जाएगा। तो भाई! कल आएगा, तो उच्चारण कर देना ।अच्छा
देखा जाएगा
तो
मुनिवरों! महानन्द जी अब उच्चारण कर रहे हैं, कि मधु
शान्तिपाठ कल होना चाहिए। परन्तु यदि समय मिला तो मधु शांति पाठ करेंगे और नहीं
मिला, तो नहीं करेंगे। अच्छा! अब वेदों का पाठ होगा, इसके पश्चात् हमारा व्यख्यान समाप्त हो जाएगा।वेद पाठ लोदी कालोनी,
नई दिल्ली
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