Tuesday, September 4, 2018


1   ०१ ०४ १९६२ सृष्टि रचना का उद्देश्य

देखो, मुनिवरों! अभी अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ। हम तुम्हारे समक्ष वेदों का मनोहर गान गा रहे थे। यह तो तुम्हें वेदमन्त्रों के पाठ से प्रतीत हो गया होगा, कल के समान आज भी जटा पाठ के अनुसार वेदमन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे। जैसा कि हम पूर्व स्थान में कह चुके हैं कि वेदों का गायन अनेक प्रकार से होता है।
वेद गायन से शुद्धि
आज वेदों का गान गाते समय हृदय में बड़ी मनमन्ता उत्पन्न हो रही थी, और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे विधाता हमारी रसना में और हमारे कण्ठ में विराजमान हो करके हमें उत्साह दे रहा है, कि मेरी वाणी का ओर अच्छी प्रकार से प्रसार करो| जिससे कि मेरी वाणी सर्वत्र ब्रह्माण्ड में ओत प्रोत होकर, इस अन्तरिक्ष को, इस भू मण्डल को पवित्र कर दें, अर्थात् यह सारा संसार पवित्र हो जाए। क्या करें समय का अभाव है। आज हमारी इच्छा तो यह थी, कि उच्च स्वर से और अधिक वेदों का  गान किया जाए, जिससे कि अन्तरिक्ष में वेदों  के मन्त्रों का रमण हो करके, वातावरण अच्छी तरह शुद्ध हो जाए।
यह ब्रह्माण्ड, यह सारी सृष्टि, आपकी बनाई हुई है। हमारी रसना में आपका ही बल दिया हुआ है। हमारे कण्ठ में भी आप विराजमान हैं, आपकी ही कृपा से, आपकी ही सत्ता से हम वेदमन्त्रों का गान कर पाते हैं। आपकी वाणी कहती है कि यह वायुमण्डल, यह अन्तरिक्ष वेदमन्त्रों से ही शब्दाययमान हो करके, शुद्ध हो जाता है। यह आपकी बड़ी मनोहरता है।
हमारे आँगन में एक वार्त्ता नहीं आ रही है कि आपका बनाया हुआ संसार क्या पदार्थ है? इसको क्या आपने रचाया है? और यह क्यों रचाया है?और आपने कौन-कौन से पदार्थों से यह संसार बनाया है।
आत्मा,परमात्मा का स्वरूप अहा! आज परमात्मा से निवेदन करें, परमात्मा से उच्चारण करें कि हे परमात्मन्! आपके बनाए हुए संसार में, आज प्रत्येक मानव, प्रत्येक देवकन्या दुःखित होती चली जा रही है, एक मानव दूसरे मानव पर घात लगाए बैठा है। परन्तु वेदवाणी तो कहती है कि परमात्मा ने संसार को मनोहर उत्पन्न किया है। वेदवाणी के उच्चारण से इस विशाल वायु मण्डल को शुद्ध किया जाए, जिससे कि मानव के अन्तःकरण में शुद्ध भावानाएं आएं।
कुछ मानव कहते है और महानन्द जी का संकेत भी बारम्बार आता है, कि मानव अपने को परमात्मा का रूप मानता है।
 परन्तु हे विधाता! यदि आप ही यह आत्मा है, या यदि आप ही परमात्मा है, तो आपके बनाए हुए संसार में एक दूसरे के रक्त के अभिलाषी क्यों बन बैठे हैं? यह क्या आपका ऐसा बनाया हुआ ब्रह्माण्ड है, जिसमें मानव दुःखित होता चला जा रहा है। मानव में परस्पर शुत्रुता क्यों है? इस प्रकार का यह संसारक्यों है? यह तो बड़ा विचारणीय प्रश्न है।
बेटा! एक समय महर्षि अटुल मुनि महाराज, देवर्षि नारद, सनत् कुमार आदि आचार्य, लोमश मुनि महाराज, विभाण्डक ऋषि महाराज, ऋषि पारा मुनि और उनके पुत्र धुन्ध ऋषि महाराज, आप्त ऋषियों और महान दार्शनिकों के समाज में विचार चल रहा था कि यह परमात्मा का बनाया हुआ संसार तो है, परन्तु यह इस प्रकार का क्यों है? इस प्रकार के संसार में परमात्मा का क्या महत्त्व है? हम परमात्मा को क्या  मानें? स्वयं परमात्मा क्या पदार्थ है? यदि यह आत्मा ही परमात्मा है, तो एक मानव दूसरे का शत्रु क्यों बना बैठा है? और कौन किसका राजा बना बैठा है? कौन किसकी प्रजा बनी बैठी है? आज का मानव इस पर दार्शनिक दृष्टि से विचार करता है। परन्तु हम तो वेदोक्त मन्त्रों के आधार पर विचार करते है।
सृष्टि का निर्माण कैसे
 परमात्मा ने इतने बड़े ब्रह्माण्ड को, इस प्रकृति से बनाया है। अहा! उस परमात्मा ने ब्रह्मात्व से इस संसार को उत्पन्न किया है। जैसे ब्रह्मा नाना प्रकार से सुन्दर वेदी को रच देता है, वेदी को रच कर वेदमन्त्रों के द्वारा सब कुछ सिद्ध करके देवों (भौतिक) तथा देवों (विद्वान होता, उद्गाता, अर्ध्वयु आदि) की स्थापना करके यज्ञवेदी को उत्पन्न कर देता है।अरे, अब हमारे समक्ष वेदी के दो रूप उपस्थित हो जाते है| एक भौतिक वेदी , दूसरी आध्यात्मिक वेदी । देखो, भौतिक वेदी हमको आध्यात्मिक यज्ञ में पहुंचा देती है।
देखो, हमारे अन्तःकरण में भी यज्ञशाला विराजमान है। उसमें आत्मा आहुति देने वाला हैं  परमात्मा सामग्री देने वाला है और मुनिवरों! परमात्मा ब्रह्मा बन करके आत्मा को प्रेरणा देकर के और ऊँचे पथ पर चला रहा है और इसी प्रकार से संसार को भी चला रहा है।
देव मुनि नारद ने कहा कि प्रश्न तो यह था कि जो परमात्मा इस संसार में ओत प्रोत है, लोक लोकान्तरों को उत्पन्न कर रहा है, जिसकी सृष्टि का कोई अंत नहीं पाता, इस पर यदि यह आत्मा परमात्मा का अंश है, तो परमात्मा के बनाए अनुकूल संसार को, अनन्त ब्रह्मांड को क्यों नहीं जान पाता? मुनिवरों! देखो, यह पृथ्वी मण्डल हैं, पृथ्वी मण्डल के ऊपर बुद्ध मण्डल है, बुद्ध मण्डल के ऊपर मंगल है,मंगल से  ऊपर अनेक चक्षणि आदि लोक है। इस विशाल विश्व में नाना सूर्य मण्डल हैं, नाना चन्द्र है,अगस्त मुनि मण्डल ,वशिष्ठ मुनि मण्डल ,आरुणि  मण्डल और नाना मण्डल  ध्रुव लोक, बृहस्पति लोक, अचंग लोक, मचंग लोक, भू: भुवः और स्वः आदि लोक लोकान्तर परमात्मा  के बनाए हुए है। अहा! यह परमात्मा की कैसी मनोहरता है? यदि यह आत्मा परमात्मा का ही अंश है, तो यह क्यों नहीं, इस परमात्मा की बनाई सृष्टि का अन्त पा लेता? इस पर आत्मा को परमात्मा का अंश मानने वाले यह समाधान देते है कि यह आत्मा जब परमात्मा का दर्शन करके, परमात्मा बन जाता है तब वह इन सबका प्रत्यक्ष कर ही लेता है।
उस दार्शनिक महर्षियों के समाज में पारा ऋषि ने कहा कि यह आत्मा किसके दर्शन करता है? उस परमात्मा के दर्शन करता है। उसके दर्शन से आत्मा ब्रह्म तो अवश्य बन जाता है। यह तो सत्य है कि परब्रह्म को पाकर ब्रह्म बन जाता है। इसमें कोई संकोच नहीं। यह एक विचारणीय विषय है। देखो, जब मानव की स्मरण शक्ति ऊँची होती है, योगी बन कर आत्मदर्शन करके, परमात्मा के दर्शन की स्थिति में पहुंच जाता है। परन्तु वह ब्रह्म पद पर पहुंची आत्मा परब्रह्म कदापि नहीं बन पाती, कदापि नहीं बनेगी। महान  दार्शनिक महर्षि अटुल मुनि, महर्षि उद्दालक मुनि, महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि, अष्टावक्र, आचार्य आदियों का यही अटल निश्चय है।
एक बार राजर्षि जनक महाराज ने भी आचार्य अष्टावक्र से याज्ञवल्क्य के वाक्यों का प्रमाण देते हुए यही प्रश्न किया था, मुनिवरों! उस समय आचार्य अष्टावक्र ने यही कहा था कि आत्मा परब्रह्म का साक्षात्कार करके ब्रह्म तो बन जाता है, परन्तु परब्रह्म कदापि नहीं बनता। याज्ञवल्क्य महाराज के उपदेश को आपने ठीक ठीक समझा नहीं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने तो कहा था कि प्रभु ने संसार को रचा है। यह संसार गणों में विभक्त है। इस संसार से वह गणनीय है। वह हमारा स्वामी है। हम उसके आश्रित हैं। उसी ने संसार को उत्पन्न किया है। इसको पाकर के आत्मा ब्रह्म बन जाता है, परन्तु परब्रह्म कदापि नहीं बनता।
बेटा! यह एक आचार्य का आदेश नहीं, यह तो सब आचार्यों का आदेश है। हमने अपने गुरु ब्रह्मा जी से कहा था कि महाराज! हम यह जानना चाहते है कि यह ब्रह्मा क्या पदार्थ है। क्योंकि आपने तो व्याकरणादि सहित चारों वेदों का स्वाध्याय किया है। आप एक- एक अक्षर से कई कई प्रकार से अनुवाद करने वाले हैं।
मुनिवरों! उस समय गुरु ब्रह्म जी ने कहा कि जैसे माता का और पुत्र का, पिता का और पुत्र का सम्बन्ध होता है, वैसे ही आत्मा परमात्मा का सम्बन्ध माना गया है।
हे मुनिवरों! एक समय हमारे महानन्द जी ने कहा कि परमात्मा ब्रह्मा की शक्ति बनकर संसार को उत्पन्न करता है, उनके ऐसे प्रश्नों का समाधान पूर्व समय में कर चुके है। परन्तु महानन्द जी के अधिक आग्रह के कारण इसका समाधान पुनः इस प्रकार से उपस्थित करते है।
परमात्मा को ही ब्रह्मा कहते है। परमात्मा स्वयं ही सृष्टि की स्थापना करता है। प्रश्न होता है, कि कैसे बनाता है? किस पदार्थ से बनाता है?
मुनिवरों! देखो, जैसे यज्ञ का ब्रह्मा यज्ञशाला में विराजमान होकर अपने स्वयं के शरीर से भिन्न द्रव्यों का आयोजन यज्ञ के लिए करता है और कराता है, यज्ञवेदी को रचाता है, तो यज्ञमान उससे भिन्न होते है। इसी प्रकार से मूल प्रकृति को महत्व प्रदान करके सृष्टि उत्पन्न करता है। यह प्रकृति प्रलय काल में अव्यक्त रूप थी। उसी सूक्ष्म प्रकृति को महत्तव रूप में परिवर्तित करके, इसमें प्राण प्रदान करके, इसमें क्रिया पैदा करके तन्मात्राओं को पैदा करता है। तन्मात्राओं से पंचभूत, बेटा!पंचभूतों से यह संसार बन गया है। बेटा! देखो, उस महान परमातमा ने उस सूक्ष्म और महान प्रकृति से संसार को बनाया। हमारे शरीरों को बनाया। इसमें अहंकार है, नाना प्रकार के विषय सूक्ष्म रूप से है।
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि परमात्मा ने यह सब किसके लिए बनाया? अव्यक्त प्रकृति को इस प्रकार चेतन में लाने की परमात्मा को क्यों आवश्यकता पड़ी? क्योंकि परमात्मा तो पूर्ण है, निर्द्वन्द्व है, परमात्मा को स्वयं संसार में आने की क्या आवश्यकता है? और संसार को क्यों बनाने कि आवश्यकता है
प्रलय काल में जीव 
मुनिवरों! जैसे माता अपनी लोरियों में बालक को जीवन दान करती है, उसी प्रकार हम आत्माओं के लिए परमात्मा ने इस सृष्टि को उत्पन्न किया है। प्रलय के समय यह सारी सृष्टि और सारे जीव उस परमात्मा के गर्भ में हो जाते हैं।
महानन्द जी ने अनेक बार कहा कि जैसे समुद्र का जल ही नदी, नद, तालाब और सरोवरों आदि में पड़कर भिन्न भिन्न आकार एवं रूप धारण कर लेता है तथा उन सब जलाशयों में एक सूर्य का ही अनेक रूप में प्रतिबिम्ब पड़ता है, ऐसे ही परमात्मा के ही ये सब रूप एवं अंश है।
पर महानन्द जी, आप निराकार परमात्मा के लिए साकार पदार्थों का, बने हुए पदार्थों का कैसे उदाहरण देते हैं? अरे बेटा! परमात्मा तो निराकार  है। किसी निराकार का और अपरिणामी पदार्थ की युक्ति देते तो सुन्दर होता, बुद्धि संगत होता। परमात्मा सदा अपरिवर्तनशील है। उसके लिए अपरिवर्तनशील का उदाहरण कैसा और क्यों? ये उदाहरण तो परमात्मा पर कदापि घटते ही नहीं।
हे मुनिवरों! परमात्मा को प्रत्यक्ष और साक्षात्कार करने से पहले अपनी आत्मा को अच्छी प्रकार से समझो, जानो और अपनी आत्मा में उस परब्रह्म को पा लो। तब यह आत्मा भी परब्रह्म को पाकर ब्रह्म बन जाएगा, पर परब्रह्म कदापि नही बनेगा। यह अद्धितीय परब्रह्म कभी नहीं बनेगा। नही तो, यह आत्मा अपने कर्मों के चक्रों में फिरता ही रहेगा।
मुनिवरों! हमारे व्याख्यान का आरम्भ तो परमात्मा ने सृष्टि को क्यों उत्पन्न किया? किसके लिए किया? क्यों ऐसा दुःख भरा संसार परमात्मा ने उत्पन्न किया ?
महानन्द जी ने एक समय कहा था कि यह तो परमात्मा खेल खेल रहा है।
अच्छा मुनिवरों! जरा विचार कीजिए, कि खेल कौन खेला करता है। खेल वही खेला करता है, जो अज्ञानी होता है। मुनिवरों! देखो, जैसे एक माता का बहुत छोटा सा पुत्र है, वह पुत्र तभी तक नाना प्रकार के खेल खेलता है जब तक बाल्यावस्था रहेगी, अज्ञानता रहेगी और जब उसे वेदों का ज्ञान हो जाएगा, महान ज्ञान हो जाएगा, वह परम पद की इच्छा में मग्न हो जाएगा, वह महान बन जाएगा। इस प्रकार से तो तुम्हारे कथनानुसार परमात्मा भी अज्ञानी हो जाएगा। जबकि परमात्मा तो ज्ञानियों का भी ज्ञानी है। परमात्मा हर प्रकार से पूर्ण है। खेल तो अपूर्ण खेला करता है।
देखो, महान मुनिवरों! हममें अपूर्णता है। हममें सीमितता है। इस काल कोठरी में, इस अजिर में, इस शरीर में आए हुए हैं। हमारा ज्ञान सीमित है, हमारा विज्ञान सीमित है, हमारे जो कार्य है, वे भी सीमित है।हमारे नियम भी सीमित है अर्थात हमारे सारे कार्य सीमित है अहा! परमात्मा को देखो, वह पूर्ण है, उसकी विद्या असीमित है। वह महान बुद्धिमान है, वह हर प्रकार से पूर्ण, विद्या में पूर्ण, सृष्टि रचना में पूर्ण, हमारे कर्मों के फल देने में पूर्ण अर्थात् वह परमात्मा हर प्रकार से पूर्ण है। इसलिए परमात्मा कदापि खेल नहीं बनाता। इसलिए हमको मान लेना चाहिए कि परमात्मा हमारे लिए सृष्टि को उत्पन्न करता है और हम उसमें कर्म करने के लिए उद्यत हो रहे है।
महानन्द जी बार बार कहा करते हैं कि आजकल के सभी आचार्य मानते हैं, कि आत्मा और परमात्मा एक ही पदार्थ हैं। आप इसको ऐसा मान रहे हैं। पर मुनिवरों! यह हमारा ही व्याख्यान नहीं, यह हमारा ही आदेश नहीं। हम तो इस काल को, इस समय को,इस महान समय को बहुत समय से देखते चले आ रहे है। अहा! हमने तो यह विचार दार्शनिकों से पाया है। मुनिवरों! आदि दार्शनिकों का यही सिद्धान्त है, यही मानते चले आए हैं। बेटा! जो इससे भिन्न मानेगा, वह एक दूसरे को दोषी बनाएगा।
पूज्य महानन्द जीः आतो गुरुजी! आधुनिक काल में ऐसा मानते हैं, कि आत्मा परमात्मा एक ही पदार्थ है। आपने तो इनको भिन्नता दे दी है। भगवन्! एक नहीं, आधुनिक काल के तो बहुत से, कुछ ऐसा ही कहते है। आधुनिक काल के ही नहीं, महर्षि व्यास मुनि जी ने भी ऐसा ही कहा है कि यह आत्मा ही परमात्मा बन जाता है। जब यह आत्मा परिश्रम करके अपने को पालेता है तो अपने को पाना ही ब्रह्म को पाना है। यह अपने आप ब्रह्म है। और कोई ब्रह्म नहीं है और न कोई कुछ है।आ
पूज्यपाद गुरुदेवः “तो महानन्द जी! यह महर्षि व्यास मुनि ने कहा है क्या?”
पूज्य महानन्द जीः “हाँ! भगवन्! ऐसा ही कहते हैं।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अरे, कहते है या तुम मान रहे हो ऐसा? कौन कहता है? तुम्ही तो उच्चारण कर रहे हो या और कोई कह रहा है?”
पूज्य महानन्द जीः “नही भगवन्! आधुनिक काल के ब्रह्मवेत्ता और ब्रह्मनिष्ठ ऐसा माना करते हैं।“
पूज्यपाद गुरुदेवः तो महानन्द जी! इससे तो हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है,कि जैसे तुम भी ब्रह्मनिष्ठ बन गए।
पूज्य महानन्द जीः “नहीं, भगवन्! हम तो ब्रह्मनिष्ठ नहीं बन रहे हैं। हमारा तो केवल आपसे एक प्रश्न है।“
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा, महानन्द जी! इसका तो संक्षेप में उत्तर यह है कि महर्षि व्यास मुनि ने ऐसा नहीं माना। महर्षि व्यास मुनि ने तो ऐसा माना है और वेदान्त में अपनी बहुत कुछ बुद्धि के द्वारा जाना और विज्ञान के द्वारा भी उन्होंने जाना और उन्होंने आध्यात्मिक विज्ञान पर बल दिया, बेटा! जो हमने महर्षि व्यास के वचनों को पाया और उन्होंने ऐसा कहा है कि यह आत्मा अपने को जब पा लेता है, तो अपने को पा करके परब्रह्म को पा लेता है, और परब्रह्म को पा करके यह आत्मा ब्रह्म बन जाता है। बेटा! तो हम तुम्हारे वाक्यों को सत्य मानें या व्यास मुनि के?
पूज्य महानन्द जीः गुरु जी! जिसकी आप कल भी व्याख्या कर रहे थे “,कि महाराजा कृष्ण ने भी अर्जुन को बार बार ऐसा कहा है कि तुम  मुझे पाओ, और मेरे अर्पण कर दो और मुझे जो पा लेता है, वह मेरे में ही रमण कर जाता है। तो यह कैसे? और आपने कल भी इसकी व्याख्या की और व्यास मुनि के वाक्यों को तो ऐसा कहते हैं, तो महाराजा कृष्ण के वाक्यों को क्या कहेंगे?”
पूज्यपाद गुरुदेवः” महानन्द जी! बेटा! तुम इस वार्त्ता को जान तो पाते नहीं, वैसे ही प्रश्न कर देते हो।“ महाराजा कृष्ण ने अर्जुन से कई स्थान में कहा है “कि हे अर्जुन! अपने जन्म जन्मान्तरों की बहुत-सी वार्त्ताओं को मैं जानता हूँ और तू नहीं जानता। बेटा! यह तो तुम जान गए होगे। हमारे कथनानुसार भी और हमारी स्थिति को जान करके भी तुम्हें यह जानना ही होगा कि ये जन्म जन्मान्तरों के संस्कार मानव को कहाँ तक ले जाते है।“ तो महानन्द जी! इससे हमें ज्ञात होगा, कि महाराजा कृष्ण ने केवल एक ही गान गाया, जो हम कल उच्चारण कर रहे थे। गान तो हमने गाकर वर्णन नहीं किया, पर उन्होंने यही गान गाया कि देखो, “मैं जानता हूँ और तू नहीं जानता, यह आत्मा अमर है, अखिल है, विभु (है।
पूज्यपाद गुरुदेवः देखो! यह परमात्मा महान है, यह न कदापि जन्मता है और न कदापि नष्ट होता है। देखो, यह भी है, तू मेरे अर्पण कर।
शिष्य के अज्ञान की समाप्ति
 तो मुनिवरों! देखो! यह यहाँ गुरु शिष्य का भाव आ जाता है। जब गुरु को शिष्य का अज्ञान समाप्त करना होता है, अज्ञान नष्ट करना होता है, तो ज्ञानी गुरु अज्ञानी शिष्य से कहता है कि “हे अज्ञानी! तेरे में जो अज्ञानता है, वह मुझे दे, उसे तू मुझे अर्पण कर दे, और हर प्रकार से तू मुझे ही मान और जब तू मुझे मान जाएगा और अच्छी प्रकार जान जाएगा मुनिवरों !देखो, जब तू ज्ञानी को अच्छी प्रकार जानेगा, तो उस समय ज्ञानियों के भी ज्ञानी उस पूर्ण ज्ञानी परमात्मा को पा करके महान ज्ञानी बन जाएगा। तो बेटा! ऐसा उन्होंने कहा है। तो हम क्या कहें? बेटा! हम तुम्हारे वाक्यों को क्या कहें? हमारा यह आदेश है, हमने यह पाया है और यही सुना है, वही तुम्हारे समक्ष नियुक्त कर दिया है।
बेटा! आगे जो तुम्हारी इच्छा हो वह मानते रहो, इसमें हमारी कोई हानि नहीं है।
नास्तिकता से पतन
पूज्य महानन्द जीः गुरुजी! इसमें हानि का तो कोई प्रश्न ही नहीं आता, भगवन्! हम परमात्मा को नहीं मानें तो भी इसमें हमारी क्या हानि होती है। हि हि हि हास्य.....
पूज्यपाद गुरुदेवः हाँ! यह तो तुम्हारा वाक्य सत्य है। यदि तुम परमात्मा को न मानो तभी तुम्हारी क्या हानि है? बेटा! इसमें तो बहुत बड़ी हानि हो जाएगी।
पूज्य महानन्द जीः भगवन्! क्या हानि हो जाएगी?
पूज्यपाद गुरुदेवः हानि यह हो जाएगी कि जो इतने बड़े ज्ञानी को नहीं मानता, जो इतने बड़े पूर्ण ज्ञानी को नहीं मानता, जिसने हमारे शरीर को बनाया, जिसने हमें नाना प्रकार के आहार करने के पदार्थ दिए, जिसने तत्त्व दिए है, आज यदि हम उस प्रभु का आदर नहीं करेंगे या उसको नहीं मानेंगे, तो बेटा! हम-सा धूर्त संसार में कौन होगा? महानन्द जी! इस लिए तुम में धूर्तता आ जाएगी, और तुम अपने को खो बैठोगे और तुम्हारा सभी ज्ञान समाप्त हो जाएगा।
प्रभु विश्वास से लाभ
पूज्य महानन्द जीः गुरुजी! यदि हम परमात्मा को मानेंगे तो हमारा ज्ञान सुरक्षित रहेगा? यदि परमात्मा को न मानेंगे तो हमारा ज्ञान समाप्त हो जाएगा? हि हि हि हास्य.....
पूज्यपाद गुरुदेवः “हाँ बेटा! हमारा तो ऐसा ही निर्णय किया गया है।“
पूज्य महानन्द जीः “तो जो आप निर्णय कर दें, क्या वही सत्य हो सकता है?”
पूज्यपाद गुरुदेवः अरे, इसका यह अभिप्राय तो नहीं, जो तुम उच्चारण कर रहे हो। हम जो उच्चारण में, निर्णय दे देते है वह सत्यता पर आधारित है। भाई! देखों परमात्मा को मानने से हमारी आत्मा में बल आता है। देखो, किसी बली को प्रसन्न करने से, किसी बली के गुणगान से, आ जाने से हममें बल आता है। किसी दुर्बल मनुष्य को या किसी हीन मानव को प्रसन्न करेंगे और उसके गुण अपने में धारण करोगे तो बेटा! हममें दुर्बलता आएगी और जोज्ञानियों के ज्ञानी को, उसके ज्ञान को अपने में धारण करोगे, तो हममें ज्ञान आता चला जाएगा। हम महान से महान बन सकते है। यह तो तुम मानते हो, कि जो जिसके निकट आ जाता है, उसके परमाणु उसमें आ जाते है। उसके जितने परमाणु आते जाएंगे, उनकी उन जैसी और उतनी प्रकृति भी बनती चली जाएगी।
बेटा! देखो, इसलिए जब यह आत्मा परमात्मा के निकट जाने वाला बन जाता है, जितने निकट जाता रहता है, उतना परमात्मा की परिधि में घूम-घूम करके कार्य करने लगता है, जितना उसके निकट जाता है, उतना ही प्रभु से हर प्रकार से ज्ञानी बन जाता है। यह तो तुम मानते हो। बेटा! ओर यदि इसको भी नहीं मानते, तो तुम्हें यह तो मानना पड़ेगा, कि परमात्मा ऐसा महान है, ऐसा देवों का देव है, जो प्रभु हमें सभी कुछ पदार्थ देकर के हमारे जीवन को चला रहा है। यदि हम उनको न मानें  तो बेटा! हमारी हानि ही हानि है। हि हि हि हास्य.....
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! आपकी तो वही बात है कि जो हम कहते है, वही सत्य है।
पूज्यपाद गुरुदेवः “अरे, फिर वही बात। अरे, यह तो हम नहीं कह रहे भाई! हमने तो जो पाया, आचार्यों से जो सुना और जो वेदों में खोज कर पाया, वह तुम्हारे समक्ष नियुक्त कर रहे हैं, और जो कुछ अनुभव भी किया है”
पूज्य महानन्द जीः “तो गुरु जी! किसी का अनुभव आपसे उच्च भी तो हो सकता है?”
पूज्यपाद गुरुदेवः “हाँ,हाँ,  अवश्य हो सकता है। हमसे तो बेटा! तुम्हारा अनुभव भी ऊँचा है। इसमें क्या संकोच की बात है। हमारे से तो सभी का अनुभव उच्च है। हमने तो जो खोजा है, वह तुम्हारे समक्ष नियुक्त कर दिया। अब यह तुम्हारी महत्ता है, यह तुम्हारा विचार, इसे मानो या न मानो। यह तो तुम्हारी बुद्धि की अनुकूलता है, जो तुम्हारी बुद्धि स्वीकार करले तो मान लो, इसमें किसी की कोई हानि नहीं है। सत्य के उच्चारण करे में और सत्य को मानने में किसी को कोई हानि होती ही नहीं”।
पूज्य महानन्द जीः “चलो, भगवन्!।“
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! अभी- अभी हम महानन्द जी के बहुत से प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे। अभी-अभी हमारा व्याख्यान चल रहा था, कि परमात्मा को न मानने से हमारी हानि ही हानि है और परमात्मा को मानने से हम में बल आता है, विद्या आती है, हम श्रद्धालु बन जाते है। हम उस परमात्मा की गोद में चले जाते है जो परमात्मा हमारा हर प्रकार से लालन पालन कर रहा है।
तो मुनिवरों! परमात्मा ने इस संसार को हमारे लिए ही बनाया है। हम इस में अपना कर्म करने के लिए उदित हुए है।
 सृष्टि के आरम्भ होने से पूर्व यह आत्मा परमात्मा से कहता है कि हे परमात्मन! हमारे लिए सृष्टि का आरम्भ करो, हम इस संसार में आना चाहते है, हमें पूर्व की भांति, उत्पन्न करो। हमारे जो शेष कर्म हैं हम उनको किसी न किसी प्रकार पूर्ण करें।
तो मुनिवरों! उस समय परमात्मा हमारे लिए सृष्टि का प्रारम्भ कर देता है।
सृष्टि तथा जीव के जीवन की निश्चित अवधि
 अहा! मुनिवरों! देखो, परमात्मा ने अवधि बनाई है, कि इतने समय तक रात्रि रहेगीऔर इतने समय तक दिवस रहेगा। मुनिवरों!जिस समय संसार को उत्पन्न करते हैं, दिवस आ जाता है। परमात्मा के बनाए हुए संसार में नित्य परिवर्तन आता रहता है। जो सूर्य का प्रकाश करोड़ों वर्ष पूर्व था, वह अब नहीं और जो अब है, वह करोड़ों वर्ष पश्चात् नहीं रहेगा। बेटा! एक समय वह आएगा कि चन्द्रमा में ज्योति नहीं रहेगी। एक समय वह आएगा, कि वायु में प्राण सत्ता और पृथ्वी में गन्ध नहीं रहेगी। परन्तु जिस समय ऐसी स्थिति आ जाएगी, उस समय प्रलय काल बन जाएगा। इसी प्रकार से यह अवधि परमात्मा ने नियुक्त की है इसी प्रकार से  हमारे शरीर की भी एक अवधि निश्चित की है।
अतः आज हमें मान लेना चाहिए, कि परमात्मा ने इस संसार क्षेत्र में कर्म करने के लिए हमें भेजा है। मुनिवरों! आज का हमारा यह आदेश है।
अच्छा, महानन्द जी अभी-अभी प्रश्न करेंगे, कि परमात्मा ने जो इस संसार को इस प्रकार की चेतनता दी है, तो परमात्मा की चेतनता परमात्मा क्यों ले लेते है?
चलो, इसका आप ही उत्तर दिए देते है। परमात्मा ने एक समय जब अव्यक्त प्रकृति को महतत्व दिया, प्राण दिए, क्रिया दी, तन्मात्राएं दी, मानो यह सब पंच भूत बने, हमारा शरीर बना। परमात्मा ने इस प्रकार यह क्यों किया? ऐसा रचकर फिर इसको प्रलय कर देता है। नित्य प्रति परमात्मा ऐसा क्यों करता है?
महानन्द जी! देखो, यह प्रश्न विचारणीय है। इस दार्शनिक प्रश्न का उत्तर यह है कि परमात्मा ने सबकी अवधि बनाई है। उसी के अनुसार हमें सौ वर्ष की अवस्था वाला जीवन दान किया है। यह जीवन श्वासों पर बनाया गया है। योगाभ्यास से चार सौ वर्ष या इससे भी अधिक आयु हो सकती है। मुनिवरों! योगाभ्यास के द्वारा अपने सूक्ष्म, कारण और स्थूल सब शरीरों को जाने वाले बने जाएंगे, तब भी हमारे शरीर की अवधि है। ऐसे ही परमात्मा ने सूर्य को सविता सत्ता, चन्द्रमा को कान्ति, वायु को प्राण रूपी सत्ता, अग्नि को अवधारणा, वैश्वानरत्व (पाचकत्व शक्ति) वरुण को सत्ता, प्राण सत्ता निश्चित अवधि के लिए दी हैं। समय व्यतीत होने पर यह सब चर अचर जगत  परमात्मा के गर्भ में चला जाएगा, उस समय यह जड़ प्रकृति अव्यक्त रूप होकर अन्तरिक्ष में रमण कर जाएगी। ये प्राण, परमात्मा के गर्भ में चले जाएंगे।
पर अब यह विचार आता है, कि जिसके गर्भ अन्तरिक्ष में अव्यक्त रूप होकर प्रकृति एवं प्राण समा जाते है वह परमात्मा कहाँ बैठा हुआ है? आज समय नहीं है। इस प्रश्न का उत्तर हम कल देंगे।
पूज्य महानन्द जीः “हाँ भगवन! जब गूढ़ विषय का समय आता है, तब आप ऐसा ही कह देते है, समय कल के लिए नियुक्त कर दिया जाता है हास्य.....
म्हनन्द जी तुम तो किसी काल मेन बहुत ही उत्तम वार्ता उच्चारण कर देते हो हास्य..... जो हमे भी मनमंता हास्य....आ जाती है . हास्य..... अच्छा कृपा कीजिए।
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! महानन्द जी के नवीन विचारणीय विषय पर कल महान दार्शनिक विचार तुम्हारे समक्ष नियुक्त करेंगे। अच्छा मुनिवरों! प्रलय में यह आत्मा कहाँ चला जाता है? इस विषय को भी कल ही कहेंगे।
सृष्टि की अवधि आज तो हमारा प्रसंग चल रहा था, कि क्या परमात्मा ने अवधि बनाई है? अपनी अवधि पर ही क्या यह संसार समाप्त हो जाता है? क्या अपनी अवधि पर यह संसार उत्पन्न हो जाता है? इसमें क्रिया आ जाती है। आत्मा अपने समय पर कर्मों के अनुकूल कर्म करने के लिए नियुक्त हो जाता है। मुनिवरों! देखो, यह बहुत गूढ़ विषय हैं। कल का हमारा व्याख्यान इससे भी गूढ़ हो जाएगा।
अहा! अभी-अभी हमारा क्या व्याख्यान चल रहा था? विषय था, कि परमात्मा ने इस संसार को क्यों बनाया? किस लिए बनाया? किसके लिए बनाया?
मुनिवरों! यह संसार हम आत्माओं के लिए बनाया है, आत्मा को कर्म करने के लिए बनाया है।
यदि हम संसार क्षेत्र में आ करके, परमात्मा की बनाई हुई सृष्टि में आ करके, अच्छे कर्म नहीं करेंगे तो हमसा धूर्त कोई न होगा। इमसे बड़ा मूर्ख, हमसे बड़ा अज्ञानी कोई न होगा। इसलिए बेटा! हमारे व्याख्यानों का अभिप्राय यह है कि मानव को इस संसार क्षेत्र में आकर अच्छा कर्म करना चाहिए।
हमारे समक्ष दो प्रकार के कर्म हैं। एक आध्यात्मिक, दूसरा भौतिक, इन दोनों प्रकार के कर्मों को करना चाहिए।
पर आज का मानव तो गृहस्थ के महत्त्व को मानकर केवल भौतिक कर्मों में ही लीन हो रहा है। आध्यात्मिक कर्मों को त्यागता जा रहा है। पर हमारे कहने का यह अर्थ भी नहीं कि भौतिक उन्नति न की जाए, या उदर पूर्ति न की जाए।
आत्मा का भोजन
 हम तो कहते है, कि जब आज का मानव प्रातः समय से सायं समय तक उदर पूर्ति का प्रयत्न करता है तो जो आत्मा तुम्हारे शरीर में विराजमान है उसके भोजन का भी प्रबन्ध करो। उसका भोजन सत्संग करना है, उसका भोजन वेद के वाक्यों को पाना) है, उसका भोजन उस परमात्मा का विचार करना है। यही परमात्मा को भी भोजन देना है।
मुनिवरों! जैसे आज का मानव अपने उदर की पूर्ति करने का प्रयत्न करता है, वैसे ही आत्मा को भोजन देने का प्रयत्न करें।
 आत्मा का भोजन ज्ञान है। हमारा यह आज का आदेश है।
हमें भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार का कर्म करना चाहिए,तभी हमारे जीवन का विकास बहुत सूक्ष्म समय में हो पाएगा।
प्रश्न होता है, कि यह सम्भव कैसे है, कि उदर पूर्ति भी कर लेवें और आध्यात्मिक विज्ञान को भी पालें? यह दो प्रकार की स्थिति हम कैसे पा लें?
मुनिवरों! इस जीवन के भाग बना करके, संसार में चलो। देखो, एक अलंकार हमारे कंठ आ गया।
मुनिवरों! एक वैश्य कृषक था। वैश्य कृषि किया करते थे। बसन्त ऋतु में उस कृषक की कृषि लहलहा उठी। उस कृषक के क्षेत्र की ओर एक क्षत्रिय, एक ब्राह्मण और एक दरिद्र तीनों आ निकले। उन्होंने परिपक्व कृषि को देखकर उसी में से तीनों ने खाना आरम्भ कर दिया। उसी समय कृषक भी पहुंचा। उसने तीन व्यक्तियों को देखकर सोचा, कि अब क्या करना चाहिए? क्योंकि ये तो तीन हैं और मैं अकेला हूँ। अब बुद्धि से विचार कर कार्य करना चाहिए। उसने उस समय ब्राह्मण के चरणों को स्पर्श किया, और कहा कि महाराज! आप तो हमारे हर प्रकार से पूज्य है, आप तो देवता है। आप तो ब्रह्म को जानने वाले हैं। ऐसी प्रशंसा करके क्षत्रिय से कहा महाराज! आप तो हमारी रक्षा करने वाले हैं, हर प्रकार रक्षा करते हैं, आप तो हमारे राजाधिराज  हैं। उसकी प्रशंसा करके कहा कि महाराज! यह आपके साथ शूद्र कौन है?
उस समय ब्राह्मण ने कहा भाई! हमने तो इससे कहा था कि तू हमारे संग ने चल। तब उन दोनों ने उसको त्याग दिया। तब उस कृषक ने उस पर आक्रमण करके उसको भगा दिया। फिर वह ब्राह्मण के समक्ष पहुंचा। ब्राह्मण से कहा कि आप तो हमारे देवता है पर देखिए तो यह क्षत्रिय हमें बड़े बड़े कष्ट देता है। यह आपके समक्ष क्यों आ गया? अब ब्राह्मण ने सोचा कि “भाई! तुम्हें तो यह दक्षिणा भी देगा, तो अब क्या करना चाहिए।“ ब्राह्मण ने कहा भाई ! मैंने तो मना किया था, तुम हमारे संग न चलो” इत्यादि। तब उस कृषक ने क्षत्रिय पर भी आक्रमण कर दिया। आक्रमण के कारण क्षत्रिय भी वहाँ से चला गया।
अब केवल ब्राह्मण जी रह गए। उनको भी कृषक ने कहा कि जब आप द्वार पर आते हैं, न जाने क्या क्या पाप, भय दिखाकर अपना भाग आवश्यकता से भी अधिक अनुचित रूप से लेकर ही पिंड छोड़ते हो । इसलिए हम तो आप पर भी आक्रमण करेंगे। यह कह कर ब्राह्मण पर भी आक्रमण कर दिया। वहाँ से ब्राह्मण भी भाग गया।
मुनिवरों! इन वाक्यों का क्या अभिप्राय है? मानव को अपने जीवन के भाग बना देने चाहिए।हमारे जीवन के तीन भाग है  बुद्धि से कार्य करो। यदि वैश्य बुद्धि से कार्य न करता, तो वे तीन ही उसको समाप्त कर देते। यदि अपने जीवन को सुखी बनाना है, तो अपने जीवन के विभाग कर देने चाहिएं। कैसे विभाग?
मुनिवरों! एक महान् राजा मंत्रियों सहित भ्रमण कर रहे थे। उन्होंने वन से समिधाएं लाकर गृहस्थियों के गृहों पर पहुंचाने वाले एक दरिद्र व्यक्ति को देखा,जो कि मार्ग में मग्न भाव से उच्च स्वरों से साथ गान गा रहा था। वह ऐसा गान गा रहा था, कि जैसे ऋषिजन वेदों का घन पाठ में गायन करते हों। उसके गायन पर तो पक्षीगण भी मुग्ध हो रहे थे।
उस समय राजा ने मन्त्रियों से कहा, अरे भाई! यह क्या है? यह कैसा मुग्ध हुआ गान गा रहा है? यह कितना सुखी होगा? जैसा कि हमने कल उच्चारण किया था, कि ऐसा गान तो पवित्र मन वाला व्यक्ति ही गाता है,और वही गा सकता है कि जो सुखी होता है। जो सुखी नहीं, जो कलह में मग्न हो वह ऐसा गान कदापि नहीं गा सकता।
तो मुनिवरों! राजा ने उससे कहा, कि अरे भाई! तुम तो बड़ा सुन्दर गान गा रहे हो? उसने उत्तर दिया कि गान गाना मेरा कर्त्तव्य है, इसलिए मैं गा रहा हूँ।
अरे, तुझे ऐसी क्या मस्ती है? उसने कहा -कि “मुझे इतनी मस्ती है, कि इतनी मस्ती तो राजा को भी कदापि नहीं हो सकती।“
राजा ने पूछा, भाई! यह क्या बात है? उस समय गायक ने कहा कि महाराज! देखो, मैं द्रव्य कमाता हूँ। जो द्रव्य मैं प्रातःकाल से सायंकाल तक कमाता हूँ, उसके चार भाग बना देता हूँ। उसमें से एक भाग तो उनको देता हूँ, जिनसे मैने लिया हुआ है। दूसरा भाग उनको देता हूँ, जिनसे आगे चल कर, मेरे कार्य में सहायता मिलेगी या जो इस लोक और परलोक दोनों में मिलेगा। तृतीय भाग दूसरों को देता हूँ और चतुर्थ भाग अपने लिए रख लेता हूँ। अर्थात् अपने  पर व्यय करता हूँ।  इस चतुर्थ भाग में मैं और मेरी पत्नी आनन्द मनाते हैं।
राजा ने कहा कि भाई! यह चार भाग अपने द्रव्य के कैसे बनाते हो? वे कैसे कैसे व्यय होते है?
उस समय उसने कहा कि महाराज! मैं दिन भर में जितना भी कमाता हूँ, उसके चार भाग कर देता हूँ। एक भाग तो मैं उन्हें देता हूँ जिनसे मैने लिया है। वे कौन है? वे मेरे माता पिता हैं। जिन्होंने मेरी पालना की, मेरी माता ने मुझे गर्भस्थल में धारण किया, मुझे योग्य बनाया, मुझको पालकर उच्च बनाया। मैं उनको एक भाग देता हूँ।
दूसरा भाग वेदों के विद्वान, वेदों का प्रचार करने वाले विद्वान, सदाचारी ब्राह्मणों, अतिथियों और महान योगियों की सेवा में लगा देता हूँ और  उनको दान कर देता हूँ। यह द्रव्य मुझको परलोक में प्राप्त हो जाएगा।
तीसरा भाग मैं संसार के व्यक्तियों को देता हूँ। जब मुझको अधिक द्रव्य की आवश्यकता पड़ती है तब मैं उसे ले लेता हूँ। चतुर्थ भाग में, मैं और मेरी पत्नी दोनों आनन्द से रहते है। तब मैं इतना सुखी हूँ। इसी कारण मैं इस प्रकार का गान गा रहा हूँ। यदि मैं सुखी न होता, तो आज मार्ग में ऐसा गान कदापि न गा सकता।
तो मुनिवरों! इसलिए मानव को अपने जीवन के चार भाग बना देने चाहिए। तभी हम दोनों आध्यात्मिक और भौतिक कार्य कर सकते है। देखो, आध्यात्मिक विज्ञान भी पा सकते है और भौतिक विज्ञान भी पा सकते हैं। दोनों विज्ञान पाने वाले तभी बनेंगे, जब बुद्धि से कार्य करेंगे। जब नष्ट करने वाले अनिष्ट कार्य करेंगे तो वास्तव में हमारा ही जीवन समाप्त हो जाएगा। हम इस संसार में आकर कोई भी लाभ प्राप्त न कर सकेंगे। इसलिए बेटा! यह आज का हमारा आदेश हे।
पूज्य महानन्द जीः “धन्य हो भगवन्!”
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मुनिवरों! आज हमारा व्याख्यान क्या चल रहा था, कि मानव के लिए, आत्मा के लिए, ही परमात्मा ने संसार को बनाया है। यह मानव को अच्छी प्रकार से जान लेना चाहिए। इसमें आ करके दोनों प्रकार के विज्ञान को पाते चले जाएं, तभी हमारा जीवन उच्च बनेगा, अन्यथा हमारे जीवन को उच्च बनाने को कोई साधन नहीं।
मुनिवरों! मानव का वही गान होता है, जो महाराजा कृष्ण ने महाराजा अर्जुन के समक्ष गया था। जिससे महाराजा अर्जुन का इतना बड़ा अज्ञान समाप्त हो गया था। वास्तव में मुनिवरों! गायन होना भी ऐसा ही चाहिए। कल हमने इसी विषय में उच्चारण किया था। अब हमारा आदेश समय की समाप्ति के साथ समाप्त हो रहा है।
तो मुनिवरों! कल समय मिलेगा तो शेष उक्त विषय पर प्रकाश डालेंगे। अब हमारा आदेश समाप्त हुआ  कल इससे आगे उच्चारण किया जाएगा अब हमारा वेदों का गान होगा हमारा वेद पाठ होगा
 आज हमारे व्याख्यान का अभिप्राय यह है, कि हमें परमात्मा को पाना है, परमात्मा को किस स्थिति में पाना है? हम परब्रह्म को पाकर ब्रह्म बन जाते हैं।
हमारे जो मनु आदि आचार्यों ने कहा है कि ब्रह्म रात्रि और ब्रह्म दिवस इतने समय का क्यों है? ब्रह्मा का एक दिवस एक कल्प का क्यों होता है? इसका भी कल संक्षेप में वर्णन करेंगे। धन्यवाद,   कल हम महानन्द जी के कुछ  प्रश्नों का उत्तर भी देंगे। अब व्याख्यान समाप्त हो गया है। अब वेदों का पाठ होगा और इसके पश्चात् वार्त्ता समाप्त हो जाएगी। वेद पाठ लोदी रोड, नई दिल्ली

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