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०४ ०४ १९६२ माता निर्माता
भवति
जीते रहो,
देखो, मुनिवरों! अभी-अभी
हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ|हम तुम्हारे समक्ष वेदों का
मनोहर गान गा रहे थे। वास्तव में जब वेदों को गान गाया करते है, तो ऐसी मनोइच्छा होती है, कि गान गाते ही चले जाएं।
यह ऐसा मनोहर पाठ है, जिससे मानव के हृदय में एक महानता आ
जाती है, और एक ज्योति प्रविष्ट होकर हृदय को आनन्दित कर
देती है।
जीव की उच्चता
आज हम उस महान प्रभु का गुणगान कर रहे थे जो
विधाता हमारे जीवन का हर समय साथी बना रहता है और वह बना ही रहेगा। उस प्रभु की
लीला आज हमें प्रत्यक्ष हो रही है और मानव के लिए विचारणीय है कि जब तक वह अपने
जीवन को उच्च नहीं बनाएगा, तब तक वह दूसरे मानव को कदापि
नहीं जान जाएगा। जैसे वेद का कथन है कि हे मानव! जब तक तू अपने को नहीं जानेगा, और जब तक अपने महत्व और मानवता को भली प्रकार नहीं समझेगा, तब तक वह मानवता की कोई जानकारी नहीं कर सकता। क्योंकि मानव जीवन मनोहर
होता है ,परन्तु मनोहर जीवन बनाने के लिए मानव को सुन्दर
योजना बनाने कि आवश्यकता है और जो मानव सुन्दर योजना नही बनाता, उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है।
जैसा कि हम कल के व्याख्यान में कह रहे थे कि
मानव को हर पकार से ऊँचा बनना चाहिए। जैसे, हमारे आज के वेद-गान
में माताओं के सम्बन्ध में बहुत सुन्दर रूप से कहा है कि जो माता अपने पुत्रों को
योग्य बना देती है, आत्मा को माता के गर्भाशय में जो महानता
और शिक्षा प्राप्त हो जाती है वह सर्वांग जीवन भर में मानव प्राप्त नही कर सकता।
दूसरे को जानने का सूत्र
महानन्द
जी से हमें प्रतीत होता है,कि आज का समाज कैसा बनता चला जा
रहा है| आज का समाज ऐसा बनता चला जा रहा है कि मानव में
आस्था का अंकुर न रहा, परन्तु अपने में बहुत उच्चता जान के
अपने को बहुत ऊँचा मानने लगा है। आज का समाज या मानव तो ऐसा बन रहा है| परन्तु हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं, हमें तो अपना
कार्य करना है। जिस परमात्मा की आज्ञा का पालन करना हमारा कर्त्तव्य है, हमें संसार की त्रुटियों पर दृष्टि नहीं रखनी। यदि आज हम महानन्द जी के कथनानुसार,
महानन्द जी के आदेशानुकूल, यदि संसार की
त्रुटियों पर दृष्टि रखते हुए मानव बनाएँ रखें, तो वह स्वयं त्रुटिदायक बन जाता है | ऐसा वेदमन्त्र, आदि ऋषि और विद्वानों ने कहा है।
परन्तु आज मानव की समस्या हमारे सामने आती है कि दूसरों की त्रुटि को न देखेंगे, तो संसार की जानकारी कैसे हो जाएगी। उसका उत्तर यह है कि जो किसी मानव की
संसार में जानकारी करना चाहता है तो पूर्व “आत्मनाहम” अपनी जानकारी करे, इसके पश्चात् जिसकी जानकारी मानव चाहता है, स्वयं
हो जाती है। वेदमन्त्र तो यह कहता है कि जो मानव दूसरों को जानना चाहता है, वह अपने को जान ले। अपने को क्या? मानव को क्या?
संसार को जान जाओगे।
यह जो परमात्मा ने हमारा शरीर बनाया है ऐसा
बनाया है- जैसे यह ब्रह्माण्ड है। इसमें सभी तत्त्व है, सभी
पदार्थ है। सूक्ष्म महाभूत भी है, देखो ,वह अग्नि भी है, स्वर्ण जैसा हमारा यह शरीर है,
यह हमारा दूसरा पिंड भी इसी प्रकार बनाया है प्रभु ने। जब हम अपने पिंड
को अच्छी प्रकार जान लेते है तो यह जो परमात्मा का बनाया हुआ ब्रह्माण्ड हमें
प्रतीत हो रहा है। बेटा! हमारे समक्ष एक,मन ऐसा पदार्थ है, जो केवल इसकी जानकारी कर लेता है, अन्तःकरण को
शुद्ध बना लें, तो यह महान अन्तःकरण ऐसा है कि यह जो
ब्रह्माण्ड प्रतीत हो रहा है, यह सब हमारे अन्तःकरण में समा
जाएगा।
यह क्यों समा जाएगा? मुनिवरों!इतना
ब्रह्माण्ड तो ऐसा है,ऐसे ही हमारे अन्तःकरण में यह नाना
संसार के दर्पण खीचने वाला, दर्पण आकर्षकण करने वाला मन है।
अन्तःकरण में सबका दर्पण अर्पण कर देता है और देखो, यह जो
सर्वांग ब्रह्माण्ड प्रतीत हो रहा है बेटा!यह सब हमारे अन्तःकरण में विराजमान हो
जाएगा।
तो मुनिवरों! जब जब मानव अपने अन्तःकरण को पवित्र बना लेता है और मन की
जानकारी कर लेता है, मन को अच्छी प्रकार जान लेता है तो वह इस
संसार के मानव की त्रुटि नहीं देखता, वह संसार की त्रुटियों
का समूह बनाता है, जो अपने ज्ञान के द्वारा देख लेता है, वह अपने अन्तःकरण में देख लेता है कि यह मानव क्या करता चला जा रहा है, तो मुनिवरों! वेदमन्त्र में कहा है कि जो मानव दूसरों को जाना चाहता है
या दूसरों की क्रियाओं,अनुमति को जानना चाहता है, वह अपने को जान ले, उसकी स्वयं पहचान हो जाएगी।
परन्तु बेटा !जिस मानव ने अपने को नहीं जाना, भली प्रकार
नहीं पहचाना और वह संसार की वार्त्ता करता चला जा रहा है, बेटा!उसकी
वह वार्त्ता न होने के तुल्य है।
याचना
अच्छा, आज का हमारा वेद-पाठ
क्या कह रहा था? हम व्याख्यान करते हुए कहाँ जा पहुंचे?
आज हम प्रभु से एक मनोहर रूप को पाने जा रहे ,और
हम क्या पाना चाहते थे? हम विधाता से आज के वेद-पाठ में
प्रार्थना कर रहे थे, कि विधाता! हमारे हृदय में, हमारे मस्तिष्क में हमारी जो बुद्धि है उसमें आप कुछ ऐसे सुज्ञान को
प्रविष्ट करें, जो भगवन्! कभी समाप्त न हो| और उस ज्ञान को प्राप्त करके हम इस संसार से पार हो जाएं। हे भगवन्!हम
महान अधोगति मेन कदापि न जाएँ |हे !आप तो हमारे दाता है,
हमारी माता है। हमारी दो प्रकार की माता होती है, एक जननी माता जो भौतिक माता होती है, एक माता आप
हैं। हे भगवन्! जब हम इस लौकिक माता को त्याग देते है, और
आपको माता बना लेते है, आप हमारी दूसरी माता बन जाते हैं,
उस समय भगवन्! हम प्रयत्न करते है, तो एक काल
ऐसा आता है जब माता की गोद सदृश, आपकी गोद में पहुंच कर, जो आनन्द प्राप्त करते ,कि जैसे हमने सर्व ब्रह्माण्ड
को विजय कर लिया हो। और माता, एक जननी माता है, जो गर्भाशय में धारण करती है, जो अपने गर्भ में
धारण कर,हमारा पालन करती है, और हमें
जन्म देकर इस संसार क्षेत्र में नियुक्त कर देती है| कि हे
बेटा ! अब तुम इस संसार में कर्म करो।
माता
तो मुनिवरों! यह हमारी दो माता हैं। वास्तव
में तो हमारी तीन माता हैं। एक पृथ्वी माता है, एक जननी माता
है और तीसरी प्रभु माता है। मुनिवरों! देखो! वह जो प्रभु माता है, जब हम उस माता के आँगन में या माता की ज्ञान-भरी लोरियों में लग जाते है
तो वह इतनी मनोहर लोरियों को देती है, कि हमें वह परमानंद और
माता के उस आँगन में जाकर हमें संसार की
कोई इच्छा नही रहती। परन्तु जब हम जननी माता के गर्भ में होते है और उससे जन्म पाकर पृथक् हो जाते है, तो कभी क्षुधा की इच्छा होती है तो कभी कोई अन्य। परन्तु वह माता,
वेद ऐसा कहता है, कि यदि जननी माता चाहे, तो गर्भाशय में पुत्र को मोक्षद्वार पर ले जा सकती है। परन्तु वह कौन-सी
शिक्षा है, वह कौन-सी महानता है? मुनिवरों!
वेद में कहा है “माता सुमति र्भूयश्चय” वेद ऐसा कह रहा है,
कि माता वह पदार्थ है, जो कि अपने गर्भ में बालक को गायत्री
का जाप स्मरण करा देती है। परन्तु वह कैसे कराती है|
मुनिवरों! हमारे समक्ष तो बहुत से इतिहास के वाक्य हैं, जो
प्रकट करते हैं, कि माता हमें यदि चाहे तो उस स्थान में
पहुंचा दे। परन्तु देखो, मुनिवरों! आज का मानव वह दृष्टि
पाने में असमर्थ है।
हमें महानन्द जी से प्रतीत हो रहा है, कि आज का मानव अपने लिए गड्ढा ढूंढ रहा है। वास्तव में वह उस गड्ढे में
चला जा रहा है। हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है, कि संसार सद्गति
को नही जा रहा, परन्तु उस गड्ढे की ओर अग्रसर हो रहा है ,जो अधोगति का है। महानन्द जी किसी काल में ऐसा व्याख्यान दे देते है जो यह
भाव प्रकट करता है। परन्तु हमारा जो आज का आदेश था वह क्या था , कि यदि माता हमें चाहे, तो उस स्थान में पहुंचा
देती है। मुनिवरों! यह इतिहास तो आपने सुना होगा, जो
वार्त्ताएं,उस काल की वार्त्ताओं को आपके समक्ष प्रकट कर रही
है।
द्वापर काल
मुनिवरों! देखो, महर्षि
पारा मुनि को उनकी धर्मपत्नी उरेखा ने कहा
था कि हे पतिदेव! अब मेरे गर्भ स्थापन हो गया है और अब मेरी यह इच्छा है कि मैं
जिस बालक को जन्म दूँ, उसे गर्भाशय में ऐसी शिक्षा दूं, कि जिससे
वह बालक संसार में अमर हो जाए और हम उस माता उरेखा को देखे, एतदर्थ
उसने क्या किया, महर्षि पारा की आज्ञानुसार माता ने
नित्यप्रति यज्ञ किया, उस महान प्रभु देव की याचना की और हर
समय यह धारणा रहती थी कि हे प्रभु! हे महान माता! मेरा यह गर्भस्थ बालक आपके अर्पण
है, और तेरा स्मरण करने वाला हो, यह
बालक मेरा नहीं, इदन्नमम यह आपका है आप इसको उच्च बनाएं।
तो मुनिवरों!जो माता गर्भ के स्थापन्न होते
ही जिस माता कि यह धारणा होती है कि इदन्नमम प्रभु यह आपका है और आपके ही अर्पण है
तो मुनिवरों ! उस माता के कुछ समय पश्चात्
ऐसा इष्ट बालक उत्पन्न हुआ और ऐसा इष्ट बालक जिन्हें महर्षि व्यास की महानता का पद
प्राप्त हुआ। जब तक विश्व रहेगा, महर्षि व्यास का नाम भी
रहेगा। यह सब माता की महानता है, यह सब माता का दिया हुआ है।
माता जिस समय संसार में आती है उस समय माता की योनि बनती है, जब माता का शरीर बनाया जाता है उस समय प्रभु,
गर्भाशय में अपना उपदेश देता है कि हे माता, तुझे मैंने देवकन्या की योनि प्रदान की है, तू संसार में जा और ऐसा महान बालक उत्पन्न कर जो मेरी बनाई हुई सृष्टि को
पवित्र कर दे, जो मेरी बनाई हुई सृष्टि में स्वर्ग की रचना
के तुल्य सुन्दर बना देवे|और जो मानव उसके सम्पर्क में आए, वही महान् बनता चला जाए।
तो मुनिवरों! यह माता, वह जो माता प्रभु है, जो माताओं की
भी माता है देखिए यह हमारी माताओं को शिक्षा दिया करती है, परन्तु
आज का मानव तो कहाँ जा रहा है। देखो, एक ऐसा काल था जिसमें
एक समय महान दार्शनिक भी विराजमान थे, जिसमें देवर्षि नारद
मुनि, महर्षि कुक्कुट महाराज, सुनिक
मुनि, महाराज वशिष्ठ मुनि, महर्षि
विश्वामित्र, महर्षि पापड़ी मुनि जी इन सबका दार्शनिक समाज
नियुक्त हो रहा था और उस दार्शनिक समाज में यह वार्त्ता हुई। देखो, कैसा तीनों युगों का वर्णन कर रहे है। सतयुग त्रेता, द्वापर।
कलियुग
और जब कलियुग का समय आया, तो देवर्षि महर्षि नारद मगन होकर गाने लगे। उस समय दार्शनिकों ने कहा अरे, भाई! तुम गान क्यों गा रहे हो? वह बोले कि कलियुग
काल ऐसा आएगा, कि जिसमें रसना और उपस्थ इन्दियां रहेंगी और
सब इन्द्रियां ठप्प हो जाएगी व शेष इन्द्रियों के विषय समाप्त हो जाएंगे। यह शब्द
देवर्षि नारद जी ने कहें, यह कैसा दार्शनिक समाज था? परंतु यह क्यों आगे ऐसा काल आएगा,ऐसा आज कल का काल
आएगा कि वे दोनों इसी प्रकार के बन जाएंगे
देखो,
मुनिवरों! हमें आज यह विचार करना है जो महानन्द जी ने कहा है और जो देवर्षि
नारद ने कहा था, वह महानन्द जी से प्रतीत हो रहा हे। प्रत्येक
काल में हर प्रकार के मनुष्य होते है परन्तु किसी में अधिक हैं, किसी स्थान में सूक्ष्म। परन्तु कलियुग का ऐसा समय है, जिसमें अधिक से अधिक बन जाते है। इसको कलियुग इसलिए कि यह कलोंका बना है | दार्शनिक समाज ने तो ऐसा कहा है कि हे नारद !इस काल को कलियुग इसलिए नहीं
कहते, इसका तात्पर्य ही ओर है। उन्होंने कहा कि क्या
तात्पर्य है? पापड़ी मुनि महाराज ने यह निर्णय दिया कि कलियुग
उस काल का नाम है जिस काल में कलों से काम करना आरम्भ हो जाएगा उस काल को कलियुग
कहते है। परन्तु महानन्द तो कहेंगे कि यह तो कई स्थानों में आया है कि कलों से
कार्य है और कलों से कार्य हो रहा है और होता रहेगा| पूर्व
युग में भी होता था ,आज भी हो रहा हैपरन्तु देखो, प्रगतिशील हो रहा है।
हमारा आज व्याख्यान क्या चल रहा था? हम प्रारम्भ कर रहे थे कि वह माता यथार्थ है, जो
हमें ऐसा अच्छा बना देती है और उस योग्य हो जाते हैं। हम व्याख्यान देते-देते बहुत
दूर पहुंच गए। हम कह रहे थे कि संसार क्या बन गया? देखो,
माता की यह विशेषता होती है कि हमें उच्चता को पहुंचा देती है।
मुनिवरों! देखो, हमने द्वापर के काल को देखा और कैसा देखा मुनिवरों!देखो, हम तो बहुत कुछ उच्चारण करने वाले थे |
पितामह की भीष्म प्रतिज्ञा
मुनिवरों!
वह हमारा कल का आदेश था। हम माताओं की विशेषता कह रहे थे, कि
महाराजा शान्तनु का संस्कार मच्छोदरी से
हआ।अच्छा, जब उनका मच्छोदरी से संस्कार हुआ, कौडिल ब्रह्मचारी जिसको गंगेशील कहते थे, वह गंगेशील
महाराज कहाँ जा पहुंचे? मुनिवरों! वह मच्छोदरी के पिता के
समक्ष जा पहुंचे। उनसे कहा भगवन्! आप अपनी कन्या को मेरे पिता को अर्पण कर दीजिए।
मेरे पिता तुम्हारी कन्या से विवाह करना चाहते हैं। उस समय उन्होंने यह कहा कि
कौडिल ब्रह्मचारी, तुम्हारे पिता संस्कार तो कर सकते है, परन्तु देखो, मेरी कन्या की जो सन्तान होगी, वह राज्य की अधिकारी नहीं होगी, इसलिए इस कन्या को
हम कदापि नहीं देंगे। उस समय कौडिल ब्रह्मचारी ने कहा महाराज! मैं आज प्रतिज्ञा कर
रहा हूँ कि मैं संस्कार नहीं कराऊंगा और राज्य को कदापि नहीं भोगूंगा। उस समय उसने
कहा-महाराज! आप नहीं भोगेंगे, तो आपकी जो सन्तान उत्पन्न
होगी? ब्रह्मचारी ने कहा महाराज! आप भी मेरे पिता हैं वह भी
मेरे पिता हैं। मैं सर्वांग जीवन ब्रह्मचारी रहूँगा, संस्कार
नहीं कराऊंगा। उस समय मुनिवरों! कौडिल ब्रह्मचारी ने यह नियम बना लिया, यह प्रतिज्ञा कर ली उस गंगेशील ने, कि संस्कार नहीं
कराऊंगा और न राज्य का अधिकारी बनूंगा, जो तुम्हारी कन्या की
सन्तान होंगी,वही राज्य की स्वामी बनेगी।
तो कुछ समय पश्चात् हमने सुना है देखो, उसने अपनी महान कन्या का संस्कार महाराज शान्तनु के साथ कर दिया। वह
कन्या बड़ी सुन्दर तथा महान थी।मुनिवरों !देखो, कुछ समय के
पश्चात् हमें यह ज्ञात हुआ कि उस महान मच्छोदरी के दो बालक उत्पन्न हुए जो विचित्र
थे। हाँ, जब यह दो विचित्र वीर्य बालक उत्पन्न हो गएं, तो कुछ समय पश्चात् महाराज शान्तनु की मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय राजा
शान्तनु ने अपने तीनों पुत्रों को बुलाकर कहा हे पुत्रों! जो तुमने प्रतिज्ञा की
है, उसे भंग न करना, अब मेरे अन्तिम
सांस चल रहे हैं, जैसी तुम्हारी माता गंगोत्री ने कहा, “जीवन भर ब्रह्मचारी रहना, मेरा गर्भाशय तभी ऊँचा
बनेगा, मेरा राष्ट्र भी तभी ऊँचा बनेगा, मेरा राष्ट्र भी तभी अच्छा बनेगा।“ तो आज मेरी भी यही इच्छा है। सब
पुत्रों को शिक्षा दे करके तब राजा ने अपनी पत्नी मच्छोदरी से कहा “हे पत्नी! इस
समय मेरा मृत्यु काल है, और मैं मृत्यु को प्राप्त हो रहा
हूँ। यह तेरा राष्ट्र है, और ये तेरे पुत्र है। इस राष्ट्र
में जितनी प्रजा है, वह सब तेरे पुत्र समान है। तो मुनिवरों!
यह उच्चारण करके राजा शांतनु मृत्यु को प्राप्त हुए, तो बड़े
आनन्द पूर्वक उनका संस्कार किया गया।
मनसा पाप का निवारण
तब
उस कौडिल ब्रह्मचारी ने विचित्र वीर्य, दोनों को राष्ट्र का
स्वामी बना दिया और वे राज्य का पालन करने लगे। उसके पश्चात् एक ऐसा काल आया, जब उस मधुस्थल में यह कौडिल ब्रह्मचारी, माता मच्छोदरी
को नित्यप्रति शास्त्रोक्त शिक्षा दिया करते थे, तो उस समय
उन दोनों पुत्रों के मन में पाप आया, कि यह हमारी माता कैसी
है, यह कौडिल ब्रह्मचारी इसके समक्ष रहा करता है। जब उनके मन
में यह पाप आया तो एक रात्रि के समय वह गुप्त स्थान में विराजमान हो करके, उस शास्त्रोक्त वार्त्ताओं को सुनने लगे। उस रात्रि के समय ऐसा हुआ कि
माता मच्छोदरी उस वार्त्ता को सुनते सुनते निद्रा में लीन हो गई और उस निद्रा में
उनका पग अपने आसन से नीचे आ गया। उस समय बालक ब्रह्मचारी ने सोचा,
ऐसे तो माता को रात भर बड़ा कष्ट रहेगा और
यदि तुमने भुजाओं को खींच कर ठीक किया तो यह बड़ा भारी पाप होगा| तो सोचने लगे कि क्या करना चाहिए। तो देखिए मुनिवरों! उस ब्रह्मचारी ने अपने मस्तिष्क से
माता के भुजा को खींचकर यथा स्थान नियुक्त किया। दोनों पुत्र चकित हो गए और
उन्होंने कहा, हम तो बड़े पापी हैं। रात समाप्त होने पर कौडिल
ब्रह्मचारी के चरणों से लिपट गए और पूछा, भगवन्! जिससे मनसा
पाप हो जाए तो उसे क्या करना चाहिए? तौ कौडिल ब्रह्मचारी ने
कहा यह वेदोक्त वाणी है कि यदि मानव से मनसा पाप हो जाएं तो उसे अपने को अग्नि में
दहन करना चाहिए, उसमें पाप सहित अपने को समाप्त कर दें। तो
उस समय उन्होंने प्रकट किया कि हमसे मनसा पाप हो गया है और हम अग्नि में प्रविष्ट
होने जा रहे हैं। उस समय कौडिल ब्रह्मचारी ने उपदेश दिया कि अरे, राष्ट्र पुत्रो! यह तुम्हारा कर्तव्य नहीं, अग्नि
भी दो प्रकार की होती है एक भौतिक और दूसरी ज्ञानाग्नि। तुम अग्नि में क्यों
प्रविष्ट हो रहे हो, अपनी ज्ञान रूपी अग्नि में अपने मनसा
पाप को भस्म कर दो। जब यह ज्ञानाग्नि तुम्हारे समक्ष आएगी तो उसको स्पर्श करते ही
और ज्ञानाग्नि में डुबकी लगाने पर देखोगे कि तुम पवित्र हो गए हो। मनसा पाप उससे
भस्म होकर समाप्त हो जाएगा, बुद्धि द्वारा तुम उस ज्ञानाग्नि
को धारण करो।
विचित्र वीर्य
तो
उन दोनों ने ब्रह्मचारी की बातों को स्वीकार कर लिया। राष्ट्र का पालन करने लगे।
यह विचित्र बालक हैं, कुछ समय पश्चात् ,विचित्र वीर्य तो युद्ध में समाप्त हो गए। उनके दोनों पुत्रों में एक का
नाम पाण्डु था और दूसरा धृतराष्ट्र, धृतराष्ट्र नाम का बालक
जो जन्मान्ध था। यह तो मानव का भोग होता है, क्योंकि माताओं
की मधुर आकृति होती है।उसकी बालको की आकृति ,
यह कैसा महान काल था द्वापर का, जिसमें ऐसे ऐसे महान बुद्धिमान राष्ट्र में कौडिल ब्रह्मचारी जैसे विद्वान
जो ज्ञानाग्नि द्वारा अग्नि दहन से रोककर मानसाग्नि की आस्था पर पहुंचाने वाले। उस
समय कौडिल ब्रह्मचारी ने कहा था कि यदि ज्ञानाग्नि हमारे हृदय में प्रवष्टि हो जाए
और उस ज्ञानोदय में यदि मानव, मानव को देखो, तो अज्ञानता का कारण नहीं बनता। अज्ञान का कारण तब होता है, जब मानव सब कुछ भूल जाता है और ज्ञानाग्नि, अज्ञान
के अन्धकार में विलीन हो जाती है। यह आज का हमारा आदेश है,
कि मानव को अपना विचार करना चाहिए, कि वह कहाँ है। अब इस
विषय में महानन्द जी के कुछ प्रश्न होंगे। उनके प्रश्नों का उत्तर भी दिया जाएगा।
आधुनिक काल की भ्रांतियो का निवारण
पूज्य महानन्द जीः गुरुजी! आपने जो अभी अभी
आदेश दिया ,वह तो बहुत सुन्दर था, हमारे
अन्तःकरण को धोने वाला था। परन्तु हम एक यह वार्त्ता स्वीकार नही कर सकते अप सब
बात पुनरुक्ति और रूपान्तरण कर रहे है जैसे इस रूपान्तरण में हमने तो यह सुना है
जैसे आपने कहा की महर्षि पारा मुनि के वाक्य भी नियुक्त कर दिए ,मच्छोदरी को व्यास जी की माता कहा है, और दूसरा
वाक्य आपने सब कुछ सत्य कहा है, आधुनिक काल के अनुकूल भी,
गंगेशील ने जो भी प्रतिज्ञा की, वह भी सत्य
है। आपकी एक और बात हमें मिथ्या प्रतीत हो रही है, और वह यह है कि आपने तो कहा है कि विचित्रवीर्य तो युद्ध में मृत्यु को प्राप्त
हुए और दूसरी बात यह है कि विचित्रवीर्य के दो बालक हुए जो आपने अभी कहा ,परन्तु हमने तो ऐसा सुना है कि भगवन्! विचित्र वीर्य दोनों को, जो मानसिक पाप हो गया था वह जंगल में जा करके अग्नि में भस्म हो गए थे।
जब कोई सन्तान न हुई तो माता मच्छोदरी ने अपने पुत्र व्यास को नियुक्त किया और कहा
कि हमारा तो राष्ट्र ही समाप्त हो रहा है। राज्य को भोगने वाला कोई नहीं, तुम किसी प्रकार से कोई प्रयत्न करो। व्यास मुनि ने कहा कि जो तुम्हारे
दोनों पुत्रों की धर्मपत्नी है, वे नग्न होकर, मेरे समक्ष आ जाएं तो उनके संतान उत्पन्न हो सकती है। तो गुरुदेव हमने
ऐसा सुना है, जब दोनों नग्न होकर व्यास मुनि के समक्ष गई, तो उनकी दृष्टि की ज्योति से एक एक बालक उत्पन्न हुआ। और आपने उसका
रूपान्तर क्यों कर दिया?
अरे, इस मुर्ख की
वार्त्ता को भी स्वीकार करो। महानन्द जी! पूर्व तो आपका यह वाक्य ही व्यर्थ है। और
देखो, तुम्हारे व्याख्यान के अनुकूल, क्या
परमात्मा की कोई मर्यादा नियम आदि हैं कि नहीं? क्या किसी की
नेत्र ज्योति से सन्तान उत्पन्न हो सकती है? इस प्रकार तो
किसी शास्त्रों में नहीं लिखा मिलता।यह तो
बेटा! अवश्य किसी मूर्ख समाज की उपज है, और ऐसी वार्त्ता
वहीं चल सकती है। यदि तुम कहो, कि हम गुरुदेव जी के स्थान
में या इस समाज में , इस युक्ति को नियुक्त करके या अपनी
इच्छा से कार्य चलाएं तो तुम्हारा यह वाक्य यहाँ कोई स्वीकार नहीं करेगा। और बुद्धिमानों
ने ऐसा भिन्न भिन्न स्थानों में कहा है कि सत्य को ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं
होनी चाहिए, जैसा जो शब्द हो, उसको उसी
प्रकार जानना विद्वानों को श्रेय हैं| ऐसा वेद में भी कहा
हैं महर्षि व्यास मुनि तो जीवनभर ब्रह्मचारी रहे, निद्रा
जीतने वाले, आगे चलकर उनका संस्कार हुआ था, उनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ था। वास्तव में वह गृहस्थ आश्रम, प्रवृष्टि का संस्कार है वह गृहस्थ में प्रविष्ट हुए थे, ऐसा तो हमने सुना है, परन्तु यह हमने कभी नहीं
सुना। ऐसा हमने इस काल में कभी नहीं देखा, क्योंकि जिस राजा
का राष्ट्र समाप्त होता चला जा रहा हो, तो ऐसा पाया गया है पर
यहाँ तो ऐसा हुआ ही नहीं।
हमारा व्याख्यान चल रहा था कि उनके दो बालक
उत्पन्न हुए, परन्तु देखो, वह कौडिल
ब्रह्मचारी, जिसको गंगेशील कहते हैं,
वह बड़े महान थे। उन बालकों को, उन पुत्रों को अपनी शिक्षा
देने लगे। और जो राष्ट्र पुरोहित होता था,उसको इस आचार्य पद
पर नियुक्त कर दिया जाता था, और व्यास मुनि राष्ट्र पुरोहित
हुए। पारा मुनि ने भी इन दोनों बालकों को शिक्षा दी।
माता कुंती
आगे कैसा काल आ रहा और वह क्या उच्च काल था, कि माता जिस प्रकार सन्तान को बनाना चाहे, बना सकती
है। यह उदाहरण उस वैदिक काल का है। मुनिवरों! राजा कुन्तेश्वर राजा थे और उनके
केवल एक कन्या थी जिसका नाम कुन्ती था।
पूज्य महानन्द जीः गुरु जी! यह तो आप कल ही
उच्चारण कर रहे थे। यह तो आपकी तुकबन्दी हो गई और देखो, आपने
कुन्त राजा की पुत्री का नाम भी कुन्ती उच्चारण कर दिया।
पूज्यपाद गुरुदेवः अरे बेटा! यह तो कोई वाक्य
नहीं।गुरु जी ने कल भी कहा य मच्छोदरीनाम बताया था अच्छा महानन्द जी, विनोद
की बातें तो फिर होंगी। इस समय कृपा कीजिए अच्छा मुनिवरों! हम कह रहे थे कि माता
ब्रह्मस्नेह तो उनकी वह कन्या महान सुशील थी। इस प्रकार मधुर माता की तदनुरूप
सुशील कन्या थी। उनकी इच्छा हुई कि इसको इस प्रकार की शिक्षा दी जाए जिससे यह
ज्ञानवान और सुयोग्य हो, क्योंकि बिना ज्ञान कोई सुयोग्य
नहीं बन सकता। तब कुन्त राजा ने खोज की और भृगु ऋषि के पास पहुंचे और पूछा कि वृद्ध महान
आत्माओं से वह कोई शिक्षा पा सकते हैं। उस समय राष्ट्र में महान बन था और
उस भयंकर वन में करूड़ नाम के ब्रह्मचारी
रहा करते थे। ऐसा सुना जाता है कि इतनी अवस्था होने से पर्जन्य नाम के ब्रह्मचारी
आदित्य नाम से कहे जाते थे। वृद्ध राजा ने सोचा मेरी कन्या यहाँ हर प्रकार से
शिक्षा पा सकती है। उस समय उनकी आयु २८४ वर्ष की थी। ऋषि से निवेदन किया और अपनी
इच्छा को बताया कि मैं अपनी कन्या को आपके आश्रम में नियुक्त करना चाहता हूँ। ऋषि
ने आज्ञा दी, हमें स्वीकार है और वह कन्या उस आश्रम में रहने
लगी। ऋषि ने बाल्यावस्था से व्याकरण का पूर्ण ज्ञान दिया और बाद में सब विद्याओं
से सम्पन्न हो गई और फिर यौवन को प्राप्त हुई और बहुत तेजस्वी ब्रह्मचारिणी सब
विद्याओं में पारंगत हो गई।
उस समय कुछ ऐसा कारण हुआ कि वहाँ श्वेतमुनि आ
पहुंचे। श्वेत नाम के ब्रह्मचारी ने सोचा ,वह उस समय युवा थे,
महान तेजस्वी थे। यह माया मानव को दुर्भाग्य से कहाँ की कहाँ पहुंचा
देती है, और कहाँ तक इसको तुच्छ बना देती है। उस महान
ब्रह्मचारी ने उस महर्षि के आश्रम में, जब उस युवा, सुशील कन्या को देखा तो उनके मन में तीव्र गति पैदा हुई और उनके मन की जो
आकृति थी उस अवस्था में, जब उस कन्या ने, उस तेजस्वी ब्रह्मचारी बालक को देखा, तो उस काल में
ऋतुमति थी, उन दोनों ने एक दूसरे को देखा जब कुछ काल पश्चात्
ब्रह्मचारी ने पुनः कन्या को देखा तो अनुभव हुआ कि उनसे ऋषि भूमि में कितना बड़ा
मानसिक पाप हुआ है। उस समय उसने ऐसा नियम बनाया कि मार्ग में जा रहा हूँ और बारह
वर्ष कोई अन्न का भक्षण नहीं करूंगा, तब यह पाप शांत होगा।
क्योंकि यह महान पाप मेरे जो अन्तःकरण में विराजमान हो गया है, आगे जन्मों में न जाने किन किन योनियों में प्रविष्ट होना पड़ेगा। इसलिए
मेरा कर्त्तव्य है कि मुझे उपवास करना चाहिए और पर्वतों में भ्रमण करना चाहिए।
वास्तव में उस पाप की उनहोंने जो अन्तःकरण
द्वारा हो गया था, उसकी क्षमा मांग ली और पर्वतों आदि का
भ्रमण, उपवास रख कर आरम्भ कर दिया।
जब उस ब्रह्मचारिणी को ज्ञात हुआ कि तुमने
महान पाप किया है तो सोचने लगी, क्या करना चाहिए। अज्ञान के
कारण मन से पाप निकल गया था, सो अपने गुरु से सब बताया और
उनसे पूछा कि भगवन्! अब मैं क्या करूं? तो गुरु ने कहा कि
मैं क्या कर सकता हूँ, अब ऐसा करो, कि
जब बालक उत्पन्न हो, तो उसको ऐसी शिक्षा दो, कि वह योग्य बने। ऐसा प्रयत्न करना चाहिए।
उस कन्या ने गुरु आदेशानुसार जब गर्भ मे बालक
था तभी से सूर्यका जाप करना आरम्भ कर दिया और याचन आरम्भ की, कि यह बालक महान,
बलवान, योग्य, विद्वान
हो। तो उस कन्या के हृदय में यह भावना उत्पन्न हुई कि जैसे सूर्य इन तीनों लोकों
में अपने तप और प्रकाश से उज्ज्वल है, वैसा ही यह बालक हो।
तो मुनिवरो, उस कन्या
के कुछ समय पश्चात् बालक उत्पन्न हुआ, और गुरु जी को बताया
कि अब जब पिता के गृह में जाऊंगी, तो बड़ा पाप होगा। अब मुझे
क्या करना चाहिए। गुरु जी ने कहा-तो अच्छा पुत्री! तुम कुशा का आसन बनाओ,और उस पर पुत्र को प्रविष्ट करके, गंगा में तिलांजलि
दे दो। उस समय उस महान देवी ने उस बालक को कुशा आसन लगा, प्रविष्ट
कर गंगा में तिलांजलि दे दी और कहा हे गंगा! यह बालक तेरा है, मेरा नहीं। वह बालक बहते बहते उसी श्वेत मुनि के आश्रम के पास, जो गंगा के किनारे था, देखा गया, उसके शिष्य मण्डल ने कुशा से उस बालक को निकाल कर अपने गुरु श्वेत नाम के
थे उनके पास गए। तो उस ब्रह्मचारी के आगे उसी ब्रह्मचारी द्वारा ,उस बालक ने शिक्षा पाई।
आगे बेटा! हमारा व्याख्यान था कि उस माता ने
सूर्य के तप से तथा प्रार्थना से जो बालक को तेजस्वी तथा बलवान बनान की योजना थी, उसे गंगा में प्रविष्ट कर, गुरु की आज्ञानुसार गंगा
में त्याग दिया। भगवान से प्रार्थना की और तब गुरु ने आदेश दिया कि अब तुम एक वर्ष
पर्यन्त कोई अन्न भक्षण के रहित भगवान से प्रार्थना करो,
जिससे इस पाप से क्षमा पाओगी।
तो
उस देवी ने एक वर्ष पर्यन्त वनस्पति आदि का आहार किया और अन्न को त्याग कर गायत्री
का जाप तथा वादन किया। उससे उसका पाप क्षमा हो गया। यह है हमारा आज का आदेश, जिस पर मुनिवरों! आपको विचार करना चाहिए कि हमारी दो माताएं तो ये हुई। वास्तव में माताएं तीन है। जननी माता यदि
चाहे तो बालक को गर्भाशय से ही शिक्षा देकर, मोक्ष द्वार तक
पहुंचा सकती है। जैसे व्यास मुनि की माता जी ने उनको कैसा महान बना दिया, कैसा परिपक्व बनाया,अन्तः काल तक वेदों का पाठ,
शास्त्रों और गायत्री का पाठ करते रहे।यह है हमारा आज का आदेश, हमारे व्याख्यान का अभिप्राय यह कि जैसा वाक्य है उसको वैसा मान लेने में
हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
पूज्य महानन्द जीः “गुरु जी! यह तो आपने और
भी भ्रांतिजनक बात कह दी, उच्चारण कर दिया। हमने ऐसा सुना है, कि ऋषि के स्थान पर जब वह कन्या रहा करती थी, तो
दुर्वासा मुनि ने इनको भय दिया। सूर्य का जाप तो विनोद है। क्यों, अभी तो आपको जाना नहीं, और विनोद की बात तो कल होनी
थी, गुरु जी! हमारे प्रश्नों का उत्तर दीजिए।“
पूज्यपाद गुरुदेवः “अरे अब समय नहीं।“
पूज्य महानन्द जीः “जैसी आपकी आज्ञा।“
पूज्यपाद गुरुदेवः मुनिवरो! महानन्द जी
प्रश्न कर रहे थे और अब समय नहीं, कल हमारा जो वाक्य होगा
उसमें पूर्ण रूप से वर्णन होगा, और कुछ हमारा दार्शनिक विषय
होगा,अब हमारा व्याख्यान समाप्त होगा और क्योंकि महानन्द जी की इच्छा आज भी पूर्ण नहीं होगी।
पूज्य महानन्द जीः वह,
जैसे भगवन्! तुम्हारी इच्छा, वही करोगे।
पूज्यपाद गुरुदेवः बेटा! मधुपाठ करेंगे और कल
ऐसा करेंगे, कि प्रारम्भ में मधुपाठ कर देंगे तुम्हारे समक्ष
पूज्य महानन्द जीः अच्छा भगवन्! जैसी आपकी
इच्छा। हम तो प्रार्थना ही कर सकते हैं, प्रार्थना को
स्वीकार करना न करना,यह तो आपका ही कर्त्तव्य है|परन्तु आप सब वार्त्ता समाप्त कर देते हैं।
पूज्यपाद गुरुदेवः अच्छा मुनिवरों! अब हमारा
आदेश समाप्त हुआ। कल हमारा आदेश इससे आगे उच्चारण होगा। अब वेदों का पाठ होगा और
इसके पश्चात् वार्त्ता समाप्त होगी। वेद पाठ लोधी रोड, नई
दिल्ली